Saturday, December 5, 2009

कुसुम कथा

कुसुम कथा
मैं लगभग पच्चीस वर्षों बाद अपनी जन्मभूमि पर लौटी हूँ। आना तो वह भी चाहते थे, पर उन्हें फ़ुर्सत नहीं मिली। व्यवसाय की अपनी व्यस्तताएँ होती हैं - मकड़जाल की तरह फैली हुई। भाग-दौड़, लेन-देन, हिसाब-क़िताब आदि तरह-तरह के काम-काज से बुना हुआ मकड़जाल। मैं तो आज तक इस रहस्य को समझ ही नहीं सकी कि वह कैसे इस मकड़जाल के एक-एक धागे को पहचानते हैं ! हर धागे की शुरुआत से लेकर आख़िरी सिरे तक पर उनकी नज़र होती है। मज़ाल है कि कोई सिरा एक-दूसरे से उलझ जाए और फिर सुलझे नहीं ! हर हाल में चीज़ों को सुलझा लेना उनकी ख़ासियत है।
मेरे साथ ठीक इसके उलट होता है। मुझे तो सब उलझा हुआ ही लगता रहा हमेशा। एक तो मैं उनसे कभी कुछ पूछती ही नहीं और अगर कभी कुछ पूछ लिया, तो वह हँसते हैं। कहते हैं - ''जितना दिमाग़ तुम्हें समझाने में ख़र्च करुँगा, उतने में मेरे दसियों काम निबट जाएँगे।........और तुम्हें समझने की कौन सी ज़रूरत आ पड़ी है ?''
उनका आना तय था। बल्कि, पिछले कुछ दिनों से वह बार-बार यहाँ की चर्चा कर रहे थे। उन्होंने ही आने के लिए दिन तय किया। अपनी भाग-दौड़ भरी व्यस्त ज़िन्दगी के बीच इन दिनों जब उन्हें थोड़ी सी भी फ़ुर्सत मिलती, .....वह यहाँ की चर्चा करने लगते। बम्बई से पटना तक हवाई जहाज़,......और पटना से किराए की कार लेकर देवघाट तक जाने का कार्यक्रम उन्होंने ही बनाया।
उनका उत्साह देखते ही बनता था। मेरी इस शंका पर कि क्या इतने दिनों तक उनका बम्बई से बाहर रह पाना,.....यानी यहाँ रह पाना सम्भव होगा, वह ठठाकर हँसे थे। यहाँ कम से कम एक सप्ताह तक रुकने का कार्यक्रम था। उन्होंने वापसी का टिकट इसी हिसाब से कराया था। मेरे मन में यह चिंता बनी हुई थी कि यहाँ पहुँचकर कैसे रहना हो सकेगा ?......कहाँ रहना होगा ?......कौन-कौन मिलेगा और किस हाल में मिलेगा ?......किसका व्यवहार कैसा होगा ?.........पर उनके ऊपर इन चिंताओं का कोई असर नहीं था। उनका मन उछाह से भरा हुआ था।.........पर ऐन वक्त पर सबकुछ उलट गया। वह नहीं आ सके। उन्हें एक बड़े बिजनेस डील के लिए विदेश जाना पड़ा। वह उदास दिखे थे। उन्होंने कहा था - ''इतने सालों बाद सोचा जाने के लिए........तो....''
कोई सम्बन्ध यदि टूट जाए, तो क्या उसके टूटने का दु:ख,.......या अंत तक नहीं निभ पाने का दु:ख लिये तमाम उम्र रोना चाहिए ? मैं जानती हूँ कि यह दुविधा भरा सवाल नया नहीं है। पर इन दिनों मैं बार-बार अपने-आप से यही सवाल करती हूँ।.......इंसान भी तो जीते-जीते अचानक मर जाता है। ग्रहों,नक्षत्रों और हाथ की रेखाओं के सारे खेल धरे के धरे रह जाते हैं। उम्मीदें,........सपने,........आनेवाले समय के लिए बुनी गईं तमाम इच्छाए, इंसान के मरने के साथ ही मर जाती हैं। बिना किसी हलचल के,......कोई तर्क-वितर्क किए बिना चुपके से सबकुछ निष्प्राण हो जाता है। अचानक रोशनी के बुझते ही तमाम आकृतियाँ जैसे पिघलकर बिना किसी आकार की स्याही में बदल जाती हैं, वैसे ही क्या सम्बन्धों के साथ नहीं हो सकता ? सम्बन्धों का टूटना ऐसे ही होना चाहिए। मृत्यु की तरह। जैसे जीवन की वापसी की सारी उम्मीदों पर ताले जड़ती और चाबी को गहरे कुएँ में डालती हुई आती है मृत्यु, वैसे ही समाप्त होना चाहिए सम्बन्धों को, यदि उन्हें समाप्त होना है तो। सम्बन्धों के टूटने के बाद यदि ज़रा सा भी कुछ शेष रह जाता है, तो वह ता-उम्र दु:ख देता है। सम्बन्धों के फिर से जीवित होने की आस टीस की तरह साथ-साथ चलती रहती है। सम्बन्धों का टूटना मृत्यु की तरह हो, तभी इस टूटने को सही मायने में टूटना कहा जा सकता है।
देवघाट से बम्बई के लिए विदा होते हुए मैं अपने रिश्तों का बहुत सारा हिस्सा साथ लेती गई थी। हालाँकि, उनके अनुसार मैं कभी वापस नहीं आने के लिए गई थी, पर आज देवघाट में हूँ। बम्बई में रहते हुए पच्चीस वर्षों तक जो टीस मैं पालती रही, उसकी लहलहाती फ़सल आज यहाँ काट रही हूँ। है न अजीब बात,.......कुछ-कुछ उलझी हुई-सी। हाँ, बहुत कुछ उलझा हुआ है, पर मैं जानती हूँ कि इसे एक दिन,.......बहुत जल्दी सुलझ जाना है। बस, निर्णय लेने भर की देर है।
कुसुम बुआ के आने के बाद घर में रौनक भर गई है। अपनी गृहस्थी में उलझी रहनेवाली जिस दिदिया को दो-चार दिनों के लिए भी छुट्टी नहीं मिलती थी, वह बुआ के आने की ख़बर सुनते ही देवघाट पहुँच गई। दो पीढ़ियों की बेटियाँ एक साथ मायके में हैं। मेरे घर में उत्सव का माहौल है। बुआ तो अकेली आई हैं, पर दिदिया के दोनों बेटों की धमाचौकड़ी और गौरैया की तरह फुदकती नन्हीं सी बेटी की चहकन में पण्डित धूर्जटि पाण्डेय का घर-ऑंगन डूबा हुआ है। मैंने दिदिया को इस घर पर राज करते हुए बचपन से देखा है। पर आजकल वह बुआ की शागिर्दी में लगी हुई है। उनके पीछे-पीछे डोलती फिरती है। अम्मा और दिदिया दोनों इन दिनों बाबा की सेवा से मुक्त हैं। मेरे बाबा पण्डित धूर्जटि पाण्डेय चाहे जिसको आवाज़ दें,उनकी आवाज़ पर उन तक बुआ ही पहुँचती हैं। पण्डितजी की पूजन-सामग्री से लेकर भोजन-स्नान तक की सारी व्यवस्था बुआ ने सँभाल ली है। सिर्फ ऌतना ही नहीं, मेरे बाबा के दो छोटे भाइयों के कुनबे यानी पट्टीदारों के साथ कुछ वर्षों से रिश्ते में जो ठंडापन आ गया था, देखते-देखते आत्मीयता की ऊष्मा से भर गया है। बुआ की उपस्थिति ने कई जगह प्रभाव डाला है, मानो वर्षों से यह प्रयोगशाला कुसुम नामक रसायन की प्रतीक्षा में थी।
जिस बुआ की उपस्थिति से यह हलचल मची है, उनके आने की ख़बर से पहले तक उनके नाम की चर्चा चलते ही एक सर्द चुप्पी छा जाती थी। मेरी अम्मा की ऑंखें देवघाट के किनारे-किनारे बहनेवाली सरयू की धारा की तरह उमड़ने लगतीं,.........मेरे बाबूजी पण्डित रूद्रदेव पाण्डेय आगे की थाली सरकाकर उठ जाते और कई दिनों तक चुप-चुप रहते,........और बाबा की ऑंखों में क्रोध की लपटें और नेह की आर्द्रता दोनों एक साथ दिखतीं। हम दोनों अचानक बदले इस मौसम से भयभीत हो जाते। क्यों होता है ऐसा ? यह प्रश्न हम दोनों को नींद में भी सताता। हमारे लिए हमारे बचपन का सबसे बड़ा रहस्य थीं कुसुम बुआ। दिदिया और मैं, जब दोनों साथ होते, बुआ के बारे में ख़ूब बातें करते। अपनी नासमझी के दायरे में ही सही,हम इस रहस्य को भेदने की कोशिशें करते। मैं तो कई बार पिटा भी हूँ। बुआ को देखने,......बुआ से मिलने,........बुआ के यहाँ जाने की ज़िद करता और घर में तनाव भर जाता। बाबा और बाबूजी तो नहीं, पर अम्मा पीटतीं। अक्सर इस तनाव का अंत मेरी पिटाई से ही होता। दिदिया होशियार थी। वह ऐसी ज़िद नहीं करती। चाहती तो वह भी थी, पर चुप लगा जाती। उसने बुआ को देखा था। वह जब पाँच साल की थी, तब बुआ यहाँ से गई थीं। पाँच साल की बच्ची को कितना कुछ याद रह सकता है भला ! फिर भी, उनके बारे में जो भी उसकी स्मृति में था, मुझे बताती और इस ज्ञान के बल पर मुझ पर रोब झाड़ती। जब हमदोनों बड़े हुए और धीरे-धीरे कुछ बातें मालूम हुईं, तो मुझे अजीब लगा।
मेरे बाबूजी के भोलेपन और भीतर ही भीतर घुटते रहकर सब कुछ सहते जाने की आदत ने भी स्थितियों को जटिल बनाया था। बाबूजी एक मंदिर में पुजारी हैं। लोग उन्हें रूद्रदेव पाण्डेय नहीं, पुजारीजी कह कर बुलाते हैं। पिछली शताब्दी की शुरुआत में बने इस मंदिर में मेरी पिछली तीन पीढ़ियाँ पूजा करती आ रही हैं। अब बाबूजी को इस बात की चिंता घुन की तरह खाए जा रही है कि उनके बाद क्या होगा ? वह जानते हैं कि मैं पुजारी बनकर जीवन गुज़ारना नहीं चाहता। वह स्वयं भी नहीं चाहते कि मैं पुजारी बनूँ।......पर मामला पाँच बीघा ज़मीन की खेती का है। यह ज़मीन पुजारी की जीविका और मंदिर की देखभाल के लिए दान में मिली है। मेरे गाँव के ही एक कायस्थ परिवार ने यह मंदिर बनवाया था और ज़मीन दान में दी थी। वे लोग अब गाँव में नहीं रहते। शहर में बस गए। इसी पाँच बीघे की खेती के बल पर मेरे परिवार का भरण-पोषण होता रहा है।
मैंने इसी साल बी.ए. किया है। मास्टर बनने की कोशिश में हूँ। बाबा चाहते हैं कि मैं देवघाट में ही रहूँ। यहीं बच्चों को पढाऊँ और उनकी मृत्यु से पहले मंदिर में पूजा-पाठ का काम सँभाल लूँ।........कुसुम बुआ की बात करते-करते मैं यह कौन सी कथा कहने लगा ! अपनी इस आदत से बहुत परेशान हूँ मैं। बात कहीं से शुरु करता हूँ...........और कहीं ख़त्म। सिलसिलेवार बातों को रखने की कला नहीं सीख पाया। दिदिया को यह कला ख़ूब आती है। उसने देवघाट में अनुपस्थित बुआ के पच्चीस वर्षों को अपनी बातों से पाट दिया है। बुआ जिस किसी के बारे में जिज्ञासा करती हैं, दिदिया उसके बारे में विस्तार से बताती है। मसलन, किसकी मौत कब हुई ?.......किसको कितने बच्चे हैं ?.......किसकी शादी कब और कहाँ हुई ? यहाँ तक कि किसकी बहू के मायके से विदाई के समय क्या आया और किसने अपनी बेटी की शादी में क्या-क्या दिया ? बुआ की तमाम उत्सुकताओं को शांत करने में लगी है दिदिया। वह एक भी ब्योरा छूटने नहीं देती और बुआ हैं कि देवघाट की दिवंगत आत्माओं से लेकर नवजात शिशुओं तक का विवरण जानने के लिए उत्सुक हैं। बुआ बता रही थीं कि बम्बई में रहते हुए भी वह देवघाट की चारों दिशाओं में बसे ग्राम देवताओं - जोगी बाबा, आशा बाबा, ब्रह्म बाबा और सती माई को सुमिरती रही हैं। जोगी बाबा तो सफेद चोगा पहने उनके सपनों में आते रहे हैं।
मैं एक बात बताना चाहता हूँ.........अपने बारे में। जब से बुआ आयी हैं, जाने क्यों मुझे लगता है कि मेरे जीवन की दिशा अब बदलने ही वाली है।
बुआ के आने की ख़बर मिलते ही मैं भागती हुई देवघाट पहुँची। हालाँकि, दम मारने की भी फुर्सत नहीं थी मेरे पास। एक तो खेती-किसानीवाले घर में फुर्सत निकाल पाना वैसे ही मुश्किल होता है और ऊपर से चैत-वैशाख। इन महीनों में रबी फ़सल की कटनी-दौनी की अफ़रा-तफ़री मची होती है। मेरे घर के लोग पुरोहिताई नहीं करते। हमलोग अपने गाँव के बड़े खेतिहर हैं। मेरे श्वसुर पण्डित गजानन चौबे इलाक़े के मातबर लोगों में हैं। इस बदले हुए ज़माने में भी उनका रोब-दाब है।
मेरे पति इकलौते हैं। दरवाज़े पर जीप है,......ट्रैक्टर है,.....थ्रेसर है,....पम्पिंग सेट है,......एक जोड़ी बैल हैं,......भैंस है,.....जर्सी गाय है। कलमी आमों और शाही लीची के पेड़ों का अपना बाग़ीचा है। दूध-दही-अन्न-फल से भरा-पूरा है मेरा घर। पूरे जवार में मेरे परिवार और पट्टीदारों की धाक है। देवघाट के लोग कहते हैं कि भगवान सबकी बेटी को पुजारीजी की बेटी जैसा भाग्य दे।
मेरे श्वसुर ने मुझे फाल्गुनी शिवरात्रि के दिन मेंहदार के मेले में देखा था। मैं अम्मा के साथ शिवजी को जल चढ़ाने गई थी। बाबा, बाबूजी और नीलेश भी साथ थे। मैं मैट्रिक की परीक्षा देनेवाली थी। बाबा का कहना था कि यह संयोग है कि परीक्षा से पहले शिवरात्रि की तिथि है। मुझे शिवजी की पूजा करनी चाहिए। उनकी कृपा हुई तो मैं अच्छे नम्बरों से पास हो जाऊँगी। मैं ठीक परीक्षा से पहले कहीं जाने को तैयार नहीं थी, पर भाग्य में लिखा था शिव का वरदान पाना,....सो चली गई। परीक्षा और रिजल्ट से पहले वर मिल गया। चौबेजी ने मुझे देखा और पता लगवाया। जब उन्हें पता चला कि मैं देवघाट के पण्डित धूर्जटि पाण्डेय की पोती हूँ, तो बाबूजी को संदेश भिजवाया। विवाह तय हुआ, तो सपने की तरह लग रहा था सबकुछ। बाबूजी तो दोनों हाथ जोड़कर चौबेजी के सामने खड़े हो गए थे कि आपके घर के योग्य नहीं हैं हम। पर मेरे श्वसुर ने भरोसा दिलाया कि सम्बन्ध में हैसियत नहीं देखी जाती। यह तो लड़के-लड़की के भाग्य का खेल है।.....और मैं चैनपुर के चौबे कुल की बहू बन गई। मेरा रिजल्ट आने से पहले मेरा विवाह हो गया। उन दिनों ये बी.ए. कर रहे थे। सीवान के कॉलेज में पढ़ते थे। कॉलेज से लौटते तो मेरे लिए.........। मैं भी कौन सी पिटारी खोल बैठी ! ......कुछ दिनों बाद चुनचुन आया। फिर चुनमुन पैदा हुआ। इनको बेटी की साध थी, सो दो साल पहले चुन्नी हो गई।......इन्होंने हमेशा मुझे मान दिया है। ग़रीब के घर की बेटी मानकर कभी ओछा नहीं सोचा। मेरे मायके को लेकर कभी आनी-बानी नहीं बोलते। नीलेश की पढाई में हमेशा मदद करते रहे हैं। जब जितना चाहूँ,....,......जो चाहूँ बिना पूछे देवघाट भेज सकती हूँ। लीख को लाख कर दूँ या लाख को लीख, इनका मन कभी मलिन नहीं होता।
शुरु में बुआ के बारे में इन्होंने भी कई बार पूछा। क्या बताती मैं ? चुप रहती या टाल जाती। पर कोई बात छिपती है भला ! कुछ दिनों बाद इन्हें मालूम हो गया। पर इन्होंने इस बात की कभी मुझसे चर्चा नहीं की। एक बार जब मैंने पूछा तो कहने लगे कि पैबंद का सीवन उधेड़ने से कपड़ा किसी काम का नहीं रहता और शरीर भी नंगा हो जाता।....सच है यह। यही बात लोग नहीं समझते। इस बात को न तो बाबा समझे न ही बाबूजी। जो होना था, सो हो गया। इसमें भला बुआ का क्या दोष !
मैं पाँच साल की थी तो बुआ बम्बई चली गईं। मैं तीस की होने जा रही हूँ अब। चौदह साल पूरे होंगे मेरी शादी के। तीन बच्चों की माँ हूँ मैं। बड़ी आस थी कि मेरे ब्याह में तो बुआ आएँगी ही। पर बुआ नहीं आईं। बाद में पता चला कि मेरी माँ के बहुत रोने-गिड़गिड़ाने के बाद भी बाबा नेवता भेजने को तैयार नहीं हुए।

कुसुम बबुनी के आने के बाद मेरा मन थिर हुआ है। इतने सालों तक कुम्हार के चाक पर रखी गीली माटी की तरह चक्कर काटते-काटते मैं थक चुकी थी। अब थोड़ा आराम मिला है। मन को चैन मिला है।
इन सालों में शायद ही कोई रात रही होगी, जब बिना रोए-सुबुके मेरी ऑंख लगी हो। ख़ुशी के ढेरों अवसर आए, पर कुसुम बबुनी को लेकर मेरे मन में टीस बनी रही। मैंने कुसुम को ननद नहीं, अपनी सहेली की तरह प्यार किया है। जब मैं ब्याह कर आई कुसुम के लिए वर खोजा जा रहा था। हम दोनों की उम्र में दो-तीन साल का ही फासला है। मेरी सास मर चुकी थीं। कुसुम ही घर सँभालती थी। हम दोनों,सखियों की तरह इस घर में डोलती फिरतीं। कुसुम ने ब्याह के साल ही प्राइवेट से मैट्रिक की परीक्षा पास की। बड़ी होनहार रही है वह। उन दिनों हमारे घरों में लड़कियों का पढ़ना-लिखना एक संयोग ही था। पढ़ाने का चलन ही नहीं था। बहुत जोड़-घटाकर मैं सिर्फ चिट्ठी बाँचना भर सीख सकी। मेरे श्वसुर पण्डित धूर्जटि पाण्डेय के विरोध के बावजूद मेरे पति अपनी बहन को परीक्षा दिलवाने ले गए थे।
कुमुद छोटी थी। कुसुम से लगभग दो साल छोटी। कुमुद के बारे में बातें करते हुए होठ नहीं खुलते....मन काँपता है, पर बात तो करनी होगी।......सबसे अलग थी कुमुद। चैत की पुरवाई की तरह चंचल, सिलाई-कढ़ाई और गीत-गवनई में हुनरमंद।......अब मैं सोचती हूँ, कुसुम से मेरे अपनेपन ने,.....मेरी निकटता ने अनजाने ही कुमुद के मन में मेरे और कुसुम के लिए घृणा के बीज बो दिए होंगे। मेरे लाड़-दुलार को उसने कभी स्वीकार नहीं किया। कुसुम से भी वह दूर होने लगी थी। वह चुप रहती। लाख चाहने के बावजूद वह मेरे निकट नहीं हो सकी। शायद उसे लगता रहा कि मैंने उसकी दिदिया को उससे छीन लिया है। जो भी हो, मैं तो इसे अपनी ही भूल मानती हूँ। हालाँकि मैंने कभी भेद-भाव नहीं किया। उसे छोटी बहन की तरह ही प्यार किया।......पर मेरे भीतर यह कसक है कि कुसुम से मेरे अपनापे ने उसे मुझसे दूर किया,......कुसुम से दूर किया और वह भीतर ही भीतर बदलती चली गई।
कुसुम का ब्याह हुआ। पाहुन पढ़े-लिखे थे। जायदाद नहीं थी। हमलोगों जैसा ही पुरोहितों का परिवार था। कुसुम ससुराल गई। विदा होकर लौटी। सबकुछ ठीक था। ससुराल में सम्पन्नता नहीं होने के बावजूद कुसुम प्रसन्न थी। कुसुम के आने के बाद पाहुन का देवघाट आना-जाना शुरु हुआ। कुसुम की विदाई की बात चली, तो पाहुन ने मना कर दिया। वह चाहते थे कि कुसुम तब तक देवघाट में रहे , जब तक वह कोई नौकरी नहीं कर लेते या कोई अपना व्यवसाय नहीं शुरु कर देते। इस बीच मैं माँ बन चुकी थी। पाहुन का आना-जाना लगा रहा। वह आते, कुछ दिन रुकते और फिर अपने गाँव चले जाते। कुसुम की विदाई को लेकर फुसफुसाहटें शुरु हो चुकी थीं। लोग अपने-अपने ढंग से बातें गढ़ने लगे थे। दिन गुज़रते रहे।
......और एक दिन वज्र टूट पड़ा। पूरा का पूरा आसमान हमारे घर के ऊपर औंधे मुँह आ गिरा। विपत्ति के काले बादलों ने ऐसे ढँका कि आज तक ऍंधेरा पसरा हुआ है।.........बहुत छटपटाई थी कुमुद। जामुन की तरह काले हो गए थे उसके होठ। सारी देह नीली पड़ गई थी। इसके पहले कि कोई समझे-बूझे चली गई कुमुद। सुबह का समय था। जाड़े की सुबह को अपनी मौत की ऑंच से पिघलाकर पानी-पानी कर गई कुमुद।........रोने के लिए भी समय नहीं दिया। आनन-फानन में कुमुद का दाह-संस्कार हुआ। इस बुरी घड़ी में पट्टीदारों ने साथ दिया। कुमुद की अकाल-मृत्यु ने सबको सकते में डाल दिया था। कुल की मर्यादा ढँकने-छिपाने में लगे थे सारे लोग।.......पर कलंक छिपता है भला ! जब चन्द्रमा का कलंक नहीं छिप सका तो.......।
मैं ही अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकी। बड़ी भौजाई थी मैं। मुझे ही सँभालना था। मुझे ही अपनी ऑंखें खोलकर अपनी गृहस्थी को......अपने घर-बार को देखना था।.....अपने परिजनों की देख-रेख करनी थी।......जो मैं नहीं कर सकी।......और कुसुम ? कुसुम को तो काठ मार गया था। पत्थर बन गई थी वह। उस दिन जो कुम्हलाई कुसुम, सो आज तक उसके चेहरे पर चमक नहीं देख सका कोई। उसका तो सब कुछ उजड़ गया। पूरा जीवन ही जड़ से उखड़ कर इस तूफ़ान में उड़ गया।.... मैं बहुत कुछ कहना चाहती हूँ।.....पर क्या कहूँ ? अब सब कहना-सुनना बेकार है। अब मेरी समझ में आया कि मुसीबतों से जूझने के लिए ढीठ रीढ़ चाहिए। मुझ जैसी औरतों की रीढ़ तो जनमते ही सौरी घर में तोड़ दी जाती है।
मैंने अब तक जो कुछ कहा है, उसमें बहुत सारा झूठ शामिल है। अब कोई पूछे कि झूठ क्यों ?......तो झूठ इसलिए कि मुझे झूठ की छाया में जीने की आदत पड़ चुकी है। सच जब रौरव नरक की आग में जलाए, तो साँस लेने के लिए झूठ की छाया में जाना पड़ता है। इसे वही समझ सकता है, जिसे बिना किसी अपराध के दंड भोगना पड़े। मेरा यह तर्क बेकार और वाहियात हो सकता है, पर यह सच है कि ऑंधी में दीया-बाती की तरह टिमटिमाती रही हूँ मैं।
मुझे जबरन वापस ससुराल भेजा गया। मुझे विदा कराने कोई नहीं आया था। भौजी और भइया ने मौन साध लिया। बाबूजी इस बात पर राज़ी नहीं थे कि मैं देवघाट में रहूँ। वह नहीं चाहते थे कि पहाड़ सा मेरा जीवन उनकी छाती पर बोझ बना रहे। उन्हें मेरी नहीं, गाँव-जवार......कुल-ख़ानदान की चिंता थी। वह सब कुछ को भाग्य का खेल मानते रहे। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा था - ''जीवन भर अपनी ब्याहता बेटी को अपने घर रखकर दुनिया को कौन सा मुँह दिखाऊँगा ?.......किसके-किसके सवालों के जवाब देता रहूँगा ?''
भइया मुझे मेरी ससुराल छोड़ आए। यदुनाथ दुबे बम्बई में थे। साल भर बाद वह गाँव लौटे, तो मुझे साथ लेकर बम्बई गए। मैं पति के साथ परदेस पहुँची। देसी कट्टों से भरा एक बक्सा भी मेरे साथ-साथ बम्बई आया था। इन्हीं कट्टों को बेचकर यदुनाथ दुबे ने अपना व्यवसाय शुरु किया। शराब,......मटका,......हथियार,......फिल्मों में एक्स्ट्रा डांसरों की सप्लाई जैसे कई धंधों से गुज़रते हुए एक बड़े व्यवसाय की नींव पड़ी। बम्बई के एक उपनगर में बँगला,....गाड़ियाँ.....बड़ा सा दफ्तर और लाखों-लाख का लेन-देन। इस बीच एक कमसिन औरत को ले आया यदुनाथ दुबे। अब मुझ जैसी नौकरानी के साथ पूरा जीवन तो वह काट नहीं सकता था। एक ख़ूबसूरत बीवी के बिना बड़े लोगों का संसार अधूरा होता है। ऍंग्रेज़ी बोलने वाली इस ख़ूबसूरत औरत ने देखते-देखते दुबे के संसार को वैभव से भर दिया। वह दुबे के साथ शराब पीती, पार्टियों में जाती और व्यवसाय के हित में लोगों को फाँसती। मैंने बम्बई पहुँचते ही साफ-साफ दुबे से कह दिया था कि मैं रोटी पका सकती हूँ........कपड़े धो सकती हूँ,.......तुम्हारा शरीर थक जाए तो गू-मूत साफ कर सकती हूँ, पर तुम्हारे साथ सो नहीं सकती। मेरी देह और मेरा मन पाने का अधिकार तुम खो चुके हो। तुमने मेरी कुमद की देह को नष्ट किया है। तुमने उसकी निर्मल देह को वासना की आग में झोंका है। उसकी नासमझ उम्र और भोले मन को नरक की आग में जलाया है।
यदुनाथ दुबे को मेरी देह की ज़रूरत नहीं थी। वह बम्बई के बाज़ार का खिलाड़ी बन चुका था। उसके लिए क़दम-क़दम पर देह बिछी हुई थी। जब वह अपने लिए नई औरत ढूँढ़कर लाया, तो न उसे कोई झिझक थी और ना ही मुझे कोई चिंता। वह ताक़तवर औरत थी। उसने सब कुछ देखते-देखते हासिल कर लिया। हाँ, मुझे लेकर वह निर्विकार थी। उसने मुझसे कभी कुछ नहीं पूछा। मैं बँगले के पिछले हिस्से में रहने लगी थी। दुबे की पाप की कमाई से अन्न खाकर प्राण रक्षा का पाप करती रही मैं।
मैंने झूठ कहा कि वे यहाँ आना चाहते थे। मैंने यदुनाथ दुबे नाम के इस राक्षस को कुमुद की मौत के बाद कभी आप कहकर नहीं पुकारा। न तो उसे यहाँ आना था और ना ही वह यहाँ आना चाहता था। उसके व्यवसाय, उसके धन, उसके हुनर से मेरा कोई लेना-देना नहीं। मैंने उसे सिर्फ इतना भर कहा था कि मैं देवघाट जा रही हूँ। वह पल भर के लिए अचम्भित हुआ था। मुझे सिर से पाँव तक देखा था और मुस्कुरा उठा था। ज़हर बुझी मुस्कान थी वह। ...........मैंने शुरुआत में जो कुछ कहा है, वे सब मेरी कल्पनाएँ हैं। क्या करती मैं ? पच्चीस साल में ढेरों कल्पनाएँ करती रही हूँ। इन कल्पनाओं को सुनाने बैठूँ, तो कई युग निकल जाएँ। इन्हीं कल्पनाओं के सहारे बेमतलब जीवित रही हूँ। इन्हीं कल्पनाओं से......इस झूठ से मुक्त होकर अब जीना चाहती हूँ मैं।
.....यह भोंदू सा दिखनेवाला नीलेश ही वह देवदूत है, जिसने मेरी मुक्ति की राह खोल दी है। वह रेलवे की नौकरी का इन्टरव्यु देने बम्बई पहुँचा। मेरी ससुराल के गाँव जाकर बम्बई का पता लिया और एक दिन मेरे सामने खड़ा हो गया। उसी ने बताया कि बाबा सारी-सारी रात अकेले में रोते हैं। बाबूजी और अम्मा की भींगी हुई ऑंखों से हर रोज़ ऑंसू बनकर आप टपकती हैं। मेरी दिदिया आपके बारे में ढेरों प्यारे-प्यारे क़िस्से गढ कर सुनाती रहती है।..........और....बुआ, मैं आपको विदा कराने आया हूँ। साथ लेकर ही जाऊँगा।
मैंने देवघाट से वापस नहीं जाने का निर्णय लिया है। मेरे बाबूजी पण्डित धूर्जटि पाण्डेय भी नहीं चाहते कि उनकी बेटी वापस जाए। मैं भी दुबे से अपने सम्बन्ध पर मृत्यु की तरह ताला जड़कर और चाबी समुद्र में फेंककर आई हूँ।.

