Thursday, November 26, 2009

समुद्र - एक प्रेमकथा

समुद्र - एक प्रेमकथा
उसने जीवन में कभी समुद्र नहीं देखा था।और देखा तो देखती ही चली गई।अपनी छोटी छोटी लहरों से हाथ हिला हिलाकर पास बुलाता समुद्र, किनारों से टकराता , सिर धुनता , अपनी बेबसी पर मानों पछाड ख़ाता समुद्र और अन्त में सबकुछ लील जाने को आतुर , पागल समुद्र!
उसे लगा, समुद्र तो उसकी सत्ता ही समाप्त कर देगा। वह घबरा कर पीछे हट गई।
लेकिन तब भी समुद्र के अपने आसपास ही कहीं होने का अहसास उसके मन में बना रहा बरसों । उसे लगता अब समुद्र कहीं बाहर न होकर उसके अन्दर समा गया है और वह एक भंवर में चक्कर काट रही है लगातार विवृत्ति उसकी नियति नहीं है।
वह रह रहकर चौंकती। समुद्र उसके आस पास ही है कहीं। वह लौट नहीं आई है और न समुद्र उससे दूर है।
फिर उसने पहचाना , समुद्र भयानक था लेकिन उसका उद्दाम आकर्षण अब भी उसे खींचता है। वह लौटने को बेचैन हो उठी।
उसने खुद को अर्घ्य सासमर्पित करना चाहा।
लेकिन, ज्वार थम गया था। लौटती लहरें उसे भिगोकर किनारे पर ही छोड ग़ईं।उसके पैर कीचड और बालू में सन गए।
समुद्र ने उसे कहीं नहीं पहुंचाया था। बस मुक्त कर दिया था और वह उसके लिए तैयार नहीं थी। मुक्ति का बोध उसे था लेकिन, उसने स्वीकारना नहीं चाहा।अब सचमुच समुद्र उसके अन्दर भर गया था। वह चुपचाप , अकेले में लौटने को बेचैन , रोती बिसूरती, अपने ही अन्दर डूबती उतराती , अपनी विवशता पर पछाड ख़ाती , किनारों से टकरा टकराकर टूटती रही।
फिर एक दिन उसने सुना । समुद्र में फिर तूफान आया थाऔर किसी ने लहरों पर चढक़र उसे भेंट लिया।खुद को समर्पित कर अपनी नियति पा ली।
उसने महसूसा, उसके अन्दर कुछ मर गया।
वह जानती थी, समुद्र में अब कभी तूफान नहीं आयेगा।
इला प्रसाद
अगस्त 1,2005

सयानी बुआ जहानी मन्नू भंडारी

सयानी बुआ जहानी मन्नू भंडारी
सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो कायदे में बंँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता।उसके बाद अन्नू को पढने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अखबार और ऑफिस की फाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपडे बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर कायदे से आकर मेज पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ।
सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।
बचपन में ही वे समय की जितनी पाबंद थीं, अपना सामान संभालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितना कायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पडता था। कहते हैं, जो पेंसिल वे एक बार खरीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नाेंक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में खरीदी थी, उसे नौवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।
उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। उनकी एक-एक बात पिताजी हम लोगों के सामने उदाहरण के रूप में रखते थे जिसे सुनकर हम सभी खैर मनाया करते थे कि भगवान करे, वे ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।
ऐसी ही सयानी बुआ के पास जाकर पढने का प्रस्ताव जब मेरे सामने रखा गया तो कल्पना कीजिए, मुझ पर क्या बीती होगी? मैंने साफ इंकार कर दिया कि मुझे आगे पढना ही नहीं। पर पिताजी मेरी पढाई के विषय में इतने सतर्क थे कि उन्होंने समझाकर, डाँटकर और प्यार-दुलार से मुझे राजी कर लिया। सच में, राजी तो क्या कर लिया, समझिए अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बाध्य कर दिया। और भगवान का नाम गुहारते-गुहारते मैंने घर से विदा ली और उनके यहाँ पहुँची।
इसमें संदेह नहीं कि बुआजी ने बडा स्वागत किया। पर बचपन से उनकी ख्याति सुनते-सुनते उनका जो रौद्र रूप मन पर छाया हुआ था, उसमें उनका वह प्यार कहाँ तिरोहित हो गया, मैं जान ही न पाई। हाँ, बुआजी के पति, जिन्हें हम भाई साहब कहते थे, बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। और सबसे अच्छा कोई घर में लगा तो उनकी पाँच वर्ष की पुत्री अन्नू।
घर के इस नीरस और यंत्रचालित कार्यक्रम में अपने को फिट करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पडा और कितना अपने को काटना-छाँटना पडा, यह मेरा अंतर्यामी ही जानता है। सबसे अधिक तरस आता था अन्नू पर। वह इस नन्ही-सी उमर में ही प्रौढ हो गई थी। न बच्चों का-सा उल्लास, न कोई चहचहाहट। एक अज्ञात भय से वह घिरी रहती थी। घर के उस वातावरण में कुछ ही दिनों में मेरी भी सारी हँसी-खुशी मारी गई।
यों बुआजी की गृहस्थी जमे पंद्रह वर्ष बीच चुके थे, पर उनके घर का सारा सामान देखकर लगता था, मानाें सब कुछ अभी कल ही खरीदा हो। गृहस्थी जमाते समय जो काँच और चीनी के बर्तन उन्होंने खरीदे थे, आज भी ज्यों-के-त्यों थे, जबकि रोज उनका उपयोग होता था। वेसारे बर्तन स्वयं खडी होकर साफ करवाती थीं। क्या मजाल, कोई एक चीज भी तोड दे। एक बार नौकर ने सुराही तोड दी थी। उस छोटे-से छोकरे को उन्होंने इस कसूर पर बहुत पीटा था। तोड-फोड से तो उन्हें सख्त नफरत थी, यह बात उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। उन्हेंबडा गर्व था अपनी इस सुव्यवस्था का। वे अक्सर भाई साहब से कहा करती थीं कि यदि वे इस घर में न आतीं तो न जाने बेचारे भाई साहब का क्या हाल होता। मैं मन-ही-मन कहा करती थी कि और चाहे जो भी हाल होता, हम सब मिट्टी के पुतले न होकर कम-से-कम इंसान तो अवश्य हुए होते।
बुआजी की अत्यधिक सतर्कता और खाने-पीने के इतने कंट्रोल के बावजूद अन्नू को बुखार आने लगा, सब प्रकार के उपचार करने-कराने में पूरा महीना बीत गया, पर उसका बुखार न उतरा। बुआजी की परेशानी का पार नहीं, अन्नू एकदम पीली पड गई। उसे देखकर मुझे लगता मानो उसके शरीर में ज्वर के कीटाणु नहीं, बुआजी के भय के कीटाणु दौड रहे हैं, जो उसे ग्रसते जा रहे हैं। वह उनसे पीडित होकर भी भय के मारे कुछ कह तो सकती नहीं थी, बस सूखती जा रही है।
आखिर डॉक्टरों ने कई प्रकार की परीक्षाओं के बाद राय दी कि बच्ची को पहाड पर ले जाया जाए, और जितना अधिक उसे प्रसन्न रखा जा सके, रखा जाए। सब कुछ उसके मन के अनुसार हो, यही उसका सही इलाज है। पर सच पूछो तो बेचारी का मन बचा ही कहाँ था? भाई साहब के सामने एक विकट समस्या थी। बुआजी के रहते यह संभव नहीं था, क्योंकि अनजाने ही उनकी इच्छा के सामने किसी और की इच्छा चल ही नहीं सकती थी। भाई साहब ने शायद सारी बात डॉक्टर के सामने रख दी, तभी डॉक्टर ने कहा कि माँ का साथ रहना ठीक नहीं होगा। बुआजी ने सुना तो बहुत आनाकानी की, पर डॉक्टर की राय के विरुध्द जाने का साहस वे कर नहीं सकीं सो मन मारकर वहीं रहीं।
जोर-शोर से अन्नू के पहाड जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के कपडों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपडों की, ओढने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज रखते समय वे भाई साहब को सख्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज खोनी नहीं चाहिए- 'देखो, यह फ्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड दिया तो ठीक न होगा।
प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आईं। वह किस दिन, किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी, क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी इच्छा के अनुसार क्या खाक करेंगे! सब कह चुकीं तो जरा आर्द्र स्वर में बोलीं, 'कुछ अपना भी खयाल रखना, दूध-फल बराबर खाते रहना। हिदायतों की इतनी लंबी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना पडा, 'जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं मानता। हाँ, बिना भूले रोज एक चिट्ठी डाल देना।
आखिर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को खूब प्यार किया, रोई भी। उनका रोना मेरे लिए नई बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखाई देता रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्र्जीव-सी होकर पडी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।
भाई साहब का पत्र रोज आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार रहते थे। बुआजी भी रोज एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों की तारीख में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज पत्र लिखने का कष्ट क्यों करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर पलंग के सामने लटका लें और रोज सबेरे उठकर पढ लिया करें। पर इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।
करीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी बडी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसाई व्यवस्था कुछ शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।
अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे में आकर सोईं, पर सारी रात दु:स्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं। मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पडा था और अपने पूरे वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न में देखाहै कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नाू साथ नहीं है और उनकी ऑंखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पडतीं। मैं तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख्याल से, कुछ बुआजी की यह दशा देखकर बडा दु:खी हो रहा था।
तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बडी व्यग्रता से काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढने लगीं। मैं भी साँस रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर सिर पीटती बुआजी चीखकर रो पडीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने का साहस ही नहीं होता था। ऑंखों के आगे अन्नू की भोली-सी, नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र उठाया। लिखा था-
प्रिय सयानी,
समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह से तुम्हें यह दु:खद समाचार सुनाऊँ । फिर भी रानी, तुम इस चोट को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दु:ख की घडियाँ भी आती हैं, और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना दु:ख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कँ।यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था ...ऑंसू-भारी ऑंखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का समाचार पढ रही थी। मेरी ऑंखें शब्दों को पार करती हुई जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पडी- 'धैर्य रखना मेरी रानी, जो कुछ हुआ उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने वाले हैं।
एक मिनट तक मैं हतबुध्दि-सी खडी रही, समझ ही नहीं पाई यह क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी, मैं जोर से हँस पडी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर वास्तविकता जानकारी बुआजी भी रोते-रोते हँस पडीं। पाँच आने की सुराही तोड देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो

हरिया काका

हरिया काका
सब्जी, फलों और न जाने कितनी चीजों के छोटे-बड़े थैले पीठ पर लादे हरिया काका को दूर से आते देखकर ‘विनी’ और ‘पावस’ खुशी से उछलते उसके पास पहुँच गए। घर के सामने दोनों ओर मुख्य द्वार तक फैले मखमली घास के लॉन के मध्य लाल पत्थरों का लहराता रास्ता बहुत लम्बा नहीं, तो इतना छोटा भी नहीं था कि ‘हरिया काका’ की मुख्य द्वार से घर के बरामदे में पहुँचने तक बच्चे धैर्य से उसकी प्रतीक्षा कर पाते। वे पलक झपकते ही हरिया काका के पास पहुँचे,उसके थैलों को छूते, अपने नन्हें हाथों से थैले पकड़ने को काका पर लपकते,हलचल लिए घर में घुसे और बड़ी जिम्मेदारी-सी ओढ़े काका की पीठ पर लदे थैलों को उतरवाने में मदद करने लगे। हरिया काका दोनों बलाओं को शांति से झेलता हुआ, बीच-बीच में आँखें तरेरता हुआ कि कहीं सामान न बिखर जाए,गुपचुप उन्हें घुड़कता-सा, एक-एक करके बरामदे में सामान से भरे थैलों को फर्श पर जमाने लगा। थोडी ही देर में वहाँ खासा बजार-सा फैल गया। हरिया एक ओर सामान को करीने से रखता, तो विनी और पावस लिफाफों के मुँह खोल-खोल कर,उनमें झाँक कर जाँच-पड़ताल करते। दालों और मसालों के पैकेट उनकी नाक-भौं सिकोड़ने के लिए काफी थे। दोनों को अपने मतलब की कुछ भी चीज अभी तक नहीं मिल पाई थी। तभी हरिया ने जैसे ही फलों के थैले को खोला, दो जोड़ी शरारती आँखें चमक और लोभी से भर उठीं। रसभरे अंगूरों को विनी और पावस मानो अपनी आँखों से ही निगलने को तैयार, अपनी नन्हीं हथेलियों को अधिकाधिक फैला कर उन गुच्छों को मुठ्ठी में भरने के लिए बंदरों की तरह टूट पड़े, पर हरिया काका ने झपट कर अपने भीमकाय पंजे से उनके हाथों की अंगूरों के गुच्छों पर कुछ इस सतर्कता से घेराबंदी की, कि वे दानों अंगूरों का एक भी दाना न ले पाए और न हीं अंगूरों की दुर्गति कर पाए। अपने दूसरे हाथ की तर्जनी से विनी और पावस को प्यार से पाठ पढ़ाते हुए, हरिया काका ने कहा - "क्या सिखाया था माँजी ने, क्या बताया था टीचर जी ने और क्या समझाया था हमने भी, कि बिना धोए कुछ नहीं खाते। दूर हटो दोनों। सब तुम्हारे लिए ही है। पर हम जरा नहला-धुला कर इन्हें साफ कर दें। तब तुम दोनों को इनका भोग लगाएँगे।"
दोनों अंगूरों को नहलाने-धुलाने की बात पर बड़े खिलखिलाए और हरिया काका के सुर में सुर मिलाता पावस बोला - "कौन से साबुन से नहालाओगे, मेरे या विनी के?"
"अरे पावस तूने अपनी बनियान और निकर पलंग के नीचे क्यों फेंक रखी है?"
तभी माँजी खीझ से भरी हुई, धुली बनियान से मिट्टी झाड़ती हुई, बरामदे में आईं तो दोनों भोले से बने उन्हें ऐसे देखने लगे, जैसे उन्होंने कुछ किया ही नहीं। माँजी ने पुनः दोनों को धमकाते हुए कहा -
"क्यों फेंकते हो कपड़े इधर-उधर। निकर तो इतनी दूर पलंग के नीचे, दीवार के पास फेंकी है कि मेरे बस का तो नहीं उसे निकालना।"
पावस नीची नजरे किए हौले से शिकायती स्वर में बोला - "मुझे वो निकर बिल्कुल अच्छी नहीं लगती और बनियान मैंने नहीं फेंका, वो तो अपने आप गिर गया था।"
"तो क्या उठा नहीं सकते थे?" माँजी बडबड़ाई।
पावस अपनी ड्यूटी का हवाला देते हुए बोला - "वो हरिया काका आ गए थे न बाजार से, उन्हें लेने गेट पर जाना था न !"
हरिया काका ने पावस की भोली दलील पर मुस्कुराते हुए, माँजी की उपस्थिति और फटकार का सदुपयोग करते हुए फटाफट सब्जी और फल बड़े भगौने में नल के नीचे लगाकर धोने का आयोजन शुरू कर दिया। जैसे ही माँजी वापस कमरे में मुड़ी, हरिया ने ‘शरीर’ से ‘शरीफ’ बने दोनों बच्चों को एक-एक केला पकड़ा कर कहा - "जाओ, थोड़ी देर में अंगूर और अमरूद धोकर देते हैं। और हाँ, पलंग के नीचे से निकर भी निकालकर जगह पर रखो। न निकले तो हम निकाल देंगे।
आँगन के दरवाजे की कुंडी खड़की तो हरिया काका लपक कर वहाँ पहुँचे। उन्हें पता था कि इस दरवाजे की कुंडी खड़काने वाली रमिया ही होती है, जो रोज माँजी के पैरों पर तेल लगाने आती है और साथ ही अपने और हरिया के छः बच्चों में से किसी एक बच्चे की शिकायत भी अपने पल्लू में बाँध कर लाती है। क्योंकि मालिश करने से पहले वह जब पल्लू के कोने की गाँठ को खोलती, अपने किसी एक बच्चे की शिकायत करनी शुरू करती है तो लगता है वह उस गाँठ में ही बँधी है, जिसे वह खोलते-खोलते पूरी तरह हरिया काका के हवाले कर देती है और गाँठ में से निकली सुपारी को मुँह में रखकर, अपूर्व स्फूर्ति से भर उठती है। फिर तुरंत माँजी के पैरों के पास बैठ कर कटोरी से तेल लगाने में जुट जाती है। हरिया काका बेध्यानी से, लेकिन अपनी पत्नी के डर से ध्यान से सुनने का नाटक करते हुए - अपने बच्चे की शिकायत सुन कर, फिर से घर के कामों मे लीन हो जाते हैं।

