Saturday, December 3, 2011

मेरे देश की मिट्टी, अहा - मृदुला गर्ग

हवा ठंडी नहीं थी, न साफ़। धूल-मिट्टी से भरी हुई थी। फिर भी खाट पर लेटी लल्ली को वह भली लग रही थी। इसलिए कि उसमें धुआं नहीं था। उसने लंबा कश भरकर हवा भीतर खींची। बे-धुआं हवा में सांस लेना कितना बड़ा सुख है, उसने गांव खेड़ी में आकर जाना। धुआं छोड़ती अंगीठी से अलग होकर खुले आकाश के नीचे बैठने की औक़ात, यहां आने पर जो हुई।

गांव उसके लिए नया-न्यारा नहीं है। गांव में पैदा हुई और शुरू के छः-सात बरस वहीं रही। फ़रीदपुर नाम था उसके गांव का। दादी लकड़ी का चूल्हा करती थी। गाली होती तो धुआं ख़ूब उठता। कुछ देर सांस लेनी मुश्किल हो जाती, पर साथ में जो बास आती, बड़ी मनभावन होती। एक साथ दूर फेंकती और पास खींचती। बहुत लुभाऊ होती है ऐसी बास। दादी के हुक़्क़े में से भी बड़ी मोहिनी गंध आती थी और धुआं बस ज़रा-ज़रा चिलम सुलगाते वक़्त, बस। बीड़ा की तरह नहीं कि पिये कोई और कसैलापन भुगते कोई।

जैसे शहर में। हुक़्क़ा वहां कोई नहीं पीता। बीड़ी खूब़। पर लाख बीड़ियां मिलकर भी उतना धुआं पैदा नहीं करतीं, जितनी वहां के ट्रक, बस, स्कूटर, पल भर में छोड़ देते थे। छोड़ते चलते थे। धुंआ भी ऐसा कसांध भरा कि दीखे चाहे नहीं, छाती में हरदम अटा-फंसा रहे मानो बीसियों बीड़ियां पी चुके हों औरत-मर्द। यूं सच में कोई औरत बीड़ी पीती दिख जाए तो फ़ौरन उसे छिनाल बतला दें।

उसने अंगडाई लेकर हाथ-पैर खोलकर पसारे और एक कश खींचा। बदबू का इतना ज़बरदस्त भभका नाक में घुसा कि उबकाई आ गयी। वह उठ कर बैठ गयी। क्या हुआ, नींद से पहले सपना आ गया ? बीते बचपन का ? उसने च्यूंटी काटी। न, वह तो जगी थी। पर बदबू थी कि आये जा रही थी। जलते चमड़े की चमरौंध। जैसी बचपन में गांव के चमार टोले से आती थी। वहीं तो रहती थी वह। चमार टोले में नहीं, उससे सटी झोपड़ी में। जाति से वह बनिया थी।

वह और उसकी दादी, परिवार में ये ही दो जन थे। मां-बाप तो ख़ैर रहे ही होंगे, नहीं तो वह जनमती कैसे, पर कब थे, कब नहीं रहे, उसे होश नहीं था। दादी उनका क़िस्सा कम कहती थी। खेत-द्वार लुटने का ज़्यादा। ‘अपने गांव के अपनों ने ही लूटा हमें लल्ली, अकेली जान क्या-क्या प्रपंच न किये। क्या महाजन, क्या ठाकुर-पंडित सब एक जैसे सियार निकले। जो था रहन रखवाया, झूठ-सच मिला कर लूटा। बचे हम दो, तू और मैं। बस्ती के आख़ीर में यह कल्हड़ बचा था, जिस पर न बोया जाये न चरा, सो यहाँ झोंपड़ी डाल ली। एक तो ऊसर ऊपर से बग़ल में चमार टोला, इस कारण समझ कि बनियों की लार इस पर न टपकी और हम बचे रहे। नहीं तो लल्ली, पांव तले की धरती हड़पने को, बदन का चाम भी खींच ले जाते हमारा ? लल्ली के बदन के रोंगटे खड़े हो जाते। चाम खींचना क्या होता है, वह अच्छी तरह जानती थी। पर जब दूसरे जानवरों का खिंचे उनकी ख़ुशहाली में फ़र्क नहीं आता था। असल में चमार ख़ुशहाल तो दादी ख़ुश। उसके हुनर के वे ही तो गाहक थे। दूसरों के खेतों में बुवाई-कटाई के अलावा, दादी के पास पैसा कमाने के, दो हुनर थे। पुरानी रुई को धुन-धुनाकर ऐसी टिकाऊ बंडियां सीती कि एक छोड़ दो शीत गुज़ार लो।

और चिकनी मिट्टी के वह मनभावन खिलौने बनाती, वह लुभावना रंग उन पर फेरती कि शहर के हाट में, पहली खेप में बेच लो। चमार-टोले के लड़के शहर ले जाकर बेच आते थे तो उनकी और दादी, दोनों की कमाई हो जाती। गांव का ऊंचा तबका घना नाराज़ रहता था। बनिया होकर चमार टोले की कांख में रहने गयी। ऊपर से उनकी टहल करके कमाई की। मरे पीछे नरक में जगह मिल गयी तो बहुत समझना। वरना अधर में लटकी रहेगी बुढ़िया। लड़की बड़ी हो ले तो देख लेंगे। धरम के नाम पर बुढ़िया के चंगुल से बाहर निकलनी होगी-ही-होगी।

पर बुढ़िया ख़ासी चंट निकली। लड़की के बड़े होने से पहले भगवान को प्यारी हो गयी। यही नहीं, मरने से पहले कल्हड़ भी बेच गयी। गुड़गांव शहर के वासी, अपने दूर के रिश्तेदार को। एकदम पुख़्ता लिखा-पढ़ी के साथ। बुढ़िया मरी पीछे, वह पहले गांव आ पहुंचा, दो-दो कारिंदो को साथ लिये। ज़रूर किसी चमार ने ख़बर पहुंचायी होगी।

गांव में कुलबुल भतेरी रही पर शहरी बाबू काग़ज़-पत्तर से चौकस निकले। चौथा होते ही लल्ली के लो, शहर रवाना हो गये, जिन्होंने साल पूरा होने से पहले, वहां जानवरों की हड्डियों की खाद बनाने का कारख़ाना खुलवा दिया। चमार टोले की मौज हो गयी। जानवरों की खाल उतारो अलग और कारख़ाने में काम पाओ अलग। कारख़ाना बदबू के भभकारे छोड़े-तो-छोड़े, चमार एतराज करने से रहे। दूर-दराज रहने वाले ठाकुर-बनिये गये ज़रूर, एम.अल.ए के पास, पर उन्होंने खटमल-सा अलग झटक दिया। उन दिनों गांव की प्रगति का नारा ज़ोरों पर था। प्रगति माने वोट, गुड़गांव में रिशते के ताऊ-ताई हंस कर कहा करते। चमारों में वोट डालने का नया-नया चलन हुआ है, सो प्रगति अब उनके खीसे में है। लल्ली गुड़गांव क्या पहुंची, फिर कभी गांव देखने को न मिला। जो जाना, ताऊ-ताई के मुंह से सुनकर। वैसे उनके घर रहना उतना बुरा भी न था। अब दादी की नाई प्यार-मनुहार तो ताई करने से रही थी। न सजा-संवार कर उसे शहरी मेम बनाने वाली थी। पर इतना ज़रूर किया कि सात साल की धींगड़ी को स्कूल में दाखिला दिलवा दिया और डांट-डपट, मार-पीट कर, बारहवीं पास करवा दी। घर का काम-काज तो ख़ैर किस ग़रीब रिश्तेदारिन को नहीं करना पड़ता। पर भूखा-प्यासा कभी न रहना पड़ा उसे, न कभी बेभाव की मार खानी पड़ी। पर सब हुआ तो मुसलमान के साथ भागने पर लोग, उससे हमदर्दी कर सकते थे। अब तो कुलटा ही कहना था सबने, सो वही कहा।

हुआ यूं कि इधर बारहवीं पास लल्ली की उम्र बीस पर पहुंची, उस घर की ब्याहता बेटी स्वर्ग सिधार गयी। लल्ली से कोई सोलहेक बरस बड़ी रही होगी। बारह और चौदह बरस के दो मासूम बेटों को पीछे छोड़ गयी और पति बेचारे की उम्र, कुल पैंतालीस साल। दूसरी शादी तो तुरत-फुरत तो होनी ही थी, पर ताऊ-ताई को फिक्र यह लगी कि सौतेली मां, जो आयेगी, बेटों का ख्याल रखेगी भी कि नहीं ? सो पुरानी परंपरा का सहारा ले कर उन्होंने तेरहवीं होते ही लल्ली से जमाता का रोकना कर दिया। तय हुआ कि तीन महीने के भीतर जी कड़ा करके, बच्चों के खातिर, बुझे बेमन, बेरौनक शादी की रस्म पूरी कर दी जायगी। लल्ली को बुरा नहीं लगा। जीजा खासा हट्टा-कट्टा और खाता-पीता था, रोबीला, पुलिसिया हवलदार। अधेड़ था या जवान। उस बारे में सोचा ही नहीं। वह क्या जानती थी, जवानी क्या होती है। गांव में थी तो सात साल की लड़की को गांव वाले धींगड़ी कहते रहे हों, वह दादी की गोद की बच्ची ही बनी रही थी। उसकी बनायी बंडियों में से सबसे बढ़िया पहनती थी, उसके गढ़े खिलौनों से खेलती, उससे चिपट कर सोती, नन्ही लल्ली।

शहर आयी तो स्कूल और घर के काम के बीच इतना वक़्त ही नहीं मिला कि जवानी के बारे में सोचे। घर में रहने वाले ताऊ-ताई, दादी से कुछ ही कम बूढ़े थे। स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियाँ जवान जरूर हो रही थीं, पर उनसे ज़्यादा बोलने-बतियाने की फुरसत उसे नहीं थी। उस पर जवानी आयी तो इतनी बेदस्तक कि कपड़ों पर खून आने के अलावा, कोई निशान नहीं छोड़ा। जवानी के नाम पर जो देखा, इन्हीं जीजा-जीजी के बच्चों समेत, घर में आना जाना था। वह भी दूर-दूर से देखा। उनके आने पर रसोई का काम इतना बढ़ जाता था कि मुश्किल से उनकी सूरत साफ़ नजर आ पाती। वह भी कभी-कभार। फिर भी घर में उत्सव सा छाया रहता, जिसका उत्साह उसे भी छू जाता। अब, बिना जीजी का जीजा, उसी उत्सवी माहौल को अपने में समेटे, उसके दिलो-दिमाग़ में उतरा। शादी की बाबत उसकी राय किसी ने नहीं पूछी, पर रस्में होनी शुरू हुईं तो पता चल गया कि उसकी मंगनी हो रही है। बिना बतलाए यह भी जान लिया कि वह जवान हो गयी।

सब कुछ आराम-तसल्ली से निबट लेता अगर संयोग से जीजावर का तबादला गुड़गांव का न हो जाता। जाहिर था कि अपना क्वार्टर मिलने तक उसका पड़ाव भूतपूर्व भावी ससुराल में हुआ। होने वाली बीबी होने के नाते खाना पका-खिला लेने पर लल्ली को बैठक में बुलाया जाने लगा। जिस पुलिसिया को अब तक देखा भर था, अब देर तक सुना भी पड़ा। बोलता वह ख़ूब था, रोज़ अकेला और देर तक। बातों का मज़मून हमेशा वही रहता, कैसे मार-मार कर, पेशेवर मुज़रिमों से सच उगलवाया। ‘औरत हो या मर्द, मैं किसी को नहीं बख्शता,’ वह छाती फुलाकर कहता और ब्योरेवार पिटाई की बारीकियों का बखान करता। उन्हें दुहराने की ज़रूरत नहीं। आज कौन है जो टीवी नहीं देखता और उन बारीकियों से वाक़िफ़ नहीं है। पर लल्ली नहीं थी। टी.वी. देखने की उसे कभी फुर्सत नहीं मिली थी। आज जीजावर के रसिक बखान में उसका प्यारा जुमला बार-बार सुनकर उसका बदन थर-थर कांपने लगता, मतली उठ आती वह गश खा कर गिर पड़ती। ‘मार मार कर खाल उधेड़ दी’, चबर-चबर खाते हुए वह कहता और अट्ठहास करके, फिर चस-चस चबाने लगता। लल्ली को बचपन में देखा नज़ारा याद आ जाता। जिनावर से हटकर मनुष्य तक पहुँचने का उसका डर साकार होता और वह गश खा जाती।

कुंवारी लड़कियों के बेहोश होकर गिरने-गिराने पर कोई ध्यान नहीं देता, लल्ली के रिश्तेदारों ने भी नहीं। होश आने पर वह वापस काम पर लग जाती। हां, जीजावर ने ज़रूर खुशमिज़ाजी से हंस कर, रोमानियत का परिचय देते हुए कहा था, ‘अहा, लल्ली जवान हो गयी। उसके हिस्टीरिया का एक ही इलाज है, तत्कल शादी।’ बाकी लोग भी हंस दिये थे। कहा था, अब तो महीना ही बचा है। लल्ली बेहद डर गयी थी। बेभाव की मार उसने कभी खायी नहीं थी, पर जिंदगी में किसी ने कभी किसी किस्म की रियायत भी उसके साथ नहीं की थी। लिहाज़ा, खाल उधेड़ने में इतना रस लेने वाला आदमी उसे साबुत छोड़ देगा, इसका भरोसा नहीं था। डर ने ऐसा आलम बनाया कि जैसे होता है, हर चीज से हटकर ध्यान पूरी तरह अपने पर अटक गया। तभी यह एहसास हुआ कि सामने वाली बरसाती में रहने वाला डेढ़ पसली का किरायेदार उसे घूरता रहता है। अब जो नजर उठा कर उसकी तरफ देख पाया तो कि वह मुस्कुरा ही नहीं रहा, गुनगुना भी उठा है और अगले पल सीटी भी बजा बैठा है। फिर एक दिन जीजावर की फ़र्माइश पर मौसम में नए आये करेले खरीदने वह बाजार जा रही थी कि वह उससे आ टकराया। फिर जो-जो होता है हुआ और लल्ली उसके साथ भाग गयी।

डेढ़ पसली का नौजवान मुसलमान था, यह उसे तब पता चला जब दिल्ली शहर पहुंचकर निकाह पढ़वाने वह उसे मौलवी के पास ले गया। और उन्होंने कलमा पढ़वा कर उसे लैला बनने को कहा। तब जिंदगी में पहली बार उसकी राय पूछी गयी। मौलवी साहेब ने पूछा, निकाह से तुम्हें इकरार है कि नहीं तो नई-नई लैला बनी लल्ली, डबल खुशी के मारे लहोलुहाट हो गयी। पहली खुशी यह कि डेढ़ पसली, मिर्च-मसाला कूटने की दुकान में क्लर्क था। गुड़गांव से दिल्ली आना उसका पहले से तय था, तभी लल्ली को भगाने की हिम्मत की थी। किसी की खाल उधेड़ने लायक न उसकी सेहत थी, न औकात। दूसरी यह कि लैला बनते ही उसकी रजामंदी की दरकार पड़ने लगी थी।

लैला बनी लल्ली दिल्ली शहर के खारी बावली इलाक़े की एक तंग गली में जा लगी। जिस मियानी में शौहर के साथ घर बसाया उसके ठीक नीचे गली में मिर्च-मसाला सुखाते, कुटते, पिसते, छनते थे। धुंआ उड़ाते फटफटियों में लद कर साबुत माल जाता था। मिर्च-मसाले की धांस, पत्थर के कोयले की अंगीठियों का कसैला धुआँ और कचरे के ढेरों से उठती सड़ांध मिल कर वह समां बांधती कि चमार टोले की चमरौंध पानी भरे। शादी का मतलब बंद कमरे में धुआं, धांस और सड़न सहना मानकर लैला संतोष से जी रही थी कि सैंया को गांव में रहने वाले मां-बाप याद आ गये। सालाना छुट्टी के सात दिनों में उसे वहां लिवा ले गये। वहां यानी यहां, खेड़ी गांव।

गांव पहुंच कर पता चला कि पहली बीबी मौजूद थी जिसे तपेदिक की बमारी थी और जिसका बरस भर का छोरा भी था। एक से ज़्यादा बीवी का होना खुदापाक की मंजूरी से था और बच्चे का होना, कुदरत की दुआ से। सो अपनी हिरास को पेट में दबा लैला जैसे रहती आयी थी, रहती गयी। तभी एक राज और खुला। यह कि पसली मर्द की डेढ़ हो चाहे ढाई, वह पुलिसिया हो या चाकर, बीवी की खाल उधेड़ने की जश्न, हर कोई मना सकता है। दो-चार दिन के त्योहार के बाद समझ में आया कि हो-न-हो उससे शादी इसीलिए की होगी क्योंकी पसली चली पहली बीवी की खाल पर जश्न मनाने में क़ातिल होने का डर था। अजीब बात यह हुई कि जब हफ़्ते बाद लैला दिल्ली लौटी तो रह-रह कर उसे खेड़ी गांव याद आता रहा। जब-जब सांस धसके में बदल कर छाती में अटकती, उसे गांव खेड़ी में खुल-खुल कर सांस लेनी याद आ जाती। मन में चाह उठती कि काश ! वहां रह पाती।

दूसरी बात जो कई बार मन में उठती, वह यह थी कि कौन जाने सैंया से पुलिसिया जीजावर ही बेहतर रहता। औरों को कूट-पीटकर इतना अघा जाता कि लैला को पीटने का मन ही न बनता। इस बेचारे डेढ़ पसली के लिए तो मुल्ला की दौड़ लैला तक थी। वैसे वह बुरा आदमी नहीं था। जैसे सब होते हैं वैसा ही था। एकाध बार छुट्टी के रोज उसे लाल क़िला वग़ैरह घुमाने भी ले गया था।

