Monday, November 30, 2009

अधूरी तस्वीरें

अधूरी तस्वीरें

'' अविनाश पहुँचते ही फोन कर देना वरना तुम्हारी माँ को चिन्ता हो जाएगी।''
'' जी मामा जी।'' और बस चल पडी थी।
बस मामा जी और माँ की ही जिद है, उसका तो बिलकुल मन नहीं था माऊन्टआबू जाने का। उसकी एक शादी से माँ का जी नहीं भरा जो इस दूसरी शादी के लिये माँ ने मामा से कह - कहलवा कर विवश कर दिया है। माना मामा अन्त तक कहते रहे हैं कि -
''अविनाश तू यह मत समझ कि तुझे शादी के लिये भेजा जा रहा है। वहाँ मेरे दोस्त ब्रिगेडियर सिन्हा का घर और बाग हैं, वहाँ तू बस उनके परिवार के साथ छुट्टियाँ बिताने जा रहा है। उन्होंने तुझे बचपन में देखा था। बडा बुला रहे थे। मैं अगले सप्ताह पहुँच जाऊंगा।''
पर वह जानता है यह जाल शादी के लिये ही बिछाया जा रहा है।
बस चलते ही, अच्छा मौसम होने के बावजूद , यह बात सोच अविनाश का मन कडवी स्मृतियों से भर गया, आँखे जलने लगीं और उस अपमान को याद कर पूरा ही वजूद तिलमिला गया। नहीं करनी अब उसे दूसरी शादी।
हालांकि पहली ही शादी शादी न थी, कोर्ट में शून्य साबित कर दी गई थी। पर उसका मन ही मर गया था। उसके बाद, हर स्त्री एक छलावा लगती थी। नौ साल हो गये उस बात को। पर मन के छाले हैं कि सूखते नहीं बल्कि बार बार फूट कर उसे आहत करते हैं। उसका क्या गुनाह था?
कितने अरमानों के साथ उसकी विधवा माँ ने स्कूल में टीचिंग कर उसे अच्छे आदर्शों के साथ पाला,और फलस्वरूप उसका एन डी ए में सलेक्शन हुआ। जब वह आर्मी ऑफिसर बन कर माँ के सामने आया तो माँ कितनी गर्वित थी। उसने बडे चाव से ढेरों रिश्तों में से एक बेहतरीन रिश्ता चुना था उसके लिये, एक बहुत बडे आई ए एस अधिकारी की बेटी अल्पना। माँ तो बस घर बार और लडक़ी की सुन्दरता पर और उनकी शानदार मेहमाननवाजी पर रीझ गईं। देखने दिखाने की रस्म के बाद सबके कहने पर एकांत में उसने एक संक्षिप्त बात की और वह अचानक उठ कर चली गई , तब उसे लगा था कि शर्मा रही होगी।
उन लोगों और माँ की जल्दी की वजह से उसे शादी के लिये छुट्टी लेनी पडी। तब भी एक दो बार उसने फोन पर बात करना चाहा पर किसी न किसी वजह से बात न हो सकी। उसने सोचा लिया था कि अब तो शादी हो ही रही है। शादी के ताम झाम के बाद जब अपनी जीवन संगिनी से मिलने की वो इत्मीनान की, एक दूसरे को जानने की रात आई तो शादी के शानदार पलंग पर फूलों की सजावट के बीच उसे लाल जोडे में अपनी दुल्हन नहीं मिली। काली नाईटी में अल्पना पैर सिकोडे सोई थी। जगाने पर बहुत ठण्डी आवाज में उसने कहा था,
'' मुझे छूना मत। यह शादी नहीं है, अविनाश, समझौता है।''
'' किस तरह का समझौता?''
'' मैं बात नहीं करना चाहती इस वक्त।''
'' अरे, तभी मना कर देना था तुम्हें।''
'' किया था बहुत, कोई माना नहीं।''
'' ...अब?''
'' अब क्या! कुछ भी नहीं। मैं नहीं रहूंगी यहाँ।''
वह सुन्दर चेहरा वितृष्णा से भर गया था।
उसके बाद जब वह अगले दिन मायके गई तो उसकी जगह लौट कर विवाह को शून्य साबित करने के लिये उसके वकील का नोटिस आया, जिसमें आरोप था कि वह नपुंसक है और विवाह के योग्य नहीं। वह जड होकर रह गया। माँ और मामाजी ने उसके घरवालों से कहासुनी की, कोर्ट का फैसला होने तक अपमान उसे जलाता रहा। हालांकि वह आरोप साबित न हो सका, पर अब उसका ही मन न था कि यह सम्बंध बना रहे। उसने तलाक मंजूर कर लिया।
उसके बाद उसने अपनी पोस्टिंग लेह करवा ली थी वहाँ से भी लगातार फील्ड पोस्टिंग्स लेता रहा जानबूझ कर और मां की दूसरे विवाह की जिद को टाल गया था। पर अब माँ की अस्वस्थता की वजह से उसे जोधपुर पोस्टिंग करवानी पडी। और माँ के साथ रह कर उनकी जिद न टाल सका। बार बार शादी की उम्र निकल जाने की बात कह कर भी माँ को जीवन भर अविवाहित रहने की बात के लिये मना न सका। हर बार वही बहस
'' माँ इस अगस्त में 35 का हो जाऊंगा। अब कोई उमर है शादी की।''
'' चुप कर! 35 की कोई उमर होती है आजकल।''
पिछले कई दिनों से यह माऊंट आबू प्रकरण माँ और मामा चलाए जा रहे थे। माँ के इमोशनल ब्लैकमेल और पिता जैसे मामा के समझाने पर वह टाल न सका। इस बार मामा छाछ भी फूंक फूंक कर पीना चाहते थे सो वह उसे लडक़ी और उस के परिवार के साथ पूरे पन्द्रह बीस दिन छोडना चाह रहे थे। ब्रिगेडियर सिन्हा मामा के कलीग रह चुके हैं, उनकी एक बहन है अविवाहित, उसने भी किन्हीं कारणों से शादी नहीं की।
उसके मन में किसी बात को लेकर कोई उत्साह नहीं है। उसे मलाल हो रहा है, उसने सोचा था कि इस बार एनुअल लीव लेकर माँ के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएगा और माँ के साथ लम्बी यात्राओं पर जाएगा पूरा भारत घूमेगा। पर माँ ने ही कह दिया कि-
'' औ मेरे श्रवणकुमार, मैं तो तीर्थ कर ही लूंगी, पहले तेरी शादी करके गंगा नहा लूं।''
बहुत सारे ख्यालों से उसका मन भारी हो चला है, वह सर झटक कर बस के बाहर झांकता है, शाम का झुटपुटा रास्तों और पहाडियों पर उतर आया है, झुण्ड का झुण्ड तोते शोर मचाते हुए लौट रहे हैं,हवा में सर्दी के आगमन की खुनकी महसूस होने लगी है, वह पूरी खुली खिडक़ी जरा सी सरका देता है, बस के अन्दर नजर डालता है। सामने वाली सीट पर एक विदेशी युवति बैठी है, उसे देख मुस्कुरा देती है। वह उस बेबाक निश्छल मुस्कान पर जवाब में मुस्कुराए बिना नहीं रह पाता। अचानक न जाने किस गुमान में उसके हाथ बाल संवारने लगते हैं। अपनी इस कॉलेज के लडक़ों जैसी हरकत पर उसे स्वयं हंसी आ जाती है और उसे दबाने के लिये खिडक़ी के बाहर देखने लगता है। मन हल्का हो गया है। वैसे आजादी में कितना सुकून है। अब उम्र के पैंतीस साल मुक्त रह कर विवाह के पक्ष में वह जरा भी नहीं पर यहाँ भारत में जिस तरह बडी उमर की लडक़ियों का कुंवारा रहना संदिग्ध होता है वहीं बडी उम्र के कुवांरे भी संदेहों से अछूते नहीं रह पाते। समाज का इतना दबाव होता है कि आप को कोई चैन से नहीं बैठने दे सकता। वह बस अपनी नौकरी के बीस साल पूरे करते ही,एब्रोड चला जाएगा। नहीं करनी शादी-वादी। बेकार का बवाल! उसकी नजर फिर उधर चली गई, वह भी इधर ही देख रही थी। दोनों ने फिर मुस्कान बांटी।
लडक़ी आकर्षक है।
शाम ढलने लगी थी। लगता है आबू रोड से उपर माऊंट आबू पहुंचते पहुंचते दो घंटे और लग जाएंगे और रात आठ बजे से पहले नहीं पहूँचेगा वह। फिर वह रात किसी होटल में ठहर कर सुबह ही ब्रिगेडियर सिन्हा के घर जाएगा। ठण्ड गहराने लगी थी, उसने मां की जबरदस्ती रखी हुई जैकेट निकाल कर पहन ली। उस लडक़ी ने फिर उसे देखा इस बार उसकी आँखों में आकर्षण था उसके प्रतिवह मुस्कुराया नहीं इस बारएक गहरी नजर डाल, खिडक़ी के बाहर फैलते अंधेरे में दृष्टि डालने लगा। पहाडों - पेडों की सब्ज आकृतियां धीरे धीरे स्याही में बदल रही थीं, उसके मन पर अन्यमनस्कता के साये फिर घिर आए। कहाँ जा रहा है वह और क्यों बेवजह? क्या समझौते की तरह दो लोगों के बंधने से जरूरी काम कुछ और नहीं? बेकार है यह विवाह नामक संस्था। मामा क्यों कहते हैं कि शारीरिक जरूरतें तो हैं ही, एक साथी के लिये मानसिक जरूरत भी होती है।शारीरिक जरूरतों का क्या है, उस जैसे आकर्षक पुरुष के लिये लडक़ियों की कमी है क्या?
जैसे जैसे अंधेरा गहरा रहा है, वह उस विदेशी युवति की नजरों को अपने चेहरे पर महसूस कर रहा है। उसने चेहरा घुमा लिया है खिडक़ी की तरफ फिर से हालांकि इस एक पोस्चर में उसकी गर्दन दुखने लगी है। पर वह किसी किस्म की गलतफहमी उसे नहीं पालने देना चाहता।
बस ने आठ की जगह साढे आठ बजा लिये हैं। बसस्टॉप पर उतर कर वह अपना सामान डिक्की से निकलवा रहा है। तभी उसके कन्धे पर उसे हाथ महसूस हुआ,
'' हलो, जेन्टलमेन, आय एम ब्रिगेडियर सिन्हा।''
'' गुडईवनिंग सर।''
'' वेलकम डियर।''
'' आपने क्यों तकलीफ की सर मैं पहुंच जाता ।''
'' तुम हमारे मेहमान हो आखिर। रामसिंग सामान गाडी में रखो।''
'' सर।''
'' अविनाश तुम हमारे साथ ठहरोगे।''
'' लेकिन।''
'' लेकिन क्या भाई? ''
'' आपने मुझे पहचाना कैसे? ''
'' ओह, हा हा हा। यार इतने सारे यात्रियों में एक फौजी अफसर को पहचानना क्या मुश्किल है?''
अंधेरे में पहाडी रास्तों से होकर ब्रिगेडियर सिन्हा के बंगले पर पहुंचते पहुंचते पन्द्रह मिनट लग गये।सारे रास्ते वे बोलते रहे वह सुनता रहा, कि कैसे फौज छोड क़र वे यहा सैटल हुए, यहाँ उनका फार्म हाउस भी है। फार्मिंग में उनकी शुरू से रुचि रही है। वे उसमें स्ट्राबैरीज उगाना चाह रहे हैं इस बार।माऊंट आबू का मौसम कैसा है? यहाँ वे बहुत लोकप्रिय हैं आदि आदि। उनके बंगले के गेट से पोर्च तक एक मिनट की ड्राईव से लग रहा था कि खूब बडी ज़गह लेकर घर बनाया गया है। अन्दर पहुंच कर, रामसिंग को उनका सामान गेस्टरूम में रखने का आदेश देकर, उसे हालनुमा ड्राईंगरूम में बिठा कर वे अन्दर कहीं गायब हो गये। हॉल की सज्जा कलात्मक थी। किसी के हाथ से बनी सुन्दर पेन्टिंग्स, जिनमें ज्यादातर राजस्थानी स्त्रियों के चेहरे थे, सांवला रंग लम्बोतरे चेहरे, खिंची हुई काजल भरी आंखें और तीखी नाक वाले। पूरे हॉल पर नजर घूमती हुई एक जगह आ टिकी, दरवाजें में हल्के नीले परदों पर बने आर्किड्स के जामुनी फूलों के बीच एक पेन्टिंग का सा ही चेहरा चस्पां था, वह चकराया, उसके गौर से देखने पर उस चेहरे ने पलकें झपकाईं और चेहरा हंस पडादूधिया हंसी।
'' ऐ नॉटी गर्ल।'' ब्रिगेडियर साहब आते आते उस जीती जागती पेन्टिंग को साथ लेकर परदे में से बाहर आए।
'' अविनाश ये मेरी बेटी है नीलांजना। बी एस सी सैकण्ड ईयर में पढती है।''
'' हलो ।''
'' हलो।''
'' बेटा जाओ मम्मी को भेजो और किचन में चाय और स्नैक्स के लिये कहना।''
'' अविनाश ड्रिन्क्स? ''
'' सर आज नहीं! टयूजड़ेज मैं नहीं पीता।''
'' ओह नाईस! ''
श्रीमति सिन्हा के साथ साथ अरदली चाय का टीमटाम लेकर आ गया। श्रीमति सिन्हा एक सुन्दर व सभ्रान्त महिला लगीं। चाय की औपचारिकता के बाद वह र्फस्ट फ्लोर पर बने गेस्टरूम में आ गया।रूम क्या था एक छोटा मोटा सा समस्त सुविधाओं से युक्त फ्लैट ही था। पूरा घूमघाम कर देख कर उसे याद आया दस बजे डिनर के लिये नीचे उतरना है।

