Friday, December 2, 2011

फूलों का कुर्ता - यशपाल

हमारे यहां गांव बहुत छोटे-छोटे हैं। कहीं-कहीं तो बहुत ही छोटे, दस-बीस घर से लेकर पांच-छह घर तक और बहुत पास-पास। एक गांव पहाड़ की तलछटी में है तो दूसरा उसकी ढलान पर।

बंकू साह की छप्पर से छायी दुकान गांव की सभी आवश्कताएं पूरी कर देती है। उनकी दुकान का बरामदा ही गांव की चौपाल या क्लब है। बरामदे के सामने दालान में पीपल के नीचे बच्चे खेलते हैं और ढोर बैठकर जुगाली भी करते रहते हैं।

सुबह से जारी बारिश थमकर कुछ धूप निकल आई थी। घर में दवाई के लिए कुछ अजवायन की जरूरत थी। घर से निकल पड़ा कि बंकू साह के यहां से ले आऊं।

बंकू साह की दुकान के बरामदे में पांच-सात भले आदमी बैठे थे। हुक्का चल रहा था। सामने गांव के बच्चे कीड़ा-कीड़ी का खेल खेल रहे थे। साह की पांच बरस की लड़की फूलो भी उन्हीं में थी।

पांच बरस की लड़की का पहनना और ओढ़ना क्या। एक कुर्ता कंधे से लटका था। फूलो की सगाई गांव से फर्लांग भर दूर चूला गांव में संतू से हो गई थी। संतू की उम्र रही होगी, यही सात बरस। सात बरस का लड़का क्या करेगा। घर में दो भैंसें, एक गाय और दो बैल थे। ढोर चरने जाते तो संतू छड़ी लेकर उन्हें देखता और खेलता भी रहता, ढोर काहे को किसी के खेत में जाएं। सांझ को उन्हें घर हांक लाता।

बारिश थमने पर संतू अपने ढोरों को ढलवान की हरियाली में हांक कर ले जा रहा था। बंकू साह की दुकान के सामने पीपल के नीचे बच्चों को खेलते देखा, तो उधर ही आ गया।

संतू को खेल में आया देखकर सुनार का छह बरस का लड़का हरिया चिल्ला उठा। आहा! फूलो का दूल्हा आया है। दूसरे बच्चे भी उसी तरह चिल्लाने लगे।

बच्चे बड़े-बूढ़ों को देखकर बिना बताए-समझाए भी सब कुछ सीख और जान जाते हैं। फूलो पांच बरस की बच्ची थी तो क्या, वह जानती थी, दूल्हे से लज्जा करनी चाहिए। उसने अपनी मां को, गांव की सभी भली स्त्रियों को लज्जा से घूंघट और पर्दा करते देखा था। उसके संस्कारों ने उसे समझा दिया, लज्जा से मुंह ढक लेना उचित है। बच्चों के चिल्लाने से फूलो लजा गई थी, परंतु वह करती तो क्या। एक कुरता ही तो उसके कंधों से लटक रहा था। उसने दोनों हाथों से कुरते का आंचल उठाकर अपना मुख छिपा लिया।

छप्पर के सामने हुक्के को घेरकर बैठे प्रौढ़ आदमी फूलो की इस लज्जा को देखकर कहकहा लगाकर हंस पड़े। काका रामसिंह ने फूलो को प्यार से धमकाकर कुरता नीचे करने के लिए समझाया। शरारती लड़के मजाक समझकर हो-हो करने लगे।

बंकू साह के यहां दवाई के लिए थोड़ी अजवायन लेने आया था, परंतु फूलो की सरलता से मन चुटिया गया। यों ही लौट चला। बदली परिस्थिति में भी परंपरागत संस्कार से ही नैतिकता और लज्जा की रक्षा करने के प्रयत्न में क्या से क्या हो जाता है।

सिक्का बदल गया - कृष्णा सोबती

खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुंची तो पौ फट रही थी। दूर-दूर आसमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रक्खे और 'श्रीराम, श्रीराम' करती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार किया, अपनी उनीदी आंखों पर छींटे दिये और पानी से लिपट गयी!

चनाब का पानी आज भी पहले-सा ही सर्द था, लहरें लहरों को चूम रही थीं। वह दूर सामने काश्मीर की पहाड़ियों से बंर्फ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भंवरों से टकराकर कगारे गिर रहे थे लेकिन दूर-दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों खामोश लगती थी! शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाई तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पांवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी!

आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहां नहाती आ रही है। कितना लम्बा अरसा है! शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दुनिया के किनारे वह दुलहिन बनकर उतरी थी। और आज...आज शाहजी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहींयह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका! शाहनी ने लम्बी सांस ली और 'श्री राम, श्री राम', करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली। कहीं-कहीं लिपे-पुते आंगनों पर से धुआं उठ रहा था। टनटनबैलों, की घंटियां बज उठती हैं। फिर भी...फिर भी कुछ बंधा-बंधा-सा लग रहा है। 'जम्मीवाला' कुआं भी आज नहीं चल रहा। ये शाहजी की ही असामियां हैं। शाहनी ने नंजर उठायी। यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं। भरी-भरायी नई फसल को देखकर शाहनी किसी अपनत्व के मोह में भीग गयी। यह सब शाहजी की बरकतें हैं। दूर-दूर गांवों तक फैली हुई जमीनें, जमीनों में कुएं सब अपने हैं। साल में तीन फसल, जमीन तो सोना उगलती है। शाहनी कुएं की ओर बढ़ी, आवांज दी, ''शेरे, शेरे, हसैना हसैना...।''

शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है। वह न पहचानेगा! अपनी मां जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ। उसने पास पड़ा गंडासा 'शटाले' के ढेर के नीचे सरका दिया। हाथ में हुक्का पकड़कर बोला''ऐ हैसैना-सैना...।'' शाहनी की आवांज उसे कैसे हिला गयी है! अभी तो वह सोच रहा था कि उस शाहनी की ऊंची हवेली की अंधेरी कोठरी में पड़ी सोने-चांदी की सन्दूकचियां उठाकर...कि तभी 'शेरे शेरे...। शेरा गुस्से से भर गया। किस पर निकाले अपना क्रोध? शाहनी पर! चीखकर बोला''ऐ मर गयीं एं एब्ब तैनू मौत दे''

हसैना आटेवाली कनाली एक ओर रख, जल्दी-जल्दी बाहिर निकल आयी। ''ऐ आयीं आं क्यों छावेले (सुबह-सुबह) तड़पना एं?''

अब तक शाहनी नंजदीक पहुंच चुकी थी। शेरे की तेजी सुन चुकी थी। प्यार से बोली, ''हसैना, यह वक्त लड़ने का है? वह पागल है तो तू ही जिगरा कर लिया कर।''

''जिगरा !'' हसैना ने मान भरे स्वर में कहा''शाहनी, लड़का आंखिर लड़का ही है। कभी शेरे से भी पूछा है कि मुंह अंधेरे ही क्यों गालियां बरसाई हैं इसने?'' शाहनी ने लाड़ से हसैना की पीठ पर हाथ फेरा, हंसकर बोली''पगली मुझे तो लड़के से बहू प्यारी है! शेरे''

''हां शाहनी!''

''मालूम होता है, रात को कुल्लूवाल के लोग आये हैं यहां?'' शाहनी ने गम्भीर स्वर में कहा।

शेरे ने जरा रुककर, घबराकर कहा, ''नहीं शाहनी...'' शेरे के उत्तर की अनसुनी कर शाहनी जरा चिन्तित स्वर से बोली, ''जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा नहीं। शेरे, आज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर...'' शाहनी कहते-कहते रुक गयी। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गये, परपर आज कुछ पिघल रहा है शायद पिछली स्मृतियां...आंसुओं को रोकने के प्रयत्न में उसने हसैना की ओर देखा और हल्के-से हंस पड़ी। और शेरा सोच ही रहा है, क्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा क्यों न हो? हमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियां तोला करते थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आंखों में उतर आयी। गंड़ासे की याद हो आयी। शाहनी की ओर देखानहीं-नहीं, शेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस कत्ल कर चुका है परपर वह ऐसा नीच नहीं...सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के हाथ उसकी आंखों में तैर गये। वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डांट खाके वह हवेली में पड़ा रहता था। और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए 'शेरे-शेरे, उठ, पी ले।' शेरे ने शाहनी के झुर्रियां पड़े मुंह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया। 'आंखिर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गयी, वह शाहनी को जरूर बचाएगा। लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फिरोंज की बात! 'सब कुछ ठीक हो जाएगासामान बांट लिया जाएगा!'

''शाहनी चलो तुम्हें घर तक छोड़ आऊं!''

शाहनी उठ खड़ी हुई। किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे मंजबूत कदम उठाता शेरा चल रहा है। शंकित-सा-इधर उधर देखता जा रहा है। अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूंज रही हैं। पर क्या होगा शाहनी को मारकर?

''शाहनी!''

''हां शेरे।''

शेरा चाहता है कि सिर पर आने वाले खतरे की बात कुछ तो शाहनी को बता दे, मगर वह कैसे कहे?''

''शाहनी''

शाहनी ने सिर ऊंचा किया। आसमान धुएं से भर गया था। ''शेरे''

शेरा जानता है यह आग है। जबलपुर में आज आग लगनी थी लग गयी! शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते रिश्ते सब वहीं हैं

हवेली आ गयी। शाहनी ने शून्य मन से डयोढ़ी में कदम रक्खा। शेरा कब लौट गया उसे कुछ पता नहीं। दुर्बल-सी देह और अकेली, बिना किसी सहारे के! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दुपहर आयी और चली गयी। हवेली खुली पड़ी है। आज शाहनी नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अधिकार आज स्वयं ही उससे छूट रहा है! शाहजी के घर की मालकिन...लेकिन नहीं, आज मोह नहीं हट रहा। मानो पत्थर हो गयी हो। पड़े-पड़े सांझ हो गयी, पर उठने की बात फिर भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसूली की आवांज सुनकर चौंक उठी।

''शाहनी-शाहनी, सुनो ट्रकें आती हैं लेने?''

''ट्रके...?'' शााहनी इसके सिवाय और कुछ न कह सकी। हाथों ने एक-दूसरे को थाम लिया। बात की बात में खबर गांव भर में फैल गयी। बीबी ने अपने विकृत कण्ठ से कहा''शाहनी, आज तक कभी ऐसा न हुआ, न कभी सुना। गजब हो गया, अंधेर पड़ गया।''

शाहनी मूर्तिवत् वहीं खड़ी रही। नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा''शाहनी, हमने तो कभी न सोचा था!''

शाहनी क्या कहे कि उसीने ऐसा सोचा था। नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दी। शाहनी समझी कि वक्त आन पहुंचा। मशीन की तरह नीचे उतरी, पर डयोढ़ी न लांघ सकी। किसी गहरी, बहुत गहरी आवांज से पूछा''कौन? कौन हैं वहां?''

कौन नहीं है आज वहां? सारा गांव है, जो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असामियां हैं जिन्हें उसने अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेकिन नहीं, आज उसका कोई नहीं, आज वह अकेली है! यह भीड़ की भीड़, उनमें कुल्लूवाल के जाट। वह क्या सुबह ही न समझ गयी थी?

बेगू पटवारी और मसीत के मुल्ला इस्माइल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के निकट आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की ओर देख नहीं पा रहा। धीरे से जरा गला सांफ करते हुए कहा''शाहनी, रब्ब नू एही मंजूर सी।''

शाहनी के कदम डोल गये। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गयी। इसी दिन के लिए छोड़ गये थे शाहजी उसे? बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है 'क्या गुंजर रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है...'

शाहनी का घर से निकलना छोटी-सी बात नहीं। गांव का गांव खड़ा है हवेली के दरवाजे से लेकर उस दारे तक जिसे शाहजी ने अपने पुत्र की शादी में बनवा दिया था। तब से लेकर आज तक सब फैसले, सब मशविरे यहीं होते रहे हैं। इस बड़ी हवेली को लूट लेने की बात भी यहीं सोची गयी थी! यह नहीं कि शाहनी कुछ न जानती हो। वह जानकर भी अनजान बनी रही। उसने कभी बैर नहीं जाना। किसी का बुरा नहीं किया। लेकिन बूढ़ी शाहनी यह नहीं जानती कि सिक्का बदल गया है...

देर हो रही थी। थानेदार दाऊद खां जरा अकड़कर आगे आया और डयोढ़ी पर खड़ी जड़ निर्जीव छाया को देखकर ठिठक गया! वही शाहनी है जिसके शाहजी उसके लिए दरिया के किनारे खेमे लगवा दिया करते थे। यह तो वही शाहनी है जिसने उसकी मंगेतर को सोने के कनफूल दिये थे मुंह दिखाई में। अभी उसी दिन जब वह 'लीग' के सिलसिले में आया था तो उसने उद्दंडता से कहा था'शाहनी, भागोवाल मसीत बनेगी, तीन सौ रुपया देना पड़ेगा!' शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपये दिये थे। और आज...?

''शाहनी!'' डयोढ़ी के निकट जाकर बोला''देर हो रही है शाहनी। (धीरे से) कुछ साथ रखना हो तो रख लो। कुछ साथ बांध लिया है? सोना-चांदी''

शाहनी अस्फुट स्वर से बोली''सोना-चांदी!'' जरा ठहरकर सादगी से कहा''सोना-चांदी! बच्चा वह सब तुम लोगों के लिए है। मेरा सोना तो एक-एक जमीन में बिछा है।''

दाऊद खां लज्जित-सा हो गया। ''शाहनी तुम अकेली हो, अपने पास कुछ होना जरूरी है। कुछ नकदी ही रख लो। वक्त का कुछ पता नहीं''

''वक्त?'' शाहनी अपनी गीली आंखों से हंस पड़ी। ''दाऊद खां, इससे अच्छा वक्त देखने के लिए क्या मैं जिन्दा रहूंगी!'' किसी गहरी वेदना और तिरस्कार से कह दिया शाहनी ने।

दाऊद खां निरुत्तर है। साहस कर बोला''शाहनी कुछ नकदी जरूरी है।''

''नहीं बच्चा मुझे इस घर से''शाहनी का गला रुंध गया''नकदी प्यारी नहीं। यहां की नकदी यहीं रहेगी।''

शेरा आन खड़ा गुजरा कि हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से। ''खां साहिब देर हो रही है''

शाहनी चौंक पड़ी। देरमेरे घर में मुझे देर ! आंसुओं की भँवर में न जाने कहाँ से विद्रोह उमड़ पड़ा। मैं पुरखों के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए...नहीं, यह सब कुछ नहीं। ठीक हैदेर हो रही हैपर नहीं, शाहनी रो-रोकर नहीं, शान से निकलेगी इस पुरखों के घर से, मान से लाँघेगी यह देहरी, जिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आंखें पोछीं और डयोढ़ी से बाहर हो गयी। बडी-बूढ़ियाँ रो पड़ीं। किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! खुदा ने सब कुछ दिया था, मगरमगर दिन बदले, वक्त बदले...

शाहनी ने दुपट्टे से सिर ढाँपकर अपनी धुंधली आंखों में से हवेली को अन्तिम बार देखा। शाहजी के मरने के बाद भी जिस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा आज वह उसे धोखा दे गयी। शाहनी ने दोनों हाथ जोड़ लिए यही अन्तिम दर्शन था, यही अन्तिम प्रणाम था। शाहनी की आंखें फिर कभी इस ऊंची हवेली को न देखी पाएंगी। प्यार ने जोर मारासोचा, एक बार घूम-फिर कर पूरा घर क्यों न देख आयी मैं? जी छोटा हो रहा है, पर जिनके सामने हमेशा बड़ी बनी रही है उनके सामने वह छोटी न होगी। इतना ही ठीक है। बस हो चुका। सिर झुकाया। डयोढ़ी के आगे कुलवधू की आंखों से निकलकर कुछ बन्दें चू पड़ीं। शाहनी चल दीऊंचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया। दाऊद खां, शेरा, पटवारी, जैलदार और छोटे-बड़े, बच्चे, बूढ़े-मर्द औरतें सब पीछे-पीछे।

ट्रकें अब तक भर चुकी थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गांववालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है। शेरे, खूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद खां ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवांजा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी आवांज से कहा'' शाहनी, कुछ कह जाओ। तुम्हारे मुंह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!'' और अपने साफे से आंखों का पानी पोछ लिया। शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा, ''रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चा, खुशियां बक्शे...।''

वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया। जरा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हमहम शाहनी को नहीं रख सके। शेरे ने बढ़कर शाहनी के पांव छुए, ''शाहनी कोई कुछ कर नहीं सका। राज भी पलट गया'' शाहनी ने कांपता हुआ हाथ शेरे के सिर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा''तैनू भाग जगण चन्ना!'' (ओ चा/द तेरे भाग्य जागें) दाऊद खां ने हाथ का संकेत किया। कुछ बड़ी-बूढ़ियां शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी।

अन्न-जल उठ गया। वह हवेली, नई बैठक, ऊंचा चौबारा, बड़ा 'पसार' एक-एक करके घूम रहे हैं शाहनी की आंखों में! कुछ पता नहींट्रक चल दिया है या वह स्वयं चल रही है। आंखें बरस रही हैं। दाऊद खां विचलित होकर देख रहा है इस बूढ़ी शाहनी को। कहां जाएगी अब वह?

''शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वकत ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है...''

रात को शाहनी जब कैंप में पहुंचकर जमीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा 'राज पलट गया है...सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आयी।...'

और शाहजी की शाहनी की आंखें और भी गीली हो गयीं!

आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गांवों में रात खून बरसा रही थी।

शायद राज पलटा भी खा रहा था और सिक्का बदल रहा था...

लिहाफ - इस्मत चुगताई

जब मैं जाडों में लिहाफ ओढती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है। और एकदम से मेरा दिमाग बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौड़ने-भागने लगता है। न जाने क्या कुछ याद आने लगता है।

माफ कीजियेगा, मैं आपको खुद अपने लिहाफ क़ा रूमानअंगेज ज़िक़्र बताने नहीं जा रही हूँ, न लिहाफ से किसी किस्म का रूमान जोडा ही जा सकता है। मेरे खयाल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी - जब लिहाफ क़ी परछाई दीवार पर डगमगा रही हो। यह जब का जिक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुजार दिया करती थी। कभी - कभी मुझे खयाल आता कि मैं कमबख्त इतनी लडाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये हर लडक़े और लडक़ी से जूतम-पैजार में मशगूल थी। यही वजह थी कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं तो हफ्ता-भर के लिए मुझे अपनी एक मुँहबोली बहन के पास छोड ग़यीं। उनके यहाँ, अम्माँ खूब जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड-भिड न सकँूगी। सजा तो खूब थी मेरी! हाँ, तो अम्माँ मुझे बेगम जान के पास छोड ग़यीं। वही बेगम जान जिनका लिहाफ अब तक मेरे जहन में गर्म लोहे के दाग की तरह महफूज है। ये वो बेगम जान थीं जिनके गरीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना लिया कि गो वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक। कभी कोई रण्डी या बाजारी औरत उनके यहाँ नजर न आयी। खुद हाजी थे और बहुतों को हज करा चुके थे।

मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक था। लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लडाते हैं, मुर्गबाजी क़रते हैं - इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफरत थी। उनके यहाँ तो बस तालिब इल्म रहते थे। नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लडक़े, जिनका खर्च वे खुद बर्दाश्त करते थे।

मगर बेगम जान से शादी करके तो वे उन्हें कुल साजाे-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गये। और वह बेचारी दुबली-पतली नाजुक़-सी बेगम तन्हाई के गम में घुलने लगीं। न जाने उनकी जिन्दगी कहाँ से शुरू होती है? वहाँ से जब वह पैदा होने की गलती कर चुकी थीं, या वहाँ से जब एक नवाब की बेगम बनकर आयीं और छपरखट पर जिन्दगी गुजारने लगीं, या जब से नवाब साहब के यहाँ लडक़ों का जोर बँधा। उनके लिए मुरग्गन हलवे और लजीज़ ख़ाने जाने लगे और बेगम जान दीवानखाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लडक़ों की चुस्त पिण्डलियाँ और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं।

या जब से वह मन्नतों-मुरादों से हार गयीं, चिल्ले बँधे और टोटके और रातों की वजीफ़ाख्वानी भी चित हो गयी। कहीं पत्थर में जोंक लगती है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए। फिर बेगम जान का दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज्जा हुई। लेकिन यहाँ भी उन्हें कुछ न मिला। इश्किया नावेल और जज्बाती अशआर पढक़र और भी पस्ती छा गयी। रात की नींद भी हाथ से गयी और बेगम जान जी-जान छोडक़र बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गयीं।

चूल्हे में डाला था ऐसा कपडा-लत्ता। कपडा पहना जाता है किसी पर रोब गाँठने के लिए। अब न तो नवाब साहब को फुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोडक़र जरा इधर तवज्जा करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते। जब से बेगम जान ब्याहकर आयी थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और चले जाते, मगर वह बेचारी कैद की कैद रहतीं।