हृषीकेश सुलभ
जुलाई 17, 2007

कुश्ती

कुश्ती
शाम हो चुकी थी जब वे वहाँ पहुँचे । वहाँ लकड़ी का एक टूटा फूटा, जर्जर गेट था, जिसके परे एक छोटा घास का मैदान और उपर ''गुरु सदानंद व्यायामशाला'' का टीन का पुराना, जंग खाया साइन बोर्ड जिसके अक्षर मिट चले थे । बोर्ड पर भव्य, फौलादी देह में एक बलिष्ठ पहलवान की तस्वीर बनी थी, वह भी धुँधली पड़ गयी थी । वे मैदान में बिखरी पत्तियों को पैरों से दबाते हुए अखाड़े की नम, मूक मिट्टी के पास खड़े हो गये । उन दोनों में से जो उम्रदराज था, गुरु सदानंद, उसने अखाड़े के कोने में स्थापित बजरंगबली की छोटी सी मूर्ति को प्रणाम किया ।
- मेरे ख्याल में यहीं ठीक रहेगा । गुरु सदानंद ने पलटकर दूसरे व्यक्ति से कहा । पैंतीस के आसपास का वह दूसरा शख्स चुपचाप चारों ओर देख रहा था, कुछ याद करने की कोशिश करता हुआ । वह एक मटमैली कमीज पहने था, हाथ में रेक्जीन का फूला हुआ बैग थामे, और उसके चेहरे पर ऐसी बदहवासी और थकान थी, जैसे वह बहुत दूर से, हजारों कि.मी. का सफर तय करके आया हो ।
- हाँ, यहीं ठीक होगा । उसने एक थकी हुई आवाज में कहा ।
- आपने क्या नाम बताया था अखबार का । गुरु सदानंद ने कहा । - अखबार का ? वह अचानक चौंक गया । - अखबार का नाम . . . समाचार . . . समाचार संसार । हाँ, यही ।
- कभी सुना नहीं । फोटोग्राफर को यहाँ का पता मालूम है ?
- हाँ, वह आता ही होगा ।
- अच्छा, वह जब तक आये, मैं तैयार हो जाता हूँ । गुरु सदानंद ने कहा । - पीछे वह कोठरी देख रहे हैं,उसी में रहता है अपना सारा सामान । मुग्दर, डम्बल, वजन और वह गदा भी जो अठारह साल पहले खुद मेयर ने दी थी । उस दिन, जब आखिरी कुश्ती लड़ी थी और फिर कुश्ती से सन्यास लिया था । यहीं हुई थी वह आखिरी कुश्ती । उस दिन क्या भीड़ थी यहाँ, लोग ही लोग, तिल रखने की जगह नहीं । जैसे पूरा शहर उमड़ आया हो । यहाँ से वहाँ तक बन्दनवार लगे थे, जगमगाती रोशनियाँ थीं । बाकायदा वर्दियों में सजा धजा एक बैंड, बाजों और नगाड़ों के साथ । लाउडस्पीकर लगे थे, एक घंटे से ज्यादा तो वक्ताओं ने ले लिया । कितनी मालायें डाली गयी थीं, मेरा चेहरा उनमें छुप गया था । उस दिन आप यहाँ होते तो आपके अखबार के लिये बनती एक शानदार खबर . . . मगर तब तो आप बच्चे रहे होंगे । सब अखबारों में आया था, गुरु सदानंद का सक्रि्रय कुश्ती से सन्यास, अब केवल शिष्यों को तैयार करेंगे । कंधे पर चमचमाती गदा के साथ शानदार तस्वीरें छपी थीं । आज भी उसी गदा के साथ फोटो खिंचवाउँगा, अखाड़े के बीच खड़े होकर, और पीछे बैंकग्रांउंड में ये बजरंगबली । ठीक रहेगा न ? आप यहीं रुकें, मैं लेकर आता हूँ । आपका फोटोग्राफर अभी तक आया क्यों नहीं ?
- वह आता ही होगा ।
गुरु सदानंद अखाड़े के पीछे की कोठरी तक गये, कुर्ते की जेब से चाभी निकालकर बहुत देर तक ताला खोलने की कोशिश करते रहे । फिर वे भीतर चले गये । वह वहीं अखाड़े के किनारे खड़ा रहा । बहुत सारा समय बीत गया । गुरु सदानंद जब बाहर आये, उसने दूर से देखा, उन्होंने अपने कपड़े उतार दिये थे, केवल लंगोट पहने थे । उन्होंने गदा की मूठ थाम रखी थी, वह पीछे पीछे जमीन पर घिसटती आ रही थी । शाम के धुँधले, सौम्य उजाले के बीच एक धीमी रफ्तार में बीच का मैदान पार करते हुए वे करीब आये और उसे देखकर चौंक गये । उसके कपड़ों और जूतों का ढ़ेर एक ओर पड़ा था । वह केवल जांघिये में था ।
- यह क्या ? गुरु सदानंद ने कहा । शायद अखाड़े की मिट्टी से आपको याद आ गया कि आपके पास एक जिस्म भी है । एक ही जिस्म । इसी काया से जिंदगी भर काम चलाना है, इसलिये कभी कभी उसे भी समय देना चाहिये । ठीक है, जब तक फोटोग्राफर आये, आप कुछ व्यायाम कर सकते हैं । पत्रकार की नौकरी में आपको वक्त कहाँ मिलता होगा । यह इंटरव्यू . . . यह साथ साथ होता रहेगा ।
- आपने ठीक समझा, मेरे मन में यही ख्याल आया । आप जैसे महान पहलवान से मिलना रोज रोज थोड़े ही . . .
- लेकिन वह फोटोग्राफर अभी तक आया क्यों नहीं ?
- कहीं घूँट मारने न बैठ गया हो । आप तो जानते ही हैं, अखबार की नौकरी में, दिन रात की दौड़धूप,इतना टेंशन । मगर वह आयेगा जरुर, गैर जिम्मेदार नहीं है, उसे मालूम है यह फीचर ''कल के महान पहलवान गुरु सदानंद'' यह इसी इतवार को जाना है । आज ही रात भर बैठ कर लिखना होगा । आप बतायें, यह व्यायामशाला . . .
- इसका हाल तो आपके सामने ही है । उजाड़ है अब । गुरु सदानंद की आवाज में उदासी उतर आयी थी । - कभी इसका भी एक जमाना था, भीड़ लगी रहती थी । यहीं किनारे पर गद्दे और गावतकिये में अपना तख्त पड़ा रहता था । शागिर्द आते थे, पैर छूते थे, फिर अखाड़े की मिट्टी माथे से लगाते थे । अब तो . . .
वह दूसरा शख्स, पत्रकार, निर्विकार चेहरा लिये, धीमे, खामोश कदमों से चलता हुआ अखाड़े के बींचोबीच खड़ा हो गया ।
- आइये, आपके साथ एक कुश्ती हो जाये । उसने वहीं से कहा ।
- कुश्ती ? अरे नहीं । मैं तो आखिरी कुश्ती लड़ चुका हूँ । अठारह बरस हो गये . . . अभी आपको बताया था न ।
- हाँ, आपने बताया था । उस दिन खचाखच भरी थी यह जगह । लोग, शोर, रोशनियाँ । मगर वह आखिरी कुश्ती नहीं थी ।
- क्या मतलब ?
- आखिरी कुश्ती अभी लड़नी है आपको । आज । अब ।
गुरु सदानंद उसकी ओर देखते रहे ।
- क्या आप भी कुश्ती के शौकीन रहे हैं ? आपको देखकर लगता नहीं । पहले कभी आपने . . .
- नहीं, सदानंद जी, कुश्ती से, पहलवानी से मेरा कोई लेना देना नहीं रहा । मेरे पिता की जरुर यह तमन्ना थी, पहलवान बनने की । बड़ा ताकतवर आदमी था वह, मगर वह भी . . . । यह काम बहुत मुश्किल है न, हरेक के बस का थोड़े ही है । इसके लिये जीवन भर की साधना चाहिये । लेकिन नहीं, गलत कहा मैंने । मैं कुश्ती लड़ता रहा हूँ ।
- कब ? कहाँ ? गुरु सदानंद उसे अविश्वास से देख रहे थे ।
- हमेशा । अपनी सारी जिंदगी ।
वे एक दूसरे के सामने थे । मिट्टी नम थी और कुछ कुछ सख्त । अपने नंगे जिस्मों में वे घुटनों पर झुके सतर्क निगाहों से एक दूसरे को तौल रहे थे । गुरु सदानंद फुर्ती से झपटे और उसे कंधों से जकड़ लिया । अगले ही क्षण वह मिट्टी में सना हुआ जमीन पर चित्त पड़ा था ।
- यह लीजिये, पत्रकार महोदय, यह कुश्ती तो आप हार गये । गुरु सदानंद ने हँसते हुए कहा । दस गिनने तक आप न उठे तो . . . तो आपको मुझे अपना गुरु, अपना उस्ताद मानना होगा, पैर छूने होंगे । अपने अखाड़े का यही नियम था । दूर दूर से पहलवान लड़ने आते थे और शागिर्द बनकर जाते थे । मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . एक ।
वह जमीन पर पड़ा हुआ हाँफ रहा था ।
- दो . . . उठिये पत्रकार महोदय ।
वह निढाल पड़ा था । बदन में एक भी हरकत नहीं ।
- तीन ।
चार ।
पाँच ।
छह . . .
उसने अपनी कोहनियाँ मोड़कर उठने की कोशिश की, लेकिन कमजोरी महसूस कर अपने को फिर ढ़ीला छोड़ दिया और गहरी साँसें लेता रहा ।
- सात ।
आठ ।
नौ । दस । बस, खेल खत्म हुआ । तो . . . मानते हैं ?
- मानता हूँ ।
गुरु सदानंद ने उसे हाथ पकड़ कर उठाया । अपने हाथों का सहारा देते हुए उसे धीरे धीरे अखाड़े के किनारे तक लाये । घास पर बैठने में उसकी मदद की ।
- कमाल है । उसने अपनी हँफनी पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा । - इस उम्र में भी आप . . . । अभी तक कुछ भी नहीं भूले ।
- इसमें कुछ भी ऐसा नहीं जिसे भूलना होता हो । यह तो आपका, मतलब आपके वजूद का हिस्सा बन जाता है । गुरु सदानंद ने अपनी आवाज में नरमी लाते हुए कहा । - इसी पर अपनी पूरी जिंदगी खर्च की है, घर गृहस्थी कुछ भी नहीं बसाई । यह व्यायामशाला उजड़ गयी है तो क्या, यह मेरा बदन . . . पुट्ठों को प्यार से सहलाते हुए उन्होंने कहा . . . बाकी है अभी, बहुत कुछ बचा है । लेकिन आपने कहा था, आप भी कुश्ती लड़ते रहे हैं, इसलिये मैंने कुछ अधिक जोर से . . . आपको चोट तो नहीं लगी ?
- नहीं, मैं ठीक हूँ । उसने कहा । - आपने बताया कि अब यहाँ कोई नहीं आता ।
- नहीं, और इस जगह पर अब बिल्डरों की निगाहें हैं । देखियेगा, किसी भी दिन यह व्यायामशाला गायब हो जायेगी, एक उँची बिल्डिंग यहाँ नजर आयेगी । आप अखबार में यह जरुर लिखना ।
- आपके शागिर्द . . . वे भी नहीं आते ?
- नहीं, अब कोई नहीं आता । नाल उतर जाये तो उसे चढ़वाने या कभी हड्डी जुड़वाने कोई आ जाये तो बात दूसरी है । अब कहाँ बचे कुश्ती के शौकीन और कदरदान । नयी उम्र के लड़के लड़कियों को, उसे क्या कहते हैं, जिम न . . . हाँ जिम जाना अच्छा लगता है । आपका वह फोटोग्राफर अभी तक नहीं आया ।
- वह आता ही होगा । वह यह जगह ढूँढ रहा होगा । अच्छा, सरकार की या प्रशासन की ओर से कभी कोई . . .
- उन्हें तो शायद इस जगह का पता भी नहीं होगा । उनसे पूछो, गुरु सदानंद को जानते हैं जो मशहूर पहलवान रह चुके हैं, किसी जमाने के हिंद केसरी, और उन्हीं के चेले थे जो उस वक्त हर स्टेट लेवल और नेशनल कंपीटीशन में . . . । बेवकूफों की तरह आपका मुँह देखते रहेंगे । अब देखिये, अखबार की ओर से भी आप अब आये हैं हालचाल लेने । इतने बरसों के बाद ।
- मैं पहले यहाँ आ चुका हूँ । उसने सिर झुकाकर एक धीमी आवाज में कहा ।
- कब ?
- बहुत पहले । अब से अठारह बरस पहले । उस दिन, जब आपने आखिरी कुश्ती लड़ी थी और फिर कुश्ती से सन्यास लिया था ।
- आप आ चुके हैं ? आप उस दिन यहाँ थे . . . आपने बताया नहीं । आपने देखा था न, कितने लोग थे यहाँ, कितनी रोशनियाँ, कितना शोर । यह जगह खचाखच भरी थी, याद है न आपको । आप बहुत छोटे रहे होंगे । अकेले आये थे ?
- नहीं, मैं अपने पिता के संग आया था ।
- आपके पिता जो . . . जिन्हें पहलवानी का शौक था ? आपने बताया था वे बहुत ताकतवर आदमी थे ।
वह उठकर खड़ा हो गया । उसने घास के उस छोटे से मैदान का एक चक्कर लगाया, थोड़ी एक्सरसाइज की और बहुत देर तक ठंडी हवा के घूँट लेता रहा । उसने अपनी शक्ति को वापस आता महसूस किया । फिर गुरु सदानंद के करीब से गुजरता हुआ वह अखाड़े के बीच चला गया ।
- हाँ, बहुत ताकतवर । बचपन में मुझे लगता था वही दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी है ।
- मगर पत्रकार महाशय, माफ कीजियेगा, उनकी ताकत आपको विरसे में नहीं मिली । एक हाथ लगाते ही चित्त हो गये ।
- आइये, आपके साथ एक कुश्ती और हो जाये । उसने वहीं से कहा ।
गुरु सदानंद ने उसकी ओर तरस खाती निगाहों से देखा ।
- आप मजाक कर रहे हैं क्या ? कुश्ती एक गंभीर चीज है, मजाक नहीं । पहली में ही क्या हाल हुआ था,भूल गये ? आइये, यहाँ आइये और बैठकर बातें कीजिये ।
- सदानंद जी, एक कुश्ती और । उसने विनती जैसे स्वर में कहा ।
- नहीं, पत्रकार जी, माफ करें । आप शायद भूल रहे हैं, आप मेरा इंटरव्यू लेने आये हैं, कुश्ती लड़ने नहीं । आइये इसे पूरा कर लेते हैं । रात हो चुकी है, ओस बरस रही है । यहाँ रोशनी भी इतनी कम है। फिर मुझे घर भी जाना है, आपका वह फोटोग्राफर अब तक पता नहीं कहाँ . . .
- सदानंद जी, आप डरते हैं शायद कि पहली में किसी तरह इज्जत बचा ले गये मगर इस कुश्ती में कहीं . . .
गुरु सदानंद बिना कुछ कहे वहाँ के सूने ऍंधेरे में उसे ऑंख फाड़े देखते रहे । फिर वे धीरे धीरे उठकर खड़े हुए और हौले, सधे कदमों से अखाड़े के भीतर चले गये । तारों की रोशनी तले ओस से भीगी ठंडी मिट्टी में सनी दो देहें गुत्थमगुत्था हो गयीं । वह जमीन से चिपका हुआ था, उसकी साँसें फूल रही थीं और पूरी ताकत से मिट्टी को पकड़ने की कोशिश कर रहा था । गुरु सदानंद ने अपने शरीर का पूरा वजन उस पर डाल दिया । उसकी देह के नीचे धीरे धीरे हाथ खिसकाते हुए गुरु सदानंद ने उसे कई बार उलटने की कोशिश की, मगर नाकाम रहे । वह साँसों को रोके हुए स्थिर और निस्पंद लेटा था, मिट्टी में मँह छुपाये । आखीर गुरु सदानंद ने अपनी साँस रोकी और बजरंगबली को याद करने के साथ अपने शरीर की समूची ताकत समेटकर उसे एक झटके में उलट दिया । वे उठकर खड़े हो गये और वह उनके कदमों के पास चित्त पड़ा रहा ।
- लीजिये, पत्रकार जी, आपकी यह तमन्ना भी पूरी हुई । मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . एक ।
वह ऑंखें मूँदे एक लाश की तरह लेटा था ।
- दो . . . उठने की कोशिश करो ।
अहिस्ता उतर आये ऍंधेरे में जैसे उसका जिस्म घुल गया था, उस ऍंधेरे के एक हिस्से की तरह । उसकी साँसों की आवाज भी नदारद थी ।
- तीन । चार । पाँच । छह . . . आप ठीक हैं न ?
गुरु सदानंद ने झुककर उसके शरीर को हौले से हिलाया ।
- सात । आठ । नौ । दस । बस । चलिये, खेल खत्म हुआ । अब उठिये, शरीर को झाड़िये और कपड़े पहन लीजिये । तबीयत खराब हो सकती है । इंटरव्यू अभी बाकी है या . . .
उसने ऑंखें खोलीं और अपना बेजान हाथ उनकी ओर बढ़ाया । उन्होंने उसे खींच कर खड़ा किया और बाँहों से सहारा देते, धीरे धीरे धकेलते हुए, किनारे की तरफ ले जाने लगे । वह घास पर बिखरी पत्तियों पर लेट गया और गुरु सदानंद कपड़ों के ढ़ेर में से उसकी कमीज उठाकर हवा करने लगे ।
- आप बहुत थक गये होंगे । आप चाहें तो बाकी इंटरव्यू हम कल . . . - नहीं, मैं ठीक हूँ । उसने बहुत धीमी, थकी आवाज में कहा ।
- जब आप यहाँ पहली बार बाये थे, अठारह बरस पहले, उस समय से तुलना करके आपको बहुत अजीब लग रहा होगा न ? उस वक्त की रोशनियाँ और अब यह उजाड़, सुनसान जगह । मगर कुश्ती का शौक होते हुए भी आप दुबारा कभी यहाँ नहीं आये । गुरु सदानंद ने कहा ।
- दोबारा आया हूँ न । आज ।
- आज, हाँ । लेकिन इतने वर्षो के बाद । पूरे अठारह बरस ।
- मुझे एक बहुत लंबे रास्ते से आना पड़ा । उसने कहा । - एक बहुत लंबा चक्कर लगाकर । पूरी दुनिया का चक्कर ।
- पूरी दुनिया का । मैं समझा नहीं ।
- हॉ, पूरी दुनिया । लंदन, पेरिस, न्यूयार्क । और भी न जाने कौन कौन से शहर ।
- आपको अपने काम के सिलसिले में वहाँ जाना पड़ता होगा । पत्रकारों के मजे हैं । आपने क्या नाम बताया था अपने अखबार का ।
वह जमीन पर चुपचाप औंधा लेटा रहा । गुरु सदानंद ने ऍंधेरे में उसके शरीर को हल्के से छुआ, फिर पीठ पर सहलाया । वह निष्चेष्ट पड़ा रहा, उसके भीतर एक घनी थकान थी, वैसी थकान जो बरसों बूँद बूँद जमा होती रहती है । अंधकार की चौकसी करते हुए गुरु सदानंद चारों तरफ देखते रहे । अब हवा कुछ तेज चलने लगी थी । गुरु सदानंद ने गेट के पार किसी आहट को कान लगाकर सुना, माथे से पसीना पोंछते उठ खड़े हुए, गेट की तरफ चलने लगे । वह आहट कुछ करीब आई, फिर दूर चली गयी । इतनी सी देर में शताब्दियों के बराबर एक निरवधि समय बीत गया ।
वह कोहनियों पर शरीर का पूरा वजन देते हुए हौले से उठा । पहले उसने आकाश में देखा, तारों का अमित विस्तार, और फिर ऍंधेरे में चारों ओर । गुरु सदानंद आसपास कहीं नहीं थे । कहाँ चले गये, उसने सोचा और ऑंखें गड़ाकर ऍंधेरे में देखने की कोशिश की । गुरु सदानंद गेट की दिशा में दूर से आते दिखाई दिये । वह उठकर खड़ा हो गया । वह अब अपने को सुस्थिर महसूस कर रहा था, और भीतर कहीं बहुत शांत भी ।
- सदानन्द जी, आपसे एक कुश्ती और लड़नी है । उनके पास आ जाने पर उसने कहा ।
- एक और कुश्ती ? गुरु सदानंद उसे हैरत और अविश्वास से देखते रहे ।
- हाँ, एक और । उसने कहा ।
- यह इंटरव्यू है या कोई मजाक ? आपने क्या नाम बताया था अपने अखबार का, मुझे पता दीजिये, मैं शिकायत करुँगा, किसने आपको पत्रकार बनाया । ये कोई तरीका है ? और आपका वह फोटोग्राफर अभी तक क्यों नहीं आया ?
- माफ करना सदानंद जी, मैं कोई पत्रकार नहीं । और कोई फोटोग्राफर नहीं आने वाला है । उसने एक थकी आवाज में कहा ।
- पत्रकार नहीं तो फिर कौन हैं ? और मेरे पास क्यों आये हैं ?
- मनस्तत्वविद हूँ एक ।
- मनस . . .मनस. . .क्या कहा आपने ? मैं समझा नहीं ।
- साइकाँलाजी का प्रोफेसर हूँ । पेरिस की एक यूनिवर्सिटी में पढ़ाता हूँ । शरीर से नहीं, मेरा नाता इंसान के मन से है । मगर अब लगता है, जो शरीर और आत्मा को इस तरह बाँटते हैं, कुछ भी नहीं जानते, न शरीर के बारे में, न आत्मा के । पहलवान के पास भी एक मन होता है और मनस्तत्वविद् के पास एक शरीर । दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में लेक्चर देने जाता हूँ । वे मुझे अपने समय का सबसे बड़ा मनस्तत्वविद् कहते हैं । मगर अब उस देश से और अपनी पत्नी से नाता तोड़ कर वापस आ गया हूँ । आज ही . . .
- आप पेरिस से आये हैं, और सीधे यहाँ मेरे पास। क्यों, किस इरादे से ?
- आपसे कुश्ती लड़ने ।
गुरु सदानंद अवाक उसे देखते रहे ।
- आइये, एक कुश्ती और हो जाये । यह आखिरी होगी, बस, इसके बाद नहीं ।
- नहीं, मुझे माफ करें, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ ।
- आइये, एक कुश्ती और ।
- नहीं, बस हो चुका ।
अपनी गदा को घसीटते हुए गुरु सदानंद कोने की कोठरी की ओर जाने लगे ।
- सदानंद . . . उसने पीछे से चिल्लाकर कहा । - किसी गलतफहमी में मत रहना । रहा होगा कभी अपने समय का सबसे बड़ा पहलवान, मगर अब कुछ नहीं बचा तेरे भीतर ।
अपनी जगह पर ठिठक कर खड़े हो गये गुरु सदानंद ।
- तेरी हड्डियों को जंग लग चुका है । पहलवान कहता है अपने को ? तेरी काया . . . यह एक छाया है बस, किसी बहुत पुराने समय की । खाली हो चुका तू । खोखला । खल्लास ।
गुरु सदानंद के हाथों की गदा जमीन पर गिर गयी । वे पलटे और भागते हुए आये । उन्होंने अखाड़े के एक किनारे पर उसे दबोच लिया । उसने फिर पहले की तरह मिट्टी में मुँह छुपा लिया ।
- कौन है तू ? और क्यों आया है, क्या चाहता है ? अपनी हाँफती साँसों के बीच पसीने में तरबतर गुरु सदानंद ने चिल्लाकर कहा ।
- मैं पहले आता, लेकिन माँ हमेशा रोकती रही । उसके मरने के बाद ही आ पाया । दस दिन पहले . . .
- क्या हुआ था दस दिन पहले ?
- कुछ भी नहीं । माँ ने अपने दिल को बस जरा सा दबाया था और कहा था, यहाँ . . .इस जगह । मेरी पत्नी बदहवास हो गयी थी और टेलीफोन की ओर लपकी थी । पलक झपकते ही सब कुछ खत्म हो गया था ।
- फिर ?
- मैं फर्श पर बैठ गया था । मेरे भीतर एक घनी शांति थी । मेरे लिये काफी था इतना कि वह शांति से मरी, बिना तकलीफ के । अठारह बरस पहले मेरा बाप जिस तरह मरा था, उस तरह नहीं । मेरी पत्नी जानीन, उसी मुल्क की है वो, मेरे करीब बैठ गयी थी । उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में लेने की कोशिश की थी, लेकिन मैंने धीरे से अपने हाथ छुडा लिये थे । मेरे चेहरे की ओर देखते हुए उसने कहा था - अब? और तब मैंने कहा था, अब दस्तखत कर दूँगा । वह चुपचाप रोने लगी थी ।
- किस बात के दस्तखत ?
- तलाक के कागजों पर, और क्या । वह मेरी विद्वता पर मर मिटी थी, मगर शादी के बाद जब उसे मेरे ख्यालों के कुनबे में दाखिल होना पड़ा तो . . . । मेरे अतीत से घिन आती थी उसे, और मेरे रातों में बड़बड़ाने से भी । वह कई सालों से अलग होना चाहती थी । इसीलिये हमने परिवार भी नहीं बढाया । मैंने ही उससे विनती की थी कि माँ के रहते . . .
तारों की रोशनी तले मिट्टी और पसीने में लथपथ, एक दूसरे में गुत्थमगुत्था दो कसमसाते हुए नंगे शरीर ।
- यहाँ क्यों आया तू ?
- ये हर बेटे को करना होता है न । हड्डियाँ और राख गंगा में बहानी होती हैं । वही लिये आ रहा हूँ पाँच हजार कि.मी. दूर से । देख वह रहा बैग जिसमें मेरी माँ का चूरा है । वही वापस ला पाया उस मुल्क से,और साथ में अपने बाप का चाकू ।
- चाकू ?
- चाकू नहीं, छुरा । वह वहाँ मेरे घर की दीवार पर टॅंगा था । उसे मेरी माँ जब भी देखती थी, उसकी ऑंख और मुँह में एक साथ पानी आ जाता था । उसी छुरे से मारता था मेरा बाप ।
- मारता था ? क्या ? किसे ?
- उसने कभी सूअर मारने के लिये के लिये उसके मुँह में गंधक पोटाश का निवाला नहीं दिया, और न कभी जाल में लपेटकर मारा । इन तरीकों से उसे नफरत थी । वह खुले मैदान में छुरे से मारता था, लहूलुहान हो जाता था । इतना ताकतवर था वो । तड़प तडप कर सूअर दम तोड़ता था और उसके बाद खून में तरबतर मेरा थका माँदा बाप पूरी दोपहर सोया रहता था । छुरा न हो तो लाठी पत्थर हथौड़ा कुल्हाड़ा कुछ भी । यही तो था पुश्तैनी काम । मुझे नहीं सिखाया, और न कभी छुरा छूने दिया, मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था न । इतनी ताकत थी उसमें और ऐसे उसके पंजे कि एक ही बार में बधिया कर दे । सूअर की चर्बी, गोश्त और कड़ी मेहनत से उसने अपना बदन बनाया था, धूप में चमकता था । उसकी तमन्ना पहलवान बनने की थी,मैंने बताया था न । गुंडे भी उसे सलाम करते थे, दूर से गुजर जाते थे । मगर अठारह साल पहले, मैंने देखा था, वह पस्त मुँह कमरे में टहल रहा था । डरा हुआ था और खिड़की के बाहर दूर तक इस तरह झाँक रहा था जैसे इस दुनिया को आखिरी बार देखता हो । काला तो था मगर उस दिन वह इतना काला लग रहा था, जैसे. . . जैसे . . .घनी रात का रंग होता है । - खिड़की के बाहर . . ? क्या ?
- लोग ही लोग, तिल रखने की जगह नहीं । जैसे पूरा शहर उमड़ आया हो । बन्दनवार और जगमगाती रोशनियाँ । बाजों और नगाड़ों का शोर । उस दिन . . . उस दिन महान पहलवान गुरु सदानंद की आखिरी कुश्ती थी । वहाँ वह जो दीवार है, उस वक्त नहीं थी । उसके पीछे ही तो था अपना घर और बस्ती । अब वो भी उजड़ गयी ।
गुरु सदानंद साँस रोके सुन रहे थे ।
- जब हो चुकी आखिरी कुश्ती तो लाउडस्पीकर पर ऐलान किया गया, कोई और हो तो सामने आये । सार्वजनिक चुनौती, कि कोई भी माई का लाल आये, गुरु सदानंद कुश्ती लड़ेंगे । भीड़ में से निकलकर मेरा बाप सामने आया था । वह धीमे, अनिश्चित कदमों से आगे बढ़ा था । मैं उसके पीछे था । गुरु जी के पास पहुँचकर वह उनके पैर छूने के लिये झुका था । गुरु जी ने उसकी ओर देखा था और उसे पहचान कर कहा था . . .
- क्या कहा था ? गुरु सदानंद ने कुछ याद करने की कोशिश करते हुए कहा ।
- कहा था, अब ये दिन आ गये । अब तो भंगी, चूहड़े और चमार भी कुश्ती लड़ने लगे । और फिर कहा था . . .
- क्या ? क्या कहा था ?
- कहा था, चल हट, मैं भंगी से लड़ूँगा आखिरी कुश्ती ?
गुरु सदानंद का बदन बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया ।
- दुनिया भर में लेक्चर देने जाता हूँ । वे कहते हैं मुझे अपने समय का सबसे बड़ा मनस्तत्वविद् । वे कहते हैं मैं ही खोज कर निकालूँगा आदमी के मन और आत्मा के वे सारे रहस्य जो अभी तक जाने नहीं गये । रोज रात को अपनी नींद में, सपनों में एक कुश्ती लड़ता हूँ, बिस्तर में पसीने से तरबतर होता हूँ । कितनी किताबें लिख डालीं मैंने, कितने पर्चे, लेकिन वह घाव . . . । मेरा बाप, जिसे मैं दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी समझता था, कितना कमजोर निकला, और उसका वह छुरा, कितना मामूली । अपने समय के उस महान पहलवान के पास वह कैसी कटार थी, और कैसी उसकी धार . . . आज तक बहता है खून ।
गुरु सदानंद अखाड़े में चित्त पड़े थे ।
- मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . उसने कहा । एक । दो । तीन । चार . . . मगर भीतर से उठती आती रुलाई को वह बस नौ तक सँभाल पाया । नहीं कह सका वह दस, बस और लो खेल खत्म हुआ । अचानक उठा और अपने कपड़े उठाकर मैदान के ऍंधेरे सुनसान कोने में चला गया । सदानंद दूर से आती उसकी हिचकियों की आवाज सुनते हुए मिट्टी में लेटे रहे । थोड़ी देर के बाद वे उठे और अपनी गदा को घसीटते हुए खामोश, थके कदमों से कोने की कोठरी की तरफ चलने लगे ।
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योगेंद्र आहूजा