मेरा वतन -विष्णु प्रभाकर

उसने सदा की भाँति तहमद लगा लिया था और फैज ओढ़ ली थी। उसका मन कभी-कभी साइकिल के ब्रेक की तरह तेजी से झटका देता, परन्तु पैर यन्त्रवत् आगे बढ़ते चले जाते। यद्यपि इस शि€त-प्रयोग के कारण वह बे-तरह काँप-काँप जाता, पर उसकी गति में तनिक भी अन्तर न पड़ता। देखने वालों के लिए वह एक अर्ध्दविक्षिप्त से अधिक कुछ नहीं था। वे अकसर उसका मंजांक उड़ाया करते। वे कहकहे लगाते और ऊँचे स्वर में गालियाँ देते, पर जैसे ही उनकी दृष्टि उठती—न जाने उन निरीह, भावहीन, फटी-फटी आँखों में €या होता कि वे सहम-सहम जाते; सोडावाटर के उफान की तरह उठनेवाले कहकहे मर जाते और वह नंजर दिल की अन्दरूनी बस्ती को शोले की तरह सुलगाती हुई फिर नीचे झुक जाती। वे फुसफुसाते, 'जरूर इसका सब कुछ लुट गया है,'...'इसके रिश्तेदार मारे गये हैं...' 'नहीं, नहीं ऐसा लगता है कि काफिरों ने इसके बच्चों की इसी के सामने आग में भून दिया है या भालों की नोक पर टिकाकर तब तक घुमाया है जब तक उनकी चीख-पुकार बिल्ली की मिमियाहट से चिड़िया के बच्चे की चीं-चीं में पलटती हुई खत्म नहीं हो गयी है।'
''और यह सब देखता रहा है।''
''हां! यह देखता रहा है। वही खौफ इसकी आँखों में उतर आया है। उसी ने इसके रोम-रोम को जकड़ लिया है। वह इसके लहू में उस तरह घुल-मिल गया है कि इसे देखकर डर लगता है।''
''डर'', किसी ने कहा, ''इसकी आँखों में मौत की तस्वीर है, वह मौत, जो कत्ल, खूँरेजी और फाँसी का निजाम संभालती है।''
एक बार राह चलते दर्दमन्द ने एक दुकानदार से पूछा, ''यह कौन है?''
दुकानदार ने जवाब दिया, ''मुसीबतंजदा है, जनाब! अमृतसर में रहता था। काफिरों ने सब कुछ लूटकर इसके बीवी-बच्चों को जिन्दा आग में जला दिया।''
''जिन्दा !'' राहगीर के मुंह से अचानक निकल गया।
दुकानदार हंसा ''जनाब किस दुनिया में रहते हैं? वे दिन बीत गये जब आग काफिरों के मुर्दों को जलाती थी। अब तो वह ंजिन्दों को जलाती है।''
राहगीर ने तब अपनी कड़वी भाषा में काफिरों को वह सुनायी कि दुकानदार ने खुश होकर उसे बैठ जाने के लिए कहा। उसे जाने की जल्दी थी। फिर भी जरा-सा बैठकर उसने कहा, ''कोई बड़ा आदमी जान पड़ता है।''
''जी हां ! वकील था, हाईकोर्ट का बड़ा वकील। लाखों रुपयों की जायदाद छोड़ आये हैं।''
''अच्छा...!''
''जनाब! आदमी आसानी से पागल नहीं होता। चोट लगती है तभी दिल टूटता है। और जब एक बार टूट जाता है तो फिर नहीं जुड़ता। आजकल चारों तरफ यही कहानी है। मेरा घर का मकान नहीं था, लेकिन दुकान में सामान इतना था कि तीन मकान खरीदे जा सकते थे।''
''जी हां,'' राहगीर ने सहानुभूति से भरकर कहा, ''आप ठीक कहते हैं पर आपके बाल-बच्चे तो सही-सलामत आ गये हैं!''
''जी हां ! खुदा का फज़ल है। मैंने उन्हें पहले ही भेज दिया था। जो पीछे रह गये थे उनकी न पूछिए। रोना आता है। खुदा गारत करे हिन्दुस्तान को...।''
राहगीर उठा। उसने बात काटकर इतना ही कहा, ''देख लेना, एक दिन वह गारत होकर रहेगा। खुदा के घर में देर है, पर अंधेर नहीं।''
और वह चला गया, परन्तु उस अर्ध-विक्षिप्त के कार्यक्रम में कोई अन्तर नहीं पड़ा। वह उसी तरह धीरे-धीरे बांजारों में से गुजरता, शरणार्थियों की भीड़ में धक्के खाता, परन्तु उस ओर देखता नहीं। उसकी दृष्टि तो आस-पास की दुकानों पर जा अटकती थी। जैसे मिकनातीस लोहे को खींच लेता है वैसे ही वे बेंजबाम् इमारतें जो जगह-जगह पर खंडहर की श€ल में पलट चुकी थीं, उसकी नंजर को और उसके साथ-साथ उसके मन, बुध्दि, चिžा और अहंकार सभी को अपनी ओर खींच लेती थीं और फिर उसे जो कुछ याद आता, वह उसे पैर के तलुए से होकर सिर में निकल जानेवाली सूली की तरह काटता हुआ, उसके दिल में घुमड़-घुमड़ उठता। इसी कारण वह मर नहीं सका, केवल सिसकियाम् भरता रहा। उन सिसकियों में न शब्द थे, न आँसू। वे बस सूखी हिचकियों की तरह उसे बेजान किये रहती थीं।
सहसा उसने देखा—सामने उसका अपना मकान आ गया है। उसके अपने दादा ने उसे बनवाया था। उसके ऊपर के कमरे में उसके पिता का जन्म हुआ था। उसी कमरे में उसने आम्खें खोली थीं और उसी कमरे में उसके बच्चों ने पहली बार प्रकाश-किरण का स्पर्श पाया था।
उस मकान के कण-कण में उसके जीवन का इतिहास अंकित था। उसे फिर बहुत-सी कहानियाँ याद आने लगीं। वह उन कहानियों में इतना डूब गया कि उसे परिस्थिति का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। वह यन्त्रवत् जीने पर चढ़ने के लिए आगे बढ़ा और जैसा कि वह सदा करता था उसने घण्टी पर हाथ रखा। बे-जान घण्टी शोर मचाने लगी और तभी उसकी नींद टूट गयी। उसने घबराकर अपने चारों ओर देखा। वहाँ सब एक ही जैसे आदमी नहीं थे। वे एक जैसी जबान भी नहीं बोलते थे। फिर भी उनमें ऐसा कुछ था जो उन्हें 'एक' बना रहा था और वह इस 'एक' में अपने लिए कोई जगह नहीं पाता था। उसने तेजी से आगे बढ़ जाना चाहा, पर तभी ऊपर से एक व्यक्ति उतरकर आया। उसने ढीला पाजामा और कुरता पहना था, पूछा, ''कहिए जनाब?''
वह अचकचाया, ''जी!''
''जनाब किसे पूछते थे?''
''जी, मैं पूछता था कि मकान खाली है।''
ढीले पाजामे वाले व्यक्ति ने उसे ऐसे देखा कि जैसे वह कोई चोर या उठाईगीरा हो। फिर मुंह बनाकर तलखी से जवाब दिया, ''जनाब तशरीफ ले जाइए वरना...''
आगे उसने क्या कहा वह यह सुनने के लिए नहीं रुका। उसकी गति में तूफान भर उठा, उसके मस्तिष्क में बवंडर उठ खड़ा हुआ और उसका चिन्तन गति की चट्टान पर टकराकर पाश-पाश हो गया। उसे जब होश आया तो वह अनारकली से लेकर माल तक का समूचा बांजार लाँघ चुका था। वह बहुत दूर निकल आया था। वहाँ आकर वह तेजी से काँपा। एक टीस ने उसे कुरेद डाला, जैसे बढ़ई ने पेच में पेचकश डालकर पूरी शिक्त के साथ उसे घुमाना शुरू कर दिया हो। हाईकोर्ट की शानदार इमारत उसके सामने थी। वह दृष्टि गड़ाकर उसके कंगूरों को देखने लगा। उसने बरामदे की कल्पना की। उसे याद आया—वह कहाँ बैठता था, वह कौन से कपड़े पहनता था कि सहसा उसका हाथ सिर पर गया जैसे उसने सांप को छुआ हो। उसने उसी क्षण हाथ खींच लिया पर मोहक स्वप्नों ने उस रंगीन दुनिया की रंगीनी को उसी तरह बनाए रखा। वह तब इस दुनिया में इतना डूब चुका था कि बाहर की जो वास्तविक दुनिया है वह उसके लिए मृगतृष्णा बन गयी थी। उसने अपने पैरों के नीचे की धरती को ध्यान से देखा, देखता रहा। सिनेमा की तस्वीरों की तरह अतीत की एक दुनिया, एक शानदार दुनिया उसके अन्तस्तल पर उतर आयी। वह इसी धरती पर चला करता था। उसके आगे-पीछे उसे नमस्कार करते, सलाम झुकाते, बहुत से आदमी आते और जाते थे। दूसरे वकील हाथ मिलाकर शिष्टाचार प्रदर्शित करते और...
विचारों के हनुमान ने समुद्र पार करने के लिए छलाँग लगायी। उसका ध्यान जज के कमरे पर जाकर केन्द्रित हो गया। जब वह अपने केस में बहस शुरू करता तो कमरे में सन्नाटा छा जाता। केवल उसकी वाणी की प्रतिध्वनि ही वहाँ गूँजा करती, केवल 'मी लार्ड' शब्द बार-बार उठता और 'मी लार्ड' कलम रख कर उसकी बात सुनते...
हनुमान फिर कूदे। अब वह बार एसोसिएशन के कमरे में आ गया था। इस कमरे में न जाने कितने बेबाक कहकहे उसने लगाये, कितनी बार राजनीति पर उत्तेजित कर देनेवाली बहसें कीं, महापुरुषों को श्रद्धाजलियाँ अर्पित कीं, विदा और स्वागत के खेल खेले...
वह अब उस कुर्सी के बारे में सोचने लगा जिस पर वह बैठा करता था। उसे कमरे की दीवार के साथ-साथ दरवाजे के पायदान की याद भी आ गयी। कभी-कभी ये छोटी-छोटी तंफसीलें आदमी को कितना सकून पहुंचाती हैं। इसीलिए वह सब-कुछ भूलकर सदा की तरह झूमता हुआ आगे बढ़ा, पर तभी जैसे किसी ने उसे कचोट लिया। उसने देखा कि लॉन की हरी घास मिट्टी में समा गयी है। रास्ते बन्द हैं। केवल डरावनी आँखों वाले सैनिक मशीनगन संभाले और हैलमेट पहने तैयार खड़े हैं कि कोई आगे बढ़े और वे शूट कर दें। उसने हरी वर्दी वाले होमगार्डों को भी देखा और देखा कि राइफल थामे पठान लोग जब मन में उठता है तब फायर कर देते हैं। वे मानो छड़ी के स्थान पर राइफल का प्रयोग करते हैं और उनके लिए जीवन की पवित्रता बन्दूक की गोली की सफलता पर निर्भर करती है। उसे स्वयं जीवन की पवित्रता से अधिक मोह नहीं था। वह खंडहरों के लिए आँसू भी नहीं बहाता था। उसने अग्नि की प्रज्वलित लपटों को अपनी आँखों से उठते देखा था। उसे तब खाण्डव-वन की याद आ गयी थी जिसकी नींव पर इन्द्रप्रस्थ-सरीखे वैभवशाली और कलामय नगर का निर्माण हुआ था। तो क्या इस महानाश की उस कला के कारण महाभारत सम्भव हुआ, जिसने इस अभागे देश के मदोन्मत, किन्तु जर्जरित शौर्य को सदा के लिए समाप्त कर दिया। क्या आज फिर वही कहानी दोहरायी जानेवाली है।
एक दिन उसने अपने बेटे से कहा, ''जिन्दगी न जाने क्या-क्या खेल खेलती है। वह तो बहुरूपिया है। दूसरी दुनिया बनाते हमें देर नहीं लगती। परमात्मा ने मिट्टी इसलिए बनायी कि हम उसमें से सोना पैदा करें।''
बेटा बाप का सच्चा उत्तराधिकारी था। उसने परिवार को एक छोटे-से कस्बे में छोड़ा और आप आगे बढ़ गया। वह अपनी उजड़ी हुई दुनिया फिर से बसा लेना चाहता था, पर तभी अचानक छोटे भाई का तार मिला। लिखा था, ''पिताजी न जाने कहाँ चले गये!''
तार पढ़कर बड़ा भाई घबरा गया। वह तुरन्त घर लौटा और पिता की खोज करने लगा। उसने मित्रों को लिखा, रेडियो पर समाचार भेजे, अंखबारों में विज्ञापन निकलवाये। सब कुछ किया, पर वह यह नहीं समझ सका, कि आंखिर वे कहाँ गये और €यों गये। वह उसी उधेड़-बुन में था कि एक दिन सवेरे-सवेरे क्या देखता है कि उसके पिता चले आ रहे हैं शान्त निर्द्वन्द्व और निर्लिप्त।
''आप कहाँ चले गये थे?'' प्रथम भावोद्रेक समाप्त होने पर उसने पूछा।
शान्त मन से पिता ने उत्तर दिया, ''लाहौर।''
''लाहौर,'' पुत्र अविश्वास से काँप उठा, ''आप लाहौर गये थे?''
''हां।''
''कैसे?''
पिता बोले, ''रेले में बैठकर गया था, रेल में बैठकर आया हूं।''
''पर आप वहाँ क्यों गये थे?''
''क्यों गया था,'' जैसे उनकी नींद टूटी। उन्होंने अपने-आपको संभालते हुए कहा, ''वैसे ही, देखने के लिए चला गया था।''
और आगे की बहस से बचने के लिए वे उठकर चले गये। उसके बाद उन्होंने इस बारे में किसी प्रश्न का जवाब देने से इनकार कर दिया। पुत्रों ने पिता में आनेवाले इस परिवर्तन को देखा, पर न तो वे उन्हें समझा सकते थे, न उन पर क्रोध कर सकते थे, हां, पंजाब की बात चलती तो आह भरकर कह देते थे, ''गया पंजाब! पंजाब अब कहाँ है?''
पुत्र फिर काम पर लौट गये और वे भी घर की व्यवस्था करने लगे। इसी बीच में वे फिर एक दिन लाहौर चले गये, परन्तु इससे पहले कि उनके पुत्र इस बात को जान सकें, वे लौट आये। पत्नी ने पूछा, ''आंखिर क्या बात है?''
''कुछ नहीं।''
''कुछ नहीं कैसे? आप बार-बार वहाँ क्यों जाते हैं?''
तब कई क्षण चुप रहने के बाद उन्होंने धीरे से कहा, ''क्यों जाता हूं, क्योंकि वह मेरा वतन है। मैं वहीं पैदा हुआ हूं। वहाँ की मिट्टी में मेरी जिन्दगी का रांज छिपा है। वहाँ की हवा में मेरे जीवन की कहानी लिखी हुई है।''
पत्नी की आँखें भर आयीं, बोली, ''पर अब €या, अब तो सब-कुछ गया।''
''हां, सब-कुछ गया।'' उन्होंने कहा, ''मैं जानता हूं अब कुछ नहीं हो सकता, पर न जाने €या होता है, उसकी याद आते ही मैं अपने-आपको भूल जाता हूं और मेरा वतन मिकनातीस की तरह मुझे अपनी ओर खींच लेता है।''
पत्नी ने जैसे पहली बार अपने पति को पहचाना हो। अवाक्-सी दो क्षण वैसे ही बैठी रही। फिर बोली, ''आपको अपने मन को संभालना चाहिए। जो कुछ चला गया उसका दु:ख तो जिन्दगी-भर सालता रहेगा। भाग्य में यही लिखा था, पर अब जान-बूझकर आग में कूदने से क्या लाभ?''
''हां, अब तो जो-कुछ बचा है उसी को सहेजकर गाड़ी खींचना ठीक है।''—उसने पत्नी से कहा और फिर जी-जान से नए कार्य-क्षेत्र में जुट गया। उसने फिर वकालत का चोगा पहन लिया। उसका नाम फिर बार-एसोसिएशन में गूँजने लगा। उसने अपनी जिन्दगी को भूलने का पूरा-पूरा प्रयत्न किया। और शीघ्र ही वह अपने काम में इतना डूब गया कि देखनेवाले दाँतों तले उँगली दबाकर कहने लगे, ''इन लोगों में कितना जीवट है। सैकड़ों वर्षों में अनेक पीढ़ियों ने अपने को खपाकर जिस दुनिया का निर्माण किया था वह क्षण-भर में राख का ढेर हो गयी, और बिना आँसू बहाये; उसी तरह दुनिया ये लोग क्षणों में बना देना चाहते हैं।''
उनका अचरज ठीक था। तम्बुओं और कैम्पों के आस-पास, सड़कों के किनारे, राह से दूर भूत-प्रेतों के चिर-परिचित अड्डों में, उजड़े गाँवों में, खोले और खादर में, जहाँ कहीं भी मनुष्य की शक्ति कुंठित हो चुकी थी वहीं ये लोग पहुँच जाते थे और पादरी के नास्तिक मित्र की तरह नरक को स्वर्ग में बदल लेते थे। इन लोगों ने जैसे कसम खायी थी कि धरती असीम है, शि€त असीम है, फिर निराशा कहाँ रह सकती है?
ठीक उसी समय जब उसका बड़ा पुत्र अपनी नई दुकान का मुहूर्त करनेवाला था, उसे एक बार फिर छोटे भाई का तार मिला, ''पिताजी पाँच दिन से लापता हैं।''
पढ़कर वह क्रुध्द हो उठा और तार के टुकड़े-टुकड़े करके उसने दूर फेंक दिये। चिनचिनाकर बोला, ''वे नहीं मानते तो उन्हें अपने किये का फल भोगना चाहिए। वे अवश्य लाहौर गये हैं।''
उसका अनुमान सच था। जिस समय वे यहाँ चिन्तित हो रहे थे उसी समय लाहौर के एक दूकानदार ने एक अर्द्ध-विक्षिप्त व्यक्ति को, जो तहमद लगाये, फैज कैप ओढ़े, फटी-फटी आँखों से चारों ओर देखता हुआ घूम रहा था, पुकारा, ''शेख साहब! सुनिए तो। बहुत दिन में दिखाई दिए, कहाँ चले गये थे?''
उस अर्द्ध-विक्षिप्त पुरुष ने थकी हुई आवांज में जवाब दिया, ''मैं अमृतसर चला गया था।''
''क्या,'' दूकानदार ने आँखें फाड़कर कहा, ''अमृतसर!''
'हाँ, अमृतसर गया था। अमृतसर मेरा वतन है।'
दूकानदार की आँखें क्रोध से चमक उठीं, बोला, ''मैं जानता हूं। अमृतसर में साढे तीन लाख मुसलमान रहते थे, पर आज एक भी नहीं है।''
''हां,'' उसने कहा, ''वहाँ आज एक भी मुसलमान नहीं है।''
''काफिरों ने सबको भगा दिया, पर हमने भी कसर नहीं छोड़ी। आज लाहौर में एक भी हिन्दू या सिक्ख नहीं है और कभी होगा भी नहीं।''
वह हँसा, उसकी आँखें चमकने लगीं। उसमें एक ऐसा रंग भर उठा जो बे-रंग था और वह हँसता चला गया, हँसता चला गया...''वतन, धरती, मोहब्बत सब कितनी छोटी-छोटी बातें हैं...सबसे बड़ा मजहब है, दीन है, खुदा का दीन। जिस धरती पर खुदा का बन्दा रहता है, जिस धरती पर खुदा का नाम लिया जाता है, वह मेरा वतन है, वही मेरी धरती है और वही मेरी मोहब्बत है।''
दुकानदार ने धीरे से अपने दूसरे साथी से कहा, ''आदमी जब होश खो बैठता है, तो कितनी सच्ची बात कहता है।''
साथी ने जवाब दिया, ''जनाब! तब उसकी जबान से खुदा बोलता है।''
''बेशक,'' उसने कहा और मुड़कर उस अर्द्ध-विक्षिप्त से बोला—''शेख साहब! आपको घर मिला?''
''सब मेरे ही घर हैं।''
दुकानदार मुस्कराया, ''लेकिन शेख साहब! जरा बैठिए तो, अमृतसर में किसी ने आपको पहचाना नहीं।''
वह ठहाका मारकर हँसा, ''तीन महीने जेल में रहकर लौटा हूं।''
''सच।''
''हां,'' उसने आँखें मटकाकर कहा।
''तुम जीवट के आदमी हो।''
और तब दुकानदार ने खुश होकर उसे रोटी और कवाब मंगाकर दिए। लापरवाही से उन्हें पल्ले में बाँधकर और एक टुकड़े को चबाता हुआ वह आगे बढ़ गया।
दुकानदार ने कहा, ''अजीब आदमी है। किसी दिन लखपती था, आज फाकामस्त है।''
''खुदा अपने बन्दों का खूब इम्तहान लेता है।''
''जन्नत ऐसे को ही मिलता है।''
''जी हां। हिम्मत भी खूब है। जान-बूझकर आग में जा कूदा।''
''वतन की याद ऐसी ही होती है।'' उसके साथी ने जो दिल्ली का रहनेवाला था कहा, ''अब भी जब मुझे दिल्ली की याद आती है तो दिल भर आता है।''
उतने कष्ट की कल्पना करना जो दूसरे ने भोगा है असम्भव जैसा है, फिर भी यातना की समानता के कारण दो मित्र व्यक्तियों की संवेदना एक बिन्दु पर आकर एक हो जाती है।
वह आगे बढ़ रहा था। माल पर भीड़ बढ़ रही थी। कारें भी कम नहीं थीं। अँग्रेंज, एंग्लो-इंडियन तथा ईसाई नारियाँ पहले की तरह ही बांजार में देखी जा सकती थीं। फिर भी उसे लगा कि वह माल जो उसने देखी थी यह नहीं है। शरीर अवश्य कुछ वैसा ही है, पर उसकी आत्मा वह नहीं है। लेकिन यह भी उसकी दृष्टि का दोष था। कम-से-कम वे जो वहाँ घूम रहे थे उनका ध्यान आत्मा की ओर नहीं था।
एकाएक वह पीछे मुड़ा। उसे रास्ता पूछने की जरूरत नहीं थी। बैल अपनी डगर को पहचानते हैं। उसके पैर भी दृढ़ता से रास्ते पर बढ़ रहे थे और विश्वविद्यालय की आलीशान इमारत एक बार फिर सामने आ रही थी। उसने नुमायश की ओर एक दृष्टि डाली, फिर बुलनर के बुत की तरफ से होकर वह अन्दर चला गया। उसे किसी ने नहीं रोका। वह लॉ कॉलिज के सामने निकल आया। उसी क्षण उसका दिल एक गहरी हूक से टीसने लगा। कभी वह इस कॉलेज में पढ़ा करता था...
वह काँपा, उसे याद आया, उसने इस कॉलेज में पढ़ाया भी है...
वह फिर काँपा। हूक फिर उठी। उसकी आँखें भर आयीं। उसने मुंह फेर लिया। उसके सामने अब वह रास्ता था जो उसे दयानन्द कॉलेज ले जा सकता था। एक दिन पंजाब विश्वविद्यालय, दयानन्द विश्वविद्यालय कहलाता था।
तभी एक भीड़ उसके पास से निकल आयी। वे प्राय: सभी शरणार्थी थे। बे-घर और बे-जर लेकिन उन्हें देखकर उसका दिल पिघला नहीं, कड़वा हो आया। उसने चीख-चीखकर उन्हें गालियाँ देनी चाहीं। तभी पास से जानेवाले दो व्यक्ति उसे देखकर ठिठक गये। एक ने रुककर उसे ध्यान से देखा, दृष्टि मिली, वह सिहर उठा। सर्दी गहरी हो रही थी और कपड़े कम थे। वह तेजी से आगे बढ़ गया। वह जल्दी-से-जल्दी कॉलेज-कैम्प में पहुँच जाना चाहता था। उन दो व्यक्तियों में से एक ने, जिसने उसे पहचाना था, दूसरे से कहा—''मैं इसको जानता हूं।''
''कौन है?''
''हिन्दू।''
साथी अचकचाया, ''हिन्दू !''
''हां, हिन्दू। लाहौर का एक मशहूर वकील...।''
और कहते-कहते उसने ओवरकोट की जेब में से पिस्तौल निकाल लिया। वह आगे बढ़ा। उसने कहा, ''जरूर यह मुखबिरी करने आया है।''
उसके बाद गोली चली। एक हल्की-सी हलचल, एक साधारण-सी खटपट। एक व्यक्ति चलता-चलता लड़खड़ाया और गिर पड़ा। पुलिस ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया, परन्तु जो अनेक व्यक्ति कुतूहलवश उस पर झुक आये थे, उनमें से एक ने उसे पहचान लिया। वह हतप्रभ रह गया और यन्त्रवत् पुकार उठा ''मिस्टर पुरी ! तुम यहाँ कैसे...!''
मिस्टर पुरी ने आँखें खोलीं, उनका मुख श्वेत हो गया था और उस पर मौत की छाया मंडरा रही थी। उन्होंने पुकारने वाले को देखा और पहचान लिया। धीरे से कहा, ''हसन...!''
आँखें फिर मिच गयीं। बदहवास हसन ने चिल्लाकर सैनिक से कहा, ''जल्दी करो। टैक्सी लाओ। मेयो अस्पताल चलना है। अभी...''
भीड़ बढ़ती जा रही थी। फौज, पुलिस और होमगार्ड सबने घेर लिया। हसन, जो उसका साथी था, जिसके साथ वह पढ़ा था, जिसके साथ उसने साथी और प्रतिद्वन्दी बनकर अनेक मुकदमे लड़े थे, वह अब उसे भीगी-भीगी आँखों से देख रहा था। एक बार झुककर उसने फिर कहा, ''तुम यहाँ इस तरह क्यों आये, मिस्टर पुरी?''
मिस्टर पुरी ने इस बार प्रयत्न करके आँखें खोलीं और वे फुसफसाये, ''मैं यहाँ क्यों आया? मैं यहाँ से जा ही कहाँ सकता हूं? यह मेरा वतन है, हसन ! मेरा वतन...!''
फिर उसकी यातना का अन्त हो गया।