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हरिया काका ने पिछले 40 सालों से इस घर का नमक खाया है। जब वे बिजनौर आए, तो इस घर में साहब ने उन्हें ‘भय्याजी’ को गोदी खिलाने और घर के झाड़ू-पोंछे के लिए रखा था, तब उनकी उम्र 15-16 साल रही होगी। वो दिन और आज का दिन वह कभी इस घर से दूर नहीं हुए। कितने मौसम आए और गए, तीज-त्यौहार मनाए, बुजुर्गों का ऊपर जाना और नन्हें-मुन्नों का घर में आना, क्या-क्या नहीं देखा हरिया काका ने ! वे तो मानो इस घर की जड़ों में ऐसे समा गए हैं कि उसकी शाखा, प्रशाखाओं, फूलों, पत्तों और कोपंलों में उनके प्राण बसते हैं। बाबूजी,माँजी, भय्याजी, बहूरानी और उनके नन्हें-मुन्ने सलोने बच्चो तक का सुख-दुख सब उनका है। घर के सभी लोग उन्हें जी भर कर मान-सम्मान और प्यार बख्शते हैं। हरिया काका के बिना वे सब अधूरे से हो जाते हैं। विनी और पावस के लिए तो वह खिलौना भी हैं, तो सीख देने वाले गुरु भी हैं। माँ-बाप, दोस्त, सब कुछ हैं - उन दोनों बच्चों के लिए। दोनों बच्चे अपने वे चुनमुन रहस्य, विशेष बातें, हरिया काका के साथ बाँटते हैं, जिन्हें वे मम्मी-पापा व दादा-दादी से नहीं कह पाते। कभी-कभी तो हरिया काका, विनी और पावस के लिए एक ऐसे महान अनुकरणीय ‘हीरो’ बन जाते हैं कि उनसे काका को अपनी जान छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। हरिया काका की तरह बैठना, उठना, चलना, यहाँ तक कि छुपाकर उनकी रोटी-प्याज और गुड़ भी उक्ड़ू बैठकर उन्हीं के अंदाज में खाना, काका और घरवालों के लिए दुखदायी हो जाता है। काका को बच्चों द्वारा रोटी हजम कर जाना गँवारा है, पर माँजी और बहूरानी से उनकी शिकायत करना जरा भी गँवारा नहीं। खाली चाय पीकर, भूखे पेट बड़बड़ाते काम में लगे रहेंगे, पर मजाल है कि बच्चों के खिलाफ एक भी शब्द उनकी जुबान पर आ जाए। उन्हें जान से प्यारे हैं दोनों बच्चे। दोनों बच्चे ही नहीं, बच्चों के बाप भी। उन्हें भी तो वह सम्हाले-सम्हाले फिरते थे। दो साल के भय्याजी की अँगुली पकड़े-पकड़े, उन्हें घुमाना, घंटों उनके साथ खेल में मस्त रहना। जमाना बीत गया। दो पीढ़ियों को अपनी बाँहों में खिलाया और सुलाया था हरिया काका ने। कभी-कभी तो हरिया काका को लगता कि पिछले जन्मों का जरूर कोई रिश्ता है इस घर से।दो बजे तक हरिया काका को मेज पर दोपहर का खाना लगा देना होता है। बहूरानी, रसोई के कामों में, दाल-सब्जी-रोटी बनाने में सुबह से हरिया काका के साथ लगी रहती हैं। जबकि काका की मन्शा होती है कि बहूरानी इतना काम न करके थोड़ा आराम करें। काका अपने गोल-गोल, फूले-फले फुलकों के लिए दूर-दूर तक रिश्तेदारों में प्रसिद्ध है। बस एक ही काम उन्हें आज तक ठीक से नहीं आया - आम का आचार और मीठी चटनी डालना। एक बार उन्होंने अपना हुनर दिखाने के चक्कर में, किसी को पास नहीं फटकने दिया और आम की मीठी चटनी बोट भर कर डाली। आम कसने से लेकर, गुड़ और मसाले आदि डालकर, पकाने तक-सारा काम यज्ञ की तरह बड़ी सफाई से, बड़े दिल से, स्वयं अकेले ही किया और सब कुछ होम भी कर बैठे क्योंकि कुछ ही दिनों में वह चटनी फफूँद से भरकर उतरने लगी। तब से उन्होंने तौबा कर ली।
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दोपहर के खाने के बाद काका दो-तीन घंटे रामवाड़ी में अपने घर आराम करने,अपने बच्चों के साथ बैठने जाते हैं। शाम को 5 बजे धीरे-धीरे सुस्त चाल से आते काका को देखकर बहूरानी अक्सर हँसती हुई कहती कि - "अम्मा जी देखिए तो जरा, हरिया काका चल रहे हैं या सो रहे हैं।"
यह बात तो शत-प्रतिशत सही है कि हरिया काका शुरू से ही सुस्त किस्म के इन्सान रहे हैं। बड़े ही आराम से धीरे-धीरे काम करना उनकी अच्छी आदत है या खराब, पर उनसे चटर-पटर तुरत-फुरत काम नहीं होता। उनकी रमिया उनके ठीक विपरीत ‘तीर’ की तरह आती और जाती है और घंटों के काम मिनटों में कर हरिया काका की सुस्त चाल के लिए उन्हें दो-चार तीखी बातें कह, उन्हें भुन-भुना कर चली जाती है।
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छन्न से ड्रॉइंगरूम में कुछ गिरने की आवाज आई। विनी का चाइनीज गुलदस्ते पर गलती से हाथ लगा और वह लुढकता हुआ फर्श पर जाकर छनछना कर चकनाचूर हो गया। अंदर वाले कमरे से माँजी झुँझलाई सी बोलीं-
"क्या तोड़ डाला, अरे दुष्टों?"
बहूरानी अपने कमरे से दौड़ी हुई ड्रॉइंगरूम में आईं, तो उस अनमोल, नाजुक गुलदस्ते को चूर-चूर हुआ देख एक पल को जैसे सदमाग्रस्त-सी हो गईं। फिर गुस्से में भर कर बोलीं - "यह कैसे गिरा ? किसने तोड़ा ?"
तुरंत हरिया काका नीची निगाह किए अपराधी का-सा भाव ओढ़ कर बोल उठे- "बहूरानी हम मेज साफ कर रहे थे कि हमारा हाथ लग गया और हमारे सँभालते-सँभालते भी नीचे गिर गया।"
विनी-पावस सहमे से कभी काका को, कभी टुकड़ों में विकीर्ण गुलदस्ते को, तो कभी गुलदस्ते के टूटने से आहत अपनी माँ की टुकुर-टुकुर देखे जा रहे थे। काका का इतना बड़ा झूठ बोलना उनकी समझ से परे था; पर दोनों को और विशेष रूप से असली अपराधी विनी को बड़ा अच्छा लगा कि काका ने डाँट पड़ने से और शायद एक-दो चपत से भी उसकी रक्षा कर ली थी। वैसे डाँट-फटकार हरिया को भी पड़ी, माँजी की और बहूरानी की भी, किंतु बड़े अनुपात में और बड़ी ही शालीनता से। बहूरानी के जाते ही काका ने विनी को खामोश बैठे रहने का इशारा करके सारा काँच समेटा। विनी भी अति आज्ञाकारी बनी हुई अपने लटके पैरों को सोफे पर समेट कर बैठ गयी। तभी चिंतनशील मुद्रा में बैठा पावस एकाएक लपक कर हरिया के पास जाकर उनके कान में हौले से बोला -
"अगर मम्मी ने मुझसे पूछा, तो मैं भी यही बोलूँ कि गुलदस्ते पर विनी का नहीं काका का हाथ लगा था ?"
पावस की इस भोली उलझन पर मन-ही-मन हँसते हुए काका ने तुरंत आँखें फैलाकर उसे धमकाया कि - "चुप रहो! हमें झूठा बनवाओगे क्या? बड़े आए विनी के हाथ की शिकायत करने वाले! ये तुम्हारा वाला हाथ लग जाता तो क्या तुम तुरंत बता देते? बहन को डँटवाओगे क्या?"
पावस भोलेपन से नकारात्मक सिर हिलाता, काका की बातों को ध्यानपूर्वक मन में उतारता, काँच के टुकड़ों को उठाने में मदद करने के लिए जैसे ही तत्पर हुआ उसे काका की एक और घुड़की मिली -"अब तुम अपना हाथ काटोगे, खून निकालोगे क्या? हटो, परे हटो!"
बड़े प्यार से काका की डाँट खाकर दोनों बच्चे उसे श्रद्धा से ऐसे देखने लगे, जैसे भक्तजन रक्षक भगवान को देखते हैं।

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आज जुड़वा भाई-बहन का जन्मदिन है। विनी, पावस से 15 मि. बड़ी है और वह अक्सर पावस को, लड़ाई-झगड़ा होने पर, अपने 15 मि. बड़े होने का एहसास कराया करती है किंतु वह 15 मि.‘छोटा’ कभी उसका रौब नहीं खाता। सुबह से घर में चहल-पहल और-क्रिया-कलापों का अनवरत सिलसिला चल रहा है। नौ बजे से हवन आरंभ होने पर, तदनन्तर उसकी समाप्ति पर रिश्तेदारों और अतिथियों को प्रसाद देते व जलपान कराते-कराते हमेशा 1 तो बज ही जाता है।
शाम को दोनों भाई-बहन के दोस्तों की पार्टी का आयोजन होता है। हरिया काका मेहमानों को खिलाते-पिलाते, कमरे व बरामदे के काने-कोने से बर्तन समेटते उन्हें धोते-पोंछते, बिना थके काम में पिले पड़े हैं। वे दोनों बचें के लिए भेंट लाए हैं, उसे तो वह शाम की पार्टी में ही देंगे। हवन में तो बच्चों के मुँह में लड्डू देकर, सिर पर हाथ फेर कर, ढेर आशीष देना, उनका हमेशा का नियम रहा है। अपने उपहार तो वह ‘लाल’ कागज में लपेट कर, रिबिन से बाँध कर, पार्टी वाले अंदाज में, सब बच्चों के सामने क्रिसमस बाबा की तरह विशेष ढंग से लाकर, विनी और पावस के सामने इस तरह से पेश करते हैं कि सारे बच्चे उत्सुकता से उन्हें घेर कर खड़े हो जाते हैं कि ‘देखें, काका ने इस बार क्या दिया है ?’
देखते-ही-देखते शाम हो गई और पार्टी के लिए ड्रॉइंगरूम पूरी तरह सज-सँवर गया। विनी और पावस भी अपनी-अपनी नई पोशाकें पहन कर तैयार हो गए। एक-एक करके बच्चों का भी आना शुरू हो गया। हरिया काका ने भी शाम को नीली कमीज, झक सफेद पायजामा पहन कर, बाल बनाकर, नन्हें मेहमानों के स्वागत व विनी-पावस को भेंट अर्पण हेतु स्वयं को सँवार लिया। तभी ड्रॉइंगरूम में केक काटने की तैयारी में बच्चों को समेटती बहूरानी की पुकार सुनकर काका,माँजी, बड़े साहब, भय्याजी सभी कमरे में जा पहुँचे। विनी और पावस ने समान जोश और जोर से मोमबत्तियों को फूँक मारी और दो मोमबत्तियों की ‘लौ’ को सफाई से दिप-दिपाते छोड़, अपने नन्हें हाथों से, रिबिन और गोटे से सजी छुरी से केक काट कर, स्वयं जोर- जोर से ताली बजाना शुरू कर दिया। उनकी मित्रसेना ने उनकी तालियों का अनुसरण करते हुए कमरे को ‘हैपी बर्थडे’ की गूँज से भर दिया। माँजी, बड़े साहब, बहूरानी, भय्याजी ने बारी-बारी से दोनों बच्चों का मुख चूमते हुए, सिर पर हाथ फेरकर ढेरों आशीष बरसाते हुए अपने उपहार दिए। फिर भी विनी-पावस अपनी जगह से टस-से-मस नहीं हुए। उनकी नजरे हरिया काका को उनकी भेंट के साथ खोजने में लग गईं। काका भी उनसे पीछे नहीं थे। बड़े अनूठे ढंग से थाली में सजीला कपड़ा और फूल बिछाकर, उसमें दो लाल पैकेट रखे, वें दोनों के पास आ खड़े हुए और सभी बच्चे केक से ज्यादा काका की भेंट में रुचि रखने के कारण उचक-उचक कर देखने लगे कि काका इन पैकेटों में से क्या निकालकर देंगे विनी और पावस को! काका ने हौले से एक पैकेट का रिबिन खोला और पैकेट विनी के सामने सरका कर कहा - "इसे अब तुम खोलो बिटिया।"
विनी ने गर्व से सब बच्चों की ओर देखा और लाल कागज का एक सिरा खोला,फिर मुस्कराहट रोकते हुए, पास खड़ी सहेली से आँखें मिलाईं और कागज का दूसरा सिरा भी उघाड़ा; पास खड़े बच्चों की नजरें कागज को भेदती हुईं अंदर छुपे उपहार पर गड़ गईं। इतने में विनी ने उसे खटाक से कागज से बाहर निकाला और सबको ऐसे दिखाया जैसे लॉन टैनिस का खिताब जीकर, खिलाड़ी अपनी शील्ड को सारे दर्शकों को दिखाती है। खुद ने देखा नहीं कि क्या है - दोस्तों को दिखाने का चाव अधिक हावी था उस पर। पुस्तक का शीर्षक था - "रामायण पर आधारित बालकथाएँ।" सारे बच्चे लपक कर, उसे विनी के हाथ से छीनकर देखने को उतावले होने लगे कि तभी हरिया काका के गुरू गंभीर स्वर ने सबको सचेत किया -
"सब बच्चे लोग देखो, अब पावस के पैकेट से क्या निकलता है।"
पावस ने ज़िद करी कि वह रिबिन भी अपने आप ही खोलेगा। उसने दोस्तों का ध्यान अपने पर केंद्रित करने के लिए, खूब आराम से रिबिन खोला; फिर चारों ओर सब पर नजर घुमाई। सब बच्चों की नजरें पावस की नजरों से मिलीं और जैसे बोलीं - "जल्दी से दिखाओ न क्या है पैकेट में?" पावस ने भी विनी की तरह अपने पैकेट का एक-एक कोना बड़े सलीके से पकड़ते हुए लाल कागज के अंदर से, अपनी भेंट को एक झटके से बाहर निकालकर, चूमकर, सचिन तेंदुलकर के अंदाज में एक हाथ से ऊपर उठाकर सारे दोस्तों को, एक महान क्रिकेट खिलाडी के अंदाज में दिखाया। उस पुस्तक पर शीर्षक था "महाभारत पर आधारित बालकथाएँ !" उसके पास खड़े बच्चे, पावस की पुस्तक पर लपकने लगे कि देखें कैसी कहानियाँ हैं, तस्वीरे भी बनी हैं क्या अंदर? पर रिफलैक्स एक्शन के लिए तैयार हरिया काका ने दोनों बच्चों की मार्गदर्शक मूल्यवान कथा-पुस्तकों कों अपनी कस्टडी में लेकर बच्चों को खाने-पीने, नाच-गाने में लगा दिया।