कुश्ती
शाम हो चुकी थी जब वे वहाँ पहुँचे । वहाँ लकड़ी का एक टूटा फूटा, जर्जर गेट था, जिसके परे एक छोटा घास का मैदान और उपर ''गुरु सदानंद व्यायामशाला'' का टीन का पुराना, जंग खाया साइन बोर्ड जिसके अक्षर मिट चले थे । बोर्ड पर भव्य, फौलादी देह में एक बलिष्ठ पहलवान की तस्वीर बनी थी, वह भी धुँधली पड़ गयी थी । वे मैदान में बिखरी पत्तियों को पैरों से दबाते हुए अखाड़े की नम, मूक मिट्टी के पास खड़े हो गये । उन दोनों में से जो उम्रदराज था, गुरु सदानंद, उसने अखाड़े के कोने में स्थापित बजरंगबली की छोटी सी मूर्ति को प्रणाम किया ।
- मेरे ख्याल में यहीं ठीक रहेगा । गुरु सदानंद ने पलटकर दूसरे व्यक्ति से कहा । पैंतीस के आसपास का वह दूसरा शख्स चुपचाप चारों ओर देख रहा था, कुछ याद करने की कोशिश करता हुआ । वह एक मटमैली कमीज पहने था, हाथ में रेक्जीन का फूला हुआ बैग थामे, और उसके चेहरे पर ऐसी बदहवासी और थकान थी, जैसे वह बहुत दूर से, हजारों कि.मी. का सफर तय करके आया हो ।
- हाँ, यहीं ठीक होगा । उसने एक थकी हुई आवाज में कहा ।
- आपने क्या नाम बताया था अखबार का । गुरु सदानंद ने कहा । - अखबार का ? वह अचानक चौंक गया । - अखबार का नाम . . . समाचार . . . समाचार संसार । हाँ, यही ।
- कभी सुना नहीं । फोटोग्राफर को यहाँ का पता मालूम है ?
- हाँ, वह आता ही होगा ।
- अच्छा, वह जब तक आये, मैं तैयार हो जाता हूँ । गुरु सदानंद ने कहा । - पीछे वह कोठरी देख रहे हैं,उसी में रहता है अपना सारा सामान । मुग्दर, डम्बल, वजन और वह गदा भी जो अठारह साल पहले खुद मेयर ने दी थी । उस दिन, जब आखिरी कुश्ती लड़ी थी और फिर कुश्ती से सन्यास लिया था । यहीं हुई थी वह आखिरी कुश्ती । उस दिन क्या भीड़ थी यहाँ, लोग ही लोग, तिल रखने की जगह नहीं । जैसे पूरा शहर उमड़ आया हो । यहाँ से वहाँ तक बन्दनवार लगे थे, जगमगाती रोशनियाँ थीं । बाकायदा वर्दियों में सजा धजा एक बैंड, बाजों और नगाड़ों के साथ । लाउडस्पीकर लगे थे, एक घंटे से ज्यादा तो वक्ताओं ने ले लिया । कितनी मालायें डाली गयी थीं, मेरा चेहरा उनमें छुप गया था । उस दिन आप यहाँ होते तो आपके अखबार के लिये बनती एक शानदार खबर . . . मगर तब तो आप बच्चे रहे होंगे । सब अखबारों में आया था, गुरु सदानंद का सक्रि्रय कुश्ती से सन्यास, अब केवल शिष्यों को तैयार करेंगे । कंधे पर चमचमाती गदा के साथ शानदार तस्वीरें छपी थीं । आज भी उसी गदा के साथ फोटो खिंचवाउँगा, अखाड़े के बीच खड़े होकर, और पीछे बैंकग्रांउंड में ये बजरंगबली । ठीक रहेगा न ? आप यहीं रुकें, मैं लेकर आता हूँ । आपका फोटोग्राफर अभी तक आया क्यों नहीं ?
- वह आता ही होगा ।
गुरु सदानंद अखाड़े के पीछे की कोठरी तक गये, कुर्ते की जेब से चाभी निकालकर बहुत देर तक ताला खोलने की कोशिश करते रहे । फिर वे भीतर चले गये । वह वहीं अखाड़े के किनारे खड़ा रहा । बहुत सारा समय बीत गया । गुरु सदानंद जब बाहर आये, उसने दूर से देखा, उन्होंने अपने कपड़े उतार दिये थे, केवल लंगोट पहने थे । उन्होंने गदा की मूठ थाम रखी थी, वह पीछे पीछे जमीन पर घिसटती आ रही थी । शाम के धुँधले, सौम्य उजाले के बीच एक धीमी रफ्तार में बीच का मैदान पार करते हुए वे करीब आये और उसे देखकर चौंक गये । उसके कपड़ों और जूतों का ढ़ेर एक ओर पड़ा था । वह केवल जांघिये में था ।
- यह क्या ? गुरु सदानंद ने कहा । शायद अखाड़े की मिट्टी से आपको याद आ गया कि आपके पास एक जिस्म भी है । एक ही जिस्म । इसी काया से जिंदगी भर काम चलाना है, इसलिये कभी कभी उसे भी समय देना चाहिये । ठीक है, जब तक फोटोग्राफर आये, आप कुछ व्यायाम कर सकते हैं । पत्रकार की नौकरी में आपको वक्त कहाँ मिलता होगा । यह इंटरव्यू . . . यह साथ साथ होता रहेगा ।
- आपने ठीक समझा, मेरे मन में यही ख्याल आया । आप जैसे महान पहलवान से मिलना रोज रोज थोड़े ही . . .
- लेकिन वह फोटोग्राफर अभी तक आया क्यों नहीं ?
- कहीं घूँट मारने न बैठ गया हो । आप तो जानते ही हैं, अखबार की नौकरी में, दिन रात की दौड़धूप,इतना टेंशन । मगर वह आयेगा जरुर, गैर जिम्मेदार नहीं है, उसे मालूम है यह फीचर ''कल के महान पहलवान गुरु सदानंद'' यह इसी इतवार को जाना है । आज ही रात भर बैठ कर लिखना होगा । आप बतायें, यह व्यायामशाला . . .
- इसका हाल तो आपके सामने ही है । उजाड़ है अब । गुरु सदानंद की आवाज में उदासी उतर आयी थी । - कभी इसका भी एक जमाना था, भीड़ लगी रहती थी । यहीं किनारे पर गद्दे और गावतकिये में अपना तख्त पड़ा रहता था । शागिर्द आते थे, पैर छूते थे, फिर अखाड़े की मिट्टी माथे से लगाते थे । अब तो . . .
वह दूसरा शख्स, पत्रकार, निर्विकार चेहरा लिये, धीमे, खामोश कदमों से चलता हुआ अखाड़े के बींचोबीच खड़ा हो गया ।
- आइये, आपके साथ एक कुश्ती हो जाये । उसने वहीं से कहा ।
- कुश्ती ? अरे नहीं । मैं तो आखिरी कुश्ती लड़ चुका हूँ । अठारह बरस हो गये . . . अभी आपको बताया था न ।
- हाँ, आपने बताया था । उस दिन खचाखच भरी थी यह जगह । लोग, शोर, रोशनियाँ । मगर वह आखिरी कुश्ती नहीं थी ।
- क्या मतलब ?
- आखिरी कुश्ती अभी लड़नी है आपको । आज । अब ।
गुरु सदानंद उसकी ओर देखते रहे ।
- क्या आप भी कुश्ती के शौकीन रहे हैं ? आपको देखकर लगता नहीं । पहले कभी आपने . . .
- नहीं, सदानंद जी, कुश्ती से, पहलवानी से मेरा कोई लेना देना नहीं रहा । मेरे पिता की जरुर यह तमन्ना थी, पहलवान बनने की । बड़ा ताकतवर आदमी था वह, मगर वह भी . . . । यह काम बहुत मुश्किल है न, हरेक के बस का थोड़े ही है । इसके लिये जीवन भर की साधना चाहिये । लेकिन नहीं, गलत कहा मैंने । मैं कुश्ती लड़ता रहा हूँ ।
- कब ? कहाँ ? गुरु सदानंद उसे अविश्वास से देख रहे थे ।
- हमेशा । अपनी सारी जिंदगी ।
वे एक दूसरे के सामने थे । मिट्टी नम थी और कुछ कुछ सख्त । अपने नंगे जिस्मों में वे घुटनों पर झुके सतर्क निगाहों से एक दूसरे को तौल रहे थे । गुरु सदानंद फुर्ती से झपटे और उसे कंधों से जकड़ लिया । अगले ही क्षण वह मिट्टी में सना हुआ जमीन पर चित्त पड़ा था ।
- यह लीजिये, पत्रकार महोदय, यह कुश्ती तो आप हार गये । गुरु सदानंद ने हँसते हुए कहा । दस गिनने तक आप न उठे तो . . . तो आपको मुझे अपना गुरु, अपना उस्ताद मानना होगा, पैर छूने होंगे । अपने अखाड़े का यही नियम था । दूर दूर से पहलवान लड़ने आते थे और शागिर्द बनकर जाते थे । मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . एक ।
वह जमीन पर पड़ा हुआ हाँफ रहा था ।
- दो . . . उठिये पत्रकार महोदय ।
वह निढाल पड़ा था । बदन में एक भी हरकत नहीं ।
- तीन ।
चार ।
पाँच ।
छह . . .
उसने अपनी कोहनियाँ मोड़कर उठने की कोशिश की, लेकिन कमजोरी महसूस कर अपने को फिर ढ़ीला छोड़ दिया और गहरी साँसें लेता रहा ।
- सात ।
आठ ।
नौ । दस । बस, खेल खत्म हुआ । तो . . . मानते हैं ?
- मानता हूँ ।
गुरु सदानंद ने उसे हाथ पकड़ कर उठाया । अपने हाथों का सहारा देते हुए उसे धीरे धीरे अखाड़े के किनारे तक लाये । घास पर बैठने में उसकी मदद की ।
- कमाल है । उसने अपनी हँफनी पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा । - इस उम्र में भी आप . . . । अभी तक कुछ भी नहीं भूले ।
- इसमें कुछ भी ऐसा नहीं जिसे भूलना होता हो । यह तो आपका, मतलब आपके वजूद का हिस्सा बन जाता है । गुरु सदानंद ने अपनी आवाज में नरमी लाते हुए कहा । - इसी पर अपनी पूरी जिंदगी खर्च की है, घर गृहस्थी कुछ भी नहीं बसाई । यह व्यायामशाला उजड़ गयी है तो क्या, यह मेरा बदन . . . पुट्ठों को प्यार से सहलाते हुए उन्होंने कहा . . . बाकी है अभी, बहुत कुछ बचा है । लेकिन आपने कहा था, आप भी कुश्ती लड़ते रहे हैं, इसलिये मैंने कुछ अधिक जोर से . . . आपको चोट तो नहीं लगी ?
- नहीं, मैं ठीक हूँ । उसने कहा । - आपने बताया कि अब यहाँ कोई नहीं आता ।
- नहीं, और इस जगह पर अब बिल्डरों की निगाहें हैं । देखियेगा, किसी भी दिन यह व्यायामशाला गायब हो जायेगी, एक उँची बिल्डिंग यहाँ नजर आयेगी । आप अखबार में यह जरुर लिखना ।
- आपके शागिर्द . . . वे भी नहीं आते ?
- नहीं, अब कोई नहीं आता । नाल उतर जाये तो उसे चढ़वाने या कभी हड्डी जुड़वाने कोई आ जाये तो बात दूसरी है । अब कहाँ बचे कुश्ती के शौकीन और कदरदान । नयी उम्र के लड़के लड़कियों को, उसे क्या कहते हैं, जिम न . . . हाँ जिम जाना अच्छा लगता है । आपका वह फोटोग्राफर अभी तक नहीं आया ।
- वह आता ही होगा । वह यह जगह ढूँढ रहा होगा । अच्छा, सरकार की या प्रशासन की ओर से कभी कोई . . .
- उन्हें तो शायद इस जगह का पता भी नहीं होगा । उनसे पूछो, गुरु सदानंद को जानते हैं जो मशहूर पहलवान रह चुके हैं, किसी जमाने के हिंद केसरी, और उन्हीं के चेले थे जो उस वक्त हर स्टेट लेवल और नेशनल कंपीटीशन में . . . । बेवकूफों की तरह आपका मुँह देखते रहेंगे । अब देखिये, अखबार की ओर से भी आप अब आये हैं हालचाल लेने । इतने बरसों के बाद ।
- मैं पहले यहाँ आ चुका हूँ । उसने सिर झुकाकर एक धीमी आवाज में कहा ।
- कब ?
- बहुत पहले । अब से अठारह बरस पहले । उस दिन, जब आपने आखिरी कुश्ती लड़ी थी और फिर कुश्ती से सन्यास लिया था ।
- आप आ चुके हैं ? आप उस दिन यहाँ थे . . . आपने बताया नहीं । आपने देखा था न, कितने लोग थे यहाँ, कितनी रोशनियाँ, कितना शोर । यह जगह खचाखच भरी थी, याद है न आपको । आप बहुत छोटे रहे होंगे । अकेले आये थे ?
- नहीं, मैं अपने पिता के संग आया था ।
- आपके पिता जो . . . जिन्हें पहलवानी का शौक था ? आपने बताया था वे बहुत ताकतवर आदमी थे ।
वह उठकर खड़ा हो गया । उसने घास के उस छोटे से मैदान का एक चक्कर लगाया, थोड़ी एक्सरसाइज की और बहुत देर तक ठंडी हवा के घूँट लेता रहा । उसने अपनी शक्ति को वापस आता महसूस किया । फिर गुरु सदानंद के करीब से गुजरता हुआ वह अखाड़े के बीच चला गया ।
- हाँ, बहुत ताकतवर । बचपन में मुझे लगता था वही दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी है ।
- मगर पत्रकार महाशय, माफ कीजियेगा, उनकी ताकत आपको विरसे में नहीं मिली । एक हाथ लगाते ही चित्त हो गये ।
- आइये, आपके साथ एक कुश्ती और हो जाये । उसने वहीं से कहा ।
गुरु सदानंद ने उसकी ओर तरस खाती निगाहों से देखा ।
- आप मजाक कर रहे हैं क्या ? कुश्ती एक गंभीर चीज है, मजाक नहीं । पहली में ही क्या हाल हुआ था,भूल गये ? आइये, यहाँ आइये और बैठकर बातें कीजिये ।
- सदानंद जी, एक कुश्ती और । उसने विनती जैसे स्वर में कहा ।
- नहीं, पत्रकार जी, माफ करें । आप शायद भूल रहे हैं, आप मेरा इंटरव्यू लेने आये हैं, कुश्ती लड़ने नहीं । आइये इसे पूरा कर लेते हैं । रात हो चुकी है, ओस बरस रही है । यहाँ रोशनी भी इतनी कम है। फिर मुझे घर भी जाना है, आपका वह फोटोग्राफर अब तक पता नहीं कहाँ . . .
- सदानंद जी, आप डरते हैं शायद कि पहली में किसी तरह इज्जत बचा ले गये मगर इस कुश्ती में कहीं . . .
गुरु सदानंद बिना कुछ कहे वहाँ के सूने ऍंधेरे में उसे ऑंख फाड़े देखते रहे । फिर वे धीरे धीरे उठकर खड़े हुए और हौले, सधे कदमों से अखाड़े के भीतर चले गये । तारों की रोशनी तले ओस से भीगी ठंडी मिट्टी में सनी दो देहें गुत्थमगुत्था हो गयीं । वह जमीन से चिपका हुआ था, उसकी साँसें फूल रही थीं और पूरी ताकत से मिट्टी को पकड़ने की कोशिश कर रहा था । गुरु सदानंद ने अपने शरीर का पूरा वजन उस पर डाल दिया । उसकी देह के नीचे धीरे धीरे हाथ खिसकाते हुए गुरु सदानंद ने उसे कई बार उलटने की कोशिश की, मगर नाकाम रहे । वह साँसों को रोके हुए स्थिर और निस्पंद लेटा था, मिट्टी में मँह छुपाये । आखीर गुरु सदानंद ने अपनी साँस रोकी और बजरंगबली को याद करने के साथ अपने शरीर की समूची ताकत समेटकर उसे एक झटके में उलट दिया । वे उठकर खड़े हो गये और वह उनके कदमों के पास चित्त पड़ा रहा ।
- लीजिये, पत्रकार जी, आपकी यह तमन्ना भी पूरी हुई । मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . एक ।
वह ऑंखें मूँदे एक लाश की तरह लेटा था ।
- दो . . . उठने की कोशिश करो ।
अहिस्ता उतर आये ऍंधेरे में जैसे उसका जिस्म घुल गया था, उस ऍंधेरे के एक हिस्से की तरह । उसकी साँसों की आवाज भी नदारद थी ।
- तीन । चार । पाँच । छह . . . आप ठीक हैं न ?
गुरु सदानंद ने झुककर उसके शरीर को हौले से हिलाया ।
- सात । आठ । नौ । दस । बस । चलिये, खेल खत्म हुआ । अब उठिये, शरीर को झाड़िये और कपड़े पहन लीजिये । तबीयत खराब हो सकती है । इंटरव्यू अभी बाकी है या . . .
उसने ऑंखें खोलीं और अपना बेजान हाथ उनकी ओर बढ़ाया । उन्होंने उसे खींच कर खड़ा किया और बाँहों से सहारा देते, धीरे धीरे धकेलते हुए, किनारे की तरफ ले जाने लगे । वह घास पर बिखरी पत्तियों पर लेट गया और गुरु सदानंद कपड़ों के ढ़ेर में से उसकी कमीज उठाकर हवा करने लगे ।
- आप बहुत थक गये होंगे । आप चाहें तो बाकी इंटरव्यू हम कल . . . - नहीं, मैं ठीक हूँ । उसने बहुत धीमी, थकी आवाज में कहा ।
- जब आप यहाँ पहली बार बाये थे, अठारह बरस पहले, उस समय से तुलना करके आपको बहुत अजीब लग रहा होगा न ? उस वक्त की रोशनियाँ और अब यह उजाड़, सुनसान जगह । मगर कुश्ती का शौक होते हुए भी आप दुबारा कभी यहाँ नहीं आये । गुरु सदानंद ने कहा ।
- दोबारा आया हूँ न । आज ।
- आज, हाँ । लेकिन इतने वर्षो के बाद । पूरे अठारह बरस ।
- मुझे एक बहुत लंबे रास्ते से आना पड़ा । उसने कहा । - एक बहुत लंबा चक्कर लगाकर । पूरी दुनिया का चक्कर ।
- पूरी दुनिया का । मैं समझा नहीं ।
- हॉ, पूरी दुनिया । लंदन, पेरिस, न्यूयार्क । और भी न जाने कौन कौन से शहर ।
- आपको अपने काम के सिलसिले में वहाँ जाना पड़ता होगा । पत्रकारों के मजे हैं । आपने क्या नाम बताया था अपने अखबार का ।
वह जमीन पर चुपचाप औंधा लेटा रहा । गुरु सदानंद ने ऍंधेरे में उसके शरीर को हल्के से छुआ, फिर पीठ पर सहलाया । वह निष्चेष्ट पड़ा रहा, उसके भीतर एक घनी थकान थी, वैसी थकान जो बरसों बूँद बूँद जमा होती रहती है । अंधकार की चौकसी करते हुए गुरु सदानंद चारों तरफ देखते रहे । अब हवा कुछ तेज चलने लगी थी । गुरु सदानंद ने गेट के पार किसी आहट को कान लगाकर सुना, माथे से पसीना पोंछते उठ खड़े हुए, गेट की तरफ चलने लगे । वह आहट कुछ करीब आई, फिर दूर चली गयी । इतनी सी देर में शताब्दियों के बराबर एक निरवधि समय बीत गया ।
वह कोहनियों पर शरीर का पूरा वजन देते हुए हौले से उठा । पहले उसने आकाश में देखा, तारों का अमित विस्तार, और फिर ऍंधेरे में चारों ओर । गुरु सदानंद आसपास कहीं नहीं थे । कहाँ चले गये, उसने सोचा और ऑंखें गड़ाकर ऍंधेरे में देखने की कोशिश की । गुरु सदानंद गेट की दिशा में दूर से आते दिखाई दिये । वह उठकर खड़ा हो गया । वह अब अपने को सुस्थिर महसूस कर रहा था, और भीतर कहीं बहुत शांत भी ।
- सदानन्द जी, आपसे एक कुश्ती और लड़नी है । उनके पास आ जाने पर उसने कहा ।
- एक और कुश्ती ? गुरु सदानंद उसे हैरत और अविश्वास से देखते रहे ।
- हाँ, एक और । उसने कहा ।
- यह इंटरव्यू है या कोई मजाक ? आपने क्या नाम बताया था अपने अखबार का, मुझे पता दीजिये, मैं शिकायत करुँगा, किसने आपको पत्रकार बनाया । ये कोई तरीका है ? और आपका वह फोटोग्राफर अभी तक क्यों नहीं आया ?
- माफ करना सदानंद जी, मैं कोई पत्रकार नहीं । और कोई फोटोग्राफर नहीं आने वाला है । उसने एक थकी आवाज में कहा ।
- पत्रकार नहीं तो फिर कौन हैं ? और मेरे पास क्यों आये हैं ?
- मनस्तत्वविद हूँ एक ।
- मनस . . .मनस. . .क्या कहा आपने ? मैं समझा नहीं ।
- साइकाँलाजी का प्रोफेसर हूँ । पेरिस की एक यूनिवर्सिटी में पढ़ाता हूँ । शरीर से नहीं, मेरा नाता इंसान के मन से है । मगर अब लगता है, जो शरीर और आत्मा को इस तरह बाँटते हैं, कुछ भी नहीं जानते, न शरीर के बारे में, न आत्मा के । पहलवान के पास भी एक मन होता है और मनस्तत्वविद् के पास एक शरीर । दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में लेक्चर देने जाता हूँ । वे मुझे अपने समय का सबसे बड़ा मनस्तत्वविद् कहते हैं । मगर अब उस देश से और अपनी पत्नी से नाता तोड़ कर वापस आ गया हूँ । आज ही . . .
- आप पेरिस से आये हैं, और सीधे यहाँ मेरे पास। क्यों, किस इरादे से ?
- आपसे कुश्ती लड़ने ।
गुरु सदानंद अवाक उसे देखते रहे ।
- आइये, एक कुश्ती और हो जाये । यह आखिरी होगी, बस, इसके बाद नहीं ।
- नहीं, मुझे माफ करें, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ ।
- आइये, एक कुश्ती और ।
- नहीं, बस हो चुका ।
अपनी गदा को घसीटते हुए गुरु सदानंद कोने की कोठरी की ओर जाने लगे ।
- सदानंद . . . उसने पीछे से चिल्लाकर कहा । - किसी गलतफहमी में मत रहना । रहा होगा कभी अपने समय का सबसे बड़ा पहलवान, मगर अब कुछ नहीं बचा तेरे भीतर ।
अपनी जगह पर ठिठक कर खड़े हो गये गुरु सदानंद ।
- तेरी हड्डियों को जंग लग चुका है । पहलवान कहता है अपने को ? तेरी काया . . . यह एक छाया है बस, किसी बहुत पुराने समय की । खाली हो चुका तू । खोखला । खल्लास ।
गुरु सदानंद के हाथों की गदा जमीन पर गिर गयी । वे पलटे और भागते हुए आये । उन्होंने अखाड़े के एक किनारे पर उसे दबोच लिया । उसने फिर पहले की तरह मिट्टी में मुँह छुपा लिया ।
- कौन है तू ? और क्यों आया है, क्या चाहता है ? अपनी हाँफती साँसों के बीच पसीने में तरबतर गुरु सदानंद ने चिल्लाकर कहा ।
- मैं पहले आता, लेकिन माँ हमेशा रोकती रही । उसके मरने के बाद ही आ पाया । दस दिन पहले . . .
- क्या हुआ था दस दिन पहले ?
- कुछ भी नहीं । माँ ने अपने दिल को बस जरा सा दबाया था और कहा था, यहाँ . . .इस जगह । मेरी पत्नी बदहवास हो गयी थी और टेलीफोन की ओर लपकी थी । पलक झपकते ही सब कुछ खत्म हो गया था ।
- फिर ?
- मैं फर्श पर बैठ गया था । मेरे भीतर एक घनी शांति थी । मेरे लिये काफी था इतना कि वह शांति से मरी, बिना तकलीफ के । अठारह बरस पहले मेरा बाप जिस तरह मरा था, उस तरह नहीं । मेरी पत्नी जानीन, उसी मुल्क की है वो, मेरे करीब बैठ गयी थी । उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में लेने की कोशिश की थी, लेकिन मैंने धीरे से अपने हाथ छुडा लिये थे । मेरे चेहरे की ओर देखते हुए उसने कहा था - अब? और तब मैंने कहा था, अब दस्तखत कर दूँगा । वह चुपचाप रोने लगी थी ।
- किस बात के दस्तखत ?
- तलाक के कागजों पर, और क्या । वह मेरी विद्वता पर मर मिटी थी, मगर शादी के बाद जब उसे मेरे ख्यालों के कुनबे में दाखिल होना पड़ा तो . . . । मेरे अतीत से घिन आती थी उसे, और मेरे रातों में बड़बड़ाने से भी । वह कई सालों से अलग होना चाहती थी । इसीलिये हमने परिवार भी नहीं बढाया । मैंने ही उससे विनती की थी कि माँ के रहते . . .
तारों की रोशनी तले मिट्टी और पसीने में लथपथ, एक दूसरे में गुत्थमगुत्था दो कसमसाते हुए नंगे शरीर ।
- यहाँ क्यों आया तू ?
- ये हर बेटे को करना होता है न । हड्डियाँ और राख गंगा में बहानी होती हैं । वही लिये आ रहा हूँ पाँच हजार कि.मी. दूर से । देख वह रहा बैग जिसमें मेरी माँ का चूरा है । वही वापस ला पाया उस मुल्क से,और साथ में अपने बाप का चाकू ।
- चाकू ?
- चाकू नहीं, छुरा । वह वहाँ मेरे घर की दीवार पर टॅंगा था । उसे मेरी माँ जब भी देखती थी, उसकी ऑंख और मुँह में एक साथ पानी आ जाता था । उसी छुरे से मारता था मेरा बाप ।
- मारता था ? क्या ? किसे ?
- उसने कभी सूअर मारने के लिये के लिये उसके मुँह में गंधक पोटाश का निवाला नहीं दिया, और न कभी जाल में लपेटकर मारा । इन तरीकों से उसे नफरत थी । वह खुले मैदान में छुरे से मारता था, लहूलुहान हो जाता था । इतना ताकतवर था वो । तड़प तडप कर सूअर दम तोड़ता था और उसके बाद खून में तरबतर मेरा थका माँदा बाप पूरी दोपहर सोया रहता था । छुरा न हो तो लाठी पत्थर हथौड़ा कुल्हाड़ा कुछ भी । यही तो था पुश्तैनी काम । मुझे नहीं सिखाया, और न कभी छुरा छूने दिया, मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था न । इतनी ताकत थी उसमें और ऐसे उसके पंजे कि एक ही बार में बधिया कर दे । सूअर की चर्बी, गोश्त और कड़ी मेहनत से उसने अपना बदन बनाया था, धूप में चमकता था । उसकी तमन्ना पहलवान बनने की थी,मैंने बताया था न । गुंडे भी उसे सलाम करते थे, दूर से गुजर जाते थे । मगर अठारह साल पहले, मैंने देखा था, वह पस्त मुँह कमरे में टहल रहा था । डरा हुआ था और खिड़की के बाहर दूर तक इस तरह झाँक रहा था जैसे इस दुनिया को आखिरी बार देखता हो । काला तो था मगर उस दिन वह इतना काला लग रहा था, जैसे. . . जैसे . . .घनी रात का रंग होता है । - खिड़की के बाहर . . ? क्या ?
- लोग ही लोग, तिल रखने की जगह नहीं । जैसे पूरा शहर उमड़ आया हो । बन्दनवार और जगमगाती रोशनियाँ । बाजों और नगाड़ों का शोर । उस दिन . . . उस दिन महान पहलवान गुरु सदानंद की आखिरी कुश्ती थी । वहाँ वह जो दीवार है, उस वक्त नहीं थी । उसके पीछे ही तो था अपना घर और बस्ती । अब वो भी उजड़ गयी ।
गुरु सदानंद साँस रोके सुन रहे थे ।
- जब हो चुकी आखिरी कुश्ती तो लाउडस्पीकर पर ऐलान किया गया, कोई और हो तो सामने आये । सार्वजनिक चुनौती, कि कोई भी माई का लाल आये, गुरु सदानंद कुश्ती लड़ेंगे । भीड़ में से निकलकर मेरा बाप सामने आया था । वह धीमे, अनिश्चित कदमों से आगे बढ़ा था । मैं उसके पीछे था । गुरु जी के पास पहुँचकर वह उनके पैर छूने के लिये झुका था । गुरु जी ने उसकी ओर देखा था और उसे पहचान कर कहा था . . .
- क्या कहा था ? गुरु सदानंद ने कुछ याद करने की कोशिश करते हुए कहा ।
- कहा था, अब ये दिन आ गये । अब तो भंगी, चूहड़े और चमार भी कुश्ती लड़ने लगे । और फिर कहा था . . .
- क्या ? क्या कहा था ?
- कहा था, चल हट, मैं भंगी से लड़ूँगा आखिरी कुश्ती ?
गुरु सदानंद का बदन बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया ।
- दुनिया भर में लेक्चर देने जाता हूँ । वे कहते हैं मुझे अपने समय का सबसे बड़ा मनस्तत्वविद् । वे कहते हैं मैं ही खोज कर निकालूँगा आदमी के मन और आत्मा के वे सारे रहस्य जो अभी तक जाने नहीं गये । रोज रात को अपनी नींद में, सपनों में एक कुश्ती लड़ता हूँ, बिस्तर में पसीने से तरबतर होता हूँ । कितनी किताबें लिख डालीं मैंने, कितने पर्चे, लेकिन वह घाव . . . । मेरा बाप, जिसे मैं दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी समझता था, कितना कमजोर निकला, और उसका वह छुरा, कितना मामूली । अपने समय के उस महान पहलवान के पास वह कैसी कटार थी, और कैसी उसकी धार . . . आज तक बहता है खून ।
गुरु सदानंद अखाड़े में चित्त पड़े थे ।
- मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . उसने कहा । एक । दो । तीन । चार . . . मगर भीतर से उठती आती रुलाई को वह बस नौ तक सँभाल पाया । नहीं कह सका वह दस, बस और लो खेल खत्म हुआ । अचानक उठा और अपने कपड़े उठाकर मैदान के ऍंधेरे सुनसान कोने में चला गया । सदानंद दूर से आती उसकी हिचकियों की आवाज सुनते हुए मिट्टी में लेटे रहे । थोड़ी देर के बाद वे उठे और अपनी गदा को घसीटते हुए खामोश, थके कदमों से कोने की कोठरी की तरफ चलने लगे ।
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योगेंद्र आहूजा