''अविनाश अंजना मेरी वाईफ से तुम मिल चुके हो। नीला से भी, ये सुधा है मेरी बहन, जे जे आर्टस में फाईन आर्टस की लैक्चरर है, वैसे बॉम्बे रहती है,पर अभी मेरे साथ वेकेशन्स बिताने आई है। मयंक मेरा बेटा, आई आई टी बॉम्बे से इलेक्ट्रानिक्स में इंजीनियरिंग कर रहा है। ये मयंक का दोस्त केतन है। ये सभी लस्ट वीक से यहीं थे कल जा रहे हैं।और ये हैं मेजर अविनाश मेरे कलीग और दोस्त लेफ्टीनेंट कर्नल चौहान के भतीजे। ये भी हमारे साथ छुट्टियां बिताएंगे।''
औपचारिक अभिवादन के बाद हल्के फुल्के ड्रिन्क्स, सूप के साथ औपचारिक बात चीत होने लगी।
'' सुधा तुम तो रुकोगी ना! ''
'' जी दादा, परवोएक एक्जीबीशन थी मेरे स्टूडेन्ट्स की''
'' बुआ! रूक जाओ नाभाई को जाने दो कल, आप अभी तो आई थीं।''
'' ठीक है।''
उसने पहली बार सुधा को गौर से देखा। ताम्बई रंग, स्निग्ध त्वचा, बडी बडी क़ाजल से लदी आँखे,भरे होंठ और थोडी चौडी नाक चेहरे पर बहुत परिपक्व सधा हुआ भाव। भरे सानुपातिक जिस्म पर बातिक प्रिन्ट का भूरा कुर्ता और जीन्स, घने काले लम्बे बालों को आकर्षक मगर बेतरतीब जूडे में लपेटा हुआ। एकाएक आप पर छा जाने वाला प्रभावशाली दृढ व्यक्तित्व। बात करने के ढंग और शब्दों के चयन से लगता है कि बुध्दिजीवी और कलाकार बात कर रहा है। फिर नजर घूमी तो नीला पर जा टिकी चम्पई रंग, बुआ की सी ही बडी-बडी लम्बी आँखे पर नाक और होंठ मां जैसे सुघढ। पतली दुबली सी लम्बी काया।
'' क्या देख रहे हैं आप, पापा देखो ना आपके मेहमान खाना तो खा ही नहीं रहे।''
'' ओह हाँ अविनाश लो न ।''
सुबह वह देर से उठ सका। उठते ही खिडक़ी में आया तो देखा नीचे मयंक और उसका दोस्त जिप्सी में सामान रख रहे थे।
मयंक ने वहीं से चिल्ला कर अलविदा ली और ब्रिगेडियर सिन्हा उन्हें छोडने चले गये। वह नहा धोकर नीचे उतर आया। नीलांजना जल्दी जल्दी ब्रेकफास्ट कर कॉलेज जाने की तैयारी में थी। उसके लिये भी वहीं चाय आ गई।
'' मेरा मन नहीं कर रहा कॉलेज जाने का पर आज मेरा प्रेक्टिकल पीरीयड है, बाहर बुआ एक पेन्टिंग बना रही है, देखते रहियेगा बोर नहीं होंगे। शाम को मैं आऊंगी तब घूमने चलेंगे।''
वह हंस पडा। चाय पीकर वह बाहर आ गया। सुधा सचमुच एक पेन्टिंग में व्यस्त थी। वह पीछे जाकर खडा हो गया।
'' ओहआप।''
'' जी।''
'' आप ने छोड क्यों दिया इसे पूरा करिये ना।''
'' कोई बात नहीं। वैसे भी यह पिछले साल से चल रही है पूरी हो ही नहीं पाती। इसके बीच न जाने कितनी पेन्टिंग्स बना डालीं। यह अटकी हुई है। दरअसल बॉम्बे होती तो पूरी हो जाती, इसे नीला ले नहीं जाने देती है। ''
'' फिर तो यह जरूर आपक मास्टर पीस होने वाली है।''
दोनों हंस दिये। हंसती हुई सुधा अच्छी लगती है। हंसी के चेहरे पर से गंभीरता के मुखौटे को खिसका जाती है। उसने पेन्टिंग को ध्यान से देखा, उसे वह नीला की पोर्ट्रेट लगी। चेहरा अभी अधूरा था, बडीआँखें, चेहरे पर बिखरे सुनहरे बालों का गुच्छा, लैस वाला गुलाबी टॉपबाकि पीछे बैकग्राउण्ड अधूरा थातस्वीर अधूरी होने की वजह से उदास सी लग रही थी। सुधा ने बालों से लकडी क़ा मछली के सिर वाला कांटा निकाला, जो कि उसकी रुचि के अनुसार कलात्मक था और बाल कमर तक फैल गये और पहाडी बयार में उडने लगे। वह गौर से देखे बिना न रह सका सुधा ने उसकी नजर को उपेक्षित कर दिया और ब्रेकफास्ट यहीं लाने के लिये कह कर चली गई। ब्रेकफास्ट बाहर लॉन में लग गया और परिवार के बचे हुए सदस्य वहीं आ गये। ब्रिगेडियर सिन्हा ने कश्मीर मसले पर बात छेड दी तो वह चर्चा देर तक चलती रही। सुधा ज्यादा रुचि नहीं ले रही थी। वह उठ कर लाईब्रेरी में चली गई तो ब्रिगेडियर साहब मुद्दे पर आ गये।
'' तो अविनाश तुम्हारा सुधा को लेकर क्या ख्याल है?
वह अचकचा गया। क्या कहे?
'' देखो बेटा, मुझे तुम्हारा अतीत मालूम है, सुधा को भी मैं ने बताया है। अब तुम दोनों को ही विवाह को लेकर निर्णय ले लेना चाहिये। यह समझ लो यह आखिरी गाडी हैउसके बाद या तो सफर टाल दो,या इसी में चढ ज़ाओ।''
'' जी।''
'' मैं चाहता हूँ तुम दोनों अधिक से अधिक समय साथ बिता कर अपना अपना निर्णय बता दो।''
लंच के बाद वह अपने कमरे में आने के बाद देर तक इस विषय पर सोच सोच कर उलझता रहा।सुधा आर्मी के माहौल में रही है, अच्छी लडक़ी है। क्या हाँ कह दे?
'' हाय! क्या सोच रहे थे? बुआ के बारे में?''
'' नीला तुम कब आई? ''
'' अरे कब से आकर खडी हूँ, कॉफी लेकर । आप हैं कि गहरी सोच में गुम हैं।''
'' कॉलेज कैसा रहा?''
'' एज यूजवल।''
शलवार कुर्ते में नीला बडी बडी लगी। दोनों ने कॉफी पी ली तो नीला ने उसे खींच कर उठा दिया-
'' जाईये जल्दी चैन्ज करिये ना। हम घूमने चलेंगे।''
'' हम कौन कौन।''
'' जाना तो मुझे भी है पर मम्मी कहती है आप और बुआ ही जाएंगे। प्लीज अविनाश अंकल आप कहिये ना मम्मी को कि मैं भी चलूंगी।''
'' अंकल? क्या मैं इतना बडा लगता हूँ।''
'' लगते तो नहीं परतो क्या कहूँ फिलहाल अविनाश जी चलेगा!
'' हाँ।''
उसने नीला को साथ ले ही लिया। सुधा ने भी पैरवी की क्योंकि दोनों ही टाल रहे थे एकान्त का साथ। एक उमर के बाद कितना मुश्किल हो जाता है किसी को अपनाना, प्रेम करना और जिन्दगी भर निभाने का प्रण लेना, महज कुछ शारीरिक जरूरतों और सहारे के लिये। वह भी शायद यही सोच रही होगीअपनी अपनी आजादियों की लत लग गई है हमें। और उम्र में तो वह मुझसे भी दो साल बडी ही है। उम्र कोई मायने नहीं रखती, क्या उसके कई अच्छे दोस्त उससे बडे नही? पर फिर भीनहीं कर सकेगा अभी वह हाँ।
'' हाय अविनाश जी, चलें!'' नीला ने आकर हाथ पकड लिया, एक उष्ण और उत्साह से भरा स्पर्श।
'' आपकी बुआ जी कहाँ हैं? ''
'' उन्हें तैयार होने में बहुत वक्त लगता है।''
सुधा आ गई। साडी में भी वही कलात्मक स्पर्श।
''कौन ड्राईव करेगा?''
'' ऑफ कोर्स मैं नीलू, अविनाश जी को कहाँ इन पहाडी रास्तों का अन्दाजा होगा! और तुम्हें दादा ने मना किया था न।''
नीला ही बोलती रही सारे रास्ते दोनों खामोश थे अपने अपने दायरों मे। एक मंदिर की सीढियों के पास जाकर सुधा ने गाडी रोक दी। उपर चढते हुए उसने कहा मैं अभी आई।
'' क्या तुम्हारी बुआ जी बडी धार्मिक हैं? ''
'' ऑ.. ज्यादा तो नहीं अभी तो वह इस पुराने मंदिर में अपने एक स्कैच के लिये फोटो लेने गई हैं। आपने क्या सोचा कि वे मन्नत मांगने गईं हैं कि है भगवान इस हैण्डसम फौजी से अब मेरी मंगनी हो ही जाए। गलत फहमी में मत रहियेगा। मेरी बुआ ही सबको रिजेक्ट करती हैवरना कब से शादी हो जाती। वो तो मिस बॉम्बे भी रह चुकी है अपने जमाने में।''
'' ''
''बुरा तो नहीं माना न।''
'' नहीं नीला, बच्चों की बात का बुरा मानते हैं क्या?''
'' बाय द वे अविनाश जी मैं बच्ची नहीं हूँ, एक बार अंकल क्या कह दिया आपने बच्चों में शुमार कर लिया।''
'' अच्छा मिस नीलांजनातो आप क्या कह रही थीं।''
'' श्श्बुआ आ गई।'' कह कर उसने मेरा हाथ दबा दिया।
वह अब नीला के बारे में सोच रहा था, कितनी जीवन्त है यह लडक़ी। कितनी निश्छल।
नक्की लेक पर पहुंचते पहुंचते शाम हो गई थी। सुधा को बोटिंग में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी, सो वह शॉल लेकर किनारे रखी एक बैन्च पर बैठ गई, मैं न चाह कर भी नीला के साथ बोटिंग पर चला गया।
'' अविनाश जी, सन सेट के वक्त सबकी आँखों का रंग बदल जाता है,
देखोआपकी और मेरी। ''
नीलांजना की आँखों में समुद्र उफान पर था। उसके खुले सीधे सीधे भूरे बाल सोने के तार लग रहे थे। हवा में उडता उसका लैस वाला कॉलर।
'' अविनाशजी!''
'' क्या देख रहे थे? ''
'' यही कि तुम बहुत सुन्दर हो।''
'' हाँ हूँ तो। पर उससे क्या फर्क पडता है। प्रकृति में हर चीज सुन्दर है। मुझे तो हर चीज सुन्दर लगती है।''
'' हाँ तुम्हारी उम्र में मुझे भी सब कुछ सुन्दर लगता था।''
'' अब।''
'' अब! अब नजरिया बदल गया है। रियेलिटीज अलग होती हैं।''
'' सबका सोचने का ढंग है अपना अपना! क्या ये झील रियल नहीं? वो जलपांखियों का झुण्ड रियल नहीं?''
'' है नीला।''
'' अविनाश जी, पापा से सुना था आप कविताएं लिखते थेफिर छोड क्यों दीं? ''
'' तुम्हें रुचि है? ''
'' हाँ। बहुत। पर आपने क्यों छोडा''
'' वही।''
'' रियेलिटीज।'' नीला ने दोहराया और दोनों हँस पडे।
नीला तुम जैसी वास्तविक प्रेरणा होती तो, शायद लिखता रहता। तुम्हें क्या मालूम जिन्दगी कितनी बडी ग़ि्रम रियेलिटी है, जिसे तुम्हें बता कर डराना नहीं चाहता। ईश्वर करे तुम्हें जिन्दगी उन्हीं सुन्दर सत्यों के रूप में मिले। डरावने मुखौटे पहन कर नहीं।
'' अविनाश जी, चलिये किनारा आ गया। आप क्या सोचते रहते हैं? ''
'' कैसी रही बोटिंग, अविनाश जी।'' सुधा चलकर पास आ गई थी।
'' इंटेरैस्टिंग।''
थोडी चढाई चढ क़र हम सेमीप्रेशयस स्टोन और चांदी की ज्यूलरी की दुकान पर आ गई।
'' नमस्ते सुधा जी। ब्रिगेडियर साहब कैसे हैं? ''
'' अच्छे हैं गुप्ता जी। आप बताईये इस बार मेरे लिये क्या है?''
'' आप बहुत दिनों बाद आई हैं। पता है आपने जो फिरोजा का पेन्डेन्ट डिजायन कर के बनवाया था,वो फॉरेनर्स में बहुत पॉपुलर हुआ।''
'' आपने मेरी डिजायन कॉमन कर दी गुप्ता जी।''
मैं और नीला बाहर की ओर बैठ गये।
'' तुम्हें ज्यूलरी में इन्टरैस्ट नहीं।''
'' बुआ जैसी ज्यूलरी में नहीं। कहाँ कहाँ से आदिवासियों के डिजायन कॉपी करवा के, सिल्वर का ऑक्सीडाईज्ड़ करवा कर पहनती है। मेरा बस चले तो कानों में बबूल के गोल फूल पहनूं, बालों में रंगबिरंगे पंख लगा लूं।''
'' वनकन्या की तरह( दोनों हंस दिये )वैसे नीला सुन्दर स्त्रियों को जेवर की जरूरत ही कहाँ होती है?''
'' हां। जैसे मुझे! ( फिर एक साझी हंसी खिली) जब से आप आए हैं हम कितना ह/से हैं ना। हमारे घर में किसी को हंसने का शौक ही नहीं है।''
'' नीलू।''
'' जी बुआ।''
'' देख ये एमेथिस्ट जडा कडा पसन्द है तुझे? तेरे परपल सूट के साथ मैच करेगा।''
'' अच्छा है बुआ।''
'' अविनाश जी यह आपके लिये।''
'' मेरे लियेक्या।''
'' देख लीजिये।''
एक्वामेराईन स्टोन के बहुत सुन्दर कफलिंक्स थे।
'' थैंक्स।''
पहली बार सुधा ने अपनी आँखों में आत्मीयता भर मुस्कुरा कर उसे देखा था। यानि? फिर भी अभी भी वह वक्त लेगा। हाँ करने से पहले। ऐसे ही न जाने तीन दिन कब बीत गये। वो और नीला बहुत आत्मीय हो गये थे दो दोस्तों की तरह।
'' मैं बुआ की जगह होती तो बहुत पहले आपसे शादी के लिये हाँ कह देती।''
'' मैं किस की जगह होता फिर।''
फिर एक हँसी।
'' आपके बारे में कुछ सुना था।''
'' सच ही सुना होगा।''
'' कैसी होगी वह लडक़ी, जिसने आपको बिना जाने ।''
'' छोडो न नीला, शायद उसकी ही कोई विवशता हो।''
'' क्या वह किसी और से प्यार करती थी?''
'' शायद।''
'' ऐसा क्यों होता है अविनाश जी? शादी जबरदस्ती का सौदा नहीं होनी चाहिये ना! ऐसे तो अधूरे रिश्तों की कतार लग जाएगी। आप से वह प्यार नहीं करती थी और शादी हुई, आप किसी को प्यार करें और शादी किसी से हो जाए, फिर उसकी जिससे शादी होवह । ऐसे जाने कितनी प्यार की अधूरी तस्वीरें ही रह जाती होंगी हमारे समाज में और फिर शादी एक औपचारिकता बन कर रह जाती है।''
'' तुम अभी छोटी हो नीला, जिन्दगी के सच समझने के लिये। प्यार से परे दुनिया और समाज बहुत बडा होता है जिसके कर्तव्य भावनाओं पर आधारित नहीं होते।''
'' यही तोअच्छा आप बुआ से शादी करेंगे? ''
'' पता नहीं नीला। दरअसल मैं यह सब सोच कर ही नहीं आया हूँ। बस मामा की बात रखने के लिये चला आया।''
'' आप बहुत भावुक हैं और बुआ बहुत प्रैक्टीकल।''
'' मैं भावुक हूँ कैसे जाना? ''
'' जिन्हें आप एडमायर करते हैं उन्हें आप जान भी लेते हो।''
''।''
'' आप बहुत अच्छे हैं।'' नीला की आंखें तप रही थीं। होंठ अधखुलेनाईट सूट के ढीले कुर्ते में धडक़ते सुकुमार नन्हें वक्षों की धडक़न खामोशी में मुखर हो गई थी।
''।''
''नीला! रात हो गई अब जाओ।''
'' कॉफी! ''
'' नहीं।''
'' गुडनाईट।''
मेरा मन अजानी आशंका और एक अजाने भाव से थरथरा रहा था। ठण्डी रात में भी वह पसीने में डूब गया। सुबह देर से उठा, बाथरूम से मुंह हाथ धोकर निकला तो सामने सुधा चाय और ब्रेकफास्ट दोनों लेकर खडी थी।
'' देर तक सोये आज आप। लगता है यह नॉवेल पढते रहे देर रात तक।'' सुधा ने नॉवेल उठा कर देखा फिर रख दिया। मैं हतप्रभ था, नॉवेल?
''आज आपके मामा जी का फोन आया था, रात को पहुंच रहे हैं।''
'' ओह हाँ।''
चुपचाप चाय पी गई। ब्रेकफास्ट भी हुआ। अचानक सुधा ने पूछा।
''आज हम दोनों को कनफ्रन्ट किया जाएगा। आपने क्या सोचा है?''
'' मैं ने तो कुछ सोचा ही नहीं।''
'' तो सोच लीजिये, जवाब तो देना ही है।यही प्रयोजन है कि आप यहाँ आए और मैं ने अपनी छुट्टियाँ बढवा लीं।''
'' सुधा... हम जानते ही क्या हैं अभी एक दूसरे के बारे में?''
'' जानने की मुहलत बस इतनी ही थी अविनाश जी, फिर जिन्दगी भर साथ रह कर भी लोग क्या जान लेते हैं।''
'' मेरे बारे में सुना होगा।''
'' हाँ, वह अतीत था अविनाश आपका, सबका कुछ न कुछ होता है। उसे छोडिये।''
'' क्या तुम्हें पसन्द आएगा इतने दिनों की आजाद जिन्दगी के बाद बंधना? ''
'' उम्मीद है आप ऐसा नहीं करेंगे। मैं भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में विश्वास करती हूँ !''
'' तुम्हारी जॉब? ''
'' जॉब तो मैं नहीं छोड सकती अविनाश। लम्बी छुट्टियाँ मीन्स विदाउट पे लीव्ज अफोर्ड कर सकती हूँ। फिर देखते हैं।''
'' तो...सुधा तुमने फैसला ले लिया है? ''
'' हाँ अविनाश थक गई हूँ, लोगों की सहानुभूति और सवालों से।''
'' थक तो मैं भी गया था सुधा, पर क्या यह समझौता नही? ''
'' शायद अविनाश हम एक दूसरे को पसन्द करने लगें।'' मुस्कुरा कर सुधा प्लेट्स उठाने लगी।
'' तो शाम को डिनर टेबल पर आने तक अपना फैसला कर लेना। मुझे नैगेटिव हो या पॉजिटिव कोई प्रॉब्लम नहीं है।''
सुधा के जाते ही उसने नावेल उठाया, सेवेन्थ हेवेन एक रोमेन्टिक नॉवेल था, उसके अन्दर एक पन्ना
मुझे नहीं पता मैं कहाँ बह रही हूँ। लेकिन जब से आप आए हैं मुझे अपना होना अच्छा लगने लगा है। आप बहुत बडे हैं, यह खत पढ क़र जाने क्या प्रतिक्रिया करें। पर अगर मैं ने न लिखा तो मैं घुटन से मर जाऊंगी। आप पहले पुरुष हैंऔर मैं खुद हैरान हूँ कि क्यों खिंची जा रही हूँ मैं आपकी ओरकल रात न जाने क्यों लगा कि सौंप दूं अपने हाथों की नमी और धडक़नों के स्पन्दन आपको।लेकिन
नीला! ओह! उसे लगा कि वह चक्रवात में घिर गया है। उफ यह पेपर सुधा के हाथ लग जाता तो?वह क्या सोचती? वह घबरा कर तैयार होकर बाहर निकल आया। रामसिंग ने पूछा भी गाडी के लिये पर मैं मना करके पैदल तीन चार किलोमीटर चला आया वह। पहाडी ढ़लवां रास्ते और पहाडी वनस्पति, बडे पेड और उन पर उछल कूद मचाते बन्दर। वह एक चट्टान पर सुस्ताने लगा और आंखें मूंदते ही नीला का चेहरा सामने आ गया। मासूम आंखें, सीधे रेशमी बालों में खुल खुल जाती लाल साटिन के रिबन की गिरह, तिर्यक मुस्कान।
'नीला तुम मुझे प्रिय हो, तुम्हारी निश्छलता मुझे पसन्द हैतुम वह अनगढ क़ोमल स्फटिक शिला हो जिसे मैं मनचाहा गढ सकता हूँ। तुम्हारा समर्पण बहुत कीमती और नाज़ुक है, और नियति बहुत क्रूर है नीला। जिस संभावना को हम सोचते डरते हैंवह संभव तो हो ही नहीं सकती ना। मैं कल ही यहाँ से चला जाऊंगा। आज रात डिनर पर मामा जी से क्या कहूंगा। मना कर दूंगा।'
जब बहुत देर भटक लिया तो लौटने लगा। वह ब्रिगेडियर सिन्हा के घर के जरा नीचे वाले मोड पर मुडा ही था कि नीला सायकल पर उतरती दिखाई दी। पास आई तो परेशान लगी।
'' क्या हो गया आपको। पता है पापा और बुआ परेशान थे। ''
''।''
'' मेरा इन्टेशन वह नहीं था, अविनाश जी बस, कनफेस किये बिना न रह सकी।''
'' और मैं किससे कनफेस करुं ? ''
'' आप....ओह अभी यहां से चलिये....घर नहीं मुझे आपसे बात करनी है।''
हम एक घने पेडों से भरे एकान्त में उतर आए। उसने एक जगह रोक कर उसका हाथ पकड नीची पलकों में एक आंसू छिपा कर कहा-
'' अविनाश जी, जो कुछ मैं ने लिखा वह सच था, मेरे लिये आप र्फस्ट क्रश हैं। आपको देख कर मुझे पहली बार अपोजिट सैक्स वाला आकर्षण हुआ था। मैं कभी आपको नहीं बताती, पर कल रात आपको एक दम करीब बैठा पाकर। अविनाश आय एम पजेज्ड़ बाय यू, मुझ पर छाया पड ग़ई है आपकी ।
'' नीला मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा मैं उलझ रहा हूँ।''
'' अविनाश जी, क्या करती मैं भी! ''
'' कुछ नहीं नीलामैं जा रहा हूँ, यहां से यही उचित होगा, तुम्हारे, मेरे लिये। मुझमें साहस नहीं है,एक साथ बहुत लोगों का विश्वास तोडने का! ''
'' और बुआ।''
'' क्या बुआ, बेवकूफ लडक़ी वो खत जो छोड आई थीं उसके हाथ पड ज़ाता तो? मुझे नहीं करनी शादी वादी। कहाँ फंस गया मैं।''
बुरी तरह झल्ला गया अविनाश और सर पकड क़र पुलिया पर बैठ गया। नीला सुबकने लगी। वह उसके पास उठ आया, उसके मुंह पर ढके हाथ हटा कर बोला,
'' क्या करुं मैं नीला? तुम्हारे मासूम से प्यार ने भी मेरे मन में जगह बना ली है। और मुझे अच्छी तरह पता है कि यह हम दोनों के लिये ही घातक है। मुझे जाना ही होगा।''
नीला उसकी बांह पर टिक गई और रोते हुए बस इतना कह सकी,
'' आप बुआ से शादी कर लो अविनाश जी। आज आपके यूं चले आने पर मैं ने उसे पहली बार टूट कर बिखरते हुए देखा है। वो पापा से कह रही थीं कि, दादा, अविनाश को देख कर पहली बार लगा कि शादी कर लेनी चाहिये, और देखिये ना मेरी किस्मतउसे मैं पसन्द ही नहीं। वह चुपचाप निकल गया।
''और तुम....''
'' मैं मेरा क्या अविनाश जी।''
ओह ओह ये स्त्रियां! अजूबा हैं। नहीं समझ पाता मैं इन्हें। नीला को वक्ष से लगा लिया उसने। नीला की पतली बांहों ने उसे कस लिया। कुछ देर बाद अविनाश ने नीला को अलग किया-
'' चलो नीला। मुझे खुद नहीं पता शाम को क्या होना है। पर तुम अब कोई बेवकूफी नहीं करोगी।''
वह लगभग उसकी बांह पकड क़र खींचता हुआ उसे ले आया। दोनों जब घर पहुंचे तो सब नीला की लाल आंखें और तनावग्रस्त अविनाश को देख कर खामोश हो गये। क्या सोचा सबने पता नहीं। किसी ने कुछ पूछा नहीं यही राहत थी। लंच के लिये अविनाश ने मना कर दिया। शाम को जब मामा जी आए सब सामान्य दिखने के प्रयास में थे। डिनर के समय सुधा और नीला दोनों नदारद थीं। मामा जी और ब्रिगेडियर साहब के घेरे में अविनाश ना नहीं कह सका। उसके हाँ में सर हिला देने के बाद का समय अविनाश के लिये यूँ बीता कि जैसे वह दर्शक हो सारी प्रक्रिया का और अविनाश का किरदार निभाता कोई और है। सगाई, शादीउसे बस याद है शादी की रस्मों के बीच नीला की हंसी और कहकहों के बीच हिचकी सा बिखर जाता दर्द। घर का वही हिस्सा जो गेस्टहाउस था, शादी के बाद अविनाश और सुधा का हो गया। तीन दिन के बाद दोनों को अलग अलग दिशाओं में जाना है।उसकी बांहों में अलसाती सुधा उसका हाथ खींच अपने वक्ष पर रख लेती है। दो बजे हैं और वह उठ कर सिगरेट जलाता है, खिडक़ी में उठ कर आता है तो पाता है नीला के कमरे की लाईट जली है।कुछ टूटता है मन के भीतर। उसे नीला के शब्द याद आते हैं।
'' मन का क्या है अविनाश वह तो टूट कर फिर जुड ज़ाता है।''
कहते वक्त वह अपनी अधूरी तस्वीर सी ही लग रही थी वह।
- मनीषा कुलश्रेष्ठ

Thursday, November 26, 2009

समुद्र - एक प्रेमकथा

समुद्र - एक प्रेमकथा
उसने जीवन में कभी समुद्र नहीं देखा था।और देखा तो देखती ही चली गई।अपनी छोटी छोटी लहरों से हाथ हिला हिलाकर पास बुलाता समुद्र, किनारों से टकराता , सिर धुनता , अपनी बेबसी पर मानों पछाड ख़ाता समुद्र और अन्त में सबकुछ लील जाने को आतुर , पागल समुद्र!
उसे लगा, समुद्र तो उसकी सत्ता ही समाप्त कर देगा। वह घबरा कर पीछे हट गई।
लेकिन तब भी समुद्र के अपने आसपास ही कहीं होने का अहसास उसके मन में बना रहा बरसों । उसे लगता अब समुद्र कहीं बाहर न होकर उसके अन्दर समा गया है और वह एक भंवर में चक्कर काट रही है लगातार विवृत्ति उसकी नियति नहीं है।
वह रह रहकर चौंकती। समुद्र उसके आस पास ही है कहीं। वह लौट नहीं आई है और न समुद्र उससे दूर है।
फिर उसने पहचाना , समुद्र भयानक था लेकिन उसका उद्दाम आकर्षण अब भी उसे खींचता है। वह लौटने को बेचैन हो उठी।
उसने खुद को अर्घ्य सासमर्पित करना चाहा।
लेकिन, ज्वार थम गया था। लौटती लहरें उसे भिगोकर किनारे पर ही छोड ग़ईं।उसके पैर कीचड और बालू में सन गए।
समुद्र ने उसे कहीं नहीं पहुंचाया था। बस मुक्त कर दिया था और वह उसके लिए तैयार नहीं थी। मुक्ति का बोध उसे था लेकिन, उसने स्वीकारना नहीं चाहा।अब सचमुच समुद्र उसके अन्दर भर गया था। वह चुपचाप , अकेले में लौटने को बेचैन , रोती बिसूरती, अपने ही अन्दर डूबती उतराती , अपनी विवशता पर पछाड ख़ाती , किनारों से टकरा टकराकर टूटती रही।
फिर एक दिन उसने सुना । समुद्र में फिर तूफान आया थाऔर किसी ने लहरों पर चढक़र उसे भेंट लिया।खुद को समर्पित कर अपनी नियति पा ली।
उसने महसूसा, उसके अन्दर कुछ मर गया।
वह जानती थी, समुद्र में अब कभी तूफान नहीं आयेगा।
इला प्रसाद
अगस्त 1,2005