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अगले दिन सवेरे चाय पीते समय माँजी और बहूरानी हरिया काका की सूझ-बूझ की तारीफ करते हुए उनसे पूछने लगीं -
"तुम्हें बच्चों के लिए इतनी अच्छी भेंट का विचार कैसे सूझा?"
हरिया काका कुछ खुश होते, कुछ लजाते, अपने को काम में उलझाते हुए बोले - "अरे हमें कौन सुझायेगा। ये दोनों शरारती बच्चे ही हमारी सूझ-बूझ हैं। दोनों बड़े सयाने हैं। बड़ी-बड़ी बातें सोचते हैं। तरह-तरह के सवाल करते हैं हमसे। इसलिए हमने सोचा कि अब यह इनके दिल-दिमाग को ढालने की उमर है - इसीलिए ऐसी भेंट दी जाए, जो इन्हें अच्छी बातें सिखाए।"
बहूरानी और माँजी उस शिक्षा-दीक्षा रहित, पर पढ़े-लिखे को भी मात देने वाले बुद्धिमान, समझदार हरिया का मुँह ताकती रह गईं।

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माली छुट्टी पर गया था। बगीचे में आम और कटहल लदे थे। माली आए तो उन्हें तुड़वाकर कुछ मिलने वालों के घर और बाकी की बाजार में सवेरे नीलामी करायी जाए। पर न जाने वह सात दिन बीत जाने पर भी क्यों नहीं आया?इसलिए हरिया काका को बड़े साहब और भय्याजी का आदेश मिला कि वह अगले दिन सवेरे छः बजे तक आम और कटहल तुड़वाकर बाजार में देकर आए। यह सुनते ही काका का दिमाग सटक गया। वे दबी-दबी आवाज में बुदबुदाने लगे-
"क्या हम माली हैं? वो गैरजिम्मेदार, मक्कार नंबर एक, काम के बखत न जाने कहाँ गायब हो गया। अब उसका काम भी हम पर ही आन पड़ा। कल को कहेंगे - जमादार नहीं आया - उसका काम भी हरिया तुम ही कर लो।"
गुस्से में भरा हरिया रात का काम निबटा कर चला गया। माँजी, बहूरानी सबने उसके तने तेवर भाँप लिए थे। जाते-जाते हरिया माँजी से बोला -" सवेरे-सवेरे आँख खुलीं तो हम आयेंगे वरना देखी जायेगी।"
सवेरा हुआ तो क्या देखते हैं कि हरिया काका तड़के चार बजे से लग्गी लेकर आम और कटहल तोड़ने में जो लगे तो छः बजे तक सानियों को लाकर, उनके टोकरों में आम और कटहल भरवा कर मंडी में बेच भी आए। मिलनेवालों के लिए अच्छे आम और कटहल छाँटकर अंदर बरामदे में रख दिए। मंडी से आकर बड़े साहब और भय्याजी को हिसाब भी दे दिया।
बरामदे में मूढ़े पर बैठी माँजी ने चाय की चुस्की भरते हुए, मुस्कराहट छिपाते हुए जब हरिया से पूछा - "कि तू तो आने ही वाला नहीं था शायद इतने तड़के। फिर यह सब कैसे इतनी जल्दी इतना सब कर डाला हरिया ?"
तो हरिया काका किला जीतने के भाव से भरे बोले - "अरे माँजी, आज तलक क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप लोगों में से कोई हमें कुछ ‘आदेस’ दे और हम न मानें। भले ही हमें अच्छा लगे या न लगे पर इस ‘मन’ का क्या करें, यह आप लोगों का ‘आदेस’ माने बिना चैन से बैठता ही नहीं। अब क्या बताऊँ माँजी। रात करवटें बदलते बीती और जब 4 बज गया तो रुका ही नहीं गया। जब काम करना है तो करना है।"
माँजी कहीं खोई-सी बोलीं- "हरिया तेरे बिना, इस घर का क्या होगा? कैसे चलेगा ?"
"अरे माँजी! आप भी कैसी भाका बोल रहीं हैं? भला हम कहाँ जा रहे हैं? यहीं जियेंगे, यही मरेंगे।"
हरिया काका माँजी को आश्वस्त करते बड़े प्यार से बोले।

हरिया काका यूँ तो कभी बीमार नहीं पड़ते थे। पर कभी एक दो बार बुखार खाँसी ने उन पर हमला करने की जुर्रत भी की तो वह अपने कामों से तब भी पीछे नहीं हटे। एक बार जाड़े में उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। स्वेटर, मफलर,कोट अपने पर मढ़े, वे आठ बजे घने कोहरे को चीरते आ पहुँचे अपनी ड्यूटी बजाने। उन्हें आज भी याद हैं कि भय्याजी ने डाँटते हुए कहा था-
"क्या जरूरत थी बुखार में आने की? अगर तबियत और अधिक बिगड़ गई तो?"
हरिया काका के मुँह से एकाएक निकल पड़ा था - "तबियत तो और अधिक बिगड़ जाती, अगर घर पर पड़े रहते। यहाँ आए हैं तो, बुखार भाग जायेगा और काम में मन भी लगा रहेगा। और जब मन चंगा, तो तन भी चंगा आपो आप हुई जायेगा।"यह सुनकर भय्याजी बड़बड़ाते चले गए थे - "ये और इनकी अनोखी दलीलें। इनसे तो कुछ भी कहना बेकार है।"
वाकई शाम तक देखते-ही-देखते काका का बुखार 101.0 से 99.0 आ गया था। अदरक और तुलसी की चाय पी-पीकर बच्चों-बहूरानी और माँजी से बतिया-बतिया कर उन्होंने अपना इलाज कर ही लिया था, अगले दिन पूरी तरह स्वस्थ हो गए थे। पर अपने कामों से बुखार के दौरान तनिक भी अलग नहीं हुए। हालांकि उनकी यह आदत घर भर में किसी को भी नहीं भाती थी पर वे अपनी जिद्द के पक्के थे।
आज 70 वर्ष के हरिया काका लकवे के कारण, अपने आधे बेजान शरीर से मजबूर खटिया पर पड़े रहते हैं। इस उम्र में भी अपने बेटे, बहुओं और पत्नी रमिया की सेवा से उनमें इतनी ताकत तो आ गई हैं कि वे धीरे-धीरे उठ बैठ जाते हैं। विनी-पावस भी बड़े हो गए हैं। पढ़-लिखकर सैटिल हो गए हैं। साहब भगवान को प्यारे हो चुके हैं।
कोई पल ऐसा नहीं होता जब हरिया काका अपने बीते दिनों, विनी और पावस, बड़े साहब, माँजी, भय्याजी और बहूरानी, उस घर को, उसकी दीवारों को, उस आँगन को याद न करते हों और ये न मनाते हों कि "हे प्रभु! अगले जनम में भी बड़े साहब और माँजी, उनके बच्चों और बच्चों के बच्चों की सेवा का मौका देना।"
जब भी भय्याजी, बहूरानी, विनी और पावस, काका को देखने बस्ती में जाते हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता। "काका कैसे हो?" सुनने पर प्रेमविभोर कृतज्ञता से भरी उनकी छल-छलाई आँखें न जाने क्या-क्या बोलने लगती ।
-दीप्ति गुप्ता
अप्रेल 30, 2008
हाइड एण्ड सीक
उस जन्नत की तरह खूबसूरत शहर तक पहुंचने में वे उत्सुकता और बेचैनी भरी प्रतीक्षा को महसूस करना चाहते थे इसलिए घरवालों और परिचितों के बहुत मना करने के बावजूद उन्होंने अकेले और सडक़ के रास्ते से होकर, खुद अपनी गाडी चला कर वहां तक जाना तय किया था। वे बरसों बाद एक बार फिर रास्तों के साथ चलती नदियों से मिलना चाहते थे। रंग बदलते चिनारों से बात करना चाहते थे।
राजनैतिक और सामरिक नीतियों के चलते, इन नौ - दस सालो के दरम्यां इन रास्तों में बहुत कुछ फेर - बदल हो चुका था। ठीक एक खूबसूरत बच्चे के गालों की तरह, जो ज्यादा रोने से गंदला से जाते हैं, यह शहर भी गंदला गया था। मगर वे गाल गंदले होकर भी लगते उतने ही खूबसूरत हैं। छोटे - छोटे उदास मलिन गांवों के बाहर उगे बागों में चेरी के पेडों ने हल्की पीली - गुलाबी चेरियों के झुमके पहन लिए थे। अखरोटों के जगंल फलों से लदे गुनगुना रहे थे। मेहनतकश मधुमक्खियां जंगली सफेद गुलाबों से रस बटोर कर अपने छत्ते भर रही थीं, आने वाली सैनिकों और श्रमिकों की नस्ल के लिए। छोटे - छोटे झरने ठिठक कर बह रहे थे। मगर चिनार गुम - सुम उदास खडे थे, हर पचास कदम पर खडे सीमा सुरक्षा बल के सैनिकों की बन्दूकों से सहमे।
तराई से पहाडों की तरफ बढते हुए, तमाम रास्ते उन्हें अलमस्त यायावर मिलते रहे। आतंक से बेखौफ, पहाडी ख़ानाबदोश। जो गर्मियां शुरु होते ही, अपने भेड - बकरियों के रेवड क़ो ऊंचाइयों की तरफ, हरी चराई के लिए ले जाते हैं। उनके साथ होता है, उनका राशन - पानी और चाय - कहवा बनाने का साजो - सामान और कुछ - कुछ रूसी समोवार जैसी समोवार। एक - दो बार उन्होंने बीच - बीच में जीप रोकी और, मक्खन डली नमकीन चाय पीने के लालच में भेड क़ी तरह गंधाते उन खानाबदोशों के साथ जा बैठे थे। चाय के उसी चिरपरिचित स्वाद के साथ उन्होंने महसूस किया कि ये मंजर बदल जरूर गये हैं, मगर विकास के कुछ पैबन्दों से भी इन रास्तों का पुरानापन नहीं मिटा है।
प्राकृतिक संपदा से समृध्द इस प्रदेश के मेहनतकश, संर्घषशील लोगों के हिस्से में हमेशा से एक ही चीज आई थी वह थी _ बदहाली ।यह बदहाली उनकी जिन्दगी का अभिन्न हिस्सा थी, हाड - तोड मेहनत उनके जीने का तरीका था, लुटते चले जाना उनकी नियति और गैरों पर विश्वास एक दर्शन। मगर यह जो हताशा भरी बदहाली जो आज लोगों के चेहरे पर नुमायां थी, वह उनके हाथों से कुदाल और पैरों के नीचे से धान के टुकडा - टुकडा खेत छीन लिए जाने की थी। वे हाथ कुदाल गिरा चुके थे, मगर बन्दूक पकडने से कतरा रहे थे, इसलिए उनके घर टूटे थे और बच्चे भूखे थे। जिन हाथों में ग्रेनेड थे, बन्दूकें थीं उनके घर पक्के हो रहे थे।
मुस्कानें बस अबोध बच्चों के चेहरों पर थी। वयस्कों के चेहरे पर चुप्पा सा गुस्सा,नपुंसक विरोध, आतंक पसरा था। औरतों की सुन्दर आंखें इतनी सफेद और उजाड थीं कि सपनों तक ने उगना बन्द कर दिया था। वहां हसीन मर्ग नहीं थे, वहां तो वेदना, पीडा, घृणा के झाड - झंखाड थे। घृणा किससे? आतंकवादियों से, व्यवस्था से, सेना से? उन्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं था। कोई उनके साथ नहीं था और उनके खुद के बस में कुछ नहीं था। टूरिस्ट बसों पर ग्रेनेड फेंके जाने का सिलसिला नया शुरु हुआ था। और वे खुद नहीं जानते थे कि उनकी रोजी - रोटी में ये बारूद कौन घोल रहा है।
लेफ्टिनेंट कर्नल हंसराज बहुत बरसों बाद लौट रहे थे, इस शहर की ओर, इस प्रदेश में। जब वे मेजर थे, तब वे यहां तैनात थे। उन तीन सालों में बहुत कुछ घटा था, उनके बाहर भी और भीतर भी। वक्त ने स्मृतियों पर अतीत के अटपटे खुरंट जमा दिए थे। वे उस समय से जुडा हुआ, लगभग सब कुछ भूल जाने की कोशिश कर चुके थे, लेकिन खुरंटों के नीचे के घाव थे कि कभी - कभी टीस जाते थे। देह जब यात्राएं कर रही होती है, आस - पास की तो मन सुदूर की यात्राएं कर रहा होता है। देह जिन पक्के रास्तों पर गुजरती है, वे रास्ते तो फरेब होते हैं,मगर मन जिनपर गुजर रहा होता है वे पगडण्डियां शाश्वत होती हैं, कभी नहीं मिटती।
वे तो एक यायावरी के लिए निकले थे। माना यायावरी दिशाहीन होती है, मगर अवचेतन ने ये कौनसी दिशा तय कर दी थी कि वे यहां फिर लौट कर आने को उत्सुक हो गए थे! स्तब्ध, मलिन कस्बे और शहर, पीली सरकारी इमारतें और खूबसूरत मगर तन्हा और उदास रास्ते, सर झुकाए खडे चिनार, बलत्कृत झीलें,ठिठक कर बहते झरने अब तक उनके साथ साथ चल रहे थे। वे हल्के भय को थामे, पूरे दैहिक और मानसिक संतुलन के साथ अपनी गाडी चला रहे थे मगर अचानक उनकी खामोशियों के झुरमुटों के पीछे आवाजों के पंछी हल्के - हल्के पंख फडफ़डाने लगे। _ 'कमॉन इण्डिया जीत के आना है।' के स्लोगन्स की धूम,र्वल्ड कप का शोर। उनसे मुखातिब उनके अधीनस्थ अफसर की हताशा से भरी आवाज _ '' सर, क्या आप ऐसे बैट्स मेन की कल्पना कर सकते हो, जिसे फास्ट बोलिंग झेलने के लिए हेलमेट, ग्लव्ज और पेड्स के साथ खडा दिया गया है मगर उससे बैट वापस ले लिया गया है? रोज बम शैलिंग से गांव के गांव रिफ्यूजी कैम्पों में तब्दील हो रहे हैं मगर हमें पलटवार की इजाजत नहीं। क्यों सर क्यों?''
बेस युनिट से उनके बॉस की भर्राई आवाज _ '' एक - एक करके अब तक 400शहीदों को यहां से विदा कर चुका हूँ, जिन्होंने अपने परिवारों से वादा किया था कि वे वापस लौटेंगें। उन्होंने इसे निभाया है। वे एक आम आदमी की तरह गए थे,मगर महानायकों की तरह लौट रहे हैं।तरंगों में लिपटे और 'ताबूतों' में बन्द। इन महानायकों की उम्र 19 से 35 के बीच थी। दिल्ली जाकर जिन्हें मिला 'शोक शस्त्र'फेयरवेल सेल्यूट! लोह - सैनिकों की ऊपर उठी हुई बन्दूकों की खामोश वेदना,उन बन्दूकों की बैरल का उलटाना सीने के करीब लगाया जाना, एकसाथ कई सरों का झुक जाना 30 सैकण्ड का पथरीला मौन और फिर उनके मृत सीनों पर सेना के सर्वोच्च अधिकारियों, साथियों के चढाए गए रजनीगंधा और गेंदों के'रीथ'(शवों पर चढाई जाने वाली विशिष्ट गोल माला)। फिर एक कामरेड की देख - रेख में, इनकी अपने घरों की ओर अंतिम यात्रा।''
हवाओं की सरसराहट में वे मौसम बदलने की आहट सुन पा रहे थे। बदलते मौसम के इस बेपनाह सौन्दर्य में इतनी उदासी क्यों घुली है? हर अतीव सुन्दरता की तरह यह भी अभिशप्त क्यों है? इस अभिशप्त सुन्दरता की जीवन्त उदासी से खामोशी के झुरमुटों के पीछे की आवाजों की फडफ़डाहट स्थगित हो गयी।
'ठहरो - हिन्दुस्तानी साबमेरी भेडें ड़र जाऐंगी।' एक पतली आवाज उसे मुखातिब थी। एक मोड पर हाथ हिला - हिला कर एक दस साल का सुन्दर मुखडाउसे रोक रहा था। उसकी भेडें रास्ते पर बिखर गईं थीं और उन्होंने वह ढलवां, संकरी - सी,सडक़ पूरी की पूरी घेर ली थी। इस मासूम को किसने समझाया यह सम्बोधन?किसने बोया होगा इस सरल मन में इस विभेद का बीज?
आज इस दस साल के लडक़े के मुंह से 'हिन्दुस्तानी' सुन कर, उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने उन्हें दूसरी शिकस्त दी हो। बरसों पहले की, वह पहली शिकस्त उन्हें बखूबी याद है।
वे तबादले पर वहां पहुंचे ही थे। इस राज्य के दूरस्थ इलाके, जो 1971 के युध्द के बाद भारत का हिस्सा बन चुके थे, सेना द्वारा चलाए गए 'आपरेशन मित्रता' केन्द्र बिन्दु थे। लाइन ऑफ कन्ट्रोल से कुछ किलोमीटर दूर, एक महत्वपूर्ण पोजिशन की सतर्क चौकसी के साथ - साथ उन्हें इस ऑपरेशन की भी कमान संभालने को मिली थी। उन्होंने अपनी युनिट की सारी ऊर्जा 'ऑपरेशन मित्रता' में झौंक डाली थी। वे स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से यहां स्कूल और अस्पताल खुलवा रहे थे। आतंकवाद की चपेट में आए स्थानीय लोगों को पुर्नस्थापित करने में उनके सैनिकों ने हरसंभव सहायता की थी। धमाकों में अपाहिज हुए लोगों को कृत्रिम अंग लगवाए गए थे। मगर फिर भी यहां के निवासी आतंकवादियों और घुसपैठियों को हर संभव सहायता और आश्रय दिया करते थे। इन इलाकों के असहयोगी माहौल में विश्वसनीयता हासिल करना क्या आसान काम था? पूरा साल वे स्थानीय निवासियों के साथ फौज के सम्बन्ध सुधारने पर एडी से चोटी तक काजोर लगाते रहे। उन्हें लगता था कि एक दिन वे इन स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल करने में सफल होंगे मगर आज से लगभग नौ साल पहले, ऐसे ही तो बसन्त की शुरुआत थी, ऐसे ही फूल खिले थे जब हमारे प्रधानमंत्री लाहौर में शांति वार्ता में अपनी नितांत भारतीय नीतियों की दार्शनिक व्याख्या कर रहे थे अपने परमाणविक शक्तिधारक दुश्मन के समक्ष।
बिलकुल ऐसे ही दिनों में एक साधारण अभ्यास की तरह बर्फीली चोटियों पर सर्दी खत्म होने के बाद सेना की पहली पेट्रोलिंग टीम दुर्गम उंचाइयों पर चढी थी। चार जवानों और एक युवा अधिकारी की ये टुकडी अचानक बर्फीली उंचाइयों पर से गायब हो गई थी। हालांकि वे उनकी यूनिट के नहीं थे किसी और रेजिमेन्ट के ये पांच फौजी पेट्रोलिंग के लिए निकले थे। वे महीना भर लापता रहे। जब उनके शव मिले, तब पता चला कि बर्फीली उंचाइयों में छिपे बैठे घुसपैठियों ने उन्हें कैद कर लिया और उस पार ले गए जहां उन्हें यंत्रणाएं देकर मारा गया, उनके शरीरों पर सिगरेट से जलाने के निशान थे, उनकी सिर की हड्डियां टूटी हुई थीं, कान के पर्दे गर्म रोड डाल कर फाड दिए गए थे, आंखें निकाल ली गई थीं। पर यह बात उन्हें खटकी थी कि ऐसे अनुभवहीन युवा अधिकारी को पेट्रोलिंग के लिए बिना तहकीकात किए क्यों भेजा गया था और उसका शव घर पर उसकी पहली या दूसरी तन्ख्वाह के चैक के क्लियर होने से पहले ही पहुंच गया था इस बात को लेकर उन्होंने उच्चधिकारियों से जिरह की थी। मगर उन्हें चुप करवा दिया गया।उनका और उनकी यूनिट के जवानों का 'ऑपरेशन मित्रता' से धीरे - धीरे मोहभंग होता जा रहा था। वे यह जान गए थे उनके धैर्य को उनकी कमजोरी माना जा रहा है।
सरासर ध्यान भटकाने वाली गतिविधियां जारी थी। यहां विस्फोट, वहां नर - संहार।
एक रात उन्हें अपने विश्वसनीय मुखबिर से पता चला था कि एन् उनकी नाक के नीचे आतंक सांसे ले रहा है, और वे सरासर बारूद के एक बडे ढ़ेर पर बैठे हैं।अगले ही दिन जहाज से उनके पास एक 'स्निफर डॉग स्क्वाड' ( खोजी और गश्ती कुत्तों का दस्ता) आ गयी थी। 'ऑपरेशन मित्रता' के सैनिकों के उन हाथों में फिर बन्दूक आ गयी थी, जिनसे वे स्थानीय निवासियों की सहायता करते थे।
''इन खोजी कुत्तों के बिना यहां कोई ऑपरेशन मुमकिन नहीं सर जी। इंसान की अपनी लिमिट है जी, मगर इन लेब्राडोर कुत्तों को भगवान ने खास ताकत दी है,सूंघने की। हमारे सैंकडों जवानों को इन साशा और रोवर की तेज नाक ने जिन्दगी बख्शी है। और मुझे बडा नाज है जी, इन पे। यकीन तो है ही खैर''
''क्या बताऊं सर जी, हैण्डलर का प्रेम ही होता है जो इनसे यह काम करवाता है। इनके लिए तनख्वाह, पावर, इज्जत या धर्म या जात का कोई मतलब है क्या साब? ये वफादार दोस्त जाने कितनी जिनगानियां बचाते हुए खुद मर जाते हैं। पहले मेरे पास चम्पा नामकी लेब्राडोर कुतिया थी, उसने बडी ज़ानें बचाईं, कितनेक तो लैण्ड माईन्स ढूंढे उसे मेरे साथ कमण्डेशन भी मिला था। इन की फीमेलों की नाक मेलों से ज्यादा तेज होती है वैसे सर जी नाक और कान तो हमारी फीमेलों के भी खूब तेज होते हैं।'' बहुत बातूनी था लांसनायक महेश। उसकी स्क्वाड के वे दो काले लेब्राडोर कुत्ते खूबसूरत और बुध्दिमान थे। खाली वक्त में वे आपस में अठखेलियां किया करते। महेश उनके साथ विस्फोटक की मामूली सी मात्रा रूमाल में छिपा कर 'खोजो तो जानें' का खेल खेल कर उनके हुनर को पैना किया करता था।
मुखबिर का संकेत मिलते ही, वे उन घरों की तलाशी के लिए निकल पडे थे,जिनमें उन्हें शक था कि उग्रवादी छिपे बैठे हैं। उनकी युनिट ने गली के बाहर,गली के भीतर, आगे झील तककवरिंग और अटैकिंग पोजिशन ले ली थी और वे धीरे - धीरे सावधानी से एक झील पर जाकर खत्म होती पतली गली में घुसे,लांसनायक महेश, साशा की जंज़ीर थामे उनके साथ - साथ था। रोवर,उसका हैण्डलर सुरेन्दर एक दूसरे घर के बाहर कैप्टन राजेश के साथ खडे थे, संकेत दिए जाने की प्रतीक्षा में। गली में चहल - पहल की जगह सन्नाटा पसरा था। ऐसा लग रहा था कि इन घरों की दीवारों के कान जैसे मीलों फैले हुए हों। वे घर दम साधे, एक दूसरे को थामे खडे थे, हल्की - हल्की सांस लेते हुए। सैनिक सतर्क थे। बस एक सफेद - गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी थी, उसके हाथों में शलगम का गुच्छा और एक मछली थी। उसके सुर्ख होंठ कंपकंपा रहे थे कि मानो कुछ कहना चाहती हो। उसका फिरन भीगा हुआ था।उसकी नीली पुतलियों वाली शफ्फाक आंखों में भय तैर रहा था। उन्होंने उसे घर लौट जाने का इशारा किया।