कुछ भी तो रूमानी नहीं

कुछ भी तो रूमानी नहीं
(कथादेश जुलाई 2006 से साभार)
फिर रूमानी कहानी कैसे बनती?
डायरी पलटती हूँ तो कुछ दिन और कुछ स्मृतियां उसमें दबी पड़ी हैं - ``कैसे दिन हैं ये। चेतना पर ज़ोर डालूं तो शायद महसूस कर सकूं कि इन दिनों की तासीर कैसी है ठण्डी या गर्म! टहनियों से उखड़े दिन... सूखे भूरे पत्ते रास्तों पर बिछे रहते हैं...मौसम अलग होती दिशाओं के मुहाने पर खड़े अमलताश की कविताएं लिख रहे हैं। बढ़ती उमस से, असमंजस से, पतझड़ी पत्तों और अमलताश के पेड़ों से शहर पीला पड़ा हुआ है। कोई तो महक बच जायेगी इन दिनों की, स्मृतियों में?''

याद है वह दिन, जब तुम्हें आये हुए एक सप्ताह ही हुआ था... मुझे तुम्हारी उस समाधिस्थ मुद्रा पर प्यार आ रहा था। तुम नीचे बिछे गद्दे पर पैर मोड़ कर आंखें मूंदे बैठे थे। पेन खुला था, खूब सारे सफेद कागज़ बिखरे थे। चश्मा जेब में था। मुझे चुपचाप नाश्ते की प्लेट और कॉफी का मग रख कर, बिना व्यवधान डाले, नीचे को घूम कर जाती सीढ़ियों में उतर जाना था। मुझे पता था कोई नयी कहानी जन्म ले रही है। बहुत उत्सुकता हो रही थी कि पूछ लूं... किस विषय पर होगी यह कहानी? बहुत दिनों से प्रेम पर तुमने कुछ नहीं लिखा था। उसी पर तो नहीं? बहुत पहले जब तुम यहां नहीं आये थे, और अच्चन ने तुम्हारी कहानियां पढ़ने को दी थीं। उनके शब्दों में वे ` भीषण रूमानी कहानियां' थीं। मैं हैरान होती थी तुम्हारे लिखे गये प्रेम और देह के दर्शन पर... रूमानियत की दुखती - दुखाती भीषणता पर... तुम्हारी किताब के फ्लैप पर तुम्हारा एक श्वेतश्याम चित्र था... अनोखी अभारतीय गढ़न वाला चेहरा... खड़े - खड़े बाल...और तुम्हारी आंखों का हल्का रंग, उस श्वेत - श्याम चित्र में भी पकड़ आ रहा था। एक सहज उत्सुकता जगा दी थी पिता की बातों ने...
`` रचनात्मक संवेदना की पराकाष्ठा को देखना है तो इन्हें पढ़ो,भाषा की अर्थमय दुस्र्हता कथानक की दुरूहता को एक तरफ चुनौती देती प्रतीत होती है, वहीं दोनों एक दूसरे की पूरक भी हैं।''
अच्चन की बात का अर्थ कुछ मैं समझी भी और कुछ नहीं भी...पर वे कहानियां मुझे चकित करती थीं। अजीबो - गरीब मानवीय संबंधों की कहानियां, स्त्री - पुस्र्ष के बीच के तरल मनोविज्ञान को एकदम नयी तरह से व्यक्त करती हुई। सामाजिक तौर पर वे रिश्ते जो सरासर ` अनैतिक ' करार कर दिये जाते उनकी निष्ठामय पराकाष्ठाओं की कहानियां। हर कहानी में तो लिख रहे थे तुम `` प्रेम में नैतिक - अनैतिक कुछ नहीं होता। प्रेम एक नितान्त नैतिक अनुभव है।''

वही तुम, मलय! आज यहां मेरे सामने किसी कहानी को जन्म दे रहे हो।जानलेवा उत्सुकता हो रही थी, पर जानती थी कि पूछना व्यर्थ होगा कि `क्या होगी यह कहानी?' नहीं पूछूंगी। फिर तय किया, नहीं छुऊंगी चिड़िया का अण्डा... छोड़ देती है चिड़िया अपने अजन्मे अण्डे को, गिरा देती है घोंसले से नीचे, अगर कोई दुष्ट बच्चा छू ले तो! बचपन में मां ने यही तो बताया था, मेरी गुस्ताख़ दोपहरों के उन रोमाचंक पलों में, जब मैं दबे पांव उनके पास से उठकर, मेज़ और उस पर कुर्सी चढ़ा कर रोशनदान में रखे घोंसले में झांक कर गौरेय्या के अण्डे देखा करती थी। मैं उन चितकबरे अण्डों को हाथ में उठा लेती। देर तक उलटती - पुलटती, उन्हें हिला कर कान के पास ले जाकर सुनती कि कोई आवाज़ आए... कितनी ही बार ऐसा हुआ था कि अगले दिन अण्डों के टूटे खोल नीचे पड़े मिले और उसका पीला - सफेद तरल बिखरा हुआ मिला। मन बहुत खराब हो जाता था, फिर - फिर कसम खाती थी कि अब कभी नहीं छुऊंगी। अगली बार न जाने किस सम्मोहन में वह कसम टूट जाती।

उस वक्त तुम वही लग रहे थे। अण्डा सेती चिड़िया... आंखें मूंदे...अपने आस पास के वातावरण से निरपेक्ष, निस्पृह... एक नई सृष्टि के जन्म में एकाग्रचित्त... दृढ़, तेजोमय... जन्म देने की लज्ज़त भरी पीड़ा से बोझिल भी... और मेरी उत्सुकता मुझे धीमे धीमे जलाती रही।

शब्द ...शब्द... शब्द...( जिन्हें तुम लिख कर यूं ही भूल जाते हो!! और मेरे जैसे तुम्हारे पशंसक -पाठक, एक अरसे तक उन शब्दों से निर्मित अर्थों की गहन गुहाआें में यूं ही भटकते रहते हैं।) शब्दों ही के सुनहरे तारों के गुंथे पुल... और क्या... निश्चित ही और इन शब्दों के सिवा कुछ नहीं जोड़ता था, मुझे तुमसे। शब्द पिघलते थे मेरे पढ़ने से... और मुझ पर गिरते थे टप - टप। मैं इन शब्दों को साफ - ठण्डी ज़मीन पर फैलाती थी...वे पारे की बूंदों की तरह फैल जाते थे... फिर उन्हें बटोरना क्या आसान होता था ?

अजीब नाम होते हैं तुम्हारे पात्रों के! किस जंगल से बटोर लाते हो? ये सेमल -महुआ, कस्तूरी - केवड़ा, किंशुक, पलाश? जंगलों, पुराने किलों की यायावरी से चुन कर लाये सूखे तनों, अजीब अजीब आकार की टेढ़ी - मेढ़ी जड़ों की तरह के कथानक, जिन्हें तराश कर तुम अनोखी आकृतियों में ढालते रहे हो...

मैं ने सीढ़ियों की तरफ मुड़ते हुए, आंगन से सीढ़ियों तक बढ़ आये कटहल के गाछ की टहनियों के बीच से देखा था... तुम्हारे कमरे की खिड़की का सफेद जालीदार परदा हौले - हौले हिल रहा था... पीछे से तुम्हारी आकृति दिखाई दे रही थी ... चौड़े कन्धों पर किसी अजानी पीड़ा का दबाव था... अपने अंगूठे और तर्जनी के बीच तुमने अपने होंठों को दबा रखा था... आंखें अर्धोन्मीलित...उनमें एक
निर्वात् तैर रहा था...उनका रंग तब नहीं दिख रहा था...पर वह रंग वहीं से विस्तार पाकर आसमान को रंग रहा था...मैं कितनी भाग्यशाली थी, देख पा रही थी देश के बहुत लोकप्रिय कथाकार को उसकी किसी अद्भुत कहानी को जन्मने की प्रसव पीड़ा में आकुल!! एक ठण्डी सांस निकल गयी थी मेरी और तुमने पलक उठा कर देखा था ... वहां कुछ नहीं था बस वही निर्वात था ... मुझे खींचता सा, अंतरिक्ष के ब्लैकहोल की तरह, हज़ारों रहस्य छिपाए। मैं तेज़ी से नीचे उतर आई थी। कुछ हॉन्ट करता सा देखा था मैं ने, तुम्हारी आंखों में। मेरी हिलती - डुलती आकृति तुम्हारी पुतलियों में प्रतिबिम्बित होकर स्थिर हो गयी थी। तुम्हारी आंखों के प्यूपिल ( पुतलियां ) डायलेटेड( फैले हुए) थे। बहुत पी ली थी क्या पिछली रात?