सयानी बुआ जहानी मन्नू भंडारी

सयानी बुआ जहानी मन्नू भंडारी
सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो कायदे में बंँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता।उसके बाद अन्नू को पढने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अखबार और ऑफिस की फाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपडे बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर कायदे से आकर मेज पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ।
सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।
बचपन में ही वे समय की जितनी पाबंद थीं, अपना सामान संभालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितना कायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पडता था। कहते हैं, जो पेंसिल वे एक बार खरीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नाेंक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में खरीदी थी, उसे नौवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।
उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। उनकी एक-एक बात पिताजी हम लोगों के सामने उदाहरण के रूप में रखते थे जिसे सुनकर हम सभी खैर मनाया करते थे कि भगवान करे, वे ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।
ऐसी ही सयानी बुआ के पास जाकर पढने का प्रस्ताव जब मेरे सामने रखा गया तो कल्पना कीजिए, मुझ पर क्या बीती होगी? मैंने साफ इंकार कर दिया कि मुझे आगे पढना ही नहीं। पर पिताजी मेरी पढाई के विषय में इतने सतर्क थे कि उन्होंने समझाकर, डाँटकर और प्यार-दुलार से मुझे राजी कर लिया। सच में, राजी तो क्या कर लिया, समझिए अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बाध्य कर दिया। और भगवान का नाम गुहारते-गुहारते मैंने घर से विदा ली और उनके यहाँ पहुँची।
इसमें संदेह नहीं कि बुआजी ने बडा स्वागत किया। पर बचपन से उनकी ख्याति सुनते-सुनते उनका जो रौद्र रूप मन पर छाया हुआ था, उसमें उनका वह प्यार कहाँ तिरोहित हो गया, मैं जान ही न पाई। हाँ, बुआजी के पति, जिन्हें हम भाई साहब कहते थे, बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। और सबसे अच्छा कोई घर में लगा तो उनकी पाँच वर्ष की पुत्री अन्नू।
घर के इस नीरस और यंत्रचालित कार्यक्रम में अपने को फिट करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पडा और कितना अपने को काटना-छाँटना पडा, यह मेरा अंतर्यामी ही जानता है। सबसे अधिक तरस आता था अन्नू पर। वह इस नन्ही-सी उमर में ही प्रौढ हो गई थी। न बच्चों का-सा उल्लास, न कोई चहचहाहट। एक अज्ञात भय से वह घिरी रहती थी। घर के उस वातावरण में कुछ ही दिनों में मेरी भी सारी हँसी-खुशी मारी गई।
यों बुआजी की गृहस्थी जमे पंद्रह वर्ष बीच चुके थे, पर उनके घर का सारा सामान देखकर लगता था, मानाें सब कुछ अभी कल ही खरीदा हो। गृहस्थी जमाते समय जो काँच और चीनी के बर्तन उन्होंने खरीदे थे, आज भी ज्यों-के-त्यों थे, जबकि रोज उनका उपयोग होता था। वेसारे बर्तन स्वयं खडी होकर साफ करवाती थीं। क्या मजाल, कोई एक चीज भी तोड दे। एक बार नौकर ने सुराही तोड दी थी। उस छोटे-से छोकरे को उन्होंने इस कसूर पर बहुत पीटा था। तोड-फोड से तो उन्हें सख्त नफरत थी, यह बात उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। उन्हेंबडा गर्व था अपनी इस सुव्यवस्था का। वे अक्सर भाई साहब से कहा करती थीं कि यदि वे इस घर में न आतीं तो न जाने बेचारे भाई साहब का क्या हाल होता। मैं मन-ही-मन कहा करती थी कि और चाहे जो भी हाल होता, हम सब मिट्टी के पुतले न होकर कम-से-कम इंसान तो अवश्य हुए होते।
बुआजी की अत्यधिक सतर्कता और खाने-पीने के इतने कंट्रोल के बावजूद अन्नू को बुखार आने लगा, सब प्रकार के उपचार करने-कराने में पूरा महीना बीत गया, पर उसका बुखार न उतरा। बुआजी की परेशानी का पार नहीं, अन्नू एकदम पीली पड गई। उसे देखकर मुझे लगता मानो उसके शरीर में ज्वर के कीटाणु नहीं, बुआजी के भय के कीटाणु दौड रहे हैं, जो उसे ग्रसते जा रहे हैं। वह उनसे पीडित होकर भी भय के मारे कुछ कह तो सकती नहीं थी, बस सूखती जा रही है।
आखिर डॉक्टरों ने कई प्रकार की परीक्षाओं के बाद राय दी कि बच्ची को पहाड पर ले जाया जाए, और जितना अधिक उसे प्रसन्न रखा जा सके, रखा जाए। सब कुछ उसके मन के अनुसार हो, यही उसका सही इलाज है। पर सच पूछो तो बेचारी का मन बचा ही कहाँ था? भाई साहब के सामने एक विकट समस्या थी। बुआजी के रहते यह संभव नहीं था, क्योंकि अनजाने ही उनकी इच्छा के सामने किसी और की इच्छा चल ही नहीं सकती थी। भाई साहब ने शायद सारी बात डॉक्टर के सामने रख दी, तभी डॉक्टर ने कहा कि माँ का साथ रहना ठीक नहीं होगा। बुआजी ने सुना तो बहुत आनाकानी की, पर डॉक्टर की राय के विरुध्द जाने का साहस वे कर नहीं सकीं सो मन मारकर वहीं रहीं।
जोर-शोर से अन्नू के पहाड जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के कपडों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपडों की, ओढने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज रखते समय वे भाई साहब को सख्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज खोनी नहीं चाहिए- 'देखो, यह फ्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड दिया तो ठीक न होगा।
प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आईं। वह किस दिन, किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी, क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी इच्छा के अनुसार क्या खाक करेंगे! सब कह चुकीं तो जरा आर्द्र स्वर में बोलीं, 'कुछ अपना भी खयाल रखना, दूध-फल बराबर खाते रहना। हिदायतों की इतनी लंबी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना पडा, 'जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं मानता। हाँ, बिना भूले रोज एक चिट्ठी डाल देना।
आखिर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को खूब प्यार किया, रोई भी। उनका रोना मेरे लिए नई बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखाई देता रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्र्जीव-सी होकर पडी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।
भाई साहब का पत्र रोज आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार रहते थे। बुआजी भी रोज एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों की तारीख में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज पत्र लिखने का कष्ट क्यों करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर पलंग के सामने लटका लें और रोज सबेरे उठकर पढ लिया करें। पर इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।
करीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी बडी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसाई व्यवस्था कुछ शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।
अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे में आकर सोईं, पर सारी रात दु:स्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं। मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पडा था और अपने पूरे वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न में देखाहै कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नाू साथ नहीं है और उनकी ऑंखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पडतीं। मैं तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख्याल से, कुछ बुआजी की यह दशा देखकर बडा दु:खी हो रहा था।
तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बडी व्यग्रता से काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढने लगीं। मैं भी साँस रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर सिर पीटती बुआजी चीखकर रो पडीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने का साहस ही नहीं होता था। ऑंखों के आगे अन्नू की भोली-सी, नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र उठाया। लिखा था-
प्रिय सयानी,
समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह से तुम्हें यह दु:खद समाचार सुनाऊँ । फिर भी रानी, तुम इस चोट को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दु:ख की घडियाँ भी आती हैं, और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना दु:ख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कँ।यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था ...ऑंसू-भारी ऑंखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का समाचार पढ रही थी। मेरी ऑंखें शब्दों को पार करती हुई जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पडी- 'धैर्य रखना मेरी रानी, जो कुछ हुआ उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने वाले हैं।
एक मिनट तक मैं हतबुध्दि-सी खडी रही, समझ ही नहीं पाई यह क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी, मैं जोर से हँस पडी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर वास्तविकता जानकारी बुआजी भी रोते-रोते हँस पडीं। पाँच आने की सुराही तोड देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो

हरिया काका

हरिया काका
सब्जी, फलों और न जाने कितनी चीजों के छोटे-बड़े थैले पीठ पर लादे हरिया काका को दूर से आते देखकर ‘विनी’ और ‘पावस’ खुशी से उछलते उसके पास पहुँच गए। घर के सामने दोनों ओर मुख्य द्वार तक फैले मखमली घास के लॉन के मध्य लाल पत्थरों का लहराता रास्ता बहुत लम्बा नहीं, तो इतना छोटा भी नहीं था कि ‘हरिया काका’ की मुख्य द्वार से घर के बरामदे में पहुँचने तक बच्चे धैर्य से उसकी प्रतीक्षा कर पाते। वे पलक झपकते ही हरिया काका के पास पहुँचे,उसके थैलों को छूते, अपने नन्हें हाथों से थैले पकड़ने को काका पर लपकते,हलचल लिए घर में घुसे और बड़ी जिम्मेदारी-सी ओढ़े काका की पीठ पर लदे थैलों को उतरवाने में मदद करने लगे। हरिया काका दोनों बलाओं को शांति से झेलता हुआ, बीच-बीच में आँखें तरेरता हुआ कि कहीं सामान न बिखर जाए,गुपचुप उन्हें घुड़कता-सा, एक-एक करके बरामदे में सामान से भरे थैलों को फर्श पर जमाने लगा। थोडी ही देर में वहाँ खासा बजार-सा फैल गया। हरिया एक ओर सामान को करीने से रखता, तो विनी और पावस लिफाफों के मुँह खोल-खोल कर,उनमें झाँक कर जाँच-पड़ताल करते। दालों और मसालों के पैकेट उनकी नाक-भौं सिकोड़ने के लिए काफी थे। दोनों को अपने मतलब की कुछ भी चीज अभी तक नहीं मिल पाई थी। तभी हरिया ने जैसे ही फलों के थैले को खोला, दो जोड़ी शरारती आँखें चमक और लोभी से भर उठीं। रसभरे अंगूरों को विनी और पावस मानो अपनी आँखों से ही निगलने को तैयार, अपनी नन्हीं हथेलियों को अधिकाधिक फैला कर उन गुच्छों को मुठ्ठी में भरने के लिए बंदरों की तरह टूट पड़े, पर हरिया काका ने झपट कर अपने भीमकाय पंजे से उनके हाथों की अंगूरों के गुच्छों पर कुछ इस सतर्कता से घेराबंदी की, कि वे दानों अंगूरों का एक भी दाना न ले पाए और न हीं अंगूरों की दुर्गति कर पाए। अपने दूसरे हाथ की तर्जनी से विनी और पावस को प्यार से पाठ पढ़ाते हुए, हरिया काका ने कहा - "क्या सिखाया था माँजी ने, क्या बताया था टीचर जी ने और क्या समझाया था हमने भी, कि बिना धोए कुछ नहीं खाते। दूर हटो दोनों। सब तुम्हारे लिए ही है। पर हम जरा नहला-धुला कर इन्हें साफ कर दें। तब तुम दोनों को इनका भोग लगाएँगे।"
दोनों अंगूरों को नहलाने-धुलाने की बात पर बड़े खिलखिलाए और हरिया काका के सुर में सुर मिलाता पावस बोला - "कौन से साबुन से नहालाओगे, मेरे या विनी के?"
"अरे पावस तूने अपनी बनियान और निकर पलंग के नीचे क्यों फेंक रखी है?"
तभी माँजी खीझ से भरी हुई, धुली बनियान से मिट्टी झाड़ती हुई, बरामदे में आईं तो दोनों भोले से बने उन्हें ऐसे देखने लगे, जैसे उन्होंने कुछ किया ही नहीं। माँजी ने पुनः दोनों को धमकाते हुए कहा -
"क्यों फेंकते हो कपड़े इधर-उधर। निकर तो इतनी दूर पलंग के नीचे, दीवार के पास फेंकी है कि मेरे बस का तो नहीं उसे निकालना।"
पावस नीची नजरे किए हौले से शिकायती स्वर में बोला - "मुझे वो निकर बिल्कुल अच्छी नहीं लगती और बनियान मैंने नहीं फेंका, वो तो अपने आप गिर गया था।"
"तो क्या उठा नहीं सकते थे?" माँजी बडबड़ाई।
पावस अपनी ड्यूटी का हवाला देते हुए बोला - "वो हरिया काका आ गए थे न बाजार से, उन्हें लेने गेट पर जाना था न !"
हरिया काका ने पावस की भोली दलील पर मुस्कुराते हुए, माँजी की उपस्थिति और फटकार का सदुपयोग करते हुए फटाफट सब्जी और फल बड़े भगौने में नल के नीचे लगाकर धोने का आयोजन शुरू कर दिया। जैसे ही माँजी वापस कमरे में मुड़ी, हरिया ने ‘शरीर’ से ‘शरीफ’ बने दोनों बच्चों को एक-एक केला पकड़ा कर कहा - "जाओ, थोड़ी देर में अंगूर और अमरूद धोकर देते हैं। और हाँ, पलंग के नीचे से निकर भी निकालकर जगह पर रखो। न निकले तो हम निकाल देंगे।
आँगन के दरवाजे की कुंडी खड़की तो हरिया काका लपक कर वहाँ पहुँचे। उन्हें पता था कि इस दरवाजे की कुंडी खड़काने वाली रमिया ही होती है, जो रोज माँजी के पैरों पर तेल लगाने आती है और साथ ही अपने और हरिया के छः बच्चों में से किसी एक बच्चे की शिकायत भी अपने पल्लू में बाँध कर लाती है। क्योंकि मालिश करने से पहले वह जब पल्लू के कोने की गाँठ को खोलती, अपने किसी एक बच्चे की शिकायत करनी शुरू करती है तो लगता है वह उस गाँठ में ही बँधी है, जिसे वह खोलते-खोलते पूरी तरह हरिया काका के हवाले कर देती है और गाँठ में से निकली सुपारी को मुँह में रखकर, अपूर्व स्फूर्ति से भर उठती है। फिर तुरंत माँजी के पैरों के पास बैठ कर कटोरी से तेल लगाने में जुट जाती है। हरिया काका बेध्यानी से, लेकिन अपनी पत्नी के डर से ध्यान से सुनने का नाटक करते हुए - अपने बच्चे की शिकायत सुन कर, फिर से घर के कामों मे लीन हो जाते हैं।

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हरिया काका ने पिछले 40 सालों से इस घर का नमक खाया है। जब वे बिजनौर आए, तो इस घर में साहब ने उन्हें ‘भय्याजी’ को गोदी खिलाने और घर के झाड़ू-पोंछे के लिए रखा था, तब उनकी उम्र 15-16 साल रही होगी। वो दिन और आज का दिन वह कभी इस घर से दूर नहीं हुए। कितने मौसम आए और गए, तीज-त्यौहार मनाए, बुजुर्गों का ऊपर जाना और नन्हें-मुन्नों का घर में आना, क्या-क्या नहीं देखा हरिया काका ने ! वे तो मानो इस घर की जड़ों में ऐसे समा गए हैं कि उसकी शाखा, प्रशाखाओं, फूलों, पत्तों और कोपंलों में उनके प्राण बसते हैं। बाबूजी,माँजी, भय्याजी, बहूरानी और उनके नन्हें-मुन्ने सलोने बच्चो तक का सुख-दुख सब उनका है। घर के सभी लोग उन्हें जी भर कर मान-सम्मान और प्यार बख्शते हैं। हरिया काका के बिना वे सब अधूरे से हो जाते हैं। विनी और पावस के लिए तो वह खिलौना भी हैं, तो सीख देने वाले गुरु भी हैं। माँ-बाप, दोस्त, सब कुछ हैं - उन दोनों बच्चों के लिए। दोनों बच्चे अपने वे चुनमुन रहस्य, विशेष बातें, हरिया काका के साथ बाँटते हैं, जिन्हें वे मम्मी-पापा व दादा-दादी से नहीं कह पाते। कभी-कभी तो हरिया काका, विनी और पावस के लिए एक ऐसे महान अनुकरणीय ‘हीरो’ बन जाते हैं कि उनसे काका को अपनी जान छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। हरिया काका की तरह बैठना, उठना, चलना, यहाँ तक कि छुपाकर उनकी रोटी-प्याज और गुड़ भी उक्ड़ू बैठकर उन्हीं के अंदाज में खाना, काका और घरवालों के लिए दुखदायी हो जाता है। काका को बच्चों द्वारा रोटी हजम कर जाना गँवारा है, पर माँजी और बहूरानी से उनकी शिकायत करना जरा भी गँवारा नहीं। खाली चाय पीकर, भूखे पेट बड़बड़ाते काम में लगे रहेंगे, पर मजाल है कि बच्चों के खिलाफ एक भी शब्द उनकी जुबान पर आ जाए। उन्हें जान से प्यारे हैं दोनों बच्चे। दोनों बच्चे ही नहीं, बच्चों के बाप भी। उन्हें भी तो वह सम्हाले-सम्हाले फिरते थे। दो साल के भय्याजी की अँगुली पकड़े-पकड़े, उन्हें घुमाना, घंटों उनके साथ खेल में मस्त रहना। जमाना बीत गया। दो पीढ़ियों को अपनी बाँहों में खिलाया और सुलाया था हरिया काका ने। कभी-कभी तो हरिया काका को लगता कि पिछले जन्मों का जरूर कोई रिश्ता है इस घर से।दो बजे तक हरिया काका को मेज पर दोपहर का खाना लगा देना होता है। बहूरानी, रसोई के कामों में, दाल-सब्जी-रोटी बनाने में सुबह से हरिया काका के साथ लगी रहती हैं। जबकि काका की मन्शा होती है कि बहूरानी इतना काम न करके थोड़ा आराम करें। काका अपने गोल-गोल, फूले-फले फुलकों के लिए दूर-दूर तक रिश्तेदारों में प्रसिद्ध है। बस एक ही काम उन्हें आज तक ठीक से नहीं आया - आम का आचार और मीठी चटनी डालना। एक बार उन्होंने अपना हुनर दिखाने के चक्कर में, किसी को पास नहीं फटकने दिया और आम की मीठी चटनी बोट भर कर डाली। आम कसने से लेकर, गुड़ और मसाले आदि डालकर, पकाने तक-सारा काम यज्ञ की तरह बड़ी सफाई से, बड़े दिल से, स्वयं अकेले ही किया और सब कुछ होम भी कर बैठे क्योंकि कुछ ही दिनों में वह चटनी फफूँद से भरकर उतरने लगी। तब से उन्होंने तौबा कर ली।
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दोपहर के खाने के बाद काका दो-तीन घंटे रामवाड़ी में अपने घर आराम करने,अपने बच्चों के साथ बैठने जाते हैं। शाम को 5 बजे धीरे-धीरे सुस्त चाल से आते काका को देखकर बहूरानी अक्सर हँसती हुई कहती कि - "अम्मा जी देखिए तो जरा, हरिया काका चल रहे हैं या सो रहे हैं।"
यह बात तो शत-प्रतिशत सही है कि हरिया काका शुरू से ही सुस्त किस्म के इन्सान रहे हैं। बड़े ही आराम से धीरे-धीरे काम करना उनकी अच्छी आदत है या खराब, पर उनसे चटर-पटर तुरत-फुरत काम नहीं होता। उनकी रमिया उनके ठीक विपरीत ‘तीर’ की तरह आती और जाती है और घंटों के काम मिनटों में कर हरिया काका की सुस्त चाल के लिए उन्हें दो-चार तीखी बातें कह, उन्हें भुन-भुना कर चली जाती है।
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छन्न से ड्रॉइंगरूम में कुछ गिरने की आवाज आई। विनी का चाइनीज गुलदस्ते पर गलती से हाथ लगा और वह लुढकता हुआ फर्श पर जाकर छनछना कर चकनाचूर हो गया। अंदर वाले कमरे से माँजी झुँझलाई सी बोलीं-
"क्या तोड़ डाला, अरे दुष्टों?"
बहूरानी अपने कमरे से दौड़ी हुई ड्रॉइंगरूम में आईं, तो उस अनमोल, नाजुक गुलदस्ते को चूर-चूर हुआ देख एक पल को जैसे सदमाग्रस्त-सी हो गईं। फिर गुस्से में भर कर बोलीं - "यह कैसे गिरा ? किसने तोड़ा ?"
तुरंत हरिया काका नीची निगाह किए अपराधी का-सा भाव ओढ़ कर बोल उठे- "बहूरानी हम मेज साफ कर रहे थे कि हमारा हाथ लग गया और हमारे सँभालते-सँभालते भी नीचे गिर गया।"
विनी-पावस सहमे से कभी काका को, कभी टुकड़ों में विकीर्ण गुलदस्ते को, तो कभी गुलदस्ते के टूटने से आहत अपनी माँ की टुकुर-टुकुर देखे जा रहे थे। काका का इतना बड़ा झूठ बोलना उनकी समझ से परे था; पर दोनों को और विशेष रूप से असली अपराधी विनी को बड़ा अच्छा लगा कि काका ने डाँट पड़ने से और शायद एक-दो चपत से भी उसकी रक्षा कर ली थी। वैसे डाँट-फटकार हरिया को भी पड़ी, माँजी की और बहूरानी की भी, किंतु बड़े अनुपात में और बड़ी ही शालीनता से। बहूरानी के जाते ही काका ने विनी को खामोश बैठे रहने का इशारा करके सारा काँच समेटा। विनी भी अति आज्ञाकारी बनी हुई अपने लटके पैरों को सोफे पर समेट कर बैठ गयी। तभी चिंतनशील मुद्रा में बैठा पावस एकाएक लपक कर हरिया के पास जाकर उनके कान में हौले से बोला -
"अगर मम्मी ने मुझसे पूछा, तो मैं भी यही बोलूँ कि गुलदस्ते पर विनी का नहीं काका का हाथ लगा था ?"
पावस की इस भोली उलझन पर मन-ही-मन हँसते हुए काका ने तुरंत आँखें फैलाकर उसे धमकाया कि - "चुप रहो! हमें झूठा बनवाओगे क्या? बड़े आए विनी के हाथ की शिकायत करने वाले! ये तुम्हारा वाला हाथ लग जाता तो क्या तुम तुरंत बता देते? बहन को डँटवाओगे क्या?"
पावस भोलेपन से नकारात्मक सिर हिलाता, काका की बातों को ध्यानपूर्वक मन में उतारता, काँच के टुकड़ों को उठाने में मदद करने के लिए जैसे ही तत्पर हुआ उसे काका की एक और घुड़की मिली -"अब तुम अपना हाथ काटोगे, खून निकालोगे क्या? हटो, परे हटो!"
बड़े प्यार से काका की डाँट खाकर दोनों बच्चे उसे श्रद्धा से ऐसे देखने लगे, जैसे भक्तजन रक्षक भगवान को देखते हैं।