मारे गये गुलफाम - फणीश्वर नाथ रेणु

हिरामन गाड़ीवान की पीठ में गुदगुदी लगती है...
पिछले बीस साल से गाड़ी हाँकता है हिरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार, मोरंग राज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है। कंट्रोल के जमाने में चोरबाजारी का माल इस पार से उस पार पहुँचाया है। लेकिन कभी तो ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में!
कंट्रोल का जमाना! हिरामन कभी भूल सकता है उस जमाने को! एक बार चार खेप सीमेंट और कपड़े की गाँठों से भरी गाड़ी, जोगबानी में विराटनगर पहुँचने के बाद हिरामन का कलेजा पोख्ता हो गया था। फारबिसगंज का हर चोर-व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता। उसके बैलों की बड़ाई बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी खुद करते, अपनी भाषा में।
गाड़ी पकड़ी गई पाँचवी बार, सीमा के इस पार तराई में।
महाजन का मुनीम उसी की गाड़ी पर गाँठों के बीच चुक्की-मुक्की लगा कर छिपा हुआ था। दारोगा साहब की डेढ़ हाथ लंबी चोरबत्ती की रोशनी कितनी तेज होती है, हिरामन जानता है। एक घंटे के लिए आदमी अंधा हो जाता है, एक छटक भी पड़ जाए आँखों पर! रोशनी के साथ कड़कती हुई आवाज – ‘ऐ-य! गाड़ी रोको! साले, गोली मार देंगे?’
बीसों गाड़ियाँ एक साथ कचकचा कर रुक गईं। हिरामन ने पहले ही कहा था, ‘यह बीस विषावेगा!’ दारोगा साहब उसकी गाड़ी में दुबके हुए मुनीम जी पर रोशनी डाल कर पिशाची हँसी हँसे – ‘हा-हा-हा! मुनीम जी-ई-ई-ई! ही-ही-ही! ऐ-य, साला गाड़ीवान, मुँह क्या देखता है रे-ए-ए! कंबल हटाओ इस बोरे के मुँह पर से!’ हाथ की छोटी लाठी से मुनीम जी के पेट में खोंचा मारते हुए कहा था, ‘इस बोरे को! स-स्साला!’
बहुत पुरानी अखज-अदावत होगी दारोगा साहब और मुनीम जी में। नहीं तो उतना रूपया कबूलने पर भी पुलिस-दरोगा का मन न डोले भला! चार हजार तो गाड़ी पर बैठा ही दे रहा है। लाठी से दूसरी बार खोंचा मारा दारोगा ने। ‘पाँच हजार!’ फिर खोंचा – ‘उतरो पहले... ’
मुनीम को गाड़ी से नीचे उतार कर दारोगा ने उसकी आँखों पर रोशनी डाल दी। फिर दो सिपाहियों के साथ सड़क से बीस-पच्चीस रस्सी दूर झाड़ी के पास ले गए। गाड़ीवान और गाड़ियों पर पाँच-पाँच बंदूकवाले सिपाहियों का पहरा! हिरामन समझ गया, इस बार निस्तार नहीं। जेल? हिरामन को जेल का डर नहीं। लेकिन उसके बैल? न जाने कितने दिनों तक बिना चारा-पानी के सरकारी फाटक में पड़े रहेंगे - भूखे-प्यासे। फिर नीलाम हो जाएँगे। भैया और भौजी को वह मुँह नहीं दिखा सकेगा कभी। ...नीलाम की बोली उसके कानों के पास गूँज गई - एक-दो-तीन! दारोगा और मुनीम में बात पट नहीं रही थी शायद।
हिरामन की गाड़ी के पास तैनात सिपाही ने अपनी भाषा में दूसरे सिपाही से धीमी आवाज में पूछा, ‘का हो? मामला गोल होखी का?’ फिर खैनी-तंबाकू देने के बहाने उस सिपाही के पास चला गया।
एक-दो-तीन! तीन-चार गाड़ियों की आड़। हिरामन ने फैसला कर लिया। उसने धीरे-से अपने बैलों के गले की रस्सियाँ खोल लीं। गाड़ी पर बैठे-बैठे दोनों को जुड़वाँ बाँध दिया। बैल समझ गए उन्हें क्या करना है। हिरामन उतरा, जुती हुई गाड़ी में बाँस की टिकटी लगा कर बैलों के कंधों को बेलाग किया। दोनों के कानों के पास गुदगुदी लगा दी और मन-ही-मन बोला, ‘चलो भैयन, जान बचेगी तो ऐसी-ऐसी सग्गड़ गाड़ी बहुत मिलेगी।’ ...एक-दो-तीन! नौ-दो-ग्यारह! ..
गाड़ियों की आड़ में सड़क के किनारे दूर तक घनी झाड़ी फैली हुई थी। दम साध कर तीनों प्राणियों ने झाड़ी को पार किया - बेखटक, बेआहट! फिर एक ले, दो ले - दुलकी चाल! दोनों बैल सीना तान कर फिर तराई के घने जंगलों में घुस गए। राह सूँघते, नदी-नाला पार करते हुए भागे पूँछ उठा कर। पीछे-पीछे हिरामन। रात-भर भागते रहे थे तीनों जन।
घर पहुँच कर दो दिन तक बेसुध पड़ा रहा हिरामन। होश में आते ही उसने कान पकड़ कर कसम खाई थी - अब कभी ऐसी चीजों की लदनी नहीं लादेंगे। चोरबाजारी का माल? तोबा, तोबा!... पता नहीं मुनीम जी का क्या हुआ! भगवान जाने उसकी सग्गड़ गाड़ी का क्या हुआ! असली इस्पात लोहे की धुरी थी। दोनों पहिए तो नहीं, एक पहिया एकदम नया था। गाड़ी में रंगीन डोरियों के फुँदने बड़े जतन से गूँथे गए थे।
दो कसमें खाई हैं उसने। एक चोरबाजारी का माल नहीं लादेंगे। दूसरी - बाँस। अपने हर भाड़ेदार से वह पहले ही पूछ लेता है - ‘चोरी- चमारीवाली चीज तो नहीं? और, बाँस? बाँस लादने के लिए पचास रूपए भी दे कोई, हिरामन की गाड़ी नहीं मिलेगी। दूसरे की गाड़ी देखे।
बाँस लदी हुई गाड़ी! गाड़ी से चार हाथ आगे बाँस का अगुआ निकला रहता है और पीछे की ओर चार हाथ पिछुआ! काबू के बाहर रहती है गाड़ी हमेशा। सो बेकाबूवाली लदनी और खरैहिया। शहरवाली बात! तिस पर बाँस का अगुआ पकड़ कर चलनेवाला भाड़ेदार का महाभकुआ नौकर, लड़की-स्कूल की ओर देखने लगा। बस, मोड़ पर घोड़ागाड़ी से टक्कर हो गई। जब तक हिरामन बैलों की रस्सी खींचे, तब तक घोड़ागाड़ी की छतरी बाँस के अगुआ में फँस गई। घोड़ा-गाड़ीवाले ने तड़ातड़ चाबुक मारते हुए गाली दी थी! बाँस की लदनी ही नहीं, हिरामन ने खरैहिया शहर की लदनी भी छोड़ दी। और जब फारबिसगंज से मोरंग का भाड़ा ढोना शुरू किया तो गाड़ी ही पार! कई वर्षों तक हिरामन ने बैलों को आधीदारी पर जोता। आधा भाड़ा गाड़ीवाले का और आधा बैलवाले का। हिस्स! गाड़ीवानी करो मुफ्त! आधीदारी की कमाई से बैलों के ही पेट नहीं भरते। पिछले साल ही उसने अपनी गाड़ी बनवाई है।
देवी मैया भला करें उस सरकस-कंपनी के बाघ का। पिछले साल इसी मेले में बाघगाड़ी को ढोनेवाले दोनों घोड़े मर गए। चंपानगर से फारबिसगंज मेला आने के समय सरकस-कंपनी के मैनेजर ने गाड़ीवान-पट्टी में ऐलान करके कहा - ‘सौ रूपया भाड़ा मिलेगा!’ एक-दो गाड़ीवान राजी हुए। लेकिन, उनके बैल बाघगाड़ी से दस हाथ दूर ही डर से डिकरने लगे - बाँ-आँ! रस्सी तुड़ा कर भागे। हिरामन ने अपने बैलों की पीठ सहलाते हुए कहा, ‘देखो भैयन, ऐसा मौका फिर हाथ न आएगा। यही है मौका अपनी गाड़ी बनवाने का। नहीं तो फिर आधेदारी। अरे पिंजड़े में बंद बाघ का क्या डर? मोरंग की तराई में दहाड़ते हुइ बाघों को देख चुके हो। फिर पीठ पर मैं तो हूँ।...’
गाड़ीवानों के दल में तालियाँ पटपटा उठीं थीं एक साथ। सभी की लाज रख ली हिरामन के बैलों ने। हुमक कर आगे बढ़ गए और बाघगाड़ी में जुट गए - एक-एक करके। सिर्फ दाहिने बैल ने जुतने के बाद ढेर-सा पेशाब किया। हिरामन ने दो दिन तक नाक से कपड़े की पट्टी नहीं खोली थी। बड़ी गद्दी के बडे सेठ जी की तरह नकबंधन लगाए बिना बघाइन गंध बरदास्त नहीं कर सकता कोई।
बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की है हिरामन ने। कभी ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में। आज रह-रह कर उसकी गाड़ी में चंपा का फूल महक उठता है। पीठ में गुदगुदी लगने पर वह अँगोछे से पीठ झाड़ लेता है।
हिरामन को लगता है, दो वर्ष से चंपानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न है। पिछले साल बाघगाड़ी जुट गई। नकद एक सौ रूपए भाड़े के अलावा बुताद, चाह-बिस्कुट और रास्ते-भर बंदर-भालू और जोकर का तमाशा देखा सो फोकट में!
और, इस बार यह जनानी सवारी। औरत है या चंपा का फूल! जब से गाड़ी मह-मह महक रही है।
कच्ची सड़क के एक छोटे-से खड्ड में गाड़ी का दाहिना पहिया बेमौके हिचकोला खा गया। हिरामन की गाड़ी से एक हल्की ‘सिस’ की आवाज आई। हिरामन ने दाहिने बैल को दुआली से पीटते हुए कहा, ‘साला! क्या समझता है, बोरे की लदनी है क्या?’
‘अहा! मारो मत!’
अनदेखी औरत की आवाज ने हिरामन को अचरज में डाल दिया। बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनूगिलासी बोली!


मथुरामोहन नौटंकी कंपनी में लैला बननेवाली हीराबाई का नाम किसने नहीं सुना होगा भला! लेकिन हिरामन की बात निराली है! उसने सात साल तक लगातार मेलों की लदनी लादी है, कभी नौटंकी-थियेटर या बायस्कोप सिनेमा नहीं देखा। लैला या हीराबाई का नाम भी उसने नहीं सुना कभी। देखने की क्या बात! सो मेला टूटने के पंद्रह दिन पहले आधी रात की बेला में काली ओढ़नी में लिपटी औरत को देख कर उसके मन में खटका अवश्य लगा था। बक्सा ढोनेवाले नौकर से गाड़ी-भाड़ा में मोल-मोलाई करने की कोशिश की तो ओढ़नीवाली ने सिर हिला कर मना कर दिया। हिरामन ने गाड़ी जोतते हुए नौकर से पूछा, ‘क्यों भैया, कोई चोरी चमारी का माल-वाल तो नहीं?’ हिरामन को फिर अचरज हुआ। बक्सा ढोनेवाले आदमी ने हाथ के इशारे से गाड़ी हाँकने को कहा और अँधेरे में गायब हो गया। हिरामन को मेले में तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी की काली साड़ी की याद आई थी।
ऐसे में कोई क्या गाड़ी हाँके!
एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है। दूसरे रह-रह कर चंपा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में। बैलों को डाँटो तो ‘इस-बिस’ करने लगती है उसकी सवारी। उसकी सवारी! औरत अकेली, तंबाकू बेचनेवाली बूढ़ी नहीं! आवाज सुनने के बाद वह बार-बार मुड़ कर टप्पर में एक नजर डाल देता है, अँगोछे से पीठ झाड़ता है। ...भगवान जाने क्या लिखा है इस बार उसकी किस्मत में! गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चाँदनी उसकी गाड़ी में समा गई। सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा। हिरामन को सबकुछ रहस्यमय - अजगुत-अजगुत - लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गाँव तक फैला हुआ मैदान... कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं?
हिरामन की सवारी ने करवट ली। चाँदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीखते-चीखते रूक गया - अरे बाप! ई तो परी है!
परी की आँखें खुल गईं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुँह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटा कर टि-टि-टि-टि आवाज निकालता है। हिरामन की जीभ न जाने कब से सूख कर लकड़ी-जैसी हो गई थी!
‘भैया, तुम्हारा नाम क्या है?’
हू-ब-हू फेनूगिलास! ...हिरामन के रोम-रोम बज उठे। मुँह से बोली नहीं निकली। उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं।
‘मेरा नाम! ...नाम मेरा है हिरामन!’
उसकी सवारी मुस्कराती है। ...मुस्कराहट में खुशबू है।
‘तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं। - मेरा नाम भी हीरा है।’
‘इस्स!’ हिरामन को परतीत नहीं, ‘मर्द और औरत के नाम में फर्क होता है।’
‘हाँ जी, मेरा नाम भी हीराबाई है।’
कहाँ हिरामन और कहाँ हीराबाई, बहुत फर्क है!
हिरामन ने अपने बैलों को झिड़की दी - ‘कान चुनिया कर गप सुनने से ही तीस कोस मंजिल कटेगी क्या? इस बाएँ नाटे के पेट में शैतानी भरी है।’ हिरामन ने बाएँ बैल को दुआली की हल्की झड़प दी।
‘मारो मत, धीरे धीरे चलने दो। जल्दी क्या है!’
हिरामन के सामने सवाल उपस्थित हुआ, वह क्या कह कर ‘गप’ करे हीराबाई से? ‘तोहे’ कहे या ‘अहाँ’? उसकी भाषा में बड़ों को ‘अहाँ’ अर्थात ‘आप’ कह कर संबोधित किया जाता है, कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता है, दिल-खोल गप तो गाँव की बोली में ही की जा सकती है किसी से।
आसिन-कातिक के भोर में छा जानेवाले कुहासे से हिरामन को पुरानी चिढ़ है। बहुत बार वह सड़क भूल कर भटक चुका है। किंतु आज के भोर के इस घने कुहासे में भी वह मगन है। नदी के किनारे धन-खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध आती है। पर्व-पावन के दिन गाँव में ऐसी ही सुगंध फैली रहती है। उसकी गाड़ी में फिर चंपा का फूल खिला। उस फूल में एक परी बैठी है। ...जै भगवती।
हिरामन ने आँख की कनखियों से देखा, उसकी सवारी ...मीता ...हीराबाई की आँखें गुजुर-गुजुर उसको हेर रही हैं। हिरामन के मन में कोई अजानी रागिनी बज उठी। सारी देह सिरसिरा रही है। बोला, ‘बैल को मारते हैं तो आपको बहुत बुरा लगता है?’
हीराबाई ने परख लिया, हिरामन सचमुच हीरा है।
चालीस साल का हट्टा-कट्टा, काला-कलूटा, देहाती नौजवान अपनी गाड़ी और अपने बैलों के सिवाय दुनिया की किसी और बात में विशेष दिलचस्पी नहीं लेता। घर में बड़ा भाई है, खेती करता है। बाल-बच्चेवाला आदमी है। हिरामन भाई से बढ़ कर भाभी की इज्जत करता है। भाभी से डरता भी है। हिरामन की भी शादी हुई थी, बचपन में ही गौने के पहले ही दुलहिन मर गई। हिरामन को अपनी दुलहिन का चेहरा याद नहीं। ...दूसरी शादी? दूसरी शादी न करने के अनेक कारण हैं। भाभी की जिद, कुमारी लड़की से ही हिरामन की शादी करवाएगी। कुमारी का मतलब हुआ पाँच-सात साल की लड़की। कौन मानता है सरधा-कानून? कोई लड़कीवाला दोब्याहू को अपनी लड़की गरज में पड़ने पर ही दे सकता है। भाभी उसकी तीन-सत्त करके बैठी है, सो बैठी है। भाभी के आगे भैया की भी नहीं चलती! ...अब हिरामन ने तय कर लिया है, शादी नहीं करेगा। कौन बलाय मोल लेने जाए! ...ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सब कुछ छूट जाए, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन।
हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी बहुत कम देखा है। पूछा, ‘आपका घर कौन जिल्ला में पड़ता है?’ कानपुर नाम सुनते ही जो उसकी हँसी छूटी, तो बैल भड़क उठे। हिरामन हँसते समय सिर नीचा कर लेता है। हँसी बंद होने पर उसने कहा, ‘वाह रे कानपुर! तब तो नाकपुर भी होगा? ‘और जब हीराबाई ने कहा कि नाकपुर भी है, तो वह हँसते-हँसते दुहरा हो गया।
‘वाह रे दुनिया! क्या-क्या नाम होता है! कानपुर, नाकपुर!’ हिरामन ने हीराबाई के कान के फूल को गौर से देखा। नाक की नकछवि के नग देख कर सिहर उठा - लहू की बूँद!
हिरामन ने हीराबई का नाम नहीं सुना कभी। नौटंकी कंपनी की औरत को वह बाईजी नहीं समझता है। ...कंपनी में काम करनेवाली औरतों को वह देख चुका है। सरकस कंपनी की मालकिन, अपनी दोनों जवान बेटियों के साथ बाघगाड़ी के पास आती थी, बाघ को चारा-पानी देती थी, प्यार भी करती थी खूब। हिरामन के बैलों को भी डबलरोटी-बिस्कुट खिलाया था बड़ी बेटी ने।
हिरामन होशियार है। कुहासा छँटते ही अपनी चादर से टप्पर में परदा कर दिया -‘बस दो घंटा! उसके बाद रास्ता चलना मुश्किल है। कातिक की सुबह की धूल आप बर्दास्त न कर सकिएगा। कजरी नदी के किनारे तेगछिया के पास गाड़ी लगा देंगे। दुपहरिया काट कर...।’
सामने से आती हुई गाड़ी को दूर से ही देख कर वह सतर्क हो गया। लीक और बैलों पर ध्यान लगा कर बैठ गया। राह काटते हुए गाड़ीवान ने पूछा, ‘मेला टूट रहा है क्या भाई?’
हिरामन ने जवाब दिया, वह मेले की बात नहीं जानता। उसकी गाड़ी पर ‘बिदागी’ (नैहर या ससुराल जाती हुई लड़की) है। न जाने किस गाँव का नाम बता दिया हिरामन ने।
‘छतापुर-पचीरा कहाँ है?’
‘कहीं हो, यह ले कर आप क्या करिएगा?’ हिरामन अपनी चतुराई पर हँसा। परदा डाल देने पर भी पीठ में गुदगुदी लगती है।
हिरामन परदे के छेद से देखता है। हीराबाई एक दियासलाई की डिब्बी के बराबर आईने में अपने दाँत देख रही है। ...मदनपुर मेले में एक बार बैलों को नन्हीं-चित्ती कौड़ियों की माला खरीद दी थी। हिरामन ने, छोटी-छोटी, नन्हीं-नन्हीं कौड़ियों की पाँत।
तेगछिया के तीनों पेड़ दूर से ही दिखलाई पड़ते हैं। हिरामन ने परदे को जरा सरकाते हुए कहा, ‘देखिए, यही है तेगछिया। दो पेड़ जटामासी बड़ है और एक उस फूल का क्या नाम है, आपके कुरते पर जैसा फूल छपा हुआ है, वैसा ही, खूब महकता है, दो कोस दूर तक गंध जाती है, उस फूल को खमीरा तंबाकू में डाल कर पीते भी हैं लोग।’
‘और उस अमराई की आड़ से कई मकान दिखाई पड़ते हैं, वहाँ कोई गाँव है या मंदिर?’
हिरामन ने बीड़ी सुलगाने के पहले पूछा, ‘बीड़ी पीएँ? आपको गंध तो नहीं लगेगी? ...वही है नामलगर ड्योढ़ी। जिस राजा के मेले से हम लोग आ रहे हैं, उसी का दियाद-गोतिया है। ...जा रे जमाना!’
हिरामन ने जा रे जमाना कह कर बात को चाशनी में डाल दिया। हीराबाई ने टप्पर के परदे को तिरछे खोंस दिया। हीराबाई की दंतपंक्ति।
‘कौन जमाना?’ ठुड्डी पर हाथ रख कर साग्रह बोली।
‘नामलगर ड्योढ़ी का जमाना! क्या था और क्या-से-क्या हो गया!’
हिरामन गप रसाने का भेद जानता है। हीराबाई बोली, ‘तुमने देखा था वह जमाना?’
‘देखा नहीं, सुना है। राज कैसे गया, बड़ी हैफवाली कहानी है। सुनते हैं, घर में देवता ने जन्म ले लिया। कहिए भला, देवता आखिर देवता है। है या नहीं? इंदरासन छोड़ कर मिरतूभुवन में जन्म ले ले तो उसका तेज कैसे सम्हाल सकता है कोई! सूरजमुखी फूल की तरह माथे के पास तेज खिला रहता। लेकिन नजर का फेर, किसी ने नहीं पहचाना। एक बार उपलैन में लाट साहब मय लाटनी के, हवागाड़ी से आए थे। लाट ने भी नहीं, पहचाना आखिर लटनी ने। सुरजमुखी तेज देखते ही बोल उठी - ए मैन राजा साहब, सुनो, यह आदमी का बच्चा नहीं है, देवता है।’
हिरामन ने लाटनी की बोली की नकल उतारते समय खूब डैम-फैट-लैट किया। हीराबाई दिल खोल कर हँसी। हँसते समय उसकी सारी देह दुलकती है।
हीराबाई ने अपनी ओढ़नी ठीक कर ली। तब हिरामन को लगा कि... लगा कि...
‘तब? उसके बाद क्या हुआ मीता?’
‘इस्स! कथा सुनने का बड़ा सौक है आपको? ...लेकिन, काला आदमी, राजा क्या महाराजा भी हो जाए, रहेगा काला आदमी ही। साहेब के जैसे अक्किल कहाँ से पाएगा! हँस कर बात उड़ा दी सभी ने। तब रानी को बार-बार सपना देने लगा देवता! सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो, नहीं, रहेंगे तुम्हारे यहाँ। इसके बाद देवता का खेल शुरू हुआ। सबसे पहले दोनों दंतार हाथी मरे, फिर घोड़ा, फिर पटपटांग...।’
‘पटपटांग क्या है?’
हिरामन का मन पल-पल में बदल रहा है। मन में सतरंगा छाता धीरे-धीरे खिल रहा है, उसको लगता है। ...उसकी गाड़ी पर देवकुल की औरत सवार है। देवता आखिर देवता है!
‘पटपटांग! धन-दौलत, माल-मवेसी सब साफ! देवता इंदरासन चला गया।’
हीराबाई ने ओझल होते हुए मंदिर के कँगूरे की ओर देख कर लंबी साँस ली।
‘लेकिन देवता ने जाते-जाते कहा, इस राज में कभी एक छोड़ कर दो बेटा नहीं होगा। धन हम अपने साथ ले जा रहे हैं, गुन छोड़ जाते हैं। देवता के साथ सभी देव-देवी चले गए, सिर्फ सरोसती मैया रह गई। उसी का मंदिर है।’
देसी घोड़े पर पाट के बोझ लादे हुए बनियों को आते देख कर हिरामन ने टप्पर के परदे को गिरा दिया। बैलों को ललकार कर बिदेसिया नाच का बंदनागीत गाने लगा -
‘जै मैया सरोसती, अरजी करत बानी,
हमरा पर होखू सहाई हे मैया, हमरा पर होखू सहाई!’
घोड़लद्दे बनियों से हिरामन ने हुलस कर पूछा, ‘क्या भाव पटुआ खरीदते हैं महाजन?’
लँगड़े घोड़ेवाले बनिए ने बटगमनी जवाब दिया – ‘नीचे सताइस-अठाइस, ऊपर तीस। जैसा माल, वैसा भाव।’
जवान बनिये ने पूछा, ‘मेले का क्या हालचाल है, भाई? कौन नौटंकी कंपनी का खेल हो रहा है, रौता कंपनी या मथुरामोहन?’
‘मेले का हाल मेलावाला जाने?’ हिरामन ने फिर छतापुर-पचीरा का नाम लिया।
सूरज दो बाँस ऊपर आ गया था। हिरामन अपने बैलों से बात करने लगा - ‘एक कोस जमीन! जरा दम बाँध कर चलो। प्यास की बेला हो गई न! याद है, उस बार तेगछिया के पास सरकस कंपनी के जोकर और बंदर नचानेवाला साहब में झगड़ा हो गया था। जोकरवा ठीक बंदर की तरह दाँत किटकिटा कर किक्रियाने लगा था, न जाने किस-किस देस-मुलुक के आदमी आते हैं!’
हिरामन ने फिर परदे के छेद से देखा, हीराबई एक कागज के टुकड़े पर आँख गड़ा कर बैठी है। हिरामन का मन आज हल्के सुर में बँधा है। उसको तरह-तरह के गीतों की याद आती है। बीस-पच्चीस साल पहले, बिदेसिया, बलवाही, छोकरा-नाचनेवाले एक-से-एक गजल खेमटा गाते थे। अब तो, भोंपा में भोंपू-भोंपू करके कौन गीत गाते हैं लोग! जा रे जमाना! छोकरा-नाच के गीत की याद आई हिरामन को -
‘सजनवा बैरी हो ग' य हमारो! सजनवा.....!
अरे, चिठिया हो ते सब कोई बाँचे, चिठिया हो तो....
हाय! करमवा, होय करमवा....

गाड़ी की बल्ली पर उँगलियों से ताल दे कर गीत को काट दिया हिरामन ने। छोकरा-नाच के मनुवाँ नटुवा का मुँह हीराबाई-जैसा ही था। ...क़हाँ चला गया वह जमाना? हर महीने गाँव में नाचनेवाले आते थे। हिरामन ने छोकरा-नाच के चलते अपनी भाभी की न जाने कितनी बोली-ठोली सुनी थी। भाई ने घर से निकल जाने को कहा था।
आज हिरामन पर माँ सरोसती सहाय हैं, लगता है। हीराबाई बोली, ‘वाह, कितना बढ़िया गाते हो तुम!’
हिरामन का मुँह लाल हो गया। वह सिर नीचा कर के हँसने लगा।
आज तेगछिया पर रहनेवाले महावीर स्वामी भी सहाय हैं हिरामन पर। तेगछिया के नीचे एक भी गाड़ी नहीं। हमेशा गाड़ी और गाड़ीवानों की भीड़ लगी रहती हैं यहाँ। सिर्फ एक साइकिलवाला बैठ कर सुस्ता रहा है। महावीर स्वामी को सुमर कर हिरामन ने गाड़ी रोकी। हीराबाई परदा हटाने लगी। हिरामन ने पहली बार आँखों से बात की हीराबाई से - साइकिलवाला इधर ही टकटकी लगा कर देख रहा है।
बैलों को खोलने के पहले बाँस की टिकटी लगा कर गाड़ी को टिका दिया। फिर साइकिलवाले की ओर बार-बार घूरते हुए पूछा, ‘कहाँ जाना है? मेला? कहाँ से आना हो रहा है? बिसनपुर से? बस, इतनी ही दूर में थसथसा कर थक गए? - जा रे जवानी!’
साइकिलवाला दुबला-पतला नौजवान मिनमिना कर कुछ बोला और बीड़ी सुलगा कर उठ खड़ा हुआ। हिरामन दुनिया-भर की निगाह से बचा कर रखना चाहता है हीराबाई को। उसने चारों ओर नजर दौड़ा कर देख लिया - कहीं कोई गाड़ी या घोड़ा नहीं।
कजरी नदी की दुबली-पतली धारा तेगछिया के पास आ कर पूरब की ओर मुड़ गई है। हीराबाई पानी में बैठी हुई भैसों और उनकी पीठ पर बैठे हुए बगुलों को देखती रही।
हिरामन बोला, ‘जाइए, घाट पर मुँह-हाथ धो आइए!’
हीराबाई गाड़ी से नीचे उतरी। हिरामन का कलेजा धड़क उठा। ...नहीं, नहीं! पाँव सीधे हैं, टेढ़े नहीं। लेकिन, तलुवा इतना लाल क्यों हैं? हीराबाई घाट की ओर चली गई, गाँव की बहू-बेटी की तरह सिर नीचा कर के धीरे-धीरे। कौन कहेगा कि कंपनी की औरत है! ...औरत नहीं, लड़की। शायद कुमारी ही है।
हिरामन टिकटी पर टिकी गाड़ी पर बैठ गया। उसने टप्पर में झाँक कर देखा। एक बार इधर-उधर देख कर हीराबाई के तकिए पर हाथ रख दिया। फिर तकिए पर केहुनी डाल कर झुक गया, झुकता गया। खुशबू उसकी देह में समा गई। तकिए के गिलाफ पर कढ़े फूलों को उँगलियों से छू कर उसने सूँघा, हाय रे हाय! इतनी सुगंध! हिरामन को लगा, एक साथ पाँच चिलम गाँजा फूँक कर वह उठा है। हीराबाई के छोटे आईने में उसने अपना मुँह देखा। आँखें उसकी इतनी लाल क्यों हैं?
हीराबाई लौट कर आई तो उसने हँस कर कहा, ‘अब आप गाड़ी का पहरा दीजिए, मैं आता हूँ तुरंत।’
हिरामन ने अपना सफरी झोली से सहेजी हुई गंजी निकाली। गमछा झाड़ कर कंधे पर लिया और हाथ में बालटी लटका कर चला। उसके बैलों ने बारी-बारी से ‘हुँक-हुँक’ करके कुछ कहा। हिरामन ने जाते-जाते उलट कर कहा, ‘हाँ,हाँ, प्यास सभी को लगी है। लौट कर आता हूँ तो घास दूँगा, बदमासी मत करो!’
बैलों ने कान हिलाए।
नहा-धो कर कब लौटा हिरामन, हीराबाई को नहीं मालूम। कजरी की धारा को देखते-देखते उसकी आँखों में रात की उचटी हुई नींद लौट आई थी। हिरामन पास के गाँव से जलपान के लिए दही-चूड़ा-चीनी ले आया है।
‘उठिए, नींद तोड़िए! दो मुट्ठी जलपान कर लीजिए!’
हीराबाई आँख खोल कर अचरज में पड़ गई। एक हाथ में मिट्टी के नए बरतन में दही, केले के पत्ते। दूसरे हाथ में बालटी-भर पानी। आँखों में आत्मीयतापूर्ण अनुरोध!
‘इतनी चीजें कहाँ से ले आए!’
‘इस गाँव का दही नामी है। ...चाह तो फारबिसगंज जा कर ही पाइएगा।
हिरामन की देह की गुदगुदी मिट गई। ‘हीराबाई ने कहा, ‘तुम भी पत्तल बिछाओ। ...क्यों? तुम नहीं खाओगे तो समेट कर रख लो अपनी झोली में। मैं भी नहीं खाऊँगी।’
‘इस्स!’ हिरामन लजा कर बोला, ‘अच्छी बात! आप खा लीजिए पहले!’
‘पहले-पीछे क्या? तुम भी बैठो।’
हिरामन का जी जुड़ा गया। हीराबाई ने अपने हाथ से उसका पत्तल बिछा दिया, पानी छींट दिया, चूड़ा निकाल कर दिया। इस्स! धन्न है, धन्न है! हिरामन ने देखा, भगवती मैया भोग लगा रही है। लाल होठों पर गोरस का परस! ...पहाड़ी तोते को दूध-भात खाते देखा है?