सैनिकों ने उनके संकेत पर एक घर को घेर लिया।वे तीन सैनिकों, लांसनायक महेश और साशा के साथ एक सुनसान टूटे - फूटे घर में घुसे। इस टूटे - फूटे घर के नीचे की मंजिल पर जमीन पर बिछे बिस्तरों पर सलवटें थीं। कालीन पर जूतों के कई निशान। बिस्तरों में इन्सानी जिस्मों की गर्म बू ताजा ही थी। ज्यादा दूर नहीं गए होंगे वो। संभल कर वे ऊपर की मंजिल की ओर बढे। ऊपर जाते ही साशा बेचैन हो गयी और इधर - उधर सूंघने लगी, गोल - गोल चक्कर काटने लगी। बीच बीच में कूं ऽ कूं भी करने लगती और पूंछ हिलाने लगती। महेश बहुत सर्तक हो गया था। उनके तीन अधीनस्थ अधिकारियों सहित सैनिकों की एक बडी टुकडी उन्हें कवर दे रही थी। वह एक मर्तबान में बार - बार मुंह डाल रही थी।उस मर्तबान के चारों तरफ गोल चक्कर काट रही थी। फिर उसने पंजे से उसे उलट दिया। एक बेलनाकार धातु की वस्तु कपडों में लिपटी रखी थी। महेश समझ गया था कि साशा ने बम ढूंढ लिया क्योंकि वह उसके पास बैठ गई थी,ताकि उसका हैण्डलर स्थिति का जायजा ले सके।
'' सर आप सब बाहर जाएं, आतंकवादी तो नहीं, मगर बम है यहां। सूबेदार हनीफ अहमद को भेज दें इसे डिफ्यूज क़रने के लिए।'' महेश ने फुसफुसा कर कहा।
यह अजीब - सी डिवाइस ऊंचे दर्जे के विस्फोटक पदार्थ से भरी हुई थी और शायद यह एक रिमोट कन्ट्रोल से जुडा था। कुछ देर बाद, साशा महेश के ऊपर चढ क़र अपने इनाम के बिस्किट की मांग करने लगी थी। महेश ने उसे अनदेखा कर दिया। महेश दूर से बम का निरीक्षण कर रहा था और वे अपने दस्ते के बम डिफ्यूजल एक्सपर्ट को बुलाने के लिए पीछे मुड क़र कुछ सीढियां उतरे ही थे कि धमाका हो गया, घर के ऊपर का हिस्सा ढह कर, सडक़ पर आ गिरा। मलबे में दबे हुए साशा के चिथडा - चिथडा जिस्म को और अचेत महेश को निकाला गया। महेश बुरी तरह घायल हो चुका था, उसकी एक बांह विस्फोट में उड ग़ई थी और वह नीम बेहोशी में था। उनके भी पैरों में अचानक सीढियों से कूद जाने की वजह से अन्दरूनी चोटें आई थी। 'शो मस्ट गो ऑन' की तर्ज पर ऑपरेशन जारी रहा। महेश को तुरन्त मिलीटरी अस्पताल भेज दिया गया। साशा की मृत देह कम्बल में लपेट कर 'कैन्टर' में रख दी गई।
उन खाली टूटे - फूटे घरों में हरेक में बम रखे मिले थे। रोवर ने उन्हें ढूंढ निकाला था। रोवर को आतंकवादियों की तलाश में हैण्डलर जंगल की तरफ घुमाता मगर वह लौट - लौट कर बस्तियों की तरफ भाग रहा था। वह एक घनी बस्ती के ऐसे घर दरवाजे पर रुका, जहां पर्दानशीन औरतें ही औरतें थी और वहां दालान में पडी थी, घर के एकमात्र युवक की लाश, जिसे ताजा - ताजा कत्ल किया गया था।जिबह की गई बकरियों की तरह वे औरतें चीख रही थीं। घर की तलाशी ली गई मगर वहां कुछ नहीं मिला। घर के पीछे गली झील पर खत्म होती थी, झील के उस तरफ मस्जिद थी। यह वही जगह थी, जहां सफेद - गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी मिली थी। अब वहां न नाव थी न वह किशोरी। शलगम के गुच्छे ज़मीन पर गिरे हुए थे। गली के मकानों की खिडक़ियां यूं बन्द थीं गोया बरसों से खोली ही ना गई हों। उस गली से पलटते ही मस्जिद की दिशा से फायरिंग शुरु हो गयी। जवाबी कार्यवाही में वे फायर नहीं कर सकते थे क्योंकि जुम्मे का दिन था और मस्जिद में आतंकवादियों की जद में कुछ मासूम नमाज़ी फंसे हुए थे। '' हिन्दोस्तानी कुत्तों मस्जिद का रुख न करना, वरना ये नमाजी हमारे हाथों खुदा के प्यारे हो जाएंगे।''
यह उनके 'ऑपरेशन मित्रता' की पहली शिकस्त थी। आज नौ साल बाद यह दूसरी शिकस्त उन्हें उदास करने के लिए काफी थी।
बेस पर लौट कर रोवर बहुत बेचैन हो उठा था। बार - बार कैण्टर की तरफ जाता जहां 'साशा' का शव रखा था। कूं कूं करके उसके चारों तरफ घूमने लगता था।अपने हैण्डलर की बात भी नहीं सुन रहा था। उससे बहुत छिपा कर साशा को उन हरे - भरे मर्गों में कहीं दफना दिया गया था। मगर रोवर ने भांप लिया था।हैण्डलर ने बहुत कोशिश की उसे खिलाने की, मगर उसने खाने को सूंघा तक नहीं। उसे ड्रिप भी लगाई। फिर उसने किसी भी अभ्यास में मन से हिस्सा नहीं लिया, अभ्यास के दौरान विस्फोटक की गंध से भरा कपडा उसे सुंघा कर छिपाया जाता पर वह उसे खोजने की कोशिश करने की जगह एक जगह पर बैठ जाता और उसकी आंखों से पानी बहता रहता। उन्हें नहीं पता कि कुत्ते रोते भी हैं कि नहीं। मगर रोवर को देख कर उनका मन भारी हो जाता था। रोवर के असहयोग की वजह से तुरन्त दूसरे स्निफर डॉग और उसके हैण्डलर को भिजवाने का संदेश भेज दिया गया था। जिस दिन उसे वापस भेजा जाना तय था, उस दिन के पहले वाली रात, जब वे लांसनायक सुरिन्दर से मिलने गए तो रोवर उसके साथ बुखारी के सामने बैठा था। बीमार मगर शांत। उनके आने पर उसकी दोनों कत्थई एक साथ आंखें उठीं थीं। हल्के - हल्के उसने दोस्ताना अंदाज में पूंछ भी हिलाई, सर सहलाने पर हाथ चाटा था। फिर वह आंखें मूंद कर लेट गया। सुबह वह नहीं उठा।
महेश अब दिल्ली में रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पीटल में स्थान्तरित कर दिया गया था। उन्होंने उससे फोन पर बात की। वह व्यथित था, अपने हाथ के कट जाने को लेकर नहीं। साशा और रोवर को लेकर, '' सर जी बहुत प्यार था उनमें। उन्हें आस - पास ही दफनाना।'' उसके कहने पर रोवर को साशा के बगल में ही उसके साथी दफना आए थे। जहां तक उन्हें याद है महेश का साथी लांसनायक सुरेन्दर लाल रंग के दो समाधि - पत्थर बनवा कर लाया था।
''सर, सच्चे सिपाही, सच्चे आशिक तो यही हैं ना।आप इजाजत दें तो इनकी कब्रों पर ये पत्थर लगवा दें।'' उन्होंने वहां अपने हाथों से एक चेरी का पेड लगा दिया था। लांसनायक महेश के 'स्पेसिफिक काउन्टर टैरर मिशन' के 'कमण्डेशन'(प्रशंसा - पत्र) के लिए उन्होंने चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को 'साइटेशन' (अनुशंसा) भेजी थी, जो स्वीकृत हुई।
छद्म युध्द ने तेजी से आग पकड ली थी। उस छद्म युध्द में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें सेना मैडल मिला। इस सबके बावजूद एक असंतोष सा उनके मन में घर कर गया था। इतने स्थानीय नागरिकों, जवानों - अधिकारियों की जान महज कुछ लिजलिजे निर्णयों और ढुलमुल नीतियों के चलते गंवा दिए जाना उन्हें नागवार गुजरा था। उन्होंने सेना से स्वैच्छिक अवकाश ले लिया था।
वे शहर में बस दाखिल हुए ही थे कि उन्हें पीली दीवारों वाला डाकघर दिख गया था। शहर के बदलावों में बच गए एकमात्र जर्जर अवशेष - सा। जिसके बाहर फुटपाथ पर, सूखे मेवे बेचने वाले अखरोटों का ढेर लगाए खडे थे। दुकानों पर कढाई किए गए कपडे और सुन्दर दस्तकारी के साजो - सामान सजे थे। शहर अजब तरह से विकसित हो रहा था, जैसे बदहाली नाम की खूबसूरत गरीब - बेबस औरत को तीखा मेकअप करके बिठा दिया गया हो, लेकिन डर उसकी आंखों, हरकतों, जुम्बिशों से किसी न किसी तरह टपक ही रहा हो। रंग - बिरंगे शीत पेयों और मोबाईल फोन की कंपनियों के बडे - बडे होर्डिंग, शहर के हर चौराहे पर लगे थे। सफेद स्कार्फ से सर को अच्छी तरह ढके, सर झुकाए, बिना खिलखिलाए किशोरियां स्कूल जा रही थीं। धूसर - भूरी दीवारों और लकडी क़े दरकते फर्श और टीन की छतों वाले घरों की कतार जहां खत्म होती थी वहां से एक झील शुरु होती थी। एक बूढा अपनी नाव में बैठा इस झील में उगी जलीय खरपतवार को जाली से बडी तटस्थता से साफ कर रहा था। लाईन से लगे शिकारे और हाउसबोट एक अंतहीन प्रतीक्षा में प्रार्थनारत मालूम होते थे।
वे एक मुगलकालीन बाग के करीब से निकले, वहां एक ऊन की टोपियां बेचने वाले ने बताया कि अभी वहां विस्फोट होकर चुका है, एक गुजरातियों से भरी बस पर। लेकिन जिंन्दगी बदस्तूर रवां थी। चेरी - अखरोट बेचने वाले बसों में बैठे टूरिस्टों से मोल - तोल कर रहे थे। आखिर हम सीख ही गए आतंक के साए में जीना।
वे उस प्रसिध्द चौक से गुजरते हुए आगे की तरफ मुड ग़ए, जहां मौत का खेल शतरंज की तरह खेला जाता था। वो प्यादा मरा वो वजीर! वजीर कम मरते, प्यादे ज्यादा। बल्कि वजाीरों की शह और मात के बीच प्यादे कब लुढक़ जाते, इसका न पता चलता, न फर्क पडता था। हालांकि माहौल में जाहिरा तौर पर कोई तनाव नहीं था। लेकिन उन्होंने देखा, तब के शहर और अब शहर की सोच तक में फर्क आ गया था। पहले एक - एक मौत मायने रखती थी। अब विस्फोटों और दो - चार मौतों के बावजूद एकाध घण्टे में ही जिन्दगी फिर से रवां हो जाती है। वो मरी हुई शतरंज की गोटियों की तरह लाशें हटाते और खेल फिर शुरु अब वे फिर से टूरिज्म के विकास की तरफ बढ रहे थे। सरकार और कठमुल्लाओं और उनके खैरख्वाह बनने वाले आतंकवादियों सभी से वे विमुख हो चले थे। फौज से उनका प्रेम और घृणा, सहयोग और असहयोग का व्यापार निरन्तर जारी था।
शहर के मुख्य और बडे हिस्से में स्थापित सेना के एक बहुत बडे बेस के सामने से वे तटस्थता से गुजर गए। पहले उनका वहीं उसी बेस में ठहरना तय था। मगर वहां उन्हें कुछ अजनबी लगा, बेमानी भी। उनकी जान - पहचान का पुराना कोई भी तो नहीं होगा। उस बेस के चारों तरफ एक लम्बा चक्कर काट कर वे शहर से बाहर आ गए थे।