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आज जुड़वा भाई-बहन का जन्मदिन है। विनी, पावस से 15 मि. बड़ी है और वह अक्सर पावस को, लड़ाई-झगड़ा होने पर, अपने 15 मि. बड़े होने का एहसास कराया करती है किंतु वह 15 मि.‘छोटा’ कभी उसका रौब नहीं खाता। सुबह से घर में चहल-पहल और-क्रिया-कलापों का अनवरत सिलसिला चल रहा है। नौ बजे से हवन आरंभ होने पर, तदनन्तर उसकी समाप्ति पर रिश्तेदारों और अतिथियों को प्रसाद देते व जलपान कराते-कराते हमेशा 1 तो बज ही जाता है।
शाम को दोनों भाई-बहन के दोस्तों की पार्टी का आयोजन होता है। हरिया काका मेहमानों को खिलाते-पिलाते, कमरे व बरामदे के काने-कोने से बर्तन समेटते उन्हें धोते-पोंछते, बिना थके काम में पिले पड़े हैं। वे दोनों बचें के लिए भेंट लाए हैं, उसे तो वह शाम की पार्टी में ही देंगे। हवन में तो बच्चों के मुँह में लड्डू देकर, सिर पर हाथ फेर कर, ढेर आशीष देना, उनका हमेशा का नियम रहा है। अपने उपहार तो वह ‘लाल’ कागज में लपेट कर, रिबिन से बाँध कर, पार्टी वाले अंदाज में, सब बच्चों के सामने क्रिसमस बाबा की तरह विशेष ढंग से लाकर, विनी और पावस के सामने इस तरह से पेश करते हैं कि सारे बच्चे उत्सुकता से उन्हें घेर कर खड़े हो जाते हैं कि ‘देखें, काका ने इस बार क्या दिया है ?’
देखते-ही-देखते शाम हो गई और पार्टी के लिए ड्रॉइंगरूम पूरी तरह सज-सँवर गया। विनी और पावस भी अपनी-अपनी नई पोशाकें पहन कर तैयार हो गए। एक-एक करके बच्चों का भी आना शुरू हो गया। हरिया काका ने भी शाम को नीली कमीज, झक सफेद पायजामा पहन कर, बाल बनाकर, नन्हें मेहमानों के स्वागत व विनी-पावस को भेंट अर्पण हेतु स्वयं को सँवार लिया। तभी ड्रॉइंगरूम में केक काटने की तैयारी में बच्चों को समेटती बहूरानी की पुकार सुनकर काका,माँजी, बड़े साहब, भय्याजी सभी कमरे में जा पहुँचे। विनी और पावस ने समान जोश और जोर से मोमबत्तियों को फूँक मारी और दो मोमबत्तियों की ‘लौ’ को सफाई से दिप-दिपाते छोड़, अपने नन्हें हाथों से, रिबिन और गोटे से सजी छुरी से केक काट कर, स्वयं जोर- जोर से ताली बजाना शुरू कर दिया। उनकी मित्रसेना ने उनकी तालियों का अनुसरण करते हुए कमरे को ‘हैपी बर्थडे’ की गूँज से भर दिया। माँजी, बड़े साहब, बहूरानी, भय्याजी ने बारी-बारी से दोनों बच्चों का मुख चूमते हुए, सिर पर हाथ फेरकर ढेरों आशीष बरसाते हुए अपने उपहार दिए। फिर भी विनी-पावस अपनी जगह से टस-से-मस नहीं हुए। उनकी नजरे हरिया काका को उनकी भेंट के साथ खोजने में लग गईं। काका भी उनसे पीछे नहीं थे। बड़े अनूठे ढंग से थाली में सजीला कपड़ा और फूल बिछाकर, उसमें दो लाल पैकेट रखे, वें दोनों के पास आ खड़े हुए और सभी बच्चे केक से ज्यादा काका की भेंट में रुचि रखने के कारण उचक-उचक कर देखने लगे कि काका इन पैकेटों में से क्या निकालकर देंगे विनी और पावस को! काका ने हौले से एक पैकेट का रिबिन खोला और पैकेट विनी के सामने सरका कर कहा - "इसे अब तुम खोलो बिटिया।"
विनी ने गर्व से सब बच्चों की ओर देखा और लाल कागज का एक सिरा खोला,फिर मुस्कराहट रोकते हुए, पास खड़ी सहेली से आँखें मिलाईं और कागज का दूसरा सिरा भी उघाड़ा; पास खड़े बच्चों की नजरें कागज को भेदती हुईं अंदर छुपे उपहार पर गड़ गईं। इतने में विनी ने उसे खटाक से कागज से बाहर निकाला और सबको ऐसे दिखाया जैसे लॉन टैनिस का खिताब जीकर, खिलाड़ी अपनी शील्ड को सारे दर्शकों को दिखाती है। खुद ने देखा नहीं कि क्या है - दोस्तों को दिखाने का चाव अधिक हावी था उस पर। पुस्तक का शीर्षक था - "रामायण पर आधारित बालकथाएँ।" सारे बच्चे लपक कर, उसे विनी के हाथ से छीनकर देखने को उतावले होने लगे कि तभी हरिया काका के गुरू गंभीर स्वर ने सबको सचेत किया -
"सब बच्चे लोग देखो, अब पावस के पैकेट से क्या निकलता है।"
पावस ने ज़िद करी कि वह रिबिन भी अपने आप ही खोलेगा। उसने दोस्तों का ध्यान अपने पर केंद्रित करने के लिए, खूब आराम से रिबिन खोला; फिर चारों ओर सब पर नजर घुमाई। सब बच्चों की नजरें पावस की नजरों से मिलीं और जैसे बोलीं - "जल्दी से दिखाओ न क्या है पैकेट में?" पावस ने भी विनी की तरह अपने पैकेट का एक-एक कोना बड़े सलीके से पकड़ते हुए लाल कागज के अंदर से, अपनी भेंट को एक झटके से बाहर निकालकर, चूमकर, सचिन तेंदुलकर के अंदाज में एक हाथ से ऊपर उठाकर सारे दोस्तों को, एक महान क्रिकेट खिलाडी के अंदाज में दिखाया। उस पुस्तक पर शीर्षक था "महाभारत पर आधारित बालकथाएँ !" उसके पास खड़े बच्चे, पावस की पुस्तक पर लपकने लगे कि देखें कैसी कहानियाँ हैं, तस्वीरे भी बनी हैं क्या अंदर? पर रिफलैक्स एक्शन के लिए तैयार हरिया काका ने दोनों बच्चों की मार्गदर्शक मूल्यवान कथा-पुस्तकों कों अपनी कस्टडी में लेकर बच्चों को खाने-पीने, नाच-गाने में लगा दिया।

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अगले दिन सवेरे चाय पीते समय माँजी और बहूरानी हरिया काका की सूझ-बूझ की तारीफ करते हुए उनसे पूछने लगीं -
"तुम्हें बच्चों के लिए इतनी अच्छी भेंट का विचार कैसे सूझा?"
हरिया काका कुछ खुश होते, कुछ लजाते, अपने को काम में उलझाते हुए बोले - "अरे हमें कौन सुझायेगा। ये दोनों शरारती बच्चे ही हमारी सूझ-बूझ हैं। दोनों बड़े सयाने हैं। बड़ी-बड़ी बातें सोचते हैं। तरह-तरह के सवाल करते हैं हमसे। इसलिए हमने सोचा कि अब यह इनके दिल-दिमाग को ढालने की उमर है - इसीलिए ऐसी भेंट दी जाए, जो इन्हें अच्छी बातें सिखाए।"
बहूरानी और माँजी उस शिक्षा-दीक्षा रहित, पर पढ़े-लिखे को भी मात देने वाले बुद्धिमान, समझदार हरिया का मुँह ताकती रह गईं।

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माली छुट्टी पर गया था। बगीचे में आम और कटहल लदे थे। माली आए तो उन्हें तुड़वाकर कुछ मिलने वालों के घर और बाकी की बाजार में सवेरे नीलामी करायी जाए। पर न जाने वह सात दिन बीत जाने पर भी क्यों नहीं आया?इसलिए हरिया काका को बड़े साहब और भय्याजी का आदेश मिला कि वह अगले दिन सवेरे छः बजे तक आम और कटहल तुड़वाकर बाजार में देकर आए। यह सुनते ही काका का दिमाग सटक गया। वे दबी-दबी आवाज में बुदबुदाने लगे-
"क्या हम माली हैं? वो गैरजिम्मेदार, मक्कार नंबर एक, काम के बखत न जाने कहाँ गायब हो गया। अब उसका काम भी हम पर ही आन पड़ा। कल को कहेंगे - जमादार नहीं आया - उसका काम भी हरिया तुम ही कर लो।"
गुस्से में भरा हरिया रात का काम निबटा कर चला गया। माँजी, बहूरानी सबने उसके तने तेवर भाँप लिए थे। जाते-जाते हरिया माँजी से बोला -" सवेरे-सवेरे आँख खुलीं तो हम आयेंगे वरना देखी जायेगी।"
सवेरा हुआ तो क्या देखते हैं कि हरिया काका तड़के चार बजे से लग्गी लेकर आम और कटहल तोड़ने में जो लगे तो छः बजे तक सानियों को लाकर, उनके टोकरों में आम और कटहल भरवा कर मंडी में बेच भी आए। मिलनेवालों के लिए अच्छे आम और कटहल छाँटकर अंदर बरामदे में रख दिए। मंडी से आकर बड़े साहब और भय्याजी को हिसाब भी दे दिया।
बरामदे में मूढ़े पर बैठी माँजी ने चाय की चुस्की भरते हुए, मुस्कराहट छिपाते हुए जब हरिया से पूछा - "कि तू तो आने ही वाला नहीं था शायद इतने तड़के। फिर यह सब कैसे इतनी जल्दी इतना सब कर डाला हरिया ?"
तो हरिया काका किला जीतने के भाव से भरे बोले - "अरे माँजी, आज तलक क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप लोगों में से कोई हमें कुछ ‘आदेस’ दे और हम न मानें। भले ही हमें अच्छा लगे या न लगे पर इस ‘मन’ का क्या करें, यह आप लोगों का ‘आदेस’ माने बिना चैन से बैठता ही नहीं। अब क्या बताऊँ माँजी। रात करवटें बदलते बीती और जब 4 बज गया तो रुका ही नहीं गया। जब काम करना है तो करना है।"
माँजी कहीं खोई-सी बोलीं- "हरिया तेरे बिना, इस घर का क्या होगा? कैसे चलेगा ?"
"अरे माँजी! आप भी कैसी भाका बोल रहीं हैं? भला हम कहाँ जा रहे हैं? यहीं जियेंगे, यही मरेंगे।"
हरिया काका माँजी को आश्वस्त करते बड़े प्यार से बोले।

हरिया काका यूँ तो कभी बीमार नहीं पड़ते थे। पर कभी एक दो बार बुखार खाँसी ने उन पर हमला करने की जुर्रत भी की तो वह अपने कामों से तब भी पीछे नहीं हटे। एक बार जाड़े में उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। स्वेटर, मफलर,कोट अपने पर मढ़े, वे आठ बजे घने कोहरे को चीरते आ पहुँचे अपनी ड्यूटी बजाने। उन्हें आज भी याद हैं कि भय्याजी ने डाँटते हुए कहा था-
"क्या जरूरत थी बुखार में आने की? अगर तबियत और अधिक बिगड़ गई तो?"
हरिया काका के मुँह से एकाएक निकल पड़ा था - "तबियत तो और अधिक बिगड़ जाती, अगर घर पर पड़े रहते। यहाँ आए हैं तो, बुखार भाग जायेगा और काम में मन भी लगा रहेगा। और जब मन चंगा, तो तन भी चंगा आपो आप हुई जायेगा।"यह सुनकर भय्याजी बड़बड़ाते चले गए थे - "ये और इनकी अनोखी दलीलें। इनसे तो कुछ भी कहना बेकार है।"
वाकई शाम तक देखते-ही-देखते काका का बुखार 101.0 से 99.0 आ गया था। अदरक और तुलसी की चाय पी-पीकर बच्चों-बहूरानी और माँजी से बतिया-बतिया कर उन्होंने अपना इलाज कर ही लिया था, अगले दिन पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे। पर अपने कामों से बुखार के दौरान तनिक भी अलग नहीं हुए। हालांकि उनकी यह आदत घर भर में किसी को भी नहीं भाती थी पर वे अपनी जिद्द के पक्के थे।
आज 70 वर्ष के हरिया काका लकवे के कारण, अपने आधे बेजान शरीर से मजबूर खटिया पर पड़े रहते हैं। इस उम्र में भी अपने बेटे, बहुओं और पत्नी रमिया की सेवा से उनमें इतनी ताकत तो आ गई हैं कि वे धीरे-धीरे उठ बैठ जाते हैं। विनी-पावस भी बड़े हो गए हैं। पढ़-लिखकर सैटिल हो गए हैं। साहब भगवान को प्यारे हो चुके हैं।
कोई पल ऐसा नहीं होता जब हरिया काका अपने बीते दिनों, विनी और पावस, बड़े साहब, माँजी, भय्याजी और बहूरानी, उस घर को, उसकी दीवारों को, उस आँगन को याद न करते हों और ये न मनाते हों कि "हे प्रभु! अगले जनम में भी बड़े साहब और माँजी, उनके बच्चों और बच्चों के बच्चों की सेवा का मौका देना।"
जब भी भय्याजी, बहूरानी, विनी और पावस, काका को देखने बस्ती में जाते हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। "काका कैसे हो?" सुनने पर प्रेमविभोर कृतज्ञता से भरी उनकी छल-छलाई आँखें न जाने क्या-क्या बोलने लगती ।
-दीप्ति गुप्ता
अप्रेल 30, 2008
हाइड एण्ड सीक
उस जन्नत की तरह खूबसूरत शहर तक पहुंचने में वे उत्सुकता और बेचैनी भरी प्रतीक्षा को महसूस करना चाहते थे इसलिए घरवालों और परिचितों के बहुत मना करने के बावजूद उन्होंने अकेले और सडक़ के रास्ते से होकर, खुद अपनी गाडी चला कर वहां तक जाना तय किया था। वे बरसों बाद एक बार फिर रास्तों के साथ चलती नदियों से मिलना चाहते थे। रंग बदलते चिनारों से बात करना चाहते थे।
राजनैतिक और सामरिक नीतियों के चलते, इन नौ - दस सालो के दरम्यां इन रास्तों में बहुत कुछ फेर - बदल हो चुका था। ठीक एक खूबसूरत बच्चे के गालों की तरह, जो ज्यादा रोने से गंदला से जाते हैं, यह शहर भी गंदला गया था। मगर वे गाल गंदले होकर भी लगते उतने ही खूबसूरत हैं। छोटे - छोटे उदास मलिन गांवों के बाहर उगे बागों में चेरी के पेडों ने हल्की पीली - गुलाबी चेरियों के झुमके पहन लिए थे। अखरोटों के जगंल फलों से लदे गुनगुना रहे थे। मेहनतकश मधुमक्खियां जंगली सफेद गुलाबों से रस बटोर कर अपने छत्ते भर रही थीं, आने वाली सैनिकों और श्रमिकों की नस्ल के लिए। छोटे - छोटे झरने ठिठक कर बह रहे थे। मगर चिनार गुम - सुम उदास खडे थे, हर पचास कदम पर खडे सीमा सुरक्षा बल के सैनिकों की बन्दूकों से सहमे।
तराई से पहाडों की तरफ बढते हुए, तमाम रास्ते उन्हें अलमस्त यायावर मिलते रहे। आतंक से बेखौफ, पहाडी ख़ानाबदोश। जो गर्मियां शुरु होते ही, अपने भेड - बकरियों के रेवड क़ो ऊंचाइयों की तरफ, हरी चराई के लिए ले जाते हैं। उनके साथ होता है, उनका राशन - पानी और चाय - कहवा बनाने का साजो - सामान और कुछ - कुछ रूसी समोवार जैसी समोवार। एक - दो बार उन्होंने बीच - बीच में जीप रोकी और, मक्खन डली नमकीन चाय पीने के लालच में भेड क़ी तरह गंधाते उन खानाबदोशों के साथ जा बैठे थे। चाय के उसी चिरपरिचित स्वाद के साथ उन्होंने महसूस किया कि ये मंजर बदल जरूर गये हैं, मगर विकास के कुछ पैबन्दों से भी इन रास्तों का पुरानापन नहीं मिटा है।
प्राकृतिक संपदा से समृध्द इस प्रदेश के मेहनतकश, संर्घषशील लोगों के हिस्से में हमेशा से एक ही चीज आई थी वह थी _ बदहाली ।यह बदहाली उनकी जिन्दगी का अभिन्न हिस्सा थी, हाड - तोड मेहनत उनके जीने का तरीका था, लुटते चले जाना उनकी नियति और गैरों पर विश्वास एक दर्शन। मगर यह जो हताशा भरी बदहाली जो आज लोगों के चेहरे पर नुमायां थी, वह उनके हाथों से कुदाल और पैरों के नीचे से धान के टुकडा - टुकडा खेत छीन लिए जाने की थी। वे हाथ कुदाल गिरा चुके थे, मगर बन्दूक पकडने से कतरा रहे थे, इसलिए उनके घर टूटे थे और बच्चे भूखे थे। जिन हाथों में ग्रेनेड थे, बन्दूकें थीं उनके घर पक्के हो रहे थे।
मुस्कानें बस अबोध बच्चों के चेहरों पर थी। वयस्कों के चेहरे पर चुप्पा सा गुस्सा,नपुंसक विरोध, आतंक पसरा था। औरतों की सुन्दर आंखें इतनी सफेद और उजाड थीं कि सपनों तक ने उगना बन्द कर दिया था। वहां हसीन मर्ग नहीं थे, वहां तो वेदना, पीडा, घृणा के झाड - झंखाड थे। घृणा किससे? आतंकवादियों से, व्यवस्था से, सेना से? उन्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं था। कोई उनके साथ नहीं था और उनके खुद के बस में कुछ नहीं था। टूरिस्ट बसों पर ग्रेनेड फेंके जाने का सिलसिला नया शुरु हुआ था। और वे खुद नहीं जानते थे कि उनकी रोजी - रोटी में ये बारूद कौन घोल रहा है।
लेफ्टिनेंट कर्नल हंसराज बहुत बरसों बाद लौट रहे थे, इस शहर की ओर, इस प्रदेश में। जब वे मेजर थे, तब वे यहां तैनात थे। उन तीन सालों में बहुत कुछ घटा था, उनके बाहर भी और भीतर भी। वक्त ने स्मृतियों पर अतीत के अटपटे खुरंट जमा दिए थे। वे उस समय से जुडा हुआ, लगभग सब कुछ भूल जाने की कोशिश कर चुके थे, लेकिन खुरंटों के नीचे के घाव थे कि कभी - कभी टीस जाते थे। देह जब यात्राएं कर रही होती है, आस - पास की तो मन सुदूर की यात्राएं कर रहा होता है। देह जिन पक्के रास्तों पर गुजरती है, वे रास्ते तो फरेब होते हैं,मगर मन जिनपर गुजर रहा होता है वे पगडण्डियां शाश्वत होती हैं, कभी नहीं मिटती।
वे तो एक यायावरी के लिए निकले थे। माना यायावरी दिशाहीन होती है, मगर अवचेतन ने ये कौनसी दिशा तय कर दी थी कि वे यहां फिर लौट कर आने को उत्सुक हो गए थे! स्तब्ध, मलिन कस्बे और शहर, पीली सरकारी इमारतें और खूबसूरत मगर तन्हा और उदास रास्ते, सर झुकाए खडे चिनार, बलत्कृत झीलें,ठिठक कर बहते झरने अब तक उनके साथ साथ चल रहे थे। वे हल्के भय को थामे, पूरे दैहिक और मानसिक संतुलन के साथ अपनी गाडी चला रहे थे मगर अचानक उनकी खामोशियों के झुरमुटों के पीछे आवाजों के पंछी हल्के - हल्के पंख फडफ़डाने लगे। _ 'कमॉन इण्डिया जीत के आना है।' के स्लोगन्स की धूम,र्वल्ड कप का शोर। उनसे मुखातिब उनके अधीनस्थ अफसर की हताशा से भरी आवाज _ '' सर, क्या आप ऐसे बैट्स मेन की कल्पना कर सकते हो, जिसे फास्ट बोलिंग झेलने के लिए हेलमेट, ग्लव्ज और पेड्स के साथ खडा दिया गया है मगर उससे बैट वापस ले लिया गया है? रोज बम शैलिंग से गांव के गांव रिफ्यूजी कैम्पों में तब्दील हो रहे हैं मगर हमें पलटवार की इजाजत नहीं। क्यों सर क्यों?''
बेस युनिट से उनके बॉस की भर्राई आवाज _ '' एक - एक करके अब तक 400शहीदों को यहां से विदा कर चुका हूँ, जिन्होंने अपने परिवारों से वादा किया था कि वे वापस लौटेंगें। उन्होंने इसे निभाया है। वे एक आम आदमी की तरह गए थे,मगर महानायकों की तरह लौट रहे हैं।तरंगों में लिपटे और 'ताबूतों' में बन्द। इन महानायकों की उम्र 19 से 35 के बीच थी। दिल्ली जाकर जिन्हें मिला 'शोक शस्त्र'फेयरवेल सेल्यूट! लोह - सैनिकों की ऊपर उठी हुई बन्दूकों की खामोश वेदना,उन बन्दूकों की बैरल का उलटाना सीने के करीब लगाया जाना, एकसाथ कई सरों का झुक जाना 30 सैकण्ड का पथरीला मौन और फिर उनके मृत सीनों पर सेना के सर्वोच्च अधिकारियों, साथियों के चढाए गए रजनीगंधा और गेंदों के'रीथ'(शवों पर चढाई जाने वाली विशिष्ट गोल माला)। फिर एक कामरेड की देख - रेख में, इनकी अपने घरों की ओर अंतिम यात्रा।''
हवाओं की सरसराहट में वे मौसम बदलने की आहट सुन पा रहे थे। बदलते मौसम के इस बेपनाह सौन्दर्य में इतनी उदासी क्यों घुली है? हर अतीव सुन्दरता की तरह यह भी अभिशप्त क्यों है? इस अभिशप्त सुन्दरता की जीवन्त उदासी से खामोशी के झुरमुटों के पीछे की आवाजों की फडफ़डाहट स्थगित हो गयी।
'ठहरो - हिन्दुस्तानी साबमेरी भेडें ड़र जाऐंगी।' एक पतली आवाज उसे मुखातिब थी। एक मोड पर हाथ हिला - हिला कर एक दस साल का सुन्दर मुखडाउसे रोक रहा था। उसकी भेडें रास्ते पर बिखर गईं थीं और उन्होंने वह ढलवां, संकरी - सी,सडक़ पूरी की पूरी घेर ली थी। इस मासूम को किसने समझाया यह सम्बोधन?किसने बोया होगा इस सरल मन में इस विभेद का बीज?
आज इस दस साल के लडक़े के मुंह से 'हिन्दुस्तानी' सुन कर, उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने उन्हें दूसरी शिकस्त दी हो। बरसों पहले की, वह पहली शिकस्त उन्हें बखूबी याद है।
वे तबादले पर वहां पहुंचे ही थे। इस राज्य के दूरस्थ इलाके, जो 1971 के युध्द के बाद भारत का हिस्सा बन चुके थे, सेना द्वारा चलाए गए 'आपरेशन मित्रता' केन्द्र बिन्दु थे। लाइन ऑफ कन्ट्रोल से कुछ किलोमीटर दूर, एक महत्वपूर्ण पोजिशन की सतर्क चौकसी के साथ - साथ उन्हें इस ऑपरेशन की भी कमान संभालने को मिली थी। उन्होंने अपनी युनिट की सारी ऊर्जा 'ऑपरेशन मित्रता' में झौंक डाली थी। वे स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से यहां स्कूल और अस्पताल खुलवा रहे थे। आतंकवाद की चपेट में आए स्थानीय लोगों को पुर्नस्थापित करने में उनके सैनिकों ने हरसंभव सहायता की थी। धमाकों में अपाहिज हुए लोगों को कृत्रिम अंग लगवाए गए थे। मगर फिर भी यहां के निवासी आतंकवादियों और घुसपैठियों को हर संभव सहायता और आश्रय दिया करते थे। इन इलाकों के असहयोगी माहौल में विश्वसनीयता हासिल करना क्या आसान काम था? पूरा साल वे स्थानीय निवासियों के साथ फौज के सम्बन्ध सुधारने पर एडी से चोटी तक काजोर लगाते रहे। उन्हें लगता था कि एक दिन वे इन स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल करने में सफल होंगे मगर आज से लगभग नौ साल पहले, ऐसे ही तो बसन्त की शुरुआत थी, ऐसे ही फूल खिले थे जब हमारे प्रधानमंत्री लाहौर में शांति वार्ता में अपनी नितांत भारतीय नीतियों की दार्शनिक व्याख्या कर रहे थे अपने परमाणविक शक्तिधारक दुश्मन के समक्ष।
बिलकुल ऐसे ही दिनों में एक साधारण अभ्यास की तरह बर्फीली चोटियों पर सर्दी खत्म होने के बाद सेना की पहली पेट्रोलिंग टीम दुर्गम उंचाइयों पर चढी थी। चार जवानों और एक युवा अधिकारी की ये टुकडी अचानक बर्फीली उंचाइयों पर से गायब हो गई थी। हालांकि वे उनकी यूनिट के नहीं थे किसी और रेजिमेन्ट के ये पांच फौजी पेट्रोलिंग के लिए निकले थे। वे महीना भर लापता रहे। जब उनके शव मिले, तब पता चला कि बर्फीली उंचाइयों में छिपे बैठे घुसपैठियों ने उन्हें कैद कर लिया और उस पार ले गए जहां उन्हें यंत्रणाएं देकर मारा गया, उनके शरीरों पर सिगरेट से जलाने के निशान थे, उनकी सिर की हड्डियां टूटी हुई थीं, कान के पर्दे गर्म रोड डाल कर फाड दिए गए थे, आंखें निकाल ली गई थीं। पर यह बात उन्हें खटकी थी कि ऐसे अनुभवहीन युवा अधिकारी को पेट्रोलिंग के लिए बिना तहकीकात किए क्यों भेजा गया था और उसका शव घर पर उसकी पहली या दूसरी तन्ख्वाह के चैक के क्लियर होने से पहले ही पहुंच गया था इस बात को लेकर उन्होंने उच्चधिकारियों से जिरह की थी। मगर उन्हें चुप करवा दिया गया।उनका और उनकी यूनिट के जवानों का 'ऑपरेशन मित्रता' से धीरे - धीरे मोहभंग होता जा रहा था। वे यह जान गए थे उनके धैर्य को उनकी कमजोरी माना जा रहा है।
सरासर ध्यान भटकाने वाली गतिविधियां जारी थी। यहां विस्फोट, वहां नर - संहार।
एक रात उन्हें अपने विश्वसनीय मुखबिर से पता चला था कि एन् उनकी नाक के नीचे आतंक सांसे ले रहा है, और वे सरासर बारूद के एक बडे ढ़ेर पर बैठे हैं।अगले ही दिन जहाज से उनके पास एक 'स्निफर डॉग स्क्वाड' ( खोजी और गश्ती कुत्तों का दस्ता) आ गयी थी। 'ऑपरेशन मित्रता' के सैनिकों के उन हाथों में फिर बन्दूक आ गयी थी, जिनसे वे स्थानीय निवासियों की सहायता करते थे।
''इन खोजी कुत्तों के बिना यहां कोई ऑपरेशन मुमकिन नहीं सर जी। इंसान की अपनी लिमिट है जी, मगर इन लेब्राडोर कुत्तों को भगवान ने खास ताकत दी है,सूंघने की। हमारे सैंकडों जवानों को इन साशा और रोवर की तेज नाक ने जिन्दगी बख्शी है। और मुझे बडा नाज है जी, इन पे। यकीन तो है ही खैर''
''क्या बताऊं सर जी, हैण्डलर का प्रेम ही होता है जो इनसे यह काम करवाता है। इनके लिए तनख्वाह, पावर, इज्जत या धर्म या जात का कोई मतलब है क्या साब? ये वफादार दोस्त जाने कितनी जिनगानियां बचाते हुए खुद मर जाते हैं। पहले मेरे पास चम्पा नामकी लेब्राडोर कुतिया थी, उसने बडी ज़ानें बचाईं, कितनेक तो लैण्ड माईन्स ढूंढे उसे मेरे साथ कमण्डेशन भी मिला था। इन की फीमेलों की नाक मेलों से ज्यादा तेज होती है वैसे सर जी नाक और कान तो हमारी फीमेलों के भी खूब तेज होते हैं।'' बहुत बातूनी था लांसनायक महेश। उसकी स्क्वाड के वे दो काले लेब्राडोर कुत्ते खूबसूरत और बुध्दिमान थे। खाली वक्त में वे आपस में अठखेलियां किया करते। महेश उनके साथ विस्फोटक की मामूली सी मात्रा रूमाल में छिपा कर 'खोजो तो जानें' का खेल खेल कर उनके हुनर को पैना किया करता था।
मुखबिर का संकेत मिलते ही, वे उन घरों की तलाशी के लिए निकल पडे थे,जिनमें उन्हें शक था कि उग्रवादी छिपे बैठे हैं। उनकी युनिट ने गली के बाहर,गली के भीतर, आगे झील तककवरिंग और अटैकिंग पोजिशन ले ली थी और वे धीरे - धीरे सावधानी से एक झील पर जाकर खत्म होती पतली गली में घुसे,लांसनायक महेश, साशा की जंज़ीर थामे उनके साथ - साथ था। रोवर,उसका हैण्डलर सुरेन्दर एक दूसरे घर के बाहर कैप्टन राजेश के साथ खडे थे, संकेत दिए जाने की प्रतीक्षा में। गली में चहल - पहल की जगह सन्नाटा पसरा था। ऐसा लग रहा था कि इन घरों की दीवारों के कान जैसे मीलों फैले हुए हों। वे घर दम साधे, एक दूसरे को थामे खडे थे, हल्की - हल्की सांस लेते हुए। सैनिक सतर्क थे। बस एक सफेद - गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी थी, उसके हाथों में शलगम का गुच्छा और एक मछली थी। उसके सुर्ख होंठ कंपकंपा रहे थे कि मानो कुछ कहना चाहती हो। उसका फिरन भीगा हुआ था।उसकी नीली पुतलियों वाली शफ्फाक आंखों में भय तैर रहा था। उन्होंने उसे घर लौट जाने का इशारा किया।