दिन ढल गया।
टप्पर में सोई हीराबाई और जमीन पर दरी बिछा कर सोए हिरामन की नींद एक ही साथ खुली। ...मेले की ओर जानेवाली गाड़ियाँ तेगछिया के पास रूकी हैं। बच्चे कचर-पचर कर रहे हैं।
हिरामन हड़बड़ा कर उठा। टप्पर के अंदर झाँक कर इशारे से कहा - दिन ढल गया! गाड़ी में बैलों को जोतते समय उसने गाड़ीवानों के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। गाड़ी हाँकते हुए बोला, ‘सिरपुर बाजार के इसपिताल की डागडरनी हैं। रोगी देखने जा रही हैं। पास ही कुड़मागाम।’
हीराबाई छत्तापुर-पचीरा का नाम भूल गई। गाड़ी जब कुछ दूर आगे बढ़ आई तो उसने हँस कर पूछा, ‘पत्तापुर-छपीरा?’
हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाए हिरामन के - ‘पत्तापुर-छपीरा! हा-हा। वे लोग छत्तापुर-पचीरा के ही गाड़ीवान थे, उनसे कैसे कहता! ही-ही-ही!’
हीराबाई मुस्कराती हुई गाँव की ओर देखने लगी।
सड़क तेगछिया गाँव के बीच से निकलती है। गाँव के बच्चों ने परदेवाली गाड़ी देखी और तालियाँ बजा-बजा कर रटी हुई पंक्तियाँ दुहराने लगे -
‘लाली-लाली डोलिया में
लाली रे दुलहिनिया
पान खाए...!’
हिरामन हँसा। ...दुलहिनिया ...लाली-लाली डोलिया! दुलहिनिया पान खाती है, दुलहा की पगड़ी में मुँह पोंछती है। ओ दुलहिनिया, तेगछिया गाँव के बच्चों को याद रखना। लौटती बेर गुड़ का लड्डू लेती आइयो। लाख बरिस तेरा हुलहा जीए! ...कितने दिनों का हौसला पूरा हुआ है हिरामन का! ऐसे कितने सपने देखे हैं उसने! वह अपनी दुलहिन को ले कर लौट रहा है। हर गाँव के बच्चे तालियाँ बजा कर गा रहे हैं। हर आँगन से झाँक कर देख रही हैं औरतें। मर्द लोग पूछते हैं, ‘कहाँ की गाड़ी है, कहाँ जाएगी? उसकी दुलहिन डोली का परदा थोड़ा सरका कर देखती है। और भी कितने सपने...
गाँव से बाहर निकल कर उसने कनखियों से टप्पर के अंदर देखा, हीराबाई कुछ सोच रही है। हिरामन भी किसी सोच में पड़ गया। थोड़ी देर के बाद वह गुनगुनाने लगा-
‘सजन रे झूठ मति बोलो, खुदा के पास जाना है।
नहीं हाथी, नहीं घोड़ा, नहीं गाड़ी -
वहाँ पैदल ही जाना है। सजन रे...।’
हीराबाई ने पूछा, ‘क्यों मीता? तुम्हारी अपनी बोली में कोई गीत नहीं क्या?’
हिरामन अब बेखटक हीराबाई की आँखों में आँखें डाल कर बात करता है। कंपनी की औरत भी ऐसी होती है? सरकस कंपनी की मालकिन मेम थी। लेकिन हीराबाई! गाँव की बोली में गीत सुनना चाहती है। वह खुल कर मुस्कराया – ‘गाँव की बोली आप समझिएगा?’
‘हूँ-ऊँ-ऊँ !’ हीराबाई ने गर्दन हिलाई। कान के झुमके हिल गए।
हिरामन कुछ देर तक बैलों को हाँकता रहा चुपचाप। फिर बोला, ‘गीत जरूर ही सुनिएगा? नहीं मानिएगा? इस्स! इतना सौक गाँव का गीत सुनने का है आपको! तब लीक छोड़ानी होगी। चालू रास्ते में कैसे गीत गा सकता है कोई!’
हिरामन ने बाएँ बैल की रस्सी खींच कर दाहिने को लीक से बाहर किया और बोला, ‘हरिपुर हो कर नहीं जाएँगे तब।’
चालू लीक को काटते देख कर हिरामन की गाड़ी के पीछेवाले गाड़ीवान ने चिल्ला कर पूछा, ‘काहे हो गाड़ीवान, लीक छोड़ कर बेलीक कहाँ उधर?’
हिरामन ने हवा में दुआली घुमाते हुए जवाब दिया - ‘कहाँ है बेलीकी? वह सड़क नननपुर तो नहीं जाएगी।’ फिर अपने-आप बड़बड़ाया, ‘इस मुलुक के लोगों की यही आदत बुरी है। राह चलते एक सौ जिरह करेंगे। अरे भाई, तुमको जाना है, जाओ। ...देहाती भुच्च सब!’
नननपुर की सड़क पर गाड़ी ला कर हिरामन ने बैलों की रस्सी ढीली कर दी। बैलों ने दुलकी चाल छोड़ कर कदमचाल पकड़ी।
हीराबाई ने देखा, सचमुच नननपुर की सड़क बड़ी सूनी है। हिरामन उसकी आँखों की बोली समझता है - ‘घबराने की बात नहीं। यह सड़क भी फारबिसगंज जाएगी, राह-घाट के लोग बहुत अच्छे हैं। ...एक घड़ी रात तक हम लोग पहुँच जाएँगे।’
हीराबाई को फारबिसगंज पहुँचने की जल्दी नहीं। हिरामन पर उसको इतना भरोसा हो गया कि डर-भय की कोई बात नहीं उठती है मन में। हिरामन ने पहले जी-भर मुस्करा लिया। कौन गीत गाए वह! हीराबाई को गीत और कथा दोनों का शौक है ...इस्स! महुआ घटवारिन? वह बोला, ‘अच्छा, जब आपको इतना सौक है तो सुनिए महुआ घटवारिन का गीत। इसमें गीत भी है, कथा भी है।’
...कितने दिनों के बाद भगवती ने यह हौसला भी पूरा कर दिया। जै भगवती! आज हिरामन अपने मन को खलास कर लेगा। वह हीराबाई की थमी हुई मुस्कुराहट को देखता रहा।
‘सुनिए! आज भी परमार नदी में महुआ घटवारिन के कई पुराने घाट हैं। इसी मुलुक की थी महुआ! थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवंती में एक थी। उसका बाप दारू-ताड़ी पी कर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली माँ साच्छात राकसनी! बहुत बड़ी नजर-चालक। रात में गाँजा-दारू-अफीम चुरा कर बेचनेवाले से ले कर तरह-तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान थी। सबसे घुट्टा-भर हेल-मेल। महुआ कुमारी थी। लेकिन काम कराते-कराते उसकी हड्डी निकाल दी थी राकसनी ने। जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई। एक रात की बात सुनिए!’
हिरामन ने धीरे-धीरे गुनगुना कर गला साफ किया -
हे अ-अ-अ- सावना-भादवा के - र- उमड़ल नदिया -गे-में-मैं-यो-ओ-ओ,
मैयो गे रैनि भयावनि-हे-ए-ए-ए;
तड़का-तड़के-धड़के करेज-आ-आ मोरा
कि हमहूँ जे बार-नान्ही रे-ए-ए ...।’
ओ माँ! सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्ही बच्ची, मेरा कलेजा धड़कता है। अकेली कैसे जाऊँ घाट पर? सो भी परदेशी राही-बटोही के पैर में तेल लगाने के लिए! सत-माँ ने अपनी बज्जर-किवाड़ी बंद कर ली। आसमान में मेघ हड़बड़ा उठे और हरहरा कर बरसा होने लगी। महुआ रोने लगी, अपनी माँ को याद करके। आज उसकी माँ रहती तो ऐसे दुरदिन में कलेजे से सटा कर रखती अपनी महुआ बेटी को। गे मइया, इसी दिन के लिए, यही दिखाने के लिए तुमने कोख में रखा था? महुआ अपनी माँ पर गुस्साई - क्यों वह अकेली मर गई, जी-भर कर कोसती हुई बोली।
हिरामन ने लक्ष्य किया, हीराबाई तकिए पर केहुनी गड़ा कर, गीत में मगन एकटक उसकी ओर देख रही है। ...खोई हुई सूरत कैसी भोली लगती है!
हिरामन ने गले में कँपकँपी पैदा की -
‘हूँ-ऊँ-ऊँ-रे डाइनियाँ मैयो मोरी-ई-ई,
नोनवा चटाई काहे नाहिं मारलि सौरी-घर-अ-अ।
एहि दिनवाँ खातिर छिनरो धिया
तेंहु पोसलि कि नेनू-दूध उगटन ..।
हिरामन ने दम लेते हुए पूछा, ‘भाखा भी समझती हैं कुछ या खाली गीत ही सुनती हैं?’
हीरा बोली, ‘समझती हूँ। उगटन माने उबटन - जो देह में लगाते हैं।’
हिरामन ने विस्मित हो कर कहा, ‘इस्स!’ ...सो रोने-धोने से क्या होए! सौदागर ने पूरा दाम चुका दिया था महुआ का। बाल पकड़ कर घसीटता हुआ नाव पर चढ़ा और माँझी को हुकुम दिया, नाव खोलो, पाल बाँधो! पालवाली नाव परवाली चिड़िया की तरह उड़ चली। रात-भर महुआ रोती-छटपटाती रही। सौदागर के नौकरों ने बहुत डराया-धमकाया - चुप रहो, नहीं तो उठा कर पानी में फेंक देंगे। बस, महुआ को बात सूझ गई। भोर का तारा मेघ की आड़ से जरा बाहर आया, फिर छिप गया। इधर महुआ भी छपाक से कूद पड़ी पानी में। ...सौदागर का एक नौकर महुआ को देखते ही मोहित हो गया था। महुआ की पीठ पर वह भी कूदा। उलटी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भरी भादों की नदी में। महुआ असल घटवारिन की बेटी थी। मछली भी भला थकती है पानी में! सफरी मछली-जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है। और उसके पीछे सौदागर का नौकर पुकार-पुकार कर कहता है - ‘महुआ जरा थमो, तुमको पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारा साथी हूँ। जिंदगी-भर साथ रहेंगे हम लोग।’ लेकिन...।
हिरामन का बहुत प्रिय गीत है यह। महुआ घटवारिन गाते समय उसके सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती है, अमावस्या की रात और घने बादलों में रह-रह कर बिजली चमक उठती है। उसी चमक में लहरों से लड़ती हुई बारी-कुमारी महुआ की झलक उसे मिल जाती है। सफरी मछली की चाल और तेज हो जाती है। उसको लगता है, वह खुद सौदागर का नौकर है। महुआ कोई बात नहीं सुनती। परतीत करती नहीं। उलट कर देखती भी नहीं। और वह थक गया है, तैरते-तैरते।
इस बार लगता है महुआ ने अपने को पकड़ा दिया। खुद ही पकड़ में आ गई है। उसने महुआ को छू लिया है, पा लिया है, उसकी थकन दूर हो गई है। पंद्रह-बीस साल तक उमड़ी हुई नदी की उलटी धारा में तैरते हुए उसके मन को किनारा मिल गया है। आनंद के आँसू कोई भी रोक नहीं मानते।
उसने हीराबाई से अपनी गीली आँखें चुराने की कोशिश की। किंतु हीरा तो उसके मन में बैठी न जाने कब से सब कुछ देख रही थी। हिरामन ने अपनी काँपती हुई बोली को काबू में ला कर बैलों को झिड़की दी - ‘इस गीत में न जाने क्या है कि सुनते ही दोनों थसथसा जाते हैं। लगता है, सौ मन बोझ लाद दिया किसी ने।’
हीराबाई लंबी साँस लेती है। हिरामन के अंग-अंग में उमंग समा जाती है।
‘तुम तो उस्ताद हो मीता!’
‘इस्स!’
आसिन-कातिक का सूरज दो बाँस दिन रहते ही कुम्हला जाता है। सूरज डूबने से पहले ही नननपुर पहुँचना है, हिरामन अपने बैलों को समझा रहा है - ‘कदम खोल कर और कलेजा बाँध कर चलो ...ए ...छि ...छि! बढ़के भैयन! ले-ले-ले-ए हे -य!’
नननपुर तक वह अपने बैलों को ललकारता रहा। हर ललकार के पहले वह अपने बैलों को बीती हुई बातों की याद दिलाता - याद नहीं, चौधरी की बेटी की बरात में कितनी गाड़ियाँ थीं, सबको कैसे मात किया था! हाँ, वह कदम निकालो। ले-ले-ले! नननपुर से फारबिसगंज तीन कोस! दो घंटे और!
नननपुर के हाट पर आजकल चाय भी बिकने लगी है। हिरामन अपने लोटे में चाय भर कर ले आया। ...कंपनी की औरत जानता है वह, सारा दिन, घड़ी घड़ी भर में चाय पीती रहती है। चाय है या जान!
हीरा हँसते-हँसते लोट-पोट हो रही है - ‘अरे, तुमसे किसने कह दिया कि क्वारे आदमी को चाय नहीं पीनी चाहिए?’
हिरामन लजा गया। क्या बोले वह? ...लाज की बात। लेकिन वह भोग चुका है एक बार। सरकस कंपनी की मेम के हाथ की चाय पी कर उसने देख लिया है। बडी गर्म तासीर!
‘पीजिए गुरू जी!’ हीरा हँसी!
‘इस्स!’
नननपुर हाट पर ही दीया-बाती जल चुकी थी। हिरामन ने अपना सफरी लालटेन जला कर पिछवा में लटका दिया। आजकल शहर से पाँच कोस दूर के गाँववाले भी अपने को शहरू समझने लगे हैं। बिना रोशनी की गाड़ी को पकड़ कर चालान कर देते हैं। बारह बखेड़ा !
‘आप मुझे गुरू जी मत कहिए।’
‘तुम मेरे उस्ताद हो। हमारे शास्तर में लिखा हुआ है, एक अच्छर सिखानेवाला भी गुरू और एक राग सिखानेवाला भी उस्ताद!’
‘इस्स! सास्तर-पुरान भी जानती हैं! ...मैंने क्या सिखाया? मैं क्या ...?’
हीरा हँस कर गुनगुनाने लगी - ‘हे-अ-अ-अ- सावना-भादवा के-र ...!’
हिरामन अचरज के मारे गूँगा हो गया। ...इस्स! इतना तेज जेहन! हू-ब-हू महुआ घटवारिन!
गाड़ी सीताधार की एक सूखी धारा की उतराई पर गड़गड़ा कर नीचे की ओर उतरी। हीराबाई ने हिरामन का कंधा धर लिया एक हाथ से। बहुत देर तक हिरामन के कंधे पर उसकी उँगलियाँ पड़ी रहीं। हिरामन ने नजर फिरा कर कंधे पर केंद्रित करने की कोशिश की, कई बार। गाड़ी चढ़ाई पर पहुँची तो हीरा की ढीली उँगलियाँ फिर तन गईं।
सामने फारबिसगंज शहर की रोशनी झिलमिला रही है। शहर से कुछ दूर हट कर मेले की रोशनी ...टप्पर में लटके लालटेन की रोशनी में छाया नाचती है आसपास।... डबडबाई आँखों से, हर रोशनी सूरजमुखी फूल की तरह दिखाई पड़ती है।


फारबिसगंज तो हिरामन का घर-दुआर है!
न जाने कितनी बार वह फारबिसगंज आया है। मेले की लदनी लादी है। किसी औरत के साथ? हाँ, एक बार। उसकी भाभी जिस साल आई थी गौने में। इसी तरह तिरपाल से गाड़ी को चारों ओर से घेर कर बासा बनाया गया था।
हिरामन अपनी गाड़ी को तिरपाल से घेर रहा है, गाड़ीवान-पट्टी में। सुबह होते ही रौता नौटंकी कंपनी के मैनेजर से बात करके भरती हो जाएगी हीराबाई। परसों मेला खुल रहा है। इस बार मेले में पालचट्टी खूब जमी है। ...बस, एक रात। आज रात-भर हिरामन की गाड़ी में रहेगी वह। ...हिरामन की गाड़ी में नहीं, घर में!
‘कहाँ की गाड़ी है? ...कौन, हिरामन! किस मेले से? किस चीज की लदनी है?’
गाँव-समाज के गाड़ीवान, एक-दूसरे को खोज कर, आसपास गाड़ी लगा कर बासा डालते हैं। अपने गाँव के लालमोहर, धुन्नीराम और पलटदास वगैरह गाड़ीवानों के दल को देख कर हिरामन अचकचा गया। उधर पलटदास टप्पर में झाँक कर भड़का। मानो बाघ पर नजर पड़ गई। हिरामन ने इशारे से सभी को चुप किया। फिर गाड़ी की ओर कनखी मार कर फुसफुसाया - ‘चुप! कंपनी की औरत है, नौटंकी कंपनी की।’
‘कंपनी की -ई-ई-ई!’
‘ ? ? ...? ? ...!
एक नहीं, अब चार हिरामन! चारों ने अचरज से एक-दूसरे को देखा। कंपनी नाम में कितना असर है! हिरामन ने लक्ष्य किया, तीनों एक साथ सटक-दम हो गए। लालमोहर ने जरा दूर हट कर बतियाने की इच्छा प्रकट की, इशारे से ही। हिरामन ने टप्पर की ओर मुँह करके कहा, ‘होटिल तो नहीं खुला होगा कोई, हलवाई के यहाँ से पक्की ले आवें!’
‘हिरामन, जरा इधर सुनो। ...मैं कुछ नहीं खाऊँगी अभी। लो, तुम खा आओ।’
‘क्या है, पैसा? इस्स!’ ...पैसा दे कर हिरामन ने कभी फारबिसगंज में कच्ची-पक्की नहीं खाई। उसके गाँव के इतने गाड़ीवान हैं, किस दिन के लिए? वह छू नहीं सकता पैसा। उसने हीराबाई से कहा, ‘बेकार, मेला-बाजार में हुज्जत मत कीजिए। पैसा रखिए।’ मौका पा कर लालमोहर भी टप्पर के करीब आ गया। उसने सलाम करते हुए कहा, ‘चार आदमी के भात में दो आदमी खुसी से खा सकते हैं। बासा पर भात चढा हुआ है। हें-हें-हें! हम लोग एकहि गाँव के हैं। गौंवाँ-गिरामिन के रहते होटिल और हलवाई के यहाँ खाएगा हिरामन?’
हिरामन ने लालमोहर का हाथ टीप दिया - ‘बेसी भचर-भचर मत बको।’
गाड़ी से चार रस्सी दूर जाते-जाते धुन्नीराम ने अपने कुलबुलाते हुए दिल की बात खोल दी - ‘इस्स! तुम भी खूब हो हिरामन! उस साल कंपनी का बाघ, इस बार कंपनी की जनानी!’
हिरामन ने दबी आवाज में कहा, ‘भाई रे, यह हम लोगों के मुलुक की जनाना नहीं कि लटपट बोली सुन कर भी चुप रह जाए। एक तो पच्छिम की औरत, तिस पर कंपनी की!’
धुन्नीराम ने अपनी शंका प्रकट की - ‘लेकिन कंपनी में तो सुनते हैं पतुरिया रहती है।’
‘धत्!’ सभी ने एक साथ उसको दुरदुरा दिया, ‘कैसा आदमी है! पतुरिया रहेगी कंपनी में भला! देखो इसकी बुद्धि। सुना है, देखा तो नहीं है कभी!’
धुन्नीराम ने अपनी गलती मान ली। पलटदास को बात सूझी - ‘हिरामन भाई, जनाना जात अकेली रहेगी गाड़ी पर? कुछ भी हो, जनाना आखिर जनाना ही है। कोई जरूरत ही पड़ जाए!’
यह बात सभी को अच्छी लगी। हिरामन ने कहा, ‘बात ठीक है। पलट, तुम लौट जाओ, गाड़ी के पास ही रहना। और देखो, गपशप जरा होशियारी से करना। हाँ!’
हिरामन की देह से अतर-गुलाब की खुशबू निकलती है। हिरामन करमसाँड़ है। उस बार महीनों तक उसकी देह से बघाइन गंध नहीं गई। लालमोहर ने हिरामन की गमछी सूँघ ली - ‘ए-ह!’
हिरामन चलते-चलते रूक गया - ‘क्या करें लालमोहर भाई, जरा कहो तो! बड़ी जिद्द करती है, कहती है, नौटंकी देखना ही होगा।’
‘फोकट में ही?’
‘और गाँव नहीं पहुँचेगी यह बात?’
हिरामन बोला, ‘नहीं जी! एक रात नौटंकी देख कर जिंदगी-भर बोली-ठोली कौन सुने? ...देसी मुर्गी विलायती चाल!’
धुन्नीराम ने पूछा, ‘फोकट में देखने पर भी तुम्हारी भौजाई बात सुनाएगी?’
लालमोहर के बासा के बगल में, एक लकड़ी की दुकान लाद कर आए हुए गाड़ीवानों का बासा है। बासा के मीर-गाड़ीवान मियाँजान बूढ़े ने सफरी गुड़गुड़ी पीते हुए पूछा, ‘क्यों भाई, मीनाबाजार की लदनी लाद कर कौन आया है?’
मीनाबाजार! मीनाबाजार तो पतुरिया-पट्टी को कहते हैं। ...क्या बोलता है यह बूढ़ा मियाँ? लालमोहर ने हिरामन के कान में फुसफुसा कर कहा, ‘तुम्हारी देह मह-मह-महकती है। सच!’
लहसनवाँ लालमोहर का नौकर-गाड़ीवान है। उम्र में सबसे छोटा है। पहली बार आया है तो क्या? बाबू-बबुआइनों के यहाँ बचपन से नौकरी कर चुका है। वह रह-रह कर वातावरण में कुछ सूँघता है, नाक सिकोड़ कर। हिरामन ने देखा, लहसनवाँ का चेहरा तमतम गया है। कौन आ रहा है धड़धड़ाता हुआ? - ‘कौन, पलटदास? क्या है?’
पलटदास आ कर खड़ा हो गया चुपचाप। उसका मुँह भी तमतमाया हुआ था। हिरामन ने पूछा, ‘क्या हुआ? बोलते क्यों नहीं?’
क्या जवाब दे पलटदास! हिरामन ने उसको चेतावनी दे दी थी, गपशप होशियारी से करना। वह चुपचाप गाड़ी की आसनी पर जा कर बैठ गया, हिरामन की जगह पर। हीराबाई ने पूछा, ‘तुम भी हिरामन के साथ हो?’ पलटदास ने गरदन हिला कर हामी भरी। हीराबाई फिर लेट गई। ...चेहरा-मोहरा और बोली-बानी देख-सुन कर, पलटदास का कलेजा काँपने लगा, न जाने क्यों। हाँ! रामलीला में सिया सुकुमारी इसी तरह थकी लेटी हुई थी। जै! सियावर रामचंद्र की जै! ...पलटदास के मन में जै-जैकार होने लगा। वह दास-वैस्नव है, कीर्तनिया है। थकी हुई सीता महारानी के चरण टीपने की इच्छा प्रकट की उसने, हाथ की उँगलियों के इशारे से, मानो हारमोनियम की पटरियों पर नचा रहा हो। हीराबाई तमक कर बैठ गई - ‘अरे, पागल है क्या? जाओ, भागो!...’
पलटदास को लगा, गुस्साई हुई कंपनी की औरत की आँखों से चिनगारी निकल रही है - छटक्-छटक्! वह भागा।
पलटदास क्या जवाब दे! वह मेला से भी भागने का उपाय सोच रहा है। बोला, ‘कुछ नहीं। हमको व्यापारी मिल गया। अभी ही टीसन जा कर माल लादना है। भात में तो अभी देर हैं। मैं लौट आता हूँ तब तक।’
खाते समय धुन्नीराम और लहसनवाँ ने पलटदास की टोकरी-भर निंदा की। छोटा आदमी है। कमीना है। पैसे-पैसे का हिसाब जोड़ता है। खाने-पीने के बाद लालमोहर के दल ने अपना बासा तोड़ दिया। धुन्नी और लहसनवाँ गाड़ी जोत कर हिरामन के बासा पर चले, गाड़ी की लीक धर कर। हिरामन ने चलते-चलते रूक कर, लालमोहर से कहा, ‘जरा मेरे इस कंधे को सूँघो तो। सूँघ कर देखो न?’
लालमोहर ने कंधा सूँघ कर आँखे मूँद लीं। मुँह से अस्फुट शब्द निकला – ए - ह!’
हिरामन ने कहा, ‘जरा-सा हाथ रखने पर इतनी खुशबू! ...समझे!’ लालमोहर ने हिरामन का हाथ पकड़ लिया - ‘कंधे पर हाथ रखा था, सच? ...सुनो हिरामन, नौटंकी देखने का ऐसा मौका फिर कभी हाथ नहीं लगेगा। हाँ!’
‘तुम भी देखोगे?’ लालमोहर की बत्तीसी चौराहे की रोशनी में झिलमिला उठी।
बासा पर पहुँच कर हिरामन ने देखा, टप्पर के पास खड़ा बतिया रहा है कोई, हीराबाई से। धुन्नी और लहसनवाँ ने एक ही साथ कहा, ‘कहाँ रह गए पीछे? बहुत देर से खोज रही है कंपनी...!’
हिरामन ने टप्पर के पास जा कर देखा - अरे, यह तो वही बक्सा ढोनेवाला नौकर, जो चंपानगर मेले में हीराबाई को गाड़ी पर बिठा कर अँधेरे में गायब हो गया था।
‘आ गए हिरामन! अच्छी बात, इधर आओ। ...यह लो अपना भाड़ा और यह लो अपनी दच्छिना! पच्चीस-पच्चीस, पचास।’

