Sunday, December 20, 2009

बिजनेस वेब डॉट कॉम

बिजनेस वेब डॉट कॉम
एकबारगी मैं तो पहचान ही नहीं पाया उन्हें। कहां वो अन्नपूर्णा भाभी का चिर - परिचित नितांत घरेलू व्यक्तित्व और कहां आज उनका ये अतिआधुनिक रूप ! चोटी से पांव तक बदली - बदली सी लग रही थीं। वे कस्बे के नये खुले इस फास्टफूड कॉर्नर से जिस व्यक्ति के साथ निकल रही थीं , वह सोसायटी का भला आदमी नहीं कहा जा सकता था। मुझे तो ऐसा अनुभव हुआ कि सिर्फ संग - साथ वाली बात नहीं, यहां कुछ दूसरा मामला है। क्योंकि वे बात - बेबात उस भले आदमी से सट - सट जा रही थीं, जैसे उसे पूरी तरह रिझाना चाहती हों।
आज उन्होंने बनने संवरने में कोई कोर कसर नहीं छोड रखी थी। उनके चमक छोडते गोरे बदन पर सब कुछ दिखता है नुमा कपडे सरसरा रहे थे। हल्की शिफॉन की मेंहदी कलर की साडी से मैच करता लो कट ब्लाउज, ऌसी रंग की बिन्दी और कलाई भर चूडियां,पांव में मेंहदी कलर की ही चौडे पट्टे की डिजाइनदार चप्पलें और ताज्जुब तो ये कि हाथ के पर्स का भी वही रंग। मैं ने उन्हें गौर से देखा तो ठगा सा खडा रह गया।
मैं ऐसी जगह खडा था, जहां से उन्हें निकलना था। मुझे यहां पाकर वे कोई संकोच अनुभव न करें, इसलिये मैं वहां से हटा और पीसीओ बूथ की ओट में आ गया। यह संयोग ही था कि वे दोनों पीसीओ बूथ में प्रविष्ट हो गये। वे कह रहीं थी, '' आप गलत अर्थ मत लगाइये, किसी के यहां जाने से पहले आजकल फोन कर लेना ठीक रहता है, पता नहीं वे फुरसत में हैं या नहीं, या फिर उन्हें कहीं बाहर जाना हो, या ये भी हो सकता है कि वे बाहर ही चले गये हों।''
उनके साथ वाले व्यक्ति ने निरपेक्ष भाव से कहा था, '' अरे, मैं कहां बुरा मान रहा हूं। आप का कहना दुरुस्त है मैडम।
बूथ में फोन डायल करने तक सन्नाटा रहा, फिर कुछ देर बाद आवाज ग़ूंजी - '' हलो सिमरमपुर से! पटेल साहब हैं क्या? मैं मनीराम बोल रहा हूं। जरा बात कराइये उनसे।''
'' ''
'' हलो पटेल साहब, मैं ने कहा था न, मैं आज मिलने आ रहा हूं। उन्हें साथ ला रहा हूं।''
कुछ देर बाद वे लोग बाहर आ गये। मनीराम ने जेब से चाबी निकाल कर अपनी बाइक स्टार्ट की और पीछे देखने लगा। अन्नपूर्णा भाभी अपनेपन की भीरती खुशी से मुस्कुराती हुयी लपक कर मनीराम के पीछे बैठ गयीं। गियर डाल के मनीराम ने गाडी आगे बढाई तो वे मनीराम पर लद सी गयीं।मैं निराश सा वहां से मुडा और अपने बीमा ऑफिस की ओर चल पडा।
अगले दिन मेरा मन न माना तो मैं सुबह - सुबह उनके घर जा धमका। उनके सरकारी क्वार्टर के बाहर, बाऊण्ड्रीवाल पर पुरानी नाम पट्टिका की जगह पीतल की नयी चमकदार नेम प्लेट लग चुकी थी- भरत वर्मा, क्षेत्रीय अधिकारी।
दरवाजा वर्मा जी खोला, मुझे देख कर वे थोडा चौंके - '' क्यों साहब प्रीमियम डयू हो गया क्या? ''
मैं ने हमेशा बनियान - पैजामा पहने रहने वाले वर्मा जी को अच्छी क्वालिटी के गाउन में सजा - धजा देखा तो काफी बदलाव महसूस हुआ। लेकिन गौर किया तो मैं ने उनके पैंतालीस वर्षीय बदन को वैसा ही दुबला और कमजोर पाया। वही गरदन के पास से झांकती कॉलर बोन, कपोलों पर मांस से ज्यादा हाड दर्शाता सूखा सा चेहरा और वे ही खपच्चियों से लटके दुबले, लम्बी अंगुलियों वाले हडियल हाथ। उन्हें आश्वस्त करता हुआ मैं बोला, '' नहीं वर्मा जी, प्रीमियम तो तीन महीने बाद है।मैं तो बस यूं ही!''
'' कोई बात नहीं, स्वागतम्! आइये न।''
मैं प्रसन्न मन से भीतर घुसा और सोफा की सिंगल सीट पर पसर के बैठ गया। वर्मा जी मेरे ऐन सामने बैठे फिर मुस्कुराते हुए बोले - '' और सुनाइये, आपकी प्रोग्रेस कैसी चल रही है? अब तक डी एम क्लब के मैम्बर बने या नहीं?''
'' हां, वो तो दो बरस पहले ही बन गया था, अपनी ब्रांच का पहला करोडपति एजेन्ट हूं मैं।'' बताते हुए मैं पुलकित था, पर भीतर ही भीतर सोच रहा था कि पहले कभी किसी बात में रुचि न लेने वाले वर्मा जी आज बडे व्यवहारिक दिख रहे हैं। ऐसा क्यों है?
तभी भीतर से अन्नपूर्णा भाभी की कौन है जी , मीठी आवाज आयी तो मेरा दिल उछल कर हलक में आ गया, मेरी निगाहें बैठक कक्ष के भीतरी दरवाजे पर टिक गयीं। सुआपंखी रंग की जमीन पर गहरे काले रंग की छींट वाला, सूती कपडे क़ा ढीला - ढाला गाउन पहने, दोनों हाथ पीछे करके जूडा बांधती वे जब नमूदार हुईं, तो मैं ठगा सा उन्हें देखता ही रह गया। इस अस्त - व्यस्त दशा में भी वे गजब की जम रहीं थीं। मुझे देखकर वे गहरे से मुस्कुराईं और हाथ जोड क़र बोलीं - '' अरे, गुप्ताजी आप आये हैं। बडी उमर है आपकी! मैं कल ही इनसे कह रही थी कि एक दिन आपसे मिलना है। आप न आते तो मैं आज ही आपके पास आ रही थी।''
हमें बतियाता देख यकायक वर्मा जी चुपचाप खिसक गये। और जाने क्यों मैं खुद को सहज नहीं पा रहा था। मुझे सोच में पडा देख वे तपाक से बोलीं, '' अरे, अमर किस टैन्शन में फंसे हुए हो यार!''
'' कहां ? मैं किसी टैन्शन में नहीं हूं।'' कहता हुआ मैं मुस्कुराने की व्यर्थ सी कोशिश करने लगा।
'' आपके बच्चे नहीं दिख रहे आज!''
'' वे दोनों स्कूल गये हैं।'' कहते हुए वे मुझसे पूछने लगीं - '' आपने बीमा ऐजेन्सी लेते वक्त, ग्राहक को डील करने का कोई खास कोर्स किया था क्या?''
'' नहीं तो, बस पन्द्रह दिन का ओरियन्टेशन प्रोग्राम हुआ था, मंडल कार्यालय में। क्यों कोई खास बात?''
मुझे लगा, आज कोई खास बात है, इसी वजह से वे इतना अपनत्व दिखा रही हैं। वे इस तरह धाराप्रवाह ढंग से मुझसे बतियाने में जुट गयीं कि मैं उन्हें ठीक ढंग से देख ही नहीं पा रहा था। शायद मुझे इसी उलझन में डालने के लिये वे लगातार बोलती जा रही थीं।
वर्मा जी चाय बहुत अच्छी बनाने लगे थे।
बिस्कुट कुतरते समय वे गहरे आत्मविश्वास में डूबी थीं, मैं उनके व्यवहार पर क्षण - क्षण चकित था। बीमा की किश्त लेने मैं हर छह माह में इनके यहां आता रहा हूं। बीच में नयी लांच की गयी पॉलिसी लेने के लिये उनको पटाने भी मैं अकसर आ जाता था, पर वे इतनी खुल कर कभी नहीं मिलीं। प्राय: वर्मा जी से भेंट होती थी, वे बीच में कभी - कभार बैठक में आती थीं तो नमस्कार करके तुरन्त भीतर चली जाती थीं।
मेरी निगाह उनके मोहक चेहरे और ढीले - ढाले गाऊन में से उभरते उनके आकर्षक बदन को ताकने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही थीं और अब अपने को ताके जाने का ज्ञान होने के बाद, वे मुझसे नजरे नहीं मिला रही थीं, छत को बेवजह घूर रही थीं और खुद को ठीक से ताकने का मौका दे रही थीं।
शाम को कार्यालय से लौटकर, मैं बाथरूम से बाहर आया ही था कि पत्नी ने आंखें चमकाते हुए कहा - '' जाओ, बैठक में एक स्मार्ट और सुन्दर सी महिला आपसे मिलना चाहती है।''
मैं समझ गया कि वे ही होंगी। पांच मिनट में ही बाहर जाने वाले कपडे पहन, सेंट का छिडक़ाव कर मैं बैठक में था।
'' नमस्ते। सॉरी, मुझे जरा देर हो गयी।'' आवाज में ढेर सी मुलायमियत भर के मैं अदब से झुकते हुए बोला।
'' नमस्ते, नमस्ते।'' वे चहकीं।
'' अरे शुभा! भाभी जी को चाय तो पिलाओ।'' मैं ने भीतर मुंह करके पत्नी से इल्तिजा की।
'' अरे, रहने दीजिये, गुप्ता जी। मेरे रिसोर्स परसन आने वाले हैं, उन्हें चाय पिला देना आप।''
'' रिसोर्स परसन माने?''
'' माने मुझे काम सिखाने वाले। मेरे अपलाइनर!''
'' आप कोई काम करने लगी हैं क्या इन दिनों?
'' आपको पता नहीं, मैं ने पिछले महीने से एक बिजनेस शुरु किया है। आपको जानकारी होगी कि कुछ ऐसी मल्टीनेशनल कंपनियां हैं, जो विज्ञापन में फिजूलखर्ची नहीं करतीं बल्कि अपना नेटवर्क डवलप करके अपने एजेंट नियुक्त करके सीधे अपनी वस्तुएं ग्राहकों तक पहुंचाती हैं।''
'' हूं।'' मैं ने गंभीर होते हुए उनकी बात में रुचि प्रदर्शित की।
वे बोलीं - '' मैं ने अभी ज्यादा काम नहीं किया, इसलिये मैं ज्यादा नहीं बता सकती, बस मेरे रिसोर्स परसन आ रहे हैं। वे आपको विस्तार से सारी बातें समझायेंगे।''
शुभा चाय लेकर आयी तो उन्होंने उठकर उससे नमस्ते की और बोलीं - '' आप भी बैठिये भाभी जी दरअसल मैं जिस काम से आयी हूं वो आप दोनों पति - पत्नी मिलकर ज्यादा अच्छी तरह से कर सकेंगे।''
अब मेरी भौंहों में बल पड ग़ये। झिझकती सी शुभा बैठ तो गयी, पर उसकी निगाहें जमीन से चिपक गयीं। यकायक मुझे लगा कि शुभा मेरी इज्जत खराब करे दे रही है। इसे इतना संकोची नहीं होना चाहिये कि एक औरत के सामने भी नई दुल्हन सी शरमाए।
हमारी चाय खत्म ही हुई थी कि उनके वे रिसोर्स परसन आ गये। मैं ने उनका स्वागत किया और अपना परिचय दिया, '' मैं अमर गुप्ता, बीमा एजेण्ट।''
'' मैं जम्बो कम्पनी का एक छोटा सा वर्कर - सिल्वर एजेंट मनीराम।''
हम लोग हाथ मिला कर बैठने लगे तो शुभा बर्तन समेट कर बाहर जाने लगी, वर्मा भाभी ने उसे फिर रोका, '' भाभी आप रुकिये प्लीज।''
'' मैं अभी आती हूं।'' कहती हुई शुभा पीछा छुडा कर भागी और भीतर पहुंच कर बर्तन बजा कर मुझे अन्दर आने का इशारा करने लगी। मैं भीतर पहुंचा तो वह झल्ला रही थी - '' कौन है ये सयानी मलन्दे बाई!''
हंसते हुए मैं बोला - '' तुम काहे जल रही हो? बेचारी वो तुम्हें क्या सयानापन दिखा रही है? वो अपना कोई प्रोडक्ट बेचने आयी है।''
'' हमें नहीं खरीदनी उसकी कोई चीज।उससे कहो अपने खसम के साथ उठे और कहीं दूसरी जगह जाकर नैन मटक्का करे ! और जो मर्जी हो बेचे चाहे गिरवी रखे।''
मैं शरारतन मुस्कुराया, '' अरे यार हजार दो हजार देकर इतनी कमसिन और खूबसूरत औरत के साथ बैठने का मौका मिल जाये तो महंगा नहीं है।''
शुभा की आंखें अंगार हो गयीं थी, वह जलते हुए स्वर में बोली, '' कहे दे रही हूं, मैं अभी बैठक में जाकर उसे घर से बाहर निकाल दूंगी।''
मुझे लगा खेल बिगड रहा है, सो समझौते के स्वर में उससे कहा - यार तुम भी बिना पढी - लिखी औरतों की तरह बातें करने लगती हो। वो क्या हमारी जेब में हाथ डाल के रूपया निकाल लेगी? अब कोई अपना माल दिखाये, तो लो मत लो देखना तो चाहिये।अपने घर में हर सामान भरा पडा है, हमको क्या खरीदना है? वो जो बतायेगी, देख लेते हैं । बेचारी को निराश काहे करती हो।''
मैं बैठक में जाकर बैठ गया और उनके रिसोर्स परसन से बात करने के बहाने मुस्कुराते हुए पूछने लगा - '' आप कहां रहते हैं मनीराम जी?''
'' मैं घाटीपुरा में रहता हूं, उधर हाई स्कूल की पुरानी इमारत है न, उसके पीछे हमारा पुराना मकान है।''
'' अच्छा उधर, जहां दरोगा संग्रामसिंह रहते हैं।''
'' आप उन्हें जानते हैं! वे मेरे चाचा हैं।''
अब हमें बात करने को एक विषय मिल गया था, सो हम पूरी दिलचस्पी के साथ दरोगा संग्राम सिंह और अपने हाईस्कूल के जमाने की बातें करने लगे। हालांकि यह विषय अन्नपूर्णा भाभी को बोर कर सकता था, पर ऐसा नहीं दिख रहा था, बल्कि वे बडे प्रसन्नभाव से मनीरामजी को देखते हुए हमारी बातें अपनी आंखें फैला कर इस तरह सुनने लगीं मानो वे इस विषय से बहुत गहराई से जुडी हों।
इसके बाद वे घर के अन्दर चली गयीं और कुछ देर बाद वे लौटी तो उनके साथ आंखों में उलझन का भाव लिये शुभा भी थी।मनीराम जी ने उठ कर मेरी श्रीमति जी का अभिवादन किया बोला - '' भाभी जी मैं जम्बो कंपनी का एजेंट मनीराम हूं। माफी चाहूंगा कि मैं आपके मूल्यवान समय में से दस मिनट ले रहा हूं। आपको अच्छा लगे तो आप मेर बिजनेस प्रपोजल पर विचार करें और न जमे तो कोई बात नहीं।'' अब उसकी आवाज में मखमली अंदाज आ गया था, '' सर, कभी आपने सोचा कि आप दूसरों से हटकर यानि कि अलग हैं? दरअसल आपको अपनी योग्यता के अनुरूप जॉब नहीं मिला है। इसलिये आप अपने वर्तमान व्यवसाय से पूरी तरह संतुष्ट नहीं होंगे मन में कहीं न कहीं यह चाह रहती होगी यानि कि एक सपना होगा आपका भी कि आपके पास खूब सारा पैसा हो! बडा सा बंगला हो शानदार कार हो! भाभी के पास ढेर सारे जेवर हों! आपके बच्चे ऊंचे स्कूल में पढने जायें! आप लोग भी फॉरेन टूर पर जायें! यानि कि आपके पास वे सारी सुख - सुविधाएं हों जो एक आदमी के जीवन को चैन से गुजारने के लिये जरूरी हैं। लेकिन आप लोग मन मसोस के रह जाते हैं, क्योंकि आपके सामने वैकल्पिक रूप में अपनी इतनी बडी ऌच्छाएं पूरी करने के लिये कोई साधन नहीं है। छोटी - मोटी एजेंसी या नौकरी से यह काम पूरे नहीं होंगे, हैं न! एम आय राईट?''
मैं ने सहमति में सिर हिलाया - '' आप बिलकुल सही कह रहे हैं।''
'' अपने सपने पूरे करने के लिये आपको कम से कम पचास हजार रुपए महीना आमदनी चाहिये और पचास हजार रुपए के मुनाफे के लिये आप अगर कोई बिजनेस करेंगे तो उसमें पच्चीस लाख रूपए की पूंजी लगानी पडेग़ी ठीक है न! अब पच्चीस लाख रूपए की रिस्क, फिर नौकर - चाकर, दुकान - गोदाम कित्ते सारे झंझट हैं! लेकिन मैं ओको ऐसा बिजनेस बताने आया हूं, जो आप बिना पूंजी के और बिना रिस्क के शुरु कर सकते हैं । और जितनी मेहनत करेंगे उतना ज्यादा कमायेंगे।''
'' हमें बेचना क्या है? '' मुझे उलझन हो रही थी।
'' आप तो सिर्फ नेटवर्किंग करेंगे जनाब, सीधे कुछ नहीं बेचेंगे।'' मनीराम ने उसी मुस्तैदी से कहा- '' अब वो जमाना नहीं रहा जब दुकान खोलके बैठना पडता था। आप जिन लोगों को डिस्ट्रीब्यूटर बनाएंगे, वे जम्बो कंपनी के प्रोडक्ट बेचेंगे और घर बैठे मुनाफा आपको मिलेगा।''
'' लेकिन इसमें मेरी क्या भूमिका होगी? '' शुभा अब तक मनीराम का जाल नहीं समझ पा रही थी।
'' आपकी वजह से ही तो गुप्ता जी के डाउनलाइनर्स की फेमिली को इस बिजनैस और प्रॉडक्ट्स में विश्वास होगा। हमारी सोसायटी में ये माना जाता है कि आदमी तो ब्लफ दे सकता है, औरत नहीं। सो आप इस मान्यता को फोर्स के साथ अमल में लायेंगी। इसका आपको व्यक्तिगत लाभ भी मिलेगा क्योंकि इस काम के लिये आप दोनों के एक साथ जाने - आने से एक बहुत बडे सर्कल में आपकी सोशल रिलेशनशिप बनेगी। जम्बो कंपनी की फेमिली बडी रिच है, इसके लिये बडे - बडे आई ए एस अफसर और बडे - बडे बिजनेसमैन तक काम करते हैं। उन लोगों के एक्सपीरियंस, बिजनस टिप्स, आर्ट ऑफ लिविंग और थिंकिग आपकी लाइफ स्टायल बदल देगी।''
मनीराम द्वारा दिखाये गये सपने का जादू हम लोगों पर असर करने लगा था, हम दोनों उसके चेहरे को मंत्रमुग्ध - से होकर ताकने लगे थे, यह अनुभव करके वर्मा भाभी अब मनीराम की तरफ बडे ग़र्व से देखने लगी थीं। हठात् शुभा ने मनीराम से पूछा, '' आपके इन प्राडक्ट्स की कीमत क्या है?''
'' यह टूथपेस्ट एक सौ दो रूपए का है, और यह नाइटक्रीम एक सौ बीस रूपए की है।''
मैं ने हस्तक्षेप किया, '' बाय द वे, आपको नहीं लगता कि ये चीजें कुछ ज्यादा मंहगी हैं? हमारी सोसायटी में कितने लोग ऐसे होंगे जो ये चीजें अफोर्ड कर सकेंगे!''
'' हां, थोडी सी कॉस्टली हैं! बट एक्चुअलीजनरल प्रोडक्ट्स की तुलना में हमारा प्रोडक्ट तीन गुना ज्यादा सेवा देता है। फॉर एग्जांपल- एक आम टूथपेस्ट की एक इंच लम्बी टयूब जितना काम करती है इस पेस्ट का चने बराबर हिस्सा ही उससे ज्यादा काम कर देता है। मतलब ये कि सही मायने में ये चीजें मंहगी नहीं हैं।''
'' आप कह रहे हैं कि आपका बनाया हुआ चना बराबर पेस्ट वो काम कर जाता है जो बाजार में मिलने वाले एक आम पेस्ट का एक इंच लम्बा टुकडा काम नहीं कर पाता। इसका मतलब यह भी तो हो सकता है कि इस पेस्ट में ज्यादा कैमिकल्स मिल दिये जाते हों,जो शरीर के लिये नुकसानदायक हों।'' मेरा मन लगातार प्रश्न पैदा कर रहा था और मेरी जुबान उन्हें मनीराम की ओर मिसाइलों की तरह दाग रही थी।
'' गुप्ता जी, हमारे यहां कंज्यूमर अवेयरनेस अब भी उतनी ज्यादा नहीं है जितनी अमेरिका या दूसरे यूरोपीय देशों में है। यह माल भी यूरोप में बनाया गया है, इसलिये मैं दावा करता हूं कि उसमें मानव शरीर के लिये नुकसान देने वाला कोई रसायन शामिल नहीं होता।''
'' इसकी शुरुआत कैसे करनी पडती है?'' मुझे लगा कि प्रश्नों के बजाय मनीराम के सामने सीधा समर्पण कर दिया जाये तो शायद इस बहस का अंत हो जायेगा।
'' हमारा एक किट चार हजार छ: सौ रुपए का ही, इसमें हमारा प्रोडक्ट छोटी मात्रा में शामिल है।'' मनीराम ने गंभीरता से बताया।
'' तो ठीक है, आप एक पैकेट हमारे यहां रख जाइये।'' शुभा बिना हिचक बोली तो मैं चौंक गया। उसका इतनी जल्दी इस योजना से सहमत होना मुझे विस्मित कर रहा था।
'' देखिये पहले मैं आपको गाइड लाइन समझा दूं। आपको सबसे पहाले घर में बैठ कर एक सूची बनानी है, जिसमें आप उन लोगों के नाम लिखेंगे जिनसे आपका धंधा हो सकता है। इस सूची में आप फ्रैण्ड के नाम लिखेंगे।''
'' फ्रैण्ड यानि कि दोस्त लोग! ''
मनीराम मुस्कुराया - '' फ्रैण्ड मायने दोस्त भी, पर हमारे इस फ्रैण्ड में अंग्रेजी के फ्रैण्ड की स्पैलिंग का हर हिज्जा होता है। फ्रैण्ड के पूरे हिज्जे हैं - एफ, आर, आई, ई, एन, डी इसके हर हिज्जे से आपके इर्द गिर्द का हर वो आदमी आ जाता है, जो किसी न किसी कारण से आपसे जुडा है। एफ मायने फ्रैण्ड्स एण्ड फैमिली - दोस्त और परिवार के लोग। आर का अर्थ है रिलेटिव्स मायने रिश्तेदार। आय मायने इनर परसन, आपके वे परिचित जो आपके अत्यन्त निकट हैं। ई मायने एम्पलॉयी यानि की दूसरे विभाग के कर्मचारी गण। एन मायने नेबर यानि की आपके पडाैसी, और डी याने आपके डिपार्टमेन्टल कलीग्स। इस तरह आप यदि अपने आस पास के सब लोगों की सूची बना लेंगे, तो आपके हाथ में उन संभावित लोगों के नाम होंगे जो कि आपके काम में मददगार हो सकते हैं। इसमें से तमाम लोग ऐसे होंगे जो वितरक बन सकते हैं, और तमाम लोग ऐसे हो सकते हैं जो सिर्फ आपसे सामान लेकर इस्तेमाल करेंगे।
'' जाओ शुभा, चाय ले आओ। आगे की चर्चा हम चाय के बाद करेंगे। मनीराम जी ने हमको मंत्र पढ क़र मोहित सा कर दिया है,शायद चाय उस जादू को तोडेग़ी।'' मैं ने शुभा से चिरौरी की, तो वह प्रसन्न मन से उठी और भीतर चली गयी। अन्नपूर्णा भाभी झट से उठीं और वे भी उसके पीछे - पीछे भीतर जा पहुंची।
मनीराम ने बैग में से एक कैसेट निकाली और कहा - '' इसे सुनकर आपको ग्राहक को डील करने की टैक्नीक ही नहीं, इस तरह का काम करने वाले उन तमाम लोगों के विचार सुनने को मिलेंगे, पहले जिनमें से हर कोई या तो छोटा - मोटा दुकानदार था, या फिर छोटी - मोटी नौकरी करके अपना गुजारा किया करता था और वे सब इस कंपनी को जॉइन करने के बाद आज हर महीने लाखों में खेल रहे हैं।''
फिर उसने वह सिस्टम समझाया जिसे अपना के हम भी लाखों में खेल सकते थे। उसने बताया कि हमको पहले ऐसे आठ लोगों को टारगेट बना के काम शुरु करना है, जो एक्टिव हों और उनमें से हरेक आठ - आठ वितरक बना सके। मनीराम की बातें बडीआकर्षक थीं, उनमें मोहक तथ्य थे, और प्रमाणिक आंकडे भी, पर वह ऐसा प्लान था जिसे हजारों - लाखों में शायद कोई एक चल पाता था। उस दिन हम लोगों ने विचार करने का समय मांगा और किसी तरह उन दोनों से मुक्ति पायी।
आठ दिन बाद वर्मा भाभी एकाएक मेरे ऑफिस में आ धमकीं। मैं उस दिन अपने डैवलपमेन्ट ऑफिसर के पास बैठा था। उन्हें बैठा कर मैं ने मुस्कुराते हुए उनसे पूछा - '' कहिये भाभी जी, क्या हुकुम है?''
'' अपन लोग बाहर चल कर चाय पियें तो कैसा रहे? '' मैं तपाक से तैयार हो गया। गाडी स्टार्ट हुई तो अन्नपूर्णा भाभी फुर्ती से लपकीं और एक अभ्यस्त की तरह इत्मीनान से मेरे पीछे बैठ गयीं। अब उनका चेहरा मेरे कान के पास था, इतने पास कि मुझे उनके बालों में लगे सुगंधित तेल और चेहरे पर लगायी गयी क्रीम की खुश्बू मेरे नासापुटों में प्रवेश कर रही थी। उनके दायें हाथ ने मेरी कमर के गिर्द घेरा कसा तो मुझे लगा मेरी बाईक जमीन पर नहीं चल रही, आहिस्ता से जमीन से ऊपर उठी है और हम आसमान में कुलांचे भरने लगे हैं।
हबल चाय पीते हुए भाभी ने बताया कि दिल्ली में जम्बो कम्पनी की एक दिवसीय सेमिनार है, इसमें जिस वितरक को जाना हो वह सोलह सौ रुपए का टिकट लेकर शामिल हो सकता है। पता लगा कि वे खुद के साथ मेरा भी टिकट ले आयी हैं। मैं ना नुकर करने वाला था कि वे बोलीं - '' दरअसल मनीराम जी के घर में गमी हो गयी है, सो वे नहीं जा पा रहे, इस कारण आपसे इसरार करने आयी हूं कि आप मेरे साथ चलें।''
अब मैं भला मना भी कैसे कर सकता था! उन्हें विदा कर मैं कार्यालय लौटा तो मेरे मस्तिष्क में पुराना मुहावरा गूंज रहा था - अंधे के हाथ बटेर!
मैं ने अपनी जिन्दगी में अब तक बटेर नहीं देखी थी, आंख मूंद कर बटेर की कल्पना करने लगा। जब भी मैं अपने स्मृतिफलक पर बटेर की छवि सृजित करने की कोशिश करता, मुझे हर बार वर्मा भाभी की सूरत याद आ जाती तो मैं अनाम और मीठी सी अनुभूतियों से भर उठता।
घर पहुंचा, तो शुभा चाय पकडाते हुए बडे प्रसन्न मन से सुना रही थी- '' पता है, आज अपनी चिंकी की टीचर कुलकर्णी मैडम आयी थी। पैरेन्ट टीचर मीटींग में तो वे प्राय: मिलती रहती हैं। पर इस बार उनके आने की वजह वही जम्बो कम्पनी थी।''
'' जम्बो कम्पनी?'' अब चौंकने की बारी मेरी थी।
'' हां।'' मन्द मन्द मुस्काती शुभा रहस्य खोलने के अन्दाज में बोली - '' आजकल वे भी जम्बो कम्पनी का काम कर रही हैं। बोल रहीं थीं कि इस काम से उन्हें हर महीने पांच हजार से ज्यादा अर्निंग हो जाती है।''
'' हूं।'' एक गंभीर हुंकारा छोडक़र मैं ने उसे प्रोत्साहित किया।
'' सुनो! अपन लोग इस काम को काहे लटका रहे हैं? चलो अपन भी यह काम शुरु कर दें।'' उसके स्वर में बडा आत्मीय आग्रह झांक रहा था।
मैं ने जम्बो कंपनी के काम से ही वर्मा भभी के साथ दिल्ली जाने की सूचना दी तो यकायक शुभा जिद करने लगी कि वह भी दिल्ली जाना चाहती है। मेरी सारी उमंग समाप्त हो गयी। लेकिन दिल्ली तो जाना ही पडा।
अलबत्ता दिल्ली यात्रा में मुझे वो आनंद नहीं आया, जैसी कि मैं कल्पना कर रहा था। हां, ग्राहक को डील करने की कला, नये प्रोडक्ट्स का परिचय और नयी स्कीमों के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिला। कुछ बातें ऐसी भी सीखने को मिलीं जो बीमा एजेंट होने के नाते मेरे जॉब के लिये लाभदायक हो सकती थीं।
एक दिन रात आठ बजे मैं अपने एक पॉलिसी हॉल्डर से प्रीमियम लेने वर्मा जी के मोहल्ले की तरफ जा निकला और वहां से लौट ही रहा था ेल् अन्नपूर्णा भाभी से मिलने का मन हो आया। वर्मा जी दरवाजा खोल कर बैठे थे और मेरी गाडी क़ो उन्होंने मनीराम की गाडी समझा। पहले तो मायूस हुए फिर मुझे देख कर मुस्कुराये। मैं ने भाभी के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि सुबह से वे मनीराम के साथ गयी हैं, और अब तक लौटी नहीं हैं। मैं ने दुखी से स्वर में उनसे कहा - '' इस तरह बिजनेस के लिये भाभी के प्राय: घर से बाहर रहने पर आपको दिक्कत तो होती होगी!''
'' अब भई तरक्की करना है, तो हमको कुछ न कुछ तो त्याग करना ही पडेग़ा न! ''
'' फिर भी घर के काम?''
'' घर के काम तो कैसे ही हो जाते हैं अमर भैया! इत्ती सी बात के लिये उन्हें घर में बन्द रखना उचित नहीं। मैं बेसिकली महिलाओं की स्वतन्त्रता का समर्थक हूं। मेरे मतानुसार औरतों को रसोईघर से बाहर निकल कर काम धाम सीखना चाहिये। इससे उनका इनडिवीज्यूअल डैवलपमेन्ट होता है, अभिव्यक्ति का मौका मिलता है, और घर के साथ साथ स्वयं वे आर्थिक रूप से स्वतन्त्र हो जाती हैं।''
मन ही मन मैं ने कहा - पिछले साल जब भाभी को बीमा एजेन्ट बनाने का प्रस्ताव रखा था तो आप कहते थे कि औरतों की सही जगह घर में है, उन्हें घर में ही रहना चाहिये! और अगर जॉब करना ही है तो किसी कॉनवेन्ट में टीचरशिप वगैरह मिल जाये तो वह कर लेना ठीक रहता है। किन्तु प्रत्यक्षत: मैं ने यही कहा, '' हां, अभिव्यक्ति का मौका और आर्थिक स्वतन्त्रता तो मिलती है!''
'' कहिये आप कैसे पधारे?'' वर्मा जी ने सहसा मुझे सकते की स्थिति में डाल दिया था।
'' मैं दरअसल'' कहते हुए कुछ अटकने लगा तो यकायक याद आया और मैंने बेधडक़ उनसे कह डाला, '' उस दिन भाभी ने कहा था कि जम्बो कंपनी का रीजनल स्टोर आपके घर में है, सो मैं टूथपेस्ट और नाइटक्रीम लेने आया था।''
मेरा इतना कहना था कि अब तक उदास और अलसाये बैठे वर्मा में यकायक फुर्ती आ गयी, वे उठे और बैठक में अस्तव्यस्त रखे कार्टन्स में मेरी मांगी गयी चीजें तलाश करने लगे।
मैं ने उडती नजर से देखा वर्मा जी के घर में बैठक ही नहीं, स्टोर, किचन और यहां तक कि बेडरूम में भी यानि कि हर जगह अन्नपूर्णा भाभी की कंपनी की चीजें बिखरी पडी थीं। लग रहा था कि इस नयी तरक्की यानि भूमण्डलीकरण के इस नये दौर में बहुत कुछ बदला है। जिस चीज क़े लिये जो जगह निश्चित की गयी है, अब वो केवल वहीं नहीं मिलती, सब जगह मिल जाती है! चीजें तेजी से अपनी जगह बदल रही हैं! बाजार केवल बाजार तक सीमित नहीं रह गया! अब वर्मा जी जैसे कई घरों में बाजार स्वयं घुस आया है - अपने पूरे संस्कार, आचरण, आदतों और बुराइयों के साथ!
घर लौटते वक्त मैं मन ही मन तरक्की के लाभ - हानि का बहीखाता तैयार कर रहा था, जिसमें मैं और मेरी पत्नी शुभा भी शायद अपनी प्रविष्टि के लिये आतुर थे।
राजनारायण बोहरे
सितम्बर 28, 2004