उन रिश्तेदारों को देखकर और भी उनका खून जलता था कि सबके-सब मजे से माल उडाने, उम्दा घी निगलने, जाडे क़ा साजाे-सामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नई रूई के लिहाफ के, पडी सर्दी में अकडा करतीं। हर करवट पर लिहाफ नयीं-नयीं सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता। मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें जिन्दा रखने लिए काफी हो। मगर क्यों जिये फिर कोई? जिन्दगी! बेगम जान की जिन्दगी जो थी! जीना बंदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और खूब जीं।

रब्बो ने उन्हें नीचे गिरते-गिरते सँभाल लिया। चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म भरना शुरू हुआ। गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला। एक अजीबो-गरीब तेल की मालिश से बेगम जान में जिन्दगी की झलक आयी। माफ क़ीजियेगा, उस तेल का नुस्खा आपको बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा।

जब मैंने बेगम जान को देखा तो वह चालीस-बयालीस की होंगी। ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर नीमदराज थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी। एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पडा था और वह महारानी की तरह शानदार मालूम हो रही थीं। मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा पसन्द थी। मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी सूरत देखा करूँ। उनकी रंगत बिल्कुल सफेद थी। नाम को सुर्खी का जिक़्र नहीं। और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे। मैंने आज तक उनकी माँग ही बिगडी न देखी। क्या मजाल जो एक बाल इधर-उधर हो जाये। उनकी आँखें काली थीं और अबरू पर के जायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सीं खिंची होती थीं। आँखें जरा तनी हुई रहती थीं। भारी-भारी फूले हुए पपोटे, मोटी-मोटी पलकें। सबसे जियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज ज़ाजिबे-नजर चीज थी, वह उनके होंठ थे। अमूमन वह सुर्खी से रंगे रहते थे। ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मँूछें-सी थीं और कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल। कभी-कभी उनका चेहरा देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था - कम उम्र लडक़ों जैसा।

उनके जिस्म की जिल्द भी सफेद और चिकनी थी। मालूम होता था किसी ने कसकर टाँके लगा दिये हों। अमूमन वह अपनी पिण्डलियाँ खुजाने के लिए किसोलतीं तो मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती। उनका कद बहुत लम्बा था और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौडी मालूम होतीं थीं। लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था। बडे-बडे चिकने और सफेद हाथ और सुडौल कमर ..तो रब्बो उनकी पीठ खुजाया करती थी। यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती - पीठ खुजाना भी जिन्दगी की जरूरियात में से था, बल्कि शायद जरूरियाते-जिन्दगी से भी ज्यादा।

रब्बो को घर का और कोई काम न था। बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढी क़भी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी। कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है।

कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूँ, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड-ग़ल के खत्म हो जाय। और फिर यह रोज-रोज क़ी मालिश काफी नहीं थीं। जिस रोज बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती। और इतनी होती कि मेरा तो तखय्युल से ही दिल लोट जाता। कमरे के दरवाजे बन्द करके अँगीठियाँ सुलगती और चलता मालिश का दौर। अमूमन
सिर्फ रब्बो ही रही। बाकी की नौकरानियाँ बडबडातीं दरवाजे पर से ही, जरूरियात की चीजें देती जातीं।

बात यह थी कि बेगम जान को खुजली का मर्ज था। बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हजारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर खुजली थी कि कायम। डाक्टर -हकीम कहते, ''कुछ भी नहीं, जिस्म साफ चट पडा है। हाँ, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर।'' नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नजरों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली। जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख। बस जैसे तपाया हुआ लोहा। हल्के-हल्के चेचक के दाग। गठा हुआ ठोस जिस्म। फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ। कसी हुई छोटी-सी तोंद। बडे-बडे फ़ूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे। और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गये कूल्हों पर! वहाँ से रपटे रानों पर और फिर दौडे टखनों की तरफ! मैं तो जब कभी बेगम जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहाँ हैं और क्या कर रहें हैं?

गर्मी-जाडे बेगम जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं। गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते। और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई जरूर जिस्म पर ढके रहती थीं। उन्हें जाडा बहुत पसन्द था। जाडे में मुझे उनके यहाँ अच्छा मालूम होता। वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं। कालीन पर लेटी हैं, पीठ खुज रही हैं, खुश्क मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियाँ खार खाती थीं। चुडैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौजँू थीं। जहाँ उन दोनों का जिक़्र आया और कहकहे उठे। लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उडाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी। वहाँ तो बस वह थीं और उनकी खुजली!

मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा। वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। इत्तेफाक से अम्माँ आगरे गयीं। उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूँगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेगम जान के पास छोड ग़यीं। मैं भी खुश और बेगम जान भी खुश। आखिर को अम्माँ की भाभी बनी हुई थीं।

सवाल यह उठा कि मैं सोऊँ कहाँ? कुदरती तौर पर बेगम जान के कमरे में। लिहाजा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलँगडी ड़ाल दी गयी। दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे। मैं और बेगम जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गयी। और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ खुजा रही थी। भंगन कहीं की! मैंने सोचा। रात को मेरी एकदम से आँख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा। कमरे में घुप अँधेरा। और उस अँधेरे में बेगम जान का लिहाफ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी
बन्द हो!
''बेगम जान!'' मैंने डरी हुई आवाज निकाली। हाथी हिलना बन्द हो गया। लिहाफ नीचे दब गया।
''क्या है? सो जाओ।''
बेगम जान ने कहीं से आवाज दी।
''डर लग रहा है।''
मैंने चूहे की-सी आवाज से कहा।
''सो जाओ। डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ लो।''
''अच्छा।''
मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढी। मगर यालमू मा बीन पर हर दफा आकर अटक गयी। हालाँकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है।
''तुम्हारे पास आ जाऊँ बेगम जान?''
''नहीं बेटी, सो रहो।'' जरा सख्ती से कहा।
और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज सुनायी देने लगी। हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी।
''बेगम जान, चोर-वोर तो नहीं?''
''सो जाओ बेटा, कैसा चोर?''
रब्बो की आवाज आयी। मैं जल्दी से लिहाफ में मुँह डालकर सो गयी।
सुबह मेरे जहन में रात के खौफनाक नज्ज़ारे का खयाल भी न रहा। मैं हमेशा की वहमी हूँ। रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बडबडाना तो बचपन में रोज ही होता था। सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है। लिहाजा मुझे खयाल भी न रहा। सुबह को लिहाफ बिल्कुल मासूम नजर आ रहा था।
मगर दूसरी रात मेरी आँख खुली तो रब्बो और बेगम जान में कुछ झगडा बडी ख़ामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था। और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियाँ लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड-सपड रकाबी चाटने-जैसी आवाजें आने लगीं, ऊँह! मैं तो घबराकर सो गयी।

आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गयी हुई थी। वह बडा झगडालू था। बहुत कुछ बेगम जान ने किया - उसे दुकान करायी, गाँव में लगाया, मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था। नवाब साहब के यहाँ कुछ दिन रहा, खूब जोडे-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता। लिहाजा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ उससे मिलने गयी थीं। बेगम जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मजबूर हो गयी। सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं। उनका जोड-ज़ोड टूटता रहा। किसी का छूना भी उन्हें न भाता था। उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पडी रहीं।
''मैं खुजा दूँ बेगम जान?''
मैंने बडे शौक से ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा। बेगम जान मुझे गौर से देखने लगीं।
''मैं खुजा दूँ? सच कहती हूँ!''
मैंने ताश रख दिये।
मैं थोडी देर तक खुजाती रही और बेगम जान चुपकी लेटी रहीं। दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी। बेगम जान का मिजाज चिडचिडा होता गया। चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया। मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज क़ी तख्ती-जैसी पीठ। मैं हौले-हौले खुजाती रही। उनका काम करके कैसी खुशी होती थी!
''जरा जाेर से खुजाओ। बन्द खोल दो।'' बेगम जान बोलीं, ''इधर ..एे है, जरा शाने से नीचे ..हाँ ...वाह भइ वाह! हा!हा!'' वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी साँसें लेकर इत्मीनान जाहिर करने लगीं।
''और इधर ...'' हालाँकि बेगम जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था। ''यहाँ ..ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो ..वाह!'' वह हँसी। मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी।
''तुम्हें कल बाजार भेजँूगी। क्या लोगी? वही सोती-जागती गुडिया?''
''नहीं बेगम जान, मैं तो गुडिया नहीं लेती। क्या बच्चा हूँ अब मैं?''
''बच्चा नहीं तो क्या बूढी हो गयी?'' वह हँसी ''गुडिया नहीं तो बनवा लेना कपडे, पहनना खुद। मैं दूँगी तुम्हें बहुत-से कपडे। सुनां?'' उन्होंने करवट ली।
''अच्छा।'' मैंने जवाब दिया।
''इधर ..'' उन्होंने मेरा हाथ पकडक़र जहाँ खुजली हो रही थी, रख दिया। जहाँ उन्हें खुजली मालूम होती, वहाँ मेरा हाथ रख देतीं। और मैं बेखयाली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं।
''सुनो तो ...तुम्हारी फ्राकें कम हो गयी हैं। कल दर्जी को दे दूँगी, कि नई सी लाये। तुम्हारी अम्माँ कपडा दे गयी हैं।''
''वह लाल कपडे क़ी नहीं बनवाऊँगी। चमारों-जैसा है!'' मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँचा। बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ।
बेगम जान तो चुप लेटी थीं। ''अरे!'' मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया।

''ओई लडक़ी! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियाँ नोचे डालती है!''
बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गयी।
''इधर आकर मेरे पास लेट जा।''
''उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया।
''अब है, कितनी सूख रही है। पसलियाँ निकल रही हैं।'' उन्होंने मेरी पसलियाँ गिनना शुरू कीं।
''ऊँ!'' मैं भुनभुनाायी।
''ओइ! तो क्या मैं खा जाऊँगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!''
मैं कुलबुलाने लगी।
''कितनी पसलियाँ होती हैं?'' उन्होंने बात बदली।
''एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस।''
मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली। वह भी ऊटपटाँग।
''हटाओ तो हाथ ...हाँ, एक ...दो ..तीन ..''
मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूँ ...और उन्होंने जोर से भींचा।
''ऊँ!'' मैं मचल गयी।
बेगम जान जोर-जोर से हँसने लगीं।
अब भी जब कभी मैं उनका उस वक्त का चेहरा याद करती हूँ तो दिल घबराने लगता है। उनकी आँखों के पपोटे और वजनी हो गये। ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी हुई थी। बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूँदें होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं। उनके हाथ ठण्डे थे, मगर नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गयी हो। उन्होंने शाल उतार दी थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की तरह चमक रहा था। भारी जडाऊ सोने के बटन गरेबान के एक तरफ झूल रहे थे। शाम हो गयी थी और कमरे में अँधेरा घुप हो रहा था। मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी। बेगम जान की गहरी-गहरी आँखें!
मैं रोने लगी दिल में। वह मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं। उनके गरम-गरम जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा। मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना सवार था और मेरे दिमाग का यह हाल कि न चीखा जाये और न रो सकँू।

थोडी देर के बाद वह पस्त होकर निढाल लेट गयीं। उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगीं। मैं समझी कि अब मरीं यह। और वहाँ से उठकर सरपट भागी बाहर।

शुक्र है कि रब्बो रात को आ गयी और मैं डरी हुई जल्दी से लिहाफ ओढ सो गयी। मगर नींद कहाँ? चुप घण्टों पडी रही।

अम्माँ किसी तरह आ ही नहीं रही थीं। बेगम जान से मुझे ऐसा डर लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती। मगर उनके कमरे में कदम रखते दम निकलता था। और कहती किससे, और कहती ही क्या, कि बेगम जान से डर लगता है? तो यह बेगम जान मेरे ऊपर जान छिडक़ती थीं ...

आज रब्बो में और बेगम जान में फिर अनबन हो गयी। मेरी किस्मत की खराबी कहिए या कुछ और, मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा। क्योंकि फौरन ही बेगम जान को खयाल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूँ और मरूँगी निमोनिया में!
''लडक़ी क्या मेरी सिर मुँडवायेगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफत आयेगी।''

उन्होंने मुझे पास बिठा लिया। वह खुद मुँह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं। चाय तिपाई पर रखी थी।

''चाय तो बनाओ। एक प्याली मुझे भी देना।'' वह तौलिया से मुँह खुश्क करके बोली, ''मैं जरा कपडे बदल लँू।''

वह कपडे बदलती रहीं और मैं चाय पीती रही। बेगम जान नाइन से पीठ मलवाते वक्त अगर मुझे किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोडे-मोडे जाती और वापस भाग आती। अब जो उन्होंने कपडे बदले तो मेरा दिल उलटने लगा। मुँह मोडे मैं चाय पीती रही।

''हाय अम्माँ!'' मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा, ''आखिर ऐसा मैं भाइयों से क्या लडती हूँ जो तुम मेरी मुसीबत ..''

अम्माँ को हमेशा से मेरा लडक़ों के साथ खेलना नापसन्द है। कहो भला लडक़े क्या शेर-चीते हैं जो निगल जायेंगे उनकी लाडली को? और लडक़े भी कौन, खुद भाई और दो-चार सडे-सडाये जरा-जरा-से उनके दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की कायल और यहाँ बेगम जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों से नहीं।

बस चलता तो उस वक्त सड़क़ पर भाग जाती, पर वहाँ न टिकती। मगर लाचार थी। मजबूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही।

कपडे बदल, सोलह सिंगार हुए, और गरम-गरम खुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना दिया। और वह चलीं मुझ पर लाड उतारने।
''घर जाऊँगी।''
मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी।
''मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाजार ले चलँूगी, सुनो तो।''

मगर मैं खली की तरह फैल गयी। सारे खिलौने, मिठाइयाँ एक तरफ और घर जाने की रट एक तरफ।
''वहाँ भैया मारेंगे चुडैल!'' उन्होंने प्यार से मुझे थप्पड लगाया।
''पडे मारे भैया,'' मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकडी बैठी रही।
''कच्ची अमियाँ खट्टी होती हैं बेगम जान!''
जली-कटी रब्बों ने राय दी।
और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड ग़या। सोने का हार, जो वह थोडी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकडे-टुकडे हो गया। महीन जाली का दुपट्टा तार-तार। और वह माँग, जो मैंने कभी बिगडी न देखी थी, झाड-झंखाड हो गयी।
''ओह! ओह! ओह! ओह!'' वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं। मैं रपटी बाहर।

बडे ज़तनों से बेगम जान को होश आया। जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झाँकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी।
''जूती उतार दो।'' उसने उनकी पसलियाँ खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ में दुबक गयी।

सर सर फट खच!

बेगम जान का लिहाफ अँधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था।
''अल्लाह! आँ!'' मैंने मरी हुई आवाज निकाली। लिहाफ में हाथी फुदका और बैठ गया। मैं भी चुप हो गयी। हाथी ने फिर लोट मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूँ। हाथी फिर फडफ़डा रहा था और जैसे उकडँू बैठने की कोशिश कर रहा था। चपड-चपड क़ुछ खाने की आवाजें आ रही थीं - जैसे कोई मजेदार चटनी चख रहा हो। अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया।

और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! जरूर यह तर माल उडा रही है। मैंने नथुने फुलाकर सूँ-सूँ हवा को सूँघा। मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ।

लिहाफ फ़िर उमँडना शुरू हुआ। मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पडी रहूँ, मगर उस लिहाफ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गयी।
मालूम होता था, गों-गों करके कोई बडा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!

''आ ... न ...अम्माँ!'' मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ। मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया। हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाजी लगायी और पिचक गया। कलाबाजी लगाने मे लिहाफ का कोना फुट-भर उठा -
अल्लाह! मैं गडाप से अपने बिछौने में ! ! !

लिली - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

पद्मा के चन्द्र-मुख पर षोडश कला की शुभ्र चन्द्रिका अम्लान खिल रही है। एकान्त कुंज की कली-सी प्रणय के वासन्ती मलयस्पर्श से हिल उठती, विकास के लिए व्याकुल हो रही है।

पद्मा की प्रतिभा की प्रशंसा सुनकर उसके पिता ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट पण्डित रामेश्वरजी शुक्ल उसके उज्ज्वल भविष्य पर अनेक प्रकार की कल्पनाएँ किया करते हैं। योग्य वर के अभाव से उसका विवाह अब तक रोक रक्खा है। मैट्रिक परीक्षा में पद्मा का सूबे में पहला स्थान आया था। उसे वृत्ति मिली थी। पत्नी को, योग्य वर न मिलने के कारण विवाह रूका हुआ है, शुक्लजी समझा देते हैं। साल-भर से कन्या को देखकर माता भविष्य-शंका से कांप उठती हैं।

पद्मा काशी विश्वविद्यालय के कला-विभाग में दूसरे साल की छात्रा है। गर्मियों की छुट्टी है, इलाहाबाद घर आयी हुई है। अबके पद्मा का उभार, उसका रंग-रूप, उसकी चितवन-चलन-कौशल-वार्तालाप पहले से सभी बदल गये हैं। उसके हृदय में अपनी कल्पना से कोमल सौन्दर्य की भावना, मस्तिष्क में लोकाचार से स्वतन्त्र अपने उच्छृंखल आनुकूल्य के विचार पैदा हो गये हैं। उसे निस्संकोच चलती - फिरती, उठती-बैठती, हँसती-बोलती देखकर माता हृदय के बोलवाले तार से कुछ और ढीली तथा बेसुरी पड ग़यी हैं।

एक दिन सन्ध्या के डूबते सूर्य के सुनहले प्रकाश में, निरभ्र नील आकाश के नीचे, छत पर, दो कुर्सियाँ डलवा माता और कन्या गंगा का रजत-सौन्दर्य एकटक देख रही थी। माता पद्मा की पढाई, कॉलेज की छात्राओं की संख्या, बालिकाओं के होस्टल का प्रबन्ध आदि बातें पूछती हैं, पद्मा उत्तर देती है। हाथ में है हाल की निकली स्ट्रैंड मैगजीन की एक प्रति। तस्वीरें देखती जाती है। हवा का एक हलका झोंका आया, खुले रेशमी बाल, सिर से साडी क़ो उडाकर, गुदगुदाकर, चला गया। ''सिर ढक लिया करो, तुम बेहया हुई जाती हो।'' माता ने रूखाई से कहा। पद्मा ने सिर पर साडी क़ी जरीदार किनारी चढा ली, आँखें नीची कर किताब के पन्ने उलटने लगी।
''पद्मा!'' गम्भीर होकर माता ने कहा।
''जी!'' चलते हुए उपन्यास की एक तस्वीर देखती हुई नम्रता से बोली।

मन से अपराध की छाप मिट गयी, माता की वात्सल्य-सरिता में कुछ देर के लिए बाढ-सी आ गयी, उठते उच्छ्वास से बोली, ''कानपुर में एक नामी वकील महेशप्रसाद त्रिपाठी हैं।''
''हँू'' ़ ़ ़ एक दूसरी तस्वीर देखती हुई।
''उनका लडक़ा आगरा युनिवर्सिटी से एम।ए। में इस साल फर्स्ट क्लास फर्स्ट आया है।''
''हँू'' पद्मा ने सिर उठाया। आँखें प्रतिभा से चमक उठीं।
''तेरे पिताजी को मैंने भेजा था, वह परसों देखकर लौटे हैं। कहते थे, लडक़ा हीरे का टुकडा, गुलाब का फूल है। बातचीत दस हजार में पक्की हो गयी है।''
''हँू'' मोटर की आवाज पा पद्मा उठकर छत के नीचे देखने लगी। हर्ष से हृदय में तरंगें उठने लगीं। मुस्किराहट दबाकर आप ही में हँसती हुई चुपचाप बैठ गयी।

माता ने सोचा, लडक़ी बडी हो गयी है, विवाह के प्रसंग से प्रसन्न हुई है। खुलकर कहा, ''मैं बहुत पहले से तेरे पिताजी से कह रही थी, वह तेरी पढाई के विचार में पडे थे।''
नौकर ने आकर कहा, ''राजेन बाबू मिलने आये हैं।''
पद्मा की माता ने एक कुर्सी डाल देने के लिए कहा। कुर्सी डालकर नौकर राजेन बाबू को बुलाने नीचे उतर गया। तब तक दूसरा नौकर रामेश्वरजी का भेजा हुआ पद्मा की माता के पास आया। कहा, ''जरूरी काम से कुछ देर के लिए पण्डितजी जल्द बुलाते हैं।''

जीने से पद्मा की माता उतर रही थीं, रास्ते में राजेन्द्र से भेंट हुई। राजेन्द्र ने हाथ जोडक़र प्रणाम किया। पद्मा की माता ने कन्धे पर हाथ रखकर आशिर्वाद दिया और कहा, ''चलो, पद्मा छत पर है, बैठो, मैं अभी आती हँू।''

राजेन्द्र जज का लडक़ा है, पद्मा से तीन साल बडा, पढाई में भी। पद्मा अपराजिता बडी-बडी आँखों की उत्सुकता से प्रतीक्षा में थी, जब से छत से उसने देखा था।
''आइए, राजेन बाबू, कुशल तो है?'' पद्मा ने राजेन्द्र का उठकर स्वागत किया। एक कुर्सी की तरफ बैठने के लिए हाथ से इंगित कर खडी रही। राजेन्द्र बैठ गया, पद्मा भी बैठ गयी।
''राजेन, तुम उदास हो!''
''तुम्हारा विवाह हो रहा है?'' राजेन्द्र ने पूछा।
पद्मा उठकर खडी हो गयी। बढक़र राजेन्द्र का हाथ पकडक़र बोली, ''राजेन, तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं? जो प्रतिज्ञा मैंने की है, हिमालय की तरह उस पर अटल रहँूगी।''

पद्मा अपनी कुर्सी पर बैठ गयी। मैगजीन खोल उसी तरह पन्नों में नजर गडा दी। जीने से आहट मालूम दी।

माता निगरानी की निगाह से देखती हुई आ रही थीं। प्रकृति स्तब्ध थी। मन में वैसी ही अन्वेषक चपलता।
''क्यों बेटा, तुम इस साल बी।ए। हो गये?'' हँसकर पूछा।
''जी हाँ।'' सिर झुकाये हुए राजेन्द्र ने उत्तर दिया।
''तुम्हारा विवाह कब तक करेंगे तुम्हारे पिताजी, जानते हो?''
''जी नहीं।''
''तुम्हारा विचार क्या है?''