हिरामन को लगा, किसी ने आसमान से धकेल कर धरती पर गिरा दिया। किसी ने क्यों, इस बक्सा ढोनेवाले आदमी ने। कहाँ से आ गया? उसकी जीभ पर आई हुई बात जीभ पर ही रह गई ...इस्स! दच्छिना! वह चुपचाप खड़ा रहा।
हीराबाई बोली, ‘लो पकड़ो! और सुनो, कल सुबह रौता कंपनी में आ कर मुझसे भेंट करना। पास बनवा दूँगी। ...बोलते क्यों नहीं?’
लालमोहर ने कहा, ‘इलाम-बकसीस दे रही है मालकिन, ले लो हिरामन! हिरामन ने कट कर लालमोहर की ओर देखा। ...बोलने का जरा भी ढंग नहीं इस लालमोहरा को।’
धुन्नीराम की स्वगतोक्ति सभी ने सुनी, हीराबाई ने भी - गाड़ी-बैल छोड़ कर नौटंकी कैसे देख सकता है कोई गाड़ीवान, मेले में?
हिरामन ने रूपया लेते हुए कहा, ‘क्या बोलेंगे!’ उसने हँसने की चेष्टा की। कंपनी की औरत कंपनी में जा रही है। हिरामन का क्या! बक्सा ढोनेवाला रास्ता दिखाता हुआ आगे बढ़ा - ‘इधर से।’ हीराबाई जाते-जाते रूक गई। हिरामन के बैलों को संबोधित करके बोली, ‘अच्छा, मैं चली भैयन।’
बैलों ने, भैया शब्द पर कान हिलाए।
‘? ? ..!’


‘भा-इ-यो, आज रात! दि रौता संगीत कंपनी के स्टेज पर! गुलबदन देखिए, गुलबदन! आपको यह जान कर खुशी होगी कि मथुरामोहन कंपनी की मशहूर एक्ट्रेस मिस हीरादेवी, जिसकी एक-एक अदा पर हजार जान फिदा हैं, इस बार हमारी कंपनी में आ गई हैं। याद रखिए। आज की रात। मिस हीरादेवी गुलबदन...!’
नौटंकीवालों के इस एलान से मेले की हर पट्टी में सरगर्मी फैल रही है। ...हीराबाई? मिस हीरादेवी? लैला, गुलबदन...? फिलिम एक्ट्रेस को मात करती है।
तेरी बाँकी अदा पर मैं खुद हूँ फिदा,
तेरी चाहत को दिलबर बयाँ क्या करूँ!
यही ख्वाहिश है कि इ-इ-इ तू मुझको देखा करे
और दिलोजान मैं तुमको देखा करूँ।
...किर्र-र्र-र्र-र्र ...कडड़ड़ड़डड़ड़र्र-ई-घन-घन-धड़ाम।
हर आदमी का दिल नगाड़ा हो गया है।
लालमोहर दौड़ता-हाँफता बासा पर आया - ‘ऐ, ऐ हिरामन, यहाँ क्या बैठे हो, चल कर देखो जै-जैकार हो रहा है! मय बाजा-गाजा, छापी-फाहरम के साथ हीराबाई की जै-जै कर रहा हूँ।’
हिरामन हड़बड़ा कर उठा। लहसनवाँ ने कहा, ‘धुन्नी काका, तुम बासा पर रहो, मैं भी देख आऊँ।’
धुन्नी की बात कौन सुनता है। तीनों जन नौटंकी कंपनी की एलानिया पार्टी के पीछे-पीछे चलने लगे। हर नुक्कड़ पर रूक कर, बाजा बंद कर के एलान किया जाना है। एलान के हर शब्द पर हिरामन पुलक उठता है। हीराबाई का नाम, नाम के साथ अदा-फिदा वगैरह सुन कर उसने लालमोहर की पीठ थपथपा दी - ‘धन्न है, धन्न है! है या नहीं?’
लालमोहर ने कहा, ‘अब बोलो! अब भी नौटंकी नहीं देखोगे?’ सुबह से ही धुन्नीराम और लालमोहर समझा रहे थे, समझा कर हार चुके थे - ‘कंपनी में जा कर भेंट कर आओ। जाते-जाते पुरसिस कर गई है।’ लेकिन हिरामन की बस एक बात - ‘धत्त, कौन भेंट करने जाए! कंपनी की औरत, कंपनी में गई। अब उससे क्या लेना-देना! चीन्हेगी भी नहीं!’
वह मन-ही-मन रूठा हुआ था। एलान सुनने के बाद उसने लालमोहर से कहा, ‘जरूर देखना चाहिए, क्यों लालमोहर?’
दोनों आपस में सलाह करके रौता कंपनी की ओर चले। खेमे के पास पहुँच कर हिरामन ने लालमोहर को इशारा किया, पूछताछ करने का भार लालमोहर के सिर। लालमोहर कचराही बोलना जानता है। लालमोहर ने एक काले कोटवाले से कहा, ‘बाबू साहेब, जरा सुनिए तो!’
काले कोटवाले ने नाक-भौं चढ़ा कर कहा - ‘क्या है? इधर क्यों?’
लालमोहर की कचराही बोली गड़बड़ा गई - तेवर देख कर बोला, ‘गुलगुल ..नहीं-नहीं ...बुल-बुल ...नहीं ...।’
हिरामन ने झट-से सम्हाल दिया - ‘हीरादेवी किधर रहती है, बता सकते हैं?’ उस आदमी की आँखें हठात लाल हो गई। सामने खड़े नेपाली सिपाही को पुकार कर कहा, ‘इन लोगों को क्यों आने दिया इधर?’
‘हिरामन!’ ...वही फेनूगिलासी आवाज किधर से आई? खेमे के परदे को हटा कर हीराबाई ने बुलाया - यहाँ आ जाओ, अंदर! ...देखो, बहादुर! इसको पहचान लो। यह मेरा हिरामन है। समझे?’
नेपाली दरबान हिरामन की ओर देख कर जरा मुस्कराया और चला गया। काले कोटवाले से जा कर कहा, ‘हीराबाई का आदमी है। नहीं रोकने बोला!’
लालमोहर पान ले आया नेपाली दरबान के लिए - ‘खाया जाए!’
‘इस्स! एक नहीं, पाँच पास। चारों अठनिया! बोली कि जब तक मेले में हो, रोज रात में आ कर देखना। सबका खयाल रखती है। बोली कि तुम्हारे और साथी है, सभी के लिए पास ले जाओ। कंपनी की औरतों की बात निराली होती है! है या नहीं?’
लालमोहर ने लाल कागज के टुकड़ों को छू कर देखा - ‘पा-स! वाह रे हिरामन भाई! ...लेकिन पाँच पास ले कर क्या होगा? पलटदास तो फिर पलट कर आया ही नहीं है अभी तक।’
हिरामन ने कहा, ‘जाने दो अभागे को। तकदीर में लिखा नहीं। ...हाँ, पहले गुरूकसम खानी होगी सभी को, कि गाँव-घर में यह बात एक पंछी भी न जान पाए।’
लालमोहर ने उत्तेजित हो कर कहा, ‘कौन साला बोलेगा, गाँव में जा कर? पलटा ने अगर बदनामी की तो दूसरी बार से फिर साथ नहीं लाऊँगा।’
हिरामन ने अपनी थैली आज हीराबाई के जिम्मे रख दी है। मेले का क्या ठिकाना! किस्म-किस्म के पाकिटकाट लोग हर साल आते हैं। अपने साथी-संगियों का भी क्या भरोसा! हीराबाई मान गई। हिरामन के कपड़े की काली थैली को उसने अपने चमड़े के बक्स में बंद कर दिया। बक्से के ऊपर भी कपड़े का खोल और अंदर भी झलमल रेशमी अस्तर! मन का मान-अभिमान दूर हो गया।
लालमोहर और धुन्नीराम ने मिल कर हिरामन की बुद्धि की तारीफ की, उसके भाग्य को सराहा बार-बार। उसके भाई और भाभी की निंदा की, दबी जबान से। हिरामन के जैसा हीरा भाई मिला है, इसीलिए! कोई दूसरा भाई होता तो...।’
लहसनवाँ का मुँह लटका हुआ है। एलान सुनते-सुनते न जाने कहाँ चला गया कि घड़ी-भर साँझ होने के बाद लौटा है। लालमोहर ने एक मालिकाना झिड़की दी है, गाली के साथ - ‘सोहदा कहीं का!’
धुन्नीराम ने चूल्हे पर खिचड़ी च्ढ़ाते हुए कहा, ‘पहले यह फैसला कर लो कि गाड़ी के पास कौन रहेगा!’
‘रहेगा कौन, यह लहसनवाँ कहाँ जाएगा?’
लहसनवाँ रो पड़ा - ‘ऐ-ए-ए मालिक, हाथ जोड़ते हैं। एक्को झलक! बस, एक झलक!’
हिरामन ने उदारतापूर्वक कहा, ‘अच्छा-अच्छा, एक झलक क्यों, एक घंटा देखना। मैं आ जाऊँगा।’

नौटंकी शुरू होने के दो घंटे पहले ही नगाड़ा बजना शुरू हो जाता है। और नगाड़ा शुरू होते ही लोग पतिंगों की तरह टूटने लगते हैं। टिकटघर के पास भीड़ देख कर हिरामन को बड़ी हँसी आई - ‘लालमोहर, उधर देख, कैसी धक्कमधुक्की कर रहे हैं लोग!’
हिरामन भाय!’
‘कौन, पलटदास! कहाँ की लदनी लाद आए?’ लालमोहर ने पराए गाँव के आदमी की तरह पूछा।
पलटदास ने हाथ मलते हुए माफी माँगी - ‘कसूरबार हैं, जो सजा दो तुम लोग, सब मंजूर है। लेकिन सच्ची बात कहें कि सिया सुकुमारी...।’
हिरामन के मन का पुरइन नगाड़े के ताल पर विकसित हो चुका है। बोला, ‘देखो पलटा, यह मत समझना कि गाँव-घर की जनाना है। देखो, तुम्हारे लिए भी पास दिया है, पास ले लो अपना, तमासा देखो।’
लालमोहर ने कहा, ‘लेकिन एक सर्त पर पास मिलेगा। बीच-बीच में लहसनवाँ को भी...।’
पलटदास को कुछ बताने की जरूरत नहीं। वह लहसनवाँ से बातचीत कर आया है अभी।
लालमोहर ने दूसरी शर्त सामने रखी - ‘गाँव में अगर यह बात मालूम हुई किसी तरह...!’
‘राम-राम!’ दाँत से जीभ को काटते हुए कहा पलटदास ने।
पलटदास ने बताया - ‘अठनिया फाटक इधर है!’ फाटक पर खड़े दरबान ने हाथ से पास ले कर उनके चेहरे को बारी-बारी से देखा, बोला, ‘यह तो पास है। कहाँ से मिला?’
अब लालमोहर की कचराही बोली सुने कोई! उसके तेवर देख कर दरबान घबरा गया - ‘मिलेगा कहाँ से? अपनी कंपनी से पूछ लीजिए जा कर। चार ही नहीं, देखिए एक और है।’ जेब से पाँचवा पास निकाल कर दिखाया लालमोहर ने।
एक रूपयावाले फाटक पर नेपाली दरबान खड़ा था। हिरामन ने पुकार कर कहा, ‘ए सिपाही दाजू, सुबह को ही पहचनवा दिया और अभी भूल गए?’
नेपाली दरबान बोला, ‘हीराबाई का आदमी है सब। जाने दो। पास हैं तो फिर काहे को रोकता है?’
अठनिया दर्जा!
तीनों ने ‘कपड़घर’ को अंदर से पहली बार देखा। सामने कुरसी-बेंचवाले दर्जे हैं। परदे पर राम-बन-गमन की तसवीर है। पलटदास पहचान गया। उसने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, परदे पर अंकित रामसिया सुकुमारी और लखनलला को। ‘जै हो, जै हो!’ पलटदास की आँखें भर आई।
हिरामन ने कहा, ‘लालमोहर, छापी सभी खड़े हैं या चल रहे हैं?’
लालमोहर अपने बगल में बैठे दर्शकों से जान-पहचान कर चुका है। उसने कहा, ‘खेला अभी परदा के भीतर है। अभी जमिनका दे रहा है, लोग जमाने के लिए।’

पलटदास ढोलक बजाना जानता है, इसलिए नगाड़े के ताल पर गरदन हिलाता है और दियासलाई पर ताल काटता है। बीड़ी आदान-प्रदान करके हिरामन ने भी एकाध जान-पहचान कर ली। लालमोहर के परिचित आदमी ने चादर से देह ढकते हुए कहा, ‘नाच शुरू होने में अभी देर है, तब तक एक नींद ले लें। ...सब दर्जा से अच्छा अठनिया दर्जा। सबसे पीछे सबसे ऊँची जगह पर है। जमीन पर गरम पुआल! हे-हे! कुरसी-बेंच पर बैठ कर इस सरदी के मौसम में तमासा देखनेवाले अभी घुच-घुच कर उठेंगे चाह पीने।’
उस आदमी ने अपने संगी से कहा, ‘खेला शुरू होने पर जगा देना। नहीं-नहीं, खेला शुरू होने पर नहीं, हिरिया जब स्टेज पर उतरे, हमको जगा देना।’
हिरामन के कलेजे में जरा आँच लगी। ...हिरिया! बड़ा लटपटिया आदमी मालूम पड़ता है। उसने लालमोहर को आँख के इशारे से कहा, ‘इस आदमी से बतियाने की जरूरत नहीं।’
घन-घन-घन-धड़ाम! परदा उठ गया। हे-ए, हे-ए, हीराबाई शुरू में ही उतर गई स्टेज पर! कपड़घर खचमखच भर गया है। हिरामन का मुँह अचरज में खुल गया। लालमोहर को न जाने क्यों ऐसी हँसी आ रही है। हीराबाई के गीत के हर पद पर वह हँसता है, बेवजह।
गुलबदन दरबार लगा कर बैठी है। एलान कर रही है, जो आदमी तख्तहजारा बना कर ला देगा, मुँहमाँगी चीज इनाम में दी जाएगी। ...अजी, है कोई ऐसा फनकार, तो हो जाए तैयार, बना कर लाए तख्तहजारा-आ! किड़किड़-किर्रि-! अलबत्त नाचती है! क्या गला है! मालूम है, यह आदमी कहता है कि हीराबाई पान-बीड़ी, सिगरेट-जर्दा कुछ नहीं खाती! ठीक कहता है। बड़ी नेमवाली रंडी है। कौन कहता है कि रंडी है! दाँत में मिस्सी कहाँ है। पौडर से दाँत धो लेती होगी। हरगिज नहीं। कौन आदमी है, बात की बेबात करता है! कंपनी की औरत को पतुरिया कहता है! तुमको बात क्यों लगी? कौन है रंडी का भड़वा? मारो साले को! मारो! तेरी...।
हो-हल्ले के बीच, हिरामन की आवाज कपड़घर को फाड़ रही है – ‘आओ, एक-एक की गरदन उतार लेंगे।’
लालमोहर दुलाली से पटापट पीटता जा रहा है सामने के लोगों को। पलटदास एक आदमी की छाती पर सवार है - ‘साला, सिया सुकुमारी को गाली देता है, सो भी मुसलमान हो कर?’
धुन्नीराम शुरू से ही चुप था। मारपीट शुरू होते ही वह कपड़घर से निकल कर बाहर भागा।
काले कोटवाले नौटंकी के मैनेजर नेपाली सिपाही के साथ दौड़े आए। दारोगा साहब ने हंटर से पीट-पाट शुरू की। हंटर खा कर लालमोहर तिलमिला उठा, कचराही बोली में भाषण देने लगा - ‘दारोगा साहब, मारते हैं, मारिए। कोई हर्ज नहीं। लेकिन यह पास देख लीजिए, एक पास पाकिट में भी हैं। देख सकते हैं हुजूर। टिकट नहीं, पास! ...तब हम लोगों के सामने कंपनी की औरत को कोई बुरी बात करे तो कैसे छोड़ देंगे?’
कंपनी के मैनेजर की समझ में आ गई सारी बात। उसने दारोगा को समझाया - ‘हुजूर, मैं समझ गया। यह सारी बदमाशी मथुरामोहन कंपनीवालों की है। तमाशे में झगड़ा खड़ा करके कंपनी को बदनाम ...नहीं हुजूर, इन लोगों को छोड़ दीजिए, हीराबाई के आदमी हैं। बेचारी की जान खतरे में हैं। हुजूर से कहा था न!’
हीराबाई का नाम सुनते ही दारोगा ने तीनों को छोड़ दिया। लेकिन तीनों की दुआली छीन ली गई। मैनेजर ने तीनों को एक रूपएवाले दरजे में कुरसी पर बिठाया -‘आप लोग यहीं बैठिए। पान भिजवा देता हूँ।’ कपड़घर शांत हुआ और हीराबाई स्टेज पर लौट आई।
नगाड़ा फिर घनघना उठा।
थोड़ी देर बाद तीनों को एक ही साथ धुन्नीराम का खयाल हुआ - अरे, धुन्नीराम कहाँ गया?
‘मालिक, ओ मालिक!’ लहसनवाँ कपड़घर से बाहर चिल्ला कर पुकार रहा है, ‘ओ लालमोहर मा-लि-क...!’
लालमोहर ने तारस्वर में जवाब दिया - ‘इधर से, उधर से! एकटकिया फाटक से।’ सभी दर्शकों ने लालमोहर की ओर मुड़ कर देखा। लहसनवाँ को नेपाली सिपाही लालमोहर के पास ले आया। लालमोहर ने जेब से पास निकाल कर दिखा दिया। लहसनवाँ ने आते ही पूछा, ‘मालिक, कौन आदमी क्या बोल रहा था? बोलिए तो जरा। चेहरा दिखला दीजिए, उसकी एक झलक!’
लोगों ने लहसनवाँ की चौड़ी और सपाट छाती देखी। जाड़े के मौसम में भी खाली देह! ...चेले-चाटी के साथ हैं ये लोग!
लालमोहर ने लहसनवाँ को शांत किया।
तीनों-चारों से मत पूछे कोई, नौटंकी में क्या देखा। किस्सा कैसे याद रहे! हिरामन को लगता था, हीराबाई शुरू से ही उसी की ओर टकटकी लगा कर देख रही है, गा रही है, नाच रही है। लालमोहर को लगता था, हीराबाई उसी की ओर देखती है। वह समझ गई है, हिरामन से भी ज्यादा पावरवाला आदमी है लालमोहर! पलटदास किस्सा समझता है। ...किस्सा और क्या होगा, रमैन की ही बात। वही राम, वही सीता, वही लखनलाल और वही रावन! सिया सुकुमारी को राम जी से छीनने के लिए रावन तरह-तरह का रूप धर कर आता है। राम और सीता भी रूप बदल लेते हैं। यहाँ भी तख्त-हजारा बनानेवाला माली का बेटा राम है। गुलबदन मिया सुकुमारी है। माली के लड़के का दोस्त लखनलला है और सुलतान है रावन। धुन्नीराम को बुखार है तेज! लहसनवाँ को सबसे अच्छा जोकर का पार्ट लगा है ...चिरैया तोंहके लेके ना जइवै नरहट के बजरिया! वह उस जोकर से दोस्ती लगाना चाहता है। नहीं लगावेगा दोस्ती, जोकर साहब?
हिरामन को एक गीत की आधी कड़ी हाथ लगी है - ‘मारे गए गुलफाम!’ कौन था यह गुलफाम? हीराबाई रोती हुई गा रही थी - ‘अजी हाँ, मरे गए गुलफाम!’ टिड़िड़िड़ि... बेचारा गुलफाम!
तीनों को दुआली वापस देते हुए पुलिस के सिपाही ने कहा, ‘लाठी-दुआली ले कर नाच देखने आते हो?’
दूसरे दिन मेले-भर में यह बात फैल गई - मथुरामोहन कंपनी से भाग कर आई है हीराबाई, इसलिए इस बार मथुरामोहन कंपनी नहीं आई हैं। ...उसके गुंडे आए हैं। हीराबाई भी कम नहीं। बड़ी खेलाड़ औरत है। तेरह-तेरह देहाती लठैत पाल रही है। ...वाह मेरी जान भी कहे तो कोई! मजाल है!