उन सृजन के दिनों में तुम बहुत अजीब लगते थे। अस्थिर, चिड़चिढ़े, उत्तेजित... चीजें रख कर भूल जाया करते थे और झल्लाते थे रघु पर। खाने के स्वाद को लेकर तुम्हारी जीभ इन दिनों लगभग निस्पंद हो जाती थी... कुछ भी खा लेते थे, बिना मीन - मेख निकाल। ठूंस कर खाया करते एक प्रसवातुर स्त्री की तरह। `दक्षिण भारतीय गरिष्ठ कचरा' (जैसा कि तुम हमारे खाने को आम दिनों में कहते आये हो।) भी।

मेरी हिलती डुलती देह तुम्हें तब भी नहीं दिख रही थी। तुम मुझे देख कर भी नहीं देख रहे थे। मैं हैरान थी - `नाश्ता भी नहीं किया आज तो।' सोच रही थी, न टोकना ही बेहतर होगा। फिर कॉलेज को देर भी तो हो रही थी।

रिक्शे पर बैठ कर भी तुम्हारे बारे ही में सोचती रही थी रास्ते भर। इन दिनों तुम इतने अजीब क्यों हो जाते हो? अप्पा भी लिखते हैं कहानी... पर वे तो सहज रहते हैं...कहानी के बीच उठ कर किरायेदार का हिसाब करते हैं। अम्मा की झिकझिक का करारा व्यंग्यात्मक जवाब देने से नहीं चूकते। बीच - बीच में उठ कर, बाहर खड़े चिल्लाते हुए सब्जी वाले से मोल भाव कर सब्जी भी ले आते हैं। और तुम... तुम इस दौरान, दिन में तो कमरे से बहुत ही कम निकलते हो। हां, देर रात लेखक महाशय, आपकी चोरी पकड़ी जाती है, जब आप पिछवाड़े बनी लकड़ी की सीढ़ियों से चुपचाप उतर कर, नारियल के झुण्ड की तरफ से शहर को जाते छोटे लोहे के विकेट गेट की तरफ निकलते हैं, देर रात, लकड़ी की सीढ़ियों की आवाज़ से तो मैं रंजन मामा के ज़माने से परिचित हूँ। मैं ने कितनी बार ऊपर जाकर देखा है, तुम अपना पायजामा दो वृत्तों के आकार में फर्श पर उतार जाते हो। दो जुड़वां घोसलों सा। रघु को अप्रत्यक्ष हिदायत रहती है कि ` इसे उठाया न जाये'... ताकि जब तुम इस शहर की तंग उदास गलियों में, कब्रिस्तानों में या किसी सस्ते बार या पब से भटक कर लौटो तो बिना समय व्यर्थ किये कपड़े बदल कर, इस जुड़वां वृत्त में फिर से पैर घुसा कर ...ऊपर खींच कर...नाड़ा बांध कर एक कटे तने की तरह बिस्तर पर पड़ जाओ।

मैं कॉलेज से लौट आई तुम नहीं दिखे, रात खाने की मेज़ पर भी नहीं... थक - हार कर किन्ना ने ऊपर ही खाना भिजवा दिया था। मुझे याद है, उस दिन भी तुम रात ग्यारह बजे अपने कमरे से निकले थे...मैं तुम्हारे कमरे के ठीक नीचे वाले अपने कमरे में तुम्हारी गतिविधियों का अनुमान लगाती रही थी। पता नहीं प्रसव पूर्ण हुआ कि नहीं? जिसने जन्म लिया होगा वह कहानी कैसी होगी, कितने वज़न की, कितनी सुन्दर, कितनी स्वस्थ? मोह लेगी क्या वह एक नज़र में सबको?
कमरे में निस्पंद शांति थी। तब तक भी नहीं लौटे थे तुम। मैं प्रतीक्षा में तुम्हारी ही किताब पढ़ रही थी... पुरानी उन्नीस सौ चौरासी में छपी हुई... रूमानियत स्पंदित थी। जब भी मेरी ढेर सारी उलझनें, ढेर से प्रश्न इकट्ठे हो जाते थे तो मैं तुम्हारे शब्दों की शरण लेती थी। जैसे तुलसी की `रामचरित मानस' के आरंभिक पृष्ठों में वह प्रश्नावली है न! जिसमें कहीं भी उंगली रखो, जो अक्षर निकले उससे आठ खाने आगे जाओ गिनकर... फिर वह अक्षर पहले अक्षर से जोड़ लो। ऐसे अक्षर जोड़ते हुए जो शब्द बने ... उससे बनने वाले दोहे में आपके प्रश्न का समाधान छिपा होता है। ठीक वैसे ही... ` तुम इतने उदासीन क्यों हो मेरे प्रति?' के प्रश्न के लिये मैं ने आंख बन्द कर उंगली रखी थी, तुम्हारी किताब के बीच वाले पृष्ठ पर छपे ठण्डे - ठण्डे घोर उदासीन निर्लिप्त से शब्दों पर और समाधान भी मिला था - ``मैं मानता हूँ, कुछ लोग जितना अधिक प्रेम करते हैं उतना ही अधिक चुप और निस्पृही दिखते हैं।''
या फिर कभी - `` मैं प्रेम में उम्र का फर्क नहीं मानता ...''
लकड़ी की सीढियां फिर हल्के से चूं....चर्र करती हुई बज रही थीं। तुम लौट आए थे।
मेरा मन किया था तुम्हें रोक कर पूछूं तुम लेखकों की बहुत पुरानी पीढ़ी का छूट गया अंश हो या कोई बीच की विलुप्त कड़ी! अद्भुत लिखते हो तुम, अनूठा। आजकल कहां होते हैं ऐसे फाक़ाक़श और आवारा लेखक!! अकेले, बरबाद, मुफ्त की शराब पीते, उधार के पैसों पर यायावरी करते।
तभी तुम्हारा एक जूता धप्प से गिरा था...उसके बाद दुगुनी आवाज़ से दूसरा...
बड़े जंगली हो! तुम्हारे कमरे के नीचे भी कोई रहता है। लेखक महाशय।

अचानक ही आ गये थे तुम हमारे शहर में, एकदम अप्रत्याशित - से उस रोज़। किसी अजनबी देश से भटक कर, हमारे प्रदेश की पुरानी ऐतिहासिक झील पर उतर आये एकाकी मुर्गाबी से। बिना फोन, बिना तार यहां तक कि पोस्टकार्ड पर दो पंक्तियां लिख कर डाक में डाल देने की जहमत तक नहीं उठाई गयी थी तुमसे। अम्मा कितना भुनभुनाई थीं। मैं अपना पावड़ा(लहंगानुमा वस्त्र) झाड़ते हुए द्वार पर रंगोली डाल कर फर्श से उठी ही थी, कि एक ऑटो स्र्का था...तुम ऑटो वाले से हिन्दी में फिर अंग्रेजी में, दोनों में झगड़ चुके थे...तब मैं ने बीच में व्यवधान डाला था...।
`` मुझे नायर महाशय से मिलना है।'' तुम एक्सेन्ट फ्री अंग्रेजी में बोले थे। तुम्हारी नमकीन आवाज़ कोच्चि की नम हवा धीरे - धीरे सोख रही थी।
`` जी, मैं उनकी बेटी हूँ।'' चौंके थे तुम मुझे हिन्दी बोलते देख, वह भी `मल्लू'
( मलियाली) एक्सेन्ट से मुक्त !!
`` मैं मुझे महेश जी ने दिल्ली से यह पत्र देकर भेजा है।'' तुम हाथ डाल - डाल कर लगभग पांच मिनट तक तो जेब में पत्र ही ढूंढते रहे थे, मगर एक चाभी का गुच्छा, लगभग खाली वॉलेट नीचे निकल कर ज़रूर सड़क पर जा गिरा, मगर पत्र नहीं मिला।
कई उत्सुक चेहरे आस - पड़ोस के खिड़की - दरवाज़ों से झांकने लगे थे।
`` वो आप अच्चन को ही दिखाइयेगा। पहले आप अन्दर तो आयें।'' मुझे तुमने अपना संक्षिप्त सा सामान एक छोटा सूटकेस और हैण्डबैग उठाने नहीं दिया था। तब तक अच्चन बाहर आ गये थे।
``ओह! आप ही हैं ना मलय! सौभाग्य है मेरा कि आप यहां आये। कल रात ही महेश जी का फोन आया था।''
तुमने मेरी तरफ अजीब तरह की राहत से देखा था, देखा,...पत्र नहीं मिला तो क्या...फोन तो आ गया न।

मेरा दिल धक्क से रह गया था ...यही हैं मलय... वो कहानीकार! वही जिनकी कहानियों के अंश चिन्हित कर सहेलियों को पढ़वाए हैं।
``यू ब्लडी सैडिस्ट ...'' जब भी तुम्हारी कहानियां पढ़ती मैं, उसके बाद फ्लैप पर छपी तुम्हारी तस्वीर देख कर यही फुसफुसाया करती थी। तस्वीर में तुम अलग दिखते थे, मुस्कुराते हुए, पर अभी साक्षात देख कर मुझे आश्चर्य हो रहा था... यह ठण्डा सा, क्रूर सा दिखने वाला व्यक्ति ऐसी भी कहानियां लिख सकता है? `` यू... सैडिस्ट।''

`` मैं महज आया ही नहीं हूँ, एक लम्बे अरसे तक ठहरूंगा। ... पहले आप इस ऑटो वाले को चलता करें।'' ऑटो के पैसे भी अच्चन को ही चुकाने थे! क्योंकि तुमने पता ठीक से मालूम न होने के चक्कर में पूरा कोच्चि घूम डाला था ऑटो में और जो बिल था वह तुम कैसे चुकाते? तुम्हारे पास पैसे चुक गये थे और तुम्हें अगले पूरे सप्ताह अपने नये उपन्यास की रॉयल्टी की प्रतीक्षा करनी थी।
``आप पत्र डाल देते तो यहां के गेस्टरूम में आपका इंतजाम करके रखता।'' अच्चन ने ऑटोवाले को पैसे चुकाते हुए कहा था।
``वह समयाभाव के कारण संभव न हुआ। दरअसल कुछ और ही कार्यक्रम था और कुछ और ही बन गया।... महेश जी बंगलोर तक तो साथ ही थे। फिर ... मेरी लापरवाही रही। क्षमा करें असुविधा हुई हो तो।दरअसल केरल से गुज़रते हुए मुझे महसूस हुआ कि मुझे यहां स्र्कना चाहिये और यहां के बारे में भीतर तक जानना चाहिये। और उसके लिये मुझे किसी गेस्टहाउस की नहीं एक केरलीय परिवार के सान्निध्य में रहने की आवश्यकता महसूस हुई। तो महेश जी ने...''
`` अच्छा - अच्छा। यह बहुत ठीक किया आपने... हमें प्रसन्नता होगी आपकी मेहमाननवाज़ी में। अंदर बैठक में चल कर बात करें।... मालि, अम्मे डेढत चाय, कोरचि पलहारन कोंडुवराम परियु( मालि, अम्मा को बोल कि कुछ नाश्ता और चाय भेजें)... दरवाज़े पर ही परदे से खेलती हुई मैं तुम्हें हैरत से देख रही थी...कि अच्चन ने फिर टोका... ``और सुनो मालि रघु की सहायता से ऊपर रंजन मामा वाला कमरा ठीक करवा दो।''
`` रंजन अम्मावण्डे मुरी एन्दन कोड्कुनु? (रंजन मामा का कमरा क्यों...)''
`` न्यान एन्दपरन्यु अदु चैय्यु! (जो कहा है वही करो...)''
`` जी अप्पा...''

तुम बड़े बेमन से उपमा खा रहे थे। मुझे मन ही मन हंसी आ रही थी।
``पेट्टु पोई एस्र्तुकारन ( बुरे फंसे लेखक महाशय!)''

रंजन मामा का कमरा! अतिविशिष्ट कमरा है वह। उस कमरे में दोनों ओर खिड़कियां हैं... एक तरफ रबर, कॉफी और नारियल के पेड़ों का विशाल अहाता है। दूसरी तरफ बैक वाटर्स का नज़ारा देखने को मिलता है। नीले मखमली परदे, टीक वुड का पुराना फर्नीचर। उनकी जीती हुई ट्रॉफियां, मढ़े हुए प्रशंसा पत्र। दुर्लभ कलाकृतियां, कुल - मिला कर एक जादुई संसार, जो मुझेबचपन से आकर्षित करता था। मेरी स्मृति में हैं वे पल, जब पीला - लाल पावड़ा, कभी साटन की हरी फ्रॉक पहने हुए, रिबन वाली दो चोटी किये हुए, गाल पर काजल का दिठौना लगाकर मैं मामा को छुप - छुप कर देखा करती थी... उनका एक - एक क्रियाकलाप। उनका सिगरेट पीते हुए रॉकिंग चेयर पर कुछ सोचते रहना। किताबें पढ़ना। सच्ची! रंजन मामा शाही आदमी थे। अब लन्दन में रहते हैं। लेकिन जब भी लौटते हैं वे अपने कमरे में ही ठहरते हैं। इसी कमरे में बन्द हो अम्मा के साथ घण्टों बातें करते हैं।

मेरे मन में उछाह जगा था कि आज मैं फिर मामा का कमरा खोलूंगी और कुछ अंग्रेजी रूमानी कविताओं की किताबें निकाल लाऊंगी। जो आज दिल्ली की बेहतरीन किताबों की दुकानों में भी दुर्लभतम हैं।
तुम्हें पता नहीं, पता हो के न हो। हम मलियाली नायरों में मातृसत्तात्मक परिवार होता है। ये जो टीक की मूल्यवान लकड़ी के दरवाज़ों और खंभों तथा फर्श का एक वृत्त में बना विशाल घर है, वह मेरी मां का है, जो विरासत में मुझे मिलेगा। पर कौन रहना चाहता है यहाँ? मैं बाहर निकलना चाहती हूँ, अच्चन की तरह। आपकी तरह। घुमक्कड़ी करना चाहती हूँ। मेरी मां ने कभी यह कस्बा नहीं छोड़ा और पिता बहुत कम यहां रहे। उनका एक पैर दिल्ली तो एक पैर कोचीन में रहता था। अच्चन मलियाली - हिन्दी दोनों भाषाआें के बड़े विद्वान हैं। केन्द्रीय साहित्य संस्थान में कार्यरत रहे हैं। उनका हिन्दी प्रेम मुझे विरासत में मिला है।
अम्मां सच में तुम्हारे आगमन से खुश नहीं थीं। न पहले न बाद में।
बाद में अच्चन अम्मां को समझाते रहे थे।
`` तुम तो समझती नहीं हो। अरे बड़े विद्वान हैं, बहुत बड़े लेखक। देस - परदेस घूमना और लिखना ही इनका काम है। ... कम उमर में इतना बड़ा लेखक कोई यूं ही नहीं बन जाता। और फिर जिन महेश जी का ये पत्र लेकर आये हैं। दिल्ली में उनके खाली फ्लैट में मैं बिना किराया दिये पूरे दो साल रहा हूँ।''
`` मट्टु ओरू एर्तुकारन, ओरू अनम पोराचिटू मट्टू ओरणम कूडीम... ( एक ही लेखक क्या कम था... सो ये दूसरा और) हं... लेखक! ये तो पूरी की पूरी प्रजाति ही बेकार...'' अम्मा बड़बड़ाती हुई संकरे गलियारे में से अपनी साड़ी का आंचल पिता से बचाते हुए आंगन की ओर निकल गयी थी। पिता ने बुरा सा मुंह बना कर उन्हें घूरा। और हिन्दी में बोले - `` मैं अछूत हूँ ना। छू जायेगी, मालि तेरी मां मुझसे तो ...तो वो भी अछूत हो जायेगी।'' मुझे हंसी आती थी अपने अच्चन - अम्मां के इस अनूठे रिश्ते पर।


मैं चौंक ही गयी थी, उस शाम जब घनघोर बरसात हुई थी और तुम कमरे के पीछे वाली बालकॉनी में रॉकिंग चेयर निकाल कर बैठे थे। बिलकुल रंजन मामा की तरह सिगरेट पी रहे थे। और स्वनिर्मित धुंए के धुंधलके में कुछ सोच रहे थे। मुझे भ्रम हुआ था रंजन मा%मा! फर्क था तो बस नीले खादी के कुर्ते और सफेद पायजामे में... रंजन मामा पूरे विलायती थे। मन में हूक उठी थी। रंजन मामा के आकर्षण में मेरी पूरी किशोरावस्था स्वाह हुई थी। न जाने किसने...शायद अम्मुमा (नानी) ने मेरे मन में बात डाल दी थी कि तेरी शादी तो रंजन से होगी। बाहर की दुनिया में चाहे जितने विरोधाभास हों... मेरे अन्दर की दुनिया में हमेशा से रंजन मामा मेरा पहला प्रेम थे और रहेंगे। अब इस भरी - पूरी युवावस्था की बरबादी के बाइस क्या तुम बनना चाहोगे? इडियट, उम्र का तो फर्क कभी देख लिया कर। पहले रंजन मामा अब...

रंजन मामा की आकृति में और तुम्हारी आकृति में तो कोई मेल नहीं था। तुम लम्बे और गोरे हो... हल्की सलेटी आंखों वाले। वे सांवले और मध्यम कद के सुन्दर काली आंखों वाले पुस्र्ष हैं। कभी वो भी बहुत रूमानी थे। कोच्चि के कॉलेज की लड़कियां उन पर फिदा थीं। उनमें से एक सुन्दर क्रिश्चन लड़की घर भी आती थी। पर रंजन मामा ने सबका दिल तोड़ा, यहां तक चौदह साल की अपनी इस भांजी का भी और लंदन में ही एक विदेशी स्त्री से शादी कर ली।

रंजन मामा का कमरा देखते ही तुम कुछ परेशान हुए थे।
``नायर साहब, इतनी भव्यता की आदत नहीं है मुझे। कोई छोटा, खाली, कोने का कमरा ही चल जाता।''
`` मलय जी, इस कमरे में अंग्रेजी के एक बड़े लेखक - फिलॉसॉफर का जन्म होते - होते रह गया। इस कमरे की दीवारों में विश्वसाहित्य बसा है। यह मेरे साले रंजन का कमरा है, जो कि यू. के. में बिज़नेस टायकून है।इस कमरे में जितनी आलमारियां आप देख रहे हैं न, विश्वप्रसिद्ध, दुर्लभतम पुस्तकों से अंटी पड़ी हैं। यहीं रहें,आपको कुछ दिन में अच्छा लगने लगेगा।''
तुमने अपेक्षाकृत कम सामान वाला खाली कोना अपने लेखन के लिये चुना था। उस कमरे की विशाल टीक की स्टडी टेबल तुम्हें बहुत पसन्द आई थी। वहीं पास ही नीचे एक गद्दा बिछवा कर तुमने सैटी बना ली थी। जब टेबल पर लटके हुए पैर थक जाते थे तो तुम नीचे डेस्क लगाकर लिखा करते थे।सिवाय उन बरसाती रातों के, खिड़कियों में से बौछारें आकर जब गद्दा भिगो जाती थीं।

आरंभ के दिनों में तुम नीचे बिलकुल नहीं उतरे। नाश्ता, खाना, अन्य चीज़े स्वत: ही अच्चन रघु से कहकर ऊपर पहुंचवा देते थे। पता नहीं कौनसी कहानी लिख रहे थे। `भीषण' शब्द तुम्हारी ही देन है... यकीन मानो मुझे भीषण उत्सुकता हो रही थी।

थोड़े दिनों बाद तुम्हारी देखभाल का जिम्मा मेरे ही सर आ पड़ा था। अम्मा तुमसे चिढ़ती थीं। नानी बूढ़ी हो चली थीं। रघु को सुबह के समय हमारे कॉफी, रबर और नारियल के बाग में मजदूरों को भी देखना होता था। बस किन्ना थी, जो रसोई बनाती थी।
``किन्ना हमारी नौकरानी नहीं है। वह हमारे दूर की अनाथ रिश्तेदार है, बचपन से ही मेरे साथ रही है। इसकी भी...शादी पक्की हो गई है।'' एक बार तुम्हें बताया था मैं ने।
``इसकी भी... से क्या मतलब? तो तुम्हारी भी...''
``हट्...।''

एक दिन सुबह सुबह मैं ने देखा तुम किन्ना को आलू परांठा बनाना सिखा रहे थे। अम्मां के शुद्धतावादी आचरण को ताक पर रख। मैं ने हड़बड़ा कर पूछा था।
`` मलय जी, आपकी जाति क्या है?''
``मैं कहूँ मुसलमान तो?''
``अइयय्यो!'' किन्ना डर गई थी।
``हट् ! नाम तो हिन्दु है।''
``पर क्यों?''
``अम्मां की रसोई में बस सवर्ण घुस सकते हैं। शुद्ध शाकाहारी और वह भी स्नान - ध्यान के बाद।''
तुम मुस्कुराये थे। फिर किन्ना भी। और मैं भी।

पहले एक सप्ताह तोे तुमने अनमने मन से केरलीय व्यंजन खाये थे। फिर किन्ना की बदौलत आलू का परांठा और दही मिलने लगा था तुम्हें। दोपहर के खाने में तुम्हें चावल, सांभर - रसम जो बनता था खाना ही होता था क्योंकि दोपहर का खाना अम्मा...पूरी तरह अम्मा के नियंत्रण में होता था। सुबह का नाश्ता किन्ना और मेरी ज़िम्मेदारी थी। तब अम्मा पूजा - पाठ, शहर के मंदिरों के दर्शन में व्यस्त रहती थीं। वही वक्त था, जब मैं तुम्हारे साथ होती थी। यही वक्त होता था, जब तुम लिख नहीं रहे होते थे। यही वक्त था, जब हम बातें करते।
``क्या लिख रहे हैं?''
``एक लम्बी कहानी।''
``प्रेम पर!''
`` न्ना।''
``आपकी पुरानी कहानियां पढ़ी हैं मैं ने। `रोमान्स' शब्द से चिढ़ने वाले अच्चन ने मुझे आपकी किताबें पढ़ने को दी थीं। पर वो रूमानियत कैसी थी। सचमुच भीषण, बीहड़, सघन, कठोर। झरती हुई... मरती सी...दुखाती हुई।''
`` अब नहीं लिखता वह सब।''
`` क्यों?''
``चुक गया वह सब। प्रेम शब्द ही अब वह थ्रिल पैदा नहीं करता।''
``यह शब्द तो व्यापक अर्थों वाला है, केवल थ्रिल और उत्तेजना के अतिरिक्त बहुत कुछ होता है इस शब्द में।''
`` शब्द का जो भी शाश्वत अर्थ हो, पर इसकी परिभाषाएं सबकी सब खोखली हैं। अब इस पर लिखा जाना महज दोहराव भर है।''
`` बहुत प्रेम कर लिया क्या?''
`` हां, हरेक करता है, प्रेम करने की उम्र में...''
``प्रेम करने की भी कोई खास उम्र होती है क्या?''
``नहीं होती क्या? तुम हो न उस उम्र में!''
तुम्हारे उस अप्रत्याशित उत्तर से अचकचा गई थी मैं। पर यह वार्तालाप अपने आप में एक थ्रिल था। एक शुस्र्आत और एक उत्प्र्रेरक का काम कर सकती थी, यह मुसलसल बातचीत।
``हो सकता है, पर पात्र भी तो हो न!''
``हैं तो! तुम्हारे मंगेतर, डॉ. साहब।''
`` तो अच्चन ने बता ही दिया आपको।... लेकिन ऐसे क्या प्रेम हो जाता है? आप तो गूढ़ मनोविज्ञान की कहानियां लिखते हैं। इतना सरल मनोविज्ञान नहीं पता!''
`` पता है वनजा...''
`` अय्यो, वनजा नहीं.....वनमाला।''
`` वनमाला...कहां हो तुम... वनजा हो इस जंगल से उपजी...'' तुमने बैक वाटर्स की तरफ फैले पेड़ों की कतारों की तरफ इशारा किया।
`` तो तुमने मेरी सारी कहानियां पढ़ी हैं... वह नहीं पढ़ी ` एकालाप ' जिसमें असफल प्रेम की व्याख्या की गई है।''
`` पढ़ी है...''
``फिर ...''
`` फिर क्या...आपका मन एक कब्रिस्तान मालूम होता है।''
``अच्छा! कैसे?'' तुम हंसे थे खुलकर,अपनी रुंधी हुई सी हंसी के खोल से बाहर आकर।
``हर कहानी एक कब्र एक प्रेम की!'' फिर ... कुछ ही पलों में हंसी में से नमी बिखर गयी थी...हवा में। एक खारी हंसी बची रही...समुद्र से होकर आने वाली हवाओं की तरह।

आने वाले दिनों में एक दिन वह भी तो था... जब शाम ढलने के साथ ही ... हम छोटे टैरेस पर थे जहां से समुद्र में बियर के झाग से रंग की लहरें उठती दिख रही थीं। तुमने मेरे ताज़ा धुले बालों को सूंघ कर पूछा था, `` किससे धोए हैं? बहुत अलग तरह की महक है!''
मुझे तुम्हारे उपन्यास की एक पंक्ति याद आ गयी। ``महीने के खास दिनों में लड़कियां अलग तरह से महकती हैं।'' मैं हतप्रभ थी, मेरी पारदर्शी आंखों से हैरानगी के भाव बटोरते हुए तुमने कुरेदा तो मैं ने एक हिचक तोड़ कर बता ही दिया था। तुम बहुत देर चुप रहे...फिर मुस्कुरा कर बोले थे।
``मैं तो लिख लिखा कर भूल जाता हूँ, मुझे याद नहीं। लिखा होगा...''
``तो उस सब का कोई अर्थ नहीं?''
`` अरे...लिखते वक्त जो मन में आता है लिखते चले जाते हैं। एक सहज बहाव के तहत।''
``प्रेम प्रसंग भी...''
``हां और क्या?
मेरा मन टूटा था...जिन शब्दों पर उंगलियां फिरा कर मैं जीवन के अर्थ खोजती हूँ, उन्हें ये लिख - लिखा कर भूल - भाल जाते हैं! मैं उदास हो गयी थी। तुम मेरी उदासी को पहले गौर से देखते रहे थे। फिर मेरे बाल मुट्ठी में भींच कर बारहा सूंघते रहे।
मैं ने तुमसे पूछा था, `` मैं जाऊं?''
`` नहीं... बात करो न...''
``क्या?''
``वही कब्रगाह... मेरा मन! तुम ठीक ही कहती हो शायद मेरा मन एक कब्रिस्तान है... जिसे यादें आकर कभी - कभी बुहार जाती हैं।...बहुत सी बातें हैं ...बहुत से पश्चाताप...
`` बहुत जटिल हैं आप... असाधारण...।''
`` हां ... असाधारण परिस्थितियों में असाधारण माता - पिता से जन्मे बच्चे का जीवन साधारण कैसे होता?''
``...? '' तुमने मुझे अपने बहुत करीब बिठा लिया था, और मानो स्वगत बोल रहे थे। रॉकिंग चेयर पर हिलते हुए...
``जानना चाहोगी?... तो सुनो... मेरे पिता एक गांधीवादी स्वतन्त्रता सेनानी थे। सम्पन्न, सभ्रान्त...। मेरी मां, मेरे पिता की दूसरी गैरकानूनी पत्नी थीं ... वे एक नेपाली महिला थीं। उन्होंने मेरे पंद्रह वर्ष के होने के बाद पिता से अलग हो ... बौद्ध धर्म अपनाने का निर्णय ले लिया था। मैं पिता से अधिक मां से निकटता महसूस करता था...उनके इस निर्णय ने मुझे बुरी तरह सहमा दिया था। आज चालीस की उम्र में मैं उनकी विरक्ति को शायद समझ सकता हूँ, पर तब पन्द्रह वर्ष की उम्र में... मैं उनसे यही पूछता कि - अभी इतनी जल्दी क्यों? मेरी समझ में भिक्षुणी बनने के लिये वह बहुत अधिक सुन्दर और युवा थी... उनका उत्तर दार्शनिकता भरा होता था... एक पका सेब जब धरती पर गिरने को होता है, तो कहां निश्चित होता है कि वह कब गिरेगा!