''आप लोगों से आज्ञा लेकर विदा होने के लिए आया हँू, विलायत भेज रहे हैं पिताजी।'' नम्रता से राजेन्द्र ने कहा।
''क्या बैरिस्टर होने की इच्छा है?'' पद्मा की माता ने पूछा।
''जी हाँ।''
''तुम साहब बनकर विलायत से आना और साथ एक मेम भी लाना, मैं उसकी शुध्दि कर लँूगी।'' पद्मा हँसकर बोली।

नौकर ने एक तश्तरी पर दो प्यालों में चाय दी - दो रकाबियों पर कुछ बिस्कुट और केक। दूसरा एक मेज उठा लिया। राजेन्द्र और पद्मा की कुर्सी के बीच रख दी, एक धुली तौलिया ऊपर से बिछा दी। सासर पर प्याले तथा रकाबियों पर बिस्कुट और केक रखकर नौकर पानी लेने गया, दूसरा आज्ञा की प्रतीक्षा में खडा रहा।

''मैं निश्चय कर चुका हँू, जबान भी दे चुका हँू। अबके तुम्हारी शादी कर दँूगा।'' पण्डित रामेश्वरजी ने कन्या से कहा।
''लेकिन मैंने भी निश्चय कर लिया है, डिग्री प्राप्त करने से पहले विवाह न करूँगी।'' सिर झुकाकर पद्मा ने जवाब दिया।
''मैं मैजिस्ट्रेट हँू बेटी, अब तक अक्ल ही की पहचान करता रहा हँू, शायद इससे ज्यादा सुनने की तुम्हें इच्छा न होगी।'' गर्व से रामेश्वरजी टहलने लगे।

पद्मा के हृदय के खिले गुलाब की कुल पंखडिया हवा के एक पुरजोर झोंके से काँप उठीं। मुक्ताओं-सी चमकती हुई दो बँूदें पलकों के पत्रों से झड पडी। यही उसका उत्तर था।

''राजेन जब आया, तुम्हारी माता को बुलाकर मैंने जीने पर नौकर भेज दिया था, एकान्त में तुम्हारी बातें सुनने के लिए। ़ ़ ़ तुम हिमालय की तरह अटल हो, मैं भी वर्तमान की तरह सत्य और दृढ।''
रामेश्वरजी ने कहा, ''तुम्हें इसलिए मैंने नहीं पढाया कि तुम कुल-कलंक बनो।''
''आप यह सब क्या कह रहे हैं?''
''चुप रहो। तुम्हें नहीं मालूम? तुम ब्राह्मण-कुल की कन्या हो, वह क्षत्रिय-घराने का लडक़ा है- ऐसा विवाह नहीं हो सकता।'' रामेश्वरजी की साँस तेज चलने लगीं, आँखें भौंहों से मिल गयीं।
''आप नहीं समझे मेरे कहने का मतलब।'' पद्मा की निगाह कुछ उठ गयी।
''मैं बातों का बनाना आज दस साल से देख रहा हँू। तू मुझे चराती है? वह बदमाश ़ ़ !''
''ऌतना बहुत है। आप अदालत के अफसर है! अभी-अभी आपने कहा था, अब तक अक्ल की पहचान करते रहे हैं, यह आपकी अक्ल की पहचान है! आप इतनी बडी बात राजेन्द्र को उसके सामने कह सकते हैं? बतलाइए, हिमालय की तरह अटल सुन लिया, तो इससे आपने क्या सोचा?''

आग लग गयी, जो बहुत दिनों से पद्मा की माता के हृदय में सुलग रही थी।
''हट जा मेरी नजरों से बाहर, मैं समझ गया।'' रामेश्वर जी क्रोध से काँपने लगे।
''आप गलती कर रहे हैं, आप मेरा मतलब नहीं समझे, मैं भी बिना पूछे हुए बतलाकर कमजोर नहीं बनना चाहती।''

पद्मा जेठ की लू में झुलस रही थी, स्थल पद्म-सा लाल चेहरा तम-तमा रहा था। आँखों की दो सीपियाँ पुरस्कार की दो मुक्ताएँ लिये सगर्व चमक रही थीं।

रामेश्वरजी भ्रम में पड ग़ये। चक्कर आ गया। पास की कुर्सी पर बैठ गये। सर हथेली से टेककर सोचने लगे। पद्मा उसी तरह खडी दीपक की निष्कम्प शिखा-सी अपने प्रकाश में जल रही थी।
''क्या अर्थ है, मुझे बता।'' माता ने बढक़र पूछा।
''मतलब यह, राजेन को सन्देह हुआ था, मैं विवाह कर लँूगी - यह जो पिताजी पक्का कर आये हैं, इसके लिए मैंने कहा था कि मैं हिमालय की तरह अटल हँू, न कि यह कि मैं राजन के साथ विवाह करूँगी। हम लोग कह चुके थे कि पढाई का अन्त होने पर दूसरी चिन्ता करेंगे।''

पद्मा उसी तरह खडी सीधे ताकती रही।
''तू राजेन को प्यार नहीं करती?'' आँख उठाकर रामेश्वरजी ने पूछा।
''प्यार? करती हँू।''
''करती है?''
''हाँ, करती हँू।''
''बस, और क्या?''
''पिता!'' ़ ़

पद्मा की आबदार आँखों से आँसुओं के मोती टूटने लगे, जो उसके हृदय की कीमत थे, जिनका मूल्य समझनेवाला वहाँ कोई न था।

माता ने ठोढी पर एक उँगली रख रामेश्वरजी की तरफ देखकर कहा, ''प्यार भी करती है, मानती भी नहीं, अजीब लडक़ी है।''
''चुप रहो।'' पद्मा की सजल आँखें भौंहों से सट गयीं, ''विवाह और प्यार एक बात है? विवाह करने से होता है, प्यार आप होता है। कोई किसी को प्यार करता है, तो वह उससे विवाह भी करता है? पिताजी जज साहब को प्यार करते हैं, तो क्या इन्होंने उनसे विवाह भी कर लिया है?''
रामेश्वरजी हँस पडे।

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रामेश्वरजी ने शंका की दृष्टि से डॉक्टर से पूछा, ''क्या देखा आपने डॉक्टर साहब?''
''बुखार बडे ज़ोर का है, अभी तो कुछ कहा नहीं जा सकता।

जिस्म की हालत अच्छी नहीं, पूछने से कोई जवाब भी नहीं देती। कल तक अच्छी थी, आज एकाएक इतने जोर का बुखार, क्या सबब है?'' डॉक्टर ने प्रश्न की दृष्टि से रामेश्वरजी की तरफ देखा।

रामेश्वरजी पत्नी की तरफ देखने लगे।

डाक्टर ने कहा, ''अच्छा, मैं एक नुस्खा लिखे देता हँू, इससे जिस्म की हालत अच्छी रहेगी। थोडी-सी बर्फ मँगा लीजिएगा। आइस-बैग तो क्यों होगा आपके यहाँ?एक नौकर मेरे साथ भेज दीजिए, मैं दे दँूगा। इस वक्त एक सौ चार डिग्री बुखार है। बर्फ डालकर सिर पर रखिएगा। एक सौ एक तक आ जाय, तब जरूरत नहीं।''

डॉक्टर चले गये। रामेश्वरजी ने अपनी पत्नी से कहा, ''यह एक दूसरा फसाद खडा हुआ। न तो कुछ कहते बनता है, न करते। मैं कौम की भलाई चाहता था, अब खुद ही नकटों का सिरताज हो रहा हँू। हम लोगों में अभी तक यह बात न थी कि ब्राह्मण की लडक़ी का किसी क्षत्रिय लडक़े से विवाह होता। हाँ, ऊँचे कुल की लडक़ियाँ ब्राह्मणों के नीचे कुलों में गयी हैं। लेकिन, यह सब आखिर कौम ही में हुआ है।''
''तो क्या किया जाय?'' स्फारित, स्फुरित आँखें, पत्नी ने पूछा।
''जज साहब से ही इसकी बचत पूछूंगा। मेरी अक्ल अब और नहीं पहँुचती। ़ ़ अरे छीटा!''
''जी!'' छीटा चिलम रखकर दौडा।
''जज साहब से मेरा नाम लेकर कहना, जल्द बुलाया है।''
''और भैया बाबू को भी बुला लाऊँ?''
''नहीं-नहीं।'' रामेश्वरजी की पत्नी ने डाँट दिया।

जज साहब पुत्र के साथ बैठे हुए वार्तालाप कर रहे थे। इंग्लैंड के मार्ग, रहन-सहन, भोजन-पान, अदब-कायदे का बयान कर रहे थे। इसी समय छीटा बँगले पर हाजिर हुआ, और झुककर सलाम किया। जज साहब ने आँख उठाकर पूछा, ''कैसे आये छीटाराम?''
''हुजूर को सरकार ने बुलाया है, और कहा है, बहुत जल्द आने के लिए कहना।''
''क्यों?''
''बीबी रानी बीमार हैं, डाक्टर साहब आये थे, और हुजूर ़ ़ '' बाकी छीटा ने कह ही डाला था।
''और क्या?''
''हुजूर ़ ़ '' छीटा ने हाथ जोड लिये। उसकी आँखें डबडबा आयीं।

जज साहब बीमारी कडी समझकर घबरा गये! ड्राइवर को बुलाया। छीटा चल दिया। ड्राइवर नहीं था। जज साहब ने राजेन्द्र से कहा, ''जाओ, मोटर ले आओ।चलें, देखें, क्या बात है।''

राजेन्द्र को देखकर रामेश्वरजी सूख गये। टालने की कोई बात न सूझी। कहा, ''बेटा, पद्मा को बुखार आ गया है, चलो, देखो, तब तक मैं जज साहब से कुछ बातें करता हँू।''

राजेन्द्र उठ गया। पद्मा के कमरे में एक नौकर सिर पर आइस-बैग रक्खे खडा था। राजेन्द्र को देखकर एक कुर्सी पलंग के नजदीक रख दी।
''पद्मा!''
''राजेन!''
पद्मा की आँखों से टप-टप गर्म आँसू गिरने लगे। पद्मा को एकटक प्रश्न की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने रूमाल से उसके आँसू पोंछ दिये।
सिर पर हाथ रक्खा, बडे ज़ोर से धडक़ रही थी।

पद्मा ने पलकें मूंद ली, नौकर ने फिर सिर पर आइस-बैग रख दिया।

सिरहाने थरमामीटर रक्खा था। झाडक़र, राजेन्द्र ने आहिस्ते से बगल में लगा दिया। उसका हाथ बगल से सटाकर पकडे रहा। नजर कमरे की घडी क़ी तरफ थी।

निकालकर देखा, बुखार एक सौ तीन डिग्री था।

अपलक चिन्ता की दृष्टि से देखते हुए राजेन्द्र ने पूछा, ''पद्मा, तुम कल तो अच्छी थीं, आज एकाएक बुखार कैसे आ गया?''
पद्मा ने राजेन्द्र की तरफ करवट ली, कुछ न कहा।
''पद्मा, मैं अब जाता हँू।''

ज्वर से उभरी हुई बडी-बडी अाँखों ने एक बार देखा, और फिर पलकों के पर्दे में मौन हो गयीं।

अब जज साहब और रामेश्वरजी भी कमरे में आ गये।

जज साहब ने पद्मा के सिर पर हाथ रखकर देखा, फिर लडक़े की तरफ निगाह फेरकर पूछा, ''क्या तुमने बुखार देखा है?''
''जी हाँ, देखा है।''
''कितना है?''
''एक सौ तीन डिग्री।''
''मैंने रामेश्वरजी से कह दिया है, तुम आज यही रहोगे। तुम्हें यहाँ से कब जाना है? - परसों न?''
''जी।''
''कल सुबह बतलाना घर आकर, पद्मा की हालत-कैसी रहती है। और रामेश्वरजी, डॉक्टर की दवा करने की मेरे खयाल से कोई जरूरत नहीं।''
''जैसा आप कहें।'' सम्प्रदान-स्वर से रामेश्वरजी बोले।

जज साहब चलने लगे। दरवाजे तक रामेश्वरजी भी गये। राजेन्द्र वहीं रह गया। जज साहब ने पीछे फिरकर कहा, ''आप घबराइए मत, आप पर समाज का भूत सवार है।'' मन-ही-मन कहा, ''कैसा बाप और कैसी लडक़ी!

तीन साल बीत गये। पद्मा के जीवन में वैसा ही प्रभात, वैसा ही आलोक भरा हुआ है। वह रूप, गुण, विद्या और ऐश्वर्य की भरी नदी, वैसी ही अपनी पूर्णता से अदृश्य की ओर, वेग से बहती जा रही है। सौन्दर्य की वह ज्योति-राशि स्नेह-शिखाओं से वैसी ही अम्लान स्थिर है। अब पद्मा एम।ए। क्लास में पढती है।

वह सभी कुछ है, पर वह रामेश्वरजी नहीं हैं। मृत्यु के कुछ समय पहले उन्होंने पद्मा को एक पत्र में लिखा था, ''मैंने तुम्हारी सभी इच्छाएँ पूरी की हैं, पर अभी तक मेरी एक भी इच्छा तुमने पूरी नहीं की। शायद मेरा शरीर न रहे, तुम मेरी सिर्फ एक बात मानकर चलो- राजेन्द्र या किसी अपर जाति के लडक़े से विवाह न करना। बस।''

इसके बाद से पद्मा के जीवन में आश्चर्यकर परिवर्तन हो गया। जीवन की धारा ही पलट गयी। एक अद्भुत स्थिरता उसमें आ गयी। जिस गति के विचार ने उसके पिता को इतना दुर्बल कर दिया था, उसी जाति की बालिकाओं को अपने ढंग पर शिक्षित कर, अपने आदर्श पर लाकर पिता की दुर्बलता से प्रतिशोध लेने का उसने निश्चय कर लिया।

राजेन्द्र बैरिस्टर होकर विलायत से आ गया। पिता ने कहा, ''बेटा, अब अपना काम देखो।'' राजेन्द्र ने कहा, ''जरा और सोच लँू, देश की परिस्थिति ठीक नहीं।''

''पद्मा!'' राजेन्द्र ने पद्मा को पकडक़र कहा।
पद्मा हँस दी। ''तुम यहाँ कैसे राजेन?'' पूछा।
''बैरिस्टरी में जी नहीं लगता पद्मा, बडा नीरस व्यवसाय है, बडा बेदर्द। मैंने देश की सेवा का व्रत ग्रहण कर लिया है, और तुम?''
''मैं भी लडक़ियाँ पढाती हँू - तुमने विवाह तो किया होगा?''
''हाँ, किया तो है।'' हँसकर राजेन्द्र ने कहा।

पद्मा के हृदय पर जैसे बिजली टूट पडी, ज़ैसे तुषार की प्रहत पद्मिनी क्षण भर में स्याह पड ग़यी। होश में आ, अपने को सँभालकर कृत्रिम हँसी रँगकर पूछा,
''किसके साथ किया?''
''लिली के साथ।'' उसी तरह हँसकर राजेन्द्र बोला।
''लिली के साथ!'' पद्मा स्वर में काँप गयी।
''तुम्हीं ने तो कहा था-विलायत जान और मेम लाना।''

पद्मा की आँखें भर आयीं।
हँसकर राजेन्द्र ने कहा, ''यही तुम अंगेजी की एम।ए। हो? लिली के मानी?''

सच का सौदा - सुदर्शन

विद्यार्थी-परीक्षा में फेल होकर रोते हैं, सर्वदयाल पास होकर रोये। जब तक पढ़ते थे, तब तक कोई चिंता नहीं थी; खाते थे; दूध पीते थे। अच्‍छे-अच्‍छे कपड़े पहनते, तड़क-भड़क से रहते थे। उनके माता-पिता इस योग्‍य न थे कि कालेज के खर्च सह सकें, परंतु उनके मामा एक ऊँचे पद पर नियुक्‍त थे। उन्‍होंने चार वर्ष का खर्च देना स्वीकार किया, परंतु यह भी साथ ही कह दिया- ''देखो, रूपया लहू बहाकर मिलता है। मैं वृद्ध हूँ, जान मारकर चार पैसे कमाता हूँ। लाहौर जा रहे हो, वहाँ पग-पग पर व्‍याधियाँ हैं, कोई चिमट न जाए। व्‍यसनों से बचकर ड़िग्री लेने का यत्‍न करो। यदि मुझे कोई ऐसा-वैसा समाचार मिला, तो खर्च भेजना बंद कर दूँगा। ''

सर्वदयाल ने वृद्ध मामा की बात का पूरा-पूरा ध्‍यान रक्‍खा, और अपने आचार-विचार से न केवल उनको शिकायत का ही अवसर नहीं दिया, बल्कि उनकी आँख की पुतली बन गए। परिणाम यह हुआ कि मामा ने सुशील भानजे को आवश्‍यकता से अधिक रूपये भेजने शुरू कर दिए, और लिख दिया- ''तुम्‍हारे खान-पान पर मुझे आपत्ति नहीं, हाँ! इतना ध्‍यान रखना कि कोई बात मर्यादा के विरूद्ध न होने पाए। मैं अ‍केला आदमी, रूपया क्‍या साथ ले जाऊँगा! तुम मेरे संबंधी हो, यदि किसी योग्‍य बन जाओ, तो इससे अधिक प्रसन्‍नता की बात क्‍या होगी?''