दस दिन... दिन-रात...!
दिन-भर भाड़ा ढोता हिरामन। शाम होते ही नौटंकी का नगाड़ा बजने लगता। नगाड़े की आवाज सुनते ही हीराबाई की पुकार कानों के पास मँडराने लगती - भैया ...मीता ...हिरामन ...उस्ताद गुरू जी! हमेशा कोई-न-कोई बाजा उसके मन के कोने में बजता रहता, दिन-भर। कभी हारमोनियम, कभी नगाड़ा, कभी ढोलक और कभी हीराबाई की पैजनी। उन्हीं साजों की गत पर हिरामन उठता-बैठता, चलता-फिरता। नौटंकी कंपनी के मैनेजर से ले कर परदा खींचनेवाले तक उसको पहचानते हैं। ...हीराबाई का आदमी है।
पलटदास हर रात नौटंकी शुरू होने के समय श्रद्धापूर्वक स्टेज को नमस्कार करता, हाथ जोड़ कर। लालमोहर, एक दिन अपनी कचराही बोली सुनाने गया था हीराबाई को। हीराबाई ने पहचाना ही नहीं। तब से उसका दिल छोटा हो गया है। उसका नौकर लहसनवाँ उसके हाथ से निकल गया है, नौटंकी कंपनी में भर्ती हो गया है। जोकर से उसकी दोस्ती हो गई है। दिन-भर पानी भरता है, कपड़े धोता है। कहता है, गाँव में क्या है जो जाएँगे! लालमोहर उदास रहता है। धुन्नीराम घर चला गया है, बीमार हो कर।
हिरामन आज सुबह से तीन बार लदनी लाद कर स्टेशन आ चुका है। आज न जाने क्यों उसको अपनी भौजाई की याद आ रही है। ...धुन्नीराम ने कुछ कह तो नहीं दिया है, बुखार की झोंक में! यहीं कितना अटर-पटर बक रहा था - गुलबदन, तख्त-हजारा! लहसनवाँ मौज में है। दिन-भर हीराबाई को देखता होगा। कल कह रहा था, हिरामन मालिक, तुम्हारे अकबाल से खूब मौज में हूँ। हीराबाई की साड़ी धोने के बाद कठौते का पानी अत्तरगुलाब हो जाता है। उसमें अपनी गमछी डुबा कर छोड़ देता हूँ। लो, सूँघोगे? हर रात, किसी-न-किसी के मुँह से सुनता है वह - हीराबाई रंडी है। कितने लोगों से लड़े वह! बिना देखे ही लोग कैसे कोई बात बोलते हैं! राजा को भी लोग पीठ-पीछे गाली देते हैं! आज वह हीराबाई से मिल कर कहेगा, नौटंकी कंपनी में रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोग। सरकस कंपनी में क्यों नही काम करती? सबके सामने नाचती है, हिरामन का कलेजा दप-दप जलता रहता है उस समय। सरकस कंपनी में बाघ को ...उसके पास जाने की हिम्मत कौन करेगा! सुरक्षित रहेगी हीराबाई! किधर की गाड़ी आ रही है?
‘हिरामन, ए हिरामन भाय!’ लालमोहर की बोली सुन कर हिरामन ने गरदन मोड़ कर देखा। ...क्या लाद कर लाया है लालमोहर?
‘तुमको ढूँढ़ रही है हीराबाई, इस्टिसन पर। जा रही है।’ एक ही साँस में सुना गया। लालमोहर की गाड़ी पर ही आई है मेले से।
‘जा रही है? कहाँ? हीराबाई रेलगाड़ी से जा रही है?’
हिरामन ने गाड़ी खोल दी। मालगुदाम के चौकीदार से कहा, ‘भैया, जरा गाड़ी-बैल देखते रहिए। आ रहे हैं।’
‘उस्ताद!’ जनाना मुसाफिरखाने के फाटक के पास हीराबाई ओढ़नी से मुँह-हाथ ढक कर खड़ी थी। थैली बढ़ाती हुई बोली, ‘लो! हे भगवान! भेंट हो गई, चलो, मैं तो उम्मीद खो चुकी थी। तुमसे अब भेंट नहीं हो सकेगी। मैं जा रही हूँ गुरू जी!’
बक्सा ढोनेवाला आदमी आज कोट-पतलून पहन कर बाबूसाहब बन गया है। मालिकों की तरह कुलियों को हुकम दे रहा है - ‘जनाना दर्जा में चढ़ाना। अच्छा?’
हिरामन हाथ में थैली ले कर चुपचाप खड़ा रहा। कुरते के अंदर से थैली निकाल कर दी है हीराबाई ने। चिड़िया की देह की तरह गर्म है थैली।
‘गाड़ी आ रही है।’ बक्सा ढोनेवाले ने मुँह बनाते हुए हीराबाई की ओर देखा। उसके चेहरे का भाव स्पष्ट है - इतना ज्यादा क्या है?
हीराबाई चंचल हो गई। बोली, ‘हिरामन, इधर आओ, अंदर। मैं फिर लौट कर जा रही हूँ मथुरामोहन कंपनी में। अपने देश की कंपनी है। ...वनैली मेला आओगे न?’
हीराबाई ने हिरामन के कंधे पर हाथ रखा, ...इस बार दाहिने कंधे पर। फिर अपनी थैली से रूपया निकालते हुए बोली, ‘एक गरम चादर खरीद लेना...।’
हिरामन की बोली फूटी, इतनी देर के बाद - ‘इस्स! हरदम रूपैया-पैसा! रखिए रूपैया! क्या करेंगे चादर?’
हीराबाई का हाथ रूक गया। उसने हिरामन के चेहरे को गौर से देखा। फिर बोली, ‘तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है। क्यों मीता? महुआ घटवारिन को सौदागर ने खरीद जो लिया है गुरू जी!’
गला भर आया हीराबाई का। बक्सा ढोनेवाले ने बाहर से आवाज दी - ‘गाड़ी आ गई।’ हिरामन कमरे से बाहर निकल आया। बक्सा ढोनेवाले ने नौटंकी के जोकर जैसा मुँह बना कर कहा, ‘लाटफारम से बाहर भागो। बिना टिकट के पकड़ेगा तो तीन महीने की हवा...।’
हिरामन चुपचाप फाटक से बाहर जा कर खड़ा हो गया। ...टीसन की बात, रेलवे का राज! नहीं तो इस बक्सा ढोनेवाले का मुँह सीधा कर देता हिरामन।
हीराबाई ठीक सामनेवाली कोठरी में चढ़ी। इस्स! इतना टान! गाड़ी में बैठ कर भी हिरामन की ओर देख रही है, टुकुर-टुकुर। लालमोहर को देख कर जी जल उठता है, हमेशा पीछे-पीछे, हरदम हिस्सादारी सूझती है।
गाड़ी ने सीटी दी। हिरामन को लगा, उसके अंदर से कोई आवाज निकल कर सीटी के साथ ऊपर की ओर चली गई - कू-ऊ-ऊ! इ-स्स!
-छी-ई-ई-छक्क! गाड़ी हिली। हिरामन ने अपने दाहिने पैर के अँगूठे को बाएँ पैर की एड़ी से कुचल लिया। कलेजे की धड़कन ठीक हो गई। हीराबाई हाथ की बैंगनी साफी से चेहरा पोंछती है। साफी हिला कर इशारा करती है ...अब जाओ। आखिरी डिब्बा गुजरा, प्लेटफार्म खाली सब खाली ...खोखले ...मालगाड़ी के डिब्बे! दुनिया ही खाली हो गई मानो! हिरामन अपनी गाड़ी के पास लौट आया।
हिरामन ने लालमोहर से पूछा, ‘तुम कब तक लौट रहे हो गाँव?’
लालमोहर बोला, ‘अभी गाँव जा कर क्या करेंगे? यहाँ तो भाड़ा कमाने का मौका है! हीराबाई चली गई, मेला अब टूटेगा।’
- ‘अच्छी बात। कोई समाद देना है घर?’
लालमोहर ने हिरामन को समझाने की कोशिश की। लेकिन हिरामन ने अपनी गाड़ी गाँव की ओर जानेवाली सड़क की ओर मोड़ दी। अब मेले में क्या धरा है! खोखला मेला!
रेलवे लाइन की बगल से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गई है दूर तक। हिरामन कभी रेल पर नहीं चढ़ा है। उसके मन में फिर पुरानी लालसा झाँकी, रेलगाड़ी पर सवार हो कर, गीत गाते हुए जगरनाथ-धाम जाने की लालसा। उलट कर अपने खाली टप्पर की ओर देखने की हिम्मत नहीं होती है। पीठ में आज भी गुदगुदी लगती है। आज भी रह-रह कर चंपा का फूल खिल उठता है, उसकी गाड़ी में। एक गीत की टूटी कड़ी पर नगाड़े का ताल कट जाता है, बार-बार!

उसने उलट कर देखा, बोरे भी नहीं, बाँस भी नहीं, बाघ भी नहीं - परी ...देवी ...मीता ...हीरादेवी ...महुआ घटवारिन - को-ई नहीं। मरे हुए मुहर्तों की गूँगी आवाजें मुखर होना चाहती है। हिरामन के होंठ हिल रहे हैं। शायद वह तीसरी कसम खा रहा है - कंपनी की औरत की लदनी...।
हिरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए बोला, ‘रेलवे लाइन की ओर उलट-उलट कर क्या देखते हो?’ दोनों बैलों ने कदम खोल कर चाल पकड़ी। हिरामन गुनगुनाने लगा - ‘अजी हाँ, मारे गए गुलफाम...!’

बिंदा - महादेवी वर्मा

भीत-सी आंखोंवाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा-'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।' 'नहीं यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी' सुनकर मैने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला- मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी ' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा --ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।
बिंदा मेरी उस समय की बाल्यसखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अन्तर जान नहीं पाया था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गम्भीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आल्मारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊंगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को इच्छा हुई और न मैंने एक बार मरकर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली मां की कल्पना मेरी बुद्धि में कहां ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती -सीढ़ियों के नीचे वाली अंधेरी कोठरी में आंख मूंदे पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका गुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे नि:सहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दॉत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी- छोटी चोचों और उनमें सावधानी से भरे जाते दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी।बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दु:खद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कन्धे से चिपकाये और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखरिन द्धार-द्धार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अत: मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।
और बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा नई अम्मा कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले कांच के बटन सी चमकती हुई ऑखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से संवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिन्दूर उनींदी सी आँखों में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुंघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।
यह सब तो ठीक था; पर उनका व्यवहार विचित्र -सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुंह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च- से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रॅभाने के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी; परन्तु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती है या आऊं', 'बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म होगा ',' अभागी मरती भी नहीं ' आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।
कभी-कभी जब मै ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली धोती लपेटे हुए बिंदा ही आंगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाडू देना, कभी आग जलाना, कभी आंगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था; क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असम्भव-से थे। पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूंजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दु:ख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न ऑखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी -- ' क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है ?' मां ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं' से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पायी।
बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परन्तु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत् उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आंखें तो मुझे पिंजड़े में बन्द चिड़िया की याद दिलाती थीं।
एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा- 'वह रही मेरी अम्मा' तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। क्या सब-की एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में ? पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिये और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती, इसी से मैंने सोचकर कहा- 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न डॉटेंगी।'
बिंदा को मेरा उपाय कुछ जॅचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बन्द पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अत: किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था।
पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अत: उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनय पूर्वक कहा- 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।' माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पायी थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएेगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बन्द हो जायगी - और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा।' माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पायी थी।
बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे; पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दण्ड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को ऑगन की जलती धरती पर बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटो खड़े देखा था, चौके के खम्भे से दिन-दिन भर बॅधा पाया था और भूश से मुरझाये मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दण्ड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दण्ड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे।जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रूलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।
और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य; पर वह उसकी उंगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए ह्रदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्मय हो उठा।
उसे मै अपने घर में खींच लाई अवश्य; पर न ऊपर के खण्ड में मॉ के पास ले जा सकी और न छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएँ रूंध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाये और दोनों ठंडे हाथें से मेरा हाथ दबाये ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।
मैं तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा ' क्या सबेरा हो गया ?'
मॉ ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष सन्देशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमता का स्थान था, न अपील का अधिकार।
फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर-ऑगन में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने मुझे रोक दिया था; पर वे प्राय: कुछ अंगूर और सेब लेकर वहॉ हो आती थीं। बहुत खुशामद करने पर रूकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। ' क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती' पूछने पर वह मुंह में कपड़ा ठूंस कर हंसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मै। एक दिन दोपहर को सभी की ऑख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खण्ड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गङ्ढे में धँस गयी थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियॉ, सिर पर हाथ फेरती हुई मॉ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी ने बिना भी बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गयी। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खण्ड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।
फिर तो बिंदा को दुखना सम्भव न हो सका; क्योंकि मेरे इस आज्ञा- उल्लंघन से मां बहुत चिन्तित हो उठी थीं।
एक दिन सबेरे ही रूकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बन्दर कर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झॉककर देखना आवश्यक हो गया। रूकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परन्तु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय-विनय करना मेरे आत्म -सम्मान के विरूद्ध पड़ता था। अत: खिड़की से झॉककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भड़ से विवाह और बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएेंगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं, यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहु।ची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे बुलाया तक नहीं। इस अचिन्त्य अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।
कई दिन तक बिंदा के घर झॉक-झाककर जब मैंने मॉ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गयी। उस दिन से मैं प्राय: चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूंढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?
तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है ?

फाँसी - विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक '

रेवतीशंकर तथा पंडित कामताप्रसाद में बड़ी घनिष्ठ मित्रता थी। दोनों एक ही स्कूल तथा एक ही क्लास में वर्षों तक साथ-साथ पढ़े थे। बाबू रेवतीशंकर एक धनसम्पन्न व्यक्ति थे। उनके पिता रियासतदार और जमींदार आदमी थे। पंडित कामताप्रसाद मध्यम श्रेणी के व्यक्ति थे। उनके केवल दो मकान थे। एक में वह स्वयं रहते थे, दूसरा तीस रुपए मासिक पर किराए पर उठा हुआ था। पंडित कामताप्रसाद के परिवार में केवल चार प्राणी थे। एक तो वह स्वयं, उनकी पत्नी, माता तथा पिता। उनके पिता एक बैंक में हेड क्लर्क थे। पंडित कामताप्रसाद लखनऊ मेडिकल कालेज से एल.एम.एस. की परीक्षा पास करके आए थे और उन्होंने डाक्टरी करना शुरू ही किया था।

पंडित कामताप्रसाद अपने छोटे-से औषधालय में बैठे हुए थे। उनके सामने मेज पर सर्जरी (जर्राही) के औजारों का एक बक्स खुला हुआ रखा था। कामताप्रसाद उसमें की एक-एक वस्तु उठा-उठा कर बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे थे। इसी समय उनके मित्र रेवतीशंकर आ गए। रेवतीशंकर ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा -- क्या हो रहा है?

कामताप्रसाद मुस्करा कर बोले -- कुछ नहीं, कुछ सर्जरी का सामान मँगाया था। वह आज ही आया है। वही देख रहा था।

रेवतीशंकर भी उन वस्तुओं को देखने लगे। तीन-चार बड़े-बड़े चाकुओं को देख कर रेवतीशंकर बोले -- यह चाकू तो यार बड़े सुंदर हैं। जी चाहता है, इनमें से एक मैं ले लूँ।

कामताप्रसाद हँस कर बोले -- तुम क्या करोगे?

'करूँगा क्या, रखे रहूँगा।'

'यह तो चीर-फाड़ के काम के हैं।'

'हाँ-हाँ, और नहीं तो क्या, इनसे साग-भाजी थोड़े ही कतरी जाएगी।'

'मैंने सोचा कदाचित तुम इसीलिए चाहते हो।' कामताप्रसाद ने हँस कर कहा।

'अरे नहीं, ऐसा बेवकूफ़ मत समझो। मुझे अच्छे मालूम हो रहे हैं, इससे जी ललचा रहा है।'

'तो एक ले लो।'

'तुम्हारा सेट तो खराब न होगा।'

'नहीं, सेट खराब नहीं होगा। मैंने एक चाकू अधिक मँगा लिया था।'

'तब ठीक है,' कह कर रेवतीशंकर ने एक चाकू ले लिया।

'बड़े तेज चाकू हैं,' रेवतीशंकर ने उक्त चाकू की धार पर उँगली फेर कर कहा।

'सर्जरी में तेज ही की आवश्यकता होती है। जितना तेज औजार होगा, आपरेशन उतना ही शीघ्र तथा अच्छा होगा।' रेवतीशंकर चाकू को एक कागज में लपेट कर जेब में रखते हुए बोले -- यदि मुड़नेवाला होता तो बड़ा ही सुन्दर होता।

'सर्जरीवाले चाकू मुड़नेवाले बहुत कम होते हैं, इतना बड़ा चाकू तो कभी भी मुड़नेवाला नहीं होता।'

'कुछ रोगी-ओगी आने लगे कि नहीं?'

'अभी बैठते हुए दिन ही कितने हुए?'

'एक महीने से अधिक तो हो ही गया होगा।'

'तो फिर? क्या बहुत दिन हो गए ?'

'साल-छह महीने में कुछ प्रैक्टिस चमकेगी, अभी तो केवल हाजिरी है।'

'कुछ हर्ज न हो तो आओ चलें घूम आएँ।'

'मुझे काम ही कौन है, चलो चलें। किधर चलोगे?'

'चलो इधर बाजार की ओर चलें।'

'बाजार की तरफ चलके क्या लोगे। चलना है तो इधर बाहर की ओर चलो। संध्या समय है, खुली वायु का आनंद लें।'

'बस तुम तो वही डाक्टरी की बातें करने लगे। कौन हम रोगी या दुर्बल हैं। यह शिक्षा आप रोगियों के लिए सुरक्षित रखिये।'

'खुली वायु तो सबके लिए लाभदायक है, इसमें रोगी-निरोगी की कौन सी बात है।'

'खैर इस समय तो बाजार की ओर चलो, फिर देखा जाएगा।'

'अच्छी बात है। जैसी तुम्हारी इच्छा।'

कामता प्रसाद ने औजारों को बक्स में बन्द करके अलमारी में रख दिया और नौकर से बोले -- 'रामधन, हम घूमने जाते हैं। तुम साढ़े सात बजे बन्द करके चाबी घर पहुँचा देना।' यह कह कर कामताप्रसाद ने अपनी टोपी उठाई और रेवतीशंकर से बोले -'चलो।'

दोनों व्यक्ति चले और घूमते-फिरते चौक पहुँचे। चौक में प्रविष्ट होते ही रेवतीशंकर ने कहा -- देखिये कितनी रौनक है। जंगल में यह आनन्द कहाँ?

कामताप्रसाद मुस्करा कर बोले -- निस्संदेह, जंगल में तो यह भीड़भाड़ नहीं मिलेगी।

'आदमियों की ही तो रौनक होती है। जहां आदमी नहीं, वहाँ क्या रौनक हो सकती है।'

'अपनी-अपनी रुचि की बात है। किसी को यह पसन्द है, किसी को वह।'

इसी प्रकार की बातें करते हुए दोनों व्यक्ति मन्द गति से जा रहे थे। हठात् रेवतीशंकर ने कामताप्रसाद का हाथ दबा कर कहा-जरा ऊपर तो देखो..

कामताप्रसाद ने ऊपर दृष्टि उठाई। एक छज्जे पर एक वेश्या बैठी हुई थी। वेश्या युवती तथा अत्यन्त सुन्दर थी।

कामताप्रसाद बोले -- यह कौन है? पहले तो इसे कभी नहीं देखा।

'जान पड़ता है कहीं बाहर से आई है।'

'अच्छा सौन्दर्य है।'

'क्या बात है.. हजारों में एक है।'

'परन्तु किस काम का?'

'क्यों?'

'वेश्या का सौन्दर्य तो उस पुष्प के समान है, जो देखने में तो बड़ा सुन्दर है, परन्तु नीरस तथा निर्गन्ध है।'

'अब लगे फ़िलासफ़ी बघारने, इन्हीं बातों से मुझे नफ़रत है।'

'झूठ थोड़े ही कहता हूँ।'

'रहने दीजिए, बड़े तत्ववक्ता की दुम बने हैं।'

'अच्छा न सही।'

'बोलो चलते हो, पाँच मिनट बैठ कर चले आएँगे, परिचय हो जाएगा।'

'अजी बस रहने भी दो।'

'तुम्हें हमारी कसम, केवल पाँच मिनट के लिए।'

'इस समय जाने दो, फिर किसी दिन सही।'

रेवतीशंकर समझ गए कि कामताप्रसाद की इच्छा तो है, पर ऊपर से साधुता दिखाने के लिए अस्वीकार कर रहे हैं। अतएव उन्होंने कहा -- फिर-फिर का झगड़ा मैं नहीं पालता। तुम जानते हो, मेरे जी में जो आता है वह मैं तत्काल करता हूँ।

कामताप्रसाद ने कहा -- तो यह कौन सी अच्छी बात है?

'न सही, पर स्वभाव तो है।'

'कहा मानो, इस समय टाल जाओ।'

'टालने वाले पर लानत है।'

'ओफ़ ओह, इतने मुग्ध हो गए। अच्छा लौटते हुए सही, तब तक जरा और अँधेरा हो जाएगा।'

'हाँ, यह मानी।'

दोनों व्यक्ति आगे बढ़ गए और आध घन्टे तक इधर-उधऱ फिरने के पश्चात लौटे। इस समय तक सात बज चुके थे और यथेष्ट अँधेरा हो चुका था। जब ये दोनों उक्त मकान के नीचे आए तो ठिठक गए। रेवतीशंकर ने एक बार इधर-उधर देखा और खट से जीने पर चढ़ गए। कामताप्रसाद ने भी उनका अनुसरण किया।

उपरोक्त घटना के पश्चात एक मास व्यतीत हो गया। रेवतीशंकर उक्त वेश्या के यहाँ स्वच्छन्दतापूर्वक आने-जाने लगे। उनके साथ कामताप्रसाद भी कभी-कभी चले जाते थे।

एक दिन सन्ध्या समय रेवतीशंकर वेश्या के यहाँ पहुँचे। वेश्या ने, जिसका नाम सुन्दरबाई था, रेवतीशंकर से पूछा -- डाक्टर साहब नहीं आए?

'हाँ, नहीं आए।'

'वह बहुत कम आते हैं, इसका क्या कारण है?'

'वह मेरे साथ के कारण चले आते हैं। वैसे वह वेश्याओं के यहाँ बहुत कम आते जाते हैं।'

सुन्दरबाई म्लान मुख होकर मौन हो गई। रेवतीशंकर ने पूछा, 'क्यों, डाक्टर साहब की याद क्यों आई?'

'डाक्टर साहब बड़े भले आदमी हैं, मुझे वह बड़े अच्छे लगते हैं।'

रेवतीशंकर के हृदय में ईर्ष्या का बवण्डर उठा। उन्होंने पूछा -- उनके आने से तुम्हें कुछ प्रसन्नता होती है?

'हाँ, अवश्य होती है।'

'...और मेरे आने से?'

रेवतीशंकर ने सुन्दरबाई के मुख का भाव देख कर समझ लिया कि वह मिथ्या बोल रही है। उन्होंने कहा-'नहीं मेरे आने से नहीं होती।'

'क्यों, आप मेरा कुछ छीन लेते हैं क्या?' सुन्दरबाई ने किंचित मुस्कराकर कहा

रेवतीशंकर सुन्दरबाई से एक प्रेमपूर्ण उत्तर सुनना चाहते थे, परन्तु जब उसने केवल उपरोक्त बात कह कर मौन धारण कर लिया तो उन्हें बड़ी निराशा हुई। उनके मन में यह शंका उत्पन्न हुई कि कदाचित् सुन्दरबाई डाक्टर साहब से प्रेम करती है। इस शंका के उत्पन्न होते ही कामताप्रसाद के प्रति उनके हृदय में द्वेष उत्पन्न हुआ। रेवतीशंकर ने उसी समय निश्चय किया कि इस बात की जाँच करनी चाहिए।

उस दिन वह थोड़ी देर बैठ कर चले आए।

दूसरे दिन वह कामताप्रसाद के पास पहुँचे।

उनसे उन्होंने कहा-कल सुन्दरबाई तुम्हें याद कर रही थी।

कामताप्रसाद ने नेत्र विस्फारित करके मुस्काराते हुए कहा-मुझे याद कर रही थी।

'जी, हाँ।'

'भला मुझे वह क्यों याद करने लगी? तुम्हारे होते हुए उसका मुझे याद करना आश्चर्य की बात है।'

रेवतीशंकर शुष्क हँसी के साथ बोले, 'क्यों? मुझमें कौन से लाल टँके हैं?'