सैनिकों ने उनके संकेत पर एक घर को घेर लिया।वे तीन सैनिकों, लांसनायक महेश और साशा के साथ एक सुनसान टूटे - फूटे घर में घुसे। इस टूटे - फूटे घर के नीचे की मंजिल पर जमीन पर बिछे बिस्तरों पर सलवटें थीं। कालीन पर जूतों के कई निशान। बिस्तरों में इन्सानी जिस्मों की गर्म बू ताजा ही थी। ज्यादा दूर नहीं गए होंगे वो। संभल कर वे ऊपर की मंजिल की ओर बढे। ऊपर जाते ही साशा बेचैन हो गयी और इधर - उधर सूंघने लगी, गोल - गोल चक्कर काटने लगी। बीच बीच में कूं ऽ कूं भी करने लगती और पूंछ हिलाने लगती। महेश बहुत सर्तक हो गया था। उनके तीन अधीनस्थ अधिकारियों सहित सैनिकों की एक बडी टुकडी उन्हें कवर दे रही थी। वह एक मर्तबान में बार - बार मुंह डाल रही थी।उस मर्तबान के चारों तरफ गोल चक्कर काट रही थी। फिर उसने पंजे से उसे उलट दिया। एक बेलनाकार धातु की वस्तु कपडों में लिपटी रखी थी। महेश समझ गया था कि साशा ने बम ढूंढ लिया क्योंकि वह उसके पास बैठ गई थी,ताकि उसका हैण्डलर स्थिति का जायजा ले सके।
'' सर आप सब बाहर जाएं, आतंकवादी तो नहीं, मगर बम है यहां। सूबेदार हनीफ अहमद को भेज दें इसे डिफ्यूज क़रने के लिए।'' महेश ने फुसफुसा कर कहा।
यह अजीब - सी डिवाइस ऊंचे दर्जे के विस्फोटक पदार्थ से भरी हुई थी और शायद यह एक रिमोट कन्ट्रोल से जुडा था। कुछ देर बाद, साशा महेश के ऊपर चढ क़र अपने इनाम के बिस्किट की मांग करने लगी थी। महेश ने उसे अनदेखा कर दिया। महेश दूर से बम का निरीक्षण कर रहा था और वे अपने दस्ते के बम डिफ्यूजल एक्सपर्ट को बुलाने के लिए पीछे मुड क़र कुछ सीढियां उतरे ही थे कि धमाका हो गया, घर के ऊपर का हिस्सा ढह कर, सडक़ पर आ गिरा। मलबे में दबे हुए साशा के चिथडा - चिथडा जिस्म को और अचेत महेश को निकाला गया। महेश बुरी तरह घायल हो चुका था, उसकी एक बांह विस्फोट में उड ग़ई थी और वह नीम बेहोशी में था। उनके भी पैरों में अचानक सीढियों से कूद जाने की वजह से अन्दरूनी चोटें आई थी। 'शो मस्ट गो ऑन' की तर्ज पर ऑपरेशन जारी रहा। महेश को तुरन्त मिलीटरी अस्पताल भेज दिया गया। साशा की मृत देह कम्बल में लपेट कर 'कैन्टर' में रख दी गई।
उन खाली टूटे - फूटे घरों में हरेक में बम रखे मिले थे। रोवर ने उन्हें ढूंढ निकाला था। रोवर को आतंकवादियों की तलाश में हैण्डलर जंगल की तरफ घुमाता मगर वह लौट - लौट कर बस्तियों की तरफ भाग रहा था। वह एक घनी बस्ती के ऐसे घर दरवाजे पर रुका, जहां पर्दानशीन औरतें ही औरतें थी और वहां दालान में पडी थी, घर के एकमात्र युवक की लाश, जिसे ताजा - ताजा कत्ल किया गया था।जिबह की गई बकरियों की तरह वे औरतें चीख रही थीं। घर की तलाशी ली गई मगर वहां कुछ नहीं मिला। घर के पीछे गली झील पर खत्म होती थी, झील के उस तरफ मस्जिद थी। यह वही जगह थी, जहां सफेद - गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी मिली थी। अब वहां न नाव थी न वह किशोरी। शलगम के गुच्छे ज़मीन पर गिरे हुए थे। गली के मकानों की खिडक़ियां यूं बन्द थीं गोया बरसों से खोली ही ना गई हों। उस गली से पलटते ही मस्जिद की दिशा से फायरिंग शुरु हो गयी। जवाबी कार्यवाही में वे फायर नहीं कर सकते थे क्योंकि जुम्मे का दिन था और मस्जिद में आतंकवादियों की जद में कुछ मासूम नमाज़ी फंसे हुए थे। '' हिन्दोस्तानी कुत्तों मस्जिद का रुख न करना, वरना ये नमाजी हमारे हाथों खुदा के प्यारे हो जाएंगे।''
यह उनके 'ऑपरेशन मित्रता' की पहली शिकस्त थी। आज नौ साल बाद यह दूसरी शिकस्त उन्हें उदास करने के लिए काफी थी।
बेस पर लौट कर रोवर बहुत बेचैन हो उठा था। बार - बार कैण्टर की तरफ जाता जहां 'साशा' का शव रखा था। कूं कूं करके उसके चारों तरफ घूमने लगता था।अपने हैण्डलर की बात भी नहीं सुन रहा था। उससे बहुत छिपा कर साशा को उन हरे - भरे मर्गों में कहीं दफना दिया गया था। मगर रोवर ने भांप लिया था।हैण्डलर ने बहुत कोशिश की उसे खिलाने की, मगर उसने खाने को सूंघा तक नहीं। उसे ड्रिप भी लगाई। फिर उसने किसी भी अभ्यास में मन से हिस्सा नहीं लिया, अभ्यास के दौरान विस्फोटक की गंध से भरा कपडा उसे सुंघा कर छिपाया जाता पर वह उसे खोजने की कोशिश करने की जगह एक जगह पर बैठ जाता और उसकी आंखों से पानी बहता रहता। उन्हें नहीं पता कि कुत्ते रोते भी हैं कि नहीं। मगर रोवर को देख कर उनका मन भारी हो जाता था। रोवर के असहयोग की वजह से तुरन्त दूसरे स्निफर डॉग और उसके हैण्डलर को भिजवाने का संदेश भेज दिया गया था। जिस दिन उसे वापस भेजा जाना तय था, उस दिन के पहले वाली रात, जब वे लांसनायक सुरिन्दर से मिलने गए तो रोवर उसके साथ बुखारी के सामने बैठा था। बीमार मगर शांत। उनके आने पर उसकी दोनों कत्थई एक साथ आंखें उठीं थीं। हल्के - हल्के उसने दोस्ताना अंदाज में पूंछ भी हिलाई, सर सहलाने पर हाथ चाटा था। फिर वह आंखें मूंद कर लेट गया। सुबह वह नहीं उठा।
महेश अब दिल्ली में रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पीटल में स्थान्तरित कर दिया गया था। उन्होंने उससे फोन पर बात की। वह व्यथित था, अपने हाथ के कट जाने को लेकर नहीं। साशा और रोवर को लेकर, '' सर जी बहुत प्यार था उनमें। उन्हें आस - पास ही दफनाना।'' उसके कहने पर रोवर को साशा के बगल में ही उसके साथी दफना आए थे। जहां तक उन्हें याद है महेश का साथी लांसनायक सुरेन्दर लाल रंग के दो समाधि - पत्थर बनवा कर लाया था।
''सर, सच्चे सिपाही, सच्चे आशिक तो यही हैं ना।आप इजाजत दें तो इनकी कब्रों पर ये पत्थर लगवा दें।'' उन्होंने वहां अपने हाथों से एक चेरी का पेड लगा दिया था। लांसनायक महेश के 'स्पेसिफिक काउन्टर टैरर मिशन' के 'कमण्डेशन'(प्रशंसा - पत्र) के लिए उन्होंने चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को 'साइटेशन' (अनुशंसा) भेजी थी, जो स्वीकृत हुई।
छद्म युध्द ने तेजी से आग पकड ली थी। उस छद्म युध्द में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें सेना मैडल मिला। इस सबके बावजूद एक असंतोष सा उनके मन में घर कर गया था। इतने स्थानीय नागरिकों, जवानों - अधिकारियों की जान महज कुछ लिजलिजे निर्णयों और ढुलमुल नीतियों के चलते गंवा दिए जाना उन्हें नागवार गुजरा था। उन्होंने सेना से स्वैच्छिक अवकाश ले लिया था।
वे शहर में बस दाखिल हुए ही थे कि उन्हें पीली दीवारों वाला डाकघर दिख गया था। शहर के बदलावों में बच गए एकमात्र जर्जर अवशेष - सा। जिसके बाहर फुटपाथ पर, सूखे मेवे बेचने वाले अखरोटों का ढेर लगाए खडे थे। दुकानों पर कढाई किए गए कपडे और सुन्दर दस्तकारी के साजो - सामान सजे थे। शहर अजब तरह से विकसित हो रहा था, जैसे बदहाली नाम की खूबसूरत गरीब - बेबस औरत को तीखा मेकअप करके बिठा दिया गया हो, लेकिन डर उसकी आंखों, हरकतों, जुम्बिशों से किसी न किसी तरह टपक ही रहा हो। रंग - बिरंगे शीत पेयों और मोबाईल फोन की कंपनियों के बडे - बडे होर्डिंग, शहर के हर चौराहे पर लगे थे। सफेद स्कार्फ से सर को अच्छी तरह ढके, सर झुकाए, बिना खिलखिलाए किशोरियां स्कूल जा रही थीं। धूसर - भूरी दीवारों और लकडी क़े दरकते फर्श और टीन की छतों वाले घरों की कतार जहां खत्म होती थी वहां से एक झील शुरु होती थी। एक बूढा अपनी नाव में बैठा इस झील में उगी जलीय खरपतवार को जाली से बडी तटस्थता से साफ कर रहा था। लाईन से लगे शिकारे और हाउसबोट एक अंतहीन प्रतीक्षा में प्रार्थनारत मालूम होते थे।
वे एक मुगलकालीन बाग के करीब से निकले, वहां एक ऊन की टोपियां बेचने वाले ने बताया कि अभी वहां विस्फोट होकर चुका है, एक गुजरातियों से भरी बस पर। लेकिन जिंन्दगी बदस्तूर रवां थी। चेरी - अखरोट बेचने वाले बसों में बैठे टूरिस्टों से मोल - तोल कर रहे थे। आखिर हम सीख ही गए आतंक के साए में जीना।
वे उस प्रसिध्द चौक से गुजरते हुए आगे की तरफ मुड ग़ए, जहां मौत का खेल शतरंज की तरह खेला जाता था। वो प्यादा मरा वो वजीर! वजीर कम मरते, प्यादे ज्यादा। बल्कि वजाीरों की शह और मात के बीच प्यादे कब लुढक़ जाते, इसका न पता चलता, न फर्क पडता था। हालांकि माहौल में जाहिरा तौर पर कोई तनाव नहीं था। लेकिन उन्होंने देखा, तब के शहर और अब शहर की सोच तक में फर्क आ गया था। पहले एक - एक मौत मायने रखती थी। अब विस्फोटों और दो - चार मौतों के बावजूद एकाध घण्टे में ही जिन्दगी फिर से रवां हो जाती है। वो मरी हुई शतरंज की गोटियों की तरह लाशें हटाते और खेल फिर शुरु अब वे फिर से टूरिज्म के विकास की तरफ बढ रहे थे। सरकार और कठमुल्लाओं और उनके खैरख्वाह बनने वाले आतंकवादियों सभी से वे विमुख हो चले थे। फौज से उनका प्रेम और घृणा, सहयोग और असहयोग का व्यापार निरन्तर जारी था।
शहर के मुख्य और बडे हिस्से में स्थापित सेना के एक बहुत बडे बेस के सामने से वे तटस्थता से गुजर गए। पहले उनका वहीं उसी बेस में ठहरना तय था। मगर वहां उन्हें कुछ अजनबी लगा, बेमानी भी। उनकी जान - पहचान का पुराना कोई भी तो नहीं होगा। उस बेस के चारों तरफ एक लम्बा चक्कर काट कर वे शहर से बाहर आ गए थे।