बिगड़ैल बच्चे

बिगड़ैल बच्चे
वे तीन युवा पिंक सिटी ट्रेन से सुबह-सुबह छ: बजे मेरे बाद चढ़े थे। रेल के इस सबसे पीछे वाले, सुनसान पड़े डिब्बे की मानों रुकी हुई सांसें एकाएक चल पड़ी हों... तेज़ स्वर में बातचीत, छेड़छाड़ करते हुए तीनों सामान स्वयं लादे, विदेशी पर्यटकों की नकल में ये पर्यटक साफ-साफ देसी नज़र आ रहे थे। बात-बात में... फकिन... फकअप... फकऑल...! मुझे बहुत नागवार गुज़र रहा था।
आते ही धम्म से उन्होंने सारा सामान सामने की सीट पर पटक दिया था। एक खुल्लम-खुल्ला सी, मध्यवर्गीय मगर आधुनिक किस्म की लापरवाही उनकी हर बात से झलक रही थी, चाहे वह बातचीत का लहजा, सामान फेंकने का ढंग, चाल-ढाल या कि बाल हों, चप्पलें हों, चाहे बिना मोजों वाले जूते हों या... फेडेड जीन्स हो। वे जो कर रहे थे उनकी नज़र में फैशन था, आधुनिकता थी। इस आधुनिकता में उनका मध्यवर्गीय अभाव कुछ ढंक रहा था तो कुछ उघड़ रहा था।
पिंक सिटी दिल्ली के सरायरोहिल्ला स्टेशन से सीधे छ: बजे चलती है और दोपहर तीन बजे जयपुर पहुंचती है, सो सुबह साढ़े पांच बजे ही मुझे मेरा बेटा ट्रेन में बिठाकर, सामान व्यवस्थित कर, एक कप एस्प्रेसो कॉफी सामने के स्टाल से लाकर मुझे पकड़ाकर चला गया था।
पहले से बैठा... बल्कि खाली बैठा भारतीय यात्री... उस पर महिला यात्री... और फिर मेरे जैसा कल्पनाशील यात्री, हर नये चढ़ने वाले यात्री के वेशभूषा, शक्ल, बातचीत के लहजे, नामों के चलन के अनुसार उसका प्रदेश-परिवेश भांपने का प्रयास करता है, यकीन मानिए बस वैसा ही कुछ मैं भी कर रही थी। अजीब किस्म का शौक है ना... दूसरों के मामले में नाक घुसाने का नितान्त भारतीय शौक!
निश्र्चित रूप से तीनों गोआ के निवासी लग रहे थे, केवल शक्लो-सूरत से ही मैंने यह निश्र्चय नहीं किया था... क्योंकि लड़की ने जो टी-शर्ट पहनी थी उस पर सामने ही लिखा था, `माय गोआ, द हैवन ऑन द अर्थ।' गले में काले धागे में चांदी का बड़ा-सा क्रॉस लटका हुआ था। यही नहीं वे कभी अंग्रेजी में और कभी कोंकणी भाषा में बात कर रहे थे। अपना गिटार, कैमरा, वॉकमैन के अलावा तीन पुराने से बैग, ढेर सारे चिप्स और कोल्ड ड्रिंक की बॉटल्स और कुछ पत्रिकाएं लेकर वे तीनों चढ़े थे... और अब वे मेरे एक दम सामने वाली सीटों पर अस्त-व्यस्त से जम गये। एक लड़की तो थी ही, बाकी दो लड़के थे। एक छोटा, एक बड़ा।
तीनों उत्तर भारत के टूरिस्ट मैप पर सर से सर जोड़कर नज़र गड़ाकर कुछ कार्यक्रम बना रहे थे... कोंकणी में। लापरवाही से उनका कैमरा सीट के कोने में रखा था, मैं मन ही मन कुनमुनायीज्ञ् लगता हैै इन्हें उत्तर भारत... खासतौर पर दिल्ली के जेबकतरों-उठाईगीरों का कोई अनुभव ही नहीं है या कभी कुछ सुना भी नहीं। मैंने सोचा आगाह करूं... पर मेरी तरफ डाली गयी उनकी उदासीन दृष्टि अब तक मुझे चिढ़ा गई थी सो मैंने सोचा, `हं मुझे ही क्या पड़ी है!'
मैप देखने के बाद तीनों अपनी-अपनी जगह पर खिसक गये। बैग ऊपर वाली बर्थ पर लापरवाही से फेंक दिये गये थे। गिटार बड़े वाले लड़के ने अपने पास गोद में बहुत प्यार से रख लिया, जैसे कोई पालतू जानवर हो। वॉकमैन छोटे से ने कान पर लगा लिया, खाने-पीने का सामान लड़की ने अपने पास के बैग में डाल लिया था।
लड़की सांवली होने के बावजूद आकर्षक थी। दरम्याने कद की, पतली और प्यारी सी। हां बाल बेढंगे से थे... घुंघराले काले कालों में, कत्थई और सुनहरे रंग की कई लटें रंगा रखी थीं। ऐसा लग रहा था कि सफेद बालों को घर पर मेंहदी लगाकर छुपाने की कोशिश हो। मुझे अपने कॉलेज की मिसेज बतरा याद आ गइंर्, वो अपने खिचड़ी बालों में मेंहदी लगाकर ऐसी ही लगा करती थी, पर यह फैशन है आजकल का, बेढंगा फैशन! मेरे अन्दर की प्रौढ़ होती महिला किचकिचाई!
लड़कों में से छोटा लड़का चेहरे-मोहरे से उसका भाई लग रहा था, (हां भई... उसकी नाक और होंठों कीी बनावट बिलकुल लड़की जैसी ही थी... वह लड़की ज़रा लुनाई लिये हुए सांवली थी और यह बिलकुल काला) वही... जिसने कानों में अब वॉकमैन के इयर प्लग लगा रखे थे और पैर हिलाते हुए गुनगुनाता जा रहा था...। कभी-कभी वह आस-पास के वातावरण से बेखबर ज़रा ऊंची आवाज़ में गाने लगता था... तब लड़की उसे कोहनी मार देती थी।
बड़े लड़के के हाथ गिटार के तारों को हल्के-हल्के सहला रहे थे, वह कोई अंग्रेजी गीत गुनगुना रहा था और मीठी नज़रों से लड़की को देख रहा था, लड़की ने मुस्कुराकर नज़रें खिड़की के बाहर दौड़ा दीं। स्टेशन पर चहल-पहल बढ़ गई थी। जिस खिड़की के पास वह लड़की बैठी थी... वहां दो-चार सड़क छाप मनचले मंडराने लगे थे। ठेठ सड़कछाप हिन्दी के कुछ गन्दे फिकरे कसे गये जो लड़की को समझ नहीं आये पर वह लड़की होने की छठी इन्द्री से समझ गई कि उसके कपड़ों पर कुछ कहा गया है।
उसने आधी खुली पीठ वाला, छोटा सा, बड़े गले का नाभिदर्शना टॉप पहना हुआ था। नाभि में चांदी की बाली पहनी हुई थी। बड़ा लड़का उसका असमंजस तुरन्त समझ गया, आवेश की हल्की परछाइंर् उसके चेहरे पर आई। उसने उसे बैग में से निकालकर एक लम्बी बांह की शर्ट पकड़ा दी थी। फिर छोटे लड़के को खिसकाकर खिड़की के पास बिठा दिया था। लड़की को बीच में बिठाकर वह उसके एकदम करीब उसके कंधों पर अपनी बांह का सहारा देकर बैठ गया। लड़की ने लापरवाही से उसकी दी हुई शर्ट को पहन लिया था, लेकिन बिना बटन लगाये।
अब तक ट्रेन ने सीटी दे दी थी। जिन्हें इस ट्रेन में चढ़ना था... चढ़ गये थे और अपनी-अपनी जगह खोजने लगे थे। यह एक सेकेण्ड क्लास का डब्बा था। मेरे बगल में एक अधेड़ सज्जन आ बैठे थे... और उनकी पत्नी भी। छोटा लड़का अब एकदम मेरे सामने था... उसने हरा बरमूडा और फूलों की छींट वाली पीली शर्ट पहन रखी थी। सामने के कुछ खड़े बाल सुनहरे होने की हद तक ब्लीच किये हुए थे। ट्रेन चलते ही इस छोटे लड़के ने वॉकमैन की आवाज़ बढ़ा दी थी। इतनी कि मैं तक सुन पा रही थी। एक घना शोर और बीच-बीच में किसी पॉप गायिका की आवाज़। एक मिनट बाद जब मुझसे शोर सहन नहीं हुआ तो मैंने उसके पास थोड़ा झुककर पूछ ही लिया, `मैडोना है ना!' मैंने सोचा वह बात में छिपे व्यंग्य को समझेगा और आवाज़ धीमी कर देगा।
`हह...।' उसने कहा।
लड़की ने सर हिलाया, बुरा सा मुंह बनाया और कहा, `शी इज़ नॉट फोर अवर जेनरेशन... ही लाइक्स शकीरा एण्ड ब्रिटनी।'
मैं साथ लाई किताबों में से कुछ भी नहीं पढ़ पा रही थी। पन्द्रह मिनट तक मैं वह कानफाड़ू संगीत सुनती रही। अध्ेाड़ व्यक्ति मेरी परेशानी भांप रहे थे। उन्होंने छोटे लड़के के घुटनों पर थपथपया। उसने इयरफोन हटाया और उनकी तरफ चिढ़े हुए अन्दाज़ में देखने लगा। संगीत इयरफोन्स में से निकलकर ट्रेन के सरपट संगीत से पूरी टक्कर ले रहा था।
`फॉर एवर%%% फॉर एवर%%% टनन्ना%%%'
`टों%%% छक छक छुक दुक..डडड टूंं%%%।'
`अगर तुम इतना तेज़ म्यूजिक सुनोगे तुम्हारे कान खराब हो जायेंगे', अधेड़ सज्जन ने विनम्रता से धीरे से कहा।
लड़के ने सिर हिला दिया, यह संकेते देते हुए कि पहली बात तो वह कुछ सुन नहीं पा रहा दूसरे उसे हिन्दी नहीं समझ आती।
उन्होंने थोड़ी तेज़ आवाज़ में अंग्रेजी में कहा किज्ञ् `इफ यू विल लिसन लाउड म्यूजिक योर हियरिंग विल बी डैमेज्ड।'
`ह्वाट?' उसने तेज़ आवाज़ में पूछा और वॉकमैन बन्द कर दिया।
`ही इज सेइंग... यू आर गोइंर्ग टू रुइन योर हियरिंग, इफ यू विल कन्टीन्यू प्ले म्यूजिक सो लाऊड।' मैं सन्नाटे में जोर से चीख पड़ी।
अचानक वे तीनों जोर से हंस पड़े। छोटे लड़के ने हंसी रोकते हुए टूटी-फूटी हिन्दी में गोअन ढंग से कहाज्ञ् `अच्छा! शुक्रिया।' और इयरफोन को गले से लटका लिया और वॉकमैन बरमूडा की लम्बी लटकती जेब में डाल लिया, जिससे वह और लटक गई।
मैं झेंपकर उठ खड़ी हुई और हैण्ड टॉवेल लेकर बाथरूम जाने का उपक्रम करने लगी। मेरे मुड़ते ही आवाज़ आई `... ह्वाट फकिन कन्सर्न दे ओल्डीज़ हैव!' यह आवाज़ लड़की की थी।
`शटअप लीजा। शी इज राइट।' यह गंभीर आवाज़ बड़े लड़के की थी।
मैं बाथरूम से लौटी तो बड़ा लड़का `डेबॉनेयर' का सेंटरस्प्रेड देख रहा था। लड़की भी साथ झुकी थी... बीच-बीच में बड़े लड़के की धीमी आवाज़ में की गई किसी टिप्पणी पर वह उसके बाल खींच देती या पीठ पर मुक्का जमा देती।
वह अधेड़ सज्जन और उनकी पत्नी अब मेरी ओर सहानुभूति के साथ मुखातिब थे। आपसी परिचय से पता चला कि वे डाक्टर हैं। उनकी पत्नी अध्यापिका।
`यह हाल है हमारे देश की युवा पीढ़ी का!' यह डॉक्टर साहब कह रहे थे।
`दिन पर दिन बदतमीज़ होते जा रहे हैं। संस्कार बचे ही नहीं।' उनकी पत्नी ने अपने में मशगूल उस युवा त्रयी को घूरकर देखकर कहा। छोटा लड़का थोड़ा झिझका और प्रतिक्रिया में उसने अपने जांघ तक ऊंचे चढ़ गये बरमूडा को नीचे खींच लिया और खिड़की के बाहर देखने लगा।
`हमारी भी गलती है... हमारे पास समय कहां है, जो इन्हें संस्कारों का पाठ पढ़ायें।' मैंने ठण्डी सांस लेकर कहा।
`देखने में तो मिडल क्लास लग रहे हैं... पर फैशन और रहन-सहन देखो। ये क्रिश्चियन तो होते ही ऐसे हैं। देख रही हैं न, कितनी बेशर्मी से गन्दी-गन्दी किताबें देख रहे हैं, बड़े-बूढ़ों का लिहाज ही नहीं है।'ज्ञ्डाक्टर की पत्नी ने फुसफुसा कर कहा।
`बात खाली एक जाति की नहीं है, हमारी यंग जेनरेशन पूरी की पूरी ही ऐसी है। कुछ वेस्टर्न कल्चर का असर था, बचा-खुचा टी.वी. चैनल्स ने पूरा कर दिया। इन लोगों को इतनी छूट है, हमें कभी थी क्या?' ज्ञ्डॉक्टर ने कहा।
`हां, हर पीढ़ी में अच्छाइयां और बुराइयां रही ही हैं।'
`हां जी, पर यह पीढ़ी तो... इनमें समझदारी नाम मात्र को नहीं है। देखो इन्हें... बस फालतू जोश! कुछ कर दिखाने, कुछ बनने-बनाने की न तो काबिलियत है, न अक्ल, न हिम्मत। सोशल वेल्यूज के नाम पर ज़ीरो।' अपनी तर्जनी अंगूठे से जोड़कर उन्होंने जीरो बनाकर दिखाया तो वह युवा त्रयी उन्हें आश्र्चर्य से देखने लगी। `दरअसल ये लोग भोगवाद में विश्वास करते हैं... जो आज मिल रहा है भोग लो... कैसे भी पैसा कमाओ और खर्च कर लो... मज़े करो बस। बाकी दुनिया जाये भाड़ में।' डॉक्टर की पत्नी उन्हें घूर-घूरू कोस रही थीं। वे तीनों समझ रहे थे कि हमारी बात का विषय वे तीनों ही हैं...शायद इसीलिए छोटा लड़का वॉकमैन सुनते-सुनते जोर से गाने लगा था और उन्हें चिढ़ाते हुए वह लड़की लड़के से एकदम सट कर बैठ गई। लड़का गिटार पर कोई गोअन धुन बजाने लगा था।
`भोगवाद कहें या भौतिकवाद... इससे हम भी कहां अछूते हैं? हां पर यह युवा पीढ़ी कुछ ज्यादा ही लापरवाह है। जो भी हो इन्हीं पर हमारा भविष्य टिका है।'
`भविष्य! ये युवा हमें वृद्धाश्रम के अलावा क्या देंगे? महास्वार्थी है यह पीढ़ी। पहले कभी हमने भारत में वृद्धाश्रमों का नाम तक सुना था? हमारी सास तो आखिर तक हमारी छाती... मेरा मतलब हमारे साथ रहती रहीं।'
डॉक्टर ने सर हिलाया और किसी सोच में डूब गये। मानो उनकी पत्नी ने पते की बात कही थी। फिर अखबार उठाकर पढ़ने लगे। उनकी स्थूल पत्नी नाश्ते का सामान सजाने लगी थीं।
`लीजिये न कुछ।'
`जी नहीं... मेरा कात है।' मैं सफाई से झूठ बोल गई। बचपन से मां की बंधाई हुई गांठ `सफर में किसी अजनबी से कुछ लेकर मत खाना' कस गई।
डॉक्टर ने तीनों युवाआें से एक औपचारिक आग्रह किया... उन तीनों ने बिना संकोच के एक-एक पूरी उठा ली और खाने लगे। मुंह में पूरी ठूंसे-ठूंसे लड़की ने कहा, `वैरी डैलीशियस आन्टी, ह्वाट पिकल इज दिस?' कहकर एक पूरी और उठा ली उस पर उंगली से अचार फैलाकर रोल बनाने लगी।
`टैंटी।' वे उदासीनता से बोलीं।
`ह्वाट टी?'
`ए वाइल्ड फ्रूट।' डॉक्टर ने समझाया।
`ओह आइ थॉट... दीज आर सी-फिशेज एग्ज।'
`नो नो वी आर प्योर वैजेटेरियन्स।' कहकर अध्यापिका महोदया ने अपना टिफिन उनके सामने से खींच लिया और मेरी तरफ मुंह कर के खाने लगीं। मैं खिड़की से सटकर बैठ गयी।
क्रीं%%% किच कर के ट्रेन रुक गई। शायद चेन पुलिंग थी। यह दिल्ली के बाहर का औद्योगिक क्षेत्र था। यह तो रोज़ का किस्सा हैज्ञ् अनेक स्थानीय यात्री इस ट्रेन और फिर आठ बजे तक दिल्ली से चलने वाली हर ट्रेन में चढ़कर आते हैं, फिर बार-बार चेन पुलिंग होती है। दो घंटों में भी दिल्ली की सीमा से ट्रेन बाहर नहीं निकल पाती। शाम की ट्रेनों में भी यही हाल रहता है। काफी समय तो बरबाद होता ही है, साथ ही ये लोग प्रथम श्रेणी से लेकर, आरक्षित शायिकाआें तक हर जगह घुसे चले आते हैं। फिर यात्रियों के साथ बदतमीजी से पेश आते हैं। कोई लड़की या सुन्दर महिला यात्री दिख जाये तो उससे सट कर बैठ जायेंगे। उसके संरक्षक आपत्ति करें तो झगड़ा... फिर तो ये लोग ट्रेन को चलने ही नहीं देंगे। ट्रेन में तोड़-फोड़ करेंगे। यह व्यवस्था का ऐसा सुराख है जो बन्द नहीं हो सकता। सालों पुराना चलन है। यही देखते-देखते मैं युवा से प्रौढ़ हो चली हूं। आज भी मुझे इन लोगों से डर लगता है।
वो तो सौभाग्य से यह डिब्बा बहुत पीछे था सो इस डिब्बे में कोई झुण्ड नहीं चढ़ा... नहीं तो इस लड़की के कपड़ों और अदाआें पर यहां तो कत्ल हो जाते... और इसके ये दो मरगिल्ले से संरक्षक कुछ नहीं कर पाते। हिन्दी तक तो ठीक से समझ-बोल नहीं पाते।
मैं भी सोचने लगी, ये खुलापन, इनकी इस कदर लापरवाही क्या इन्हें खतरों की तरफ नहीं ढकेलती? पढ़ाई, काम-धंधा कुछ करते भी हैं कि नहीं? उम्र तो देखो, मुश्किल से अठारह-उन्नीस के होंगे, छुटका तो पन्द्रह का सा लगता है। उस पर कैसे होंगे वे दु:साहसी माता-पिता जो इन्हें अकेले दुनिया देखने भेज दिया। ये ही शायद ऐसे हैं... विद्रोही किस्म के बिगड़ैल बच्चे। मन किया कि मैं भी कहूंज्ञ् `ब्लडी फकिन ब्रैट्स!'