इससे सर्वदयाल का उत्‍साह बढ़ा। पहले सात पैसे की जुराबें पहनते थे, अब पाँच आने की पहनने लगे। पहले मलमल के रूमाल रखते थे, अब एटोनिया के रखने लगे। दिन को पढ़ने और रात को जागने से सिर में कभी-कभी पीड़ा होने लगती थी, कारण यह कि दूध के लिए पैसे न थे। परंतु अब जब मामा ने खर्च की डोरी ढीली छोड़ दी, तो घी-दूध दोनों की तंगी न रही। परंतु इन सबके होते हुए भी सर्वदयाल उन व्‍यसनों से बचे रहे, जो शहर के विद्यार्थियों में प्राय: पाये जाते हैं।

इसी प्रकार चार वर्ष बीत गए, और इस बीच में उनके माता की मुत्‍यु हो गई। इधर सर्वदयाल बी.ए. की डिग्री लेकर घर को चले। जब तक पढ़ते थे, सैकड़ों नौकरियाँ दिखाई देती थीं। परंतु पास हुए, तो कोई ठिकाना न दीख पड़ा। वह घबरा गए, जिस प्रकार यात्री दिन-रात चल-चलाकर स्‍टेशन पर पहुँचे, परंतु गाड़ी में स्‍थान न हो। उस समय उसकी जो दुर्दशा होती है, ठीक वही सर्वदयाल की थी।

उनके पिता पंडित शंकरदत्‍त पुराने जमाने के आदमी थे। उनका विचार था कि बेटा अंग्रेजी बोलता है, पतलून पहनता है, नेकटाई लगाता है, तार तक पढ़ लेता है, इसे नौकरी न मिलेगी, तो और किसे मिलेगी? परंतु जब बहुत दिन गुजर गए और सर्वदयाल के लिए कोई आजीविका न बनी, तो उनका धीरज छूट गया। बेटे से बोले- "अब तू कुछ नौकरी भी करेगा या नहीं? मिडिल पास लौंडे रूपयों से घर भर देते हैं। एक तू है कि पढ़ते-पढ़ते बाल सफेद हो गए, परनतु कोई नौकरी ही नहीं मिलती।"

सर्वदयाल के कलेजे में मानों किसी ने तीर-सा मार दिया। सिर झुका कर बोले- "नौकरियाँ तो बहुत मिलती हैं, परंतु थोड़ा वेतन देते हैं, इस लिए देख रहा हूँ कि कोई अच्‍छा अवसर हाथ आ जाय, तो करूँ।"

शंकरदत्‍त ने उत्‍तर दिया- "यह तो ठीक है, परंतु जब तक अच्‍छी न मिले, मामूली ही कर लो। जब फिर अच्‍छी मिले, इसे छोड़ देना। तुम आप पढ़े लिखे हो, सोचो, निकम्‍मा बैठे रहने से कुछ दे थोड़ा ही जाता है।'' सर्वदयाल चुप हो गए, वे उत्‍तर दे न सके। शंकरदत्‍त, पूजापाठ करने वाले आदमी, इस बात को क्‍या समझें कि ग्रेजुएट साधारण नौकरी नहीं कर सकता।

2

दोपहर का समय था, सर्वदयाल अखबार में 'वान्‍टेड' (wanted) देख रहे थे। एकाएक एक विज्ञापन देखकर उनका हृदय धड़कने लगा। अंबाले के प्रसिद्ध रईस रायबहादुर हनुमंतराय सिंह एक मासिक पत्र 'रफ़ीक हिंद' के नाम से निकालने वाले थे। उनको उसके लिए एक संपादक की आवश्‍यकता थी, उच्‍च श्रेणी का शिक्षित और नवयुव‍क हो, तथा लिखने में अच्‍छा अभ्‍यास रखता हो, और जातीय-सेवा का प्रेमी हो। वेतन पाँच सौ रूपये मासिक। सर्वदयाल बैठे थे, खड़े हो गए और सोचने लगे- ''यदि यह नौकरी मिल जाए तो द्ररिद्रता कट जाए। मैं हर प्रकार से इसके योग्‍य हूँ।'' जब पढ़ते थे, उन दिनों साहित्‍य परिषद् (लिटरेरी क्‍लब) में उनकी प्रभावशाली वक्‍तृताओं और लेखों की धूम थी। बोलते समय उनके मुख से फूल झड़ते थे, और श्रोताओं के मस्तिष्‍क को अपनी सूक्तियों से सुवासित कर देते थे। उनके मित्र उनको गोद में उठा लेते और कहते- ''तेरी वाणी में मोहिनी है। इसके सिवाय उनके लेख बड़े-बड़े प्रसिद्ध पत्रों में निकलते रहे। सर्वदयाल ने कई बार इस शौक को कोसा था, आज पता लगा कि संसार में इस दुर्लभ पदार्थ का भी कोई ग्राहक है। कंपित कर से प्रार्थना-प्रत्र लिखा और रजिस्‍ट्री करा दिया। परंतु बाद में सोचा- व्‍यर्थ खर्च किया। मैं साधारण ग्रेजुएट हूँ, मुझे कौन पूछेगा? पाँच सौ रूपया तनखाह है, सैकड़ों उम्‍मीदवार होंगे और एक से एक बढ़कर। कई वकील और बैरिस्‍टर जाने को तैयार होंगे। मैंने बड़ी मूर्खता की, जो पाँच सौ रूपया देखकर रीझ गया। परंतु फिर ख्‍याल आया- जो इस नौकरी को पाएगा, वह भी तो मनुष्‍य होगा। योग्‍यता सबमें प्राय: एक सी ही होती है। हाँ, जब तक कार्य में हाथ न डाला जाए, तब तक मनुष्‍य झिझकता है। परंतु काम का उत्‍तरदायित्‍व सब कुछ लिखा देता है।

इन्‍ही विचारों में कुछ दिन बीत गए। कभी आशा कल्‍पनाओं की झड़ी बाँध देती थी, कभी निराशा हृदय में अंधकार भर देती थी। सर्वदयाल चाहते थे कि इस विचार को मस्तिष्‍क से बाहर निकाल दें, और किसी दूसरी ओर ध्‍यान दें, किंतु वे ऐसा न कर सके । स्‍वप्‍न में भी यही विचार सताने लगे । पंद्रह दिन बीत गए, परंतु कोई उत्‍तर न आया।

निराशा ने कहा अब चैन से बैठो, कोई आशा नहीं। परंतु आशा बोली, अभी से निराशा का क्‍या कारण? पाँच सौ रूपये की नौकरी है, सैकड़ों प्रार्थना पत्र गए होंगे। उनको देखने के लिए कुछ समय चाहिए। सर्वदयाल ने निश्‍चय किया कि अभी एक अठवाड़ा और देखना चाहिए। उनको न खाने की चिंता थी, न पीने की। दरवाजे पर खड़े डाकिए की बाट देखते थे। उसे आने में देर हो जाती, तो टहलते-टहलते बाजार तक चले आते। परंतु अपनी इस अवस्‍था को डाकिए पर प्रकट न करते, और पास पहुँचकर देखते-देखते आगे निकल जाते। फिर मुड़कर देखने लगते कि डाकिया बुला तो नहीं रहा। फिर सोचते-कौन जाने, उसने देखा भी है या नहीं। इस विचार से ढाढ़स बँध जाती, तुरंत चक्‍कर काट कर डाकिये से पहले दरवाजे पर पहुँच जाते, और बेपरवा से होकर पूछते- '' कहो भाई, हमारा भी पत्र है या नहीं ?'' डाकिया सिर हिलाता और आगे चला जाता। सर्वदयाल हताश होकर बैठ जाते। यह उनका नित का नियम हो गया था।

जब तीसरा अठवाड़ा भी बीत गया और कोई उत्‍तर न आया तो सर्वदयाल निराश हो गए, और समझ गए कि वह मेरी भूल थी। ऐसी जगह सिफ़ारिश से मिलती है, खाली डिग्रियों को कौन पूछता है? इतने ही में तार के चपरासी ने पुकारा। सर्वदयाल का दि‍ल उछलने लगा। जीवन के भविष्‍य में आशा की लता दिखाई दी। लपके-लपके दरवाजे पर गए, और तार देखकर उछल पड़े। लिखा था– ''स्‍वीकार है, आ जाओ।''

3

वे सायंकाल की गाड़ी में बैठे, तो हृदय आनंद से गद्‍गद हो रहा था और मन में सैकडों विचार उठ रहे थे। पत्र-संपादन उनके लिए जातीय सेवा का उपयुक्‍त साधन था। सोचते थे- ''यह मेरा सौभाग्‍य है, जो ऐसा अवसर मिला। जो कहीं क्‍लर्क भरती हो जाता, तो जीवन काटना दूभर हो जाता। बैग में कागज ओर पेंसिल निकालकर पत्र की व्‍यवस्‍था ठीक करने लगे। पहले पृष्‍ठ पर क्‍या हो? संपादकीय वक्‍तव्‍य कहाँ दिए जाएँ? सार और सूचना के लिए कौन-सा स्‍थान उपयुक्‍त होगा? 'टाईटिल' का स्‍वरूप कैसा हो? संपादक का नाम कहाँ रहे? इन सब बातों को सोच-सोचकर लिखते गए। एकाएक विचार आया- कविता के लिए कोई स्‍थान न रक्‍खा, और कविता ही एक ऐसी वस्‍तु है, जिससे पत्र की शोभा बढ़ जाती है। जिस प्रकार भोजन के साथ चटनी ए‍क विशेष स्‍वाद देती है, उसी प्रकार विद्वत्‍ता-पूर्ण लेख और गंभीर विचारों के साथ कविता एक आवश्‍यक वस्‍तु है। उसे लोग रूचि से पढ़ते है। उस समय उन्‍हें अपने कोई सुह्रद मित्र याद आ गए, जो उस पत्र को बिना पढ़े फेंक देते थे, जिसमें कविता व पद्य न हों। सर्वदयाल को निश्‍चय हो गया कि इसके बिना पत्र को सफलता न होगी। सहसा एक मनोरंजक विचार से वे चौंक उठे।

रात का समय था, गाड़ी पूरे बेग से चली जा रही थी। सर्वदयाल जिस कमरे में सफर कर रहे थे , उसमें उनके अतिरिक्‍त केवल एक यात्री और था, जो अपनी जगह पड़ा सो रहा था । सर्वदयाल बैठे थे। खड़े हो गए, और पत्र के तैयार किेये हुए नोट गद्दे पर रखकर इधर-उधर टहलने लगे। फिर बैठकर काग़ज पर सुंदर अक्षरों में लिखा-

पंडित सर्वदयाल बी.ए., एडिटर 'रफ़ीक हिंद' , अंबाला

परंतु लिखते समय हाथ काँप रहे थे, मानो कोई अपराध कर रहे हों। यद्यपि कोई देखनेवाला पास न था, तथापि उस काग़ज के टुकडे को, जिससे ओछापन और बालकापन छलकता था, बार-बार छिपाने का यत्‍न करते थे। जिस प्रकार अनजान बालक अपनी छाया से डर जाता हो। परंतु धीरे-धीरे यह भय का भाव दूर हो गया, और वे स्‍वाद ले-लेकर उस पंक्ति को बारम्‍बार पढ़ने लगे:-

पंडित सर्वदयाल बी. ए., एडिटर 'रफ़ीक हिंद', अंबाला

वे संपादन के स्‍वप्‍न देखा करते थे। अब राम-राम करके आशा की हरी हरी भूमि सामने आई, तो उनके कानों में वहीं शब्‍द, जो उस काग़ज पर लिखे थे:-

पंडित सर्वदयाल बी.ए., एडिटर 'रफ़ीक हिंद', अंबाला

देर तक इसी धुन और आनंद में मग्‍न रहने के पश्‍चात पता नहीं कितने बजे उन्हें नींद आई, परंतु आँखे खुलीं, तो दिन चढ़ चुका था, और गाड़ी अंबाला स्‍टेशन पर पहुँच चुकी थी। जागकर पहली वस्‍तु, जिसका उन्‍हें ध्‍यान आया, वह वही काग़ज का टुकड़ा। पर अब उसका कही पता नहीं था। सर्वदयाल का रंग उड़ गया, आँख उठाकर देखा, तो सामने का यात्री जा चुका था। सर्वदयाल की छाती में किसी ने मुक्‍का मारा, मानो उनकी कोई आवश्‍यक वस्‍तु खो गई । ख्‍याल आया- ''यह यात्री कहीं ठाकुर हनुमंतराय सिंह न हो। यदि हुआ और उसने मेरा ओछापन देख लिया, तो क्‍या कहेगा? इतने में गाड़ी ठहर गई। सर्वदयाल बैग लिए हुए नीचे उतरे और स्‍टेशन से बाहर निकले। इतने में एक नवयुवक ने पास आकर पूछा-''क्‍या आप रावलपिंडी से आ रहे हैं ?''

'' हाँ, मैं वहीं से आ रहा हूँ। तुम किसे पूछते हो?''

'' ठाकुर साहब ने गाड़ी भेजी है।''

सर्वदयाल का हृदय कमल की नाई खिल गया। आज तक कभी बग्‍घी में न बैठे थे। उचक कर सवार हो गए और आस-पास देखने लगे। गाड़ी चली और एक आलीशान कोठी के हाते में जाकर रूक गई । सर्वदयाल का हृदय धड़कने लगा। कोचवान ने दरवाजा खोला और आदर से एक तरफ खड़ा हो गया। सर्वदयाल रूमाल से मुँह पोंछते हुए नीचे उतरे और बोले- ''ठाकुर साहब किधर हैं ?''

कोचवान ने उत्‍तर में एक मुंशी को पुकारकर बुलाया और कहा, ''बाबू साहब रावलपिंडी से आए हैं। ठाकुर साहब के पास ले जाओ।''

'' रफ़ीक हिंद'’ के खर्च का ब्‍योरा इसी मुंशी ने तैयार किया था, इसलिए तुरंत समझ गया कि यह पंडित सर्वदयाल हैं, जो 'रफ़ीक हिंद' संपादन के लिए चुने गए हैं। आदर से बोला-''आइए साहब''!

पंडित सर्वदयाल मुंशी के पीछे चले। मुंशी एक कमरे के आगे रूक गया और रेशमी पर्दा उठाकर बोला- ''चलिए, ठाकुर साहब बैठे हैं!''

4

सर्वदयाल का दिल धड़कने लगा। जो अवस्‍था निर्बल विद्यार्थी की परीक्षा के अवसर पर होती है, वही अवस्‍था इस समय सर्वदयाल की थी। शंका हुई कि ठाकुर साहब मेरे विषय में जो सम्‍मति रखते हैं, वह मेरी बातचीत से बदल न जाए। फिर भी साहब करके अंदर चले गए। ठाकुर हनुमंतराय सिंह तीस-बत्‍तीस वर्ष के सुंदर नवयुवक थे। मुस्‍कराते हुए आगे बढ़े और बड़े आदर से सर्वदयाल से हाथ मिलाकर बोले- ''आप आ गए। कहिए, राह में कोई कष्‍ट तो नहीं हुआ।''

सर्वदयाल ने धड़कते हुए हृदय से उत्‍तर दिया, ''जी नहीं।''

''मैं आपके लेख बहुत समय से देख रहा हूँ। ईश्‍वर की बड़ी कृपा है, जो आज दर्शन भी हुए। निस्‍संदेह आपकी लेखनी में आश्‍चर्यमयी शक्ति है।"

सर्वदयाल पानी-पानी हो गए। अपनी प्रशंसा सुनकर उनके हर्ष का वारापार न रहा। तो भी संभलकर बोले- "यह आप की कृपा है?"

ठाकुर साहब ने गंभीरता से कहा – "यह नम्रता आपकी योग्‍यता के अनुकूल है। परंतु मेरी सम्‍मति में आप सरीखा लेखक पंजाब भर में नहीं। आप मानें या न मानें, समाज को आप पर गर्व है। 'रफ़ीक हिंद' का सौभाग्‍य है कि आप-सा संपादक उसे प्राप्‍त हुआ।"

सर्वदयाल के ह्रदय में जो आशंका हो रही थीं, वह दूर हो गई। समझे, मैदान मार लिया। वे बात का रूख बदलने को बोले- "पत्रिका कब से निकलेगी ?"

ठाकुर साहब ने हँसकर उत्‍तर दिया- "यह प्रश्‍न मुझे आप से करना चाहिए था।"

उस दिन 15 फरवरी थी। सर्वदयाल कुछ सोचकर बोले – "पहला अंक पहली अप्रैल को निकल जाय?"

"अच्‍छी बात है, परंतु इतने थोड़े समय में लेख मिल जाएँगे या नहीं, इस बात का विचार आप कर लीजिएगा।"

"इसकी चिंता न कीजिए, मैं आज से ही काम आरंभ किए देता हूँ। परमात्‍मा ने चाहा, तो आप पहले ही अंक को देखकर प्रसन्‍न हो जाएँगे।"

एकाएक ठाकुर साहब चौंककर बोले- "कदाचित् यह सुनकर आपको आश्‍चर्य होगा कि इस विज्ञापन के उत्‍तर में लगभग दो हजार दरख्‍वास्‍तें आई थीं। उनमें से बहुत-सी ऐसी थीं, जो साहित्‍य और लालित्‍य के मोतियों से भरी हुई थीं। परंतु आपका पत्र सच्‍चाई से भरपूर था। किसी ने लिखा था- मैं इस समय दुकान करता हूँ, और चार-पाँच सौ रूपये मासिक पैदा कर लेता हूँ। परंतु जातीय सेवा के लिए यह सब छोड़ने को तैयार हूँ। किसी ने लिखा था- मेरे पास खाने-पीने की कमी नहीं है, परंतु स्‍वदेश-प्रेम हृदय में उत्‍साह उत्‍पन्‍न कर रहा है। किसी ने लिखा था- मैं बारिस्‍टरी के लिए विलायत जाने की तैयारियाँ कर रहा हूँ। परंतु यदि आप यह काम मुझे दे सकें, तो इस विचार को छोड़ा जा सकता है। अर्थात हर एक प्रार्थना-प्रत्र से यही प्रकट होता था कि प्रार्थी को वेतन की तो आवश्‍यकता नहीं, और कदाचित् वह नौकरी करना अपमान भी समझता है, परंतु यह सब कुछ देश-प्रेम के लिए करने को तैयार है। मानो यह नौकरी करके मुझ पर कोई उपचार कर रहा है। केवल आपका पत्र है, जिसमें सच से काम लिया गया है। और य‍ह वह गुण है, जिसके सामने मैं सब कुछ तुच्‍छ समझता हूँ।''

5

अप्रैल की पहली तारीख को 'रफ़ीक हिंद' का प्रथम अंक निकला, तो पंजाब के पढ़े-लिखे लोगों में शोर मच गया और पंडित सर्वदयाल के नाम की जहाँ-तहाँ चर्चा होने लगी। उनके लेख लोगों ने पहले भी पढ़े थे, परंतु 'रफ़ीक हिंद' के प्रथम अंक ने तो उनको देश के प्रथम श्रेणी के संपादकों की पंक्ति में ला बिठाया। पत्र क्‍या था, सुंदर और सुगंधित फूलों का गुच्‍छा था, जिसकी एक-एक कुसुम-कलिका चटक-चटकर अपनी मोहिनी वासना से पाठकों के मनों की मुग्‍ध कर रही थी । एक समाचार-पत्र ने समालोचन करते हुए लिखा- ''रफ़ीक हिंद' का प्रथम अंक प्रकाशित हो गया है, और ऐसी शान से कि देखकर चित्‍त प्रसन्‍न हो जाता है। पंडित सर्वदयाल को इस समय तक हम केवल एक लेखक ही जानते थे, परंतु अब जान पड़ा कि पत्र-संपादक के काम में भी इनकी योग्‍यता पराकाष्‍ठा तक पहुँची हुई है। अच्‍छे लेख लिख देना और बात है, और अच्‍छे लेख प्राप्‍त करके उन्‍हें ऐसे क्रम और विधि से रखना कि किसी की दृष्टि में खटकने न पाए, और बात है। पंड़ित सर्वदयाल की प्रभावशाली लेखनी में किसी को संदेह न था, परंतु 'रफ़ीक हिंद' ने इस बात को और पुष्‍ट कर दिया है कि आप संपादक के काम में भी पूर्णतया योग्‍य हैं। हमारी सम्‍मति में 'रफ़ीक हिंद' से वंचित रहना जातीयभाव से अथवा साहित्‍य व सदाचार के भाव से दुर्भाग्‍य ही नहीं वरन् अपराध है।''

एक और प्रत्र की सम्‍मति थी– ''यदि हमारी भाषा में कोई ऐसी मासिक पत्रिका है, जिसे यूरोप और अमेरीका के पत्रों के सामने रखा जा सकता है, तो वह 'रफ़ीक हिंद' है, जो सब प्रकार के गुणों से सुसज्जित है। उस‍के गुणों को परखने के लिए उसे एक बार देख लेना ही पर्याप्‍त है। निस्‍संदेह पंड़ित सर्वदयाल ने हमारे साहित्‍य का सिर ऊँचा कर दिया है।''

ठाकुर हनुमंतराय सिंह ने ये समालोचनाएँ देखीं, तो हर्ष से उछल पड़े। वह मोटर में बैठकर ‘रफ़ीक हिंद' के कार्यालय में गए और पंड़ित सर्वदयाल को बधाई देकर बोले ''मुझे यह आशा न थी कि हमें इतनी सफलता हो सकेगी।''

पं.सर्वदयाल ने उत्‍तर दिया- ''मेरे विचार में यह कोई बड़ी सफलता नहीं।'' ठाकुर साहब ने कहा- ''आप कहें, परंतु स्‍मरण रखिए, वह दिन दूर नहीं जब अखबारी दुनिया आपको पंजाब का शिरोमणि स्‍वीकार करेगी।''

6

इसी प्रकार एक वर्ष बीत गया 'रफ़ीक हिंद' की कीर्ति देश भर में फैल गई, और पंडित सर्वदयाल की गिनती बड़े आदमियों में होने लगा था। उन्‍हें जीवन एक आनंदमय यात्रा प्रतीत होता था, जो फूलों की छाया में तय हो, और जिसे आम्रपल्‍लवों में बैठकर गाने वाली श्‍यामा और कली-कली का रस चूसनेवाला भौंरा भी प्‍यासे नेत्रों से देखता हो, कि इतने में भाग्‍य ने पाँसा पलट दिया ।

अंबाला की म्‍युनिस्‍पैलिटी के मेंबर चुनने का समय समीप आया, तो ठाकुर हनुमंतराय सिंह भी एक पक्ष की और से मेंबरी के लिए प्रयत्‍न करने लगे। अमीर पुरूष थे, रूपया-पैसा पानी की तरह बहाने को उद्यत हो गए। उनके मुकाबले में लाला हशमतराय खड़े हुए। हाईस्‍कूल के हेडमास्‍टर, वेतन थोड़ा लेते थे कपड़ा साधारण पहनते थे। कोठी में नहीं, वरन् नगर की एक गली में उनका आवास था। परंतु जाति की सेवा के लिए हर समय उद्यत रहते थे। उनसे पंडित सर्वदयाल की बड़ी मित्रता थी । उनकी इच्‍छा न थी कि इस झंझट में पड़ें, परंतु सुहृद मित्रों ने जोर देकर उन्‍हें खड़ा कर दिया। पंडित सर्वदयाल ने सहायता का वचन दिया।

ठाकुर हनुमंतराय सिंह, जातीय सेवा के अभिलाषी तो थे, परंतु उनके वचन और कर्म में बड़ा अंतर था। उनकी जातीय सेवा व्‍याख्‍यान झाड़ने, लेख लिखने और प्रस्‍ताव पास कर देने तक ही सी‍मित थी। इससे परे जाना वे अनावश्‍यक ही न समझते, बल्कि स्‍वार्थ सिद्ध होता, तो अपने बच्‍चे के विरूद्ध भी कार्य करने से न झिझकते थे। इस बात से पंडित सर्वदयाल भलीभाँति परिचित थे। इसलिए उन्‍होंने अपने मन में निश्‍चय कर लिया कि परिणाम चाहे कैसा ही बुरा क्‍यों न हो, ठाकुर साहब को मेंबर न बनने दूँगा। इस पद के लिए वे लाला हशमतराय ही को उपयुक्‍त समझते थे।

रविवार का दिन था। पंडित सर्वदयाल का भाषण सुनने के लिए सहस्‍त्रों लोग एकत्र हो रहे थे। विज्ञापन में व्‍याख्‍यान का विषय 'म्‍युनिसिपल इलेक्‍शन' था। पंडित सर्वदयाल क्‍या कहते हैं, यह जानने के लिए लोग अधीर हो रहे थे। लोगों की आँखें इस ताक में थी कि देखें पंडितजी सत्‍य को अपनाते हैं, या झूठ की ओर झुकते हैं? न्‍याय का पक्ष लेते हैं, या रूपये का? इतने में पंडित जी प्‍लेटफार्म पर आए। हाथों ने तालियों से स्‍वागत किया। कान प्‍लेटफार्म की ओर लगाकर सुनने लगे। पंडितजी ने कहा-

'' मैं यह नहीं कहता कि आप अमुक मनुष्‍य को अपना वोट दें। किंतु इतना अवश्‍य कहता हूँ कि जो कुछ करें, समझ-सोचकर करें। यह कोई साधारण बात नहीं कि आप बेपरवाई से काम लें, और चाय की प्‍यालियों पर, बिस्‍कुट की तश्‍तरियों पर और ताँगें की सैर पर वोट दे दें। अथवा जाति-बिरादरी व साहूकारे-ठाठ-बाट पर लट्टू हो जाएँ, प्रत्‍युत इस वोट का अधिकारी वह मनुष्‍य है, जिसके हृदय में करूणा तथा देश और जाति की सहानुभूति हो, जो जाति के साधारण और छोटे लोगों में घूमता हो, और जाति को ऊँचा उठाने में रात-दिन मग्‍न रहता हो। जो प्‍लेग और हैजे के दिनों में रोगियों की सेवा-शुश्रूषा करता हो, और अकाल के समय कंगालों की सांत्वना देता हो। जो सच्‍चे अर्थो में देश का हितैषी हो, और लोगों को हार्दिक विचारों को स्‍पष्‍टतया प्रकट करने और उनके समर्थन करने में निर्भय और पक्षपात-रहित हो। ऐसा मनुष्‍य निर्धन होने पर भी चुनाव का अधिकारी है, क्‍योंकि ये ही भाव उसके भविष्‍य में उपयोगी सिद्ध होने के प्रमाण हैं।''

ठाकुर हनुमंतराय सिंह को पूरा-पूरा विश्‍वास था कि पंडितजी उनके पक्ष में बोलेंगे, परंतु व्‍याख्‍यान सुनकर उनके तन में आग लग गई। कुछ मनुष्‍य ऐसे भी थे, जो पंडितजी की लोकप्रियता देखकर उनसे जलते थे। उरको मौका मिल गया, ठाकुर साहब के पास जाकर बोले- ''यह बात क्‍या है, जो वह आपका अन्‍न खाकर आप ही‍ के विरूद्ध बोलने लग गया?''