वे उस सडक़ की तरफ मुड चले जिसके साथ एक नदी चला करती थी। रास्ते बदल गए थे। उन्हें गाडी रोक कर नए रास्तों की बाबत पूछना पडा। पहाड क़ा एक हिस्सा काट कर सडक़ का एक छोटा - सीधा रास्ता बन गया था। मगर शायद नदी ने पलट कर फिर कहीं आगे जाकर सडक़ का हाथ पकड लिया था।अब वह फिर साथ थी।अवरोधों पर वह नदी और अधिक उच्छृंखल हो जाती।ऊंचाई से नीचे गिरती तो अनेकानेक भंवर डालती बहती। नदी के पानी में बहा खून जाने कहां बिला गया होगा मगर इसकी चंचलता और निश्छलता में कोई फर्क नहीं आया। यह कुछ मील दूर दूसरे देश में में भी ऐसे ही उछालें मार कर बहती रही है।
खुद से उलझते, अपनी मंजिल के बारे में तय करते - करते उन्हें शाम हो आई थी, कुछ रास्ते बदल गए थे, कुछ वे भटक गए थे। अंतत: वे एक नए बने आर्मी बेस के छोटे से ऑफिसर्स मैस में जा ठहरे। मैस बहुत खूबसूरत जगह पर बनी थी। उनके कमरे के इस तरफ नदी के छल - छल, कल - कल गीत गूंजते थे तो दूसरी तरह पहाड ध्यानमग्न नजर आते। उन्होंने अपने कमरे के पीछे वाली बॉलकनी की रैलिंग से नीचे देखा _ नीचे ढलानों की तरफ फैले हरे - भरे विस्तृत चारागाह में, शाम के गुलाबी झुटपुटे और चांद की फैलती रूपहली रोशनी में दो सफेद मजारें जगमगा रही थीं, मानो मुस्कुरा रही हों।
उस पल हरे - भरे मर्ग के बीच उन गुनगुनाती मजारों, उनके चारों तरफ खिले फूलों और आकाश में तैरते टुकडा - टुकडा बादलों को देख कर, न जाने क्यों कर्नल हंसराज को लगा कि मानो मौत का दूसरा नाम खुशगवारी हो।
अगले दिन सुबह नहा धोकर, नाश्ता करके वे अपने कमरे से निकल आए। कमरे की बॉलकनी से जो मजारें उन्हें आकर्षित कर रही थीं। उसी तरफ बढ चले। आज उस तरफ रौनक थी, चहल - पहल थी। उन्हें हैरानी हुई।
मैस के एक अर्दली ने बताया कि ये दो सूफी पीरों की मजारें हैं, एक भले दिल के सूफी दरवेश ने अपने पैसे और रसूख वाले मुरीदों से कह कर वहां दरगाह बनवा दी हैं। पूरे चांद की रात में सुबह से ही वहां मेला लग जाता है। दूर दराज से लोग आते हैं। हंसराज हैरान रह गए थे। वे दरगाह के बाहर ही रुक गए। एक तरफ लगे एक तंबू में कहवा बन रहा था। कहवे की महक ने, वह स्मृति में बसा सौंधा स्वाद याद दिला दिया। वे उसी तरफ बढ ग़ए।
'' भई, जहां तक मेरा ख्याल है _ नौ - दस साल पहले तो यहां कोई मजार नहीं थी। न यहां कोई मेला हुआ करता था।''
''हां बस, दो बरस ही हुए हैं इन मजारों को मरहूम सुलेमान दरवेश साहब ने देखाऔर दरगाह बनवा दी। वे कहा करते थे कि दस साल पहले उनके लापता हुए उनके दो सूफी उस्तादों की मजारें हैं।''
कर्नल हंसराज ने दिमाग पर जोर डाला '' दस साल पहले, हँ हाँ, उन दिनों लेह के 'दो बौध्द भिक्षु' तो जरूर मार डाले थे, आतंकवादियों ने। मगर सूफी ! कुछ याद नहीं पड रहा।''
आतंकवादी शब्द बोल कर जैसे उनसे कोई कुफ्र हुआ हो, उस कहवावाले ने उन पर क्रूर और ठण्डी निगाह डाली।
'' कहवा खत्म कर लिया हो तो चलें जनाब।''
उन्हें तम्बू से बाहर ले जाते हुए एक नौजवान कश्मीरी बोला, '' बुरा मत मानिएगा सर, ये बडे मियां जरा खब्ती हैं। सच्ची बात तो ये है कि ये मजारें किसी सूफी - दरवेशों की नहीं हैं, लैला - मजनूं जैसे दो आशिकों की मजारें हैं। कहते हैं, लडक़ी कश्मीरी थी और लडक़ा सिपाही था, हिन्दुस्तानी फौज का।''
'' क्या बात करते हो?''
''क्या बताऊं सर, दोनों ही बातें कहते हैं लोग। बडे - बूढे तो सूफी - दरवेश की मजार मानते हैं इसलिए यहां सूफी - दरवेशों की हर पूरे चांद पे मजलिस लगती है। मगर कुछ लोग इन्हें दो आशिकों की मजार समझते हैं तो नौजवान जोडे भी यहां आकर मन्नतें मांगते हैं।''
'' सर, कहां ठहरेंगे? शहर में मेरे चचा का हाउस बोट है, थ्री स्टार।''
उन्होंने कोई रुचि नहीं ली तो कहने लगा, '' यहां बगल के कस्बे में मेरे पहचान के होटल भी हैं सर, हिन्दू होटल।''
''अरे नहीं भई, मैं वहां ऊपर ऑफिसर्स मैस में ठहरा हुआ हूँ।''
'' तो चलिए सर आपको ग्लैशियरघुमा लाऊं।''
''मेरा सब कुछ देखा हुआ है। तुम जाओ, मैं यहीं कुछ देर रुकूंगा।''
'' अच्छा कोई बात नहीं सर, मैं बता रहा था न इन मजारों के बारे में _ ''
वे समझ गए थे कि यह गाइड या टूरिस्ट एजेन्टनुमा कोई जीव है। इन मजारों की कहानी सुनाने के बहाने चिपक ही गया है। कुछ लिए बिना टलेगा नहीं।
'' बताओ क्या बता रहे थे?'' वे उकता कर बोले।
''कहते हैं एक कश्मीरी लडक़ी, इस छावनी से कुछ ऊंचाई पर बने गांव में रहा करती थी। खूबसूरत, मासूम, कमसिन। 'सना' नाम था उसका।नीचे छावनी की एक बैरक में रहने वाले एक क्रिश्चन सैनिक 'रोजर' से उसका इश्क हो गया। आप तो जानते हैं सर इश्क ज़ात - धर्म कहां देखता है।'' उसका चिपकूपन उन्हें खिजा रहा था, वे उसे झिडक़ने ही वाले थे कि उसके सुनाने के दिलचस्प अंदाज पे वे मुस्कुरा उठे।
'' लगता है तुमने भी इश्क क़िया है।''
'' हां सर, बहुत पहले। एक हिन्दू लडक़ी से उसके भाई और बाप तो आतंकवादियों ने मार डाले और वो और उसकी मां यहां से जम्मू चले गए। खैर छोडिए वो कहानी सरये कहानी सुनिये_
हां तो, वह रोज उससे सुबह - सुबह मिला करती, घास काटने के बहाने। रोज सुबह पांच बजे उसकी खिडक़ी पर एक कस्तूर चिडिया आकर तान देती और वह ढलान उतर कर अपने आशिक से मिलने जाती।
एक रोज क़स्तूर ने सुबह पांच की जगह तीन बज कर चालीस मिनट पर ही किसी डर से तान दे दी। शायद उसके घोंसले के नन्हें चूजों पर किसी बाज ने चोंच मारी होगी। सना को वह तान अजीब तो लगी, मगर प्रेमी से मिलने के चाव में उसने ध्यान ही नहीं दिया। बर्फीले पानी से मुंह धोया तो मुंह सुर्ख क़ी जगह नीला हो गया। अंधेरे में फिरन पहना तो कील में अटक कर फट गया मगर फिर भी उसने इन बदशगुनों पे ध्यान नहीं दिया। अपने घर से नीचे ढलान की तरफ अपने प्रेमी से मिलने उतर पडी, ख़ुशी से सरोबार, देख लिए जाने के डर से घबराती, जिस्मानी चाहतों में सुलगती, महबूब की आंखों का इंतजार उसकी रूह में सुलग रहा था। उसे पता था रोजर ने परदा दरवाजे में अटका कर रखा होगा वह खटखटाएगी भी नहीं पास की बैरकों के उसके साथी न जाग जाएं इसलिए। वह फूलों से लदे एक चेरी के पेड क़े पास से गुजरी जहां से रोजर की बैरक दस फर्लांग पर थीकि उसे पहली गोली लगी, कन्धों पर वह बाहर निकल आया चीख कर रोकता फैंस के पास अपने पहरा दे रहे साथी को तब तक दूसरी गोली उसका अरमानों भरा सीना चूम चुकी थी। जमीन पर पडे चेरी के फूल लाल हो गए थे खून से।
'' ये क्या किया यह आतंकवादी नहीं मेरी महबूबा है।'' कह कर रोजर ने कनपटी पे गोली चला ली और सना के जिस्म पर जा गिरा। कहते हैं सर, कब्रों के पास लगे पेड क़ी चेरी एक दम खून जैसे सुर्ख रंग की होती हैं।'' नौजवान की आंखों में आंसू थे मानो वह उसकी खुद की प्रेमकहानी हो।
कर्नल हंसराज भी उसके कंधों पर हाथ रख कर बोले, ''ेतुम एक कामयाब टूरिस्ट गाईड बनोगे, इतनी खूबसूरत कहानी गढी है, तुम्हें तो अफसानानिगार होना चाहिए था। तुम्हारी शादी हो गई?''
'' हां सर, चार बच्चे हैं। खर्चा बामुश्किल चलता है।'' उसने सिटपिटा कर कहा।
'' चार बच्चे! तुम्हें देख कर तो कतई ऐसा नहीं लगता।''
'' सर, बचपने में ही निकाह हो गया।''
'' क्या यह दरगाह अन्दर से देख सकता हूँ मैं?'' कह कर उन्होंने जेब से पचास रूपए का नोट निकाल कर उसे दे दिया।
''सर आप तो फौजी हैं, आपको कौन रोकेगा? यहां के लोगों के दिलों को रौंद कर भी गुजर सकते हैं आप तो।'' उसकी आवाज में तल्खी थी। यह तल्खी पचास रूपए के नोट से असंतुष्ट होने की थी या फिर सच में फौज को लेकर थी यह अंदाज लगाना मुश्किल था।
''मैं फौजी था, अब नहीं हूँ।''
'' चलें?''
वे दोनों दरगाह के भीतर थे। शांत, ठण्डी, संगेमरमर की छोटी सी दरगाह।संगमरमर के जालीदार गलियारों के बीचों - बीच सलेटी फर्श वाला अहाता था,अहाते में बीचों - बीच लगा चेरी का पेड सच में सुर्ख चेरी के झुमकों से लदा हुआ था, पेड क़े नीचे का फर्श पर टपके हुए फलों से लाल धब्बों से अंटा था। लोग गिरे हुए फलों को कुचल कर आ - जा रहे थे। पेड की छाया के फैलाव में कोने में संगमरमर के पत्थरों से ढंकी दो मजारें थीं। संगमरमर के पत्थर बाद में मजारों पर मढे ग़ए होंगे क्योंकि उनके सिरहाने लगे समाधि - पत्थर पुराने थे। साधारण लाल पत्थर के, जिन पर गढ क़र, अंग्रेजी में लिखा गया धुंधला - सा कुछ दिखाई दे रहा था। वक्त ने बहुत कुछ मिटा डाला था, मगर एक पर 'एस' और 'ए' तो गढा हुआ दिख रहा था दूसरे में 'आर', 'ओ' और 'आर' अक्षर दिखाई दे रहे थे। बीच के अक्षर मिट चुके थे।
'' यह तो अंग्रेजी में कुछ लिखा है।''
'' तभी तो साहब हम कहते हैं ये सूफियों की मजारें नहीं। मगर ये सूफी लोग कहते हैं कि ये अंग्रेजी नहीं, अरबी की कोई मिटी हुई इबारत है।'' वह फुसफुसाया।चेरी का पेड और यह समाधि- पत्थर!