हमारे भी सहपाठी, सहकर्मी क्रिश्र्चियन रहे हैं... पर ऐसा खुलापन कभी नहीं देखा। क्या ये किसी मुसीबत को समझदारी से सुलझा सकेंगे? खतरों से बच सकेंगे? छोड़ो... मुझे क्या पड़ी है? भाड़ में जायें। अच्छा ही हुआ जो मैंने अपने बेटे-बेटी को बहुत संयम और कठोर अनुशासन में पाला है। बेटा तो चलो ठीक है, दिल्ली आई.आई.टी. में पढ़ रहा है, पर निशि...!!
मैंने एक ठण्डी सांस ली... ट्रेन धीमे-धीमे सरक रही थी।
मैंने स्वयं से सवाल पूछा... क्या मैंने बच्चों को सुरक्षित और कठोर अनुशासन में रखकर बहुत महान काम किया है? क्या निशि इस कठोर अनुशासन और अतिरिक्त सुरक्षित वातावरण में पल कर बेहद दब्बू बनकर नहीं रह गई। बस शादी कर देने भर से हमने क्या उसे सुरक्षित कर दिया?
अपनी होनहार एम. बी. ए. लड़की को बम्बई जाकर एक मल्टीनेशनल नौकरी नहीं करने दी...। हम दोनों ही डर गये थे। कितना रोई थी वह... पर हमारा मन नहीं माना। बाहरी दुनिया... यानी खतरों से भरी दुनिया। कह दिया था... यहीं रहकर करो नौकरी... या फिर कह दिया कि शादी के बाद कर लेना नौकरी। पति चाहे तो।
अब! एक-एक पैसे को पति का मुंह देखती है, कहने को बड़ा बिजनेस है उसके परिवार में, पर तीन भाइयों में सबसे छोटा उसका पति हमेशा बेवकूफ बनता है। खाने-पीने की कमी नहीं, बड़ा घर है, संयुक्त परिवार है। पर निशि अपने से कुछ खरीदना चाहे, कहीं घूमने जाना चाहे... वह सब नहीं हो पाता। मायके तक अब उसे अकेले ट्रेन में बच्चों के साथ आने में डर लगता है, दामाद के पास फुरसत नहीं कि वह छोड़ जाये। बस उसी को तो लेने जा रही हूं, निशि के पापा डायबिटिक हैं, वे घर से नहीं निकलते।
आज निशि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती तो... निशि को उन्होंने उसकी पसन्द से शादी करने दी होती तो! तो! आज निशि का चेहरा इस सामने बैठी लड़की सा चमकता! सत्ताइस साल की उमर में वह पैंतीस की नहीं लगती... हर समय एक स्थायी हताशा उसके चेहरे पर नहीं होतीी!... लेकिन... ये बेहयाई! खतरों को आमंत्रित करता खुलापन! मैं असमंजस में थी। मुझे निशि के हालातों पर रोना आने लगा था।
सामने की सीट पर बड़ा लड़का और लड़की एक दूसरे पर ढलके सो रहे थे। डेबोनियर के ऊपर हैल्थ और रीर्डस डाइजेस्ट भी रखी थीं...चिप मैग्ज़ीन अधखुली ट्रेन के फर्श पर लोट रही थी। तो...आज का युवा सब कुछ पढ़ता है! छुटके ने फिर वॉकमैन चला लिया था पर इस बार थोड़ा कम लाऊड। डॉक्टर और उनकी पत्नी बड़ी तल्लीनता से रमी खेल रहे थे। मुझे अपना आप अचानक बहुत अकेला लगा। पैर लटके-लटके सूज आये थे...बल्कि सुन्न पड़ने लगे थे...मैंने उन्हें ऊपर कर लिया। ट्रेन तेज़ रफ्तार से उष्ण कटिबंधीय जंगलों से गुज़र रही थी, अप्रैल का महीना था और मौसम गर्म होने लगा था। सुबह के दस बजे ही दोपहर का सा अहसास हो रहा था। भूख भी लग आई थी.. पर मेरे पास क्या धरा था? तीन सेब! एक सैण्डविच! एक भूला-भटका चाय वाला उधर से गुज़रा तो मैंने उसे रोक लिया...
मेरे पास खुले पैसे नहीं थे। छुटके से पूछा...तो उसका जवाब था...`वन मिनट...' जेब से उसने तीन रुपए निकाल कर चुका दिये।
मैंने कहा भी कि `आय नीड चेन्ज ऑनली।'
`कमॉन मॉम...' ज्ञ्कहकर वह
खी-खी हंसने लगा।
`सैंडविच?'
`नो थैंक्स...' कह कर उसने जेब से भुने हल्के हल्के भूरे छिलकों वाले नमकीन काजू निकाले और मेरी प्लेट में रख दिये।
मैंने आश्चर्य में भरकर कृतज्ञता से कहा कि ऐसे काजू मैंने पहली बार देखे हैं बिना छिले भुने हुए। उसने बताया कि उनके घर के अहाते में चार काजू के पेड़ हैं...ये काजू उन्हीं पेड़ों के हैं। आते समय `मॉम' ने जबरदस्ती उनके साथ बंाध दिये थे। मेरी कल्पना में एक सांवली छींट की फ्रॉक पहने, दुबली मगर हल्के से निकले पेट वाली वाली ममतामयी क्रिश्र्चियन महिला की छवि तैर गई। मैं कुछ और भी पूछना चाहती थी...एक आम भारतीय उत्सुकता के तहत उनकी निजता के पारदर्शी तरल को छूकर देखना चाहती थी। मसलन वह लड़की तुम्हारी बहन है क्या? तुम्हारी मां ने एक पराये लड़के को तुम्हारे साथ क्योंकर भेजा होगा? कहां जा रहे हो? कब लौट कर घर जाओगे? और ज़रा बताओ तो... क्या-क्या उगा रखा है तुम्हारी मां ने तुम्हारे आहाते में। तुम एंग्लोइण्डियन गोअन क्रिश्र्चियन हो कि कनवर्टी? छि: यह सब पूछकर वह क्या करेगी? कहीं उसने कह दिया यू नटी ओल्डी...व्हाट फकिन कन्सर्न डू यू हैव विद अस? उसे क्या? भाड़ में जाये यह और उसकी बहन। कमबख़्त कैसे सटकर उस जवान-जहान लड़के से चिपकी पड़ी है।
छुटके ने उत्साह से कहा कि कोई स्टेशन आ रहा है। इक्का-दुक्का नज़र आने लगे थे। कुछ कारखाने...और ट्रेन की पटरी का एक और जोड़ा हमारी ट्रेन के साथ दौड़ने लगा था। मैंने मन ही मन कहा, अलवर! हाय! जल्दी में मिठाई लेना भूल गई थी दिल्ली से...कमबख्त निशि ने भी तो अचानक फोन किया था कि मम्मी, मुझे सास ने कह दिया है जा हो आ मायके, तुम कल ही भैया को भेज दो।
`भैया कैसे आयेगा निशि, उसके एक्ज़ाम हैं।'
`तो मां...।' बेचारी रुंआसी हो गयी थी।
`तू खुद चली आ न। जयपुर से तो कई सीधी रेल हैं दिल्ली की। करा ले रिज़र्वेशन।'
`मम्मी, तुम तो जानती हो, दो छोटी बच्चियों के साथ ये अकेले नहीं भेजेंगे मुझे। इन्हें फुर्सत नहीं.. फिर बताओ न...मैं भी कैसे आ जाऊं, कितनी दिक्कत होगी, दोनों तो गोदी चढ़ती हैं। हाय, मम्मी कितनी मुश्किल से सास का मुंह सीधा हुआ है मेरे मायके जाने के नाम पर।'
`अच्छा-अच्छा ...मैं ही...'
`कल ही चल दो न मां। कितना तरस रही हूं मैं।'
`देखती हूं।'
बस फिर सुबह-सुबह ट्रेन में बैठती कि मिठाई लेती! अलवर से ही दो किलो मिल्ककेक ले चलती हूं। वहां जयपुर में तो स्टेशन पर दामाद लेने आयेंगे, उनके सामने मिठाई लेती भला अच्छी लगूंगी? मैंने अलवर आता देख पर्स संभाला। छुटके से कहा कि सामान का ख्याल रखे। डॉक्टर दम्पति ऊपर की खाली बर्थो पर जाकर लेट गये थे। लड़की कुनमुना कर लड़के से अलग हो उठकर खड़ी हो गयी थी। उठते ही चॉकलेट निकालकर खाने लगी।
ट्रेन रुक गई थी। डिब्बा सच में बहुत पीछे था। मिल्ककेक की दुकान दूर थी। स्टेशन पर काफी भीड़ थी। सारी भीड़ पिंकसिटी में ही समायेगी क्या, यह सोच मैं जल्दी-जल्दी ट्रेन से उतरी और लोगों से टकराते हुए... बड़े-बड़े डग भरते हुए दुकान पर हांफती हुई पहुंची। दो-दो डिब्बे मिठाई और पर्स सम्भालती हुई ...मैं अपने गंतव्य से आधी दूरी पर ही थी कि ट्रेन ने सीटी दे दी... मेरे तो हाथ-पांव फूल गये। भीड़ को चीरती हुई मैं आगे बढ़ रही और मुझे दूरदर्शन का एक विज्ञापन याद आ रहा था कि भारत में स्टेशनों पर यात्रा करने वाले कम और उन्हें छोड़ने आने वाले ज्य़ादा होते हैं। उस क्षणांश में ही मुझे लग रहा था कि मैं चल ही नहीं पा रही... अपना डिब्बा मुझे दिखाई नहीं दे रहा... कि अचानक छोटे लड़के की चीख ने ध्यान दिलाया कि मैं डिब्बे के एकदम पास हूं- `आन्टी।'
दरवाजे के पास भीड़ थी... मेरे पीछे भीड़ थी... मैंने किसी तरह दरवाजे का हैण्डल पकड़ा और पैर बढ़ाया ही था कि ट्रेन थोड़ा तेज़ रेंगने लगी, मैं बुरी तरह से प्लेटफार्म पर गिर पड़ी। पैर ज्य़ादा बढ़ गया होता तो दरवाजे पर पटरियों के बीच घिसट रही होती। गिरते-गिरते मुझे छोटे लड़के की चीख सुनाई दी थी। उसके बाद मुझ पर झुकी भीड़ एक भंवर की तरह घूमती नज़र आई और फिर कुछ कहीं ग़़ड़%ब से डूब गया।
ठंडे पानी की तेज़ छपाक से मैंने अपने चेतन का छोर ढूंढा और अवचेतन की सीढ़ियां फांदती... होश में आने की जल्दी में मैं उस आघात की पारदर्शी झिल्ली के नीचे से मुटिठयां बांध-बांधकर चीख रही थी... जो कि अस्पष्ट गों गों में बदलती जा रही थी। आखिरकार मेरे प्रहारों से वह झिल्ली फटी.. गर्मी और उमस से भरे रेलवे के रिटायरिंग रूम में मैं बदहवास सी चारों तरफ देख रही थी।
`आन्टी, आर यू ओके!' डॉक, शी ओपन्ड हर आइज़।' छोटा लड़का मेरे चेहरे से सटा फर्श पर हड़बड़ाया सा बैठा था। उसकी आवाज़ में एक नेह भरी ऊष्मा की थरथराहट थी।
`कैसी हैं आप?' एक अजनबी रेलवे के डॉक्टर ने झुककर पूछा, `चिंता की कोई बात नहीं... ये यंग्स्टर्स नहीं होते तो...! इनका और खुदा का शुक्रिया अदा करें। गनीमत है कि कोई सीरियस इंजरी नहीं हुई। पुराना खाया पिया काम आ गया।' ज्ञ्हंसकर डॉक्टर ने मेरे हवास दुरुस्त करने की कोशिश की।
`बस अभी एम्बुलेंस आती होगी।'
मैंने थोड़ा उठना चाहा तो... वह लड़की आगे आ गई... अपनी बांह का सहारा लिये। मैंने देखा उसकी शर्ट का बड़ा हिस्सा खून से तर था। मैंने दाइंर् भौंह की तरफ पीड़ा महसूस की। छुआ तो वहां एक गीला स्कार्फ बंधा था, यह बड़े लड़के का था। दोनों घुटनों पर दो रूमाल बंधे थे।
इतने में बड़ा लड़का पसीने में तर-ब-तर हाथ में दवाआें, पटि्टयों का बण्डल लेकर आ पहुंचा।
`डोन्ट गेटअप, यू आर स्टिल ब्लीडिंग।' बड़े लड़के ने मेरी चोट पर स्कार्फ दबाते हुए कहा, `डॉक फर्स्ट गिव हर टिटनेस इंजैक्शन।'
`यंग मैन, डोन्ट टीच मी माय ड्यूटीज़'। डॉक्टर ने हंसकर कहा और इंजैक्शन तैयार करने लगा। मैंने देखा, डॉक्टर छोटे कद का, काला सा, अनगढ़ नकूश वाला व्यक्ति था। शायद मुसलमान। इसीलिये... बार-बार खुदा के लिये... खुदा का शुक्र... किये जा रहा था।
एम्बुलेंस में मैंने हिम्मत करके लड़की से पूछ ही लिया।
`ओह गॉड आन्टी दैट सीन वाज़ हॉरीबल... एक घण्टा भी नहीं हुआ है अब्भी तो... आप तो बहूत बूरा गिरा था प्लेटफार्म पर। हाथ छूट गया हैण्डल से वरना ट्रेन के साथ... लटकता जाता। वो जो मेरा फियान्सी है न, रोज़र... उसने चेन पुल किया... फिर हम तीनों सब बैग लेकर उतरा... आपके पास पहुंच ही नइंर् सकने का था... सब आदमी लोगों ने कवर कर रखा था, तब मेरा भाई चिल्लाकर सबको दूर भगाया और आपको रिटायरिंग रूम में लाया। रोज़र स्टेशन मास्टर के रूम में रश करके भागा। तब डॉक्टर आया और...।'
`तुम तीनों ने मेरे लिये ट्रेन छोड़ दी!'
`हां! वही तो ज़रूरी था न। आपको उन स्टूपिड लोगों के बीच छोड़ना नहीं था न! तमाशा करके रखा था न आपका। कोई उठा नहीं रहा था...'
`वो डॉक्टर जो ट्रेन में था...।'
`वो%%%ह। ब्लडी सेल्फिश फैलो।' यह छुटका था, `हिज वाइफ स्कोल्ड हिम नॉट टू कम विद अस एण्ड ही स्टेड बैक। वी लिटरली प्रेड टू हिम! बट ही टोल्ड आय कान्ट... गेट डाउन... आय हैव टू रीच टुडे।'
`लीव ना कीथ। होते हैं, आन्टी सैल्फिश लोग भी। हमको हमारा मम्मी बोला इन्सान का सेवा ही यीशू का सेवा है। आप बताओ न, आपकी जगह हम होते तो! आप नहीं रुकते क्या हमारे लिये?'
मैं सोच में पड़ गई थी! मैं क्या करती? मैं उतरती किसी घायल के लिये? इस उमर, सूजे हुए पैरों के साथ में किसी घायल के लिये मैं क्या कर सकती थी? ये तो जवान हैं। प्रौढ़ावस्था का बहाना खड़ा हो जाता।
प्रश्न वही था... बचपन में पढ़ी कहानी `मनुष्य, भेड़ और भेड़िया' में से मैं क्या बनती? भेड़िया तो नहीं, इन्सान बनने की हिम्मत जुटा पाती या कि शायद... उस डॉक्टर की तरह जल्दी गंतव्य पर पहुंचने की चाह में आंखें मूंद भेड़ बनकर आगे बढ़ जाती!
लड़की बिलकुल मेरे करीब थी, उसका खून से सना शर्ट उसके हाथों में था। बड़ा लड़का आगे डॉक्टर के पास बैठा जयपुर जाने वाली ट्रेन के बारे में बतिया रहा था।
`नो वी वोन्ट लीव हर अलोन।'
`... ...।'
`प्लीज कम्पलीट ऑल फार्मेलिटीज़ एण्ड गिव हर प्रॉपर मेडिकेशन। वी हैव टू लीव दिस प्लेस टुडे ऑनली। डोन्ट वरी... वी विल टेक केयर ऑफ हर।'
`... ...।'
`नो... नो। वी वान्ट टू लीव फॉर जयपुर एज अर्लीी एज पॉसिबल। डे आफ्टर वी हैव फर्दर रिजर्वेशन्स आल्सो।'
`... ...'
`थैंक्स डॉक्टर।'
हम रेलवे के अस्पताल पहुंच गये थे। डॉक्टर रशीद ने... (उनका यह नाम मैंने उनके कोट पर लगे नेमटैब पर पढ़ा था। क्या करूं यह उत्सुकता जन्मजात है।) मरहम-पट्टी कर दी थी। दो एक्स-रे भी हुए... पर डॉ. रशीद के अनुसार खुदा के फज़ल से सब कुछ ठीक था। अब हम तीन बजे की ट्रेन पकड़ सकते थे।
उन युवा और नेक फरिश्तों ने मुझे पूरी तरह से संभाल रखा था। उन्हें अपने आगे के कार्यक्रमों से ज्यादा मेरी चिन्ता थी। तीनों के कपड़े मेरी वजह से खून से सन गये थे। उन्होंने अपने सामान के साथ-साथ मेरा सामान संभाल रखा था। मैंने पास पड़ी मेज़ पर देखा... वहां मेरे पर्स के पास दोनों मिठाई के डिब्बे रखे थे। तन ताज़ा-ताज़ा साफ करके पट्टी किये गये चार-पांच बड़े और कई छोटे टीसते ज़ख्मों और मन आपस में उलझते तरह-तरह के विचारों से थक गया था। मैंने अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे आंखें बन्द कर लीं। वे तीनों डॉक्टर के पीछे-पीछे अपने कपड़े बदलने चले गये थे।
दुपहर तीन बजे की ट्रेन में हम चारों फिर से बैठे थे। स्टेशन मास्टर ने हम पर एक अहसान किया था... इस ट्रेन में ए. सी. कम्पार्टमेंट में कूपे दिलवा दिया था। डॉक्टर रशीद घर से बिरयानी का लंच पैक करवाकर पकड़ा गये थे, `अपना ख्याल रखियेगा बहनजी।' जुमले के साथ।
`वाउ... दिस इज़ माय फर्स्ट चान्स ह्वेन आय एम सिटिंग इन ए.सी. कम्पार्टमेंट।' छुटका बहुत खुश था। उसने अपना वॉकमैन निकाला और लो वॉल्यूम में शकीरा सुनने लगा।
`कीथ प्लीज रेज़ द वॉल्यूम, लेट मी आल्सो लिसन!' यह मैं थी।
वे दोनों युवा प्रणयी फिर एक दूसरे में मगन थे। लीज़ा रोज़र की उंगलियों को गिटार पर फिसलते देख रही थी।
मनीषा कुलश्रेष्ठ
17 अक्टूबर 2005
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बारात की वापसी हरिशंकर परसाई