ठाकुर साहब ने उत्‍तर दिया- ''मैंने उसके साथ कोई बुरा व्‍य‍वहार नहीं किया। जाने उसके मन में क्‍या समाई है?''

एक आदमी ने कहा- ''कुछ घमंडी है।''

ठाकुर साहब ने जोश में आकर कहा- ''मैं उसका घमंड तोड़ दूँगा।''

कुछ देर बाद पंडित सर्वदयाल बुलाए गए। वे इसके लिए पहले ही से तैयार थे। उनके आने पर ठाकुर साहब ने कहा- ''क्‍यों पंडितजी! मैंने क्‍या अपराध किया है?''

पंडित सर्वदयाल का हृदय धड़कने लगा, परंतु साहस से बोले- ''मैंने कब कहा है कि आपने कोई अपराध किया है?''

'' तो इस भाषण का क्‍या मतलब है?''

'' यह प्रश्‍न सिद्धांत का है।''

'' तो मेरे विरूद्ध व्‍याख्‍यान देंगे आप?''

पंडित सर्वदयाल ने भूमि की ओर देखते हुए उत्‍तर दिया- ''मैं आप‍की अपेक्षा लाला हशमतराय को मेंबरी के लिए अधिक उपयुक्‍त समझता हूँ।''

'' य‍ह सौदा आपको बहुत महँगा पड़ेगा।

पंडित सर्वदयाल ने सिर ऊँचा उठाकर उत्‍तर दिया- ''मैं इसके लिए सब कुछ देने को तैयार हूँ।''

ठाकुर साहब इस सा‍हस को देखकर दंग रह गए और बोले- ''नौकरी और प्रतिष्‍ठा भी?''

'' हाँ,नौकरी और प्रतिष्‍ठा भी ।''

'' उस, तुच्‍छ, उद्धत, कल के छोकरे हशमतराय के लिए?''

'' नहीं, सच्‍चाई के लिए।''

ठाकुर साहब को ख्‍याल न था कि बात बढ़ जाएगी, न उनका यह विचार था कि इस विषय को इतनी दूर ले जाएं। परंतु जब बात बढ़ गई तो पीछे न हट सके, गरजकर बोले- ''यह सच्‍चाई यहाँ न निभेगी।''

पंडित सर्वदयाल को कदाचित् कोमल शब्‍दों में कहा जाता, तो संभव है, हठ को छोड़ देते। परंतु इस अनुचित दबाव को सहन न कर सके! धमकी के उत्तर में उन्होंने ऐंरन्‍तु विचार हठ को छोड़ देते गी ्‍या हार या-''मैंने उसके साथ्‍ठकर कहा- "ऐसी निभेगी कि आप देखेंगे।"

" क्या कर लोगे? क्या तुम समझते हो कि इन भाषणों से मैं मेंबर न बन सकूँगा?"

" नहीं,यह बात तो नहीं समझता।"

" तो फिर तुम अकड़ते किस बात पर हो?’"

" यह मेरा कर्तव्य है। उसे पूरा करना मेरा धर्म है। फल परमेश्‍वर के हाथ में है।"

ठाकुर साहब ने मुँह मोड़ लिया। पंडित सर्वदयाल ताँगे पर जा बैठे और कोचवान से बोले- "चलो।"

इसके दूसरे दिन पंडित सर्वदयाल ने त्यागपत्र भेज दिया।

संसार की गति विचित्र है। जिस सच्चाई ने उन्हें एक दिन सुख-संपति के दिन दिखाए थे, उसी सच्चाई के कारण नौकरी करते समय पंडित सर्वदयाल प्रसन्न हुऐ थे। छोड़ते समय उससे भी प्रसन्न हुए।

परंतु लाला हशमतराम ने यह समाचार सुन तो अवाक्‌ रह गए।

वह भागे-भागे पंडित सर्वदयाल के पास जाकर बोले- "भाई, मैंने मेंबरी छोड़ी, तुम अपना त्यागप्रत्र लौटा लो।"

पंड़ित सर्वदयाल के मुख-मंडल पर एक अपूर्व तेज की आभा दमकने लगी,जो इस मायावी संसार में कहीं-कहीं ही देख पड़ती है। उन्होंने धैर्य और दृढ़ता से उत्तर दिया- "यह असंभव है।"

" क्या मेरी मेंबरी का इतना ही खयाल है?"

" नहीं, यह सिद्धांत का प्रश्‍न है।"

लाला हशमतराय निरुतर होकर चुप गए। सहसा उन्हें विचार आया कि "रफ़ीक हिंद’ पंडितजी को अत्यंत प्रिय है, मानो वह उनका प्यारा बेटा है! धीर भाव से बोले-"रफ़ीक हिंद को छोड़ दोगे?"

" हाँ,छोड़ दूँगा। "

"फिर क्या करोगे?"

"कोई और काम कर लूँगा,परंतु सचाई को न छोड़ूँगा।"

"पंडितजी! भूल रहे हो, अपना सब कुछ गँवा बैठोगे।"

" परंतु सच तो बचा रहेगा, मैं यह चाहता हूँ।"

लाला हशमतराय ने देखा कि अब और कहना निष्फल है। चुप होकर बैठ गए। इतने में ठाकुर हनुमंतराय के नौकर ने पंडित सर्वदयाल के हाथ में लिफ़ाफ़ा रख दिया। उन्होंने खोलकर पढा़ ऒर कहा-"मुझे पहले ही आशा थी।"

लाला हशमतराय ने पूछा-"क्या है?देखूँ।"

" त्यागपत्र स्वीकार हो गया।"

7

ठाकुर हनुमंतराय सिंह ने सोचा, यदि अब भी सफलता न हुई, तो नाक कट जाएगी। धनवान पुरुष थे, थैली का मुँह खोल दिया।सुहॄद्‌ मित्र और लोलुप खुशामदियों की सम्मति से कारीगर हलवाई बुलवाए गए और चूल्हे गर्म होने लगे। ताँगे दौड़ने लगे और वोटों पर रुपए निछावर होने लगे। अब तक ठाकुर साहब का घमंडी सिर किसी बूढे़ के आगे भी न झुका था। परंतु इलेक्शन क्या आया, उनकी प्रकृति ही बदल गई। अब कंगाल से कंगाल आदमी भी मिलता, तो मोटर रोक लेते और हाथ जोड़कर नम्रता से कहते- "कोई सेवा हो,तो आज्ञा दीजिए, मैं दास हूँ।" कदाचित्‌ ठाकुर साहब का विचार था कि लोग इस प्रकार वश में हो जाएंगे। परंतु यह उनकी भूल थी। हाँ, जो लालची थे, वे दिन-रात ठाकुर साहब के घर मिठाइयाँ उड़ाते थे और मन में प्रार्थना करते थे कि काश, गवर्नमेंट नियम बदल दे और इलेक्शन हर तीसरे महीने हुआ करे।

परंतु लाला हशमतराय की ओर से न तो ताँगा दौड़ता था, न लड्‌डू बँटते थे। हाँ दो चार सभाएँ अवश्य हुईं, जिनमें पंडित सर्वदयाल ने धारा-प्रवाह व्याख्यान दिए, और प्रत्येक रुप से यह सिद्ध करने का यत्न किया कि लाला हशमतराय से बढ़कर मेंबरी के लिए और कोई आदमी योग्य नहीं।

इलेक्शन का दिन आ पहुँचा। ठाकुर हनुमंतराय सिंह और लाला हशमतराय दोनों के हृदय धड़कने लगे,जिस प्रकार परीक्षा का परिणाम निकलते समय विद्यार्थी अधीर हो जाते हैं। दोपहर का समय था, पर्चियों की गिनती हो रही थी। ठाकुर हनुमंतराय के आदमी फूलों की मालाएँ, विक्टोरिया बैंड और आतशबाजी के गोले लेकर आए थे। उनको पूरा-पूरा विश्‍वास था कि ठाकुर साहब मेंबर बन जाएँगे और विश्‍वास का कारण भी था, क्योंकि ठाकुर साहब का पचीस हजार उठ चुका था। परंतु परिणाम निकला, तो उनकी तैयारियाँ धरी-धराई रह गईं। लाला हशमतराय के वोट अधिक थे।

इसके पंद्रहवें दिन पंड़ित सर्वदयाल रावलपिंडी को रवाना हुए। रात्रि का समय था, आकाश तारों से जगमगा रह था। इसी प्रकार की रात्रि थी, जब वे रावलपिंडी से अंबाले को आ रहे थे। किन्तु इस रात्रि और उस रात्रि में कितना अंतर था! तब हर्ष से उनका चेहरा लाल था, आज नेत्रों से उदासी टपक रही थी। भाग्य की बात, आज सूट भी वही पहना हुआ था, जो उस दिन था। उसी प्रकार कमरा खाली था, और एक मुसाफिर एक कोने में पड़ा सो रहा था।

पंडित सर्वदयाल ने शीत से बचने के लिए, हाथ जेब में डाला, तो काग़ज का एक टुकड़ा निकल आया। देखा तो वही काग़ज था, जिसे वर्ष पहले उन्होंने बड़े चाव से लिखा था।-

पंडित सर्वदयाल बी.ए.,एडीटर ‘रफीक़ हिंद’, अंबाला

उस समय इसे देखकर आनंद की तरंगे उठी थीं, आज शोक आ गया। उन्होंने इसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये और कंबल ओढ़कर लेट गए, परंतु नींद न आई।

8

कैसी शोकजनक और हृदयद्रावी घटना है कि जिसकी योग्यता पर समाचार पत्रों के लेख निकलते हों, जिसकी वक्तॄताओं पर वग्मिता निछावर होती हो, जिसका सत्य स्वभाव अटल हो, उसको आजीविका चलाने के लिए केवल पाँच सौ रुपये की पूँजी से दुकान करनी पड़े। निस्संदेह यह सभ्य समाज का दुर्भाग्य है!

पंडित सर्वदयाल को दफ्तर की नौकरी से घृणा थी। और अब तो वे एक वर्ष एडीटर की कुर्सी पर बैठ चुके थे- "हम और हमारी सम्मति"का स्वाद चख चुके थे, इसलिए किसी नौकरी को मन न मानता था। कई समाचार पत्रों में प्रार्थना-पत्र भेजे, परंतु काम न मिला। विवश होकर उन्होंने दुकान खोली, परंतु दुकान चलाने के लिए जो चालें चली जाती हैं, जो झूठ बोले जाते हैं, जो अधिक से अधिक मूल्य बताकर उसको कम से कम कहा जाता है, इससे पंडित सर्वदयाल को घृणा थी। उनको मान इस बात का था कि मेरे यहाँ सच का सौदा है। परंतु संसार में इस सौदे के ग्राहक कितने हैं! उनके पिता उनसे लड़ते थे, झगड़ते थे। पंडित सर्वदयाल यह सब कुछ सहन करते थे और चुपचाप जीवन के दिन गुजारते जाते थे। उनकी आय इतनी न थी कि पहले की तरह तड़क-भड़क से रह सकें। इसलिए न कालर-नेकटाई लगाते थे, न पतलून पहनते थे। बालों में तेल डाले महीनों बीत जाते थे,परंतु उन्हें कोई चिंता न थी। घर में गाय रखी हुई थी, उसके लिए चारा काटते थे, सानी बनाते थे। कहार रखने की शक्ति न थी, अतः कुएँ से पानी भी आप लाते थे। उनकी स्त्री चर्खा कातती थी, कपड़े सीती थी, और घर के अन्य काम-काज करती थी। और कभी-कभी लड़ने भी लगती थी। परंतु सर्वदयाल चुप रहते थे।

प्रातःकाल का समय था। पंडित सर्वदयाल अपनी दुकान पर बैठे ‘रफ़ीक हिंद’ का नवीन अंक देख रहे थे। जैसे एक माली सिरतोड़ परिश्रम से फूलों की क्यारियाँ तैयार करे, और उनको कोई दूसरा माली नष्ट कर दे।

इतने में उनकी दुकान के सामने एक मोटरकार आकर रुकी और उसमें से ठाकुर हनुमंतराय सिंह उतरे। पंडित सर्वदयाल चौंक पड़े। ख्याल आया-"आँखे कैसे मिलाऊँगा। एक दिन वह था कि इनमें प्रेम का वास था, परंतु आज उसी रुथान पर लज्जा का निवास है।"

ठाकुर हनुमंतराय ने पास आकर कहा- "अहा! पंडितजी बैठे हैं। बहुत देर के बाद दर्शन हुए। कहिए क्या हाल है?"

पंडित सर्वदयाल ने धीरज से उत्तर दिया- "अच्छा है। परमात्मा की कृपा है।"

" यह दुकान अपनी है क्या?"

" जी हाँ।"

" कब खोली?’

" आठ मास के लगभग हुए हैं।"

ठाकुर साहब ने उनको चुभती हुई दॄष्टि से देखा और कहा- "यह काम आपकी योग्यता के अनुकूल नहीं है।"

पंडित सर्वदयाल ने बेपरवाई से उत्तर किया- "संसार में बहुत से मनुष्य ऐसे हैं, जिनको वह करना पड़ता हैं, जो उनके योग्य नहीं होता। मैं भी उनमें से एक हूँ।"

"आमदनी अच्छी हो जाती है?"

पंडित सर्वदयाल उत्तर न दे सके। सोचने लगे, क्या कहूँ। वास्तव में बात यह थी कि आमदनी बहुत ही थोड़ी थी परंतु इस सच्चाई को ठाकुर साहब के सम्मुख प्रकट करना उचित न समझा। जिसके सामने एक दिन गर्व से सिर ऊँचा किया था और मान-प्रतिष्ठा को पाँव से ठुकरा दिया था। मानो मिट्टी तुच्छ ढेला हो, उनके सामने पश्‍चाताप न कर सके और यह कहना उचित न जान पड़ा कि हालत खराब है। सहसा उन्होंने सिर ऊँचा किया और धीर भाव से उत्तर दिया- "निर्वाह हो रहा है।"

ठाकुर साहब दूसरे के हॄदय को भाँप लेने में बड़े चतुर थे। इन शब्दों से बहुत कुछ समझ गए। सोचने लगे, कैसा सूरमा है, जो जीवन के अंधकारमय क्षणों में भी सुमार्ग से इधर-उधर नहीं हटता। चोट पर चोट पड़ती है, परंतु हृदय सच के सौदे को नहीं छोड़ता। ऐसे ही पुरुष हैं, जो विपत्ति की तेज नदी में सिंह की नाई सीधे तैरते हैं, और अपनी आन पर धन और प्राण दोनों को निछावर कर देते हैं। ठाकुर साहब ने जोश से कहा- "आप धन्य हैं!"

पंडित सर्वदयाल अभी तक यही समझे हुए थे कि ठाकुर साहब मुझे जलाने के लिए आए हैं,परंतु इन शब्दों से उनकी शंका दूर हो गई। अंधकार-आवृत्त आकाश में किरण चमक उठी। उन्होंने ठाकुर साहब के मुख की ओर देखा। वहाँ धीरता, प्रेम और लज्जा तथा पश्‍चाताप का रंग झलकता था। आशा ने निश्‍चय का स्थान लिया। सकुचाए हुए बोले- "यह आपकी कृपा है! मैं तो ऐसा नहीं समझता।"

ठाकुर साहब अब न रह सके। उन्होंने पंडित सर्वदयाल को गले से लगा लिया और कहा- "मैंने तुम पर बहुत अन्याय किया है। मुझे क्षमा कर दो। ‘रफ़ीक हिंद’ को सँभालो, आज से मैं तुम्हें छोटा भाई समझता हूँ। परमात्मा करे तुम पहले की तरह सच्चे, विश्‍वासी, न्यायप्रिय और दॄढ़ बने रहो, मेरी यही कामना है।"

पंडित सर्वदयाल अवाक्‌ रह गए। वे समझ न सके कि ये सच है। सचमुच ही भाग्य ने फिर पल्टा खाया है। आश्‍चर्य से ठाकुर साहब की और देखने लगे।

ठाकुर साहब ने कथन को जारी रखते हुए कहा- "मैंने हजारों मनुष्य देखे हैं, जो कर्तव्य और धर्म पर दिन-रात लेक्‍चर देते नहीं थकते, परंतु जब परीक्षा का समय आता है, तो सब कुछ भूल जाते हैं। एक तुम हो, जिसने इस जादू पर विजय प्राप्‍त की है। उस दिन तुमने मेरी बात रद्द कर दी,लेकिन आज यह न होगा। तुम्‍हारी दुकान पर बैठा हूँ, जब तक हाँ न कहोगे, तब तक यहाँ से नहीं हिलूँगा।"

पंडित सर्वदयाल की आँखों में आँसू झलकने लगे। गर्व ने गर्दन झुका दी। तब ठाकुर साहब ने सौ-सौ के दस नोट बटुए में से निकाल कर उनके हाथ में दिए और कहा- "यह तुम्‍हारे साहस का पुरस्कार है। तुम्हें इसे स्वीकार करना होगा।"

पंडित सर्वदयाल अस्वीकार न कर सके।

ठाकुर हनुमंतराय जब मोटर में बैठे, तो पुलकित नेत्रों में आनंद का नीर झलकता था, मानो कोई निधि हाथ लग गई हो। उनके साथ एक अंग्रेज मित्र बैठा था, उसने पूछा- "वेल, ठाकुर साहब। इस दुकान में क्या ठा टुम डेर खड़ा माँगटा।"

" वह चीज जो किसी भी दुकान पर नहीं।"

" कौन-सा ?"

" सच का सौदा!"