वे उस सडक़ की तरफ मुड चले जिसके साथ एक नदी चला करती थी। रास्ते बदल गए थे। उन्हें गाडी रोक कर नए रास्तों की बाबत पूछना पडा। पहाड क़ा एक हिस्सा काट कर सडक़ का एक छोटा - सीधा रास्ता बन गया था। मगर शायद नदी ने पलट कर फिर कहीं आगे जाकर सडक़ का हाथ पकड लिया था।अब वह फिर साथ थी।अवरोधों पर वह नदी और अधिक उच्छृंखल हो जाती।ऊंचाई से नीचे गिरती तो अनेकानेक भंवर डालती बहती। नदी के पानी में बहा खून जाने कहां बिला गया होगा मगर इसकी चंचलता और निश्छलता में कोई फर्क नहीं आया। यह कुछ मील दूर दूसरे देश में में भी ऐसे ही उछालें मार कर बहती रही है।
खुद से उलझते, अपनी मंजिल के बारे में तय करते - करते उन्हें शाम हो आई थी, कुछ रास्ते बदल गए थे, कुछ वे भटक गए थे। अंतत: वे एक नए बने आर्मी बेस के छोटे से ऑफिसर्स मैस में जा ठहरे। मैस बहुत खूबसूरत जगह पर बनी थी। उनके कमरे के इस तरफ नदी के छल - छल, कल - कल गीत गूंजते थे तो दूसरी तरह पहाड ध्यानमग्न नजर आते। उन्होंने अपने कमरे के पीछे वाली बॉलकनी की रैलिंग से नीचे देखा _ नीचे ढलानों की तरफ फैले हरे - भरे विस्तृत चारागाह में, शाम के गुलाबी झुटपुटे और चांद की फैलती रूपहली रोशनी में दो सफेद मजारें जगमगा रही थीं, मानो मुस्कुरा रही हों।
उस पल हरे - भरे मर्ग के बीच उन गुनगुनाती मजारों, उनके चारों तरफ खिले फूलों और आकाश में तैरते टुकडा - टुकडा बादलों को देख कर, न जाने क्यों कर्नल हंसराज को लगा कि मानो मौत का दूसरा नाम खुशगवारी हो।
अगले दिन सुबह नहा धोकर, नाश्ता करके वे अपने कमरे से निकल आए। कमरे की बॉलकनी से जो मजारें उन्हें आकर्षित कर रही थीं। उसी तरफ बढ चले। आज उस तरफ रौनक थी, चहल - पहल थी। उन्हें हैरानी हुई।
मैस के एक अर्दली ने बताया कि ये दो सूफी पीरों की मजारें हैं, एक भले दिल के सूफी दरवेश ने अपने पैसे और रसूख वाले मुरीदों से कह कर वहां दरगाह बनवा दी हैं। पूरे चांद की रात में सुबह से ही वहां मेला लग जाता है। दूर दराज से लोग आते हैं। हंसराज हैरान रह गए थे। वे दरगाह के बाहर ही रुक गए। एक तरफ लगे एक तंबू में कहवा बन रहा था। कहवे की महक ने, वह स्मृति में बसा सौंधा स्वाद याद दिला दिया। वे उसी तरफ बढ ग़ए।
'' भई, जहां तक मेरा ख्याल है _ नौ - दस साल पहले तो यहां कोई मजार नहीं थी। न यहां कोई मेला हुआ करता था।''
''हां बस, दो बरस ही हुए हैं इन मजारों को मरहूम सुलेमान दरवेश साहब ने देखाऔर दरगाह बनवा दी। वे कहा करते थे कि दस साल पहले उनके लापता हुए उनके दो सूफी उस्तादों की मजारें हैं।''
कर्नल हंसराज ने दिमाग पर जोर डाला '' दस साल पहले, हँ हाँ, उन दिनों लेह के 'दो बौध्द भिक्षु' तो जरूर मार डाले थे, आतंकवादियों ने। मगर सूफी ! कुछ याद नहीं पड रहा।''
आतंकवादी शब्द बोल कर जैसे उनसे कोई कुफ्र हुआ हो, उस कहवावाले ने उन पर क्रूर और ठण्डी निगाह डाली।
'' कहवा खत्म कर लिया हो तो चलें जनाब।''
उन्हें तम्बू से बाहर ले जाते हुए एक नौजवान कश्मीरी बोला, '' बुरा मत मानिएगा सर, ये बडे मियां जरा खब्ती हैं। सच्ची बात तो ये है कि ये मजारें किसी सूफी - दरवेशों की नहीं हैं, लैला - मजनूं जैसे दो आशिकों की मजारें हैं। कहते हैं, लडक़ी कश्मीरी थी और लडक़ा सिपाही था, हिन्दुस्तानी फौज का।''
'' क्या बात करते हो?''
''क्या बताऊं सर, दोनों ही बातें कहते हैं लोग। बडे - बूढे तो सूफी - दरवेश की मजार मानते हैं इसलिए यहां सूफी - दरवेशों की हर पूरे चांद पे मजलिस लगती है। मगर कुछ लोग इन्हें दो आशिकों की मजार समझते हैं तो नौजवान जोडे भी यहां आकर मन्नतें मांगते हैं।''
'' सर, कहां ठहरेंगे? शहर में मेरे चचा का हाउस बोट है, थ्री स्टार।''
उन्होंने कोई रुचि नहीं ली तो कहने लगा, '' यहां बगल के कस्बे में मेरे पहचान के होटल भी हैं सर, हिन्दू होटल।''
''अरे नहीं भई, मैं वहां ऊपर ऑफिसर्स मैस में ठहरा हुआ हूँ।''
'' तो चलिए सर आपको ग्लैशियरघुमा लाऊं।''
''मेरा सब कुछ देखा हुआ है। तुम जाओ, मैं यहीं कुछ देर रुकूंगा।''
'' अच्छा कोई बात नहीं सर, मैं बता रहा था न इन मजारों के बारे में _ ''
वे समझ गए थे कि यह गाइड या टूरिस्ट एजेन्टनुमा कोई जीव है। इन मजारों की कहानी सुनाने के बहाने चिपक ही गया है। कुछ लिए बिना टलेगा नहीं।
'' बताओ क्या बता रहे थे?'' वे उकता कर बोले।
''कहते हैं एक कश्मीरी लडक़ी, इस छावनी से कुछ ऊंचाई पर बने गांव में रहा करती थी। खूबसूरत, मासूम, कमसिन। 'सना' नाम था उसका।नीचे छावनी की एक बैरक में रहने वाले एक क्रिश्चन सैनिक 'रोजर' से उसका इश्क हो गया। आप तो जानते हैं सर इश्क ज़ात - धर्म कहां देखता है।'' उसका चिपकूपन उन्हें खिजा रहा था, वे उसे झिडक़ने ही वाले थे कि उसके सुनाने के दिलचस्प अंदाज पे वे मुस्कुरा उठे।
'' लगता है तुमने भी इश्क क़िया है।''
'' हां सर, बहुत पहले। एक हिन्दू लडक़ी से उसके भाई और बाप तो आतंकवादियों ने मार डाले और वो और उसकी मां यहां से जम्मू चले गए। खैर छोडिए वो कहानी सरये कहानी सुनिये_
हां तो, वह रोज उससे सुबह - सुबह मिला करती, घास काटने के बहाने। रोज सुबह पांच बजे उसकी खिडक़ी पर एक कस्तूर चिडिया आकर तान देती और वह ढलान उतर कर अपने आशिक से मिलने जाती।
एक रोज क़स्तूर ने सुबह पांच की जगह तीन बज कर चालीस मिनट पर ही किसी डर से तान दे दी। शायद उसके घोंसले के नन्हें चूजों पर किसी बाज ने चोंच मारी होगी। सना को वह तान अजीब तो लगी, मगर प्रेमी से मिलने के चाव में उसने ध्यान ही नहीं दिया। बर्फीले पानी से मुंह धोया तो मुंह सुर्ख क़ी जगह नीला हो गया। अंधेरे में फिरन पहना तो कील में अटक कर फट गया मगर फिर भी उसने इन बदशगुनों पे ध्यान नहीं दिया। अपने घर से नीचे ढलान की तरफ अपने प्रेमी से मिलने उतर पडी, ख़ुशी से सरोबार, देख लिए जाने के डर से घबराती, जिस्मानी चाहतों में सुलगती, महबूब की आंखों का इंतजार उसकी रूह में सुलग रहा था। उसे पता था रोजर ने परदा दरवाजे में अटका कर रखा होगा वह खटखटाएगी भी नहीं पास की बैरकों के उसके साथी न जाग जाएं इसलिए। वह फूलों से लदे एक चेरी के पेड क़े पास से गुजरी जहां से रोजर की बैरक दस फर्लांग पर थीकि उसे पहली गोली लगी, कन्धों पर वह बाहर निकल आया चीख कर रोकता फैंस के पास अपने पहरा दे रहे साथी को तब तक दूसरी गोली उसका अरमानों भरा सीना चूम चुकी थी। जमीन पर पडे चेरी के फूल लाल हो गए थे खून से।
'' ये क्या किया यह आतंकवादी नहीं मेरी महबूबा है।'' कह कर रोजर ने कनपटी पे गोली चला ली और सना के जिस्म पर जा गिरा। कहते हैं सर, कब्रों के पास लगे पेड क़ी चेरी एक दम खून जैसे सुर्ख रंग की होती हैं।'' नौजवान की आंखों में आंसू थे मानो वह उसकी खुद की प्रेमकहानी हो।
कर्नल हंसराज भी उसके कंधों पर हाथ रख कर बोले, ''ेतुम एक कामयाब टूरिस्ट गाईड बनोगे, इतनी खूबसूरत कहानी गढी है, तुम्हें तो अफसानानिगार होना चाहिए था। तुम्हारी शादी हो गई?''
'' हां सर, चार बच्चे हैं। खर्चा बामुश्किल चलता है।'' उसने सिटपिटा कर कहा।
'' चार बच्चे! तुम्हें देख कर तो कतई ऐसा नहीं लगता।''
'' सर, बचपने में ही निकाह हो गया।''
'' क्या यह दरगाह अन्दर से देख सकता हूँ मैं?'' कह कर उन्होंने जेब से पचास रूपए का नोट निकाल कर उसे दे दिया।
''सर आप तो फौजी हैं, आपको कौन रोकेगा? यहां के लोगों के दिलों को रौंद कर भी गुजर सकते हैं आप तो।'' उसकी आवाज में तल्खी थी। यह तल्खी पचास रूपए के नोट से असंतुष्ट होने की थी या फिर सच में फौज को लेकर थी यह अंदाज लगाना मुश्किल था।
''मैं फौजी था, अब नहीं हूँ।''
'' चलें?''
वे दोनों दरगाह के भीतर थे। शांत, ठण्डी, संगेमरमर की छोटी सी दरगाह।संगमरमर के जालीदार गलियारों के बीचों - बीच सलेटी फर्श वाला अहाता था,अहाते में बीचों - बीच लगा चेरी का पेड सच में सुर्ख चेरी के झुमकों से लदा हुआ था, पेड क़े नीचे का फर्श पर टपके हुए फलों से लाल धब्बों से अंटा था। लोग गिरे हुए फलों को कुचल कर आ - जा रहे थे। पेड की छाया के फैलाव में कोने में संगमरमर के पत्थरों से ढंकी दो मजारें थीं। संगमरमर के पत्थर बाद में मजारों पर मढे ग़ए होंगे क्योंकि उनके सिरहाने लगे समाधि - पत्थर पुराने थे। साधारण लाल पत्थर के, जिन पर गढ क़र, अंग्रेजी में लिखा गया धुंधला - सा कुछ दिखाई दे रहा था। वक्त ने बहुत कुछ मिटा डाला था, मगर एक पर 'एस' और 'ए' तो गढा हुआ दिख रहा था दूसरे में 'आर', 'ओ' और 'आर' अक्षर दिखाई दे रहे थे। बीच के अक्षर मिट चुके थे।
'' यह तो अंग्रेजी में कुछ लिखा है।''
'' तभी तो साहब हम कहते हैं ये सूफियों की मजारें नहीं। मगर ये सूफी लोग कहते हैं कि ये अंग्रेजी नहीं, अरबी की कोई मिटी हुई इबारत है।'' वह फुसफुसाया।चेरी का पेड और यह समाधि- पत्थर!

कर्नल हंसराज को बुरी तरह झुरझुरी आ गई। ये तो साशा और रोवर की कब्रें थीं! वे अचकचा कर अपने चारों तरफ देखने लगे। श्रध्दा से भरे लोगों को हैरानी से देखने लगे। उन्हें लगा कि उनके भीतर बर्फानी लहर दौड रही है और उनके वजूद को सुन्न करती जा रही है। दो दरवेश, दो दीवाने प्रेमी!
कव्वाली शुरु हो चुकी थी भीड बढने लगी थी।
_ जाहिद ने मेरा हासिले इमां नहीं देखा
इस पर तेरी जुल्फ़ों को परीशां नहीं देखा
एक भारी, उदास आवाज और कुछ पतली खिली आवाज़ों का कोरस, बादलों से भरी दोपहर में पहाडों से टकरा कर एक तिलिस्म बुन रही थी। नीचे घास पर नन्हें फूल खुशहाली का पता दे रहे थे तो ऊपर आकाश में उडता हुआ, चौकसी करता सीमा सुरक्षा बल का हेलीकॉप्टर एक बहुत - बहुत कडवी सच्चाई की तरह आंखों में गड रहा था _ हम दरख्तों, कबूतरों, नदियों और हवाओं की तरह बेलौस और बेखौफ नहीं। हम अपने - अपने खौफ़ के गुलाम हैं।
वे एक ठण्डी संगमरमर की बैंच पर बैठ गए, तेज - तेज ठण्डी सांसे लेने लगे।आस - पास बैठे व्यक्तियों को देखा। एक तरफ बुरके में अधेड ज़नाना बैठी थीं,हाथ में सबीह के मनके फेरतीं। उनके ठीक सामने, एक जवान जोडा गुफ्तगू में तल्लीन था। किसी को क्या कहें? कहें भी कि ना कहें। कौन मानेगा उनकी? मान भी लिया तो बहुतों की श्रध्दा पर भीषण तुषारापात होगा। बेचैनी से वे अपना सीना मलने लगे। खुद को शांत करने की कोशिश में।

उनके जहन में थे, विस्फोटकों को सूंघकर उनका पता देते साशा और रोवर। सैंकडों जिन्दगियां बख्शते वे दो सुन्दर काले लेब्राडोर कुत्ते। उन्हें उनकी प्रेमिल अठखेलियां याद आ गईं, सुबह पांच बजे महेश कैम्प के अहाते में उन्हें खोल दिया करता था। अभ्यास से पहले वे गोल - गोल एक दूसरे के पीछे दौडते हुए खेलते थे, घास में लोटते, प्यार भरी गुर्राहटों से अहाता गुंजा देते। उसके बाद शुरु होता था विस्फोटकों के साथ उनका वह 'हाइड एण्ड सीक' (लुकाछिपी) का अभ्यास। जिसे वे खेल समझते थे वह मौत का ताण्डव था, यह वे मासूम कहां जानते थे।
क्यों कहें किसी से कुछ भी। कोई जरूरत नहीं है। क्या यह सच नहीं कि साशा - रोवर सच में दो अनूठे प्रेमी थे! और क्या वे धर्म, प्रतिष्ठा, धन और शक्ति के मोह के आगे प्रेम और वफादारी को तरजीह देने वाले दरवेश नहीं थे? क्या हुआ जो वे इन्सान नहीं थे, मगर उनके जीवन और मृत्यु दोनों इन्सानों को पाठ नहीं पढा गए?
उन्होंने पास के एक माला वाले से दो गहरे रंगो के गुलाबों की माला ली, और उन दो मज़ारों की तरफ बढ ग़ए।

मनीषा कुलश्रेष्ठ
नवंबर 26, 2007

हिजडे

हिजडे
शादी के वक्त राहुल के पिताजी ने सामान की एक लंबी लिस्ट लडक़ी के पिता के आगे रख दी थी । एक पल के लिए तो लडक़ी के पिता चौंके थे। कहीं भीतर से उन्हें सब कुछ भुरभुराता सा लगा। लेकिन अगले ही पल उन्हें लगा जमाना बदल गया है। आज के वक्त में इन सब चीजों की कीमत ही क्या है। और फिर उनके पास पैसे की क्या कमी है। सब कुछ बेटी के सुख के लिए ही तो देना है। बात लडक़ी तक भी पहुंची थी। उसने पिता की आंखों में देखा। पिता मुस्करा दिए '' लडक़ी वालों को यह सब करना ही पडता है।''
शादी के बाद कितने ही तीज त्यौहार। सास ससुर खुले मुंह मांगते चले गये थे और लडक़ी के पिता लडक़ी के सुख के लिए सब कुछ देते चले गये।लडक़ी को सुख तो मिला किन्तु खुशी उसके चेहरे से गायब हो गई थी। एक उदासी थी जो उसके भीतर पसरती चली गई।आज पिता इस मकाम पर कैसे पहुंचे वह बचपन से देखती चली आ रही है। कितनी मेहनत की है उन्होंने। ससुराल वाले उसे जीवन भर के लिए रखने का मुआवजा ले रहे हैं क्या?
इस बार तो फोन सीधे ही पिताजी के पास चला गया था जगननाथ जी लडकी के पहले करवाचौथ पर तो लडकी को जितना दे डालो कम होता है। बस रमन की मां की तो इतनी इच्छा है कि सोना चांदी तो बहुत हो गया। अब तो हीरे के दो चार सैट हो जाएं तो बिरादरी में नाक भी ऊंची हो जाएगी और फिर हो सकता है हीरे के घर में पवेश करते ही परमात्मा घर में पोता दे दे।बहुत शुभ माना जाता है हीरा तो।
यह सब तो लडकी को तब पता चला जब घर में सब कुछ आ गया।
आज सुबह दिन निकलने से पहले ही मौहल्ले भर में कोहराम मच गया। रामधन के घर में आग।बहु का कमरा तो धूं धूं करके जल उठा था। लोगों का तांता लग गया।पुलिस और फायर बिगेड वालों को भी इतला दे दी गई थी। मौहल्ले वाले भी आग बुझाने में कसर नहीं छोड रहे थे।
'' बहु जला दी क्या ? '' कितने लोग एक साथ चिल्लाए थे।
तभी बहू का ठहाका सुनाइ दिया था - ''अरे मैं नहीं जलने की।ये जो हिजडे दूसरे के दम पर नाच रहे थे इन्हें जला रही हूं!''
पूरा घर धूं धूं करके जल उठा था।
विकेश निझावन
सितम्बर 1, 2004

हिजाब (कहानी)