बारात की वापसी हरिशंकर परसाई
बारात में जाना कई कारण से टालता हूँ । मंगल कार्यों में हम जैसी चढ़ी उम्र के कुँवारों का जाना अपशकुन है। महेश बाबू का कहना है, हमें मंगल कार्यों से विधवाओं की तरह ही दूर रहना चाहिये। किसी का अमंगल अपने कारण क्यों हो ! उन्हें पछतावा है कि तीन साल पहले जिनकी शादी में वह गये थे, उनकी तलाक की स्थिति पैदा हो गयी है। उनका यह शोध है कि महाभारत का युद्ध न होता, अगर भीष्म की शादी हो गयी होती। और अगर कृष्णमेनन की शादी हो गयी होती, तो चीन हमला न करता।

सारे युद्ध प्रौढ़ कुंवारों के अहं की तुष्टि के लिए होते हैं। 1948 में तेलंगाना में किसानों का सशस्त्र विद्रोह देश के वरिष्ठ कुंवारे विनोवस भावे के अहं की तुष्टि के लिए हुआ था। उनका अहं भूदान के रूप में तुष्ट हुआ।

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अपने पुत्र की सफल बारात से प्रसन्न मायराम के मन में उस दिन नागपुर में बड़ा मौलिक विचार जागा था। कहने लगे, " बस, अब तुमलोगों की बारात में जाने की इच्छा है। " हम लोगों ने कहा - ' अब किशोरों जैसी बारात तो होगी नही। अब तो ऐसी बारात ऐसी होगी- किसी को भगा कर लाने के कारण हथकड़ी पहने हम होंगे और पीछे चलोगे तुम जमानत देने वाले। ऐसी बारात होगी। चाहो तो बैण्ड भी बजवा सकते हो।"

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विवाह का दृश्य बड़ा दारुण होता है। विदा के वक्त औरतों के साथ मिलकर रोने को जी करता है। लड़की के बिछुड़ने के कारण नहीं, उसके बाप की हालत देखकर लगता है, इस देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने मे जा रही है। पाव ताकत छिपाने मे जा रही है - शराब पीकर छिपाने में, प्रेम करके छिपाने में, घूस लेकर छिपाने में ... बची पाव ताकत से देश का निर्माण हो रहा है, - तो जितना हो रहा है, बहुत हो रहा है। आखिर एक चौथाई ताकत से कितना होगा।

यह बात मैंने उस दिन एक विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के वार्षिकोत्सव में कही थी। कहा था, “तुम लोग क्रांतिकारी तरुण-तरुणियां बनते हो। तुम इस देश की आधी ताकत को बचा सकते हो। ऐसा करो जितनी लड़कियां विश्वविद्यालय में हैं, उनसे विवाह कर डालो। अपने बाप को मत बताना। वह दहेज मांगने लगेगा। इसके बाद जितने लड़के बचें, वे एक-दूसरे की बहन से शादी कर लें। ऐसा बुनियादी क्रांतिकारी काम कर डालो और फिर जिस सिगड़ी को जमीन पर रखकर तुम्हारी मां रोटी बनाती है, उसे टेबिल पर रख दो, जिससे तुम्हारी पत्नी सीधी खड़ी होकर रोटी बना सके। बीस-बाईस सालों में सिगड़ी ऊपर नहीं रखी जा सकी और न झाडू में चार फुट का डंडा बांधा जा सका। अब तक तुम लोगों ने क्या खाक क्रांति की है।”

छात्र थोड़े चौंके। कुछ ही-ही करते भी पाये गये। मगर कुछ नहीं।

एक तरुण के साथ सालों मेहनत करके मैंने उसके खयालात संवारे थे। वह शादी के मंडप में बैठा तो ससुर से बच्चे की तरह मचलकर बोला, “बाबूजी, हम तो वेस्पा लेंगे, वेस्पा के बिना कौर नहीं उठायेंगे।” लड़की के बाप का चेहरा फक। जी हुआ, जूता उतारकर पांच इस लड़के को मारूं और पच्चीस खुद अपने को। समस्या यों सुलझी कि लड़की के बाप ने साल भर में वेस्पा देने का वादा किया, नेग के लिए बाजार से वेस्पा का खिलौना मंगाकर थाली में रखा, फिर सबा रुपया रखा और दामाद को भेंट किया। सबा रुपया तो मरते वक्त गोदान के निमित्त दिया जाता है न। हां, मेरे उस तरुण दोस्त की प्रगतिशीलता का गोदान हो रहा था।

बारात यात्रा से मैं बहुत घबराता हूँ , खासकर लौटते वक्त जब बाराती बेकार बोझ हो जाता है । अगर जी भर दहेज न मिले, तो वर का बाप बरातियों को दुश्मन समझता है। मैं सावधानी बरतता हूँ कि बारात की विदा के पहले ही कुछ बहाना करके किराया लेकर लौट पड़ता हूँ।

एक बारात की वापसी मुझे याद है।

हम पांच मित्रों ने तय किया कि शाम ४ बजे की बस से वापस चलें। पन्ना से इसी कम्पनी की बस सतना के लिये घण्टे-भर बाद मिलती है, जो जबलपुर की ट्रेन मिला देती है। सुबह घर पहुंच जायेंगे। हममें से दो को सुबह काम पर हाज़िर होना था, इसलिये वापसी का यही रास्ता अपनाना ज़रूरी था। लोगों ने सलाह दी कि समझदार आदमी इस शाम वाली बस से सफ़र नहीं करते। क्या रास्ते में डाकू मिलते हैं? नहीं बस डाकिन है।

बस को देखा तो श्रद्धा उभर पड़ी। खूब वयोवृद्ध थी। सदीयों के अनुभव के निशान लिये हुए थी। लोग इसलिए सफ़र नहीं करना चाहते कि वृद्धावस्था में इसे कष्ट होगा। यह बस पूजा के योग्य थी। उस पर सवार कैसे हुआ जा सकता है!

बस-कम्पनी के एक हिस्सेदार भी उसी बस से जा रहे थे। हमनें उनसे पूछा-यह बस चलती है? वह बोले-चलती क्यों नहीं है जी! अभी चलेगी। हमनें कहा-वही तो हम देखना चाहते हैं। अपने-आप चलती है यह? उन्होंने कहा-हां जी और कैसे चलेगी?

गज़ब हो गया। ऐसी बस अपने-आप चलती है!

हम आगा-पीछा करने लगे। पर डाक्टर मित्र ने कहा-डरो मत, चलो! बस अनुभवी है। नई-नवेली बसों से ज़्यादा विशवनीय है। हमें बेटों की तरह प्यार से गोद में लेकर चलेगी। हम बैठ गये। जो छोड़ने आए थे, वे इस तरह देख रहे थे, जैसे अंतिम विदा दे रहे हैं। उनकी आखें कह रही थी - आना-जाना तो लगा ही रहता है। आया है सो जायेगा - राजा, रंक, फ़कीर। आदमी को कूच करने के लिए एक निमित्त चाहिए।

इंजन सचमुच स्टार्ट हो गया। ऐसा लगा, जैसे सारी बस ही इंजन है और हम इंजन के भीतर बैठे हैं। कांच बहुत कम बचे थे। जो बचे थे, उनसे हमें बचना था। हम फौरन खिड़की से दूर सरक गये। इंजन चल रहा था। हमें लग रहा था हमारी सीट के नीचे इंजन है।

बस सचमुच चल पड़ी और हमें लगा कि गांधीजी के असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदलनों के वक्त अवश्य जवान रही होगी। उसे ट्रेनिंग मिल चुकी थी। हर हिस्सा दुसरे से असहयोग कर रहा था। पूरी बस सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौर से गुज़र रही थी। सीट का बॉडी से असहयोग चल रहा था। कभी लगता, सीट बॉडी को छोड़ कर आगे निकल गयी। कभी लगता कि सीट को छोड़ कर बॉडी आगे भागे जा रही है। आठ-दस मील चलने पर सारे भेद-भाव मिट गए। यह समझ में नहीं आता था कि सीट पर हम बैठे हैं या सीट हमपर बैठी है।

एकाएक बस रूक गयी। मालूम हुआ कि पेट्रोल की टंकी में छेद हो गया है। ड्राइवर ने बाल्टी में पेट्रोल निकाल कर उसे बगल में रखा और नली डालकर इंजन में भेजने लगा। अब मैं उम्मीद कर रहा था कि थोड़ी देर बाद बस कम्पनी के हिस्सेदार इंजन को निकालकर गोद में रख लेंगे और उसे नली से पेट्रोल पिलाएंगे, जैसे मां बच्चे के मुंह में दूध की शीशी लगाती है।

बस की रफ्तार अब पन्द्रह-बीस मील हो गयी थी। मुझे उसके किसी हिस्से पर भरोसा नहीं था। ब्रेक फेल हो सकता है, स्टीयरींग टूट सकता है। प्रकृति के दृश्य बहुत लुभावने थे। दोनों तरफ हरे-हरे पेड़ थे, जिन पर पंछी बैठे थे। मैं हर पेड़ को अपना दुश्मन समझ रहा था। जो भी पेड़ आता, डर लगता कि इससे बस टकराएगी। वह निकल जाता तो दूसरे पेड़ का इन्तज़ार करता। झील दिखती तो सोचता कि इसमें बस गोता लगा जाएगी।

एकाएक फिर बस रूकी। ड्राइवर ने तरह-तरह की तरकीबें कीं, पर वह चली नहीं। सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हो गया था। कम्पनी के हिस्सेदार कह रहे थे - बस तो फर्स्ट क्लास है जी! ये तो इत्तफाक की बात है। क्षीण चांदनी में वृक्षों की छाया के नीचे वह बस बड़ी दयनीय लग रही थी। लगता, जैसे कोई वृद्धा थककर बैठ गयी हो। हमें ग्लानी हो रही थी कि इस बेचारी पर लदकर हम चले आ रहे हैं। अगर इसका प्राणांत हो गया तो इस बियाबान में हमें इसकी अन्त्येष्टी करनी पड़ेगी।

हिस्सेदार साहब ने इंजन खोला और कुछ सुधारा। बस आगे चली। उसकी चाल और कम हो गयी थी।

धीरे-धीरे वृद्धा की आखों की ज्योति जाने लगी। चांदनी में रास्ता टटोलकर वह रेंग रही थी। आगे या पीछे से कोई गाड़ी आती दिखती तो वह एकदम किनारे खड़ी हो जाती और कहती - निकल जाओ बेटी! अपनी तो वह उम्र ही नहीं रही।

एक पुलिया के उपर पहुंचे ही थे कि एक टायर फिस्स करके बैठ गया। बस बहुत ज़ोर से हिलकर थम गयी। अगर स्पीड में होती तो उछल कर नाले में गिर जाती। मैंने उस कम्पनी के हिस्सेदार की तरफ श्रद्धा भाव से देखा। वह टायरों क हाल जानते हैं, फिर भी जान हथेली पर ले कर इसी बस से सफर करते हैं। उत्सर्ग की ऐसी भावना दुर्लभ है। सोचा, इस आदमी के साहस और बलिदान-भावना का सही उपयोग नहीं हो रहा है। इसे तो किसी क्रांतिकारी आंदोलन का नेता होना चाहिए। अगर बस नाले में गिर पड़ती और हम सब मर जाते, तो देवता बांहें पसारे उसका इन्तज़ार करते। कहते - वह महान आदमी आ रहा है जिसने एक टायर के लिए प्राण दे दिए। मर गया, पर टायर नहीं बदला।

दूसरा घिसा टायर लगाकर बस फिर चली। अब हमने वक्त पर पन्ना पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी। पन्ना कभी भी पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी - पन्ना, क्या, कहीं भी, कभी भी पहुंचने की उम्मीद छोड़ दी थी। लगता था, ज़िन्दगी इसी बस में गुज़ारनी है और इससे सीधे उस लोक की ओर प्रयाण कर जाना है। इस पृथ्वी पर उसकी कोई मंज़िल नहीं है। हमारी बेताबी, तनाव खत्म हो गये। हम बड़े इत्मीनान से घर की तरह बैठ गये। चिन्ता जाती रही। हंसी मज़ाक चालू हो गया।

ठण्ड बढ़ रही थी । खिड़कियाँ खुली ही थीं। डाक्टर ने कहा - ' गलती हो गयी। 'कुछ' पीने को ले आता तो ठीक रहता । ' एक गाँव पर बस रुकी तो डाक्टर फौरन उतरा । ड्राइवर से बोला - 'जरा रोकना ! नारियल ले आऊँ । आगे मढ़िया पर फोड़ना है । डाक्टर झोपड़ियों के पीछे गया और देशी शराब की बोतल ले आया । छागलों मे भर कर हम लोगों ने पीना शुरु किया ।

इसके बाद किसी कष्ट का अनुभव नहीं हुआ। पन्ना से पहले ही सारे मुसाफिर उतर चुके थे । बस कम्पनी के हिस्सेदार शहर के बाहर ही अपने घर पर उतर गये। बस शहर मे अपने ठिकाने पर रुकी। कम्पनी के दो मालिक रजाइयों मे दुबके बैठे थे। रात का एक बजा था। हम पाँचों उतरे। मैं सड़क के किनारे खड़ा रहा। डाक्टर भी मेरे पास खड़ा हो कर बोतल से अंतिम घूँट लेने लगा। बाकि तीन मित्र बस-मालिकों पर झपटे। उनकी गर्म डाँट हम सुन रहे थे। पर वे निराश लौटे। बस-मालिकों ने कह दिया था, सतना की बस तो चार- पाँच घण्टे पहले जा चुकी थी। अब लौटती होगी। अब तो बस सवेरे ही मिलेगी।