परंतु अंग्रेज इससे कुछ न समझ सका।

मोटर चलने लगी।

यही सच है - मन्नू भंडारी

कानपुर
सामने आंगन में फैली धूप सिमटकर दीवारों पर चढ ग़ई और कन्धे पर बस्ता लटकाए नन्हे-नन्हे बच्चों के झुंड-के-झुंड दिखाई दिए, तो एकाएक ही मुझे समय का आभास हुआ। घंटा भर हो गया यहां खडे-ख़डे और संजय का अभी तक पता नहीं! झुंझलाती-सी मैं कमरे में आती हूं। कोने में रखी मेज पर किताबें बिखरी पडी हैं, कुछ खुली, कुछ बन्द। एक क्षण मैं उन्हें देखती रहती हूं, फिर निरूद्देश्य-सी कपडोंं की अलमारी खोलकर सरसरी-सी नजर से कपडे देखती हूं। सब बिखरे पडे हैं। इतनी देर यों ही व्यर्थ खडी रही; इन्हें ही ठीक कर लेती। पर मन नहीं करता और फिर बन्द कर देती हूं।
नहीं आना था तो व्यर्थ ही मुझे समय क्यों दिया? फिर यह कोई आज ही की बात है! हमेशा संजय अपने बताए हुए समय से घंटे-दो घंटे देरी करके आता है, और मैं हूं कि उसी क्षण से प्रतीक्षा करने लगती हूं। उसके बाद लाख कोशिश करके भी तो किसी काम में अपना मन नहीं लगा पाती। वह क्यों नहीं समझता कि मेरा समय बहुत अमूल्य है; थीसिस पूरी करने के लिए अब मुझे अपना सारा समय पढाई में ही लगाना चाहिए। पर यह बात उसे कैसे समझाऊं!
मेज पर बैठकर मैं फिर पढने का उपक्रम करने लगती हूं, पर मन है कि लगता ही नहीं। पर्दे के जरा-से हिलने से दिल की धडक़न बढ ज़ाती है और बार-बार नजर घडी क़े सरकते हुए कांटों पर दौड ज़ाती है। हर समय यही लगता है, वह आया! वह आया!
तभी मेहता साहब की पांच साल की छोटी बच्ची झिझकती-सी कमरे में आती है,
''आंटी, हमें कहानी सुनाओगी?''
''नहीं, अभी नहीं, पीछे आना!'' मैं रूखाई से जवाब देती हूं। वह भाग जाती है। ये मिसेज मेहता भी एक ही हैं! यों तो महीनों शायद मेरी सूरत नहीं देखतीं; पर बच्ची को जब-तब मेरा सिर खाने को भेज देती हैं। मेहता साहब तो फिर भी कभी-कभी आठ-दस दिन में खैरियत पूछ ही लेते हैं, पर वे तो बेहद अकडू मालूम होती हैं। अच्छा ही है, ज्यादा दिलचस्पी दिखाती तो क्या मैं इतनी आजादी से घूम-फिर सकती थी?
खट-खट-खट वही परिचित पद-ध्वनि! तो आ गया संजय। मैं बरबस ही अपना सारा ध्यान पुस्तक में केंन्द्रित कर लेती हूं। रजनीगन्धा के ढेर-सारे फूल लिए संजय मुस्कुराता-सा दरवाजे पर खडा है। मैं देखती हूं, पर मुस्कुराकर स्वागत नहीं करती। हंसता हुआ वह आगे बढता है और फूलों को मेज पर पटककर, पीछे से मेरे दोनों कन्धे दबाता हुआ पूछता है, ''बहुत नाराज हो?''
रजनीगन्धा की महक से जैसे सारा कमरा महकने लगता है।
''मुझे क्या करना है नाराज होकर?'' रूखाई से मैं कहती हूं। वह कुर्सी सहित मुझे घुमाकर अपने सामने कर लेता है, और बडे दुलार के साथ ठोडी उठाकर कहता, ''तुम्हीं बताओ क्या करता? क्वालिटी में दोस्तों के बीच फंसा था। बहुत कोशिश करके भी उठ नहीं पाया। सबको नाराज क़रके आना अच्छा भी नहीं लगता।''
इच्छा होती है, कह दूं- ''तुम्हें दोस्तों का खयाल है, उनके बुरा मानने की चिन्ता है, बस मेरी ही नहीं!'' पर कुछ कह नहीं पाती, एकटक उसके चेहरे की ओर देखती रहती हूं उसके सांवले चेहरे पर पसीने की बूंदें चमक रही हैं। कोई और समय होता तो मैंने अपने आंचल से इन्हें पोंछ दिया होता, पर आज नहीं। वह मन्द-मन्द मुस्कुरा रहा है, उसकी आंखें क्षमा-याचना कर रही हैं, पर मैं क्या करूं? तभी वह अपनी आदत के अनुसार कुर्सी के हत्थे पर बैठकर मेरे गाल सहलाने लगता है। मुझे उसकी इसी बात पर गुस्सा आता है। हमेशा इसी तरह करेगा और फिर दुनिया-भर का लाड-दुलार दिखलाएगा। वह जानता जो है कि इसके आगे मेरा क्रोध टिक नहीं पाता। फिर उठकर वह फूलदान के पुराने फूल फेंक देता है, और नए फूल लगाता है। फूल सजाने में वह कितना कुशल है! एक बार मैंने यों ही कह दिया था कि मुझे रजनीगन्धा के फूल बडे पसन्द हैं, तो उसने नियम ही बना लिया कि हर चौथे दिन ढेर-सारे फूल लाकर मेरे कमरे में लगा देता है। और अब तो मुझे भी ऐसी आदत हो गई है कि एक दिन भी कमरे में फूल न रहें तो न पढने में मन लगता है, न सोने में। ये फूल जैसे संजय की उपस्थिति का आभास देते रहते हैं।
थोडी देर बाद हम घूमने निकल जाते हैं। एकाएक ही मुझे इरा के पत्र की बात याद आती है। जो बात सुनने के लिए में सवेरे से ही आतुर थी, इस गुस्सेबाजी में जाने कैसे उसे ही भूल गई!
''सुनो, इरा ने लिखा है कि किसी दिन भी मेरे पास इंटरव्यू का बुलावा आ सकता है, मुझे तैयार रहना चाहिए।''
''कहां, कलकत्ता से?'' कुछ याद करते हुए संजय पूछता है, और फिर एकाएक ही उछल पडता है, ''यदि तुम्हें वह जॉब मिल जाए तो मजा आ जाए, दीपा, मजा आ जाए!''
हम सडक़ पर हैं, नहीं तो अवश्य ही उसने आवेश में आकर कोई हरकत कर डाली होती। जाने क्यों, मुझे उसका इस प्रकार प्रसन्न होना अच्छा नहीं लगता। क्या वह चाहता है कि मैं कलकत्ता चली जाऊं, उससे दूर?
तभी सुनाई देता है, ''तुम्हें यह जॉब मिल जाए तो मैं भी अपना तबादला कलकत्ता ही करवा लूं, हेड अॉफिस में। यहां की रोज क़ी किच-किच से तो मेरा मन ऊब गया है। कितनी ही बार सोचा कि तबादले की कोशिश करूं, पर तुम्हारे खयाल ने हमेशा मुझे बांध लिया। ऑफिस में शान्ति हो जाएगी, पर मेरी शामें कितनी वीरान हो जाएंगी!''
उसके स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया। एकाएक ही मुझे लगने लगा कि रात बडी सुहावनी हो चली है।
हम दूर निकलकर अपनी प्रिय टेकरी पर जाकर बैठ जाते हैं। दूर-दूर तक हल्की-सी चांदनी फैली हुई है और शहर की तरह यहां का वातावरण धुएं से भरा हुआ नहीं है। वह दोनों पैर फैलाकर बैठ जाता है और घंटों मुझे अपने ऑफिस के झगडे क़ी बात सुनाता है और फिर कलकत्ता जाकर साथ जीवन बिताने की योजनाएं बनाता है। मैं कुछ नहीं बोलती, बस एकटक उसे देखती हूं, देखती रहती हूं।
जब वह चुप हो जाता है तो बोलती हूं, ''मुझे तो इंटरव्यू में जाते हुए बडा डर लगता है। पता नहीं, कैसे-क्या पूछते होंगे! मेरे लिए तो यह पहला ही मौका है।''
वह खिलखिलाकर हंस पडता है।
''तुम भी एक ही मूर्ख हो! घर से दूर, यहां कमरा लेकर अकेली रहती हो, रिसर्च कर रही हो, दुनिया-भर में घूमती-फिरती हो और इंटरव्यू के नाम से डर लगता है। क्यों?'' और गाल पर हल्की-सी चपत जमा देता है। फिर समझाता हुआ कहता है, ''और देखो, आजकल ये इंटरव्यू आदि तो सब दिखावा-मात्र होते हैं। वहां किसी जान-पहचान वाले से इन्फ्लुएंस डलवाना जाकर!''
''पर कलकत्ता तो मेरे लिए एकदम नई जगह है। वहां इरा को छोडक़र मैं किसी को जानती भी नहीं। अब उन लोगों की कोई जान-पहचान हो तो बात दूसरी है,'' असहाय-सी मैं कहती हूं।
''और किसी को नहीं जानतीं?'' फिर मेरे चेहरे पर नजरें गडाकर पूछता है, ''निशीथ भी तो वहीं है?''
''होगा, मुझे क्या करना है उससे?'' मैं एकदम ही भन्नाकर जवाब देती हूं। पता नहीं क्यों, मुझे लग ही रहा था कि अब वह यही बात कहेगा।
''कुछ नहीं करना?'' वह छेडने के लहजे में कहता है।
और मैं भभक पडती हूं, ''देखो संजय, मैं हजार बार तुमसे कह चुकी हूं कि उसे लेकर मुझसे मजाक मत किया करो! मुझे इस तरह का मजाक जरा भी पसन्द नहीं है!''
वह खिलखिलाकर हंस पडता है, पर मेरा तो मूड ही खराब हो जाता है।
हम लौट पडते हैं। वह मुझे खुश करने के इरादे से मेरे कन्धे पर हाथ रख देता है। मैं झपटकर हाथ हटा देती हूं, ''क्या कर रहे हो? कोई देख लेगा तो क्या कहेगा?''
''कौन है यहां जो देख लेगा? और देख लेगा तो देख ले, आप ही कुढेग़ा।''
''नहीं, हमें पसन्द नहीं हैं यह बेशर्मी!'' और सच ही मुझे रास्ते में ऐसी हरकतें पसन्द नहीं हैं चाहे रास्ता निर्जन ही क्यों न हो; पर है तो रास्ता ही; फिर कानपुर जैसी जगह।
कमरे में लौटकर मैं उसे बैठने को कहती हूं; पर वह बैठता नहीं; बस, बांहों में भरकर एक बार चूम लेता है। यह भी जैसे उसका रोज क़ा नियम है।
वह चला जाता है। मैं बाहर बालकनी में निकलकर उसे देखती रहती हूं। उसका आकार छोटा होते-होते सडक़ के मोड पर जाकर लुप्त हो जाता है। मैं उधर ही देखती रहती हूं - निरूद्देश्य-सी खोई-खोई-सी। फिर आकर पढने बैठ जाती हूं।
रात में सोती हूं तो देर तक मेरी आंखें मेज पर लगे रजनीगन्धा के फूलों को ही निहारती रहती हैं। जाने क्यों, अक्सर मुझे भ्रम हो जाता है कि ये फूल नहीं हैं, मानो संजय की अनेकानेक आंखें हैं, जो मुझे देख रही हैं, सहला रही हैं, दुलरा रही हैं। और अपने को यों असंख्य आंखों से निरन्तर देखे जाने की कल्पना से ही मैं लजा जाती हूं।
मैंने संजय को भी एक बार यह बात बताई थी, तो वह खूब हंसा था और फिर मेरे गालों को सहलाते हुए उसने कहा था कि मैं पागल हूं, निरी मूर्खा हूं!
कौन जाने, शायद उसका कहना ही ठीक हो, शायद मैं पागल ही होऊं!
कानपुर
मैं जानती हूं, संजय का मन निशीथ को लेकर जब-तब सशंकित हो उठता है; पर मैं उसे कैसे विश्वास दिलाऊं कि मैं निशीथ से नफरत करती हूं, उसकी याद-मात्र से मेरा मन घृणा से भर उठता है। फिर अठारह वर्ष की आयु में किया हुआ प्यार भी कोई प्यार होता है भला! निरा बचपन होता है, महज पागलपन! उसमें आवेश रहता है पर स्थायित्व नहीं, गति रहती है पर गहराई नहीं। जिस वेग से वह आरम्भ होता है, जरा-सा झटका लगने पर उसी वेग से टूट भी जाता है। और उसके बाद आहों, आंसुओं और सिसकियों का एक दौर, सारी दुनिया की निस्सारता और आत्महत्या करने के अनेकानेक संकल्प और फिर एक तीखी घृणा। जैसे ही जीवन को दूसरा आधार मिल जाता है, उन सबको भूलने में एक दिन भी नहीं लगता। फिर तो वह सब ऐसी बेवकूफी लगती है, जिस पर बैठकर घंटों हंसने की तबीयत होती है। तब एकाएक ही इस बात का अहसास होता है कि ये सारे आंसूं, ये सारी आहें उस प्रेमी के लिए नहीं थीं, वरन् जीवन की उस रिक्तता और शून्यता के लिए थीं, जिसने जीवन को नीरस बनाकर बोझिल कर दिया था।
तभी तो संजय को पाते ही मैं निशीथ को भूल गई। मेरे आंसू हंसी में बदल गए और आहों की जगह किलकारियां गूंजने लगीं। पर संजय है कि जब-तब निशीथ की बात को लेकर व्यर्थ ही खिन्न-सा हो उठता है। मेरे कुछ कहने पर वह खिलखिला अवश्य पडता है; पर मैं जानती हूं, वह पूर्ण रूप से आश्वस्त नहीं है।
उसे कैसे बताऊं कि मेरे प्यार का, मेरी कोमल भावनाओं का, भविष्य की मेरी अनेकानेक योजनाओं का एकमात्र केन्द्र संजय ही है। यह बात दूसरी है कि चांदनी रात में, किसी निर्जन स्थान में, पेड-तले बैठकर भी मैं अपनी थीसिस की बात करती हूं या वह अपने ऑफिस की, मित्रों की बातें करता है, या हम किसी और विषय पर बात करने लगते हैं पर इस सबका यह मतलब तो नहीं कि हम प्रेम नहीं करते! वह क्यों नहीं समझता कि आज हमारी भावुकता यथार्थ में बदल गई हैं, सपनों की जगह हम वास्तविकता में जीते हैं! हमारे प्रेम को परिपक्वता मिल गई हैं, जिसका आधार पाकर वह अधिक गहरा हो गया है, स्थायी हो गया है।
पर संजय को कैसे समझाऊं यह सब? कैसे उसे समझाऊं कि निशीथ ने मेरा अपमान किया है, ऐसा अपमान, जिसकी कचोट से मैं आज भी तिलमिला जाती हूं। सम्बन्ध तोडने से पहले एक बार तो उसने मुझे बताया होता कि आखिर मैंने ऐसा कौन-सा अपराध कर डाला था, जिसके कारण उसने मुझे इतना कठोर दंड दे डाला? सारी दुनिया की भर्त्सना, तिरस्कार, परिहास और दया का विष मुझे पीना पडा। विश्वासघाती! नीच कहीं का! और संजय सोचता है कि आज भी मेरे मन में उसके लिए कोई कोमल स्थान है! छिः! मैं उससे नफरत करती हूं! और सच पूछो तो अपने को भाग्यशालिनी समझती हूं कि मैं एक ऐसे व्यक्ति के चंगुल में फंसने से बच गई, जिसके लिए प्रेम महज एक खिलवाड है।
संजय, यह तो सोचो कि यदि ऐसी कोई भी बात होती, तो क्या मैं तुम्हारे आगे, तुम्हारी हर उचित-अनुचित चेष्टा के आगे, यों आत्मसमर्पण करती? तुम्हारे चुम्बनों और आलिंगनों में अपने को यों बिखरने देती? जानते हो, विवाह से पहले कोई भी लडक़ी किसी को इन सबका अधिकार नहीं देती। पर मैंने दिया। क्या केवल इसीलिए नहीं कि मैं तुम्हें प्यार करती हूं, बहुत-बहुत प्यार करती हूं? विश्वास करो संजय, तुम्हारा-मेरा प्यार ही सच है। निशीथ का प्यार तो मात्र छल था, भ्रम था, झूठ था।
कानपुर
परसों मुझे कलकत्ता जाना है। बडा डर लग रहा है। कैसे क्या होगा? मान लो, इंटरव्यू में बहुत नर्वस हो गई, तो? संजय को कह रही हूं कि वह भी साथ चले; पर उसे ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल सकती। एक तो नया शहर, फिर इंटरव्यू! अपना कोई साथ होता तो बडा सहारा मिल जाता। मैं कमरा लेकर अकेली रहती हूं यों अकेली घूम-फिर भी लेती हूं तो संजय सोचता है, मुझमें बडी हिम्मत है, पर सच, बडा डर लग रहा है।
बार-बार मैं यह मान लेती हूं कि मुझे नौकरी मिल गई है और मैं संजय के साथ वहां रहने लगी हूं। कितनी सुन्दर कल्पना है, कितनी मादक! पर इंटरव्यू का भय मादकता से भरे इस स्वप्नजाल को छिन्न-भिन्न कर देता है ।
काश, संजय भी किसी तरह मेरे साथ चल पाता!
कलकत्ता
गाडी ज़ब हावडा स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर प्रवेश करती है तो जाने कैसी विचित्र आशंका, विचित्र-से भय से मेरा मन भर जाता है। प्लेटफॉर्म पर खडे असंख्य नर-नारियों में मैं इरा को ढूंढती हूं। वह कहीं दिखाई नहीं देती। नीचे उतरने के बजाय खिडक़ी में से ही दूर-दूर तक नजरें दौडाती हूं। आखिर एक कुली को बुलाकर, अपना छोटा-सा सूटकेस और बिस्तर उतारने का आदेश दे, मैं नीचे उतर पडती हूं। उस भीड क़ो देखकर मेरी दहशत जैसे और बढ ज़ाती है। तभी किसी के हाथ के स्पर्श से मैं बुरी तरह चौंक जाती हूं। पीछे देखती हूं तो इरा खडी है।
रूमाल से चेहरे का पसीना पोंछते हुए कहती हूं, ''ओफ! तुझे न देखकर मैं घबरा रही थी कि तुम्हारे घर भी कैसे पहुंचूंगी!''
बाहर आकर हम टैक्सी में बैठते हैं। अभी तक मैं स्वस्थ नहीं हो पाई हूं। जैसे ही हावडा-पुल पर गाडी पहुंचती है, हुगली के जल को स्पर्श करती हुई ठंडी हवाएं तन-मन को एक ताजग़ी से भर देती हैं। इरा मुझे इस पुल की विशेषता बताती है और मैं विस्मित-सी उस पुल को देखती हूं, दूर-दूर तक फैले हुगली के विस्तार को देखती हूं, उसकी छाती पर खडी और विहार करती अनेक नौकाओं को देखती हूं, बडे-बडे ज़हाजों को देखती हूं
उसके बाद बहुत ही भीड-भरी सडक़ों पर हमारी टैक्सी रूकती-रूकती चलती है। ऊंची-ऊंची इमारतों और चारों ओर के वातावरण से कुछ विचित्र-सी विराटता का आभास होता है, और इस सबके बीच जैसे मैं अपने को बडा खोया-खोया-सा महसूस करती हूं। कहां पटना और कानपुर और कहां यह कलकत्ता! मैंने तो आज तक कभी बहुत बडे शहर देखे ही नहीं!
सारी भीड क़ो चीरकर हम रैड रोड पर आ जाते हैं। चौडी शान्त सडक़। मेरे दोनों ओर लम्बे-चौडे ख़ुले मैदान।
''क्यों इरा, कौन-कौन लोग होंगे इंटरव्यू में? मुझे तो बडा डर लग रहा है।''
''अरे, सब ठीक हो जाएगा! तू और डर? हम जैसे डरें तो कोई बात भी है। जिसने अपना सारा कैरियर अपने-आप बनाया, वह भला इंटरव्यू में डरे! फिर कुछ देर ठहरकर कहती है, ''अच्छा, भैया-भाभी तो पटना ही होंगे? जाती है कभी उनके पास भी या नहीं?''
''कानपुर आने के बाद एक बार गई थी। कभी-कभी यों ही पत्र लिख देती हूं।''
''भई कमाल के लोग हैं! बहन को भी नहीं निभा सके!''
मुझे यह प्रसंग कतई पसन्द नहीं। मैं नहीं चाहती कि कोई इस विषय पर बात करे। मैं मौन ही रहती हूं।
इरा का छोटा-सा घर है, सुन्दर ढंग से सजाया हुआ। उसके पति के दौरे पर जाने की बात सुनकर पहले तो मुझे अफसोस हुआ था; वे होते तो कुछ मदद ही करते! पर फिर एकाएक लगा कि उनकी अनुपस्थिति में मैं शायद अधिक स्वतन्त्रता का अनुभव कर सकूं। उनका बच्चा भी बडा प्यारा है।
शाम को इरा मुझे कॉफी-हाउस ले जाती है। अचानक मुझे वहां निशीथ दिखाई देता है। मैं सकपकाकर नजर घुमा लेती हूं। पर वह हमारी मेज पर ही आ पहुंचता है। विवश होकर मुझे उधर देखना पडता है, नमस्कार भी करना पडता है; इरा का परिचय भी करवाना पडता है। इरा पास की कुर्सी पर बैठने का निमन्त्रण दे देती है। मुझे लगता है, मेरी सांस रूक जाएगी।