कर्नल हंसराज को बुरी तरह झुरझुरी आ गई। ये तो साशा और रोवर की कब्रें थीं! वे अचकचा कर अपने चारों तरफ देखने लगे। श्रध्दा से भरे लोगों को हैरानी से देखने लगे। उन्हें लगा कि उनके भीतर बर्फानी लहर दौड रही है और उनके वजूद को सुन्न करती जा रही है। दो दरवेश, दो दीवाने प्रेमी!
कव्वाली शुरु हो चुकी थी भीड बढने लगी थी।
_ जाहिद ने मेरा हासिले इमां नहीं देखा
इस पर तेरी जुल्फ़ों को परीशां नहीं देखा
एक भारी, उदास आवाज और कुछ पतली खिली आवाज़ों का कोरस, बादलों से भरी दोपहर में पहाडों से टकरा कर एक तिलिस्म बुन रही थी। नीचे घास पर नन्हें फूल खुशहाली का पता दे रहे थे तो ऊपर आकाश में उडता हुआ, चौकसी करता सीमा सुरक्षा बल का हेलीकॉप्टर एक बहुत - बहुत कडवी सच्चाई की तरह आंखों में गड रहा था _ हम दरख्तों, कबूतरों, नदियों और हवाओं की तरह बेलौस और बेखौफ नहीं। हम अपने - अपने खौफ़ के गुलाम हैं।
वे एक ठण्डी संगमरमर की बैंच पर बैठ गए, तेज - तेज ठण्डी सांसे लेने लगे।आस - पास बैठे व्यक्तियों को देखा। एक तरफ बुरके में अधेड ज़नाना बैठी थीं,हाथ में सबीह के मनके फेरतीं। उनके ठीक सामने, एक जवान जोडा गुफ्तगू में तल्लीन था। किसी को क्या कहें? कहें भी कि ना कहें। कौन मानेगा उनकी? मान भी लिया तो बहुतों की श्रध्दा पर भीषण तुषारापात होगा। बेचैनी से वे अपना सीना मलने लगे। खुद को शांत करने की कोशिश में।

उनके जहन में थे, विस्फोटकों को सूंघकर उनका पता देते साशा और रोवर। सैंकडों जिन्दगियां बख्शते वे दो सुन्दर काले लेब्राडोर कुत्ते। उन्हें उनकी प्रेमिल अठखेलियां याद आ गईं, सुबह पांच बजे महेश कैम्प के अहाते में उन्हें खोल दिया करता था। अभ्यास से पहले वे गोल - गोल एक दूसरे के पीछे दौडते हुए खेलते थे, घास में लोटते, प्यार भरी गुर्राहटों से अहाता गुंजा देते। उसके बाद शुरु होता था विस्फोटकों के साथ उनका वह 'हाइड एण्ड सीक' (लुकाछिपी) का अभ्यास। जिसे वे खेल समझते थे वह मौत का ताण्डव था, यह वे मासूम कहां जानते थे।
क्यों कहें किसी से कुछ भी। कोई जरूरत नहीं है। क्या यह सच नहीं कि साशा - रोवर सच में दो अनूठे प्रेमी थे! और क्या वे धर्म, प्रतिष्ठा, धन और शक्ति के मोह के आगे प्रेम और वफादारी को तरजीह देने वाले दरवेश नहीं थे? क्या हुआ जो वे इन्सान नहीं थे, मगर उनके जीवन और मृत्यु दोनों इन्सानों को पाठ नहीं पढा गए?
उन्होंने पास के एक माला वाले से दो गहरे रंगो के गुलाबों की माला ली, और उन दो मज़ारों की तरफ बढ ग़ए।

मनीषा कुलश्रेष्ठ
नवंबर 26, 2007

हिजडे

हिजडे
शादी के वक्त राहुल के पिताजी ने सामान की एक लंबी लिस्ट लडक़ी के पिता के आगे रख दी थी । एक पल के लिए तो लडक़ी के पिता चौंके थे। कहीं भीतर से उन्हें सब कुछ भुरभुराता सा लगा। लेकिन अगले ही पल उन्हें लगा जमाना बदल गया है। आज के वक्त में इन सब चीजों की कीमत ही क्या है। और फिर उनके पास पैसे की क्या कमी है। सब कुछ बेटी के सुख के लिए ही तो देना है। बात लडक़ी तक भी पहुंची थी। उसने पिता की आंखों में देखा। पिता मुस्करा दिए '' लडक़ी वालों को यह सब करना ही पडता है।''
शादी के बाद कितने ही तीज त्यौहार। सास ससुर खुले मुंह मांगते चले गये थे और लडक़ी के पिता लडक़ी के सुख के लिए सब कुछ देते चले गये।लडक़ी को सुख तो मिला किन्तु खुशी उसके चेहरे से गायब हो गई थी। एक उदासी थी जो उसके भीतर पसरती चली गई।आज पिता इस मकाम पर कैसे पहुंचे वह बचपन से देखती चली आ रही है। कितनी मेहनत की है उन्होंने। ससुराल वाले उसे जीवन भर के लिए रखने का मुआवजा ले रहे हैं क्या?
इस बार तो फोन सीधे ही पिताजी के पास चला गया था जगननाथ जी लडकी के पहले करवाचौथ पर तो लडकी को जितना दे डालो कम होता है। बस रमन की मां की तो इतनी इच्छा है कि सोना चांदी तो बहुत हो गया। अब तो हीरे के दो चार सैट हो जाएं तो बिरादरी में नाक भी ऊंची हो जाएगी और फिर हो सकता है हीरे के घर में पवेश करते ही परमात्मा घर में पोता दे दे।बहुत शुभ माना जाता है हीरा तो।
यह सब तो लडकी को तब पता चला जब घर में सब कुछ आ गया।
आज सुबह दिन निकलने से पहले ही मौहल्ले भर में कोहराम मच गया। रामधन के घर में आग।बहु का कमरा तो धूं धूं करके जल उठा था। लोगों का तांता लग गया।पुलिस और फायर बिगेड वालों को भी इतला दे दी गई थी। मौहल्ले वाले भी आग बुझाने में कसर नहीं छोड रहे थे।
'' बहु जला दी क्या ? '' कितने लोग एक साथ चिल्लाए थे।
तभी बहू का ठहाका सुनाइ दिया था - ''अरे मैं नहीं जलने की।ये जो हिजडे दूसरे के दम पर नाच रहे थे इन्हें जला रही हूं!''
पूरा घर धूं धूं करके जल उठा था।
विकेश निझावन
सितम्बर 1, 2004

हिजाब (कहानी)