हिजाब
पता नहीं कहाँ से नफा नामक चीलर उनके शरीर में प्रवेश कर गया था। वह अपने परिवार के एकछत्र मुखिया थे। कहते हैं चीलर आदमी के पड़ जाए तो आदमी मालामाल हो जाता है या फिर दरिद्र। लेकिन नफा हो या नुकसान चीलर तो हमेशा गन्दगी से ही जन्मता है और वह धन से लबरेज हो जाता है। यह विरोधाभास कैसे ? वह उस गन्दगी से उपजे कीड़े में हमेशा अपने लाभ की सोचते थे। कहते हैं कि फौरी फायदा उन्हें हो भी जाता था। बाद में भले ही नुकसान हो जाता था। लेकिन लाभ की दूसरी युक्ति सोचने से वह नहीं चूकते।
देवरिया में राज नरायण सरकारी मुलाजिम थे। उनको भगवान ने तीन पुत्र दिए। ग्रामीण मानसिकता में लड़के की आवाज फूटी नहीं लड़की वाले आने लगते हैं। आपसी कहा-कही में बतियाते हैं 'लड़का जवान हो रहा है'। उनके यहाँ भी आने लगे थे। बार-2 की असमय बरदेखुवासी से उनकी पत्नी आजिज आ गयी। संकोच हटा दिया था पत्नी ने, अबहीं शादी न किहल जाई, कुछु पढ़ल-लिखल जरूरी बा न। राज नरायण के नायकत्व का भाव सिर चढ़कर बोलता। 'बउरही नफा की सोचल कर-नफा, बम्बईया पार्टी हौ, बिजनिस करेलन खूब लिहल-दिहल करिहैं। और तुहूं त पतोहिया से हाथ-गोड़ मिसवइबू।' कहकर शरारत भरी मुस्कान मार दिए थे। इतनी सी बात पर भी वह लजा सी जाती थी। ऐसा पुरबिया लोगों का अनुभव कि कलकत्ता वाले हो या बम्बई वाले बिन मांगे घर हमेशा भरते रहते हैं। उनके रिश्तेदारों-पट्टीदारों के अनुभवों से उनमें ऐसी अवधारणा बन चली थी।
पहलौठी की औलाद हो या बड़ी बहू का बड़ा प्यार-दुलार, मान-सम्मान होता है। बार-बार की अवनी-पठौनी में भी बहू को गौने जैसा ही बिदाई-मिलना मिलता है। राज नरायण का बेटा किसी का दामाद था। दामाद बेहिल्ले का हो तो बेटी के पिता के लिए इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है ? आवारा निकम्मा होता देख बहू के पिता ने नौवीं पास दामाद को बम्बई में कई जगह नौकरी दिलाई। दामाद में ड्राइंग का हुनर इतना काबिले-तारीफ था कि इसी बल पर बहुत जगह नौकरी लगी। परन्तु दामाद को जो मजा मेहरारू के जांघ में और महतारी के कोरा में,खटने में कहाँ। ''राज नरायण का बेटा जब भी बम्बई से लौटता तो अगाध प्रेम की रट, 'हे माई जब सोइले तब तू सपना में आवेलू ऐही खातिर नौकरी छोड़ के चल अइनी', कहते-कहते माँ की गोद में सिर रख ऑंचल से चेहरा ढ़ंक लेता। माँ भी भाव-विभोर, निश्छल प्रेम जान वह कह उठती, 'जाएदा, जैसे कुल्हिन बड़न तुहूं के खियाइब-पहिराइब। अपढ़ माँ की अनुकम्पा उसे अव्वल दर्जे का आवारागर्द और गैर जिम्मेदार बना रही थी। राज नरायण सोचते यदि बहू पढ़ी-लिखी होती तो उनके लड़के को समेट लेती। यह सोच भी उनकी अपनी नहीं थी। वह तो कुछ उच्च-शिक्षित नाते-रिश्तेदारों की सीख थी जो उन्हें सोचने पर मजबूर कर रही थी।
सोच लिया था जब तक दूसरा बेटा नौकरी-चाकरी न करेगा, तब तक ब्याह न करूँगा। नहीं तो पहले वाले की तरह बेटा, बहू और साथ में दो-दो बच्चे भी पालूं।
राज नरायण के पास खाली वक्त की कमी नहीं थी। उन्हीं घड़ियों में वह सोचते और भय भी खाए रहते, कहीं यह नफा सोच का चीलर नौकरीशुदा दूसरे नम्बर के लड़के में न पड़ गया हो। इसलिए वह इस बार बड़े ही सजग और सतर्क होकर अपने दूसरे बेटे के शादी सम्बन्धी अभियान में सरक रहे थे। वह दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था। इस बात से डरे रहते कहीं उसे उनका भी बाप मिल गया और फुसला लिया तो ? उनकी सारी की सारी पिलानिंग धरी की धरी रह जायेगी। उन्होंने पूरी नाते-रिश्तेदारी में फैला दिया था इस जुमले के साथ, 'अब हम दुसरका के शादी करब, निक पढ़ल लिखल लड़की होवे क चाहीं, साथे म उहौ चाही.....।'
किसी का भी लड़का सरकारी नौकरी में हो तो लड़की वाले टूट ही पड़ते हैं यह बहुत पुराना चलन है। वह बातचीत से लड़की के पिता का स्टैण्डर्ड भाँप लेते, चतुर सुजान जो ठहरे। उसी के अनुसार आवभगत करते। जहाँ जान लेते बात आगे नहीं बढ़ेगी, उसे गुड़-पानी ही पिलाकर भेज देते। रोज अपनी डायरी में नोट करते मिठाई-मठरी का खर्चा। पत्नी के आगे बड़बड़ाते, 'मय सूद के वसूलूंगा'। एक से एक रिश्ते आने लगे थे। वह हर आवन रिश्ते का ब्यौरा बेटे तक पहुंचाना अपना फर्ज समझते थे।
ऐसी रूढ़ि कि सच्चा पत्नी धर्म वही होता है जो पति के विचारों को ही अपनी प्रवृत्ति माने। यदि वह अपने विवेक का उपयोग करने या स्वेच्छाचारी बनने की सोची भी तो रानी-महारानी से चाकरनी का दर्जा दे देने की धमकी-धौंस देने से नहीं चूकते। साहस हो या दुस्साहस दोनों के लिए शक्ति सामर्थ्य चाहिए, जिसका कि उनकी मातृविहीन पत्नी में अभाव था। पत्नी में निश्ठा-आस्था चौबिस कैरेट जैसी शुध्दता होनी चाहिए, ऐसी ये आम पतियों की आकांक्षा रहती ही रहती है। इसका पालन उनकी पत्नी बखूबी कर रही थी। वह अपनी शातिर-सोच के चलते पत्नी में विद्रोह-विरोध की भावना को ही नहीं पनपने देते थे। परिवार में अपनी मजबूत स्थिति के चलते यदि अंकुरित होते भी तो फूटने के पहले ही उन्हें भनक लग जाती और वहीं उसे वह मसल कर रख भी देते थे, 'अनपढ़ गंवार दिहातिन'या फिर 'घरे मां रहेलू तू का जाना', के दिल भेदी वाक्य स्वाभिमानी पत्नी को भेद जाते और वह चुप हो जाती।
पत्नी का बड़ा मन था कि रिश्ता वहाँ हो जाए, जहाँ बाप पैट्रोल-पम्प लड़की के नाम लिख रहा है। शर्त यह कि लड़का घरजंवाई रहेगा। पत्नी अपनी दलीलें देती, 'पतोहिया क ह त बेटवा क ह, बेटवा क ह त हमार ह। ऐके पिटिरौल पम्प से हमार ममिया भाय तीन ठौ क लिहलन' त मझिलकौ कै लेई।' राज नरायण पत्नी की इस कुसलाह पर डपटते, 'चुप्प बेकूफ गोसांई के बिटिया हऊ तू, का जाना मनई क नेत। बेटवा ग तौ पम्पवौं गा। अपमान से जन्मी खिसियाहट में वह वहाँ से काम का बहाना करके उठ जाती।
एक दिन राज नरायण की पत्नी बड़ी प्रफुल्लित-उल्लसित सी पति के ऑफिस से आने का इन्तजार कर रही थी। आते ही न चाय न पानी, 'आज हमार भतीज आइल-रहल। कहत-रहल बुआ एगो लड़की बैंक म बा, बाप रिटायर हौ। दहेज ठीक-ठाक मिलिए जाई, काहे कि एक ही बिटिया ओकर बा। यदि नहियो मिल त लड़की सोना का अंडा देय वाली मुर्गी हौ। जब चाहीं तब अंडा मिली।' बात राज नरायण को जम गई थी। यहाँ पर उन्होंने अपनी अन्य अदृश्य शर्तों से समझौता कर लिया था। उन्हें इस बात की पक्की खबर थी कि लड़की वाले सीधे बेटे के पास ही कुण्डली-फोटो लेकर कई बार पहुँच चुके थे। भयभीत राज नरायण शंकाग्रस्त हो उठे कहीं ऐसा न हो शादी में सुस्ती देरी होते देख लड़का ऑफर एक्सेप्ट कर ले। कितनी भी चतुरा होगी बहू या बेकूफ तो भी बहू की कमाई बहू की ही रहेगी। पूत की कमाई तो हमारी ही रहेगी। ना देई त बेटवा के नटई धर के तो लेइब। शादी हो गई, लेकिन मन माफिक विदाई-व्यवहार न पाने की असन्तुष्टि थी। परन्तु पत्नी का ढ़ाढ़स 'सोने का अंडा देय वाली मुर्गी है' ढ़ाढ़स बंधा देता।
शिक्षा इन्सान को जागृत व सभ्य करती है साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ाती है। और तो और मजबूती भी लाती है। पर स्त्रियों के मामले में हमेशा यह सच नहीं होता है। उनकी मझली बहू राज नरायण की मंशा जान गयी थी। उन्होंने अपनी मंशा को क्रियान्वित भी करना शुरु कर दिया था। उसने सभ्य-शिष्ट तरीके से सास की मार्फत अपनी बात कई बार पहुंचायी थी, 'अम्मा हमारे भी खर्चे हैं हमें भी अपने ढ़ंग से जीना है हम आप लोगों की जिम्मेदारी से मुकर नहीं रहे पर हमें भी स्वतन्त्र ढ़ंग से खाने-रहने तो दीजिए।' ऐसी बातें तो राज नरायण को सुनाई ही नहीं पड़ती थी। बहू कामकाजी स्त्री से घरेलू स्त्री बनती जा रही थी या यूं कहें सबल बहू से एक निर्बल बहू जो घर को ही सजाने-सँवारने और शान्ति से रखने को ही अपना धरम मानती। बहू नौकरी छोड़ घरेलू स्त्री बन गयी थी। पति की कमाई पर पूरी तरह निर्भर यानि आत्मनिर्भर से परनिर्भर।
वह यह तो चाहते थे बहू स्वावलम्बी तो रहे पर स्वतन्त्र न रहे। पाबन्दी का कोड़ा मेरे हाथ में रहे। उनकी रायशुमारी जाने बिना ही, बेटे की मौजूदगी में बहू का नौकरी छोड़ना, उन्हें लगा जैसे आसमान से नीचे गिर पड़े हों। उन्हें शत-प्रतिशत यही अनुमान हो चला था। पढ़ी-लिखी लड़की ने मेरे भोले बेटे पर अपना माया-चक्र चला दिया था। नहीं तो क्या मजाल बेटा बहू के सुर में सुर मिलाए।
यह नफा नामक चीलर उनकी प्लानिंग पर पानी फेर गया था। चीलर भी किसी को मालामाल करते हैं सिवा कंगाली के। लेकिन यह लोगों के खुशफहमी में जीने की कल्पना है। जब कभी विवेक जागता तो मन को धिक्कारते। कीचड़ में कमल खिलता है, कमल, पर लक्ष्मी जी का वास है, यानी कि पैसा। अरे यह सब पुराणों की ही शोभा बढ़ाता है।
लेकिन अभी तक नफा नामक चीलर की उम्मीद उन्होंने नहीं छोड़ी थी। उनकी आशा तीसरा बेटा जो ठहरा। पत्नी भी साथ छोड़ चली। अकेला असहाय बुढ़ापा कैसे निबटेगा यही सोच उन्हें यानि राज नरायण को परेशान किए जा रही थी। तिकड़मी दिमाग में फितरतों की बाढ़ आने लगी थी। उसकी कई धाराओं में इसी धारा में उनकी बहने की इच्छा और जरूरत उन्हें सटीक लगी थी। पेनशन है ही कोई स्वजातीय गरीब कन्या मिल जाती तो अच्छा था। अन्यथा विजातीय ही हो परन्तु हो गरीब ताकि निठल्ले बेटे-बहू पर पेनशन का और मेरा दबदबा रहे नहीं तो इस बुढ़ापे में मेरी क्या अहमियत ? बेटे के बेकारीपन की वजह थी। अचानक बेकारी, बेकारी से काम फिर अनएम्प्लायमेन्ट। रोजगार की अस्थिरता उसके जीवन में बनी हुयी थी। देवरिया से बाहर उसे वह भावनात्मक दबाव डालकर जाने नहीं देते थे। ऐसे में आय और व्यय में बहुत उतार-चढ़ाव आते रहने से मितव्ययिता और सूझ-बूझ से खर्च करने की उसकी आदत छूट गयी थी। अच्छे दिनों में भी जब पुन: रोजगार मिल जाता है तो नियन्त्रित तरीके से धन खर्च करने की आदत छू-मन्तर हो जाती। बेरोजगारी के दिनों में जिन बचनाओं को सहना करना पड़ता उसकी तो मनोवैज्ञानिक रूप से क्षतिपूर्ति निरन्तर उन मानसिक मरीचिकाओं से होती, जी भर कर ऐश करते समय जिनके साथ वह अपने होने की कल्पना करता। अन्तत: ऐसी स्थिति में उनके तीसरे बेटे का पूरे माह का वेतन एक सप्ताह में ही समाप्त हो जाता था। फिर वह अपने कहलाऊ पिता राज नरायण पर आश्रित हो जाता। उसकी इस आदत पर उन्होंने न कभी टीका टिप्पणी ही की नाही नाराज-एतराज किया।
सफेदपोश राज नरायण को इस बात की भनक लग गयी थी। उनका बेटा खूबसूरत जवान महरिन पर मर रहा था। मन को समझा लेते, बाहर मौज-मस्ती करेगा तो बदनामी होगी। चारदिवारी में कौन जान पायेगा। नाक भी बची रहेगी। इश्क-मुश्क की गन्ध-सुगन्ध कहाँ कैद रह सकती थी। बात मुहल्ले में फैलने लगी थी। बेटा को समझाया, महरिन को डपटा पर सब बेअसर ही रहा। बुढ़ापे में अन्दर ही अन्दर भय भी खाते थे। कहीं बेटा नाराज हो गया तो और और वह काम छोड़ गयी तो सब से हाथ धोएंगे। अलग हुयी बड़ी बहू ने नसीहत भी दी थी, 'बाबू रउवा हमरे चूल्हा मा खाना खांई, छोड़ी उनहन के बड़ बदनामी होखऽऽऽत। बाद म आप ही के पोता-पोती के बियाहे म दिक्कत होई। खबर लगने पर दूसरे बेटे की बहू ने भी अपने तरीके से समझाया था, 'बाबू जी शादी-ब्याह में धन-पैसे, जाति-धर्म का स्तर ना सही परन्तु शिक्षा का स्तर तो देखना ही चाहिए। घर में एक भी अशिक्षित सदस्य हो, वह भी परम्परा वाहक हो तो सोचिए आगे का भविश्य कैसा होगा ? परन्तु उन्हें ऐसी गूढ़ बातें निजी फायदे के आगे कहां समझ में आती। दोनों बेटा-बहू के भारी विरोध के बावजूद विजातीय गरीब, अशिक्षित मजदूर कन्या को बहू स्वीकार लिया था। कन्या भी मन-तन से मालामाल हो गयी थी और मजदूरी से भी छुटकारा मिला था। राज नरायण भी सन्तुष्ट हो गये थे। सुश्रुषा को कन्या रूपी बहू जो मिल गयी थी। अपने से भिन्न जाति की निर्धन लड़की स्वीकारी थी, कुल का नाम दिया था, वह कृतज्ञता के बोझ तले दबी रहेगी तभी तो उनकी हेकड़ी चलती रहेगी।
अशक्त बुढ़ापा इन्सान में निराशा भरने लगता है। निराशा ज्यादा दिन साथ निभा दे तो हताशा घर करने लगती है। राज नरायण इससे अछूते नहीं थे। समय गुजरने के साथ-साथ तीसरा बेटा भी दो बच्चों का पिता बन गया था। राज नरायण की चिन्ता दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। बुदबुदाते, ' मैं अस्सी पचासी के बीच रन कर रहा हँ, मेरे बाद इस अलहदी बेटे के बच्चों का क्या होगा, जो अभी अबोध असहाय हैं।
उन्होंने हमेशा ही लाभ का सरल शार्टकट ढूंढ़ा था। दोनों बेटे-बहुओं की उपेक्षा से उनका शरीर दुगुने वेग से छीज रहा था। उन्हें अब अपनी जिन्दगी में ज्यादा गुंजाइश नहीं महसूस हो रही थी। नजदीक रहता बेटा उन्हें अब बोझ लगने लगा था। पोतों का बोझ उन्हें तोड़ रहा था। मरने के पहले कुछ उपाय कर लेना चाहते थे। फिर वही सरल और निर्मम रास्ता सूझ गया था। अति फिक्रमन्दी से जर्जरित काया में ताप घर कर गया था। दोनों न सही एक ही पोता कोई गोद ले लेता तो राहत मिलती। मेरे मरने के बाद तंगहाली में बहू खून-पसीना करने लगेगी तो यदि कहीं मासूमों को भी इसी में लगा दिया तो उनका भविष्य , यह भीषण समस्या उनके सामने मुँह बाए खड़ी थी। लिहाजा परिचितों शुभचिन्तकों में एक बात चलानी शुरु कर दी थी। उनसे कहते, 'बहुत से नि:सन्तान दम्पति हैं जो लाख उपायों के बावजूद औलाद से महरूम हैं और अनाथालय की बेरहम-उबाऊ प्रक्रिया में वह गुजरने से परहेज तथा अपमान दोनों ही समझते हैं।
वह अलगरजी जरूर थे परन्तु असामाजिक नहीं थे। उन्हीं के एक खास मित्र ने एक नि:सन्तान दम्पति को भेज भी दिया था जो संयोगवश समृध्द भी थे। यह जानकर कि वह ठाठ वाले हैं, नफा का चीलर फिर कुलबुलाने लगा था। मन ही मन गणित बैठाने लगे थे। पोते के बदले कुछ चल-अचल मिल जाता तो मेरा वर्तमान-बेटे का भविष्य निश्चिंत हो जाता। लेकिन चौथेपन की लाचारी ने आत्मविश्वास डिगा दिया था। जर्जर काया मन को धिक्कारती मांगूंगा नहीं उनके द्वारा अस्वीकार की स्थिति में मित्रों के मध्य बदनामी और बेरुखी दोनों का सामना करना पड़ सकता था। जीवन के अन्तिम समय में कलंक की सोच रूह कांप उठी थी। कभी भी सिर से पानी ऊपर न गया था। हमेशा ढ़ँकी-तोपी में जी आए थे। अब भी कुछ-कुछ वैसी ही युक्ति सोच रहे थे।
सभ्य सुशील एक जोड़ा उनके सबसे छोटे पोते, जो मात्र छह माह का था, को पसन्द कर गये थे। उन्होंने बड़े पोते को सयाना मान अस्वीकार कर दिया था। एक सप्ताह बाद मय तैयारी के साथ आने की बात कर गये थे। एक पखवाड़ा बीत गया। नहीं आए। चिन्ता स्वाभाविक थी। दौड़े-लपके, गये परिचित के यहाँ। जो सुना उससे अवसन्न से हो गये थे और मित्रों को जब पता चलेगा तो उघाड़ हो जाऊँगा।
वह बेटे की नग्नता की थर्राहट से क्रोधाग्नि मे जल रहे थे। सोचा कहीं क्रोध में मामला हाथ से न निकल जाए। वह बेटे को समझाने की मुद्रा में बोले, लेकिन आवाज की तल्खी पर नियंत्रण न रख पाए थे, 'नीच कमीने तुम्हारा जीवन तो नहीं सुधरेगा पर अपने जन्मे की तो सोच, उसकी जिन्दगी बन जायेगी। तू गया और दो लाख की डिमान्ड कर आया। कहता है मैं अपना बच्चा भी दूँ, और कुछ नफा भी न हो, अबे गधे फौरी नफा की क्यों सोचता है।'
'बाबू जी कल किसने देखा है। नियति बदलते कितनी देर लगती है, अपने खून का भी भरोसा नहीं करना चाहिए।' बेटे के इस अप्रत्याशित घुड़की भरे जवाब से उन्हें काठ सा मार गया था।

सहज होते ही वह चिन्तन करने लगे थे। पशु भोजन की तलाश तभी करता है जब उसे भूख लगती है। प्रारम्भिक स्थिति के जीवों में आत्मसुरक्षा की भावना अपने निज की रक्षा से आगे नहीं जाती। उनमें आत्म तत्व प्रबल होने के साथ, वे आत्मकेन्द्रित भी होते हैं। दूसरे वर्तमान तक ही सीमित रहते हैं। वे वर्तमान से हटकर किसी भविश्य की कल्पना कर ही नहीं पाते। तो क्या उनका बेटा पशु बनने की राह पर चल रहा था बल्कि जानवर ही हो गया था।
अपना पूरा जीवन-चक्र उन्होंने खंगाल डाला था। उनके ही
हमा-हमी के विचार तो उसमें जड़ें भी गहराई तक समाए हुए थे। बच्चों का अभिभावकों से वैचारिक रूप से मेल खाना शायद यही संस्कार है। बदलते समय में जैसे-जैसे निजत्व की भावना का फैलाव होता गया पारिवारिक व्यवस्था चरमराती गयी। व्यक्ति स्वर्ग से गिरकर नरक में पहुँच रहा है। सीधे शब्दों में कहा जाय तो उनका अपना बेटा ही अपने जन्मे का सौदा कर रहा था। इससे बढ़कर नैतिकता का पतन और क्या हो सकता है। उनकी तरह वह भी निजत्व की भावना से ऊपर नहीं उठ पा रहा था। उन्होंने भी तो पूरे जीवन-काल में यही किया था। तो अब क्यों वह उनका सम्मान करने लगेगा। भावी पीढ़ियां तो अपने हितों की रक्षा करने वाले को नहीं अपितु अपने सुखों का परित्याग करने वालों का आदर करती है तो उन्हें यह मलाल क्यों था कि उनका बेटा अनैतिक-अपराध के गड्ढ़े में जा रहा।
वे नैतिक कंगाली के भंवर में फंस चुके थे। निजात पाना आसान नहीं लग रहा था। यहां से उन्हें सिर्फ डूबना ही दिखाई दे रहा था। वह सोचने से परे की अवस्था में जाना चाहते थे यानि पलायन ताकि भावों की भीतरी तहें षांत हो सकें। कायरों,डरपोकों की भांति जीना और उस पर साहसी-शराफत का लबादा ओढ़े रहना ही उनकी नियति बन चुकी थी।
नीलम शंकर
फरवरी 22, 2008