''कब आईं?''
''आज सवेरे ही।''
''अभी ठहरोगी? ठहरी कहां हो?''
जवाब इरा देती है। मैं देख रही हूं, निशीथ बहुत बदल गया है। उसने कवियों की तरह बाल बढा लिए हैं। यह क्या शौक चर्राया? उसका रंग स्याह पड ग़या है। वह दुबला भी हो गया है।
विशेष बातचीत नहीं होती और हम लोग उठ पडते हैं। इरा को मुन्नू की चिन्ता सता रही थी, और मैं स्वयं भी घर पहुंचने को उतावली हो रही थी। कॉफी-हाउस से धर्मतल्ला तक वह पैदल चलता हुआ हमारे साथ आता है। इरा उससे बात कर रही है, मानो वह इरा का ही मित्र हो! इरा अपना पता समझा देती है और वह दूसरे दिन नौ बजे आने का वायदा करके चला जाता है।
पूरे तीन साल बाद निशीथ का यों मिलना! न चाहकर भी जैसे सारा अतीत आंखों के सामने खुल जाता है। बहुत दुबला हो गया है निशीथ! लगता है, जैसे मन में कहीं कोई गहरी पीडा छिपाए बैठा है।
मुझसे अलग होने का दुःख तो नहीं साल रहा है इसे?
कल्पना चाहे कितनी भी मधुर क्यों न हो, एक तृप्ति-युक्त आनन्द देनेवाली क्यों न हो; पर मैं जानती हूं, यह झूठ है। यदि ऐसा ही था तो कौन उसे कहने गया था कि तुम इस सम्बन्ध को तोड दो? उसने अपनी इच्छा से ही तो यह सब किया था।
एकाएक ही मेरा मन कटु हो उठता है। यही तो है वह व्यक्ति जिसने मुझे अपमानित करके सारी दुनिया के सामने छोड दिया था, महज उपहास का पात्र बनाकर! ओह, क्यों नहीं मैंने उसे पहचानने से इनकार कर दिया? जब वह मेज क़े पास आकर खडा हुआ, तो क्यों नहीं मैंने कह दिया कि माफ कीजिए, मैं आपको पहचानती नहीं? जरा उसका खिसियाना तो देखती! वह कल भी आएगा। मुझे उसे साफ-साफ मना कर देना चाहिए था कि मैं उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती, मैं उससे नफरत करती हूं!
अच्छा है, आए कल! मैं उसे बता दूंगी कि जल्दी ही मैं संजय से विवाह करनेवाली हूं। यह भी बता दूंगी कि मैं पिछला सब कुछ भूल चुकी हूं। यह भी बता दूंगी कि मैं उससे घृणा करती हूं और उसे जिन्दगी में कभी माफ नहीं कर सकती
यह सब सोचने के साथ-साथ जाने क्यों, मेरे मन में यह बात भी उठ रही थी कि तीन साल हो गए, अभी तक निशीथ ने विवाह क्यों नहीं किया? करे न करे, मुझे क्या ?
क्या वह आज भी मुझसे कुछ उम्मीद रखता है? हूं! मूर्ख कहीं का!
संजय! मैंने तुमसे कितना कहा था कि तुम मेरे साथ चलो; पर तुम नहीं आए। इस समय जबकि मुझे तुम्हारी इतनी-इतनी याद आ रही है, बताओ, मैं क्या करूं?
कलकत्ता
नौकरी पाना इतना मुश्किल है, इसका मुझे गुमान तक नहीं था। इरा कहती है कि डेढ सौ की नौकरी के लिए खुद मिनिस्टर तक सिफारिश करने पहुंच जाते हैं, फिर यह तो तीन सौ का जॉब है। निशीथ सवेरे से शाम तक इसी चक्कर में भटका है, यहां तक कि उसने अपने ऑफिस से भी छुट्टी ले ली है। वह क्यों मेरे काम में इतनी दिलचस्पी ले रहा है? उसका परिचय बडे-बडे लोगों से है और वह कहता है कि जैसे भी होगा, वह काम मुझे दिलाकर ही मानेगा। पर आखिर क्यों?
कल मैंने सोचा था कि अपने व्यवहार की रूखाई से मैं स्पष्ट कर दूंगी कि अब वह मेरे पास न आए। पौने नौ बजे के करीब, जब मैं अपने टूटे हुए बाल फेंकने खिडक़ी पर गई, तो देखा, घर से थोडी दूर पर निशीथ टहल रहा है। वही लम्बे बाल, कुरता-पाजामा। तो वह समय से पहले ही आ गया! संजय होता तो ग्यारह के पहले नहीं पहुंचता, समय पर पहुंचना तो वह जानता ही नहीं।
उसे यों चक्कर काटते देख मेरा मन जाने कैसा हो आया। और जब वह आया तो मैं चाहकर भी कटु नहीं हो सकी। मैंने उसे कलकत्ता आने का मकसद बताया, तो लगा कि वह बडा प्रसन्न हुआ। वहीं बैठे-बैठे फोन करके उसने इस नौकरी के सम्बन्ध में सारी जानकारी प्राप्त कर ली, कैसे क्या करना होगा, उसकी योजना भी बना डाली; बैठे-बैठे फोन से ऑफिस को सूचना भी दे दी कि आज वह ऑफिस नहीं आएगा।
विवित्र स्थिति मेरी हो रही थी। उसके इस अपनत्व-भरे व्यवहार को मैं स्वीकार भी नहीं कर पाती थी, नकार भी नहीं पाती थी। सारा दिन मैं उसके साथ घूमती रही; पर काम की बात के अतिरिक्त उसने एक भी बात नहीं की। मैंने कई बार चाहा कि संजय की बात बता दूं;
पर बता नहीं सकी। सोचा, कहीं वह सुनकर यह दिलचस्पी लेना कम न कर दे। उसके आज-भर के प्रयत्नों से ही मुझे काफी उम्मीद हो चली थी। यह नौकरी मेरे लिए कितनी आवश्यक है, मिल जाए तो संजय कितना प्रसन्न होगा, हमारे विवाहित जीवन के आरम्भिक दिन कितने सुख में बीतेंगे!
शाम को हम घर लौटते हैं। मैं उसे बैठने को कहती हूं; पर वह बैठता नहीं, बस खडा ही रहता है। उसके चौडे ललाट पर पसीने की बूंदें चमक रही हैं। एकाएक ही मुझे लगता है, इस समय संजय होता, तो? मैं अपने आंचल से उसका पसीना पोंछ देती, और वह क्या बिना बाहों में भरे, बिना प्यार किए यों ही चला जाता?
''अच्छा, तो चलता हूं।''
यन्त्रचलित-से मेरे हाथ जुड ज़ाते हैं, वह लौट पडता है और मैं ठगी-सी देखती रहती हूं।
सोते समय मेरी आदत है कि संजय के लाए हुए फूलों को निहारती रहती हूं। यहां वे फूल नहीं हैं तो बडा सूना-सूना सा लग रहा है।
पता नहीं संजय, तुम इस समय क्या कर रहे हो! तीन दिन हो गए, किसी ने बांहों में भरकर प्यार तक नहीं किया।
कलकत्ता
आज सवेरे मेरा इंटरव्यू हो गया है। मैं शायद बहुत नर्वस हो गई थी और जैसे उत्तर मुझे देने चाहिए, वैसे नहीं दे पाई। पर निशीथ ने आकर बताया कि मेरा चुना जाना करीब-करीब तय हो गया है। मैं जानती हूं, यह सब निशीथ की वजह से ही हुआ।
ढलते सूरज की धूप निशीथ के बाएं गाल पर पड रही थी और सामने बैठा निशीथ इतने दिन बाद एक बार फिर मुझे बडा प्यारा-सा लगा।
मैंने देखा, मुझसे ज्यादा वह प्रसन्न है। वह कभी किसी का अहसान नहीं लेता; पर मेरी खातिर उसने न जाने कितने लोगों को अहसान लिया। आखिर क्यों? क्या वह चाहता है कि मैं कलकत्ता आकर रहूं उसके साथ, उसके पास? एक अजीब-सी पुलक से मेरा तन-मन सिहर उठता है। वह ऐसा क्यों चाहता है? उसका ऐसा चाहना बहुत गलत है, बहुत अनुचित है! मैं अपने मन को समझाती हूं, ऐसी कोई बात नहीं है, शायद वह केवल मेरे प्रति किए गए अन्याय का प्रतिकार करने के लिए यह सब कर रहा है! पर क्या वह समझता है कि उसकी मदद से नौकरी पाकर मैं उसे क्षमा कर दूंगी, या जो कुछ उसने किया है, उसे भूल जाऊंगी? असम्भव! मैं कल ही उसे संजय की बात बता दूंगी।
''आज तो इस खुशी में पार्टी हो जाए!''
काम की बात के अलावा यह पहला वाक्य मैं उसके मुंह से सुनती हूं, मैं इरा की ओर देखती हूं। वह प्रस्ताव का समर्थन करके भी मुन्नू की तबीयत का बहाना लेकर अपने को काट लेती है। अकेले जाना मुझे कुछ अटपटा-सा लगता है। अभी तक तो काम का बहाना लेकर घूम रही थी, पर अब? फिर भी मैं मना नहीं कर पाती। अन्दर जाकर तैयार होती हूं। मुझे याद आता है, निशीथ को नीला रंग बहुत पसन्द था, मैं नीली साडी ही पहनती हूं। बडे चाव और सतर्कता से अपना प्रसाधन करती हूं, और बार-बार अपने को टोकती जाती हूं - किसको रिझाने के लिए यह सब हो रहा है? क्या यह निरा पागलपन नहीं है?
सीढियों पर निशीथ हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ कहता है, ''इस साडी में तुम बहुत सुन्दर लग रही हो।''
मेरा चेहरा तमतमा जाता है; कनपटियां सुर्ख हो जाती हैं। मैं चुपचाप ही इस वाक्य के लिए तैयार नहीं थी। यह सदा चुप रहनेवाला निशीथ बोला भी तो ऐसी बात।
मुझे ऐसी बातें सुनने की जरा भी आदत नहीं है। संजय न कभी मेरे कपडोंं पर ध्यान देता है, न ऐसी बातें करता है, जब कि उसे पूरा अधिकार है। और यह बिना अधिकार ऐसी बातें करे?
पर जाने क्या है कि मैं उस पर नाराज नहीं हो पाती हूं; बल्कि एक पुलकमय सिहरन महसूस करती हूं। सच, संजय के मुंह से ऐसा वाक्य सुनने को मेरा मन तरसता रहता है, पर उसने कभी ऐसी बात नहीं की। पिछले ढाई साल से मैं संजय के साथ रह रही हूं। रोज ही शाम को हम घूमने जाते हैं। कितनी ही बार मैंने श्रृंगार किया, अच्छे कपडे पहने, पर प्रशंसा का एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं सुना। इन बातों पर उसका ध्यान ही नहीं जाता; यह देखकर भी जैसे यह सब नहीं देख पाता। इस वाक्य को सुनने के लिए तरसता हुआ मेरा मन जैसे रस से नहा जाता है। पर निशीथ ने यह बात क्यों कही? उसे क्या अधिकार है?
क्या सचमुच ही उसे अधिकार नहीं है? नहीं है?
जाने कैसी मजबूरी है, कैसी विवशता है कि मैं इस बात का जवाब नहीं दे पाती हूं। निश्चयात्मक दृढता से नहीं कह पाती कि साथ चलते इस व्यक्ति को सचमुच ही मेरे विषय में ऐसी अवांछित बात कहने का कोई अधिकार नहीं है।
हम दोनों टैक्सी में बैठते हैं। मैं सोचती हूं, आज मैं इसे संजय की बात बता दूंगी।
''स्काई-रूम!'' निशीथ टैक्सीवाले को आदेश देता है।
'टुन की घंटी के साथ मीटर डाउन होता है और टैक्सी हवा से बातें करने लगती है। निशीथ बहुत सतर्कता से कोने में बैठा है, बीच में इतनी जगह छोडक़र कि यदि हिचकोला खाकर भी टैक्सी रूके, तो हमारा स्पर्श न हो। हवा के झोंके से मेरी रेशमी साडी क़ा पल्लू उसके समूचे बदन को स्पर्श करता हुआ उसकी गोदी में पडक़र फरफराता है। वह उसे हटाता नहीं है। मुझे लगता है, यह रेशमी, सुवासित पल्लू उसके तन-मन को रस से भिगो रहा है, यह स्पर्श उसे पुलकित कर रहा है, मैं विजय के अकथनीय आह्लाद से भर जाती हूं।
आज भी मैं संजय की बात नहीं कह पाती। चाहकर भी नहीं कह पाती। अपनी इस विवशता पर मुझे खीज भी आती है, पर मेरा मुंह है कि खुलता ही नहीं। मुझे लगता है कि मैं जैसे कोई बहुत बडा अपराध कर रही होऊं; पर फिर भी मैं कुछ नहीं कह सकी।
यह निशीथ कुछ बोलता क्यों नहीं? उसका यों कोने में दुबककर निर्विकार भाव से बैठे रहना मुझे कतई अच्छा नहीं लगता। एकाएक ही मुझे संजय की याद आने लगती है। इस समय वह यहां होता तो उसका हाथ मेरी कमर में लिपटा होता! यों सडक़ पर ऐसी हरकतें मुझे स्वयं पसन्द नहीं; पर जाने क्यों, किसी की बाहों की लपेट के लिए मेरा मन ललक उठता है। मैं जानती हूं कि जब निशीथ बगल में बैठा हो, उस समय ऐसी इच्छा करना,
या ऐसी बात सोचना भी कितना अनुचित है। पर मैं क्या करूं? जितनी द्रुतगति से टैक्सी चली जा रही है, मुझे लगता है, उतनी ही द्रुतगति से मैं भी बही जा रही हूं, अनुचित, अवांछित दिशाओं की ओर।
टैक्सी झटका खाकर रूकती है तो मेरी चेतना लौटती है। मैं जल्दी से दाहिनी ओर का फाटक खोलकर कुछ इस हडबडी से नीचे उतर पडती हूं; मानो अन्दर निशीथ मेरे साथ कोई बदतमीजी कर रहा हो।
''अजी, इधर से उतरना चाहिए कभी?'' टैक्सीवाला कहता है मुझे अपनी गलती का भान होता है। उधर निशीथ खडा है, इधर मैं, बीच में टैक्सी!
पैसे लेकर टैक्सी चली जाती है तो हम दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने हो जाते हैं। एकाएक ही मुझे खयाल आता है कि टैक्सी के पैसे तो मुझे ही देने चाहिए थे। पर अब क्या हो सकता था! चुपचाप हम दोनों अन्दर जाते हैं। आस-पास बहुत कुछ है, चहल-पहल, रौशनी, रौनक। पर मेरे लिए जैसे सबका अस्तित्व ही मिट जाता है। मैं अपने को सबकी नजरों से ऐसे बचाकर चलती हूं, मानो मैंने कोई अपराध कर डाला हो, और कोई मुझे पकड न ले।
क्या सचमुच ही मुझसे कोई अपराध हो गया है?
आमने-सामने हम दोनों बैठ जाते हैं। मैं होस्ट हूं, फिर भी उसका पार्ट वही अदा कर रहा है। वही ऑर्डर देता है। बाहर की हलचल और उससे अधिक मन की हलचल में मैं अपने को खोया-खोया-सा महसूस करती हूं।
हम दोनों के सामने बैरा कोल्ड-कॉफी के गिलास और खाने का कुछ सामान रख जाता है। मुझे बार-बार लगता है कि निशीथ कुछ कहना चाह रहा है। मैं उसके होंठों की धडक़न तक महसूस करती हूं। वह जल्दी से कॉफी का स्ट्रॉ मुंह से लगा लेता है।
मूर्ख कहीं का! वह सोचता है, मैं बेवकूफ हूं। मैं अच्छी तरह जानती हूं कि इस समय वह क्या सोच रहा है।
तीन दिन साथ रहकर भी हमने उस प्रसंग को नहीं छेडा। शायद नौकरी की बात ही हमारे दिमागों पर छाई हुई थी। पर आज आज अवश्य ही वह बात आएगी! न आए, यह कितना अस्वाभाविक है! पर नहीं, स्वाभाविक शायद यही है। तीन साल पहले जो अध्याय सदा के लिए बन्द हो गया, उसे उलटकर देखने का साहस शायद हम दोनों में से किसी में नहीं है। जो सम्बन्ध टूट गए, टूट गए। अब उन पर कौन बात करे? मैं तो कभी नहीं करूंगी। पर उसे तो करना चाहिए। तोडा उसने था, बात भी वही आरम्भ करे। मैं क्यों करूं, और मुझे क्या पडी है? मैं तो जल्दी ही संजय से विवाह करनेवाली हूं। क्यों नहीं मैं इसे अभी संजय की बात बता देती? पर जाने कैसी विवशता है, जाने कैसा मोह है कि मैं मुंह नहीं खोल पाती। एकाएक मुझे लगता है जैसे उसने कुछ कहा
''आपने कुछ कहा?''
''नहीं तो!''
मैं खिसिया जाती हूं।
फिर वही मौन! खाने में मेरा जरा भी मन नहीं लग रहा है; पर यन्त्रचलित-सी मैं खा रही हूं। शायद वह भी ऐसे ही खा रहा है। मुझे फिर लगता है कि उसके होंठ फडक़ रहे हैं, और स्ट्रॉ पकडे हुए उंगलियां कांप रही हैं। मैं जानती हूं, वह पूछना चाहता है, ''दीपा, तुमने मुझे माफ तो कर दिया न?
वह पूछ ही क्यों नहीं लेता? मान लो, यदि पूछ ही ले, तो क्या मैं कह सकूंगी कि मैं तुम्हें ज्ािन्दगी-भर माफ नहीं कर सकती, मैं तुमसे नफरत करती हूं, मैं तुम्हारे साथ घूम-फिर ली, या कॉफी पी ली, तो यह मत समझो कि मैं तुम्हारे विश्वासघात की बात को भूल गई हूं?
और एकाएक ही पिछला सब कुछ मेरी आंखों के आगे तैरने लगता है। पर यह क्या? असह्य अपमानजनित पीडा, क्रोध और कटुता क्यों नहीं याद आती? मेरे सामने तो पटना में गुजारी सुहानी सन्ध्याओं और चांदनी रातों के वे चित्र उभरकर आते हैं, जब घंटों समीप बैठ, मौन भाव से हम एक-दूसरे को निहारा करते थे। बिना स्पर्श किए भी जाने कैसी मादकता तन-मन को विभोर किए रहती थी, जाने कैसी तन्मयता में हम डूबे रहते थे एक विचित्र-सी, स्वप्निल दुनिया में! मैं कुछ बोलना भी चाहती तो वह मेरे मुंह पर उंगली रखकर कहता, ''आत्मीयता के ये क्षण अनकहे ही रहने दो, दीपा!''
आज भी तो हम मौन ही हैं, एक-दूसरे के निकट ही हैं। क्या आज भी हम आत्मीयता के उन्हीं क्षणों में गुजर रहे हैं? मैं अपनी सारी शक्ति लगाकर चीख पडना चाहती हूं, नही! नहीं! नहीं! पर कॉफी सिप करने के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं कर पाती। मेरा यह विरोध हृदय की न जाने कौन-सी अतल गहराइयों में डूब जाता है!
निशीथ मुझे बिल नहीं देने देता। एक विचित्र-सी भावना मेरे मन में उठती है कि छीना-झपटी में किसी तरह मेरा हाथ इसके हाथ से छू जाए! मैं अपने स्पर्श से उसके मन के तारों को झनझना देना चाहती हूं। पर वैसा अवसर नहीं आता। बिल वही देता है, मुझसे तो विरोध भी नहीं किया जाता।
मन में प्रचंड तूफान! पर फिर भी निर्विकार भाव से मैं टैक्सी में आकर बैठती हूं फ़िर वही मौन, वही दूरी। पर जाने क्या है कि मुझे लगता है कि निशीथ मेरे बहुत निकट आ गया है, बहुत ही निकट! बार-बार मेरा मन करता है कि क्यों नहीं निशीथ मेरा हाथ पकड लेता, क्यों नहीं मेरे कन्धे पर हाथ रख देता? मैं जरा भी बुरा नहीं मानूंगी, जरा भी नहीं! पर वह कुछ भी नहीं करता।
सोते समय रोज क़ी तरह मैं आज भी संजय का ध्यान करते हुए ही सोना चाहती हूं, पर निशीथ है कि बार-बार संजय की आकृति को हटाकर स्वयं आ खडा होता है
कलकत्ता
अपनी मजबूरी पर खीज-खीज जाती हूं। आज कितना अच्छा मौका था सारी बात बता देने का! पर मैं जाने कहां भटकी थी कि कुछ भी नहीं बता पाई।
शाम को मुझे निशीथ अपने साथ लेक ले गया। पानी के किनारे हम घास पर बैठ गए। कुछ दूर पर काफी भीड-भाड और चहल-पहल थी, पर यह स्थान अपेक्षाकृत शान्त था। सामने लेक के पानी में छोटी-छोटी लहरें उठ रही थीं। चारों ओर के वातावरण का कुछ विचित्र-सा भाव मन पर पड रहा था।
''अब तो तुम यहां आ जाओगी!'' मेरी ओर देखकर उसने कहा।
''हां!''
''नौकरी के बाद क्या इरादा है?''