हिजाब
पता नहीं कहाँ से नफा नामक चीलर उनके शरीर में प्रवेश कर गया था। वह अपने परिवार के एकछत्र मुखिया थे। कहते हैं चीलर आदमी के पड़ जाए तो आदमी मालामाल हो जाता है या फिर दरिद्र। लेकिन नफा हो या नुकसान चीलर तो हमेशा गन्दगी से ही जन्मता है और वह धन से लबरेज हो जाता है। यह विरोधाभास कैसे ? वह उस गन्दगी से उपजे कीड़े में हमेशा अपने लाभ की सोचते थे। कहते हैं कि फौरी फायदा उन्हें हो भी जाता था। बाद में भले ही नुकसान हो जाता था। लेकिन लाभ की दूसरी युक्ति सोचने से वह नहीं चूकते।
देवरिया में राज नरायण सरकारी मुलाजिम थे। उनको भगवान ने तीन पुत्र दिए। ग्रामीण मानसिकता में लड़के की आवाज फूटी नहीं लड़की वाले आने लगते हैं। आपसी कहा-कही में बतियाते हैं 'लड़का जवान हो रहा है'। उनके यहाँ भी आने लगे थे। बार-2 की असमय बरदेखुवासी से उनकी पत्नी आजिज आ गयी। संकोच हटा दिया था पत्नी ने, अबहीं शादी न किहल जाई, कुछु पढ़ल-लिखल जरूरी बा न। राज नरायण के नायकत्व का भाव सिर चढ़कर बोलता। 'बउरही नफा की सोचल कर-नफा, बम्बईया पार्टी हौ, बिजनिस करेलन खूब लिहल-दिहल करिहैं। और तुहूं त पतोहिया से हाथ-गोड़ मिसवइबू।' कहकर शरारत भरी मुस्कान मार दिए थे। इतनी सी बात पर भी वह लजा सी जाती थी। ऐसा पुरबिया लोगों का अनुभव कि कलकत्ता वाले हो या बम्बई वाले बिन मांगे घर हमेशा भरते रहते हैं। उनके रिश्तेदारों-पट्टीदारों के अनुभवों से उनमें ऐसी अवधारणा बन चली थी।
पहलौठी की औलाद हो या बड़ी बहू का बड़ा प्यार-दुलार, मान-सम्मान होता है। बार-बार की अवनी-पठौनी में भी बहू को गौने जैसा ही बिदाई-मिलना मिलता है। राज नरायण का बेटा किसी का दामाद था। दामाद बेहिल्ले का हो तो बेटी के पिता के लिए इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है ? आवारा निकम्मा होता देख बहू के पिता ने नौवीं पास दामाद को बम्बई में कई जगह नौकरी दिलाई। दामाद में ड्राइंग का हुनर इतना काबिले-तारीफ था कि इसी बल पर बहुत जगह नौकरी लगी। परन्तु दामाद को जो मजा मेहरारू के जांघ में और महतारी के कोरा में,खटने में कहाँ। ''राज नरायण का बेटा जब भी बम्बई से लौटता तो अगाध प्रेम की रट, 'हे माई जब सोइले तब तू सपना में आवेलू ऐही खातिर नौकरी छोड़ के चल अइनी', कहते-कहते माँ की गोद में सिर रख ऑंचल से चेहरा ढ़ंक लेता। माँ भी भाव-विभोर, निश्छल प्रेम जान वह कह उठती, 'जाएदा, जैसे कुल्हिन बड़न तुहूं के खियाइब-पहिराइब। अपढ़ माँ की अनुकम्पा उसे अव्वल दर्जे का आवारागर्द और गैर जिम्मेदार बना रही थी। राज नरायण सोचते यदि बहू पढ़ी-लिखी होती तो उनके लड़के को समेट लेती। यह सोच भी उनकी अपनी नहीं थी। वह तो कुछ उच्च-शिक्षित नाते-रिश्तेदारों की सीख थी जो उन्हें सोचने पर मजबूर कर रही थी।
सोच लिया था जब तक दूसरा बेटा नौकरी-चाकरी न करेगा, तब तक ब्याह न करूँगा। नहीं तो पहले वाले की तरह बेटा, बहू और साथ में दो-दो बच्चे भी पालूं।
राज नरायण के पास खाली वक्त की कमी नहीं थी। उन्हीं घड़ियों में वह सोचते और भय भी खाए रहते, कहीं यह नफा सोच का चीलर नौकरीशुदा दूसरे नम्बर के लड़के में न पड़ गया हो। इसलिए वह इस बार बड़े ही सजग और सतर्क होकर अपने दूसरे बेटे के शादी सम्बन्धी अभियान में सरक रहे थे। वह दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था। इस बात से डरे रहते कहीं उसे उनका भी बाप मिल गया और फुसला लिया तो ? उनकी सारी की सारी पिलानिंग धरी की धरी रह जायेगी। उन्होंने पूरी नाते-रिश्तेदारी में फैला दिया था इस जुमले के साथ, 'अब हम दुसरका के शादी करब, निक पढ़ल लिखल लड़की होवे क चाहीं, साथे म उहौ चाही.....।'
किसी का भी लड़का सरकारी नौकरी में हो तो लड़की वाले टूट ही पड़ते हैं यह बहुत पुराना चलन है। वह बातचीत से लड़की के पिता का स्टैण्डर्ड भाँप लेते, चतुर सुजान जो ठहरे। उसी के अनुसार आवभगत करते। जहाँ जान लेते बात आगे नहीं बढ़ेगी, उसे गुड़-पानी ही पिलाकर भेज देते। रोज अपनी डायरी में नोट करते मिठाई-मठरी का खर्चा। पत्नी के आगे बड़बड़ाते, 'मय सूद के वसूलूंगा'। एक से एक रिश्ते आने लगे थे। वह हर आवन रिश्ते का ब्यौरा बेटे तक पहुंचाना अपना फर्ज समझते थे।
ऐसी रूढ़ि कि सच्चा पत्नी धर्म वही होता है जो पति के विचारों को ही अपनी प्रवृत्ति माने। यदि वह अपने विवेक का उपयोग करने या स्वेच्छाचारी बनने की सोची भी तो रानी-महारानी से चाकरनी का दर्जा दे देने की धमकी-धौंस देने से नहीं चूकते। साहस हो या दुस्साहस दोनों के लिए शक्ति सामर्थ्य चाहिए, जिसका कि उनकी मातृविहीन पत्नी में अभाव था। पत्नी में निश्ठा-आस्था चौबिस कैरेट जैसी शुध्दता होनी चाहिए, ऐसी ये आम पतियों की आकांक्षा रहती ही रहती है। इसका पालन उनकी पत्नी बखूबी कर रही थी। वह अपनी शातिर-सोच के चलते पत्नी में विद्रोह-विरोध की भावना को ही नहीं पनपने देते थे। परिवार में अपनी मजबूत स्थिति के चलते यदि अंकुरित होते भी तो फूटने के पहले ही उन्हें भनक लग जाती और वहीं उसे वह मसल कर रख भी देते थे, 'अनपढ़ गंवार दिहातिन'या फिर 'घरे मां रहेलू तू का जाना', के दिल भेदी वाक्य स्वाभिमानी पत्नी को भेद जाते और वह चुप हो जाती।
पत्नी का बड़ा मन था कि रिश्ता वहाँ हो जाए, जहाँ बाप पैट्रोल-पम्प लड़की के नाम लिख रहा है। शर्त यह कि लड़का घरजंवाई रहेगा। पत्नी अपनी दलीलें देती, 'पतोहिया क ह त बेटवा क ह, बेटवा क ह त हमार ह। ऐके पिटिरौल पम्प से हमार ममिया भाय तीन ठौ क लिहलन' त मझिलकौ कै लेई।' राज नरायण पत्नी की इस कुसलाह पर डपटते, 'चुप्प बेकूफ गोसांई के बिटिया हऊ तू, का जाना मनई क नेत। बेटवा ग तौ पम्पवौं गा। अपमान से जन्मी खिसियाहट में वह वहाँ से काम का बहाना करके उठ जाती।
एक दिन राज नरायण की पत्नी बड़ी प्रफुल्लित-उल्लसित सी पति के ऑफिस से आने का इन्तजार कर रही थी। आते ही न चाय न पानी, 'आज हमार भतीज आइल-रहल। कहत-रहल बुआ एगो लड़की बैंक म बा, बाप रिटायर हौ। दहेज ठीक-ठाक मिलिए जाई, काहे कि एक ही बिटिया ओकर बा। यदि नहियो मिल त लड़की सोना का अंडा देय वाली मुर्गी हौ। जब चाहीं तब अंडा मिली।' बात राज नरायण को जम गई थी। यहाँ पर उन्होंने अपनी अन्य अदृश्य शर्तों से समझौता कर लिया था। उन्हें इस बात की पक्की खबर थी कि लड़की वाले सीधे बेटे के पास ही कुण्डली-फोटो लेकर कई बार पहुँच चुके थे। भयभीत राज नरायण शंकाग्रस्त हो उठे कहीं ऐसा न हो शादी में सुस्ती देरी होते देख लड़का ऑफर एक्सेप्ट कर ले। कितनी भी चतुरा होगी बहू या बेकूफ तो भी बहू की कमाई बहू की ही रहेगी। पूत की कमाई तो हमारी ही रहेगी। ना देई त बेटवा के नटई धर के तो लेइब। शादी हो गई, लेकिन मन माफिक विदाई-व्यवहार न पाने की असन्तुष्टि थी। परन्तु पत्नी का ढ़ाढ़स 'सोने का अंडा देय वाली मुर्गी है' ढ़ाढ़स बंधा देता।
शिक्षा इन्सान को जागृत व सभ्य करती है साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ाती है। और तो और मजबूती भी लाती है। पर स्त्रियों के मामले में हमेशा यह सच नहीं होता है। उनकी मझली बहू राज नरायण की मंशा जान गयी थी। उन्होंने अपनी मंशा को क्रियान्वित भी करना शुरु कर दिया था। उसने सभ्य-शिष्ट तरीके से सास की मार्फत अपनी बात कई बार पहुंचायी थी, 'अम्मा हमारे भी खर्चे हैं हमें भी अपने ढ़ंग से जीना है हम आप लोगों की जिम्मेदारी से मुकर नहीं रहे पर हमें भी स्वतन्त्र ढ़ंग से खाने-रहने तो दीजिए।' ऐसी बातें तो राज नरायण को सुनाई ही नहीं पड़ती थी। बहू कामकाजी स्त्री से घरेलू स्त्री बनती जा रही थी या यूं कहें सबल बहू से एक निर्बल बहू जो घर को ही सजाने-सँवारने और शान्ति से रखने को ही अपना धरम मानती। बहू नौकरी छोड़ घरेलू स्त्री बन गयी थी। पति की कमाई पर पूरी तरह निर्भर यानि आत्मनिर्भर से परनिर्भर।
वह यह तो चाहते थे बहू स्वावलम्बी तो रहे पर स्वतन्त्र न रहे। पाबन्दी का कोड़ा मेरे हाथ में रहे। उनकी रायशुमारी जाने बिना ही, बेटे की मौजूदगी में बहू का नौकरी छोड़ना, उन्हें लगा जैसे आसमान से नीचे गिर पड़े हों। उन्हें शत-प्रतिशत यही अनुमान हो चला था। पढ़ी-लिखी लड़की ने मेरे भोले बेटे पर अपना माया-चक्र चला दिया था। नहीं तो क्या मजाल बेटा बहू के सुर में सुर मिलाए।
यह नफा नामक चीलर उनकी प्लानिंग पर पानी फेर गया था। चीलर भी किसी को मालामाल करते हैं सिवा कंगाली के। लेकिन यह लोगों के खुशफहमी में जीने की कल्पना है। जब कभी विवेक जागता तो मन को धिक्कारते। कीचड़ में कमल खिलता है, कमल, पर लक्ष्मी जी का वास है, यानी कि पैसा। अरे यह सब पुराणों की ही शोभा बढ़ाता है।
लेकिन अभी तक नफा नामक चीलर की उम्मीद उन्होंने नहीं छोड़ी थी। उनकी आशा तीसरा बेटा जो ठहरा। पत्नी भी साथ छोड़ चली। अकेला असहाय बुढ़ापा कैसे निबटेगा यही सोच उन्हें यानि राज नरायण को परेशान किए जा रही थी। तिकड़मी दिमाग में फितरतों की बाढ़ आने लगी थी। उसकी कई धाराओं में इसी धारा में उनकी बहने की इच्छा और जरूरत उन्हें सटीक लगी थी। पेनशन है ही कोई स्वजातीय गरीब कन्या मिल जाती तो अच्छा था। अन्यथा विजातीय ही हो परन्तु हो गरीब ताकि निठल्ले बेटे-बहू पर पेनशन का और मेरा दबदबा रहे नहीं तो इस बुढ़ापे में मेरी क्या अहमियत ? बेटे के बेकारीपन की वजह थी। अचानक बेकारी, बेकारी से काम फिर अनएम्प्लायमेन्ट। रोजगार की अस्थिरता उसके जीवन में बनी हुयी थी। देवरिया से बाहर उसे वह भावनात्मक दबाव डालकर जाने नहीं देते थे। ऐसे में आय और व्यय में बहुत उतार-चढ़ाव आते रहने से मितव्ययिता और सूझ-बूझ से खर्च करने की उसकी आदत छूट गयी थी। अच्छे दिनों में भी जब पुन: रोजगार मिल जाता है तो नियन्त्रित तरीके से धन खर्च करने की आदत छू-मन्तर हो जाती। बेरोजगारी के दिनों में जिन बचनाओं को सहना करना पड़ता उसकी तो मनोवैज्ञानिक रूप से क्षतिपूर्ति निरन्तर उन मानसिक मरीचिकाओं से होती, जी भर कर ऐश करते समय जिनके साथ वह अपने होने की कल्पना करता। अन्तत: ऐसी स्थिति में उनके तीसरे बेटे का पूरे माह का वेतन एक सप्ताह में ही समाप्त हो जाता था। फिर वह अपने कहलाऊ पिता राज नरायण पर आश्रित हो जाता। उसकी इस आदत पर उन्होंने न कभी टीका टिप्पणी ही की नाही नाराज-एतराज किया।
सफेदपोश राज नरायण को इस बात की भनक लग गयी थी। उनका बेटा खूबसूरत जवान महरिन पर मर रहा था। मन को समझा लेते, बाहर मौज-मस्ती करेगा तो बदनामी होगी। चारदिवारी में कौन जान पायेगा। नाक भी बची रहेगी। इश्क-मुश्क की गन्ध-सुगन्ध कहाँ कैद रह सकती थी। बात मुहल्ले में फैलने लगी थी। बेटा को समझाया, महरिन को डपटा पर सब बेअसर ही रहा। बुढ़ापे में अन्दर ही अन्दर भय भी खाते थे। कहीं बेटा नाराज हो गया तो और और वह काम छोड़ गयी तो सब से हाथ धोएंगे। अलग हुयी बड़ी बहू ने नसीहत भी दी थी, 'बाबू रउवा हमरे चूल्हा मा खाना खांई, छोड़ी उनहन के बड़ बदनामी होखऽऽऽत। बाद म आप ही के पोता-पोती के बियाहे म दिक्कत होई। खबर लगने पर दूसरे बेटे की बहू ने भी अपने तरीके से समझाया था, 'बाबू जी शादी-ब्याह में धन-पैसे, जाति-धर्म का स्तर ना सही परन्तु शिक्षा का स्तर तो देखना ही चाहिए। घर में एक भी अशिक्षित सदस्य हो, वह भी परम्परा वाहक हो तो सोचिए आगे का भविश्य कैसा होगा ? परन्तु उन्हें ऐसी गूढ़ बातें निजी फायदे के आगे कहां समझ में आती। दोनों बेटा-बहू के भारी विरोध के बावजूद विजातीय गरीब, अशिक्षित मजदूर कन्या को बहू स्वीकार लिया था। कन्या भी मन-तन से मालामाल हो गयी थी और मजदूरी से भी छुटकारा मिला था। राज नरायण भी सन्तुष्ट हो गये थे। सुश्रुषा को कन्या रूपी बहू जो मिल गयी थी। अपने से भिन्न जाति की निर्धन लड़की स्वीकारी थी, कुल का नाम दिया था, वह कृतज्ञता के बोझ तले दबी रहेगी तभी तो उनकी हेकड़ी चलती रहेगी।
अशक्त बुढ़ापा इन्सान में निराशा भरने लगता है। निराशा ज्यादा दिन साथ निभा दे तो हताशा घर करने लगती है। राज नरायण इससे अछूते नहीं थे। समय गुजरने के साथ-साथ तीसरा बेटा भी दो बच्चों का पिता बन गया था। राज नरायण की चिन्ता दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। बुदबुदाते, ' मैं अस्सी पचासी के बीच रन कर रहा हँ, मेरे बाद इस अलहदी बेटे के बच्चों का क्या होगा, जो अभी अबोध असहाय हैं।
उन्होंने हमेशा ही लाभ का सरल शार्टकट ढूंढ़ा था। दोनों बेटे-बहुओं की उपेक्षा से उनका शरीर दुगुने वेग से छीज रहा था। उन्हें अब अपनी जिन्दगी में ज्यादा गुंजाइश नहीं महसूस हो रही थी। नजदीक रहता बेटा उन्हें अब बोझ लगने लगा था। पोतों का बोझ उन्हें तोड़ रहा था। मरने के पहले कुछ उपाय कर लेना चाहते थे। फिर वही सरल और निर्मम रास्ता सूझ गया था। अति फिक्रमन्दी से जर्जरित काया में ताप घर कर गया था। दोनों न सही एक ही पोता कोई गोद ले लेता तो राहत मिलती। मेरे मरने के बाद तंगहाली में बहू खून-पसीना करने लगेगी तो यदि कहीं मासूमों को भी इसी में लगा दिया तो उनका भविष्य , यह भीषण समस्या उनके सामने मुँह बाए खड़ी थी। लिहाजा परिचितों शुभचिन्तकों में एक बात चलानी शुरु कर दी थी। उनसे कहते, 'बहुत से नि:सन्तान दम्पति हैं जो लाख उपायों के बावजूद औलाद से महरूम हैं और अनाथालय की बेरहम-उबाऊ प्रक्रिया में वह गुजरने से परहेज तथा अपमान दोनों ही समझते हैं।
वह अलगरजी जरूर थे परन्तु असामाजिक नहीं थे। उन्हीं के एक खास मित्र ने एक नि:सन्तान दम्पति को भेज भी दिया था जो संयोगवश समृध्द भी थे। यह जानकर कि वह ठाठ वाले हैं, नफा का चीलर फिर कुलबुलाने लगा था। मन ही मन गणित बैठाने लगे थे। पोते के बदले कुछ चल-अचल मिल जाता तो मेरा वर्तमान-बेटे का भविष्य निश्चिंत हो जाता। लेकिन चौथेपन की लाचारी ने आत्मविश्वास डिगा दिया था। जर्जर काया मन को धिक्कारती मांगूंगा नहीं उनके द्वारा अस्वीकार की स्थिति में मित्रों के मध्य बदनामी और बेरुखी दोनों का सामना करना पड़ सकता था। जीवन के अन्तिम समय में कलंक की सोच रूह कांप उठी थी। कभी भी सिर से पानी ऊपर न गया था। हमेशा ढ़ँकी-तोपी में जी आए थे। अब भी कुछ-कुछ वैसी ही युक्ति सोच रहे थे।
सभ्य सुशील एक जोड़ा उनके सबसे छोटे पोते, जो मात्र छह माह का था, को पसन्द कर गये थे। उन्होंने बड़े पोते को सयाना मान अस्वीकार कर दिया था। एक सप्ताह बाद मय तैयारी के साथ आने की बात कर गये थे। एक पखवाड़ा बीत गया। नहीं आए। चिन्ता स्वाभाविक थी। दौड़े-लपके, गये परिचित के यहाँ। जो सुना उससे अवसन्न से हो गये थे और मित्रों को जब पता चलेगा तो उघाड़ हो जाऊँगा।
वह बेटे की नग्नता की थर्राहट से क्रोधाग्नि मे जल रहे थे। सोचा कहीं क्रोध में मामला हाथ से न निकल जाए। वह बेटे को समझाने की मुद्रा में बोले, लेकिन आवाज की तल्खी पर नियंत्रण न रख पाए थे, 'नीच कमीने तुम्हारा जीवन तो नहीं सुधरेगा पर अपने जन्मे की तो सोच, उसकी जिन्दगी बन जायेगी। तू गया और दो लाख की डिमान्ड कर आया। कहता है मैं अपना बच्चा भी दूँ, और कुछ नफा भी न हो, अबे गधे फौरी नफा की क्यों सोचता है।'
'बाबू जी कल किसने देखा है। नियति बदलते कितनी देर लगती है, अपने खून का भी भरोसा नहीं करना चाहिए।' बेटे के इस अप्रत्याशित घुड़की भरे जवाब से उन्हें काठ सा मार गया था।