'लाल क्यों नहीं टँके हैं ? तुमसे उसे चार पैसे की आमदनी है, मेरे पास क्या धरा है? तुमने अभी तक उसे सौ-दो सौ दे ही दिए होंगे, मैंने क्या दिया?'

'फिर भी वह तुम्हें याद करती है।'

'इसीलिए याद करती होगी कि उनसे कुछ नहीं मिला, कुछ वसूल करना चाहिए। सो यहाँ वह गुड़ ही नहीं जिसे चींटियाँ खाएँ।'

'खैर जो कुछ हो, आज तुम मेरे साथ चलो।'

'क्षमा करो।'

'नहीं आज तो चलना पड़ेगा।'

'भाई साहब, मेरी इतनी हैसियत नहीं जो वेश्याओं के यहाँ जाऊँ, मैं गरीब आदमी हूँ। यह काम तो हमारे जैसे धनी लोगों का है।'

'तो वह कौन तुमसे रोकड़ माँगती है?'

'माँगे कैसे? जब कुछ गुंजाइश पावे तब तो माँगे। आपकी तरह मैं भी रोज आने-जाने लगूँ तो मुझसे भी सवाल करे।'

'अजी नहीं, यह बात नहीं। अच्छा खैर, आज तो चले चलो।'

'माफ़ करो।'

'अरे तो कुछ आज जाने से वह तुम्हारी कुर्की न करा लेगी।'

'नहीं यह बात नहीं।'

'तो फिर?'

'वैसे ही, जहाँ तक बचूँ अच्छा ही है।'

'आज तो चलना ही पड़ेगा।'

'ख़ैर, तुम ज़िद करते हो तो चला चलूँगा।'

दोनों सुन्दरबाई के मकान पर पहुँचे। डाक्टर साहब को देखते ही सुन्दरबाई का मुख खिल उठा। उसने बड़े प्रेमपूर्वक उनका स्वागत किया। रेवतीशंकर सुन्दरबाई के व्यवहार को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहे थे।

सुन्दरबाई ने पूछा -- 'डाक्टर साहब, आप हमसे कुछ नाराज हैं क्या?'

डाक्टर साहब ने मुस्कराकर कहा- 'नहीं नाराज होने की कौन सी बात है?'

'...तो फिर आते क्यों नहीं?'

'एक तो फुर्सत नहीं मिलती, दूसरे हम गरीबों की पूछ आपके यहाँ कहाँ?'

सुन्दरबाई कुछ लज्जित होकर बोली -- 'नहीं, आपका यह भ्रम है। हम भी आदमी पहचानते हैं। हर एक आदमी से रण्डीपन का व्यवहार काम नहीं देता।'

'आपमें यह विशेषता हो तो मैं कह नहीं सकता, अन्यथा साधारणतया वेश्याओं की यही दशा है कि उनके यहाँ धनी आदमी ही पूछे जाते हैं।'

'नहीं, मेरे सम्बन्ध में आप ऐसा कभी न सोचिएगा।'

'ख़ैर, मुझे यह सुन कर प्रसन्नता हुई कि आपमें यह दोष नहीं है।'

जब तक कामताप्रसाद बैठे रहे, तब तक सुन्दरबाई उन्हीं से बात करती रही। रेवतीशंकर को उसका यह व्यवहार बहुत ही बुरा लगा। एक घण्टे पश्चात कामताप्रसाद बोले -- अब मुझे आज्ञा दीजिए।

सुन्दरबाई ने कहा -- आया कीजिए।

'हाँ, आया करूँगा।' यह कह कर रेवतीशंकर से बोले -- चलते हो ?

'तुम जाओ, मैं तो जरा देर बैठूँगा।'

'अच्छी बात है।' कह कर कामताप्रसाद चल दिए।

उनके जाने के पश्चात सुन्दरबाई रेवतीशंकर से बोली -- बड़े शरीफ़ आदमी हैं।

रेवतीशंकर रुखाई से बोले -- हाँ, क्यों नहीं?

इसके पश्चात दोनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। तदुपरान्त रेवतीशंकर सुन्दरबाई के कुछ निकट खिसक कर बोले -- सुन्दरबाई, मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूं, यह शायद अभी तुम्हें मालूम नहीं हुआ।

सुन्दरबाई ने कहा -- यह आपकी कृपा है।

रेवतीशंकर ने मुँह बना कर कहा -- केवल इसके कहने से मुझे सन्तोष नहीं हो सकता, प्रेम सदैव प्रतिदान चाहता है।

'चाहता होगा, मुझे तो अभी तक इसका अनुभव नहीं हुआ।'

'अब होना चाहिए।'

'अपने बस की बात थोड़े ही है।'

'मैं तुम्हारी प्रत्येक अभिलाषा, प्रत्येक इच्छा पूर्ण करने को तत्पर रहता हूँ। फिर भी तुम्हें मेरे प्रेम पर सन्देह है।'

'न मुझे सन्देह है और न विश्वास है। आप मेरी ख़ातिर करते हैं तो मैं भी आपकी ख़ातिर करती हूँ।'

'केवल ख़ातिर करने से मुझे सन्तोष नहीं हो सकता। मैं चाहता हूँ कि जैसे मैं तुमसे प्रेम करता हूँ, वैसे ही तुम भी मुझसे प्रेम करो।'

'यह तो मेरे बस की बात नहीं है।'

'होना चाहिए।'

'चाहिए तो सब कुछ, पर जब हो तब न। वैसे यदि हमारे पेशे की बात पूछिए तो हम हर आदमी से यही कहती हैं कि हम जितना तुमसे प्रेम करती हैं उतना किसी से भी नहीं, परन्तु मेरा यह दस्तूर नहीं है। मैं तो साफ़ बात कहती हूँ। आप हमारे ऊपर पैसा खर्च करते हैं, हम उसका बदला दूसरे रूप में चुका देती हैं। झगड़ा तय है। रही प्रेम और मुहब्बत की बात, सो यह बात हृदय से सम्बन्ध रखती है। आपका जोर हमारे शरीर पर है, हृदय पर नहीं।'

रेवतीशंकर चुप हो गए। उन्होंने मन में सोचा -- यह निश्चय ही कामताप्रसाद से प्रेम करती है, तभी ऐसी स्पष्ट बातें करती है। यह विचार आते ही उनके हृदय में कामताप्रसाद के प्रति हिंसा का भाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने कुछ देर पश्चात कहा -- शायद तुम्हें आज तक किसी से प्रेम नहीं हुआ।

सुन्दर हँस कर बोली - 'यदि प्रेम हुआ होता तो हम इस तरह बाज़ार में बैठी होतीं? आप बच्चों की सी बातें करते हैं। हमारे पेशे से और प्रेम से बैर है। जो जिससे प्रेम करता है, वह उसी का हो कर रहता है।'

रेवतीशंकर को सुन्दरबाई के इस उत्तर पर यद्यपि विश्वास नहीं हुआ, परन्तु कुछ सान्त्वना अवश्य मिली। उन्होंने कहा - 'ख़ैर, मुझसे तो तुम्हें प्रेम करना ही पड़ेगा। सुन्दरबाई ने मुस्करा कर कहा- 'यदि करना पड़ेगा तो करूँगी, पर जब करूँगी तो हृदय की प्रेरणा से, जबरदस्ती कोई किसी से प्रेम नहीं करा सकता।'

एक दिन सुन्दरबाई की माता को हैज़ा हो गया। सुन्दरबाई ने कामताप्रसाद को बुलवाया। कामताप्रसाद ने बड़े परिश्रम से उसे अच्छा किया। चलते समय सुन्दरबाई ने उन्हें फीस देनी चाही। कामताप्रसाद ने फीस लेना अस्वीकार करते हुए कहा - 'मैं इतनी बार तुम्हारे यहाँ आया, पान-इलायची खाता रहा, गाना सुनता रहा, मैंने तुम्हें क्या दिया? इसलिए मैं तुमसे फीस नहीं ले सकता।'

उस दिन से कामताप्रसाद का आदर और भी अधिक होने लगा। इधर ज्यों-ज्यों कामताप्रसाद का आदर-सम्मान बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों रेवतीशंकर जल-भुन कर राख होते जा रहे थे। वह सोचते थे, मैं इतना रुपया-पैसा खर्च करता हूँ, पर मेरा इतना आदर नहीं होता, जितना कामताप्रसाद का होता है। मेरे जाने पर भी यद्यपि वह मुस्करा कर मेरा स्वागत करती है, पर वह बात नहीं रहती। मुझसे वह कुछ खिंची सी रहती है।

यह बात वास्तव में सत्य थी। सुन्दरबाई रेवतीशंकर से खिंची रहती थी। इसके दो कारण थे -- एक तो रेवतीशंकर उसे पसन्द नहीं था, इस कारण स्वाभाविक खिंचाव था। दूसरे व्यवसाय नीति के कारण भी कुछ खिंचाव था। सुन्दरबाई को अपने रूप-यौवन पर इतना गर्व तथा विश्वास था कि वह उन लोगों से, जो उस पर मुग्ध होते थे, कुछ खिंचे रहने में ही अधिक लाभ समझती थी। रेवतीशंकर के सम्बन्ध में उसकी यह नीति सर्वथा लाभप्रद निकली। रेवतीशंकर उसे प्रसन्न करने तथा उसको अपने ऊपर कृपालु बनाने के लिए -- केवल कृपालु बनाने के लिए ही नहीं, वरन् अपने प्रति उसके हृदय में प्रेम उत्पन्न करने के लिए उसकी प्रत्येक आज्ञा शिरोधार्य करने के लिए प्रस्तुत रहते थे। इसके परिणामस्वरूप सुन्दरबाई को उनसे यथेष्ट आय थी।

कामताप्रसाद के प्रति सुन्दरबाई का व्यवहार इसके सर्वथा प्रतिकूल था। सुन्दरबाई तो पहले से ही कामताप्रसाद के सरल स्वभाव, भलमनसाहत, व्यवहार-कुशलता, स्पष्टवादिता आदि गुणों पर मुग्ध थी। कामताप्रसाद सुन्दर भी यथेष्ट थे, उनका पुरुष सौन्दर्य रेवतीशंकर से सैकड़ों गुना अच्छा था। परन्तु सबसे अधिक जिस बात ने सुन्दरबाई पर प्रभाव डाला, वह उसके रूप-यौवन के प्रति कामताप्रसाद की निस्पृहता थी। कामताप्रसाद के किसी हाव-भाव से यह कभी प्रकट न हुआ कि वह सुन्दरबाई पर मुग्ध हैं। सुन्दरबाई के लिए यह् एक नवीन और अद्भुत बात थी। आज तक जितने पुरुष उसके पास आए, वे सब उसकी रूप ज्योति पर पतंगे की भांति गिरे। अन्य पुरुषों के समक्ष वह अपनी श्रेष्ठता अनुभव करती थी, परन्तु कामताप्रसाद के समक्ष उसे अपनी श्रेष्ठता का अनुभव न हो कर, उन्हीं की श्रेष्ठता का अनुभव होता था। श्रेष्ठता सदैव प्रशंसा तथा आदर प्राप्त करती है। यही कारण था कि सुन्दरबाई का व्यवहार कामताप्रसाद के साथ निष्कपट तथा स्नेहपूर्ण था।

इधर रेवतीशंकर सुन्दरबाई के प्रेम में प्रेमोन्मत्त से हो रहे थे। वह यह चाहते थे कि उनके होते हुए सुन्दरबाई किसी भी पुरुष की ओर न देखे। इधर सुन्दरबाई की यह दशा थी कि जब कभी कामताप्रसाद कई दिनों तक उसके यहाँ न पहुँचते तो वह अस्वस्थ होने का बहाना करके उन्हें बुलवाती थी। उस समय कामताप्रसाद को केवल अपने व्यवसाय की दृष्टि से उसके यहाँ जाना ही पड़ता था।

एक दिन रेवतीशंकर सन्ध्या के पश्चात जब सुन्दरबाई के यहाँ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सुन्दरबाई कामताप्रसाद के घुटनों पर सिर रखे लेटी है और कामताप्रसाद उसके सिर पर हाथ फेर रहे हैं। यह देखते ही रेवतीशंकर की आँखों के नीचे कुछ क्षणों के लिए अँधेरा छा गया।

उधर उन्हें देखते ही कामताप्रसाद ने शीघ्रतापूर्वक उसका सिर अपने घुटने पर से हटा दिया और रेवतीशंकर की ओर देख कर कुछ झेंपते हुए बोले -- इनके सिर में बड़े ज़ोर का दर्द था, अतएव इन्होंने मुझे बुलवाया। मैंने दवा लगाई है, अब कुछ कम है। रेवतीशंकर कामताप्रसाद को सिटपिटाते देख ही चुके थे, अतएव उन्होंने समझा कि कामताप्रसाद केवल बात बना रहे हैं। उन्होंने एक शुष्क मुस्कान के साथ कहा -- आपके हाथ लगें और दर्द कम न हो। यह तो अनहोनी बात है।

यह कह कर रेवतीशंकर ने सुन्दरबाई पर एक तीव्र दृष्टि डाली। सुन्दरबाई उस दृष्टि को सहन न कर सकी, उसने अपनी आँखें नीची कर लीं।

कामताप्रसाद खड़े हो कर सुन्दरबाई से बोले- तो अब मैं जाता हूँ, तुम थोड़ी देर बाद दवा एक बार और लगा लेना।

'बैठिए-बैठिए, आपकी उपस्थिति दर्द को दूर करने में बहुत बड़ी सहायता देगी।' रेवतीशंकर ने स्पष्ट व्यंग्य के साथ यह बात कही।

कामताप्रसाद रेवतीशंकर के इस व्यंग्य से कुछ व्यथित हो कर बोले -- निस्संदेह, डाक्टर से लोग ऐसी ही आशा रखते हैं, यह कोई नई बात नहीं है। इतना कह कर कामताप्रसाद चल दिए।

उनके चले जाने के बाद रेवतीशंकर ने सुन्दरबाई से कहा-- अब तो साधारण सी बातों में भी डाक्टर बुलाए जाने लगे।

सुन्दरबाई ने कहा -- तो फिर, क्या आप यह चाहते हैं जब कोई मृत्युशय्या पर पड़ा हो तभी डाक्टर बुलाया जाए।

'नहीं-नहीं, आप जब चाहे बुलाइए। मना कौन करता है।'

'मना कर ही कौन सकता है? मेरा जो जी चाहेगा, करूँगी। मैं किसी की लौंडी-बाँदी तो हूँ नहीं।'

रेवतीशंकर होंठ चबाते हुए बोले -- ठीक है, कौन मना कर सकता है।

इस वाक्य को रेवतीशंकर ने दो-तीन बार कहा

सहसा रेवतीशंकर का मुख रक्तावर्ण हो गया। आँखे उबल आईं। उन्होंने हाथ बढ़ा कर सुन्दरबाई की कलाई पकड़ ली और दाँत पीसते हुए बोले -- कौन मना कर सकता है? मैं मना कर सकता हूँ, जिसने अपना तन-मन-धन तुम्हारे चरणों पर डाल दिया है।

सुन्दरबाई अपनी कलाई छुड़ाने की चेष्टा करते हुए बोली -- अजी बस जाइए, ऐसे यहाँ दिन भर में न जाने कितने आते हैं।

'आते होंगे, परन्तु मैं तुम्हें बता दूँगा कि मैं उन लोगों में नहीं हूँ।'

सुन्दरबाई ने एक झटका दे कर अपनी कलाई छुड़ा ली और कर्कश स्वर में बोली -- तुम बेचारे क्या दिखा दोगे। ऐसी धमकी में मैं नहीं आ सकती। चले जाओ यहाँ से बड़े वारिस खाँ बन कर। तुम होते कौन हो ? वही कहावत है -- 'मुँह लगाई डोमनी, गावे ताल-बेताल।'

रेवतीशंकर ने कुछ नम्र हो कर कहा -- देखो सुन्दरबाई, यह बातें छोड़ दो, इसका परिणाम बुरा होगा।

'क्या बुरा होगा? तुम कर क्या लोगे? ख़ैरियत इसी में है कि चुपचाप यहाँ से चले जाइए, और आज से यहाँ पैर न धरिएगा, नहीं तो पछताइएगा।'

रेवतीशंकर अप्रतिभ हो कर बोले -- अच्छा यह बात है?

'जी हाँ, यही बात है। मैं आपकी विवाहिता नहीं हूँ। ये बातें वही सहेगी, मैं नहीं सह सकती। हुँह, अच्छे आए, हम लोग ऐसे किसी एक की हो कर रहें तो बस हो चुका।'

रेवतीशंकर कुछ क्षणों तक चुपचाप बैठे होंठ चबाते रहे, तत्पश्चात एकदम से उठ कर खड़े हो गए और बोले -- अच्छी बात है, देखा जाएगा।

इतना कह कर रेवतीशंकर चल दिए।

उपरोक्त घटना के एक सप्ताह बाद एक दिन प्रातः शौचादि से निवृत्त हो कर कामताप्रसाद चाय पी रहे थे। उसी समय सहसा पुलिस ने उनका घर घेर लिया। एक सब-इन्स्पेक्टर उनके घर में घुस आया। उसने आते ही कामताप्रसाद से पूछा -- डा. कामताप्रसाद आप ही हैं?

कामताप्रसाद ने विस्मित हो कर कहा -- हाँ, मैं ही हूँ। कहिए?

सब-इन्स्पेक्टर ने कहा -- मैं आपको सुन्दरबाई का खून करने के जुर्म में गिरफ्तार करता हूँ।

कांमताप्रसाद हतबुद्धि होकर बोले -- सुन्दरबाई का खून? कामताप्रसाद केवल इतना ही कह पाए, आगे उनके मुँह से एक शब्द भी न निकला।

सब-इन्स्पेक्टर ने एक कांस्टेबिल से कहा -- लगाओ हथकड़ी।

इसके पश्चात इन्स्पेक्टर ने उस कमरे की तलाशी ली और एक कोट तथा कमीज बरामद की। कमीज के दाहिने कफ में खून का दाग़ लगा हुआ था। इन्स्पेक्टर ने उसे देख कर सिर हिलाया। इसके पश्चात उसने कोट को देखा। कोट के दो बटन गायब थे। इन्स्पेक्टर ने अपनी जेब से एक डिबिया निकाली। डिबिया खोल कर दो बटन निकाले, उन बटनों को कोट के अन्य बटनों से मिला कर देखा, दोनों बटन अन्य बटनों से आकार-प्रकार में पूर्णतया मिल गए। इन्स्पेक्टर ने कहा -- ठीक है।

उसने कमीज तथा बटन अपने अधिकार में किया। इसी समय कामताप्रसाद के पिता भी आ गए।उन्होंने जो पुत्र के हाथ में हथकड़ी लगी देखी तो घबरा कर पूछा--क्यों, क्या बात है?

इन्स्पेक्टर ने कहा--कल रात में सुन्दरबाई नामी तवायफ़ का कत्ल हो गया है। यहाँ कुछ ऐसी चीजें पाई गई हैं, जिनसे यह साबित होता है कि सुन्दरबाई का खून कामताप्रसाद ने किया है। इसलिए इनकी गिरफ्तारी की गई है।

कामताप्रसाद के पिता कम्पित स्वर से बोले -- नहीं, नहीं, यह असम्भव है।

सब-इन्स्पेक्टर -- हमारी गलती साबित करने के लिए आपको काफ़ी मौका मिलेगा, घबराइए नहीं।

कामताप्रसाद बोले -- निस्संदेह पिताजी, आप घबराइए नहीं। इसमें कोई विकट रहस्य है। हमें अदालत के सामने काफी मौका मिलेगा।

सब-इन्स्पेक्टर ने अधिक बात करने का अवसर न दिया। कामताप्रसाद को साथ लेकर सीधा उनके दवाखाने पहुँचा।

कामताप्रसाद ने देखा कि उनके दवाखाने पर भी पुलिस का पहरा है।

दवाखाने की चाभी सबइन्स्पेक्टर कामताप्रसाद के घर से ले आया था। अतएव दरवाजा खोला गया। उसकी तलाशी ले कर वह बक्स निकाला गया, जिसमें सर्जरी के औजार थे। वह बक्स भी इन्स्पेक्टर ने अपने अधिकार में कर लिया।

नियत समय पर कामताप्रसाद का मुकदमा आरम्भ हुआ। पुलिस की ओर से चार वस्तुएँ पेश की गईं। एक तो वह चाकू जिससे खून किया गया था, कामताप्रसाद का कोट, कमीज और एक रूमाल खून से रँगा हुआ था। सरकारी वकील ने अदालत को वे दोनों बटन दिखाए। ये बटन जिस कमरे में खून हुआ था, उसमें पाए गए थे और दोनों कामताप्रसाद के कोट के बटनों से मिलते-जुलते थे। रूमाल पर उनका नाम ही कढ़ा हुआ था। कमीज के कफ पर खून का दाग था। वह चाकू जिससे हत्या की गई थी, कामता प्रसाद के सर्जरी के औजारों में के अन्य दो चाकुओं से पूर्णतया मेल खाता था।

इसके अतिरिक्त पुलिस की ओर से चार गवाह पेश हुए थे। दो मुसलमान दुकानदार, जिनकी दुकानें सुन्दरबाई के मकान के नीचे ही थीं, सुन्दरबाई की माता, उनकी एक दासी।

नौकरानी ने बयान दिया -- जिस दिन यह वारदात हुई, उस दिन शाम को साढ़े छै बजे के लगभग सुन्दरबाई की माँ नौकर के साथ कहीं गई थीं। मकान पर केवल सुन्दरबाई और मैं रह गई थीं। साढ़े आठ बजे के लगभग डाक्टर साहब आए। सुन्दरबाई और वह दोनों भीतरी कमरे में बैठे। मैं उस समय भोजन बना रही थी। आध घन्टे बाद मैंने ऐसा शब्द सुना जैसै दो आदमी आपस में लपटा-झपटी कर रहे हों। बीच में एक-आध दफे मैंने डाक्टर साहब की आवाज सुनी। ऐसा जान पड़ता था कि डाक्टर साहब सुन्दरबाई को डाँट रहे हैं। इसके थोड़ी देर बाद डाक्टर साहब बड़ी तेजी के साथ कमरे से निकले और जीने से नीचे उतर कर चले गए। मैं खाना बनाती रही। इसके एक घन्टे बाद सुन्दरबाई की माता लौटीं। वह पहले तो अन्दर आईं और मुझसे पूछा -- खाना तैयार है? मेरे हाँ कहने पर वह सुन्दरबाई के कमरे की ओर चली गईं। वहाँ जाते उन्होंने हल्ला मचाया, तब मैं दौड़ कर गई। नौकर भी दौड़ा। वहाँ जा कर देखा कि सुन्दरबाई का कोई खून कर गया है। मैंने उसी समय सुन्दरबाई की माँ से वह सब कहा जो देखा सुना था।

कामताप्रसाद के वकील के जिरह करने पर उसने कहा - मैं जहाँ खाना बना रही थी, वह जगह सुन्दरबाई के कमरे से थोड़ी दूर है। मैं जहाँ बैठी थी वहाँ से जीने से कमरे में जाता हुआ आदमी दिखाई नहीं पड़ता था। मैंने केवल आवाज से समझा था कि डाक्टर साहब जा रहे हैं। उनकी तेजी का अनुमान भी मैंने उनके पैरों के शब्द से तथा जीने में उतरने के शब्द से किया था। जिस समय डाक्टर साहब आए थे, उस समय मैंने उन्हें देखा था। मैं उस समय उधर गई थी। सुन्दरबाई ने एक गिलास पानी माँगा था, वही देने गई थी। डाक्टर साहब से झगड़ा होने का शब्द सुन कर मैं उधर नहीं गई। हम लोगों को बिना बुलाए जाने की इजाजत नहीं है। डाक्टर से लपटा-झपटी और झगड़ा होने का शब्द कोई ऐसी बात नहीं थी, जिससे मैं यह आवश्यक समझती कि मैं जा कर देखूँ कि क्या हो रहा है। वेश्याओं के यहाँ ऐसी बातें बहुधा हुआ करती हैं, मेरे लिए वह एक साधारण बात थी। डाक्टर साहब के जाने के पश्चात सुन्दरबाई की माँ के आने के समय तक मैं खाना बनाने में इतनी मग्न रही कि मुझे और किसी बात का ध्यान न रहा।