आसपास देखा, सारी दुकानें, होटल बन्द। ठण्ड कड़ाके की। भूख भी खूब लग रही थी। तभी डाक्टर बस-मालिकों के पास गया। पाँचेक मिनट मे उनके साथ लौटा तो बदला हुआ था। बड़े अदब से मुझसे कहने लगा," सर, नाराज़ मत होइए। सरदार जी कुछ इंतजाम करेंगे। सर,सर उन्हें अफ़सोस है कि आपको तक़लीफ़ हुई। "

अभी डाक्टर बेतकुल्लफी से बात कर रहा था और अब मुझे 'सर' कह रहा है। बात क्या है? कही ठर्रा ज्यादा असर तो नहीं कर गया। मैने कहा, "यह तुमने क्या 'सर-सर' लगा रखी है ? "

उसने वैसे ही झुक कर कहा, " सर, नाराज़ मत होइए ! सर, कुछ इंतजाम हुआ जाता है। "

मुझे तब भी कुछ समझ में नही आया। डाक्टर भी परेशान था कि मैं कुछ समझ क्यों नही रहा हूँ। वह मुझे अलग ले गया और समझाया, " मैने इन लोगों से कहा है कि तुम संसद सदस्य हो। इधर जांच करने आए हो।मैं एक क्लर्क हूँ, जिसे साहब ने एम. पी. को सतना पहुँचाने के लिए भेजा है। मैने इनसे कहा कि सरदारजी, मुझ गरीब की तो गर्दन कटेगी ही, आपकी भी लेवा-देई हो जायेगी। वह स्पेशल बस से सतना भेजने का इंतजाम कर देगा। ज़रा थोड़ा एम. पी. पन तो दिखाओ। उल्लू की तरह क्यों पेश आ रहे हो। "

मैं समझ गया कि मेरी काली शेरवानी काम आ गयी है। यह काली शेरवानी और ये बड़े बाल मुझे कोई रुप दे देते हैं। नेता भी दिखता हूँ, शायर भी और अगर बाल सूखे -बिखरे हों तो जुम्मन शहनाईवाले का भी धोखा हो जाता है।

मैने मिथ्याचार का आत्मबल बटोरा और लौटा तो ठीक संसद सदस्य की तरह। आते ही सरदारजी से रोब से पूछा, " सरदारजी, आर. टी. ओ. से कब तक इस बस को चलाने का सौदा हो गया है? "

सरदारजी घबरा उठे। डाक्टर खुश कि मैने फर्स्ट क्लास रोल किया है।

रोबदार संसद सदस्य का एक वाक्य काफ़ी है, यह सोंचकर मैं दूर खड़े होकर सिगरेट पीने लगा। सरदारजी ने वहीं मेरे लिये कुर्सी डलवा दी। वह डरे हुए थे और डरा हुआ मैं भी था। मेरा डर यह था कि कहीं पूछताछ होने लगी कि मैं कौन संसद सदस्य हूँ तो क्या कहूँगा। याद आया कि अपने मित्र महेशदत्त मिश्र का नाम धारण कर लूँगा। गाँधीवादी होने के नाते, वह थोड़ा झूठ बोलकर मुझे बचा ही लेंगे।

मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया। झूठ यदि जम जाये तो सत्य से ज्यादा अभय देता है। मैं वहीं बैठे-बैठे डाक्टर से चीखकर बोला, " बाबू , यहाँ क्या कयामत तक बैठे रहना पड़ेगा? इधर कहीं फोन हो तो जरा कलेक्टर को इत्तिला कर दो। वह ग़ाड़ी का इंतजाम कर देंगे। "

डाक्टर वहीं से बोला, " सर, बस एक मिनट! जस्ट ए मिनट सर !" थोड़ी देर बाद सरदारजी ने एक नयी बस निकलवायी। मुझे सादर बैठाया गया। साथियों को बैठाया। बस चल पड़ी।

मुझे एम. पी. पन काफी भाड़ी पड़ रहा था। मैं दोस्तों के बीच अजनबी की तरह अकड़ा बैठा था। डाक्टर बार बार 'सर' कहता था और बस का मालिक 'हुज़ूर'।

सतना में जब रेलवे के मुसाफिरखाने मे पहुँचे तब डाक्टर ने कहा, " अब तीन घण्टे लगातार तुम मुझे 'सर' कहो। मेरी बहुत तौहीन हो चुकी है।"

बाबू पुराण - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

17 August, 2009
बाबू पुराण - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)
परम सुहावन महा-फलदायक इस बाबू को पढ़ते-सुनते आज के युग में कोई सूत, शौनक, काकभुशुंडि या लोहमर्षक यदि यह पूछ बैठे कि अद्भुत क्रान्तिकारी महाशक्ति बाबू आखिर हैं कौन, तो मेरे जैसे साधारण साहित्यसाधक के लिए सर्वसंतोषदायक उत्तर देना ज़रा कठिन हो जाएगा। अत: प्रश्न को टालने के लिए एक प्रश्न सुनाता हूं।

रेल के भीड़-भरे थर्ड क्लास कम्पार्टमेंटों में ऊपर की सीट यदि खाली मिल जाए तो स्वर्ग-सुखदायिनी होती है। सो इस राजगद्दी के लिए भी ब्लैक का फलता-फूलता धंधा चल पड़ा है। एक बार सुखद यात्रा के निमित्त एक बाबू साहब ने ब्लैक वाले छोकरे से राजगद्दी के लिए सौदा पटाना आरम्भ किया। सौदा कम्पार्टमेंट के दरवाजे पर खुसफुस स्वरों में चल रहा था, पास ही अपने होल्ड़-आल पर दब्बे-भिचे एक दूसरे बाबू साहब इस सौदा-वार्ता को सुन रहे थे। उनके मन में बाबुओचित चतुराई उदय हुई। ज्यों ही एक रुपया लेकर ब्लैक वाले ने अपनी दरी समेटी त्यों ही दूसरे बाबू साहब ने ऊपर की सीट पर अपना होल्ड-आल फेंक दिया। ब्लैक वाला तो यह लीला देखते ही अपनी काली कमाई का रुपया और दरी उठाकर दरवाज़े की भीड़ चीरता हुआ ये जा, वो जा, उधर रुपया देकर सीट खरीदने वाले बाबू एकदम लाल भभूका हो गए, बोले- बिस्तर हटाइए।

दूसरे ने बिस्तर खोलते हुए उत्तर दिया- क्यों हटाऊं, खाली बर्थ पर जो बिस्तर जमा ले उसी का अधिकार है।
पहले बाबू का रुपया और रात भर का सुख-चैन खटाई में पड़ा जा

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यह निबंध स्वाधीनता-प्राप्ति से पूर्व लिखा गया था और ‘हंस’ में प्रकाशित हुआ था।

रहा था, वे एकदम गरज पड़े, कहा- पर मैंने इसके लिए रुपया दिया है।
दूसरे बोले- मैं यह सब कुछ नहीं जानता। कानून दिखाइए, आपने कैसे ये रिजर्व कराई है ?
बाबू के मुख से और बाबू के सामने ‘कानून’ शब्द निकलते ही वाक् युद्ध में प्रलयंकारी गर्मी उत्पन्न हो जाती है और वह बाबुओं की मातृ-भाषाओं को झुलसा देती है। उक्त अवसर पर भी यही हुआ। बाबुओं की कानूनी शक्ति को सम्भालने के लिए उसकी जिह्नाओं में अंग्रेजी भाषा चट से प्रकट हो गई और साथ ही अंग्रेजों का रोब भी उनकी हिन्दुस्तानी देहों में दमकने लगा। गर्मागर्मी का चढ़ाव ‘डू यू नो हू आई एम’ (जानते हो मैं कौन हूं) और ‘आल राइट आई विल सी’ (अच्छा, देख लूंगा तुम्हें) तक पहुंचकर उतरने लगा।

यह ‘डू यू नो हू आई एम’ और ‘आई विल सी यू’ का जोम ही इस देश की बाबू सभ्यता में सार्वभौतिक रूप से व्याप्त है। यह जोम और ‘योर मोस्ट हंबल सर्वेन्ट’ (आपका अति विनीत सेवक) का दैन्य बाबू रूपी थर्मामीटर का अनवरत गति से चढ़ता-उतरता पारा है और इसी के बीच में उसी समस्त क्रान्तियों का इतिहास उभरकर उसे और उसके देश को नया गौरव प्रदान करता रहा है। एक तरह से यह न मानने काबिल बात कि आर्यों और नागों के बाद भारतवर्ष के इतिहास को यदि सामूहिक रूप से यदि किसी ने सबसे अधिक प्रभावित किया है, तो बाबुओं ने ही। बाबुओं ने भारतीय सभ्यता को नया अर्थ दिया है और उसका अनर्थ भी किया है। आर्यों के द्वन्द के समान ही बाबुओं ने अनेक पुरानी मान्यताओं को अपने जोम के वज्र से तोड़ा है। पुरन्दर के समान अनेक रूढ़ियों में आग लगाई है, हिन्दुस्तान की प्राचीन मर्यादाओं के बांध तोड़ करके क्रान्तियों के सैलाब पर सैलाब लाए हैं। पिछली एक शताब्दी का भारतीय इतिहास बाबुओं की प्रगति गति और विकास का ही इतिहास है।

यों तो बाबू सभ्यता का जन्म उन्नीसवीं सदी के पहले-दूसरे दशक से ही आरम्भ हो गया था, पर उसकी जवानी गदर के बाद ही परवान चढ़ी। मैकाले की नीति के अनुसार बाबू बनाने के लिए अंग्रेज़ लोग हिन्दुस्तानी जवानों को अंग्रेजी पढ़ने की लालच-भरी प्रेरणा देने लगे।

गदर से पहले बादशाही-नवाबी ज़माने में महंगाई सिर उठाने लगी थी। इसके और जो भी कारण रहे हों मगर एक कारण मुख्य रूप से स्पष्ट है। शाही विलासिता ने गांवों को बुरी तरह चूसना आरम्भ कर दिया था। शासन-प्रबन्ध में रिश्वत और लूट के सिद्धान्त को छोड़कर और कोई भी नियम और न्याय लागू न होता था। शासन तंत्र के बारह भी जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धान्त ही लोक-प्रचलित था। खेती, जमीन-जायदाद और स्त्रियों का अपहरण करना ही शौर्य का सर्वश्रेष्ठ लक्षण माना जाता था। राहजनी और बटमारी अपनी सीमा पर पहुंच गई थी। ऐसी दशा में अनास्था और महंगाई का बढ़ना अनिवार्य था। अंग्रेज धीरे-धीरे पैर जमाते जा रहे थे। भारतीय साहूकार और सामन्तों से उनके गठबन्धन मजबूत हो रहे थे। इनके सहारे अंग्रेज प्रचलित शासन तंत्र की जड़ें खोद रहे थे। इस बार उनका महत्त्व खूब बढ़ गया था। बहुत से सामंत और साहूकार, जिन्हें बादशाही तंत्र से किसी प्रकार का आघात लगता, अंग्रेजों की शरण में अपने स्वार्थवश जाते थे। अंग्रेजों की साख बढ़ गई थी। छोटे-मोटों की कौन कहे, शासक वर्ग के लोग भी अपना रुपया कम्पनी सरकार में जमा करते, कम्पनी सरकार के बांड खरीदते इस व्यावसायिक-राजनैतिक रिश्तेदारी के कारण उभय पक्ष को एक-दूसरे की भाषाएं जानने की आवश्यकता हुई। गदर से पहले जिन क्षेत्रों में अंग्रेजी अमलदारी हुई, वहां अंग्रेजी के जानकार भारतीयों की आवश्यकता हुई।

इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अब सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति देखिए। साहूकारी मुख्यत: बनियों के हाथ में थी और ताल्लुकेदारी-ज़मीनदारी ठाकुरों और मुसलमानों के अधिकार में। ब्राह्मणों एवं कायस्थों में कुछ घराने अवश्य ठकुरैती भोगते थे, पर ऐसे घराने केवल कुछ ही थे। ब्राह्मणों के मुख्यत: चार धंधे थे- खेती, यजमानी, मुनीमत और सिपाहीगिरी। कायस्थ उर्दू-फारसी पढ़कर शाही नौकरियों में खप जाते थे। अमीर खत्रियों के हाथ में बज़ाजा़ और साहूकारा था, गरीबों के हाथ में मुनीमत। गांवों की महंगाई से तंग आकर अनेक ब्राह्मण युवक अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए लालायित होते थे। अंग्रेज़ी के लिए यह बात शुभ थी। यदि श्रेष्ठ वर्ग के लोगों में अंग्रेज़ी का प्रचार हो जाए तो इतर वर्णों में भी सहूलुयत से अंग्रेज़ी की घुसपैठ संभव हो सकती थी।

गदर से प्राय: सौ वर्ष पूर्व से ही कम्पनी सरकार के डाइरेक्टर और अनेक विद्वान इस बात पर जोरदार बहस करने लगे थे कि हिन्दुस्तानियों को अंग्रेज़ी सिखा दी जाती है। वे फिर अपने देश, जाति और धर्म से घृणा करने लगते हैं और पूरी तौर पर अंग्रेज़ जाति तथा पश्चिमी सभ्यता के भक्त हो जाते हैं।

इसी वज़न पर एक दूसरे विद्वान का मत अपने-आप से बड़ा पुष्ट दिखलाई देता है। उनका खयाल था कि भारतीय अपनी विभिन्न भाषाओं और जातियों के दायरे में बंधकर जितना ही अलग-अलग रहें उतना ही ब्रिटिश शासन के लिए शुभ होगा। इसी विद्वान ने यह भी कहा था कि अंग्रेज़ी भाषा की एक सूत्रता से बंधकर भारत की राष्ट्रीय भावना जाग उठेगी। दोनों की बातें सच हुईं और साथ सच हुई। बादशाही के अनियंत्रित शासन के बाद ब्रिटिशों की ‘डिसिप्लिन’ हर अंग्रेजी पढ़ने वाले युवक को पसंद आनेवाली वस्तु थी। यह बिल्कुल सच बात है कि सामंती हुकूमतों के बहुत बुरे शासन-प्रबन्ध के बाद अंग्रेज़ों का शासन प्रबन्ध हिन्दुस्तानी जनता को बहुत भाया था। रास्ते बटमार-डाकुओं से साफ हो गए थे। बाजार-हाट में प्रजा की सुरक्षा थी। दासों में भी अच्छा जीवन बिताने की इच्छा तथा अच्छे-बुरे मालिक की पहचान तो आखिर होती ही है, सदियों के दास भारत ने अपने पुराने मालिकों से नये मालिक को लाखगुना बेहतर समझा और सराहा। हिन्दी के भारतेन्दु-कालीन कवियों के प्राय: सभी ने मलका विक्टोरिया के राज को सराहा है। गदर के तुरन्त बाद ही भारत में अंग्रेज़ी और मलका विक्टोरिया के प्रति सहसा इतना आदर और भक्ति उमड़ पड़ना पहली दृष्टि में आश्चर्यजनक लगता है। भारतेन्दु, प्रतापनारायण मिश्र आदि अंग्रेज जाति के चाटुकार न थे मगर अंग्रेजी शासन के वे सभी गहरे भक्त थे। उनकी राजभक्ति में यही भक्ति बोलती थी।
प्रस्तुतकर्ता BR Beniwal पर 2:44 PM