हिजाब

हिजाब
पता नहीं कहाँ से नफा नामक चीलर उनके शरीर में प्रवेश कर गया था। वह अपने परिवार के एकछत्र मुखिया थे। कहते हैं चीलर आदमी के पड़ जाए तो आदमी मालामाल हो जाता है या फिर दरिद्र। लेकिन नफा हो या नुकसान चीलर तो हमेशा गन्दगी से ही जन्मता है और वह धन से लबरेज हो जाता है। यह विरोधाभास कैसे ? वह उस गन्दगी से उपजे कीड़े में हमेशा अपने लाभ की सोचते थे। कहते हैं कि फौरी फायदा उन्हें हो भी जाता था। बाद में भले ही नुकसान हो जाता था। लेकिन लाभ की दूसरी युक्ति सोचने से वह नहीं चूकते।
देवरिया में राज नरायण सरकारी मुलाजिम थे। उनको भगवान ने तीन पुत्र दिए। ग्रामीण मानसिकता में लड़के की आवाज फूटी नहीं लड़की वाले आने लगते हैं। आपसी कहा-कही में बतियाते हैं 'लड़का जवान हो रहा है'। उनके यहाँ भी आने लगे थे। बार-2 की असमय बरदेखुवासी से उनकी पत्नी आजिज आ गयी। संकोच हटा दिया था पत्नी ने, अबहीं शादी न किहल जाई, कुछु पढ़ल-लिखल जरूरी बा न। राज नरायण के नायकत्व का भाव सिर चढ़कर बोलता। 'बउरही नफा की सोचल कर-नफा, बम्बईया पार्टी हौ, बिजनिस करेलन खूब लिहल-दिहल करिहैं। और तुहूं त पतोहिया से हाथ-गोड़ मिसवइबू।' कहकर शरारत भरी मुस्कान मार दिए थे। इतनी सी बात पर भी वह लजा सी जाती थी। ऐसा पुरबिया लोगों का अनुभव कि कलकत्ता वाले हो या बम्बई वाले बिन मांगे घर हमेशा भरते रहते हैं। उनके रिश्तेदारों-पट्टीदारों के अनुभवों से उनमें ऐसी अवधारणा बन चली थी।
पहलौठी की औलाद हो या बड़ी बहू का बड़ा प्यार-दुलार, मान-सम्मान होता है। बार-बार की अवनी-पठौनी में भी बहू को गौने जैसा ही बिदाई-मिलना मिलता है। राज नरायण का बेटा किसी का दामाद था। दामाद बेहिल्ले का हो तो बेटी के पिता के लिए इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है ? आवारा निकम्मा होता देख बहू के पिता ने नौवीं पास दामाद को बम्बई में कई जगह नौकरी दिलाई। दामाद में ड्राइंग का हुनर इतना काबिले-तारीफ था कि इसी बल पर बहुत जगह नौकरी लगी। परन्तु दामाद को जो मजा मेहरारू के जांघ में और महतारी के कोरा में,खटने में कहाँ। ''राज नरायण का बेटा जब भी बम्बई से लौटता तो अगाध प्रेम की रट, 'हे माई जब सोइले तब तू सपना में आवेलू ऐही खातिर नौकरी छोड़ के चल अइनी', कहते-कहते माँ की गोद में सिर रख ऑंचल से चेहरा ढ़ंक लेता। माँ भी भाव-विभोर, निश्छल प्रेम जान वह कह उठती, 'जाएदा, जैसे कुल्हिन बड़न तुहूं के खियाइब-पहिराइब। अपढ़ माँ की अनुकम्पा उसे अव्वल दर्जे का आवारागर्द और गैर जिम्मेदार बना रही थी। राज नरायण सोचते यदि बहू पढ़ी-लिखी होती तो उनके लड़के को समेट लेती। यह सोच भी उनकी अपनी नहीं थी। वह तो कुछ उच्च-शिक्षित नाते-रिश्तेदारों की सीख थी जो उन्हें सोचने पर मजबूर कर रही थी।
सोच लिया था जब तक दूसरा बेटा नौकरी-चाकरी न करेगा, तब तक ब्याह न करूँगा। नहीं तो पहले वाले की तरह बेटा, बहू और साथ में दो-दो बच्चे भी पालूं।
राज नरायण के पास खाली वक्त की कमी नहीं थी। उन्हीं घड़ियों में वह सोचते और भय भी खाए रहते, कहीं यह नफा सोच का चीलर नौकरीशुदा दूसरे नम्बर के लड़के में न पड़ गया हो। इसलिए वह इस बार बड़े ही सजग और सतर्क होकर अपने दूसरे बेटे के शादी सम्बन्धी अभियान में सरक रहे थे। वह दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था। इस बात से डरे रहते कहीं उसे उनका भी बाप मिल गया और फुसला लिया तो ? उनकी सारी की सारी पिलानिंग धरी की धरी रह जायेगी। उन्होंने पूरी नाते-रिश्तेदारी में फैला दिया था इस जुमले के साथ, 'अब हम दुसरका के शादी करब, निक पढ़ल लिखल लड़की होवे क चाहीं, साथे म उहौ चाही.....।'
किसी का भी लड़का सरकारी नौकरी में हो तो लड़की वाले टूट ही पड़ते हैं यह बहुत पुराना चलन है। वह बातचीत से लड़की के पिता का स्टैण्डर्ड भाँप लेते, चतुर सुजान जो ठहरे। उसी के अनुसार आवभगत करते। जहाँ जान लेते बात आगे नहीं बढ़ेगी, उसे गुड़-पानी ही पिलाकर भेज देते। रोज अपनी डायरी में नोट करते मिठाई-मठरी का खर्चा। पत्नी के आगे बड़बड़ाते, 'मय सूद के वसूलूंगा'। एक से एक रिश्ते आने लगे थे। वह हर आवन रिश्ते का ब्यौरा बेटे तक पहुंचाना अपना फर्ज समझते थे।
ऐसी रूढ़ि कि सच्चा पत्नी धर्म वही होता है जो पति के विचारों को ही अपनी प्रवृत्ति माने। यदि वह अपने विवेक का उपयोग करने या स्वेच्छाचारी बनने की सोची भी तो रानी-महारानी से चाकरनी का दर्जा दे देने की धमकी-धौंस देने से नहीं चूकते। साहस हो या दुस्साहस दोनों के लिए शक्ति सामर्थ्य चाहिए, जिसका कि उनकी मातृविहीन पत्नी में अभाव था। पत्नी में निश्ठा-आस्था चौबिस कैरेट जैसी शुध्दता होनी चाहिए, ऐसी ये आम पतियों की आकांक्षा रहती ही रहती है। इसका पालन उनकी पत्नी बखूबी कर रही थी। वह अपनी शातिर-सोच के चलते पत्नी में विद्रोह-विरोध की भावना को ही नहीं पनपने देते थे। परिवार में अपनी मजबूत स्थिति के चलते यदि अंकुरित होते भी तो फूटने के पहले ही उन्हें भनक लग जाती और वहीं उसे वह मसल कर रख भी देते थे, 'अनपढ़ गंवार दिहातिन'या फिर 'घरे मां रहेलू तू का जाना', के दिल भेदी वाक्य स्वाभिमानी पत्नी को भेद जाते और वह चुप हो जाती।
पत्नी का बड़ा मन था कि रिश्ता वहाँ हो जाए, जहाँ बाप पैट्रोल-पम्प लड़की के नाम लिख रहा है। शर्त यह कि लड़का घरजंवाई रहेगा। पत्नी अपनी दलीलें देती, 'पतोहिया क ह त बेटवा क ह, बेटवा क ह त हमार ह। ऐके पिटिरौल पम्प से हमार ममिया भाय तीन ठौ क लिहलन' त मझिलकौ कै लेई।' राज नरायण पत्नी की इस कुसलाह पर डपटते, 'चुप्प बेकूफ गोसांई के बिटिया हऊ तू, का जाना मनई क नेत। बेटवा ग तौ पम्पवौं गा। अपमान से जन्मी खिसियाहट में वह वहाँ से काम का बहाना करके उठ जाती।
एक दिन राज नरायण की पत्नी बड़ी प्रफुल्लित-उल्लसित सी पति के ऑफिस से आने का इन्तजार कर रही थी। आते ही न चाय न पानी, 'आज हमार भतीज आइल-रहल। कहत-रहल बुआ एगो लड़की बैंक म बा, बाप रिटायर हौ। दहेज ठीक-ठाक मिलिए जाई, काहे कि एक ही बिटिया ओकर बा। यदि नहियो मिल त लड़की सोना का अंडा देय वाली मुर्गी हौ। जब चाहीं तब अंडा मिली।' बात राज नरायण को जम गई थी। यहाँ पर उन्होंने अपनी अन्य अदृश्य शर्तों से समझौता कर लिया था। उन्हें इस बात की पक्की खबर थी कि लड़की वाले सीधे बेटे के पास ही कुण्डली-फोटो लेकर कई बार पहुँच चुके थे। भयभीत राज नरायण शंकाग्रस्त हो उठे कहीं ऐसा न हो शादी में सुस्ती देरी होते देख लड़का ऑफर एक्सेप्ट कर ले। कितनी भी चतुरा होगी बहू या बेकूफ तो भी बहू की कमाई बहू की ही रहेगी। पूत की कमाई तो हमारी ही रहेगी। ना देई त बेटवा के नटई धर के तो लेइब। शादी हो गई, लेकिन मन माफिक विदाई-व्यवहार न पाने की असन्तुष्टि थी। परन्तु पत्नी का ढ़ाढ़स 'सोने का अंडा देय वाली मुर्गी है' ढ़ाढ़स बंधा देता।
शिक्षा इन्सान को जागृत व सभ्य करती है साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ाती है। और तो और मजबूती भी लाती है। पर स्त्रियों के मामले में हमेशा यह सच नहीं होता है। उनकी मझली बहू राज नरायण की मंशा जान गयी थी। उन्होंने अपनी मंशा को क्रियान्वित भी करना शुरु कर दिया था। उसने सभ्य-शिष्ट तरीके से सास की मार्फत अपनी बात कई बार पहुंचायी थी, 'अम्मा हमारे भी खर्चे हैं हमें भी अपने ढ़ंग से जीना है हम आप लोगों की जिम्मेदारी से मुकर नहीं रहे पर हमें भी स्वतन्त्र ढ़ंग से खाने-रहने तो दीजिए।' ऐसी बातें तो राज नरायण को सुनाई ही नहीं पड़ती थी। बहू कामकाजी स्त्री से घरेलू स्त्री बनती जा रही थी या यूं कहें सबल बहू से एक निर्बल बहू जो घर को ही सजाने-सँवारने और शान्ति से रखने को ही अपना धरम मानती। बहू नौकरी छोड़ घरेलू स्त्री बन गयी थी। पति की कमाई पर पूरी तरह निर्भर यानि आत्मनिर्भर से परनिर्भर।
वह यह तो चाहते थे बहू स्वावलम्बी तो रहे पर स्वतन्त्र न रहे। पाबन्दी का कोड़ा मेरे हाथ में रहे। उनकी रायशुमारी जाने बिना ही, बेटे की मौजूदगी में बहू का नौकरी छोड़ना, उन्हें लगा जैसे आसमान से नीचे गिर पड़े हों। उन्हें शत-प्रतिशत यही अनुमान हो चला था। पढ़ी-लिखी लड़की ने मेरे भोले बेटे पर अपना माया-चक्र चला दिया था। नहीं तो क्या मजाल बेटा बहू के सुर में सुर मिलाए।
यह नफा नामक चीलर उनकी प्लानिंग पर पानी फेर गया था। चीलर भी किसी को मालामाल करते हैं सिवा कंगाली के। लेकिन यह लोगों के खुशफहमी में जीने की कल्पना है। जब कभी विवेक जागता तो मन को धिक्कारते। कीचड़ में कमल खिलता है, कमल, पर लक्ष्मी जी का वास है, यानी कि पैसा। अरे यह सब पुराणों की ही शोभा बढ़ाता है।
लेकिन अभी तक नफा नामक चीलर की उम्मीद उन्होंने नहीं छोड़ी थी। उनकी आशा तीसरा बेटा जो ठहरा। पत्नी भी साथ छोड़ चली। अकेला असहाय बुढ़ापा कैसे निबटेगा यही सोच उन्हें यानि राज नरायण को परेशान किए जा रही थी। तिकड़मी दिमाग में फितरतों की बाढ़ आने लगी थी। उसकी कई धाराओं में इसी धारा में उनकी बहने की इच्छा और जरूरत उन्हें सटीक लगी थी। पेनशन है ही कोई स्वजातीय गरीब कन्या मिल जाती तो अच्छा था। अन्यथा विजातीय ही हो परन्तु हो गरीब ताकि निठल्ले बेटे-बहू पर पेनशन का और मेरा दबदबा रहे नहीं तो इस बुढ़ापे में मेरी क्या अहमियत ? बेटे के बेकारीपन की वजह थी। अचानक बेकारी, बेकारी से काम फिर अनएम्प्लायमेन्ट। रोजगार की अस्थिरता उसके जीवन में बनी हुयी थी। देवरिया से बाहर उसे वह भावनात्मक दबाव डालकर जाने नहीं देते थे। ऐसे में आय और व्यय में बहुत उतार-चढ़ाव आते रहने से मितव्ययिता और सूझ-बूझ से खर्च करने की उसकी आदत छूट गयी थी। अच्छे दिनों में भी जब पुन: रोजगार मिल जाता है तो नियन्त्रित तरीके से धन खर्च करने की आदत छू-मन्तर हो जाती। बेरोजगारी के दिनों में जिन बचनाओं को सहना करना पड़ता उसकी तो मनोवैज्ञानिक रूप से क्षतिपूर्ति निरन्तर उन मानसिक मरीचिकाओं से होती, जी भर कर ऐश करते समय जिनके साथ वह अपने होने की कल्पना करता। अन्तत: ऐसी स्थिति में उनके तीसरे बेटे का पूरे माह का वेतन एक सप्ताह में ही समाप्त हो जाता था। फिर वह अपने कहलाऊ पिता राज नरायण पर आश्रित हो जाता। उसकी इस आदत पर उन्होंने न कभी टीका टिप्पणी ही की नाही नाराज-एतराज किया।
सफेदपोश राज नरायण को इस बात की भनक लग गयी थी। उनका बेटा खूबसूरत जवान महरिन पर मर रहा था। मन को समझा लेते, बाहर मौज-मस्ती करेगा तो बदनामी होगी। चारदिवारी में कौन जान पायेगा। नाक भी बची रहेगी। इश्क-मुश्क की गन्ध-सुगन्ध कहाँ कैद रह सकती थी। बात मुहल्ले में फैलने लगी थी। बेटा को समझाया, महरिन को डपटा पर सब बेअसर ही रहा। बुढ़ापे में अन्दर ही अन्दर भय भी खाते थे। कहीं बेटा नाराज हो गया तो और और वह काम छोड़ गयी तो सब से हाथ धोएंगे। अलग हुयी बड़ी बहू ने नसीहत भी दी थी, 'बाबू रउवा हमरे चूल्हा मा खाना खांई, छोड़ी उनहन के बड़ बदनामी होखऽऽऽत। बाद म आप ही के पोता-पोती के बियाहे म दिक्कत होई। खबर लगने पर दूसरे बेटे की बहू ने भी अपने तरीके से समझाया था, 'बाबू जी शादी-ब्याह में धन-पैसे, जाति-धर्म का स्तर ना सही परन्तु शिक्षा का स्तर तो देखना ही चाहिए। घर में एक भी अशिक्षित सदस्य हो, वह भी परम्परा वाहक हो तो सोचिए आगे का भविश्य कैसा होगा ? परन्तु उन्हें ऐसी गूढ़ बातें निजी फायदे के आगे कहां समझ में आती। दोनों बेटा-बहू के भारी विरोध के बावजूद विजातीय गरीब, अशिक्षित मजदूर कन्या को बहू स्वीकार लिया था। कन्या भी मन-तन से मालामाल हो गयी थी और मजदूरी से भी छुटकारा मिला था। राज नरायण भी सन्तुष्ट हो गये थे। सुश्रुषा को कन्या रूपी बहू जो मिल गयी थी। अपने से भिन्न जाति की निर्धन लड़की स्वीकारी थी, कुल का नाम दिया था, वह कृतज्ञता के बोझ तले दबी रहेगी तभी तो उनकी हेकड़ी चलती रहेगी।
अशक्त बुढ़ापा इन्सान में निराशा भरने लगता है। निराशा ज्यादा दिन साथ निभा दे तो हताशा घर करने लगती है। राज नरायण इससे अछूते नहीं थे। समय गुजरने के साथ-साथ तीसरा बेटा भी दो बच्चों का पिता बन गया था। राज नरायण की चिन्ता दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। बुदबुदाते, ' मैं अस्सी पचासी के बीच रन कर रहा हँ, मेरे बाद इस अलहदी बेटे के बच्चों का क्या होगा, जो अभी अबोध असहाय हैं।
उन्होंने हमेशा ही लाभ का सरल शार्टकट ढूंढ़ा था। दोनों बेटे-बहुओं की उपेक्षा से उनका शरीर दुगुने वेग से छीज रहा था। उन्हें अब अपनी जिन्दगी में ज्यादा गुंजाइश नहीं महसूस हो रही थी। नजदीक रहता बेटा उन्हें अब बोझ लगने लगा था। पोतों का बोझ उन्हें तोड़ रहा था। मरने के पहले कुछ उपाय कर लेना चाहते थे। फिर वही सरल और निर्मम रास्ता सूझ गया था। अति फिक्रमन्दी से जर्जरित काया में ताप घर कर गया था। दोनों न सही एक ही पोता कोई गोद ले लेता तो राहत मिलती। मेरे मरने के बाद तंगहाली में बहू खून-पसीना करने लगेगी तो यदि कहीं मासूमों को भी इसी में लगा दिया तो उनका भविष्य , यह भीषण समस्या उनके सामने मुँह बाए खड़ी थी। लिहाजा परिचितों शुभचिन्तकों में एक बात चलानी शुरु कर दी थी। उनसे कहते, 'बहुत से नि:सन्तान दम्पति हैं जो लाख उपायों के बावजूद औलाद से महरूम हैं और अनाथालय की बेरहम-उबाऊ प्रक्रिया में वह गुजरने से परहेज तथा अपमान दोनों ही समझते हैं।
वह अलगरजी जरूर थे परन्तु असामाजिक नहीं थे। उन्हीं के एक खास मित्र ने एक नि:सन्तान दम्पति को भेज भी दिया था जो संयोगवश समृध्द भी थे। यह जानकर कि वह ठाठ वाले हैं, नफा का चीलर फिर कुलबुलाने लगा था। मन ही मन गणित बैठाने लगे थे। पोते के बदले कुछ चल-अचल मिल जाता तो मेरा वर्तमान-बेटे का भविष्य निश्चिंत हो जाता। लेकिन चौथेपन की लाचारी ने आत्मविश्वास डिगा दिया था। जर्जर काया मन को धिक्कारती मांगूंगा नहीं उनके द्वारा अस्वीकार की स्थिति में मित्रों के मध्य बदनामी और बेरुखी दोनों का सामना करना पड़ सकता था। जीवन के अन्तिम समय में कलंक की सोच रूह कांप उठी थी। कभी भी सिर से पानी ऊपर न गया था। हमेशा ढ़ँकी-तोपी में जी आए थे। अब भी कुछ-कुछ वैसी ही युक्ति सोच रहे थे।
सभ्य सुशील एक जोड़ा उनके सबसे छोटे पोते, जो मात्र छह माह का था, को पसन्द कर गये थे। उन्होंने बड़े पोते को सयाना मान अस्वीकार कर दिया था। एक सप्ताह बाद मय तैयारी के साथ आने की बात कर गये थे। एक पखवाड़ा बीत गया। नहीं आए। चिन्ता स्वाभाविक थी। दौड़े-लपके, गये परिचित के यहाँ। जो सुना उससे अवसन्न से हो गये थे और मित्रों को जब पता चलेगा तो उघाड़ हो जाऊँगा।
वह बेटे की नग्नता की थर्राहट से क्रोधाग्नि मे जल रहे थे। सोचा कहीं क्रोध में मामला हाथ से न निकल जाए। वह बेटे को समझाने की मुद्रा में बोले, लेकिन आवाज की तल्खी पर नियंत्रण न रख पाए थे, 'नीच कमीने तुम्हारा जीवन तो नहीं सुधरेगा पर अपने जन्मे की तो सोच, उसकी जिन्दगी बन जायेगी। तू गया और दो लाख की डिमान्ड कर आया। कहता है मैं अपना बच्चा भी दूँ, और कुछ नफा भी न हो, अबे गधे फौरी नफा की क्यों सोचता है।'
'बाबू जी कल किसने देखा है। नियति बदलते कितनी देर लगती है, अपने खून का भी भरोसा नहीं करना चाहिए।' बेटे के इस अप्रत्याशित घुड़की भरे जवाब से उन्हें काठ सा मार गया था।

सहज होते ही वह चिन्तन करने लगे थे। पशु भोजन की तलाश तभी करता है जब उसे भूख लगती है। प्रारम्भिक स्थिति के जीवों में आत्मसुरक्षा की भावना अपने निज की रक्षा से आगे नहीं जाती। उनमें आत्म तत्व प्रबल होने के साथ, वे आत्मकेन्द्रित भी होते हैं। दूसरे वर्तमान तक ही सीमित रहते हैं। वे वर्तमान से हटकर किसी भविश्य की कल्पना कर ही नहीं पाते। तो क्या उनका बेटा पशु बनने की राह पर चल रहा था बल्कि जानवर ही हो गया था।
अपना पूरा जीवन-चक्र उन्होंने खंगाल डाला था। उनके ही
हमा-हमी के विचार तो उसमें जड़ें भी गहराई तक समाए हुए थे। बच्चों का अभिभावकों से वैचारिक रूप से मेल खाना शायद यही संस्कार है। बदलते समय में जैसे-जैसे निजत्व की भावना का फैलाव होता गया पारिवारिक व्यवस्था चरमराती गयी। व्यक्ति स्वर्ग से गिरकर नरक में पहुँच रहा है। सीधे शब्दों में कहा जाय तो उनका अपना बेटा ही अपने जन्मे का सौदा कर रहा था। इससे बढ़कर नैतिकता का पतन और क्या हो सकता है। उनकी तरह वह भी निजत्व की भावना से ऊपर नहीं उठ पा रहा था। उन्होंने भी तो पूरे जीवन-काल में यही किया था। तो अब क्यों वह उनका सम्मान करने लगेगा। भावी पीढ़ियां तो अपने हितों की रक्षा करने वाले को नहीं अपितु अपने सुखों का परित्याग करने वालों का आदर करती है तो उन्हें यह मलाल क्यों था कि उनका बेटा अनैतिक-अपराध के गड्ढ़े में जा रहा।
वे नैतिक कंगाली के भंवर में फंस चुके थे। निजात पाना आसान नहीं लग रहा था। यहां से उन्हें सिर्फ डूबना ही दिखाई दे रहा था। वह सोचने से परे की अवस्था में जाना चाहते थे यानि पलायन ताकि भावों की भीतरी तहें षांत हो सकें। कायरों,डरपोकों की भांति जीना और उस पर साहसी-शराफत का लबादा ओढ़े रहना ही उनकी नियति बन चुकी थी।
नीलम शंकर
फरवरी 22, 2008