दोनों मुसलमान दुकानदारों ने अपने बयान में कहा -- हम लोग दूकान बन्द कर रहे थे। उसी वक्त जीने में ऐसी आवाज आई जैसे कोई बड़ी तेजी से उतरता चला आ रहा हो। इसके बाद हमने डाक्टर को निकलते देखा। यह बड़ी तेजी से एक तरफ चले गए। इनके कपड़े भी तितर-बितर थे। इसके बाद हम लोग दूकान बन्द करके अपने-अपने घर चले गए।

जिरह में दोनों दुकानदारों ने कहा -- हम डाक्टर को अच्छी तरह पहचानते हैं। यह अक्सर सुन्दरबाई के घर आया-जाया करते थे। बाजार की रोशनी इनके ऊपर काफी पड़ रही थी। उसमें हमने इन्हें अच्छी तरह देखा था। इसमें किसी शक व शुबहे की गुंजाइश नहीं है।

सुन्दरबाई की माता ने अपने बयान में कहा -- मैं जिस समय लौट कर आई, उस समय दस बज चुके थे। मैं एक दूसरी वेश्या को, जिससे मेरी मित्रता है, देखने गई थी। वह कई दिन से बीमार थी। मैंने कमरे में जा कर देखा कि सुन्दर चित्त पड़ी है और उसकी छाती में चाकू घुसा हुआ है। इतना ही देख कर मैं एकदम चिल्ला उठी। घर के नौकर तथा नौकरानी दौड़ पड़े। उन्होंने भी देख कर हल्ला मचाया। बाजार में सन्नाटा हो गया था। दो-चार दुकानें खुली थीं। वह भी उस समय बन्द हो रही थीं। हल्ला मचाने के आध घन्टे बाद एक कान्स्टेबिल आया। वह सब देख कर चला गया। उसके एक घन्टे बाद कोई बारह बजे दारोगा साहब आए थे।

जिरह में उसने कहा -- डाक्टर साहब पहले-पहल हमारे यहाँ अपने एक दोस्त के साथ आए थे। उनका नाम रेवतीशंकर है। वह बड़े आदमी हैं। वह बहुत दिनों हमारे यहाँ आते-जाते रहे। इसके बाद उन्होंने आना-जाना बन्द कर दिया। उन्होंने आना-जाना डाक्टर के कारण बन्द किया था। हमारे यहाँ उनमें और डाक्टर में कभी कोई झगड़ा नहीं हुआ। सुन्दरबाई ने एक दिन उनसे गुस्से में कह दिया था कि हमारे घर मत आया करो। इसका कारण यह था कि सुन्दरबाई डाक्टर को कुछ चाहती थी। मेरा विचार है कि डाक्टर ने ही उससे कहा होगा कि रेवतीशंकर को मत आने दो। एक दफे डाक्टर साहब ने मुझे हैजे से बचाया था, तबसे हम लोग उन्हीं को बुलाया करते थे। एक बार सुन्दरबाई ने मुझसे कहा था कि डाक्टर साहब का हृदय बड़ा कठोर है। इनके जी में जरा भी रहम नहीं है। मैंने उससे पूछा कि तुझे कैसे मालूम हुआ, तो इसका उत्तर उसने कुछ नहीं दिया था।

कामताप्रसाद ने अपने बयान में कहा -- मैं बहुधा सुन्दरबाई के यहाँ जाया करता था, परन्तु बाद में सुन्दरबाई की माँ को हैज़े से आराम मिलने पर मैं उनका फ़ैमिली डाक्टर हो गया, तब से मैं बहुधा जाता था। कुछ दिनों बाद मुझे सुन्दरबाई के व्यवहार से यह सन्देह उत्पन्न हुआ कि वह मुझसे प्रेम करती है। तब मैंने आना-जाना कुछ कम कर दिया था। जब मैं उनका फैमिली डाक्टर था तब बहुधा बुलाया जाता था। उस दशा में मैं जाने के लिए विवश था। बहुधा सुन्दरबाई झूठ-मूठ अस्वस्थ बन जाती थी और मुझे बुला भेजती थी। इससे मेरा सन्देह पक्का हो गया कि सुन्दरबाई मुझसे प्रेम करती है।

जिस दिन की यह घटना है, उस दिन मैं आठ बजे के बाद दवाखाना बन्द करके घर जाने लगा तो मेरी इच्छा हुई कि सुन्दरबाई के यहाँ होता चलूँ। मैं उसके यहां गया। हन दोनों भीतरी कमरे में बैठे। पहले तो इधर-उधर की बातें होती रहीं। इसके पश्चात सुन्दरबाई ने मुझसे प्रेम की बातें करनी आरम्भ कीं। मैंने उससे कहा कि मुझसे ऐसी बातें मत करो, परन्तु वह न मानी। मैंने उसे फिर समझाया। मैंने उससे कहा -- मैं अपनी पत्नी से प्रेम करता हूँ। इसके अतिरिक्त मैं किसी और स्त्री से प्रेम नहीं कर सकता। यह कह कर मैं उठ कर चलने लगा। सुन्दरबाई मुझसे लिपट गई। मैंने उससे डाँट कर छोड़ देने के लिए कहा, पर वह न मानी। उसने उसी समय मेरी पत्नी के सम्बन्ध में कुछ अपशब्द कहे। उन्हें सुन कर मुझे क्रोध आ गया। मैंने उसे अपने से अलग करके जोर से ढकेल दिया। वह पलँग पर गिरी। उसका सिर पलँग के काठ के तकिये से टकरा गया, जिससे उसके सिर से खून बहने लगा। यह देख कर मेरा डाक्टरी स्वभाव जागृत हो उठा। मैंने झट जेब से रूमाल निकालकर खून पोंछा और घाव को देखा। देखने पर मालूम हुआ कि वह बहुत ही साधारण था, केवल चमड़ा फट गया था। जिस समय मैं घाव पोछ रहा था, उसी समय सुन्दरबाई पुनः मुझसे लिपट गई। तब मैंने वहाँ ठहरना उचित न समझा और अपने को उससे छुड़ा कर मैं तेजी के साथ नीचे सड़क पर आ गया और अपने घर की ओर चला गया।

चाकू की बाबत प्रश्न किए जाने पर कामता प्रसाद ने कहा -- चाकू मेरे चाकुओं जैसा अवश्य है, परन्तु मेरा नहीं। मैं उसकी बाबत कुछ नहीं जानता। जितने चाकू मेरे बक्स में इस समय मौजूद हैं उतने ही मेरे पास थे, उससे एक भी अधिक नहीं था।

कामताप्रसाद के इतना कहने पर सरकारी वकील ने अदालत के सामने एक कागज पेश करते हुए कहा -- यह उस कम्पनी का इनवायस (बीजक) है जहाँ से अभियुक्त ने सर्जरी का बक्स मँगवाया था। इनवायस में तीन चाकू लिखे हुए हैं। अभियुक्त केवल दो का होना स्वीकार करता है। यह तीसरा चाकू कहाँ गया? बक्स में इस समय दो ही चाकू मौजूद हैं।

अदालत ने इनवायस, बक्स तथा जिस चाकू से हत्या की गई थी, उसे देख कर कामताप्रसाद से पूछा -- इनवायस में लिखा हुआ तीसरा चाकू कहाँ है?

कामताप्रसाद का मुँह बन्द हो गया। उन्हें स्वप्न में भी यह ध्यान नहीं आया कि पुलिस ने दूकान की तलाशी लेते समय इनवायस भी हथिया लिया होगा।

कामताप्रसाद के मुँह से केवल इतना निकला -- मैं निपराध हूँ, मैंने हत्या नहीं की।

कामताप्रसाद सेशन सुपुर्द कर दिए गए। कामताप्रसाद के पिता ने उन्हें छुड़ाने की बहुत कुछ चेष्टा की। एकलौता बैटा फाँसी चढ़ा जाता है, यह विचार उन्हें अपना सर्वस्व तक दे देने के लिए बाध्य किए हुए था। अच्छे से अच्छे वकील जुटाए परन्तु कोई फल न हुआ। कामताप्रसाद के विरुद्ध ऐसे दृढ़ प्रमाण थे कि वकीलों की बहस और खींचातानी ने कोई लाभ नहीं पहुँचाया। सेशन से कामताप्रसाद को फाँसी का हुक्म हो गया।

हाई कोर्ट में अपील की गई, परन्तु वहाँ से भी फाँसी का हुक्म बहाल रहा। इस समय कामताप्रसाद के माता-पिता की दशा का क्या वर्णन किया जाए। जिसके ऊपर असंख्य आशाएँ निर्भर थीं, जो उनके बुढ़ापे का स्तम्भ था -- वह आज उनसे छिना जा रहा है -- और सदैव के लिए। उनका घर इस समय श्मशान-तुल्य हो रहा था। कामताप्रसाद की युवती पत्नी, जिसने यौवन में पदार्पण ही किया था, रोते-रोते विक्षिप्त हो गई थी। और क्यों न होती? ऐसे योग्य, सुन्दर, कमाऊ और प्राणों से अधिक प्यारे पति को आँखों के सामने, असमय और जबरदस्ती मौत के मुख में ढकेला जाता हुआ देख कर कौन पत्नी अपने हृदय को वश में रख सकती है?

फाँसी होने के दो दिवस पहले कामताप्रसाद के माता-पिता तथा उनकी पत्नी उनसे मिलने गई थी। उस समय का वर्णन करना असम्भव है। चारों में से प्रत्येक यह चाहता था कि एक-दूसरे की मूर्ति सदैव के लिए हृदय में धारण कर ले, परन्तु आँसुओं की झड़ी ने आँखों पर ऐसा निष्ठुर पर्दा डाल रखा था कि परस्पर एक-दूसरे भली भाँति देख भी न सके। हृदय की प्यास हृदय में हिमशला की भाँति जम कर रह गई। माता पुत्र को छाती से लगा कर इतना रोई कि बेहोश सी हो गई। उसके बैन सुन कर पाषाण की छाती भी फटती थी। 'हाय मेरे लाल, मैंने कैसे-कैसे दुख उठा कर तुझे पाला था। हाय, क्या इसी दिन के लिए पाला था। अरे चाहे मुझे फाँसी दे दो, पर मेरे लाल को छोड़ दो। हाय, मेरा एकलौता बच्चा है, यह मेरी आँखों का तारा, बुढ़ापे का सहारा है। क्या सरकार के घऱ में दया नहीं है, क्या लाट साहब के कोई बाल-बच्चा नहीं है? अरे, कोई मुझे उनके सामने पहुँचा दो। मैं अपने आँसुओं से उनका कलेजा पसीज डालूँगी। अरे, मेरा हाथी सा बच्चा कसाई लिए जाते हैं। अरे, कोई ईश्वर के लिए इसे छुड़ाओ। हाय, मेरा बच्चा जवानी का कोई सुख न देख पाया। हाय, जैसा आया था, वैसा ही जाता है। हाय, इस अभागी बच्ची (पुत्रवधू) की उमर कैसे टेर होगी? अरे राम, तुम इतने क्यों रूठ गए। मैंने पाप किए थे तो मुझे नरक में भेज देते, मेरा बच्चा क्यों छीने लिए जाते हो। अरे, कलेजे में आग लगी है, इसे कोई बुझाओ।'

कहाँ तक लिखा जाए, वह इसी प्रकार की बातों से सुनने वालों का हृदय विदीर्ण कर रही थी। जेलर भी रूमाल से आँखें पोंछ रहा था। पिता सिर झुकाए हुए चुपचाप खड़े थे, परन्तु जिस स्थान पर खड़े थे, वह स्थान आँसुओं से तर हो गया था और कामताप्रसाद की पत्नी, वह बेचारी लज्जा के मारे कुछ बोल नहीं सकती थी। उसके हृदय की आग ऊपर फूट निकलने का मार्ग न पा कर, भीतर ही भीतर कलेजे में फैल कर तन-मन भस्म किए डाल रही थी। अन्त में जब न रहा गया, जब भीतरी आग की गर्मी सहनशक्ति की सीमा पार कर गई, तो लज्जा को तिलांजलि दे कर वह एकदम दौड़ पड़ी और पति की छाती से चिपक गई। 'हाय मेरे प्राण, मुझे छोड़ कहाँ जाते हो।' केवल यह वाक्य उसके मुख से निकला, उसके पश्चात वह बेहोश हो गई। उसी बेहोशी की दशा में उसे वहाँ से हटा दिया गया। कामताप्रसाद की आँखों से भी आँसुओं की धारा बह रही थी, परन्तु मुँह बन्द था। मुँह से कोई शब्द न निकले, इसके लिए उन्होंने अपने नीचे के होंठ इतने जोर से दाबे कि खून बहने लगा।

समय अधिक हो जाने के कारण जेलर ने भेंट की समाप्ति चाही। परन्तु कामताप्रसाद के पिता ने कहा -- कृपा कर पांच मिनट तो और दीजिए, अब तो सदैव के लिए अलग होते हैं।

जेलर ने कहा -- मेरा वश चले तो मैं आप लोगों को कभी भी अलग न करूँ, नियम से विवश हूँ। खैर, पाँच मिनट और सही।

कामताप्रसाद की माता और पत्नी दोनों बेहोश हो जाने के कारण हटा दी गई थीं, केवल उनके पिता रह गए थे। कामताप्रसाद ने कहा -- पिताजी, यह तो आपको विश्वास ही है कि मैं निर्दोष हूँ।

पिता ने कहा -- क्या कहूँ बेटा, मेरे लिए तू सदैव निर्दोष था।

कामताप्रसाद -- मैं केवल कुसंगत का शिकार हो गया। कुसंगत में पड़ कर न मैं वेश्या के घर जाता, न यह नौबत पहुँचती, खैर भाग्य में यही बदा था। परन्तु इतना मुझे विश्वास हो गया कि समाज न्याय की ओट में अन्याय भी करता रहता है। न्याय के नियमों को इतना अधिक महत्व दिया जाता है कि वह अन्याय की सीमा तक पहुँच जाता है। उन नियमों के लिए मनुष्य की सज्जनता, सच्चरित्रता, उसकी नेकनीयती का कोई मूल्य नहीं। बड़े से बड़े आदमी, अच्छे मनुष्य के साथ उसकी क्षणिक कमजोरी के लिए भी वैसा व्यवहार करते हैं, जैसा कि एक अभ्यस्त अपराधी के साथ। यह न्याय है? यह वह न्याय है, जिसके आँखें और कान हैं, परन्तु मस्तिष्क नहीं है। केवल दो-चार व्यक्तियों के कह देने से और मेरी कुछ वस्तुओं को हत्या-स्थल पर देख कर ही न्याय के ठेकेदार मुझे फाँसी पर लटकाए दे रहे हैं। ईश्वर ऐसे न्याय से समाज की रक्षा करे। खैर, अब एक प्रार्थना यह है कि जरा रेवतीशंकर को मेरे पास भेज देना, उससे भी मिल लूँ। यदि उससे भेंट न होगी तो मेरी आत्मा को शांति न मिलेगी।

दूसरे दिन रेवतीशंकर भी पहुँचा। रेवतीशंकर से बात करते समय कामताप्रसाद ने सबको हटा दिया। जब एकान्त हुआ तो कामताप्रसाद ने रेवतीशंकर की आँखों में आँखें मिला कर कहा -- रेवतीशंकर, जानते हो मैं किसलिए फाँसी पर चढ़ रहा हूँ?

इतना सुनते ही रेवतीशंकर का शरीर काँपने लगा। वह आँखें नीची करके बोला ही नहीं।

कामताप्रसाद ने उसका मुँह ऊपर करके कहा -- मेरी ओर देखो, घबराओ नहीं। मैं केवल इसलिए फाँसी पर चढ़ रहा हूं कि मैंने तुम्हें बचाने की चेष्टा की थी। मैंने अदालत से यह नहीं कहा कि वह तीसरा चाकू कहाँ गया। यद्यपि मुझे याद था कि वह चाकू तुम ले गए थे। मैंने यह भी नहीं कहा कि सुन्दरबाई से मेरे कारण तुम्हारा कई बार झगड़ा हुआ। तुमने उसे धमकी भी दी थी। रेवतीशंकर, मैंने तुम्हें फँसा कर या तुम्हारे ऊपर सन्देह उत्पन्न कराके अपने प्राण बचाना कायरता और मित्रता के प्रति विश्वासघात समझा। यदि मैं पहले ही कह देता कि तीसरा चाकू तुम ले गए थे, तो वह इनवायस की शहादत, जो मेरे लिए मौत का फन्दा हो गई, कभी उत्पन्न न होती। यह मैं मानता हूँ कि मेरे केवल इतना कह देने से कि चाकू तुम ले गए थे, मैं मुक्त न हो जाता। मेरे विरुद्ध अन्य बातें भी थीं, परन्तु फिर भी मैं ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर सकता था, जिससे कि यह सम्भव था कि मैं छूट जाता। परन्तु मेरे छूटने का अर्थ था तुम्हारा फँसना। न्याय तो एक बलिदान लेता ही, मेरा न लेता -- तुम्हारा लेता। हम दो के अतिरिक्त तीसरे की कोई गुंजाइश नहीं थी। इसलिए मैं तुम्हारे सम्बन्ध में मौन ही रहा। खैर जो हुआ सो हुआ, पर अब इतना तो बता दो कि मेरा विचार ठीक है या नहीं? रेवतीशंकर कुछ क्षणों तक कामताप्रसाद की ओर देखता रहा, तत्पश्चात उसने आँखें नीची कर लीं और गर्दन झुकाए हुए, काँपते हुए पैरों से, पिटे हुए कुत्ते की भाँति कामताप्रसाद के सामने से हट आया। कामताप्रसाद ने किंचित मुस्कराते हुए उस पर जो दृष्टि डाली, वह दृष्टि थी जो एक महात्मा दया के योग्य एक पापी पर डालता है।

कामताप्रसाद को फाँसी दे दी गई। फाँसी के एक सप्ताह पश्चात रेवतीशंकर ने विष खा कर आत्म-हत्या कर ली। उसके कमरे में एक बन्द लिफाफा पाया गया।

उस लिफाफे में से एक पत्र निकला। वह पत्र किसी के नाम नहीं था, केवल साधारण रूप में लिखा गया था। उसमें लिखा था--

'सुन्दरबाई की हत्या कामताप्रसाद ने नहीं, मैंने की थी। सुन्दरबाई ने मेरे प्रेम को ठुकराया था, मेरा हृदय छीन कर दुतकारा था। इसके लिए मैं उसे कभी क्षमा नहीं कर सकता था। मैं उसके प्रेम में पागल था। उसके बिना संसार मेरे लिए शून्य था। जिस दिन उसने मुझे अपने घर आने से रोक दिया, उस दिन से मैं विक्षिप्त सा हो गया। मैं इस चिन्ता में रहने लगा कि या तो उसे अपना बना कर छोड़ूँ या फिर उसे दूसरों के लिए इस संसार में न रहने दूँ। मैं उसके मकान का चक्कर काटता रहता था। पर उस दशा में भी मुझमें इतना आत्मगौरव था कि मैं उसके मकान पर नहीं गया। जिस दिन मैंने उसकी हत्या की, उस दिन रात को नौ बजे के लगभग मैं टहलता हुआ उसके मकान के नीचे से निकला। इस अभिप्राय से कि कदाचित उसकी एक झलक देखने को मिल जाए। मैं उसके मकान के सामने जरा हट के खड़ा हो गया। मुझे खड़े हुए कुछ क्षण हुए थे कि कामताप्रसाद उसके मकान से उतरे। उनका वेष देख कर मेरी मेरी आँखों में खून उतर आया। उनके अस्त-व्यस्त कपड़ों से मैंने कुछ और ही समझा। उस विचार के आते ही मेरे शरीर में आग लग गई। मुझे कामताप्रसाद पर जरा भी क्रोध नहीं आया, क्योंकि मैं जानता था कि उन्हें सुन्दरबाई की जरा भी परवाह नहीं। मुझे क्रोध सुन्दरबाई पर आया, वही उनसे प्रेम करती थी। मैं अपने को सँभाल न सका और बिना परिणाम सोचे मैं चुपचाप चोर की तरह सुन्दरबाई के कोठे पर चढ़ गया। ऊपर जा कर मैं बहुत ही दबे पाँव सुन्दरबाई के कमरे में पहुँचा। सुन्दरबाई उस समय पलँग पर लेटी हुई थी। उसके शरीर के कपड़े अस्त-व्यस्त थे। यह देख कर मैं क्रोधोन्मत्त हो गया। मैंने जाते ही एकदम से उसका मुँह दाब लिया, जिससे वह हल्ला न मचा सके। मेरे पास एक चाकू था, यह मैंने कामताप्रसाद से उस समय माँग लिया था, जबकि उसका सर्जरी का सेट आया था। उस सेट का एक चाकू मुझे बहुत पसन्द आया था, वह मैंने उनसे माँग लिया। यह चाकू मुझे इतना पसन्द था कि मैं उसे हर समय अपने पास रखता था। वह चाकू निकाल कर मैंने उसकी छाती में घुसेड़ दिया, मैं उसका मुँह दाबे था, इससे वह चिल्ला न सकी। जब वह ठंडी हो गई तो मैं उसी प्रकार चुपचाप उतर कर अपने घर चला आया। मुझे किसी ने नहीं देखा था। बाजार की अधिकांश दूकानें उस समय बन्द हो चुकी थीं। मैंने घर आ कर अपने खून से भरे कपड़े तुरन्त जला दिए और निश्चिन्त हो गया।'

'जब मुझे यह पता चला कि कामताप्रसाद फँस गए तो मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने उस समय यह नहीं सोचा था कि हत्या का सन्देह किस पर पड़ेगा। मित्र के फँसने पर मुझे कितना पश्चाताप और कितना दुख हुआ, उसे मैं ही जानता हूँ। परन्तु मृत्यु का भय, फाँसी पर लटकने के भयानक विचार ने मुझे इतना कायर बना दिया कि मैं अपना अपराध स्वीकार करके कामताप्रसाद को न बचा सका। मैंने कई बार चेष्टा की कि अदालत में जाकर सब बातें कह दूँ, पर फाँसी के अतिरिक्त आजन्म कारावास अथवा कालेपानी की सजा भोगने के लिए मैं सहर्ष प्रस्तुत था परन्तु मृत्यु। ओफ़। उसके लिए उस समय मैं प्रस्तुत नहीं था। कामताप्रसाद को फाँसी हो गयी। मैंने एक नहीं, दो हत्याएँ कीं।'

'कामताप्रसाद को यह रहस्य मालूम था। जेल में अन्तिम भेंट होने पर मुझे यह बात मालूम हुई। उस समय भी मैं इसी फाँसी के भय से अपने मित्र से अपने इस गुरुतर पाप के लिए क्षमा न माँग सका। भय ने उस समय भी मेरा मुख बन्द कर दिया था।'

'अब मेरे लिए संसार शून्य है। मेरी सबसे प्यारी चीज सुन्दरबाई भी नहीं रही, दो-दो हत्याओं का मेरे सिर पर भार है। पश्चाताप की ज्वाला से तन-मन भस्म हुआ जा रहा है। इस घोर यन्त्रणापूर्ण जीवन से अब मुझे मृत्यु ही भली प्रतीत हो रही है, इसलिए मैं आत्म-हत्या करता हूँ। ईश्वर मेरे अपराधों को क्षमा करके मेरी आत्मा को शान्ति देगा या नहीं, इसमें मुझे सन्देह है परन्तु फिर भी जीवन से मृत्यु अधिक प्रिय मालूम होती है।'

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जिस समय कामताप्रसाद के पिता को यह बात मालूम हुई कामताप्रसाद निपराध फाँसी पर चढ़ा, उस समय उन्होंने कहा -- उसके भाग्य में यही लिखा था, परन्तु इसके साथ ही यह बात भी है कि न्याय का यह दण्ड-विधान हत्या-विधान है। यदि मेरे लड़के को फाँसी न दे कर, आजन्म जेल हुई होती तो वह आज छूट आता। न्यायी को ऐसा कार्य करने का क्या अधिकार है, जिसमें यदि भूल हो तो उसका सुधार भी उसके वश में न रहे। अब यदि न्याय उसे जिला नहीं सकता तो उसे फाँसी देने का क्या अधिकार था? यह न्याय नहीं, बर्बरता है, जंगलीपन है, हत्याकाण्ड है। ऐसे न्याय का जितना शीघ्र नाश हो जाय, अच्छा है।

दुखी वृद्ध अपने शोकोन्माद में बैठा बक रहा था, परन्तु वहाँ ईश्वर के अतिरिक्त उसकी बात सुनने वाला कौन था।