बाँझ पोस्टमार्टम: आहत मातृत्व

बाँझ पोस्टमार्टम: आहत मातृत्व
चीर घर की ओर शव परीक्षा ( पोस्टमार्टम) के लिये जाते हुए ज्यूरिस्ट डॉ लाट ने अपने सहयोगी से पूछा,
'' क्या केस है? ''
'' जी एल्यूमीनियम फॉस्फाईड पॉइजनिंग का।'' सहयोगी डॉक्टर ने उत्तर दिया। '' ''आत्महत्या? '' मन ही मन सोचते हुए डॉ लाट ने संक्षिप्त सवाल किया। उन्हें ध्यान आया कि एल्यूमीनियम फॉस्फाईड नामक इस कीटनाशक से होने वाली यह तीसवीं मौत है जिसका पोस्टमार्टम वे करने जा रहे हैं। तीस मौत और वे भी केवल इस एक साल के दौरान!
'' जी, आत्महत्या।'' सहयोगी डॉक्टर से अपने प्रश्न का उत्तर सुनकर सोच में डूबे डॉ लाट कुछ चौंके। द्यो लम्बे समय से इस पद पर काम कर रहे हैं लेकिन उन्होंने जहर खाकर मरने वालों की इतनी संख्या एक साल में कभी नहीं देखी। जहर खाकर आत्महत्या के केस पहले भी आते थे, लेकिन अस्पताल पहुंचने वाले अधिकांश बच जाते थे। लेकिन इस कीटनाशक को खाकर तो कोई भी नहीं बचा। जिसने आधी गोली भी खाई, वह भी पोस्टमार्टम रूम में ही पहुंचा। तो क्या इस नये कीटनाशक के कारण ही इतनी मौतें हो रही हैं? इसी कीटनाशक को खाकर इतने लोग मरे हैं इसका मतलब है यह सरलता से सुलभ है। अगर यह कीटनाशक इतना खतरनाक जहर है तो इसकी बिक्री पर रोकथाम क्यों नहीं है? वह घर घर में घरेलू कीटनाशक के रूप में क्यों उपलब्ध है?
उन्होंने इस विषय में अधिकारियों का ध्यान भी दिलाया था। स्वयं खुद भी कलक्टर आदि से मिले थे। लेकिन किसी ने इस विषय को गंभीरता से नहीं लिया। वरन् कुछ ने तो यह भी कहा कि जिसे आत्महत्या करनी है वह यह नहीं तो कोई और जहर खाएगा, या कुछ और करेगा। लेकिन डॉ लाट जानते थे कि हर जहर खाने वाला आत्महत्या नहीं करना चाहता। भावावेश में अनेक ऐसा कर बैठते हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे मरना चाहते हैं। जहर सामने पडा हो, सहज उपलब्ध हो तो झगडे, विवाद, विरक्ति से भरी स्त्रियाँ अकसर इस ओर लपक लेती हैं। खतरनाक जहर का घरों में सहज उपलब्ध होना डॉ लाट के ख्याल से ठीक नहीं था। उन्होंने प्रश्न पूछकर सहयोगी डॉक्टर से मृत स्त्री के आत्महत्या करने का कारण जानना चाहा। उत्तर तीसरे डॉक्टर ने दिया जिसने वार्ड में जाकर मरीज को देखा था और सब जानकारी हाासिल की थी।
'' जी, बाँझपन को लेकर पति - पत्नी में कहा - सुनी हुई थी शादी को सात साल हो चुके थे। घर के सभी लोग इसके लिये पत्नी को दोषी मानते थे। पति दूसरी शादी करना चाहता था और इसीलिये दोष लगा कर चाहता था कि पत्नी छोडक़र चली जाये। तकरार के समय सामने अलमारी में कीटनाशक गोलियां रखी थीं, बस तैश में आकर उसने डब्बी खोली और गोली खाली।''
डॉक्टर की आँखों के सामने वार्ड का दृश्य सजीव हो उठा। महिला को जब वार्ड में लाया गया तब वह बिलकुल होश में थी। उसे खूब प्यास लग रही थी। कुछ सांस भी उखडी हुई थी। सुन्दर और हृष्ट - पुष्ट महिला को उस समय देखकर कोई यह नहीं सोच सकता था कि वह कुछ ही समय की मेहमान है। करने को सभी कुछ किया गया। ग्लूकोस की बोतलें चढाई गईं। अनेक दवाएं दी गईं। लेकिन जैसा कि डॉक्टर अनुभव से जानते थे कि उस जहर में किसी दवा का कुछ असर नहीं होता। गोली पेट में जाते ही तीव्र गति से जहरीली गैस पैदा करती है जो शीघ्र सारे शरीर में फैल जाती है। और फिर कोई ऐसी दवा नहीं जो जहर को खत्म कर सके।
महिला का कुछ समय बाद रक्तचाप गिरना शुरु हुआ तो किसी दवा से ऊपर नहीं उठा। बेहोशी आई और देखते देखते दो घंटे में सब कुछ खत्म हो गया।
चीरघर पास आ गया था। बाहर इधर उधर बैठे लोग डॉक्टर को आता देख उठ खडे हुए थे। कुछ लोगों ने हाथ जोड क़र नमस्कार किया। इन बुझे चेहरों, मासूम और चुप बैठे लोगों में पति कौन था,कहना मुश्किल था।
हाथ के कागज पेन नीचे कर दरोगा और साथ के सिपाही ने सलाम किया तो डॉ लाट ने पूछा, ''क्या, शुरु करें? ''
'' जी, हाँ।'' दरोगा ने कहा। '' शिनाख्त करवा ली है, पंचनामा भी करीब करीब पूरा हो गया है। आप शुरु करें सर, वरना शाम हो जायेगी।''
चीरफाड क़रने वाले कर्मचारी ने नमस्ते कर चीरघर का दरवाजा खोला और डॉक्टरों के अन्दर घुसने के बाद स्वयं अन्दर आकर दरवाजा बन्द कर लिया।
डॉक्टर कमरे में सीढीनुमा बनी गैलरी में खडे हो गये। इसी गैलरी में खडे होकर डॉक्टरी पढने वाले छात्र शवपरीक्षा देखते हैं।
नीचे टेबल पर शव पडा था। पास ही औजार, खाली बर्नियां और फॉर्मलीन से भरे जार रखे थे। सभी तैयारियां हो चुकी थीं। इन्हीं बर्नियों में अंगों से निकाले गये टुकडे क़ेमिकल एक्जामिनर को रासायनिक परीक्षण के लिये और पैथोलॉजी विभाग की विकृति परीक्षा के लिये भेजे जाते हैं।
इशारा पाकर लाश पर से चादर हटा दी गई। डॉ लाट ने अपने सहयोगी को लिखाना शुरु किया, ''शरीर सुघढ, अच्छी कदकाठी, पोषण अच्छा, अंग सब ठीक, स्तनों का उभार अच्छा, यौनपरिपक्वता के लक्षण मौजूद, रंग गोरा, होंठ हल्के नीले, नाखूनों पर नीलापन नहीं, नाक मुंह से झाग नहीं, बाहरी चोट नहीं।''
कुछ रुककर उन्होंने लाश की पीठ दिखाने को कहा। कर्मचारी ने अभ्यस्त हाथों से लाश पलट कर पीठ दिखाई और साथ ही हाथ पांव मोड क़र दिखाए।
डॉ लाट ने लिखाया, '' मरणोत्तर जमा होने वाला खुन नहीं, मरणोत्तर शारीरिक ऐंठन नहीं।''
उनके चुप होते ही कर्मचारी ने हाथ में चाकू उठा लिया और इशारा पाते ही एक लम्बा नश्तर ठुड्डी से जननेन्द्रियों तक लगा दिया। अपने सधे हाथ से कर्मचारी अपना काम करने में व्यस्त हो गया।
डॉ लाट ने अपने सहयोगी से पूछा, '' कितनी गोलियां खाईं थीं?''
'' जी, सिर्फ एक।'' सहयोगी ने उत्तर दिया। '' किसी बात पर नाराज होकर इसके पति ने बाँझ - कुशगुनी का ताना दिया था इसी को लेकर कहासुनी हुई, इसने तैश में आकर पास पडी क़ीटनाशक की डब्बी उठा ली। पति कहता है कि जब तक उसने छनिा तब तक तो वह खोलकर एक गोली गटक चुकी थी। अस्पताल भी जल्दी ही ले आये थे। अस्पताल में भी करने को सभी कुछ किया लेकिन ।''
बीच में ही दूसरे डॉक्टर ने कहा, '' एल्यूमीनियम फॉस्फाईड खाकर आज तक तो कोई बचा नहीं साहब। बहुत ही खतरनाक जहर है।'' पहले डॉक्टर ने जोडा, '' जब से कंपनी ने घरेलू कीटनाशक के रूप में इसका विज्ञापन किया है और बिक्री बढाई है, तभी से यह मौतें शुरु हुई हैं और अब तो।''
'' हाँ, इस साल की तो यह तीसवीं मौत है।'' डॉ लाट ने बीच ही में कहा, '' कुछ करना पडेग़ा। कलेक्टर और यहां के अधिकारियों से बात करने से तो कुछ हुआ नहीं।''
तभी पसलियां काटकर कर्मचारी सीना खोल चुका था। डॉ लाट उतर कर पास आ गये। फेफडे दिखाये गये, कुछ नहीं था। हृदय दिखाया गया, उसमें भी विशेष कुछ नहीं था, जो हालत थी वह डॉ लाट ने लिखवा दी।
पेट खोला गया। आमाशय, यकृत, प्लीहा, गुर्दे एक एक कर सब अंगों को देखा गया, डॉ लाट देखते रहे, जरूरत के अंगों के टुकडे ज़ांच के लिये रखवा लिये गये। पेट की सभी शिराएं खुन से खूब भरी थीं और खूब फैली हुई थीं। ऐसा लगता था कि शरीर का अधिकांश खुन यहीं इकट्ठा हो गया था और बाकी शरीर में संचार के लिये बहुत कम उपलब्ध रहा हो। इसके अलावा किसी अंग में कुछ नहीं मिला।
बाँझपन का केस था अत: जननेन्द्रियों का परीक्षण विशेषरूप से किया गया। डिम्बकोश बिलकुल ठीक थे।
गर्भाशय को देखकर डॉ लाट ने कहा, '' है तो बिलकुल स्वस्थ, लेकिन कुछ बडा नहीं लग रहा? ''
'' हाँ, थोडा सा तो लग रहा है।'' सहयोगी डॉक्टर ने कागज पर नोट करते हुए सहमति व्यक्त की।
गर्भाशय काट कर खोला गया। अन्दर महीन स्पंजनुमा तंतुओं का गुच्छा सा था, जिसे तीनों डॉक्टर आश्चर्य से देखने लगे। डॉ लाट ने पूछा '' यह क्या है? ''
सहयोगी ने उत्तर दिया, '' मालूम नहीं साहब, कोई विल्लस टयूमर लगता है। शायद इसी कारण बांझ रही हो।''
डॉ लाट ने गर्भाशय पैथोलॉजी विभाग में भेजने का आदेश दिया।
शवपरीक्षा खत्म होने पर उन्होंने कर्मचारी से कहा, ''ठीक से सिलाई और अच्छी तरह से सफाई कर जल्दी बॉडी दे देना।''
दूसरे रोज डॉ लाट के पास पैथोलॉजी के प्रोफेसर डॉ चौबे का फोन आया।
'' कल पोस्टमार्टम का किया वह क्या केस था? '' फोन पर डॉ चौबे ने पूछा।
एल्यूमीनियम फॉस्फाईड की गोली खाकर आत्महत्या का। स्त्री बांझपन से दुखी थी। पति भी उसी बात से परेशान रहता था। गुस्से में पति ने कोई कडवी बात कहदी और तैश में औरत ने गोली खा ली।'' डॉ लाट ने बताया।
'' कुछ नहीं कर रहे तो पांच मिनट के लिये यहाँ आओ।'' डॉ चौबे ने कहा तो डॉ लाट '' अभी आया ''कह कर उठ खडे हुए।
सहयोगी डॉक्टर भी साथ हो लिये। लैब में डॉ चौबे सफेद कोट पहने बैठे थे, पास में टैक्नीशियन और डॉक्टर खडे थे। एक ट्रे में वही स्पंजनुमा तंतुओं का गुच्छा रखा था, जो उस औरत के गर्भाशय में मिला था।
उनके पहुंचते ही डॉ चौबे ने कहा, '' बांझपन की बात इन लोगों को मालूम नहीं है, जरा इन्हें भी बता दो।''
सहयोगी डाक्टर बता रहा था तो पैथोलॉजी विभाग के काफी डॉक्टरों के चेहरे पर घोर आश्चर्य का भाव देखकर डॉ लाट सकपका गये। उन्होंने प्रश्नसूचक नजरों से डॉ चौबे को देखा।
डॉ चौबे ने बिना कुछ बोले ही फोरसेप्स उठाई और उस गोल गुच्छे में लगाये गये नश्तर के किनारों को अलग कर हटा दिया।
जो दिखा उसे देख कर डॉ लाट और उनके सहयोगी डॉक्टरों के मुंह आश्चर्य से खुले रह गये। गुच्छे के अन्दर के कोने में था नन्हा सा एक महीने का गर्भस्थ भ्रूण और जिसे वे जालनुमा टयूमर समझ रहे थे वह था गर्भ के चारों ओर का आवरण जिससे गर्भ गर्भाशय से जुडा रहता है।
डॉ श्रीगोपाल काबरा
फरवरी 14, 2003



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बसन्ती

बसन्ती
बसन्ती को गरीबी विरासत में मिली थी। बचपन में पिता का स्वर्गवास हो गया। तीन बहनों की शादी का बोझ, तीन अशिक्षित मजदूर भाइयों पर पडा। बेटों के सहयोग से मां ने तीन बेटियों का कन्यादान किया। तीनों बेटे तथा दो बेटियाँ अलग अलग व्यवसाय के साथ दूर दूर दूसरे शहर में रहने लगे। बसन्ती मां के ही शहर में रह गई। क्योंकि पति वहीं रहता था।
छ: साल में बसन्ती चार बच्चों की मां बन गई। छोटी सी उम्र में पारिवारिक बोझ ने विवेक को पनपने ही नहीं दिया। मूढता अज्ञानता बसन्ती की गृहस्थी में टांग फैलाकर जम गई। पति चतुराई में निपुण था। अपने ठेले की कमाई अपने शराब पीने, लॉटरी खेलने तथा अपने ऊपर खर्च करता था।पत्नी को सदा नौकरी में रखा ताकि घर गृहस्थी का खर्चा पत्नी अपनी कमाई से ही पूरा कर ले।बसन्ती अनेकों घरों में काम करने जाती थी, इसीलिये साफ सुथरे कपडों में सज - धज कर जाती थी। पति हीनभावना से ग्रसित था। पत्नी कहीं सिरचढी न हो जाय, इसलिये आये दिन घर में उधम मचाता था। अपने पति पद तथा पुरुषत्व की गरिमा बनाये रखने के लिये, पत्नी को यातना देता था।बसन्ती के पैसे भी ले लेता था। बसन्ती मजबूर होकर बिलख पडती थी। क्योंकि अपना उल्लू सीधा करने के लिये वह पहले घर में उधम मचाता था। बच्चों को रुलाता था। खाना अच्छा नहीं बना है इत्यादि बोल कर माहौल को दूषित करता था। फिर जबरदस्ती बसन्ती से चाभी छीनकर उसके पैसे निकाल लेता था। कभी पैसे नहीं मिलते थे तो बसन्ती की गाढी क़माई अथवा गरीबी के पसीने बहाकर कर बनाए गये या खरीदे गये जेवर को छीन कर ले जाता। घण्टे भर में जब वापस आता तो शराब लेकर आता था। शराब घर में ही पीता क्योंकि जब बाहर पियेगा तब पूरी शराब संगी साथी ही पी जायेंगे। स्वयं पीने की बारी ही नहीं आयेगी।
बसन्ती रो रो कर जीती रही। पति लॉटरी खेलने में रम गया। एक दो बार छोटे मोटे लॉटरी के इनाम जीतने के बाद हौसले बुलन्द हो गये। लाखों के इनाम पर नजर टिक गई। रोज रोज का हारना कर्ज में बदल गया। कर्ज वालों की संख्या बढने लगी। सहनशीलता ने आक्रोश का रूप धारण कर लिया।एक दिन कर्ज देने वालों ने आपस में निश्चय किया कि आज इससे अपना पैसा वसूलना है। क्योंकि रोज चकमा दे रहा है कि शीघ्र ही सारा कर्ज लौटा दूंगा। लॉटरी खरीदने के लिये पैसे हैं, उधार लौटाने के पैसे नहीं हैं। उसका इस प्रकार ढारस दिलाना कि इस बार अवश्य जीतूंगा, निरर्थक है। चकमा दे रहा है। शुरु शुरु में हमने ही इसे उधार देकर लॉटरी खेलने में सहयोग दिया था। जीतने पर यह खर्च कर देता है और हारने पर उधार लेने के लिये गिडग़िडाने लगता है। उसकी नीयत ठीक नहीं वह हमारा पैसा डकारना चाह रहा है। उधार लौटाने की मीठी सांत्वना हमें चिढाने लगी है। आमना सामना होते ही उधार लेने वाला अकेला और उधार देने वालों की भीड ईकट्ठा हो गई। तर्क उग्र हो गया।सभी ने मिल कर उसकी
पिटाई कर दी।
आज पुरुषत्व का वास्तविक पुरुषत्व से पाला पडा था। बुरी तरह मार खाने के पश्चात वह फटेहाल घर पहुंचा। प््रतिदिन अपने पति द्वारा अपमानित व तिरस्कृत होते हुए भी पत्नी को पति का यह रूप सहन नहीं हुआ। बहुत दु:खी हुई। पति की आवभगत करने के पश्चात उधार देने वालों के समक्ष जाकर अपनी भाषा में जमकर खरा खोटा सुनाया। जिसका आशय इस प्रकार था - यदि आप लोग उधार नहीं देते तो मेरा पति यह खेल खेलता ही नहीं। किन्तु आप तो पैसा कमाने के लिये पहले नशा सिखाते हैं। फिर घर - द्वार सब बन्धक रख लेते हैं। इन्सान को हैवान बना देते हैं। अच्छी खासी मेरी जिन्दगी चल रही थी। किन्तु जबसे आप लोगों ने मेरे दरवाजे पर पांव रखा, मेरे घर का सुख चैन सब समाप्त हो गया। हम सक्षम थे। हम दोनों कमाते थे। बच्चों का अच्छी तरह से पालन पोषण कर रहे थे। किन्तु आप लोगों की छाया पडने के पश्चात हम गरीब बन गये। हम कंगाल हो गये। हमारा सभी कुछ गिरवी है। मेरा पति मुझे डराने लगा। खुशियां गुमनाम हो गईं। रोग घर में डेरा डाल कर बैठा है। सभी बच्चे कुपोषण के शिकार हो गये। मेरी बद्दुआएं तुम्हें मरने के बाद भी सताएंगी। अब भी समय है दूसरों को बरबाद करना छोड दो। तुम्हारे कर्ज के नीचे सिर्फ कब्र है, कब्र और कुछ नहीं। जिस दिशा में तुम पहुंचे, वहाँ से प्रकाश चला गया। वहाँ रहने वाले नेत्र रहते हुए भी अंधे हो जाते हैं।तुम्हारे कर्ज की तुम्हें एक दमडी भी नहीं मिलेगी। तुमने जोर जबरदस्ती उधार दिया है। मेरी बद्दुआएं तुम्हें निगल जायेंगी।
बडबडाती हुई बसन्ती घर पहुँची तो पता चला उसका पति घर पर नहीं है। कोठियों पर काम के लिये जाने का समय हो चुका था इसलिये बसन्ती बच्चों को अपनी मां की जिम्मेदारी छोड कर स्वयं काम पर चली गई। देर रात तक पति लौट कर घर नहीं आया था। बीच वाले बच्चे को बुखार आ गया था। बच्चे को छोड क़र भी नहीं जा सकती थी। इतनी रात को जायेगी कहाँ? इतना विश्वास था कि उधार देने वाले मार पिटाई करेंगे लेकिन जान से नहीं मारेंगे। क्योंकि पैसा डूब जायेगा।

सुबह होते ही बच्चों की दिनचर्या पूरा करने के पश्चात बसन्ती काम पर चली गई। दोपहर में बसन्ती घर पहुंची। पति लापता था। चारों तरफ खोजबीन की। सभी कोठियों में भी अपनी कहानी सुना डाली।दस दिन अच्छे बुरे के कौतुहल में बीते। तभी डाकिया एक पत्र लाया। पत्र में लिखा था कि, बसन्ती उधार वालों के भय से मैं दिल्ली आ गया हूँ। यहाँ कारखाने में काम मिल गया है। पैसे भी अच्छे मिल रहे हैं। मैं पैसा इकट्ठा कर रहा हूँ। आने पर लेता आऊंगा।' पति का हाल चाल पाकर बसन्ती खुश हो गई। सभी ने सांत्वना दी कि दिल्ली में कमाई अच्छी है। वहाँ पर वह सुधर जायेगा।
बसन्ती की सबसे अच्छी मालकिन रमा श्रीवास्तव थीं। रमा श्रीवास्तव सामाजिक कार्य भी करती थीं।दिन रमा श्रीवास्तव ने बसन्ती की ओर से बसन्ती के पति को पत्र लिखा कि यहाँ भी अच्छी कमाई कर सकते हो। यहीं आकर साथ साथ रहो। मेरी कमाई से घर का खर्च निकल आयेगा और आपकी कमाई से धीरे धीरे कर्ज का भुगतान भी हो जायेगा। यहाँ बच्चे आपको याद कर रहे हैं। आपकी अनुपस्थिति से उदास बच्चों के दिल पर बुरा प्रभाव पड रहा है। बच्चे आपके बारे में पूछते रहते हैं कि पापा कब आयेंगे। सभी आपके पास आने के लिये तैयार बैठे हैं। रोज ही प्रस्ताव रखते हैं कि मम्मी तुम भी पापा के पास चलो। महीनों बीत गये। उस पत्र का न तो जवाब आया और न ही उसके बारे में कोई खबर मिली।
बसन्ती के पति को गये हुए छ: माह बीत चुके थे। रमा श्रीवास्तव किसी काम से अकेले ही लखनऊ जा रही थीं। प्लेटफार्म पर सीढी क़े बगल में भीड लगी थी। कोई यात्री लू लगने से अबी अभी मरा है। पुलिस आ गई। रमा श्रीवास्तव कौतुहलवश वहाँ पहुंच गई। पुलिस को मृतक की जेब से एक पत्र मिला। रमा जी ने भी उस पत्र को पढा। पुलिस ने उस पत्र को खुला रखा था कि शायद कोई यात्री पहचान सके। यह वही पत्र था जिसे रमा श्रीवास्तव ने लिखा था। यह संयोग ही था कि पत्र में बसन्ती का पता नहीं लिखा था।
रमा श्रीवास्तव सोचने लगी कि वह जो इस पति के वापस आने की प्रतीक्षा में सिन्दूर की लकीर माथे पर लगाये, टिकुली और रंग बिरंगे कपडों में सज धज कर रहती है। इस पति की अनुपस्थिति से चैन की सांस लेती है। इस पति के प्रति उलाहने भी अनेक हैं कि - मेरे जेवर बेच दिये, आये दिन हमको मारता था, अब मैं चैन से हूँ आदि। पुन: रमा श्रीवास्तव दूसरे पहलू पर सोचने लगीं कि यदि इस घटना की सूचना बसन्ती को मिल जाये तब वह विधवा वेश में रहेगी। विधवा कहलायेगी। तब और समाज में जीना मुश्किल हो जायेगा। पुरुष के नाम का ही साया काफी होता है अकेली औरत को। बच्चे भी तो बिना बाप के कहलायेंगे। मन ही मन काफी उधेडबुन करने के पश्चात रमा श्रीवास्तव ने अपना मुंह बन्द रखना
ही उचित समझा। प्ुलिस ने मृतक को अपने संरक्षण में लेकर पंचनामा बना कर अंतिम संस्कार करवा दिया। रमा श्रीवास्तव ने वापस आकर इस दु:खद सूचना से बसन्ती को अनभिज्ञ ही रखा।
हाँ दुखद घटना के तेरहवें दिन नदी के किनारे हवन और गरीबों को भोज रमा श्रीवास्तव ने करवाया।इस हवन व भोज की सारी जिम्मेदारी बसन्ती को सौंप दी। रमा जी मन ही मन हवन, दान और भोज इत्यादि को उस मृत व्यक्ति का नाम लेकर अर्पित करती गईं। गरीबों का भोज रमा जी ने बसन्ती के हाथों ही करवाया।
रमा श्रीवास्तव ने कितनी खुबसूरती से बसन्ती की खुशियाँ बचा लीं। रमा जी ने बसन्ती के समक्ष एक प्रश्न रखा कि, '' बसन्ती, छ: महीने और देख लो। यदि तुम्हारा पति तब भी नहीं आता है तो? तब हम तुम्हारी दूसरी शादी करवा देंगे। ऐसा पति ढूंढूंगी कि जो तुम्हारे बच्चों को संभाल सके।
बसन्ती ने हंस कर सिर झुका लिया। रमा जी को बसन्ती की स्वीकृति मिल गई।
उर्मिला अस्थाना
दिसम्बर 21, 2002

बदलता है रंग आसमां कैसे कैसे

बदलता है रंग आसमां कैसे कैसे
''अपने मोती सुअरों के आगे मत डालो, वरना वे उसे सूंघ कर छोड देंगें और पलट कर तुमको फाड ड़ालेंगे।'' बाईबल का सफा उसने तेजी से पल्टा, उसका दिल किसी तरह काबू में नहीं आ रहा था। पासपोर्ट की तफसील का कागज़ सफे में दब गया, उसने निकाला स्याह लफ्ज़ों में साफ साफ लिखा था -
नाम : जैसमीन बलमोट
उम्र: 32 साल
रंगत: गहरी सांवली
बाल: काले
कद: पांच फीट चार इंच
पहचान : दाहिने रुखसार पर स्याह तिल
पता:
जैसमीन बलमोट के सफरी थैले में बाइबल का न्यू टेस्टामेन्ट हमेशा रहता था। उसके पापा का कहना था कि दुआएं तमाम बलाओं से महफूज रखती हैं।लेकिन आज कोई दुआ काम न आई थी। रब्बे औला, खुदा बाप ने उसकी कोई मदद नहीं की। घर से निकलते वक्त पापा हमेशा यही दुआ देते थे, '' खुदा बाप इस बे-माँ की बच्ची की मदद करना।'' वह बेसाख्ता हंस पडती।