मेरे माता - पिता का प्रेम भी उनकी तरह ही असाधारण और असीम था...बिना कैफियतों वाला, अपेक्षारहित...पर मैं!''
``फिर?''
``फिर क्या ...मां के चले जाने के बाद मैं थोड़े दिन पिता के सयुंक्त परिवार की भीड़ का हिस्सा बना रहा। फिर मेरी चुप्पी और उदासी देख पिता ने जल्दी ही बोर्डिंग में डाल दिया। फिर मैं कभी पिता के पास नहीं लौटा। मुम्बई चला गया।''
``शादी क्यों नहीं की?''
``उससे क्या फर्क पड़ता?''
``बंधे रहते। खुश रहते।''
``बंधकर कौन खुश हुआ है?''
``प्रेम भी नहीं किया हो ऐसा नहीं हो सकता! हर कहानी में तो असफल - अनैतिक प्रेम ...''
`` अरे तुम तो एक साइकियाट्रिस्ट की तरह बात कर रही हो, न तुम साइकियाटिस़्ट हो, न मैं कोई साइकियाट्रिस्ट के सामने आंखें मूंदे बैठा एकालाप करता मरीज़... कि वर्तमान की उलझनों को लेकर अतीत के उलझे ढेर में हम कोई सिरा ढूंढे?'' तुम हंस कर उठ गये थे रॉकिंगचेयर से। छत की रेलिंग के पास जा खड़े हुए...सिगरेट सुलगाते हुए।
`` तुम्हारी एक बात सच है... दूसरी अर्धसत्य... सच कहूं तो ...मेरे बहुत सी स्त्रियों से सम्बन्ध बने और टूटे हैं। पर सम्बंधों में अकुशलता की वजह मैं अपने परिवारहीन अतीत को नहीं देता। मेरे माता - पिता अपनी अपनी स्वतन्त्र प्रज्ञा के साथ एक दूसरे को प्रेम करते थे। मेरी दृष्टि में उनका एक सफल प्रेम विवाह था। पिता स्वतन्त्रता सेनानी बन जेल चले गये...मां तिब्बत चली गयी। यही एक महान प्रेमकथा का अंत था। उस कथा में से छिटक कर गिरा एक असफल पल जो था... वह मैं था।
मैं ने भी जितने प्रेम किये वे असाधारण थे... हर स्त्री जिससे जुड़ा असाधारण थी... दूसरी से भिन्न। हर रिश्ते की गति दूसरे से भिन्न... बल्कि उनकी टूटन भी अलग - अलग किस्म की थी।
`` फिर क्या मिला हर बार...''
`` एक आह... सच पूछो तो मेरा कोई भी रिश्ता एक रात का रिश्ता नहीं रहा... सबके सब गंभीर - गहन रिश्ते थे। ...''

मैं उन तथाकथित `असाधारण मोहब्बतों' के किस्सों को नहीं सुनना चाहती थी, जिनमें से कब्र के ऊपर जलते लोबान की - सी महक आती हो, नहीं खोलना चाहती थी, तुम्हारे प्रेम की कब्रें। मैं बात बदलना चाहती थी।
`` आपका खर्च कैसे चलता होगा? घर...? नौकरी भी नहीं करते...?''
तुमने भी एक ठण्डी सांस लेकर उन कबों को न खोलना ही बेहतर समझा।
`` मेरा काम तो चल ही जाता है। किताबों की रॉयल्टी... कहानियों - अनुवाद का पैसा। दोस्तों की मेहरबानी। वैसे पिता ने बैंक में मेरे नाम पैसा रख छोड़ा है... एक फ्लैट भी...पर मैं उस पैसे को छूता तक नहीं...अब तक तो ज़रूरत भी नहीं पड़ी। फ्लैट में तिब्बती गरीब लड़के रहते हैं, मां के भेजे हुए। मैं बरसों के उसी किराये के कमरे में रहता हूँ...जिसकी मुझे आदत है, मेरा तिकोना कमरा।...वह कमरा याद आ रहा है,वनजा...अब मैं जल्द ही चला जाऊंगा।''

उसके कुछ दिन बाद मेरा नया स्कूटर आया था और सीखते में मैं ने स्वयं को घायल कर लिया था। कोहनी में चायनीज़ ड्रेगन के आकार की गहरी - लम्बी चोट लगी थी और कन्धा ज़मीन से टकराने की वजह से वहां की मांसपेशियों पर आघात पड़ा था और मैं सीधा हाथ उठाने में असमर्थ थी। तुम अब उस कहानी पर गंभीरता से काम कर रहे थे। अपने कमरे में बन्द। प्रसवपीड़ा से जूझते। किन्तु रघु से यह सुनते ही तुम एक बार नीचे उतरे थे। मेरा कमरा पहली बार देखा था तुमने, गौर से देख रहे थे। रंजन मामा के कमरे जितना ही बड़ा और उसी गोल आकृति का, पारंपरिक केरलीय ढंग का बना, लकड़ी का फर्श, छत लकड़ी की,। तुम अब एक दीवार पर पुराने खानदानी श्वेत - श्याम चित्रों के समूह को देख रहे थे ... ये चित्र इस कदर बेतरतीबी से लगे थे कि वह बेतरतीबी भी मुझे कलात्मक लगने लगी थी, तुम्हारे कमरे में आने से। अब तुम पलंग के पीछे तंजौर की बड़ी विशाल और पुरानी पेन्टिंग देख रहे थे। खिड़कियां इस वक्त बन्द थीं सो कमरे में हल्की रोशनी थी। लकड़ी की छत पर पीतल के कुन्दों पर एक घुड़सवार के आकार वाले दो दीपदान लटके थे। टीक का बड़ा पलंग, जिस पर नीली मच्छरदानी तनी थी, उसके बीचों बीच लेटी थी मैं... कमरे के हल्के उजास में तुम्हें मैं नहीं दिख रही थी...पर मैं तुम्हें साफ - साफ देख पा रही थी।
अच्चन ने पुकारा था, `` वनमाला''
मैं चौंकने का नाटक कर उठ बैठी थी। अच्चन ने मच्छरदानी हटा दी। मेरा मलिन चेहरा तुम्हें देख कर `उन्हें देखे से जो आजाती है चेहरे पे रौनक' की तर्ज पर उद्भासित हो गया था।
`` फ्रैक्चर तो नहीं हुआ न?''
मैं ने सर हिला दिया था। मैं ध्यान से तुम्हें देख रही थी। सप्ताह के एकांतवास और आराम ने तुम्हारी उम्र कम कर दी थी क्या?
``नहीं पर मोच ठीक होने में चार - पांच दिन लग जायेंगे।'' अच्चन ने उत्तर दिया
`` कभी - कभी बीमार होना अच्छा होता है। अवकाश मिल जाता है जीवन के बारे में सोचने का। दूसरों का लिखा हुआ पढ़ने का। मैं तो कभी - कभी चाहता हूं लम्बा बीमार पड़ना। इन्हें पढ़ डालो।'' कह कर तुम मेरी आंखों में झांक कर हल्का सा मुस्कुराये थे। तुम्हारे हाथ में कुछ मोटी - मोटी किताबें थीं। मैं हैरान थी ये कैसी मिजाज़पुर्सी है?


एक ओर मैं तेज़ टीस भरे दर्द और दवाओं के असर से हल्के पड़ते दर्द की बीच की स्थिति में झूल रही थी। चोटिल, हरारत में डूबी। दूसरी ओर हल्की नीली छांह सी दैहिक उत्तेजना, जलते बुखार और दर्द की पटपटा कर जलती पीली लौ के बीच उभर रही थी। ऐसे में तुम्हारे सद्यप्रकाशित क्रान्तिकारी उपन्यास के बीचों - बीच नक्सली नायक और पत्रकार नायिका का प्रेम प्रसंग ...मुझमें शब्द दर शब्द वह दृश्य जाग रहा था। मुझे तुम्हारी एकदम ठण्डी, अस्पन्दित हथेलियों की चाह जागी थी, मेरे बुखार को थामती, दर्द को सहलाती, खुमार को पीती हथेलियों के स्पर्श की चाह!
पहली बार बीमार होना बड़ा स्र्मानी लगा था। करारे दर्द और तेज़ बुखार में सारी भावनात्मक हलचल थम गई थी, एक दर्शन उपजा था, देह का दर्शन। मैं ने तुम्हारी सारी किताबें निकाल लीं थीं और ढूंढ ढूंढ कर तुम्हारी किताबों में से तप्त प्रेम प्रसंग बार - बार पढ़े थे।
छि: कितने निर्लज्ज हो उठे थे तुम कई जगह! उफ! मेरी उत्तेजना का पारावार न था।
उसके बाद मुझे नहीं पता मैं कैसे तीव्र ज्वर की अवस्था में ही तुम्हारे कमरे के बाहर थी...तुम जाग रहे थे। सिगरेट की तीखी गंध...खिड़की से छन कर आ रही थी।
शायद खिड़की के पास बैठे थे तुम और तुमने मेरी परछांई को दीवार पर कांपता हुआ देख लिया था। तुम हड़बड़ा कर बाहर आ गये थे।
``यहां क्यों? इस वक्त?''
``मुझे नहीं पता।''
``अरे!''
``मुझे वह कहानी दिखा दो...''
``कौनसी...''
``वही जो तुम मुझ पर लिख रहे हो।''
``अभी तो नहीं लिख रहा पर...हां लिखूंगा... तुम पर भी ...कभी, एक थी वनजा...बड़ी काली आंखों वाली...एक था...सुरेश...'' तुम बहला रहे थे मुझे, मेरी बुखार और उत्तेजना से उपजी ज़िद को।
``...... नहीं जो लिख रहे हो तुम...।''
``उसमें तुम नहीं हो।''
``मुझे पता है उसमें हूं मैं, रोमान्स है। नहीं तो तुमने उस रात मेरे बाल क्यों सूंघे थे?''
तांबई रंग का चांद निकल आया था । समुद्र के झागों की उस झालर में पिघले तांबे की तरह चांद से चांदनी टप - टप गिर रही थी।
``तुम जाओ नीचे...''
``नहीं।'' मैं ने ढीठ की तरह अन्दर आकर डेस्क पर पड़ा कहानी का कटा - फटा अधूरा ड्राफ्ट उठा लिया था। तुमने बुरी तरह से मेरे हाथ से कागज़ छीन कर मुझे धकिया कर पलंग पर गिरा दिया था। ``इसमें कहीं तुम नहीं हो, और कुछ भी तो रूमानी नहीं। बेवकूफ!''
दैहिक उत्तेजना ने मुझे आत्मविस्मृत कर डाला था। रंजन मामा बुरी तरह याद आ रहे थे। इसी पलंग पर अपनी प्रेमिका को घनी उत्तेजना से चूमते हुए। चैत के उस माह में मेरी देह में गेहूं का सुनहरा खेत पक रहा था, तुम उससे होकर गुज़रते। मैं चाहती थी ...मेरी थर थर कांपती देह की बिखरी हुई सुनहरी रेत को तुम समेटते...

तुम ने ऐसा कुछ नहीं किया। गुस्से में उस रॉकिंग चेयर पर बैठे सिगरेट फूंकते रहे। मैं सन्निपात के मरीज़ की तरह कुछ बड़बड़ा रही थी... तुम्हें कोई सहानुभूति नहीं हो रही थी मुझसे ... न जाने कब अच्चन आकर खड़े हो गये... घनघोर आश्चर्य और क्रोध में उनकी फैली आंखें... मैं डर गयी थी... तुम नहीं डरे थे। वैसे ही सिगरेट पीते रहे। तुमने कोई सफाई देने की कोशिश भी नहीं की।
वे मुझे ढकेलते हुए ले गये थे। मेरी कोहनी का घाव दरवाजे के एक कोने से टकरा कर फिर खुल गया था... खून टपकता रहा था...।
तूफान तो उठा था...पर एक प्रतिष्ठित परिवार की मर्यादाआें की परतों में...दबा - ढंका। तुम तक जो पहुंचा वह महज एक क्रूर आग्रह था। मेरी तमाम सफाइयों, तुम्हारे पक्ष में दी गयी मेरी सारी दलीलों के बावज़ूद।
`` मलय जी, वनमाला के विवाह की तारीख तय हो गयी है। जल्द ही घर मेहमानों से भर जायेगा।आपको असुविधा न हो इसलिये आपकी व्यवस्था मैं कहीं और करा दूं? या आपका सृजन पूरा हो गया हो तो दिल्ली का रिज़र्वेशन...।''
अपमान से तुम्हारा चेहरा पहले लाल फिर बैंगनी और फिर काला पड़ गया था। फिर भी सफाई में एक शब्द तुमने नहीं कहा।
`` लौटना ही बेहतर होगा...नायर साहब।''

आज फिर तुम समाधिस्थ हो। तुम्हारी इस समाधि में सृजन नहीं आत्मपीड़न है। मेरा मन डूब रहा है। किन्ना चुपचाप मेरी छटपटाहट देख रही है और फिर तुम्हें। मैं मोहग्रस्त हूँ, तुम्हारे लिखे शब्दों का मोह है मुझे। आवाज़ का मोह। तुम्हारे उस पूरे खारे - खारे व्यक्ति के भीतर की नर्म मधुरता का मोह भी। तुम उम्र के गुज़रते प्रवाह के किनारे उदास एकाकी बैठे हो ...मैं तुम्हारे जीवन की तरफ पलट आने की प्रतीक्षा में हूँ।

तुम कल चले जाओगे...तुम्हारा बंधा हुआ संक्षिप्त सामान बता रहा है। तुमने सब समेट लिया है, अपने अटपटेपन का विस्तार, अपने बिखरे हुए स्व को भी... बागान के पीछे को खुलती खिड़की के नीचे मुझे तीन टूथपिक मिले, मैं ने सहेज लिये हैं। थोड़ा आगे बढ़ी तो ढेर सारे फटे पन्ने... उफ यह तो वही कहानी है, जिसे तुमने मेरे सामने शुस्र् किया था...

रात तुम फिर कमरे से निकले हो, सुबह आठ बजे तुम्हारी ट्रेन है फिर भी। वहीं कुख्यात वेलु के गन्दे सस्ते बार में! गलियों के गुंजलकों में भटकते हुए... लौटोगे बीच रात...
धप्प से एक जूता गिरा है पलंग से... लौट आये हो तुम। एक बजा है। मैं सुबह पांच बजे तक जागती हूँ, शायद तुमने शिष्टता की याद आने पर संकोचवश दूसरा जूता चुपचाप नीचे रख दिया होगा।
``वीनडुम पेट्टु पोई, एस्र्तुकारन''( फिर, बुरे फंसे लेखक महाशय!) कह कर मैं हिचकियों के साथ रो पड़ी हूँ।
सुबह पांच बजे, थक हार कर सो गयी चेतना को जगाती है एक खुमार में डूबी हुई आवाज़... जो ज़्यादा अभिव्यक्त नहीं करती। बहुत कम शब्दों वाली बेहद आकर्षक आवाज़। जैसे कम मनकों की माला... जैसे कम चट्टानों वाली प्रवाहमयी नदी। यह आवाज़ मेरे मोह को छलती रही है।
`` प्रेम - व्रेम नहीं होता अब हमें।'' प्रेम का ज़िक्र चलने पर।
``और कोई नई ताजा खबर?'' मेरे कॉलेज से लौट कर तुम्हारे कमरे में आने पर।
और आज भोर के मटमैले धुंधलके में धुंआ होती तुम्हारी छाया से फिर वही आवाज़ उठी है`` चलता हूँ वनजा...''
इस पल ऐसा लग रहा है मानो इस जगत की विराट् सत्ता में सब शून्य हो जायेगा अगर यह आवाज़ न रही तो, जैसे आसमान से धरती के बीच यह नमकीन आवाज़ सेतु बांधती रही हो। मेरा मन चीख कर कहना चाहता है - हां, हां मैं ने छुई थी तुम्हारी कहानी। तो क्या हुआ? तुमने उसे तज क्यों दिया? तजा ही नहीं बल्कि ठीक चिड़िया की तरह घोंसले से नीचे लुढ़का भी दिया! मैं क्या अछूत हूँ?''
देखो वो कहानी के टूटे खोल मेरे पास अब भी हैं। उफ! किस कदर फाड़ा हैं कहानी के ड्राफ्ट को कि कोई अंश किसी से नहीं जुड़ता। मैं देर तक डायनिंग टेबल पर उस कहानी के टुकड़े लिये, जिगसॉ पज़ल की तरह उसे जोड़ने की कोशिश में लगी रही हूँ।

अपने आपको ढूंढ रही हूँ मैं। तुमने ठीक ही कहा था, इस कहानी में सच ही कुछ भी...कहीं भी... मैं तो सच ही में कहीं नहीं हूँ। एक बूढ़ा ज्योतिष है और उसका भविष्य की पर्चियों को चोंच से निकालने वाला, पालतू तोता है... उस बूढ़े की याद में एक खानाबदोश मादक... झरने जैसी औरत है। मैं कहां हूँ...! इसमें कुछ भी तो रूमानी नहीं है।

मनीषा कुलश्रेष्ठ
अगस्त 1, 2006

कुरजां

कुरजां
`` यह देखना डॉक्टर, तुम्हारे इस मेडिकल जरनल में क्या लिखा है, यह कहते हैं कि शरीर की हर एक कोशिका में स्मृतियां जमा रहती हैं। ये तथ्य तब सामने आया जब अमेरिका में एक लड़की के शरीर में, ऐसे व्यक्ति का गुर्दा ट्रान्सप्लान्ट किया गया, जिसका कत्ल हुआ था... तो उसे अपने उसी तरह कत्ल होने के सपने आने लगे थे, जिस तरह उसके मृत डोनर को मारा गया था।अब इसे क्या कहोगे तुम?'' वह मेरे क्लीनिक में आता और इसी किस्म की हैरतअंगेज़ चीज़ें पढ़ने और सुनाने में दिलचस्पी दिखाता था।

मेरा यह चिरकुमार मरीज़, एक सेवानिवृत्त शिक्षाविद् था। अपनी नौकरी के दिनों के किस्से सुनाया करता था। रेगिस्तानी इलाकों, आसाम के अन्दरूनी हिस्सों, गुजरात के कच्छी क्षेत्र और हर उस जगह के किस्से, जहां - जहां वह पदस्थ रहा था। एक शिक्षाविद् होने के नाते, जाने कितनी परियोजनाआें में उसने काम किया था।अपने अन्तिम दिनों में वह मुझसे `विच क्राफ्ट' यानि डायन विधा पर बहुत - सी बातें करने लगा था। उन दिनों उसने एक अनोखी घटना का और रेगिस्तानी इलाके की एक खूबसूरत डायन का ज़िक्र मुझसे किया था, ``वह कहती थी डॉक्टर, जब उसकी मां अपने ऊपर किसी की आत्मा बुलाया करती थी...तो उसके बाद दिनों - दिन निढाल पड़ी रहा करती थी। उसके शरीर में ऐसे पस्ती छा जाती थी कि जैसे वह महीनों बीमार रह कर चुकी हो। इसे तुम अपने मेडिकल की भाषा में क्या कहोगे?'' उसका यूं हर बात के विश्लेषण में `मेरी मेडिकल की भाषा' से दरियाफ्त किया जाना, कभी - कभी मुझे खिजा देता।
उसके अनोखी कहानियों को सुनने - सुनाने के शौक के चलते मैं उससे अकसर कहा करता था कि - तुम लिखना क्यों नहीं शुरु करते? वह हमेशा यह कह कर टाल देता कि `` यार इतना धीरज किसमें है?'' फिर भी, मेरे बहुत कहने पर उसने रेगिस्तानी डायन की कहानी को कलमबद्ध भी किया था। मैं उसे आपके सामने रख रहा हूँ। ये रही वो फाईल, ये रहे...उसके हाथ के लिखे पन्ने -

डायन! वो भी हाड़ - मांस की जीती - जागती, सांस लेती? जवान - खूबसूरत। मेरी याददाश्त यूं अचानक क्षीण पड़ जाये, ऐसा तो कभी नहीं हुआ। मैं स्कूल से रोज़ दोपहर घर आता हूँ, खाना खाता हूँ, कुछ देर आराम करके, स्कूल लौट जाता हूँ। इसी अन्तराल के दौरान, कल मैं हवेली के फाटक में घुसा ही था कि पीछे - पीछे वह घुस आयी। एक युवा औरत, लम्बी, सतर देह वाली। लम्बा चेहरा, ऊंची उठी गालों की हड्डियां, झुलस कर गोरी से तांबई हो आई रंगत। उस चेहरे पर दो बड़ी हरी - नीली आंखें यूं लग रही थीं, जैसे मीलों फैले रेगिस्तान में पास - पास सटे दो शीतल सरोवर हों। फटे हए जामुनी ओढ़ने से बिखरे हुए भूरे घुंघराले बाल बाहर झांक रहे थे। उसने कुर्ती और घेरदार काला लहंगा पहना था। गले में चिरमी के मनकों की मालाएं। कुल मिला कर गौर करने लायक वजूद।

मैं ने सोचा, होगी कोई...मकानमालकिन से मिलने आई होगी। मैं जल्दी से अंधेरी घुमावदार सीढ़ियां चढ़ने लगा, वह भी मेरे पीछे लपक कर चढ़ी। सीढ़ियों में दुबके दो चमगादड़ फड़फड़ाए, दालान पार करके, मैं अपने कमरे का ताला खोलने लगा। वह वहीं सीढ़ियों के बाहर चुप, गुमसुम खड़ी रही। चढ़ते हुए सूरज की धूप कमरे में एकान्त पाकर पसर गयी थी। मैं ने अन्दर आकर दरवाज़ा भिड़ा दिया।ढकी हुई थाली उठाई ही थी कि...दरवाज़े पर अनाड़ी - सी दस्तक हुई। मुझे उस अनजबी औरत की इस हरकत पर हैरत हुई। मैं खीज कर बोला, ``कौन है? क्या काम है?''
मिनमिनाते स्वर में उत्तर मिला - `` माट्साब मैं हूँ। कुछ बात करनी थी आपसे।''
मैं झटके से उठा और दरवाज़ा खोल कर, त्यौरियां चढ़ा कर बोला - ``क्या काम है?''
`` बस दो घड़ी... मेरी बात सुन लो मास्टर साब।मेरे बच्चे का दाखिला...''
`` स्कूल की बात स्कूल में आकर करना। अभी जाओ।'' मैं ने त्यौरियां ढीली नहीं कीं।
``सकूल... वहां तो आपका चपरासी कालू अन्दर आने नहीं देता है।''
`` ऐसा क्यों? तुम कौन हो? नाम क्या है?'' मैं ने आशंका में सवालों की झड़ी लगा दी।
``बस हूँ एक बदकिस्मत। नाम तो कुरजां है ...पर लोग तो...।''उसकी आवाज़ कांप रही थी।
``इसी गांव की हो? कहां रहती हो?''
`` हां,अब तो इसी गांव की हूँ। खारी बावड़ी के पीछे... मसानघाट से थोड़ा पहले रहती हूँ।''
``ठीक है... कालू को कह दूंगा...आने से मना न करे।कल स्कूल आ जाना, बच्चे को लेकर।'' उत्तर में उसने पलकें उठा कर देखा...नीले, ठहरे हुए सरोवर झिलमिलाए। रेगिस्तानी भटकावों और प्यास से त्रस्त मैं, मानो उन सरोवरों में कूद पड़ा।

उसके बाद, मुझे कुछ याद नहीं रहा कि मैं किन रास्तों पर आत्मविस्मृत होकर चलता चला गया और सूखी हुई खारी बावड़ी के किनारे असमंजस की स्थिति में खड़ा हुआ, कालू को मिला।
``वह अजीब से नाम की औरत... कुरला... अभी आगे - आगे ही तो चल रही थी... कहां गायब हो गई?'' मेरी ज़बान लड़खड़ा गई।
``कौन कुरजां?वो डाकण रांड! डाकण याने कि डायन है...वो।कुछ समझे माट्साब?'' उसने मेरे ठण्डे हाथ थपथपाए। मैं संभला।
`` मैं नहीं मानता यह बकवास...।''
`` सारा गांव जानता है उसे। आप नये हो...ना।''
`` पागल हुए हो क्या? वह डायन कैसे हो सकती है...एक जीती - जागती जवान औरत।''
वह सच में ही पागलों की तरह दांत निपोरने लगा, फिर जोर से एक तरफ थूक कर आस्तीन से उसने अपना मुंह पौंछा और बड़बड़ाने लगा।
`` हैडमाट्साब ... तो बताओ,सारा घर चौपट खुला छोड़ के, खाने की थाली में अधखाया कौर छोड़ के आप स्कूल की जगह इस सूखी बावड़ी की तरफ क्या लेने आये हो?''
`` हां, याद आया... वह बता रही थी कि उसके लड़के को स्कूल में दाखिल कराना है,पता नहीं किस बेख़याली में... बेखबरी में...मैं यहां... ''
`` बस साब जी, यही तो वसीकरण था...डाकण का।
`` चुप रहो। भूल से भी यह बात कहना मत किसी से। मैं अपनी मर्जी से ही चला आया था...।'' अपनी बेख़याली पर स्कूल में किस्सेबाजी हो, यह मैं नहीं चाहता था। मगर यूं याददाश्त अचानक क्षीण पड़ जाये, ऐसा तो कभी नहीं हुआ। तो क्या कुछ देर को मैं सम्मोहित गया था ? हंह... सुबह से खाली पेट रहने के कारण सर चकरा गया होगा या फिर... क्या यह मोमेन्टरी मैमोरी लॉस था? उफ! उसके बाद, कल पूरे दिन सिर दुखता ही रहा था।
लेकिन आज वह स्कूल क्यों नहीं आई? कालू को तो मैं ने आगाह कर ही दिया था। कभी मिली तो पूछूंगा ज़रूर। सारे फर्श और बिस्तर को किरकिरा करके आंधी थम चुकी थी। इसी किरकिराहट के साथ अब जीना सीखना था।