मैंने देखा, उसकी आंखों में कुछ जानने की आतुरता फैलती जा रही है, शायद कुछ कहने की भी। मुझसे कुछ जानकर वह अपनी बात कहेगा।
''कुछ नहीं!'' जाने क्यों मैं यह कह गई। कोई है जो मुझे कचोटे डाल रहा है। क्यों नहीं मैं बता देती कि नौकरी के बाद मैं संजय से विवाह करूंगी, मैं संजय से प्रेम करती हूं, वह मुझसे प्रेम करता है? वह बहुत अच्छा है, बहुत ही! वह मुझे तुम्हारी तरह धोखा नहीं देगा; पर मैं कुछ भी तो नहीं कह पाती। अपनी इस बेबसी पर मेरी आंखें छलछला आती हैं। मैं दूसरी ओर मुंह फेर लेती हूं।
''तुम्हारे यहां आने से मैं बहुत खुश हूं!''
मेरी सांस जहां-की-तहां रूक जाती है आगे के शब्द सुनने के लिए; पर शब्द नहीं आते। बडी क़ातर, करूण और याचना-भरी दृष्टि से मैं उसे देखती हूं, मानो कह रही होऊं कि तुम कह क्यों नहीं देते निशीथ, कि आज भी तुम मुझे प्यार करते हो, तुम मुझे सदा अपने पास रखना चाहते हो, जो कुछ हो गया है, उसे भूलकर तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो? कह दो, निशीथ, कह दो! यह सुनने के लिए मेरा मन अकुला रहा है, छटपटा रहा है! मैं बुरा नहीं मानूंगी, जरा भी बुरा नहीं मांनूंगी। मान ही कैसे सकती हूं निशीथ! इतना सब हो जाने के बाद भी शायद मैं तुम्हें प्यार करती हूं - शायद नहीं, सचमुच ही मैं तुम्हें प्यार करती हूं!
मैं जानती हूं-तुम कुछ नहीं कहोगे, सदा के ही मितभाषी जो हो। फिर भी कुछ सुनने की आतुरता लिये मैं तुम्हारी तरफ देखती रहती हूं। पर तुम्हारी नजर तो लेक के पानी पर जमी हुई है शान्त, मौन!
आत्मीयता के ये क्षण अनकहे भले ही रह जाएं पर अनबूझे नहीं रह सकते। तुम चाहे न कहो, पर मैं जानती हूं, तुम आज भी मुझे प्यार करते हो, बहुत प्यार करते हो! मेरे कलकत्ता आ जाने के बाद इस टूटे सम्बन्ध को फिर से जोडने की बात ही तुम इस समय सोच रहे हो। तुम आज भी मुझे अपना ही समझते हो, तुम जानते हो, आज भी दीपा तुम्हारी है! और मैं?
लगता है, इस प्रश्न का उत्तर देने का साहस मुझमें नहीं है। मुझे डर है कि जिस आधार पर मैं तुमसे नफरत करती थी, उसी आधार पर कहीं मुझे अपने से नफरत न करनी पडे।
लगता है, रात आधी से भी अधिक ढल गई है।
कानपुर
मन में उत्कट अभिलाषा होते हुए भी निशीथ की आवश्यक मीटिंग की बात सुनकर मैंने कह दिया था कि तुम स्टेशन मत आना। इरा आई थी; पर गाडी पर बिठाकर ही चली गई, या कहूं कि मैंने जबर्दस्ती ही उसे भेज दिया। मैं जानती थी कि लाख मना करने पर भी निशीथ आएगा और विदा के उन अन्तिम क्षणों में मैं उसके साथ अकेली ही रहना चाहती थी। मन में एक दबी-सी आशा थी कि चलते समय ही शायद वह कुछ कह दे।
गाडी चलने में जब दस मिनट रह गए तो देखा, बडी व्यग्रता से डिब्बों में झांकता-झांकता निशीथ आ रहा था। पागल! उसे इतना तो समझना चाहिए कि उसकी प्रतीक्षा में मैं यहां बाहर खडी हूं!
मैं दौडक़र उसके पास जाती हूं, ''आप क्यों आए?'' पर मुझे उसका आना बडा अच्छा लगता है! वह बहुत थका हुआ लग रहा है। शायद सारा दिन बहुत व्यस्त रहा और दौडता-दौडता मुझे सी-ऑफ करने यहां आ पहुंचा। मन करता है कुछ ऐसा करूं, जिससे इसकी सारी थकान दूर हो जाए। पर क्या करूं? हम डिब्बे के पास आ जाते हैं।
''जगह अच्छी मिल गई?'' वह अन्दर झांकते हुए पूछता है।
''हां!''
''पानी-वानी तो है?''
''है।''
''बिस्तर फैला लिया?''
मैं खीज पडती हूं। वह शायद समझ जाता है, सो चुप हो जाता है। हम दोनों एक क्षण को एक-दूसरे की ओर देखते हैं। मैं उसकी आंखों में विचित्र-सी छायाएं देखती हूं; मानो कुछ है, जो उसके मन में घुट रहा है, उसे मथ रहा है, पर वह कह नहीं पा रहा है। वह क्यों नहीं कह देता? क्यों नहीं अपने मन की इस घुटन को हल्का कर लेता?
''आज भीड विशेष नहीं है,'' चारों ओर नजर डालकर वह कहता है।
मैं भी एक बार चारों ओर देख लेती हूं, पर नजर मेरी बार-बार घडी पर ही जा रही है। जैसे-जैसे समय सरक रहा है, मेरा मन किसी गहरे अवसाद में डूब रहा है। मुझे कभी उस पर दया आती है तो कभी खीज। गाडी चलने में केवल तीन मिनट बाकी रह गए हैं। एक बार फिर हमारी नजरें मिलती हैं।
''ऊपर चढ ज़ाओ, अब गाडी चलनेवाली है।''
बडी असहाय-सी नजर से मैं उसे देखती हूं; मानो कह रही होऊं, तुम्हीं चढा दो। और फिर धीरे-धीरे चढ ज़ाती हूं। दरवाजे पर मैं खडी हूं और वह नीचे प्लेटफॉर्म पर।
''जाकर पहुंचने की खबर देना। जैसे ही मुझे इधर कुछ निश्चित रूप से मालूम होगा, तुम्हें सूचना दूंगा।''
मैं कुछ बोलती नहीं, बस उसे देखती रहती हूं
सीटी हरी झंडी फ़िर सीटी। मेरी आंखें छलछला आती हैं।
गाडी एक हल्के-से झटके के साथ सरकने लगती है। वह गाडी क़े साथ कदम आगे बढाता है और मेरे हाथ पर धीरे-से अपना हाथ रख देता है। मेरा रोम-रोम सिहर उठता है। मन करता है चिल्ला पडूं-मैं सब समझ गई, निशीथ, सब समझ गई! जो कुछ तुम इन चार दिनों में नहीं कह पाए, वह तुम्हारे इस क्षणिक स्पर्श ने कह दिया। विश्वास करो, यदि तुम मेरे हो तो मैं भी तुम्हारी हूं; केवल तुम्हारी, एकमात्र तुम्हारी! पर मैं कुछ कह नहीं पाती। बस, साथ चलते निशीथ को देखती-भर रहती हूं। गाडी क़े गति पकडते ही वह हाथ को जरा-सा दबाकर छोड देता है। मेरी छलछलाई आंखें मुंद जाती हैं। मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, बाकी सब झूठ है; अपने को भूलने का, भरमाने का, छलने का असफल प्रयास है।
आंसू-भरी आंखों से मैं प्लेटफॉर्म को पीछे छूटता हुआ देखती हूं। सारी आकृतियां धुंधली-सी दिखाई देती हैं। असंख्य हिलते हुए हाथों के बीच निशीथ के हाथ को, उस हाथ को, जिसने मेरा हाथ पकडा था, ढूंढने का असफल-सा प्रयास करती हूं। गाडी प्लेटफॉर्म को पार कर जाती है, और दूर-दूर तक कलकत्ता की जगमगाती बत्तियां दिखाई देती हैं। धीरे-धीरे वे सब दूर हो जाती हैं, पीछे छूटती जाती हैं। मुझे लगता है, यह दैत्याकार ट्रेन मुझे मेरे घर से कहीं दूर ले जा रही है - अनदेखी, अनजानी राहों में गुमराह करने के लिए, भटकाने के लिए!
बोझिल मन से मैं अपने फैलाए हुए बिस्तर पर लेट जाती हूं। आंखें बन्द करते ही सबसे पहले मेरे सामने संजय का चित्र उभरता है क़ानपुर जाकर मैं उसे क्या कहूंगी? इतने दिनों तक उसे छलती आई, अपने को छलती आई, पर अब नहीं। मैं उसे सारी बात समझा दूंगी। कहूंगी, संजय जिस सम्बन्ध को टूटा हुआ जानकर मैं भूल चुकी थी, उसकी जडें हृदय की किन अतल गहराइयों में जमी हुई थीं, इसका अहसास कलकत्ता में निशीथ से मिलकर हुआ। याद आता है, तुम निशीथ को लेकर सदैव ही संदिग्ध रहते थे; पर तब मैं तुम्हेंर् ईष्यालु समझती थी; आज स्वीकार करती हूं कि तुम जीते, मैं हारी!
सच मानना संजय, ढाई साल मैं स्वयं भ्रम में थी और तुम्हें भी भ्रम में डाल रखा था; पर आज भ्रम के, छलना के सारे ही जाल छिन्न-भिन्न हो गए हैं। मैं आज भी निशीथ को प्यार करती हूं। और यह जानने के बाद, एक दिन भी तुम्हारे साथ और छल करने का दुस्साहस कैसे करूं? आज पहली बार मैंने अपने सम्बन्धों का विश्लेषण किया, तो जैसे सब कुछ ही स्पष्ट हो गया और जब मेरे सामने सब कुछ स्पष्ट हो गया, तो तुमसे कुछ भी नहीं छिपाऊंगी, तुम्हारे सामने मैं चाहूं तो भी झूठ नहीं बोल सकती।
आज लग रहा है, तुम्हारे प्रति मेरे मन में जो भी भावना है वह प्यार की नहीं, केवल कृतज्ञता की है। तुमने मुझे उस समय सहारा दिया था, जब अपने पिता और निशीथ को खोकर मैं चूर-चूर हो चुकी थी। सारा संसार मुझे वीरान नजर आने लगा था, उस समय तुमने अपने स्नेहिल स्पर्श से मुझे जिला दिया; मेरा मुरझाया, मरा मन हरा हो उठा; मैं कृतकृत्य हो उठी, और समझने लगी कि मैं तुमसे प्यार करती हूं। पर प्यार की बेसुध घडियां, वे विभोर क्षण, तन्मयता के वे पल, जहां शब्द चुक जाते हैं, हमारे जीवन में कभी नहीं आए। तुम्हीं बताओ, आए कभी? तुम्हारे असंख्य आलिंगनों और चुम्बनों के बीच भी, एक क्षण के लिए भी तो मैंने कभी तन-मन की सुध बिसरा देनेवाली पुलक या मादकता का अनुभव नहीं किया।
सोचती हूं, निशीथ के चले जाने के बाद मेरे जीवन में एक विराट शून्यता आ गई थी, एक खोखलापन आ गया था, तुमने उसकी पूर्ति की। तुम पूरक थे, मैं गलती से तुम्हें प्रियतम समझ बैठी।
मुझे क्षमा कर दो संजय और लौट जाओ। तुम्हें मुझ जैसी अनेक दीपाएं मिल जाएंगी, जो सचमुच ही तुम्हें प्रियतम की तरह प्यार करेंगी। आज एक बात अच्छी तरह जान गई हूं कि प्रथम प्रेम ही सच्चा प्रेम होता है; बाद में किया हुआ प्रेम तो अपने को भूलने का, भरमाने का प्रयास-मात्र होता है
इसी तरह की असंख्य बातें मेरे दिमाग में आती हैं, जो मैं संजय से कहूंगी। कह सकूंगी यह सब? लेकिन कहना तो होगा ही। उसके साथ अब एक दिन भी छल नहीं कर सकती। मन से किसी और की आराधना करके तन से उसकी होने का अभिनय करती रहूं? छीः! नहीं जानती, यही सब सोचते-सोचते मुझे कब नींद आ गई।
लौटकर अपना कमरा खोलती हूं, तो देखती हूं, सब कुछ ज्यों-का-त्यों है, सिर्फ फूलदान को रजनीगन्धा मुरझा गए हैं। कुछ फूल झरकर जमीन पर इधर-उधर भी बिखर गए हैं।
आगे बढती हूं तो जमीन पर पडा एक लिफाफा दिखाई देता है। संजय की लिखाई है, खोला तो छोटा-सा पत्र थाः
दीपा,
तुमने जो कलकत्ता जाकर कोई सूचना ही नहीं दी। मैं आज ऑफिस के काम से कटक जा रहा हूं। पांच-छः दिन में लौट आऊंगा। तब तक तुम आ ही जाओगी। जानने को उत्सुक हूं कि कलकत्ता में क्या हुआ?
तुम्हारा
संजय
एक लम्बा निःश्वास निकल जाता है। लगता है, एक बडा बोझ हट गया। इस अवधि में तो मैं अपने को अच्छी तरह तैयार कर लूंगी।
नहा-धोकर सबसे पहले में निशीथ को पत्र लिखती हूं। उसकी उपस्थिति से जो हिचक मेरे होंठ बन्द किए हुए थी, दूर रहकर वह अपने-आप ही टूट जाती हैं। मैं स्पष्ट शब्दों में लिख देती हूं कि चाहे उसने कुछ नहीं कहा, फिर भी मैं सब कुछ समझ गई हूं। साथ ही यह भी लिख देती हूं कि मैं उसकी उस हरकत से बहुत दुखी थी, बहुत नाराज भी; पर उसे देखते ही जैसे सारा क्रोध बह गया। इस अपनत्व में क्रोध भला टिक भी कैसे पाता? लौटी हूं, तब से न जाने कैसी रंगीनी और मादकता मेरी आंखों के आगे छाई है !
एक खूबसूरत-से लिफाफे में उसे बन्द करके मैं स्वयं पोस्ट करने जाती हूं।
रात में सोती हूं तो अनायास ही मेरी नजर सूने फूलदान पर जाती है। मैं करवट बदलकर सो जाती हूं।
कानपुर
आज निशीथ को पत्र लिखे पांचवां दिन है। मैं तो कल ही उसके पत्र की राह देख रही थी। पर आज की भी दोनों डाकें निकल गईं। जाने कैसा सूना-सूना, अनमना-अनमना लगता रहा सारा दिन! किसी भी तो काम में जी नहीं लगता। क्यों नहीं लौटती डाक से ही उत्तर दे दिया उसने? समझ में नहीं आता, कैसे समय गुजारूं!
मैं बाहर बालकनी में जाकर खडी हो जाती हूं। एकाएक खयाल आता है, पिछले ढाई सालों से करीब इसी समय, यहीं खडे होकर मैंने संजय की प्रतीक्षा की है। क्या आज मैं संजय की प्रतीक्षा कर रही हूं? या मैं निशीथ के पत्र की प्रतीक्षा कर रही हूं? शायद किसी की नहीं, क्योंकि जानती हूं कि दोनों में से कोई भी नहीं आएगा। फिर?
निरूद्देश्य-सी कमरे में लौट पडती हूं। शाम का समय मुझसे घर में नहीं काटा जाता। रोज ही तो संजय के साथ घूमने निकल जाया करती थी। लगता है; यहीं बैठी रही तो दम ही घुट जाएगा। कमरा बन्द करके मैं अपने को धकेलती-सी सडक़ पर ले आती हूं। शाम का धुंधलका मन के बोझ को और भी बढा देता है। कहां जाऊं? लगता है, जैसे मेरी राहें भटक गई हैं, मंजिल खो गई है। मैं स्वयं नहीं जानती, आखिर मुझे जाना कहां है। फिर भी निरूद्देश्य-सी चलती रहती हूं। पर आखिर कब तक यूं भटकती रहूं? हारकर लौट पडती हूं।
आते ही मेहता साहब की बच्ची तार का एक लिफाफा देती है।
धडक़ते दिल से मैं उसे खोलती हूं। इरा का तार था।
नियुक्ति हो गई है। बधाई!
इतनी बडी ख़ुशखबरी पाकर भी जाने क्या है कि खुश नहीं हो पाती। यह खबर तो निशीथ भेजनेवाला था। एकाएक ही एक विचार मन में आता है ः क्या जो कुछ मैं सोच गई, वह निरा भ्रम ही था, मात्र मेरी कल्पना, मेरा अनुमान? नहीं-नहीं! उस स्पर्श को मैं भ्रम कैसे मान लूं, जिसने मेरे तन-मन को डुबो दिया था, जिसके द्वारा उसके हृदय की एक-एक परत मेरे सामने खुल गई थी? लेक पर बिताए उन मधुर क्षणों को भ्रम कैसे मान लूं, जहां उसका मौन ही मुखरित होकर सब कुछ कह गया था? आत्मीयता के वे अनकहे क्षण! तो फिर उसने पत्र क्यों नहीं लिखा? क्या कल उसका पत्र आएगा? क्या आज भी उसे वही हिचक रोके हुए है?
तभी सामने की घडी टन्-टन् करके नौ बजाती है। मैं उसे देखती हूं। यह संजय की लाई हुई है। लगता है, जैसे यह घडी घंटे सुना-सुनाकर मुझे संजय की याद दिला रही है। फहराते ये हरे पर्दे, यह हरी बुक-रैक, यह टेबल, यह फूलदान, सभी तो संजय के ही लाए हुए हैं। मेज पर रखा यह पेन उसने मुझे साल-गिरह पर लाकर दिया था।
अपनी चेतना के इन बिखरे सूत्रों को समेटकर मैं फिर पढने का प्रयास करती हूं, पर पढ नहीं पाती। हारकर मैं पलंग पर लेट जाती हूं।
सामने के फूलदान का सूनापन मेरे मन के सूनेपन को और अधिक बढा देता है। मैं कसकर आंखें मूंद लेती हूं। एक बार फिर मेरी आंखों के आगे लेक का स्वच्छ, नीला जल उभर आता है, जिसमें छोटी-छोटी लहरें उठ रही थीं। उस जल की ओर देखते हुए निशीथ की आकृति उभरकर आती है। वह लाख जल की ओर देखे; पर चेहरे पर अंकित उसके मन की हलचल को मैं आज भी, इतनी दूर रहकर भी महसूस करती हूं। कुछ न कह पाने की मजबूरी, उसकी विवशता, उसकी घुटन आज भी मेरे सामने साकार हो उठती है। धीरे-धीरे लेक के पानी का विस्तार सिमटता जाता है, और एक छोटी-सी राइटिंग टेबल में बदल जाता है, और मैं देखती हूं कि एक हाथ में पेन लिए और दूसरे हाथ की उंगलियों को बालों में उलझाए निशीथ बैठा है वही मजबूरी, वही विवशता, वही घुटन लिए। वह चाहता है; पर जैसे लिख नहीं पाता। वह कोशिश करता है, पर उसका हाथ बस कांपकर रह जाता है। ओह! लगता है, उसकी घुटन मेरा दम घोंटकर रख देगी। मैं एकाएक ही आंखें खोल देती हूं। वही फूलदान, पर्दे, मेज, घडी ...!
आखिर आज निशीथ का पत्र आ गया। धडक़ते दिल से मैंने उसे खोला। इतना छोटा-सा पत्र!
प्रिय दीपा,
तुम अच्छी तरह पहुंच गई, यह जानकर प्रसन्नता हुई।
तुम्हें अपनी नियुक्ति का तार तो मिल ही गया होगा। मैंने कल ही इराजी को फोन करके सूचना दे दी थी, और उन्होंने बताया था कि तार दे देंगी। ऑफिस की ओर से भी सूचना मिल जाएगी।
इस सफलता के लिए मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करना। सच, मैं बहुत खुश हूं कि तुम्हें यह काम मिल गया! मेहनत सफल हो गई। शेष फिर।
शुभेच्छु,
निशीथ
बस? धीरे-धीरे पत्र के सारे शब्द आंखों के आगे लुप्त हो जाते हैं, रह जाता है केवल, ''शेष फिर!''
तो अभी उसके पास कुछ लिखने को शेष है? क्यों नहीं लिख दिया उसने अभी? क्या लिखेगा वह?
''दीप!''
मैं मुडक़र दरवाजे क़ी ओर देखती हूं। रजनीगन्धा के ढेर सारे फूल लिए मुस्कुराता-सा संजय खडा है। एक क्षण मैं संज्ञा-शून्य-सी उसे इस तरह देखती हूं, मानो पहचानने की कोशिश कर रही हूं। वह आगे बढता है, तो मेरी खोई हुई चेतना लौटती है, और विक्षिप्त-सी दौडक़र उससे लिपट जाती हूं।
''क्या हो गया है तुम्हें, पागल हो गई हो क्या?''
''तुम कहां चले गए थे संजय?'' और मेरा स्वर टूट जाता है। अनायास ही आंखों से आंसू बह चलते हैं।
''क्या हो गया? कलकत्ता का काम नहीं मिला क्या? मारो भी गोली काम को। तुम इतनी परेशान क्यों हो रही हो उसके लिए?''
पर मुझसे कुछ नहीं बोला जाता। बस, मेरी बांहों की जकड क़सती जाती है, कसती जाती है। रजनीगन्धा की महक धीरे-धीरे मेरे तन-मन पर छा जाती है। तभी मैं अपने भाल पर संजय के अधरों का स्पर्श महसूस करती हूं, और मुझे लगता है, यह स्पर्श, यह सुख, यह क्षण ही सत्य है, वह सब झूठ था, मिथ्या था, भ्रम था ।
और हम दोनों एक-दूसरे के आलिंगन में बंधे रहते हैं- चुम्बित, प्रति-चुम्बित!