''पापा तुम्हारी खूंखार लडक़ी की तरफ कोई बला आते हुए भी डरती है।'' पापा की आंखें सातवें आसमान पर खुदा को ढूंढने लगतीं। वह जमीन के शैतानों को तलाश करने निकल पडती। पुलिस की नौकरी ही ऐसी होती है अच्छे अच्छों को सख्त जान बना देती है।
रात में उसने कई बार उठकर सूटकेस से अपनी पिस्तौल निकाली, देखा, फिर रख दिया। हाथ में लिया, गोलियां गिनीं - अपनी कनपटी तक पिस्तौल ले गयी। सूखा, चिमरिख ताड क़े पेड क़ी तरह लम्बा। उसका चेहरा कहकहा लगाता हुआ नजर आया, जी चाहा तड से गोली चला दे अपनी कनपटी पर। व्हील चेयर ढकेल कर पापा सामने आ खडे हुए। बूढे पापा जिन्हें वह दिलोजान से चाहती है,इकलौता सहारा भी है उनका। पापा भी पुलिस की नौकरी में थे। एक साम्प्रदायिक फसाद में अपनी दोनों टांगे, खूबसूरत बीवी और जवान भाई को गवां चुके थे। उसके बावजूद बेहद खुशमिजाज,हिम्मतवाले, मजबूत, जिन्दादिल, हंसमुख, जिन्दगी से कभी मायूस नहीं हुए। वह उनकी इकलौती औलाद इतनी जल्दी जिन्दगी से नाउम्मीद हो बैठी? डर गई? घबरा गई?
'' नहीं नहीं मैं क्यों खुदकुशी करुं? मैं ने क्या गुनाह किया है? उस गवैय्ये को ही क्यों न मार दूँ,तानसेन की औलाद को।'' उसने सोचा और फिर पिस्तौल सूटकेस में रख दिया। पापा उसकी शक्ल देखकर जीते हैं, उसकी लाश देख कर पापा जीते जी मर न जाएं! नहीं पापा नहीं मर सकते। पापा की मौत के बारे में वह सोच तक नहीं सकती। जो इंसान रोज ही चोर सिपाही और मौत का तमाशा देखता है वह अपनों की मौत कहाँ बरदाश्त कर पाता है। कितना कमजोर हो जाता है दिल
आज वह ऐसी पहली रात थी जबकि वह दौरे पर थी और उसने पापा को फोन नहीं किया था। एक नीम बेहोशी के आलम में थी वह। वह कब होश में आती थी और कब बेहोश हो जाती थी, कुछ समझ में नहीं आ रहा था उसको। नफरत और थकन एक दूसरे पर हावी होते जा रहे थे। गेस्टहाउस का गीजर ऑन ऑफ होता रहा। टेलीफोन की घण्टियां बजती रहीं, उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।
उसने निहायत बेरहमी से उसके होंठ चबा डाले थे। उसके होंठ गैरकुदरती तौर पर वजनी हो गये थे।उन पर नन्हीं नन्हीं खराशें पड ग़यी थीं, खून छलक आया था। धुले भीगे बाल नोच डाले थे। कलाइयों और बाजुओं पर अनगिनत सुर्ख खराशें डाल दी थीं। जगह जगह ऊदे और नीले धब्बे पड ग़ये थे।कसमसा कर उसने उसकी गिरफ्त से निकलने की कोशिश की थी मगर उसकी गिरफ्त और सख्त हो गई थी। हाथ उसके फौलाद की तरह बेरहम थे। एक हाथ उसने मुंह पर रख दिया, वह चीखी, लेकिन उसने इतनी जोर से डांटा कि सिसकी हलक में उतर गई। उसने पूरी ताकत से उसे दूर करना चाहा,उसने थप्पडों से मारना शुरु कर दिया, थप्पड ईतना अचानक था कि वह सहम कर रह गई।
उसे बचपन से लेकर आज तक किसी ने हाथ नहीं लगाया था। बल्कि गरम निगाह तक से नहीं देखा था। वो तो तितली के लार्वे की तरह नर्म रुई के फाहों में रख कर पाली गई थी। उसने कभी किसी से हाथ तक नहीं मिलाया था, हमेशा सलाम का जवाब दूर से ही देती। क्रिसमस पर औरतों तक से गले नहीं मिलती थी, उसको सख्त उलझन होती थी इन चीजों से। एक खास दूरी बनाए रखना उसकी आदत में शुमार था। कोई पास आने की जुर्रत भी न करता, जिन लोगों ने कोशिश भी की तो वह इतनी बुरी तरह पेश आई कि आईन्दा किसी की हिम्मत ही नहीं हुई आगे बढने की। वह अपने कवच में बडे आराम से बैठी थी। किस कदर महफूज थी अपने किले के अन्दर बीबी जैसमीन। उनके गुमान में भी नहीं था कि उनको कोई छू भी सकता है। गॉड ग्रेस! वह कांप उठी।
तालिब इल्मी ( विद्यार्थी जीवन) के जमाने में भी कभी कोई नाजुक़ जज्बा नहीं उभरा और उभरा भी तो उन्होंने उसे सख्ती से कुचल दिया। वह इन कमजोर जज्बात की कायल ही नहीं थी। मुसलसल जद्दोजिहद ने उसको खुश्क मिजाज बना दिया था। वह एक लम्हे को भी चाचा और अम्मा की मौत को नहीं भूली थी, न ही भूलना चाहती थी। अकसर वह लाशऊरी तौर(अवचेतन अवस्था) पर बेरहम हो जाती।
अगली सुबह जब वह जी भर कर रो धोकर बाथरूम से निकली तो सामने मेज पर चाय की ट्रे सुबह के ताजे अखबार के साथ रखी थी। तमाम रात का जागरण, बेदारी औप्र शदीद थकान के बाद उसकी ख्वाहिश चाय पीने की हुई। मजबूरन चाय बनाने के लिये टीकोजी क़ी तरफ हाथ बढाए। गवैय्ये ने हाथ बढाकर हल्के से उसको छू लिया उसने फौरन हाथ खींच लिया, गुस्से के मारे उसका चेहरा तमतमा उठा। चाय बनकर, प्याली में उस तक आ गई, वह नजरें नहीं उठा पा रही थी। उसने अखबार उठा कर उसकी गोद में रख दिया और खुद उठकर खिडक़ी के पास खडे होकर सिगरेट पीने लगा। उसने अपनी उंगलियों को सूंघा, तेज बू सिगरेट की आ रही थी। सिगरेट से उसे शदीद नफरत थी। इम्पोर्टेड साबुन से वह घण्टों हाथ थोती रही मगर गुलाबी तौलिये से पौंछ कर सूंघा तो लग रहा था पांचों उंगलियां जलती हुई सिगरेट बन गयी हैं। वह सिर पकड क़र बाथरूम में ही बैठ गई , उसने दरवाजा खटखटाया। ख़ामख्वाह उसने वाशबेसिन का नल खोल दिया। देर तक पानी की आवाज बाहर जाती रही। थोडी देर में फिर दरवाजा खटखटाया गया, मजबूरन उसको खोलना पडा।
'' आपको मीटींग में जाना है।'' वह पीठ मोडे ख़डा था। नीली सफेद धारी वाली कमीज चमक रही थी। उसका सांवला रंग दमक रहा था, उसने झटके से हैण्डबैग उठाया और कमरे से बाहर आ गई। उसकी सूजी आंखें ड्राइवर ने हैरत से देखीं। सख्तमिजाज मैडम आज? बैग खोल कर उसने स्याह चश्मा लगा लिया। ड्राइवर को रास्ता बताना थावह डर रही थी कि बोलते वक्त उसकी सिसकी न निकल जाये। वह मुश्किल समझ गया, मौके की नज़ाकत को समझते हुए उसने रास्ता बताना शुरु किया। वही पुरअसरार भारी आवाज। यही आवाज तो उसकी कमजोरी थी। रेडियो स्टेशन पर उसकी आवाज ही तो सुनकर ठहर गई थी। इश्क था उसको खूबसूरत आवाजों से, शाइस्ता लहज़ा, जबकि वह खुद जंगली जबान बोलती थी। रहती भी तो जंगली जबान वालों के साथ थी।
अब याद आ रहा है कि गज़ल सुनाने के लिये ही तो पहली बार उसको बुलाया गया था, पुलिस वीक पार्टी में। वही उसे लाई थी। डिनर के बाद कॉफी पीने को अपने कमरे में बुलाया था। गज़ल की फरमाइश की थी कि उसे इकबाल बेहद पसन्द हैं, उन्हीं की कोई गज़ल सुनाई जाये। नाक भौं चढा कर उसने कहा था,
'' सडी पसन्द है आपकी, गालिब की गज़ल सुनाउंगा मैं!
'' जी नहीं, गज़ल मेरी पसन्द की गाएंगे आप।''
उसका अन्दाज तहकमाना हो गया था। नहीं सुनने की उसको आदत ही नहीं थी। अपनी पोस्ट और इल्म का उसको बेहद गुरूर था। बडी दिल आवेज, नफीस और परुसुकून सी धुन गूंजने लगी थी।उसने धीरे से आंखों को बन्द कर लिया। वही मनहूस लम्हा था। कमरे में उसकी आवाज ज़ादू बन कर छा चुकी थी। दबीज परदे शीशे की लम्बी खिडक़ियों को ढके हुए थे। वह कब उठा, जब उसे होश आया तो वह मजे से सिगरेट पी रहा था और उसको घूर रहा था, एकदम वहशी आंखें, जानवर का शिकार करने से पहले जो सर्चलाइट फेंकी जाती है वैसी ही सुर्ख मायल छोटी छोटी तेज आंखें। उसके अन्दर की तमाम कूबत अचानक खत्म हो गई। वह उठने में लडख़डा गई। नन्स से बेहद मुतास्सिर थी वह, और...वर्जिन, वर्जिनिटी....मरियम की तरह पाक इन तमाम लफ्ज़ों पर पानी फिर चुका था अब।
मर्द...कमबख्त मर्दजलील ब खरवह मर्दो में सिर्फ अपने पापा को चाहती थी। बाकी तमाम मर्द बेमुरव्वत और काबिले नफरत, झूठे और मक्कार लगते। औरतों को जलाने और सताने वाले। उसके पास औरतें आतीं थी नाक बहाते बच्चे सीने से चिपकाए...रोती बिलखती...फूले पेट लिये....अपने पतिदेव के लिये क्षमा याचना मांगती जो कत्ल या रेप के मुकदमों में जेल में हराम की रोटियां तोड रहे होते और अगले जुर्म के ख्वाब देख रहे होते।
अकसर वह सोचती खुदा ने औरतों को इतने आँसू क्यों दे दिये हैं? हर वक्त बरसात! वह खुश होती है तो आंसू आ जाते हैं, दुख में भी सुख में भी। यही उनकी जायदाद हैं क्या? लेकिन आज वह इसी बरसात में खुद डूब और उभर रही थी।
डिस्परिन की दो गोलियां उसने गिलास में डालीं, धीरे धीरे वह घुलने लगीं। पानी में सफेद बादल उठने लगे। गर्म टोस्ट पर लगा नमकीन मक्खन उसके जख्मी होंठों पर जलने लगा। उसके मुंह से सीऽऽ निकल गई। झुंझलाहट में कनपटी को दबाया, गवैय्ये का सख्त हाथ उसकी कनपती के करीब आ गया, उसने हटाना चाहा पर उंगलियां मजबूती से जम गईं। वह निढाल कुर्सी पर पडी रही, और वह उसका सर सहलाता रहा। ख्वाबवार, गुनूदगी उस पर छा गयी। नरमी से उसके होंठों ने उसकी पेशानी चूम ली। आँख खुली तो पूरे कमरे में उसकी तेज महक थी। वह कमरे से जा चुका था। थोडी देर को वह चुपचाप पडी रही...अचानक उसे लगा कि कहीं....वह उसे शिद्दत से चाहने लगी है (हँ...बकवास)।
अगले दिन इतवार था, उसने सोचा वह चर्च जा सकती है( कनफेशन के लिये?)
मोमी शमां रोशन करते वक्त उसने चुपके से मां मरियम से माफी मांग ली
' मेरे इस इकलौते गुनाह को बख्श देना माँ मैरी!
उसकी इकलौती फूफी जब भी हर साल अमेरिका से आती तो नसीहतों का टोकरा भी साथ लेकर आती। टूथब्रश कितनी बार करना चाहिये से लेकर क्या रंग पहनना है, यह फैसला भी उनका ही रहता, उसे अपने सांवले रंग का बडा कॉम्पलेक्स था। पर कितना आसान है, दूसरा फैसला लेता रहे आप उस राह पर आराम से चलते रहिये। सोचने की भी जहमत मत कीजिये। पापा और फूफी ने उसे जहनी तौर पर बालिग ही नहीं होने दिया। हमेशा बच्चों की तरह सुलूक किया और उसे इस सबकी आदत पड ग़ई। संस्कारों की कीलें उसके वजूद में इतने अन्दर तक ठोंक दी गई थीं कि वह चाह कर भी किसी को चाह नहीं सकती थी।
घर वापस आकर वह चुपचाप बिस्तर पर पडी रही। पापा परेशान थे, इस बार टूर से आकर हर बार की तरह वह कोई किस्सा नहीं सुना रही थी। कितने गुनहगारों को पकडा और बहादुरी के नये कारनामे अंजाम दिये। कुछ नहीं बता रही थी, इस तरह तो कभी नहीं हुआ आज तक।
वह लेटे लेटे सोचती रही कि क्या वाकई हव्वा ने आदम को गेहूं या सेब खिलाने के लिये बरगलाया था? भला हव्वा के अन्दर इतनी हिम्मत कहाँ से आई होगी? यकीनन आदम ने ही हव्वा को खिलाया होगा। अक्सर रवायत गलत भी तो साबित हो जाती हैं।
उसके लम्स का जादू उस पर छाया था और फन काढे ज़ंगली ख्वाहिशात का रेला बहा ले जाने को उतारू थाउसके तमाम हथियार कुंद हो चुके थे।
अचानक एक कद्दावर औरत उसके तहखाने से निकल कर लडने लगी। वह हैरान रह गई,
'' कौन हो तुम? '' वह सिर उठाये ढीठ की तरह अकडी अकडी ख़डी रही।
'' तुम्हारे अन्दर की औरत।'' सख्त लहजा था उसका।
'' झूठ...मेरे अन्दर कोई औरत नहीं...मैं....मैं खुद बडा साहब हूँ....जानती नहीं मुझे तुम....पचास लोग मुझे सलाम करते हैं.......मैं बुजदिल कमजोर औरत नहीं हूँ।''
वह हँसी एक खौफनाक हँसी। जैसे हकीकत हँसी...सच हँसा।
'' मत मानो...मत मानो लेकिन एक न एक दिन तुम्हारे शर्म व हया के यही पत्थर जिनसे तुमने मुझे मार मार कर जख्मी किया हैतुम्हारे ही हाथों में भारी हो जाएंगे। तब तुम क्या करोगी? ''
नफरत और गुस्से से वह काँप उठी
'' चल निकल...निकल....भाग भाग! ''
औरत कहकहा मार कर हंसी और तहखानों के अंधेरों में जाकर छुप गई।
रात को पापा के लिये वह कॉफी बनाकर उनके कमरे में ले गयी। खुद कुर्सी पर बैठ कर इण्डिया टुडे पढने लगी। पापा ने कप उठाया, सिप लिया फिर उसको हैरत से देखा। किताब का एक वर्क तक इतनी देर में नहीं पलटा गया था।
'' बेटे! ''
'' यस पापा।'' उसने आवाज क़ो नॉर्मल करने की भरसक कोशिश की।
'' नमकीन कॉफी बनाई है? ''
'' ओह आय एम सॉरी पापा। गलती से शक्कर की जगह नमक।''
'' कोई बात नहीं...वैसे बेटा हरी ने हर डिब्बे पर लेबल लगा रखा है।''
'' लाइये दूसरी बना लाती हूँ।'' वह जल्दी से उठी।
'' रिलैक्स बेटे।'' उन्होंने व्हील चेयर पास कर ली, गौर से उसका सुता बुझा चेहरा देखा, वे सहम गये।
'' मेरी बच्ची! '' बेअख्तियार होकर उन्होंने उसको अपने करीब कर लिया।
'' पापा।''
उसने थका हुआ सिर उनके सीने पर टिका दिया। उसका दिल जो सदमे और दुख सहते सहते सख्त हो चुका था अचानक मोम सा पिघल गया।
तमाम रात उसको तेज बुखार रहा।
सरसाम की सी कैफियत, मर्द भी इतना खूबसूरत होता है यह उसे मालूम नहीं था। उसको तो मालूम था कि औरत का जिस्म हसीन होता है। उसकी नुमाइश की जाती है। लेकिन उसका जिस्म तो चाकू के फल की तरह लम्बा और पैना था। नर्तक की तरह सुडौल, गठा हुआ, सख्त, नरम और मजबूतओ खुदा वो लहराया और लगा कि फिजां का बिगुल बज उठा। मोर का नृत्य शुरु। उसके पैर मोर की तरह बदसूरत थे, लेकिन बाकी हिस्सा....वह मोर में तब्दील होने लगा...धीरे धीरे...अपने सतरंगे इन्द्रधनुष के रंगों में रंगे पर फैलाने लगा। मोर नाच उठाचारों दिशाएं नाच उठीं...नृत्य तेज होने लगा और तेज और तेज और तेज...तांडव नृत्य शुरु...अरे यह तो शंकर भगवान साक्षात खडे हैं। नटराज की मूर्ति सिविल लाईन्स इलाहाबाद के किसी शो रूम में देखी थी...आज सामने खडी है।
उडीसा के लिंगराज मंदिर में शिवलिंग को दूध से नहलाया जा रहा हैगुफा में अंधेरा है पैरों के नीचे दूध बह रहा है पैर आगे नहीं बढ पा रहे हैं। दूध की एक नदी है, शहद की दूसरी नदी है पैर चिपक रहे हैं।
मां के कदमों तले जन्नत है; जन्नत में दूध और शहद की नदियाँ बहती हैं। क्या जन्नत में दाखिला मिल गया है? आदम हव्वा से कह रहे हैं लो यह सेब खा लो। यह मजेदार है, खुश्बूदार है, रसभरा है लो... लो... लो.. चक्खो! नहीं... नहीं... नहीं.... नहीं... माँ मरियम मुझे बचा लो सांस रुकी जा रही है। बडी घुटन है...फिजां में सिगरेट का धुआं है, लो यह सेब खा लो सेब, शहद और दूध की तेज ख़ुश्बू है । सुर्ख चर्च की बिल्डिंग में घंटियां बजती चली जा रही हैं सर फटा जा रहा है मुंह में शहद भरा हुआ है पंचमढी क़े जंगलों में एक आदिवासी औरत ने दरख्त से छत्ता तोड क़र ताज़ा ताज़ा शहद खिलाया था। वही मजा, वही खुश्बू आज भी।
वह घबरा कर उठ गयी सुबह की किरणें कमरे में आ चुकी थीं। मुंह में शहद भरा था, उसने चाय नहीं पी।
पलिका बाजार से गुजरते हुए उसने पापा के लिये चॉकलेटी और ग्रे दो गर्म कमीजें खरीदी थीं। और उसने गुलाबी शिफॉन की साडी ली थी...शायद अपनी बीवी के लिये ले रहा होगा। वह खुद कहाँ साडी पहनती है। रात जब सूटकेस खोल कर उसने पापा की कमीजें निकालीं, तो नीचे वही गुलाबी साडी रखी थी। उसने उठा कर पलंग के नीचे फेंक दी थी।
'' तुम्हारा रेडियो से कॉन्ट्रेक्ट लैटर आया है।'' पापा कमरे के दरवाजे तक आ गये। ओह, कल ही शहर में बढते क्राईम और आत्मसुरक्षा पर उसकी टॉक थी।
अगले दिन वह नहाकर बाहर निकली तो सूट निकालते निकालते अलमारी में उसको गुलाबी साडी नजर आ गई। शायद नौकरानी ने उसकी समझ टांग दी होगी। बाल सुलझाते हुए अरसे के बाद उसने अपना चेहरा आईने में गौर से देखा। कम से कम एक लिप्सटिक और कोल्डक्रीम तो खरीद ही लेना चाहिये। वाकई मोहब्बत औरत में बाजारूपन पैदा कर देती हैउसने खुद पर खीज कर कंघे से उलझे बालों को बुरी तरह नोच डाला।
बाहर निकली तो वह गुलाबी साडी पहने थी। पापा लॉन से मुस्कुराये, उसने हाथ हिलाया और जाकर गाडी में बैठ गई। उसको अच्छी तरह मालूम था कि वह रेडियो स्टेशन के म्यूजिक़ सेक्शन में बैठा किसी टीन एजर हसीना की कमर में हाथ डाले राग बागेश्वरी के आरोह अवरोह बता रहा होगा। रेडियो स्टेशन की टूटी फूटी चहारदीवारी के जंगले के ऊपर लगे नुकीले लोहे के कांटों के दरम्यान डेजी क़े सफेद नाजुक़ फूल लहलहा रहे थे। बेगम अख्तर का रिकॉर्ड बजे चला जा रहा था।

'' इश्क में रहबर ( मार्गदर्शक) व रहजन ( चोर - लुटेरा) नहीं देखे जाते इश्क में रहबर व रहजन नहीं देखे जाते! ''
– गज़ाल जैग़म
जून 29, 2002

बदचलन हरिशंकर परसाई

बदचलन हरिशंकर परसाई
एक बाड़ा था। बाड़े में तेरह किराएदार रहते थे। मकान मालिक चौधरी साहब पास ही एक बंगले में रहते थे।

एक नए किराएदार आए। वे डिप्टी कलेक्टर थे। उनके आते ही उनका इतिहास भी मुहल्ले में आ गया था। वे इसके पहले ग्वालियर में थे। वहां दफ्तर की लेडी टाइपिस्ट को लेकर कुछ मामला हुआ था। वे साल भर सस्पैंड रहे थे। यह मामला अखबार में भी छपा था। मामला रफा-दफा हो गया और उनका तबादला इस शहर में हो गया।