सन्निपात के रोगी के से दिन थे वो,जब मेरा इस गांव `जींवसर' में हैडमास्टरी के लिए चयन हुआ था। घटनाओं के विस्तार में गया तो अवसाद में डूब जाने की संभावना है, बड़ी मुश्किल से संभला हूँ। बस,ये जानिए कि लम्बी बेरोज़गारी के चलते प्रेमिका ने कहीं और शादी कर ली थी, उम्र थी कि बीतती चली जा रही थी। घर में उपस्थित मेरा चेहरा पिता को तनावग्रस्त करता था, मां को उदास। मैं अपनी परिस्थितियों से उकता कर सुन्न - सा कमरे में पड़ा रहता। उसी सुन्न मन:स्थिति में संक्षिप्त - सा सामान बांध, अपने शहर से तीन सौ चालीस किलोमीटर की बस यात्रा के बाद पन्द्रह किलोमीटर की जीप यात्रा करके इस सीमावर्ती रेगिस्तानी गांव में चला आया था। यह था, थार मरूस्थल का अन्दरूनी, पिछड़ा हुआ एक ऐसा इलाका जिसकी थाह पाना बहुत कठिन था। यूं भी पश्चिमी सीमावर्ती इलाकों में मुकम्मल तौर पर बसे गांव कहां होते हैं? यहां अपने ही सन्नाटों से सिहरतीं एकाकी हवेलियां होती हैं या फिर थोड़ी - थोड़ी दूर पर बसी ढाणियां होती हैं... और होता है दूर तक फैला रेतीला विस्तार। ऐसी जगहों पर ज़िन्दगी बहुत लम्बी महसूस होती है, उम्र बस रेंगा करती है।
शुस्र् में, मैं बहुत अकेला महसूस करता था।जो किताबें अपने साथ लाया था, सब की सब पढ़ डालीं थीं। मन घबराने लगा तो, मुझे लगा कि स्थानीय लोगों से मेल - जोल बढ़ाया जाए... पर जल्द ही मैं जान गया कि गांव के सम्पन्न लोग, बाहरी लोगों से मिलना जुलना पसंद नहीं करते थे। आम गरीब लोग तो डरे हुए, भीरू किस्म के लोग थे। बरसों पहले समाप्त हो चुकी जमींदार प्रथा के बावज़ूद यहां के रावले के प्रति आतंकजनित सम्मान आम आदमी की रगों में बस गया था। मुझे रावले के दबंग पुस्र्षों को देख कर हैरत होती थी कि वे गांव के आम आदमी से मिलने पर अब भी नज़राना स्वीकार करते थे। ``खम्मा घणी होकम।'' सरल ग्रामीण दुहरे हो जाते, मगर उनकी गर्दनें अभिमान से अकड़ी रहतीं।

इस गांव के और इसके आस - पास की ढाणियों के निवासी बहुत ही पिछड़े हुए थे। उनकी अलग ही दुनिया थी, ऐसा लगता था कि कुछ साधनों...जैसे जीपों, ट्रांजिस्टरों के अलावा बाकि की दुनिया से वे पूरी तरह नावाकिफ थे। ये अंधविश्वासी देहाती हर किसी के रौब में जल्दी ही आ जाते। बिना किसी प्रयत्न के कोई भी आदमी अपने आपको `सरकारी' बता कर उन पर अपना प्रभुत्व जमा सकता था। चपरासियों तक को वो खुदा समझते थे। पटवारी, तहसीलदार के तो पैर छूते थे। सीमा सुरक्षा बल के अफसरों - जवानों से वे दूर भागते थे। वे कुछ पूछताछ करते तो वे झुक - झुक कर उनके पैर छूने लगते मगर कुछ बताने के नाम पर खाली आंखों से ताकते। सीमा सुरक्षा बल के अफसरों को लगता था कि - इस कस्बे की कुछ मुसलमान जनजातियों के तार सीमापार से जुड़े हैं, जो कि बड़े घाघ हैं, जिनसे कुछ भी उगलवाना कठिन है। लेकिन मेरे ख्य़ाल से, नब्बे प्रतिशत लोग इस इलाके में ऐसे थे जो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी चलाने के कष्टों के मारे ही सर नहीं उठा पाते थे तो वे ऐसा कब सोचते या कर पाते जो स्मगलिंग या जासूसी से जुड़ा हो। अपनी निर्दोषिता के बावज़ूद सीमा सुरक्षा बल के जवानों का डर उन्हें काठ किए रहता था।सीमा सुरक्षा बल की अपनी कठिनाईयां और कर्तव्य थे... इस गांव और ढाणियों के कुछ लोगों के खेत ... भारतीय सीमा से बाहर भी पसरे थे... कुछ जनजातियां दोनों सीमाओं के बीचों - बीच, न घर की न घाट की स्थिति में बसी थीं।

इस गांव में गिनी - चुनी ही हवेलियां थीं, जो कि पुराने वणिक - व्यवसायियों की थीं। इन हवेलियों को घेर कर कच्चे - पक्के - मकानों वाले मुहल्ले खड़े थे। जिनमें अन्य जातियों के लोग रहते थे। गरीब किसान, चरवाहे तथा जनजातियों के लोग समूहों में कच्ची ढाणियों में रहा करते। तेज़ हवाएं इनके इन कच्चे झौंपड़ों के छप्पर मज़ाक - मज़ाक में उड़ा ले जाती थीं, मगर इनके रंगीले साफों की बंधान ढीला करने में ये हवाएं अक्षम रहतीं। मेहनती तो थे ये लोग, पर उनकी मेहनत रेत में से बस रेत ही उगलवा सकती थी। भेड़ों का दूध, ऊन, जीरा, ऊंट का चमड़ा, बाजरे के दो- चार बोरी दानों के बदले वे बाड़मेर जाकर ज़रूरत का अन्य सामान खरीद कर लाते। ये सीधे - सादे आचार विचार के लोग आपस में एक दूसरे के प्रति ईर्ष्यालू भी हो उठते। अनाज के दाने - दाने के लिए खून खराबा कर देते। पानी की बूंद के लिए औरतें बाल खींच - खींच कर झगड़तीं। प्राकृतिक विपदाआें से निरन्तर आक्रान्त उनकी संस्कृतियों में अंधविश्वासों ने गहरी जड़े जमा रखीं थी। अंधविश्वास उनके आदिम आवेगों को कभी नियंत्रित तो कभी अनियंत्रित करता था।

मैं ने फिर आज शाम कालू से उस `डाकण' के बारे में पूछा था मगर वह मुंह फुला कर बैठ गया।
`` उसे स्कूल में क्यों नहीं घुसने देते हो? सरकारी स्कूल सब के लिए होते हैं।''
`` डाकणों की औलादों को स्कूल में रखोगे तो बाकि के लोग बच्चे भेजना बन्द कर देंगे।'' वह चिढ़ कर बोला।
``कर दें मेरी बला से, कल से उसका बच्चा स्कूल आएगा। वैसे वो औरत है कौन? इसी गांव की है?''
``आप मानते नहीं हो न साब जी, तो बताने का क्या फायदा?''
मैं ने बहुत पूछा मगर वह चुप रहा। खाना बना कर उसने चुपचाप थाली मेरे सामने रख दी। मैं जब खाना खाने लगा तो अनायास ही उसने बोलना शुस्र् कर दिया।
`` आपने देखी थीं उसकी बिल्ली की नाईं हरी - नीली आंखें ?''
`` हूँ....।'' मैं खाना चबाता रहा।
यहां का खाना तीखा है और पानी खारा। छह महीनों में भी मैं इन दोनों की आदत नहीं डाल सका हूँ। ये कालू, मेरे स्कूल का चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, कहता है... `` साब जी, तीखा नहीं खाओगे तो इस भारी पानी को पचाना मुश्किल है। कबज हो जायेगी।''
तीखे खाने की वजह से मेरी नाक और आंखें बहने लगीं,उसने बिना ध्यान दिये बदस्तूर बोलना जारी रखा- ``बहुत पहले, जिस साल यहां छोटी माता फैली थी, उसी साल जाने कहां से चली आई थी साब ये कुरजां डाकण। जब आई थी तब सबसे यही कहती थी कि रावले में उसका धणी, ठाकुर साब के यहां दो साल का बंधक मजूर बनके आया था...दो साल बीत गए, लौट के घर नहीं पहुंचा है। रावले में किसी ने घुसने नहीं दिया, ठाकर सा ने कहलवा दिया के उनके तो...कोई बंधक मजूर नहीं है। कोई कहता जासूस था, कोई समगलर बताता...जिसे बी. एस. एफ. वालों ने मार गिराया। पहले गांव के मंगनियार लोगों की ढाणियों की तरफ अपने गोद के बच्चे के साथ रहने लगी। जड़ी - बूटियां देती औरतों को, इलाज करती। विस्बास जीत लिया लुगाइयों का। मनमाना पैसा और घर - घर जाकर अनाज मांगने लगी तो औरतों ने मना करना सुस्र् किया... फिर तो जो इसे मना करे उसके घर में बच्चे बीमार पड़ जाएं, मौत हो जाये। मेरी ही औरत के जब तीसरा बच्चा होने को था तो हम देवता के यहां से लड़का होने की भभूत लाए... ये रांड सामने पड़ गयी...कि तीसरी भी लड़की पैदा हो गयी। एक बार तो, यहां के रावले में ये डाकण जबरदस्ती पहुंच गयी। छोटे ठाकर सा के घर में पैली औलाद हुई थी, औरतें सूरज पूजने जा ही रही थीं... कि जो बालक ने रोना सुस्र् किया तो सांझ तक चुप ही नहीं हुआ, सरीर मरोड़ने लगा...आंखें फेर लीं। पैले तो ठाकुर ने इसे पैसे - वैसे देके बच्चे से टोटका हटाने को कहा, तो कहने लगी... मेरा टोटका नहीं है... इस रावले के ही बुरे करमों की छाया है... फिर तो ठाकरसा ने अपने आदमियों से इसके सिर पे जो सौ जूते लगवाए तो... ये डाकण मानी और बच्चे पर से टोटका हटाया...। बाद में खड़ी फसल का सारा जीरा काला पड़ने लग गया। जिसके खेत में देखो जीरा काला। फिर बड़ी ठकुराणीसा ने कहा इसे मारो मत, पता नहीं क्या सराप लगा दे ये करमफूटी औरत। बस गांव के बाहर काढ़ दो। तबसे इससे गांव वाले कोई नाता नहीं रखते। ये खारी बावड़ी के पीछे, मसान के रास्ते में झौंपड़ा डाल के रहने लगी है। सुना,अब तो धीरे - धीरे इसने एक कोठरी पक्की करा ली है। कोई - कोई इलाज, जादू, जंतर मंतर, कराने वाली नीच, रांड - लुगाइयां चुपके - छाने अब भी जाती हैं, उनसे ये मनमाना पैसा लूटती है। गांव के भले लोग कोई उधर नहीं जाते।आप भी दूर ही रहना।''
`` और इसका बेटा?''
`` है ना... आठेक साल का होगा। कभी - कभी दिखता है, बाजार में सौदा - सुलफ लेता हुआ। बड़ा तेज है। उलटे जवाब देता है। गालियां बकता है, इसकी मां को कुछ कह के तो देखो!''
मेरी उत्सुकता अपने चरम पर थी।

उस दिन स्कूल में चल रहे दाखिलों के चलते हालांकि खाना मैं शाम चार बजे खा पाया था, खाना खा कर लेटते ही उस आकर्षक चुड़ैल को लेकर मन में उत्सुकता कुलबुलाने लगी थी। मैं घूमता हुआ खारी बावड़ी की तरफ निकल पड़ा। मैं वहीं जाकर ठिठक गया, जहां उस दिन कालू ने मुझे आत्मविस्मिृति की अटपटी हालत में पकड़ा था। हैरानी भी हुई कि उस दिन मुझे यह, यहीं पैरों के नीचे पसरी पगडंडी क्यों नहीं दिखाई थी...जो आज दिखाई दे रही है? लम्बी घास के बगल से, चुपचाप सरक कर जाती हुई पगडण्डी...यहीं - कहीं तो आकर वह डायन ओझल हो गयी थी। निश्चय ही रात को आयी आंधी के कारण यह घास लेट गयी है और पगडंडी स्पष्ट दिख पा रही है। मैं उसी पर बढ़ गया।
अचानक बढ़ते - बढ़ते, पैरों के नीचे बिछी भुरभुरी रेत, सफेद और ठोस परत में तब्दील होने लगी। जैसे कभी यहां नमकीन पानी की झील रही हो। दरारें और लम्बा सफेद रहस्यमय विस्तार... यहां, कहां होगा उसका घर? इन हवाआें में या इस सफेद ज़मीन के नीचे? या ताड़ के पेड़ों पर अटके चीलों के घोसलों में? जब मैं घूमा तो पीछे की ओर रेतीले टीले पर एक कच्चा - पक्का सा घर दिखा। घर के दरवाजे अधखुले पड़े थे। मैं चलकर वहीं पहुंच गया। अन्दर कोठरी में उजाला बस नाम को था। उसकी आकृति खाट पर बैठी दिखाई दी।
``नमस्ते। मैं ...।''
`` कौन है?'' वह वहीं से गुर्राई।
``यहां क्या लेने आये हो?''
`` अन्दर आ सकता हूँ...''
उसने मेरा चेहरा देखा तो आश्वस्त होने की जगह असमंजस में पड़ गयी। फिर हल्की सी मुस्कान के साथ बोली- ``कहां बिठलाऊं माट्साब तुम्हें अब? चिमगादड़ के मेहमान बने हो तो उलटा ही लटकना होगा, है कि नहीं?'' मैं अचकचाया ... मैं ने ध्यान दिया कि वह स्थानीय भाषा नहीं बोलती थी। यह तो उर्दू मिश्रित कोई अलग ही बोली थी।
`` कहां है आपका बेटा? जिसका दाखिला कराना था।'' कह कर मैं अन्दर चला आया था।
``वह घर में कब टिकता है? अभी तक भेडें चरा कर नहीं लौटा।'' वह एक छोटी कमीज़ में सर झुकाए बटन लगाती रही, पांच मिनट तक कोठरी में सन्नाटा हिचकियां लेता रहा, मैं सोच ही रहा था कि यूं ही खड़ा रहूँ या चलने की इजाज़त मांग लूं। तभी उसने दांत से धागा तोड़ा और खाट से उठ खड़ी हुई,
`` बैठो माट्साब।'' मैं बैठ गया।

`` मां...'' कह कर एक दुबला सा गोरा बच्चा हाथ में बबूल की संटी और एक गुलाबी रंग में रंगा भेड़ का मेमना लिये कोठरी में दाखिल हुआ।
`` ये कौन ?'' वह सहम सा गया।
`` नहीं रे...डर मत ये हेडमास्टर साहब हैं स्कूल के।''
`` इन्हीं को ला रहीं थीं तुम ...कि ये गायब हो गये थे ...''
`` मैं गायब हो गया था? या ये ...।'' मैं अचकचा गया। वे दोनों हंसने लगे।
``चाय नहीं पिलाएगी अम्मां मेहमान को?''
`` भेड़ के दूध की चाय, ये पिएंगे?'' कह कर कुरजां कोठरी के शहतीर से टंगी एक टोकरी में से, कपड़े में बड़े संभाल कर रखी चाय की पत्ती निकालने लगी।
चाय इतनी भी बुरी नहीं थी। इलायची की सुगंध में भेड़ के दूध की गंध दब सी गयी थी। चाय पकड़ा कर कुरजां बाहर चली गयी। हम दोनों चुपचाप चाय पीने लगे।
मैं बच्चे से पूछने लगा, `` स्कूल में पढ़ोगे?''
`` हाँ।''
``नाम क्या है?''
`` जुगनू।''
`` कुछ पढ़ना आता है?''
`` हाँ! एक से सौ गिनती ... अपना नाम लिख लेता हूँ।''
वह बाहर से अन्दर आकर बोली, `` हां, मगर उर्दू में।... चाय पी ली हो माटसाब तो स्र्ख़सत हो लो... सांझ ढल गयी तो इस रेगिस्तान में रास्ता मिलना मुश्किल होगा। गोल - गोल भटकते यहीं दम तोड़ दोगे, इस खारी बावड़ी केे फैलाव में।''बाहर से वह लम्बी रस्सी में पिरोये हुए, सुखाने को रखे नीलगाय के नमकीन मांस के टुकड़े बटोर कर लाई थी।
`` नीलगाय का सूखा मांस खाते हो माटसाब? खाते हो तो ले जाओ।''
`` नहीं। मैं मांस नहीं खाता।''
`` जुगनू, तू भेड़ें संभाल। मैं छोड़के आऊं इन्हें, बाड़मेर की सड़क के इस पार तक।''
वह मुझसे पहले ही निकल कर पगडंडी पर चल पड़ी। मैं आगे बढ़ कर उसके साथ चलने लगा। कुछ दूर चल कर बेर की झाड़ियों से बनी मेड़ के सामने वह खड़ी हो गयी।
`` वो जो पगडन्डी देखते हो, वही जो थूर के पेड़ों के बीच से जा रही है?''
`` हाँ।''
`` बस उसी पर सीधे चले जाना। बीच में एक भैंरू जी का थान मिलेगा, वहां से उल्टे हाथ पे मुड़ लेना। फिर रेत के धौरे शुस्र् हो जायेंगे उन पर चलते चले जाना। आगे तुम्हें बाड़मेर रोड मिलेगी...।''
`` लेकिन आया तो मैं किसी छोटी पगडण्डी वाले रास्ते से था...!''
`` वहां लम्बी घास में सांप छिपे रहते हैं, अंधेरा भी घना रहता है... वहां भटक जाओगे, यह रास्ता इकहरा है, बस ज़रा लम्बा है।''
वह जब बायां हाथ उठा कर रास्ता दिखा रही थी तो मैं कनखियों से उस अनूठे चेहरे को देख रहा था। उसके चेहरे का कटाव स्थानीय ग्रामीणों से भिन्न था। वेशभूषा भी। वह हठात् पीछे मुड़ गई, मैं उसे जाते देखता रहा। उसकी चाल में से एक गर्व उत्सर्जित हो रहा था और एक शानदार फकीराना उदासीनता। मुझे लगा इस विलक्षण रूप के चलते ही वह दन्तकथाआें और अटकलों से घिर गयी होगी।

मैं भटकता हुआ कमरे पर लौट आया। मेरा कमरा हवेली की पहली मंज़िल पर था। जिसकी पीली दीवारों में छोटे - छोटे कई आले थे और छत पर सुन्दर चित्रकारी की हुई थी, दरवाज़ों के ऊपर बने रोशनदानों पर रंगीन शीशों की फुलवारी सी बनी थी, सुन्दर, बारीक काम। पहली मंजिल पर बने सारे कमरे ऐसे ही विशाल थे। मगर सब के सब खाली।
मैं ने देखा, मेरे साथ ही दो चमगादड़ें कमरे में घुस आयी थीं। लगातार हांफती हुई मेरे चौकोर कमरे के चक्कर लगाने लगी ... मैं दरवाजा खोल कर रजाई ओढ़ कर लेट गया मगर वो हांफते - हांफते कमरे से बाहर निकलने के जगह रजाई पर ही फद्द से गिर पड़ीं। उस दिन खाने की थाली यूं ही ढकी रह गयी। कमरा यूं ही खुला रहा। मैं चमगादड़ों के उड़ने के इंतज़ार में रजाई में मुंह किये ही सो गया। सुबह मेरे जागने से पहले ही कमरे में आकर कालू बड़बड़ाने लगा - ``मना करता हूं साब जी को उस डाकण से दूर रहो। माने नहीं गए उस तरफ... देखो, आज फिर दरवाजा खुला है और खुद बेहोस हैं।अरे बाप! कैसा ताप चढ़ा है।'' हल्की हरारत की वजह से उस दिन मैं स्कूल नहीं गया। कुरजां के बारे में सोचता रहा और अजीबोगरीब सपने देखता रहा।

जुगनू का दाखिला स्कूल में मैं ने कर लिया था। अध्यापकों के बीच सुगबुगाहट और विद्रोह को मैं ने महसूस किया लेकिन अपरोक्ष रूप से प्रार्थना के समय छात्रों को संबोधित करने के बहाने मैं ने अपना संदेश संप्रेषित कर दिया था कि इस विद्यालय में मैं किसी किस्म के जातिवाद, छुआछूत और अंधविश्वास को सहन नहीं करूंगा। जुगनू की कोई तरतीबवार पढ़ाई तो हुई ही नहीं थी सो आठ वर्ष का होने के बावज़ूद उसे दूसरी कक्षा में डाला गया... जिसका पाठ्यक्रम भी उसके बस के बाहर था। किसी अध्यापक से उसकी तरफ अतिरिक्त ध्यान देने को कहना व्यर्थ था, सो मैं ने उसे शाम के समय अपने कमरे पर आकर एक घण्टे पढ़ने के लिए कह दिया।

जुगनू का बातूनीपन अब उजागर होने लगा था। उसके पास स्थानीय रेगिस्तान को लेकर अद्भुत जानकारियां थीं। चाहे वो रेतीले सांपों के नाम हों... या रेगिस्तानी लोमड़ियों के व्यवहार की जानकारी हो। लेकिन उसे पढ़ाने में मुझे भी पसीने आ जाते। पढ़ते - पढ़ते वह न जाने कौन - कौन से कुतुहल उठा लेता... शहर कैसे होते हैं? वहां कितने लोग रहते हैं? कभी दुखी होकर वह अपनी मां की बात करता... कि गांव के लोग उसकी मां को डाकण, कुत्ती रांड और जाने कितनी गंदी गालियां बकते हैं। बारिश हो और स्र्के ना तो भी उसकी मां का टोटका कहते हैं, न हो तो ... फिर तो है ही उसका जादू टोना। कभी कहता, वह बड़ा होकर मां को शहर ले जाएगा। जहां उसकी मां को कोई नहीं जानेगा। न डाकण कहेगा।

कभी जुगनू के पढ़ने न आने पर, मुझे उसके झौंपड़े में जाने का बहाना मिल जाता। रेगिस्तान और बेरों की झाड़ियों से घिरा उसका ठिकाना और लोगों की उसके बारे में तरह - तरह की भ्रान्तियां... उसके ईद गिर्द एक रोमांचक प्रभामण्डल बुनती थीं। मैं जुगनू से मुखातिब होकर अप्रत्यक्षत: उससे बातें किया करता।
``इस उजड़े वीरान रेगिस्तान में अकेले रहते डर नहीं लगता?''
``डर क्यों माट्साब? यहां शेर चीते नहीं रहते...।'' जुगनू ने उदासीन भाव से कंधे उचका देता।
`` मेरा मतलब जानवरों से नहीं था... रेतीले तूफानों से था। निर्जन में अकेले रहना... मुसीबत पड़े तो कोई सहायता के लिए भी न आ सके।'' कहता मैं जुगनू से था पर देख मैं उसकी मां को रहा होता था।
`` हमारे लिए यही अच्छा है कि वे लोग मुझे और जुगनू को अकेले छोड़ दें... लेकिन...।'' कुरजां के होंठों के टांके टूटते।
``लेकिन...क्या?''
उस दिन वह चुपचाप सिर मोड़ कर खिड़की के बाहर देखने लगी थी। वह शांत रहने का भरसक उपक्रम कर रही थी। उसकी आंखें बाहर जमी हुई थीं और भृकुटियां क्रुद्ध मुद्रा में एक दूसरे के समीप सिमट आइंर्।
`` वही पुलिस का दरोगा और बी. एस. एफ. के भूखे भेड़िए।''
`` उनका तुमसे क्या लेना?''
`` अकेली औरत गोश्त की भुनी हुई नमकीन बोटी से ज़्यादा क्या होती है! मेरे घरवाले को तो जबरजस्ती ही समगलर - जासूस करार कर दिया... जबकि वह मरा तो यहीं रावले की बेगारी में है। दरोगा को रपट लिखने को कहा तो वह उल्टा मुझे ही तंग करने लगा।'' उसने फूत्कारते हुए समूची कटुता जवाब में उंडेल दी।
``......।''
``माट्साब हमारे पुरखे घुमंतु कबीले के थे,कभी इस पार तो कभी उस पार... न हिन्दु न मुसलमान...जान की सांसत लगी रहती थी...बोर्डर के आस - पास रहने में सो...एक जगह बसने के इरादे से `वो' रावले आया था। एक हजार का करार था दो साल की बंधक मजूरी का... वो लौटा ही नहीं न पैसा भेजा... उसका एक साथी भाग आया, उसीने खबर दी कि उसका कुछ सुराग नहीं है। मैं अपने पीहर में इस पार ही थी... कोसों पैदल चलके जींवसर आई... उसके इंतजार में तब से यहीं हूँ। अपना और बच्चे का पेट पालने को अपने कबीले का हुनर आजमाती रही। वही तो मेरे खून में था। सांप और हड़क्ये कुत्ते के काटे का जहर उतारना, जड़ी - बूटी करना, किस्मत बांचना, बुरे साए उतारना। हमारे कबीले की औरतें वैद - ओझों का हुनर जानती हैं। जींवसर के गंवारों ने रावले की शह में मुझे डाकण ही बना डाला।'' आंसू उसके आंखों में खून की तरह उतरे थे पर वह रोई नहीं। पी गई। उसकी यही बात मुझे विशेष रूप से प्रभावित करती थी... उसका अपने आप पर अटूट विश्वास।