डिप्टी साहब के इस मकान में आने के पहले ही उनके विभाग का एक आदमी मुहल्ले में आकर कह गया था कि यह बहुत बदचलन, चरित्रहीन आदमी है। जहां रहा, वहीं इसने बदमाशी की। यह बात सारे तेरह किराएदारों में फैल गई।

किरदार आपस में कहते- यह शरीफ आदमियों का मोहल्ला है। यहां ऐसा आदमी रहने आ रहा है। चौधरी साहब ने इस आदमी को मकान देकर अच्छा नहीं किया।

कोई कहते- बहू-बेटियां सबके घर में हैं। यहां ऐसा दुराचारी आदमी रहने आ रहा है। भला शरीफ आदमी यहां कैसे रहेंगे।

डिप्टी साहब को मालूम था कि मेरे बारे में खबर इधर पहुंच चुकी है। वे यह भी जानते थे कि यहां सब लोग मुझसे नफरत करते हैं। मुझे बदमाश मानते हैं। वे इस माहौल में अड़चन महसूस करते थे। वे हीनता की भावना से ग्रस्त थे। नीचा सिर किए आते-जाते थे। किसी से उनकी दुआ-सलाम नहीं होती थी।

इधर मुहल्ले के लोग आपस में कहते थे- शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन आ बसा है।

डिप्टी साहब का सिर्फ मुझसे बोलचाल का संबंध स्थापित हो गया था। मेरा परिवार नहीं था। मैं अकेला रहता था। डिप्टी साहब कभी-कभी मेरे पास आकर बैठ जाते। वे अकेले रहते थे। परिवार नहीं लाए थे।

एक दिन उन्होंने मुझसे कहा- ये जो मिस्टर दास हैं, ये रेलवे के दूसरे पुल के पास एक औरत के पास जाते हैं। बहुत बदचलन औरत है।

दूसरे दिन मैंने देखा, उनकी गर्दन थोड़ी सी उठी है।

मुहल्ले के लोग आपस में कहते थे- शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन आ गया।

दो-तीन दिन बाद डिप्टी साहब ने मुझसे कहा- ये जो मिसेज चोपड़ा हैं, इनका इतिहास आपको मालूम है? जानते हैं इनकी शादी कैसे हुई? तीन आदमी इनसे फंसे थे। इनका पेट फूल गया। बाकी दो शादीशुदा थे। चोपड़ा को इनसे शादी करनी पड़ी।

दूसरे दिन डिप्टी साहब का सिर थोड़ा और ऊंचा हो गया।

मुहल्ले वाले अभी भी कह रहे थे- शरीफों के मुहल्ले में कैसा बदचलन आदमी आ बसा।

तीन-चार दिन बाद फिर डिप्टी साहब ने कहा- श्रीवास्तव साहब की लड़की बहुत बिगड़ गई है। ग्रीन होटल में पकड़ी गई थी एक आदमी के साथ।

डिप्टी साहब का सिर और ऊंचा हुआ।

मुहल्ले वाले अभी भी कह रहे थे- शरीफों के मुहल्ले में यह कहां का बदचलन आ गया।

तीन-चार दिन बाद डिप्टी साहब ने कहा- ये जो पांडे साहब हैं, अपने बड़े भाई की बीवी से फंसे हैं। सिविल लाइंस में रहता है इनका बड़ा भाई।

डिप्टी साहब का सिर और ऊंचा हो गया था।

मुहल्ले के लोग अभी भी कहते थे- शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन कहां से आ गया।

डिप्टी साहब ने मुहल्ले में लगभग हर एक के बारे में कुछ पता लगा लिया था। मैं नहीं कह सकता कि यह सब सच था या उनका गढ़ा हुआ। आदमी वे उस्ताद थे। ऊंचे कलाकार। हर बार जब वे किसी की बदचलनी की खबर देते, उनका सिर और ऊंचा हो जाता।

अब डिप्टी साहब का सिर पूरा तन गया था। चाल में अकड़ आ गई थी। लोगों से दुआ सलाम होने लगी थी। कुछ बात भी कर लेते थे।

एक दिन मैंने कहा- बीवी-बच्चों को ले आइए न। अकेले तो तकलीफ होती होगी।

डिप्टी साहब ने कहा- अरे साहब, शरीफों के मुहल्ले में मकान मिले तभी तो लाऊंगा बीवी-बच्चों को।

बडे दिन की पूर्व साँझ

बडे दिन की पूर्व साँझ
मुझे नृत्य नहीं आता था। रुचि भी नहीं थी। मैं ने ऐसा ही कहा था।
वह बोला, '' आता मुझे भी नहीं है।''
मैं ने सोचा बात खत्म है।
उसने हाथ में पकडी मोमबत्ती की तरफ देखा और हकबकाया सा हँस दिया, '' यह मैं ने ले ली थी। मुझे पता नहीं था इसका मतलब यहाँ यह होता है।''
सब अपनी अपनी मोमबत्तियों और लडक़ियों के साथ फ्लोर पर थे। बैण्ड उसका इंतजार कर रहा था।
'' देखिये प्लीज, मेरे दोस्तों में मेरी बहुत हंसी होगी अगर मैं नाच न पाया।''
वह तब तक नर्वस हो गया था।
मैं उससे ज्यादा अटपटी हालत में थी। मैं ने रूप की तरफ देखा, फिर उसकी तरफ।
मैं ने निर्णयात्मक ढंग से कहा
'' मैं शादीशुदा हूँ, यह मेरे पति हैं।''
उसने मुझे छोड रूप से प्रार्थना करनी शुरु कर दी। बडे दिन की पूर्व साँझ को नृत्य जाने बिना भी नाचना मैं अजीब न मानती, पर रूप ने मोमबत्ती नहीं खरीदी थी और हमारी शादी को सिर्फ पांच दिन गुजरे थे। साढे चार दिन हम एक ही कमरे में कैद रहे थे और उठने के नाम पर बाथरूम तक जाते थे।
आज बाहर आते समय मुझे लगा, मैं ने कहा भी, '' दिन सफेद नहीं लग रहा तुम्हें? ''
रूप ने सिर्फ कहा, '' लोग अभी भी बस की क्यू में खडे हैं।''
वह रूप से बात कर चुकने पर मेरी ओर ऐसे बढा कि उसे अनुमति मिल गई है। मैं ने रूप की ओर बिलकुल पत्नियों वाली निगाह से देखा। वह चौडा बडा पैग मुंह में उंडेल रहा था।
हमारे फ्लोर पर आते ही बैण्ड शुरु हो गया। वह लडक़ा खुश था। उसने मोमबत्ती जला ली थी औरढूंढ ढूंढ कर दोस्तों की ओर देख रहा था। जिस किसी दोस्त से उसकी आंख मिल जाती, वह मुझे अधिक कस कर पकड लेता जैसे बच्चा एक और बच्चे को देख कर अपना खिलौना पकडता है।
मैं सोच रही थी वह मुझसे बोलेगा। उसे शायद नृत्य की तहजीब का पता न था। वह मुझसे बिलकुल बात नहीं कर रहा था, बस नर्वसनेस में बार बार मुस्कुरा रहा था। उसे इस बात का काफी ख्याल था कि मोम मेरी साडी पर न गिर जाये।
प््राथा के विपरीत मैं ने ही बात शुरु की, '' तुम्हारा नाम शायद जोशी है।''
उसने कहा, '' नहीं, भार्गव! ''
'' ऐसा नहीं लगता कि तुम पहली बार नाच रहे हो।''
वह चुप रहा। थोडी देर बाद उसने मुझसे फिर माफी मांगी, '' मैं ने आज आपको बडा तंग किया, पर नृत्य करना मेरे लिये जरूरी था । यह एक..''
मैं ने बीच में टोक दिया, '' मैं समझती हूँ।''
वह मुझे आप कह कर सम्बोधित कर रहा था। मैं ने अनुमान लगाया कि उसकी शादी अभी नहीं हुई थी। शादी के पहले मैं भी इतने लोगों को आप कहा करती थी कि अब मुझे ताज्जुब होता था।
वह बहुत छोटा और अकेला लग रहा था।
रूप को मैं जहाँ खडा छोड आई थी, उस ओर इस वक्त मेरी पीठ थी। मैं ने उससे कहा, '' जरा देखना मेरे पति वहीं खडे हैं क्या?''
उसने कहा, '' नहीं, वह यहाँ नजर नहीं आते।''
थोडी देर के लिये उसे पर्याप्त व्यस्तता मिल गई। जल्दी ही उसने बताया, '' हाँ, वह वहाँ हैं, उन्होंने एक और पैग ले रखा है।''
वह रूप को रुचि से देखता रहा।
'' वह उतना पी सकेंगे, मेरा मतलब, होश रखते हुए?''
मैं हँसी, मैं ने कहा, '' इस बात की चिन्ता मेरी नहीं।''
वह डर गया। उसने मुझे ध्यान से देखा।
मैं ने बताया, '' नहीं, मैं नहीं पीती।''
वह दु:खी हो गया था, '' मैं ज्यादा नहीं पी सकता। हमारे मैस में सिर्फ ड्रिंक्स की पार्टियां होती हैं तो बडी असुविधा होती है।''
मैं ने कहा, '' तुमने घर पर कभी नहीं पी होगी।''
उसने गर्व से बताया कि उसके घर में अण्डा भी नहीं खाया जाता। झब से वह एयरफोर्स में आया तभी से उसने पहली बार यह सब देखा। घर पर उसने घरवालों को सिर्फ दूध, चाय या पानी पीते देखा था।
मैं ने पूछा, '' तुमने चखी है? ''
'' हाँ, मुझे बहुत कडवी लगी है।''
मैं ने कहा, '' मुझे कडवाहट पसन्द है।''
उसने मेरी तरफ ध्यान से देखा।
मैं ने फिर आश्वासन दिया कि मैं वाकई नहीं पीती।
उस ओर जब तक मेरा मुंह हुआ, रूप वहाँ नहीं था।
मैं ने एकदम उससे पूछा, '' मेरे पति कहाँ हैं? ''
वह सकपका गया, '' मैं ने नहीं देखा; मुझे नहीं मालूम; मुझे अफसोस है।''
मैं ने उससे कहा, '' मैं जाना चाहूंगी।''
भार्गव ने मुझे समझाना चाहा कि डांस नम्बर के बीच में से जाने से उसकी स्थिति कितनी अजीब हो जायेगी।
उसने कहा, '' आपके पति बाग में गये होंगे, आ जायेंगे।''
मुझे हंसी आने लगी। मैं रूप को ढूंढने नहीं जा रही थी। दरअसल मैं उस ऊलजूलूल कवायद से तंग आ गई थी। अनभ्यस्त होने की वजह से हमारे जूते बार बार एक दूसरे के पैर पर पड रहे थे। वह मेरी साडी पर बहुत बार पैर रख चुका था और मुझे उसके फटने की आशंका थी।
उसने कहा, ''मेरी मोमबत्ती के नीचे एक नम्बर है, अगर उद्धोषणाओं के बाद यह शेष रहा तो मुझे कोई उपहार मिलेगा।
मैं ने फ्लोर पर गिना, चार जोडे बचे थे।उसे अपने लकी होने की काफी आशा थी।
उसने शर्माते हुए बताया कि वह रेस में हमेशा जीता है।
मैं ने पूछा वह कितना लगाता है।
उसने कभी सौ से ज्यादा नहीं लगाया था। उसने कहा कि उसकी समझ में नहीं आता कि वह किस घोडे पर लगाये। वहा वहाँ जाता है... और उसके आगे खडा आदमी जिस घोडे पर दांव लगाता है,उसी पर वह लगा देता है।
मैं ने उसका जन्मदिन पूछा और उसका लकी नम्बर बताया। वह खुश हो गया।
उसने मुझसे कहा, '' आप बुरा न मानें तो एक बात पूछूं ? आपके पति बुरा तो नहीं मानेंगे? ''
मुझे भार्गव पर लाड आने लगा। लगा यह सवाल लेकर उसने काफी माथापच्ची की होगी। इस वक्त वह सहमा सा मुझे देख रहा था। मैं ने कुछ नहीं कहा, बस, जहाँ रूप कुछ देर पहले खडा था, वहाँदेखकर चाव से हंस दी। उसे उत्तर की सख्त अपेक्षा थी। मैं ने गर्दन से न कर दी।
''तुम्हारी कोई लडक़ी नहीं ?'' उसे लेकर मुझे जिज्ञासा हो रही थी।
उसने कहा, '' मेरी अभी शादी नहीं हुई।''
मैं ने अंग्रेजी में कहा, '' मेरा मतलब लडक़ी मित्र से था।''
वह और नर्वस हो गया।
थोडी देर में संयत होकर उसने बताया कि उसकी मां ने अब तक उसके लिये दर्जनों रिश्ते नामंजूर कर दिये हैं। वह खुबसूरत सी लडक़ी चाहती है, बेशक वह इंटर ही पास हो।
हमारा नम्बर इस बार आउट हो गया।
मैं हॉल में रूप को खोजना चाह रही थी। भार्गव भी साथ साथ देख रहा था। मैं ने कहा वह परेशान न हो मैं स्वयं ढूंढ लूंगी। मैं हॉल में देखने के बाद सीधे बार में गई। रूप बेतहाशा पीरहा था और उतना ही स्मार्ट लग रहा था जितना तब जब क्लब में घुसा था। हमारे वहाँ जाते ही रूप ने मेरे लिये जिन और उसके लिये व्हिस्की मंगाई। भार्गव डर गया।
मैं ने रूप को इशारे से मना किया, '' भार्गव बहुत पी चुका है, अभी इसे मोटरसाइकिल पर बारह मील जाना है।''
भार्गव ने कृतज्ञ आंखों से मुझे देखा। उसने एक बार फिर रूप से सफाई में कुछ कहा।
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि, कितनी देर में ऑलराइट कह कर चले जाना चाहिये। वह जेब से मोटरसाइकिल की चाबी निकाल कर खेलने लगा।
रूप ने मुझे कोट पहनाना शुरु कर दिया क्योंकि हमारा इतनी देर बाहर रहना काफी साहस की बात थी, यह मानते हुए कि हमारी शादी को सिर्फ पांच दिन हुए थे!
ममता कालिया
12 फरवरी 200

बडी बहन

बडी बहन
सुदर्शन छोटा था। दसवी कक्षा में। पिता थे स्कूल मास्टर और मां अनपढ। घर के अन्य सदस्यो में थी सुदर्शन की एक बडी बहन सुशीला और तीन छोटे भाई। परिवार का एकमात्र आधार था सरस्वती पूजा। यही एक ऊम्मीद थी जो इस निम्नमध्यवर्गीय घर को भविष्य में उबार सकती थी। परिवार का हर सदस्य इस बात को अच्छी तरह समझता था। लेकिन सब जन इस बात को अपने दिल में समाये रखते। फिजूल चर्चा में किसकी रूचि नहीं थी।
सुशीला ने कॉलेज के द्वितीय वर्ष में थी। यह बात तब की है जब लडकियों का कॉलेज में दाखिला लेना कुछ मुश्किल तो था लेकिन कुछ लोग इसे अब विकास और सम्मान का दर्जा भी देने लगे थे।पास-पडोसी कहते ''ंमास्टर साब ने बडा साहसपूर्ण कदम उठाया है जो सुशीला को कॉलेज में पढा रहे है।'' लेकिन जिन्हे उस परिवार की आर्थिक हालात का अन्दाज था ऐसे सहयोगी और रिश्तेदारो को सुशीला का यह कदम रास नहीं आया। वे कहते ''वो तो ठीक है भाई लेकिन सुशीला ने सुदर्शन के भविष्य का तो सोचना चाहिये।मास्टर साब के पास इतने पैसे तो नहीं कि वे अपने दोनो बच्चों को पढा सके।''
धीरे धीरे सुशीला इस बात से वाकिफ होने लगी। पिताजी का तो कोई विरोध नहीं था बल्कि वे तो चाहते थे कि बेटी खूब पढे और नाम कमाए। दिन बितते गये। सुदर्शन और सुशीला की पढार्ईअच्छी चल रही थी। इसी बीच सुशीला को कॉलेज से लौटने में कुछ देरी होने लगी। पहले तो मां ने बात को टाल दिया। लेकिन आसपास के लोग क्या कभी ऐसे अवसर छोडते हैं? दकियानूसी समाज के ढांचे में चर्चा होने में देर नहीं लगती। बात का बतंगड भी बन जाता है। तब मां ने एक दिन सुशीला से पूछ ही लिया ''सुशीला मै देख रही हूॅ इन कुछ दिनोसे तुझे घर लौटने में देर हो जाती है। बात क्या है।'' ''बस यूँ ही मा कॉलेज में पढाई कुछ ज्यादा चल रही है।'' सुशीला ने जवाब दिया।ऐसे ही कुछ दिन और निकल गये। ''आज सहेली के यहॉ पार्टी थी कल लाईब्ररी में पढाई कर रही थी'' ऐसे प्रत्युत्तर मिलने लगे।
मां के साथ साथ पिताजी और सुदर्शन भी कुछ चिंतित जरूर थे। अब सुशीला को डाँट भी पडने लगी। उसकी कॉलेज की पढाई बन्द कर दिये जाने के आसार नजर आने लगे। सुदर्शन का मन बडी बहन को दोषी मानने को तयार नहीं था। और वह निष्पाप बालक तो यह भी ठीक नहीं जानता था कि उसकी इतनी अच्छी बहन को क्यों भलाबुरा कहा जा रहा है। सो उसने बात की गहराई में जाकर पता लगने की ठान ली।
चुपके चुपके एक दिन वह सुशीला के पीछे निकल पडा। बहन कहॉ जाती है क्या करती है इसे अब वह जानकर ही दम लेनेवाला था। उसे आश्चर्य हुआ कि बहन कॉलेज का रास्ता छोड क़िसी और ही दिशा में जा रही थी। कुछ देर बाद सुशीला ने एक बडी सी कोठी में प्रवेश किया। खिडकी से झॉककर सुदर्शन, बहन कहॉ जाती है और क्या करती है यह देखने लगा। एक कमरे में दो छोटे बच्चों को सुशीला टयूशन देने लगी तो भाई के ध्यान में आया कि उसकी पढाई के लिये पैसे जुटाने का यह रास्ता बहन ने खोज निकाला है।
उसके दिल में बडी बहन के प्रति आदर और प्रेम उमड आया और उसके ऑसू निकल आये। उस घर के बुजर्ग मालिक हरिप्रसाद यह सब कुछ निहार रहे थे। कुछ बाते उनके ध्यान में आने लगी। उन्होने सुदर्शन को पास बुलाकर पूछा ''बेटा तुम कौन हो और यहॉ क्या करने आये हो।'' सुदर्शन ने सारी बाते विस्तार से बयान की। बताया कि उनके परिवार में पैसे की तंगी है और शायद पैसे के लिये ही उसकी बहन इन बच्चो को पढाती है। और आगे कहा कैसे उसके घर के अन्य सदस्य और पास पडोसी सुशीला के बारे में ऐसी बाते करते हैं जो उसकी समझ में नहीं आती।
हरिप्रसाद सब कुछ समझ गये। अगले दिन हरिप्रसाद ने अपने छोटे पुत्र नरेश को बुलाकर कहा ''बेटा नरेश क्या तुम्हे मालूम है तुम्हारे भाई विजय के बेटों को कौन पढाने आता है।'' नरेश ने बिना झिझक के जवाब दिया ''हां वो सुशीला आती है ना।'' पिता ने बात को आगे बढाते हुए कहा ''सुशीला कैसी लडक़ी है।'' नरेश अब कुछ परेशान नजर आया। वो समझ नहीं पा रहा था कि पिताजी ऐसी बात क्यों पूछ रहे हैं। फिर भी उसने जवाब दिया ''पिताजी वह तो बहुत अच्छी लडक़ी है। अच्छा पढाती है समयपर आती है और उसका व्यवहार बहुत शालीन है।'' तब हरिप्रसाद ने कहा ''क्या तुम सुशीला से शादी करोगे।''
आश्चर्यचकित नरेश तुरन्त कुछ भी नहीं बोल पाया। उसकी भाभी काननबाला अपने श्वसुरजी का यह अनोखा व्यवहार देखसुन रही थी। उसकी भी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सो उसने देवर का पक्ष लेते हुए श्वसुरजी से पूछा ''पिताजी आप की बातो का आज मै कुछ अर्थ नहीं लगा पा रही हूं। जरा विस्तार से कहिए कि बात क्या है।''
हरिप्रसादजी ने उन्हे बैठने को कहा और बोले ''कल सुशीला का छोटा भाई चुपके से यह देखने आया था कि उसकी बडी बहन क्यों घर देर से लौटती है। वह निष्पाप बालक शायद समझता हो कि उसकी बहन कोई घृणास्पद काम तो नहीं कर रही। पैसे की मजबूरी इस दुनिया में अनेक बुराइयों को जन्म देती है।
मै चाहता हूं ऐसी सुशील और नेक लडक़ी को हम इस घर में आदर का स्थान दें। नरेश और उसका विवाह मेरे इस इरादे को पूरा कर सकेगा और यह एक निश्चित ही सुखद घटना होगी।'' नरेश ने पिता के प्रस्ताव पर विचार किया और हामी भर दी। अब सुशीला घर की बहू बनकर जेठ के लडको को पढाती है। नरेश के साथ उसका जीवन हॅसीखुशी से भर गया है। सुदर्शन और उसका परिवार भी खुश है।
- डॉ सी एस शाह
अगस्त 3, 2000