मेरे इस तरह, उसके झौंपड़े में पहुंचने पर वह हमेशा शांत और सौम्य रहती... अपने कामों में मसरूफ। किन्तु न जाने, उसकी किन भंगिमाओं से मैं यह जान गया था कि उसे हल्की - सी खुशी होती है, मेरे आने की। कभी - कभी हमारे बीच अजीब से मूक क्षण आ जाते जब अनायास हमारी आंखें चार हो जातीं। ऐसे में उसकी नीली आंखों में हल्की नमी घिर आती और उसकी कनपटी के पास उभरी पतली नीली नस हल्के - हल्के सिहरने लगती। ऐसे ही पलों में,उसके प्रति मेरा कुतुहल अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाता।
`` कुरजां, यह नाम पहले कभी नहीं सुना...क्या मायने इसके?''
`` कुरजां एक पंछी होता है...मोर जैसा बड़ा। चमकने सुरमई पंख, काली कलंगी... आंख के पास सफेद घेरा आपने देखा नहीं? इसके गीत नहीं सुने? कहते हैं,जाड़े की चांदनी रातों मेंं ये पंछी जन्नत से उतर कर रेगिस्तानी झीलों के किनारे बड़ी तादाद में डेरा डालते हैं...जाड़े भर रह कर फागुन आने पर उड़ जाते हैं। मां कहती थी कि कुरजां एक ही बार जोड़ा बनाते हैं जिन्दगी में, वो जोड़ा टूटे तो अकेले, झुण्ड से अलग यहीं छूट जाते हैं, फिर जन्नत नहीं लौटते, धीरे - धीरे गरम रेत पर जान दे देते हैं।'' कहते हुए उसके चेहरे पर उदासी का सुरमई - रूपहला रंग उभरा तो आंखों के नीले सरोवरों पर धुंध छा गयी।
`` जड़ी बूटी के इलाज के अलावा तुम क्या करती हो?... जादू टोना, मेरा मतलब बुरी आत्माएं उतारना या अच्छी आत्माएं बुलाना?'' मेरे इस गुस्ताख सवाल पर वह हिचकी। उसने मेरी आंखों में ताक कर मेरा इरादा भांपना चाहा, जाने क्या भांपा कि आश्वस्त होकर बताने लगी।
``नहीं, मैं ने वह हुनर नहीं सीखा, बहुत पहले किसी के बहुत जिद करने पर मेरी मां बुलाया करती थी ...अपने जिस्म में किसी की रूह को ... और बहुत पैसे लेती थी... बल्कि सोना...अंगूठी या बाली... लेकिन उसके बाद महीनों उसका दम निकला रहता वह पस्त रहती... आवारा रूह उसके जिस्म में बेलौस भटक कर उसे बेदम कर जातीं थीं। मैं ने सीखना चाहा पर उसने मने कर दी...जवान, कुंवारी लड़कियों को यह सब नहीं सिखाया जाता था। हमारे कबीले की बूढ़ियां ही ये सब किया करतीं थीं।''
`` तुम बता रही थीं तुम भाग्य भी बांचती हो?''
`` अब यह सब कौन मानता है माट्साब।''
`` मेरा देख के बताओ न!''
`` क्या करेंगे जानकर? पता नहीं, मां के दिए वो ताश के पत्ते मैं ने कहां रख छोड़े हैं। याद नहीं।''
`` अम्मां मैं लाऊं? वो, वहां उस डब्बे में रखे हैं।'' पढ़ता हुआ जुगनू बीच में उचका और टांड पर रखे एक पुराने टिन के डब्बे में से मैले - कुचैले ताश ले आया...
`` देखो न अम्मां...'' जुगनू उत्साह में था।
उसने अनमने मन से कुछ बुदबुदा कर तीन ताश निकाले...
`` कुछ रखिए इस पर...सिक्का...''
मैं ने जेब से पचास का नोट निकाल कर उसकी हथेली पर रख दिया।
उसने आंखें मूंद लीं, फिर हथेली पलकों के पास ले जाकर पत्ते खोले... एक सम्मोहन में डूब कर, सपाट स्वर में बोलने लगी- ``तुम अच्छे हो मगर दिल के कमज़ोर। सोचते बहुत हो। ज़रा - ज़रा सी बात दिल से लगा बैठते हो। पैसा कमाओगे पर बचेगा नहीं। मां - बाप के प्यारे हो पर उनके गम के बाइस ही बनोगे। जल्दी ही जगह बदलोगे मतलब यहां से तबादला होने के आसार हैं। पैरों में फेरा है, घूमते रहोगे यहां से वहां। बहुत बूढ़े होकर नहीं मरोगे।''
`` कहो न, जल्दी ही मर जाओगे।''
`` नहीं, न जल्दी न देर में।''
`` ह्ह... ये तो आम बातें है जो कोई भी बता दे।'' मैं ने मज़ाक बनाया।
वह उदास हो गयी। फिर धीरे से बोली। ``एक खास़ बात भी है।''
``क्या? इश्क - मोहब्बत की?''
उसने इनकार में सिर हिलाया। पलकें उठा कर संजीदगी से बोली।
``तुम ताज़िन्दगी कुंआरे रहोगे।''
`` अच्छा!'' मैं हंसी उड़ाने के लहज़े से बोला।
`` मत मानो।''
`` अच्छा तुमने कभी अपना भविष्य नहीं देखा।''
`` हमसे तो भाग्य का देवता रूठा ही रहता है, दूसरों के भाग बांचने वाले उसे दूसरों की खातिर इतना नींद से जगाते हैं कि खुद किस्मत बांचने वाले सदा दुखी रहते हैं।''

कुछ दिनों बाद ही रेबारियों की बस्ती में आखातीज के मौके पर सामूहिक विवाह की रस्म का एक बड़ा आयोजन होना तय हुआ, ठाकुर साब और गांव के प्रतिष्ठित लोगों के साथ मेरे नाम का भी बुलावा आया था। मैं हवेली के चौकीदार को जगे रहने की हिदायत देकर रावले में चला आया। वहां से ठाकुर साहब और उनके लवाजमे के साथ मैं भी पहुंचा रेबारियों के मोहल्ले में। ठाकुर साहब का स्वागत रस्म के अनुकूल हुआ, वही, उनका खम्माघणी करके नज़राना पेश किया जाना... नज़राने में, चांदी के कुछ सिक्के। पैर छुए जाना - हाथ चूमा जाना। मुझे वितृष्णा हुई। इनके सामंतवादी मिजाज़ कब बदलेंगे आखिर?

तम्बू बंधा था और अंधियारे मुहल्ले में गैस के हण्डों की रोशनी की गयी थी।इन हण्डों के जगर - मगर प्रकाश में गरीब रेबारियों का अभाव और उस अभाव में बरसों से जी रहे लोगों के चेहरे पर स्थायी तौर पर रहने वाली बेचारगी उभर कर सामने आ रही था। मैं ने महसूस किया, उनके इन अभावों और बेचारगी के समक्ष, मेरे ईद - गिर्द बैठे तथाकथित प्रतिष्ठित चेहरे भौंडे और हास्यास्पद लग रहे थे। जल्दी ही पण्डाल नए कपड़ों में सज्जित छोटे - छोटे दूल्हों से भर गया। उनमें से कई अपने पिता के कन्धों पर ऊंघ रहे थे या फिर मां की गोद में बैठे अंगूठा चूस रहे थे। कुछ थोड़े बड़े थे सो अपनी छोटी तलवारों या कटारों से खेल रहे थे, खिलखिला रहे थे। मेरा मन कहीं आहत हुआ कि मैं एक सरकारी कर्मचारी होते हुए इस गैरकानूनी प्रथा में शरीक हुआ हूँ। ठाकुर साहब की बगल में बी. डी. ओ. और प्रधान बैठे विदेशी मदिरा का आनन्द उठा रहे थे। उधर दरोगा और पटवारी रेबारी औरतों पर अश्लील टिप्पणी करके हंस रहे थे। ऊब और उदासी की अपरिचित - सी अनुभूति मेरे मन पर घिर आई। नेपथ्य में कहीं बजने वाले ढोल की निरन्तर थाप मेरे दिमाग में पीड़ादायक रूप से प्रतिध्वनित हो रही थी। मैं ने स्वयं से पूछा - `` मैं यहां क्या कर रहा हूँ?''
मेरा मन कचोट उठा, तो मैं ने हठात् ठाकुर साहब से पूछ ही लिया, `` ये तो बाल - विवाह है, ठाकुर साहब।अब तो...''
``हेडमास्टर साहब, आप तो अपणा मुंह बंद करके इनकी मेहमाननवाज़ी का आनन्द लो। ये तो अपनी पुरानी परंपराएं हैं...इन्हें मिटाणा मुश्किल है। हमारी तो खुद की सादी थाली में बैठी दो साल की दुल्हन से हुई थी। अब हमारे बच्चे बाहर पढ़णे लगे हैं तो देर से ब्याव करते हैं...पढ़ी - लिखी बहुएं आ गयी हैं तो उन्होंने गांव आणा ही कम कर दिया है। रावळे - हवेलियां तो सूने पड़ गये है... ये परंपराएं अब गांव के इन मोहल्लों में ही बची रह गयी हैं। इन गरीबों के बहाने हमारी अपनी प्रथाएं और संस्कार बचे हुए हैं।''
मैं चुप रह गया। तभी शोर उठा और नन्हीं - नन्हीं दुल्हनें थालियों में बाहर लाई गयीं। चांदी के अनगढ़ जेवरों से लदीं, नये घाघरे - ओढ़नों में, बेहाल, रोती, ऊंघती। गैस के हण्डों की रोशनी में बहुत ही अनोखा दृश्य बन पड़ा था सामूहिक फेरों का। कहीं दूल्हों के पिता और कहीं दुल्हनों की मांएं उन्हें गोद में लेकर फेरे फिरा रहे थे। सजे - संवरे, गठरी बने मासूम बच्चे अपने भविष्यों और गृहस्थी समस्याओं से बेखबर नींद में डूबे या निंदासे,अधजगे फेरों के साथ घूम रहे थे।औरतें मंगलगीत गा रही थीं।

तभी भीड़ बना कर खड़े बच्चों के एक झुण्ड पर मेरी नज़र गयी जो शादी में आमंत्रित तो नहीं थे पर तमाशबीन बने खड़े थे। उनसे थोड़ी दूर पर पण्डाल के एक खम्भे से लगा... अकेला झांकता हुआ जुगनू भी खड़ा दिखा। हल्की - हल्की ठण्ड में भी केवल एक बनियान और पजामा पहने वह बाल विवाह का तमाशे को देख रहा था, उसकी मासूम आंखें चमक रही थी...उसके हमउम दूल्हों की नयी पोशाकें, तलवारें... थालियों में बैठी उनकी नन्हीं - मुन्नी दुल्हनें! मेरी नज़र विवाह के शोरगुल से हट कर अब जुगनू पर केन्द्रित थीं...क्या सोचता होगा यह बच्चा? स्कूल, मोहल्ले, गांव से निष्कासित, एकाकी...शापित बचपन। फिर मेरा ध्यान हट कर उसकी मां पर जा टिका। दो नीले सरोवरों का नखलिस्तान! मेरे मन में हूक - सी उठी। तभी महिलाओं की तरफ से एक शोर गूंजा, `` अरे या डाकण अठै... रांड मर अठा सूं... अठै कई कर री है थूं?'' एक बुढ़िया ने चीख कर, उस पर अपने हाथ का डण्डा फेंका।
`` काकी - सा बालक है, शादी की रौनकें देखी तो इधर भाग आया, इसी को लेने आयी थी।'' वह हड़बड़ा गई। कुछ ही पलों बाद मैं ने देखा... कुरजां जुगनू का हाथ खींचती हुई वहां से चली जा रही थी। अपमान के दंश से तिलमिला कर उसने ब्याह का तमाशा देखने की ज़िद करते नन्हें बच्चे के गाल पर दो तमाचे जड़ दिए थे।

ठाकुर साहब और उनके लवाजमे का खाना तो छुआछूत की वजह से, स्वयं ठाकुर साहब के घर से आए बामण ने बनाया था। बाकि लोगों का खाना पीछे कहीं बन रहा था। खाना खाकर मैं जल्दी ही लौट आया और देर रात तक बैठ कुछ ज़रूरी कागज़ात और फाइलें निपटा रहा था। तभी कालू भागता हुआ आया, `` साब जी जल्दी चलो, रेबारियों के ब्याव में डाकण के आने से खाना जहर हो गया। लोग उल्टी - दस्त कर रहे हैं। कितनेक तो बेहोस हैं। कुछ बच्चे तो लग रहा है के ...नहीं बचणे के साब जी।''
मैं भागता हुआ अस्पताल पहुंचा, जो कि लोगों से अंटा पड़ा था। डॉक्टर लम्बी छुट्टी पर था, ठाकुर साहब के होते हुए पास के कस्बे से दवाइयां और डॉक्टर को लाने का प्रबंध न हो सका। इतने हंगामे और खबर भेजे जाने के बावज़ूद वे गीदड़ की तरह चुपचाप रावले नामक अपनी नांद में दुबके रहे। कहलवा दिया कि जीप में पेट्रोल नहीं है और स्वयं ड्राइवर शादी का खाना खा कर बीमार हो गया है। कुछ दूसरे लोगों ने और मैं ने पैसे जमा करके जीप मंगवाई, जब तक पास के कस्बे से डॉक्टर आता, गांव के कंपाउण्डर ने कमान संभाल ली थी। मैं ने कालू को भेज कर प्राथमिक चिकित्सा जानने वाले स्काउट छात्रों को बुलवा लिया। स्वयं भागा स्कूल से फर्स्ट एड बॉक्स लाने, जिसे हाल ही में मैं ने ज़रूरी दवाओं और सामानों से भरवाया था। रात भर जाग कर भी दो नन्हे दूल्हों और चार साल की एक दुल्हन को और एक बुड्ढे को नहीं बचाया जा सका। लोग आहत थे, क्रुद्ध थे। गलती बासी मांस पकाने वालों की थी। निष्क्रियता और गैरज़िम्मेदारी दिखाई थी सरकारी तंत्र ने और रावले में रहने वाले गांव के तथाकथित मालिकों ने, जिनके सारा गांव पैर पूजता था... लेकिन गालियां मिलीं गांव से
निर्वासित डाकण और उसकी औलाद को। अगले दिन जब ठाकुर साब अपने लवाज़मे के साथ पधारे, मैं अस्पताल में नहीं था। कहते हैं, बात फिर उठी थी अपशकुन की और डाकण के गांव में देखे जाने की।गांव के जवान लड़के शायद ऐसे ही किसी मौके और दुष्प्रेरणा की तलाश में थे।

अगले दिन भी लोगों की हालत में सुधार की गति धीमी थी पर हालात काबू में थे। मैं रात ग्यारह बजे के करीब अस्पताल से लौट रहा था। कालू मेरे साथ था, टॉर्च पकड़े। घनी निस्तब्धता में मोर की आवाज़ ऐसी लग रही थी मानो वह कोई दुख भरा भेद छिपा रहा हो। शादी - ब्याह के घरों से उठी उन विकल पुकारों से पीछा छुड़ाना मुश्किल जान पड़ रहा था।
``देखा साब डाकण का काम... देखी थोड़े ही गयी उसे गांव की खुसी... कहती थी इसी गांव में गायब हुआ है उसका घरवाला...''
``चुप रहो।बासी मीट खाने की वजह से हुई मौतों का संबंध तुम किसी औरत के श्राप से कैसे जोड़ सकते हो? उसे नाराजगी है तो रावले से, आम गांव के लोगों से उसका क्या लेना? उसके डाकण होने की बात हो न हो इन ठाकुरों ने ही फैलायी है...क्योंकि उसका घरवाला रावले में बंधक मजूर था। वहीं से वह गुम हो गया। जाने जमीन खा गयी कि आसमान निगल गया या इन्हीं ठाकुरों ने... मियाद पूरी होने पे...''
``नइंर् साब...शुस्र् से मैं इसे जानता हूँ। जब ये औरत गांव में आई थी औरतें के दिमाग फिरने लगे थे, रांडे इसके पास बच्चा गिराने की दवा लेने जाने लगी थीं। एक दूसरे के बच्चों पर टोने - टोटके कराने लगी थीं। तास के पत्तों से भाग बांचणे के नाम पे ये ठगिनी उन्हें बहकाने लगी थी।''
``अरे! बंजारन औरत है, जड़ी - बूटी का काम जानती होगी...फिर खाने कमाने के लिए इसे कुछ तो करना ही था न!''
`` पता नहीं साहब...।''
``आज तो मौत को इतना पास से देख तो लिया तूने... जब मौत आती है तो यह शरीर ही एक- एक सांस के लिए लड़ता है। जब पेट में जहर होता है तब न भैरूं जी, न बाला जी काम आते... तब किन्हीं चुड़ैलों का जादू - टोना भी नहीं काम आता... काम आता है नमक का खारा पानी... और पेट की सफाई। इंजेक्शन और ग्लूकोज़।मांस के बासी होने की रिपोर्ट तो आज डाक्टर ने खाना जांचते ही दे दी थी। सुबह से भैंरूजी के थान पे कटा भैंसा परातों में खुला पड़ा रहा... शाम को पकाया गया तो जहर तो फैलेगा ही ना।''
`` सर्दियों में तो ...।''
`` कालू जी... मांस कटते ही धीरे - धीरे सड़ना शुस्र् हो जाता है। चाहे सर्दी हो के बरसात...।''
पता नहीं कालू के दिमाग में मेरी बातें घुसी कि नहीं पर उसने आगे बहस करना बन्द कर दिया था। टॉर्च लेकर वह आगे - आगे चलता रहा।अचानक बोला, ``ठाकर साब ने हरी झण्डी दे दी थी, गांव के छोरों को...डाकण को निकाल बाहर करने की।''
``क्या? किसे?'' वह चौंका।
`` वो कुरजां डाकण को।''
`` फिर से कहो?'' मैं ने उसे कन्धों से पकड़ कर झकझोर दिया। वह सकपका गया।
`` चलो मेरे साथ।'' हम दोनों लगभग दौड़ते हुए कुरजां के ठिकाने पर पहुंचे।

चांदनी का फीका आलोक झौंपड़ी की टूटे केवलू की छत में से रिसता हुआ, चमकीली कटी चिप्पियों की शक्ल में कुरजां के आधे उघड़े भूरे घायल शरीर पर छिटका हुआ था। ऐसा लग रहा था, वह किसी मंच पर पड़ी है ...अंतिम दृश्य में ...और उसे घेर कर प्रकाश डाला गया है ... उसके पीछे केवल अंधकार था।हमारी आहटों से सहम कर उसने अपना बांया हाथ आंखों पर रख लिया। अपने फटे कपड़ों को ढकने लगी। उसके गालों और गले के पास खरोंचों के गहरे निशान थे... दायीं भौंह के पास से कट गया था जहां खून जम कर काला पड़ गया था। तभी मेरे पैरों से कुछ टकराया।
``अरे! ये जुगनू को क्या हुआ?'' कुरजां के पैरों के पास जुगनू अचेत पड़ा था, उसकी कनपटी के पास से लहू बह बह रहा था।
कालू यह दृश्य देखकर अवाक् था। रोशनी के अनजाने वृत्त में पड़ी कुरजां का राख पुता चेहरा, ठहरी हुई नीली पुतलियां...फटा ओढ़ना...चिथड़ा घाघरा... लगभग फाड़ कर फेंक दी गई कुर्ती के अवशेष... बांइंर् भौंह के पास बहता हुआ खून।
वह उठ बैठी। हमारे सवालों का कोई उत्तर नहीं था वहां... वह खामोश थी... कुरजां की खामोशी और तटस्थता कालू को सिहरा रही थी। शायद अब उसे समझ आ रही थी एक नीरीह चुड़ैल की विवशता।
`` कालू, उठा इस बच्चे को, अस्पताल चलें...।''
``नहीं। अस्पताल नहीं।'' कुरजां ने मेरा हाथ थाम लिया।
`` बच्चा मर जायेगा।'' मैं फुसफुसाया और वह मेरा हाथ थामे सिसकने लगी।
``ये ठीक ही कहती है, अस्पताल जाना ठीक नहीं है माट्साब। वहां लोग इसे देख कर और पागल हो जाएंगे।''
कालू ने बच्चे के घाव साफ करके, फर्स्टएड बॉक्स में से पट्टी निकाल कर बांधी और हवेली जाकर मेरी अलमारी में रखी ब्राण्डी ले आया और उसकी छाती की मालिश करने लगा। कुरजां को मैं ने अपना दुशाला दे दिया था। वह फिर से वहीं फर्श पर ढह गयी। जुगनू अचेतावस्था में कराहता रहा। कालू को मैं ने वहीं स्र्ककर बाहर पहरा देने को कह दिया था सुबह होने तक। मेरा वहां स्र्कना ठीक न होता।

मैं हवेली में पड़ा रात भर जागता रहा, कुछ समझ नहीं आ रहा था, अनेक संकल्पों और विकल्पों की शरण में जाकर भी मन कोई हल नहीं ढूंढ पा रहा था। पौ फटते ही मैं वहां जा पहुंचा। कालू बाहर ही बैठा मिला। मैं अन्दर गया, जुगनू को होश आ गया था। कुरजां ने गठरी सभांल रखी थी और दुशाला कस के देह पर लपेट लिया था।
``कहां जाने की तैयारी है?'' मैं ने पूछा।
`` कालू भाई जी से कहें... हमें पाणेरी के बसटैण्ड तक छोड़ के आएं।''
`` कहां जाओगी बहन?'' कालू अन्दर आ गया।
`` पता नहीं... ... अब इस गांव में रहना नहीं हो सकेगा।''
`` क्यों? कल रात जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ है,उसकी शिकायत नहीं करेंगे हम सदर थाने जाकर?'' मैं आवेश में आ गया।
`` कौनसी पुलिस...कौनसा थाना माट्साब, सब तो रावले का हुकम बजाते हैं?''
``...।''
`` कल रात मेरे साथ जो हुआ, उसकी परवाह नहीं... पहले भी रात को दरवाजा खटकाते थे, रावले के हाकम, बी. एस. एफ. के जवान...खुद पुलिस के दरोगा... बत्तीस दांतों के बीच जबान की तरह कैसे बची, मैं ही जानती हूँ। पर गांव के छोरों ने पहली बार हिम्मत की... भेड़े भगा दीं। मुर्गियां के टपरे में आग लगा दी। मेरे कपड़े फाड़े... बदसलूकी की...मेरी छोड़ो, जुगनू के साथ जो हुआ उसने मेरी हिम्मत तोड़ दी है माट्साब। कितना मारा उसे, टांगों से उठा कर गोल घुमा के जमीन पे छोड़ दिया।'' कह कर वह पीड़ा से सिसक उठी। एक खामोशी में उसकी हल्की सिसकियां गूंजती रहीं। उधर जुगनू की भी कराहटें बढ़ती जा रही थीं।
अंतत: कालू ही समस्या का हल लेकर हमारे सामने खड़ा था।
``मेरी समझ से तो...आज दिन - दिन किसी तरह ये यहीं काटे, रात होते ही मैं और आप चलकर इनको मेरे गांव के खेत पर बने कच्चे घर में छोड़ आएं। मेरा गांव, यहां से बस पन्द्रह कोस पर है। मामला निपटने तक ये वहीं रहें। फिर आप जानें या ये जानें...बस पुलिस के झंझट से मुझे दूर रखना साब जी।''
बहुत राहत तो मिली थी मुझे, कालू की इस व्यवस्था से पर मैं जानता था, यह स्थायी व्यवस्था नहीं थी। मैं ने कुरजां को लेकर उस रात गंभीरता से सोचा ... उसके स्थायित्व को लेकर, जुगनू को गोद लेने की औपचारिकताओं पर। अब वक्त नहीं लगा मुझे निर्णय लेने में, सुबह स्कूल पहुंचते ही मैं ने जींवसर से तबादले और लम्बी छुट्टी पर जाने की अर्जी डाल दी थी। इसी शाम को ही मैं कुरजां को अपना निर्णय बता कर, उसकी `भविष्यवाणी' को गलत साबित करने की चुनौती देकर उसे चौंकाने वाला था।

`` चले गये वो दोनों...।'' शाम पांच बजे मैं स्कूल से निकलने की तैयारी में ही था। तभी कालू अपना क्लान्त चेहरा लिए आ खड़ा हुआ।
`` कहां?''
`` पता नहीं?''
`` झौंपड़ी खाली मिली। पाणेरी के बसटैण्ड भी गया मगर वहां नहीं थे। एक जान - पैचाण वाला मिला, वो बता रहा था के उसने दोफैर में `डाकण' को जाते देखा था, छोरे के साथ बस में। बाड़मेर की तरफ।...... ये तास के पत्ते वहां बिखरे पड़े थे।''
मैं ने वो ताश के पत्ते उससे छीन लिए, बेहद पुराने, साधारण ताश के पत्ते। मैं उन्हे बेचैनी से पलटने लगा।
``डायन कहीं की,अपना कहा सच करके चले गई।'' हताशा और गुस्से में मैं चीख पड़ा, कालू आश्चर्य से मुंह खोले मेरे चेहरे को ताकता रह गया।

उसके बाद मैं वहां छ: महीने और रहा। जैसा कि मैं ने पहले ज़िक्र किया था, समय वहां बहुत लम्बा होता है।... वहां कोई घन्टे नहीं गिनता, न वर्ष। वहां मौसम ही नहीं आते... न बसन्त... न बहार। मैं जब तक वहां रहा, एक अनंतता में जीने का पुरज़ोर यकीन बना रहा। लौटा तो लगा, मैं अपना एक जीवन वहां छोड़ आया था। .........

कहानी तो यहीं खत्म हो गयी थी। उसकी इस कहानी की फाइल के पीछे, मुझे एक छोटा नोट मिला - ``स्मृति द्वारा वापस लाकर अतीत की चीज़ों को मोटे तौर पर देखना और बात करना तो आसान है, डॉक्टर... पर बारीक कहानी बुनना, अतीत की आवारा रूह को अपनी देह पर बुलाने जैसा होता है। मैं बहुत पस्त मगर मुक्त महसूस कर रहा हूँ। अब सोऊंगा।''

नींद में ही चला गया था वह दुनिया से। बहुत दिनों तक उसकी अनुपस्थिति मेरे मन में एक उलझी कहानी - सी अटकी रही।


मनीषा कुलश्रेष्ठ
अक्टूबर 15, 2006