सहज होते ही वह चिन्तन करने लगे थे। पशु भोजन की तलाश तभी करता है जब उसे भूख लगती है। प्रारम्भिक स्थिति के जीवों में आत्मसुरक्षा की भावना अपने निज की रक्षा से आगे नहीं जाती। उनमें आत्म तत्व प्रबल होने के साथ, वे आत्मकेन्द्रित भी होते हैं। दूसरे वर्तमान तक ही सीमित रहते हैं। वे वर्तमान से हटकर किसी भविश्य की कल्पना कर ही नहीं पाते। तो क्या उनका बेटा पशु बनने की राह पर चल रहा था बल्कि जानवर ही हो गया था।
अपना पूरा जीवन-चक्र उन्होंने खंगाल डाला था। उनके ही
हमा-हमी के विचार तो उसमें जड़ें भी गहराई तक समाए हुए थे। बच्चों का अभिभावकों से वैचारिक रूप से मेल खाना शायद यही संस्कार है। बदलते समय में जैसे-जैसे निजत्व की भावना का फैलाव होता गया पारिवारिक व्यवस्था चरमराती गयी। व्यक्ति स्वर्ग से गिरकर नरक में पहुँच रहा है। सीधे शब्दों में कहा जाय तो उनका अपना बेटा ही अपने जन्मे का सौदा कर रहा था। इससे बढ़कर नैतिकता का पतन और क्या हो सकता है। उनकी तरह वह भी निजत्व की भावना से ऊपर नहीं उठ पा रहा था। उन्होंने भी तो पूरे जीवन-काल में यही किया था। तो अब क्यों वह उनका सम्मान करने लगेगा। भावी पीढ़ियां तो अपने हितों की रक्षा करने वाले को नहीं अपितु अपने सुखों का परित्याग करने वालों का आदर करती है तो उन्हें यह मलाल क्यों था कि उनका बेटा अनैतिक-अपराध के गड्ढ़े में जा रहा।
वे नैतिक कंगाली के भंवर में फंस चुके थे। निजात पाना आसान नहीं लग रहा था। यहां से उन्हें सिर्फ डूबना ही दिखाई दे रहा था। वह सोचने से परे की अवस्था में जाना चाहते थे यानि पलायन ताकि भावों की भीतरी तहें षांत हो सकें। कायरों,डरपोकों की भांति जीना और उस पर साहसी-शराफत का लबादा ओढ़े रहना ही उनकी नियति बन चुकी थी।
नीलम शंकर
फरवरी 22, 2008

हिजाब

हिजाब
पता नहीं कहाँ से नफा नामक चीलर उनके शरीर में प्रवेश कर गया था। वह अपने परिवार के एकछत्र मुखिया थे। कहते हैं चीलर आदमी के पड़ जाए तो आदमी मालामाल हो जाता है या फिर दरिद्र। लेकिन नफा हो या नुकसान चीलर तो हमेशा गन्दगी से ही जन्मता है और वह धन से लबरेज हो जाता है। यह विरोधाभास कैसे ? वह उस गन्दगी से उपजे कीड़े में हमेशा अपने लाभ की सोचते थे। कहते हैं कि फौरी फायदा उन्हें हो भी जाता था। बाद में भले ही नुकसान हो जाता था। लेकिन लाभ की दूसरी युक्ति सोचने से वह नहीं चूकते।
देवरिया में राज नरायण सरकारी मुलाजिम थे। उनको भगवान ने तीन पुत्र दिए। ग्रामीण मानसिकता में लड़के की आवाज फूटी नहीं लड़की वाले आने लगते हैं। आपसी कहा-कही में बतियाते हैं 'लड़का जवान हो रहा है'। उनके यहाँ भी आने लगे थे। बार-2 की असमय बरदेखुवासी से उनकी पत्नी आजिज आ गयी। संकोच हटा दिया था पत्नी ने, अबहीं शादी न किहल जाई, कुछु पढ़ल-लिखल जरूरी बा न। राज नरायण के नायकत्व का भाव सिर चढ़कर बोलता। 'बउरही नफा की सोचल कर-नफा, बम्बईया पार्टी हौ, बिजनिस करेलन खूब लिहल-दिहल करिहैं। और तुहूं त पतोहिया से हाथ-गोड़ मिसवइबू।' कहकर शरारत भरी मुस्कान मार दिए थे। इतनी सी बात पर भी वह लजा सी जाती थी। ऐसा पुरबिया लोगों का अनुभव कि कलकत्ता वाले हो या बम्बई वाले बिन मांगे घर हमेशा भरते रहते हैं। उनके रिश्तेदारों-पट्टीदारों के अनुभवों से उनमें ऐसी अवधारणा बन चली थी।
पहलौठी की औलाद हो या बड़ी बहू का बड़ा प्यार-दुलार, मान-सम्मान होता है। बार-बार की अवनी-पठौनी में भी बहू को गौने जैसा ही बिदाई-मिलना मिलता है। राज नरायण का बेटा किसी का दामाद था। दामाद बेहिल्ले का हो तो बेटी के पिता के लिए इससे बड़ा दुख और क्या हो सकता है ? आवारा निकम्मा होता देख बहू के पिता ने नौवीं पास दामाद को बम्बई में कई जगह नौकरी दिलाई। दामाद में ड्राइंग का हुनर इतना काबिले-तारीफ था कि इसी बल पर बहुत जगह नौकरी लगी। परन्तु दामाद को जो मजा मेहरारू के जांघ में और महतारी के कोरा में,खटने में कहाँ। ''राज नरायण का बेटा जब भी बम्बई से लौटता तो अगाध प्रेम की रट, 'हे माई जब सोइले तब तू सपना में आवेलू ऐही खातिर नौकरी छोड़ के चल अइनी', कहते-कहते माँ की गोद में सिर रख ऑंचल से चेहरा ढ़ंक लेता। माँ भी भाव-विभोर, निश्छल प्रेम जान वह कह उठती, 'जाएदा, जैसे कुल्हिन बड़न तुहूं के खियाइब-पहिराइब। अपढ़ माँ की अनुकम्पा उसे अव्वल दर्जे का आवारागर्द और गैर जिम्मेदार बना रही थी। राज नरायण सोचते यदि बहू पढ़ी-लिखी होती तो उनके लड़के को समेट लेती। यह सोच भी उनकी अपनी नहीं थी। वह तो कुछ उच्च-शिक्षित नाते-रिश्तेदारों की सीख थी जो उन्हें सोचने पर मजबूर कर रही थी।
सोच लिया था जब तक दूसरा बेटा नौकरी-चाकरी न करेगा, तब तक ब्याह न करूँगा। नहीं तो पहले वाले की तरह बेटा, बहू और साथ में दो-दो बच्चे भी पालूं।
राज नरायण के पास खाली वक्त की कमी नहीं थी। उन्हीं घड़ियों में वह सोचते और भय भी खाए रहते, कहीं यह नफा सोच का चीलर नौकरीशुदा दूसरे नम्बर के लड़के में न पड़ गया हो। इसलिए वह इस बार बड़े ही सजग और सतर्क होकर अपने दूसरे बेटे के शादी सम्बन्धी अभियान में सरक रहे थे। वह दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था। इस बात से डरे रहते कहीं उसे उनका भी बाप मिल गया और फुसला लिया तो ? उनकी सारी की सारी पिलानिंग धरी की धरी रह जायेगी। उन्होंने पूरी नाते-रिश्तेदारी में फैला दिया था इस जुमले के साथ, 'अब हम दुसरका के शादी करब, निक पढ़ल लिखल लड़की होवे क चाहीं, साथे म उहौ चाही.....।'
किसी का भी लड़का सरकारी नौकरी में हो तो लड़की वाले टूट ही पड़ते हैं यह बहुत पुराना चलन है। वह बातचीत से लड़की के पिता का स्टैण्डर्ड भाँप लेते, चतुर सुजान जो ठहरे। उसी के अनुसार आवभगत करते। जहाँ जान लेते बात आगे नहीं बढ़ेगी, उसे गुड़-पानी ही पिलाकर भेज देते। रोज अपनी डायरी में नोट करते मिठाई-मठरी का खर्चा। पत्नी के आगे बड़बड़ाते, 'मय सूद के वसूलूंगा'। एक से एक रिश्ते आने लगे थे। वह हर आवन रिश्ते का ब्यौरा बेटे तक पहुंचाना अपना फर्ज समझते थे।
ऐसी रूढ़ि कि सच्चा पत्नी धर्म वही होता है जो पति के विचारों को ही अपनी प्रवृत्ति माने। यदि वह अपने विवेक का उपयोग करने या स्वेच्छाचारी बनने की सोची भी तो रानी-महारानी से चाकरनी का दर्जा दे देने की धमकी-धौंस देने से नहीं चूकते। साहस हो या दुस्साहस दोनों के लिए शक्ति सामर्थ्य चाहिए, जिसका कि उनकी मातृविहीन पत्नी में अभाव था। पत्नी में निश्ठा-आस्था चौबिस कैरेट जैसी शुध्दता होनी चाहिए, ऐसी ये आम पतियों की आकांक्षा रहती ही रहती है। इसका पालन उनकी पत्नी बखूबी कर रही थी। वह अपनी शातिर-सोच के चलते पत्नी में विद्रोह-विरोध की भावना को ही नहीं पनपने देते थे। परिवार में अपनी मजबूत स्थिति के चलते यदि अंकुरित होते भी तो फूटने के पहले ही उन्हें भनक लग जाती और वहीं उसे वह मसल कर रख भी देते थे, 'अनपढ़ गंवार दिहातिन'या फिर 'घरे मां रहेलू तू का जाना', के दिल भेदी वाक्य स्वाभिमानी पत्नी को भेद जाते और वह चुप हो जाती।
पत्नी का बड़ा मन था कि रिश्ता वहाँ हो जाए, जहाँ बाप पैट्रोल-पम्प लड़की के नाम लिख रहा है। शर्त यह कि लड़का घरजंवाई रहेगा। पत्नी अपनी दलीलें देती, 'पतोहिया क ह त बेटवा क ह, बेटवा क ह त हमार ह। ऐके पिटिरौल पम्प से हमार ममिया भाय तीन ठौ क लिहलन' त मझिलकौ कै लेई।' राज नरायण पत्नी की इस कुसलाह पर डपटते, 'चुप्प बेकूफ गोसांई के बिटिया हऊ तू, का जाना मनई क नेत। बेटवा ग तौ पम्पवौं गा। अपमान से जन्मी खिसियाहट में वह वहाँ से काम का बहाना करके उठ जाती।
एक दिन राज नरायण की पत्नी बड़ी प्रफुल्लित-उल्लसित सी पति के ऑफिस से आने का इन्तजार कर रही थी। आते ही न चाय न पानी, 'आज हमार भतीज आइल-रहल। कहत-रहल बुआ एगो लड़की बैंक म बा, बाप रिटायर हौ। दहेज ठीक-ठाक मिलिए जाई, काहे कि एक ही बिटिया ओकर बा। यदि नहियो मिल त लड़की सोना का अंडा देय वाली मुर्गी हौ। जब चाहीं तब अंडा मिली।' बात राज नरायण को जम गई थी। यहाँ पर उन्होंने अपनी अन्य अदृश्य शर्तों से समझौता कर लिया था। उन्हें इस बात की पक्की खबर थी कि लड़की वाले सीधे बेटे के पास ही कुण्डली-फोटो लेकर कई बार पहुँच चुके थे। भयभीत राज नरायण शंकाग्रस्त हो उठे कहीं ऐसा न हो शादी में सुस्ती देरी होते देख लड़का ऑफर एक्सेप्ट कर ले। कितनी भी चतुरा होगी बहू या बेकूफ तो भी बहू की कमाई बहू की ही रहेगी। पूत की कमाई तो हमारी ही रहेगी। ना देई त बेटवा के नटई धर के तो लेइब। शादी हो गई, लेकिन मन माफिक विदाई-व्यवहार न पाने की असन्तुष्टि थी। परन्तु पत्नी का ढ़ाढ़स 'सोने का अंडा देय वाली मुर्गी है' ढ़ाढ़स बंधा देता।
शिक्षा इन्सान को जागृत व सभ्य करती है साथ ही आत्मविश्वास भी बढ़ाती है। और तो और मजबूती भी लाती है। पर स्त्रियों के मामले में हमेशा यह सच नहीं होता है। उनकी मझली बहू राज नरायण की मंशा जान गयी थी। उन्होंने अपनी मंशा को क्रियान्वित भी करना शुरु कर दिया था। उसने सभ्य-शिष्ट तरीके से सास की मार्फत अपनी बात कई बार पहुंचायी थी, 'अम्मा हमारे भी खर्चे हैं हमें भी अपने ढ़ंग से जीना है हम आप लोगों की जिम्मेदारी से मुकर नहीं रहे पर हमें भी स्वतन्त्र ढ़ंग से खाने-रहने तो दीजिए।' ऐसी बातें तो राज नरायण को सुनाई ही नहीं पड़ती थी। बहू कामकाजी स्त्री से घरेलू स्त्री बनती जा रही थी या यूं कहें सबल बहू से एक निर्बल बहू जो घर को ही सजाने-सँवारने और शान्ति से रखने को ही अपना धरम मानती। बहू नौकरी छोड़ घरेलू स्त्री बन गयी थी। पति की कमाई पर पूरी तरह निर्भर यानि आत्मनिर्भर से परनिर्भर।
वह यह तो चाहते थे बहू स्वावलम्बी तो रहे पर स्वतन्त्र न रहे। पाबन्दी का कोड़ा मेरे हाथ में रहे। उनकी रायशुमारी जाने बिना ही, बेटे की मौजूदगी में बहू का नौकरी छोड़ना, उन्हें लगा जैसे आसमान से नीचे गिर पड़े हों। उन्हें शत-प्रतिशत यही अनुमान हो चला था। पढ़ी-लिखी लड़की ने मेरे भोले बेटे पर अपना माया-चक्र चला दिया था। नहीं तो क्या मजाल बेटा बहू के सुर में सुर मिलाए।
यह नफा नामक चीलर उनकी प्लानिंग पर पानी फेर गया था। चीलर भी किसी को मालामाल करते हैं सिवा कंगाली के। लेकिन यह लोगों के खुशफहमी में जीने की कल्पना है। जब कभी विवेक जागता तो मन को धिक्कारते। कीचड़ में कमल खिलता है, कमल, पर लक्ष्मी जी का वास है, यानी कि पैसा। अरे यह सब पुराणों की ही शोभा बढ़ाता है।
लेकिन अभी तक नफा नामक चीलर की उम्मीद उन्होंने नहीं छोड़ी थी। उनकी आशा तीसरा बेटा जो ठहरा। पत्नी भी साथ छोड़ चली। अकेला असहाय बुढ़ापा कैसे निबटेगा यही सोच उन्हें यानि राज नरायण को परेशान किए जा रही थी। तिकड़मी दिमाग में फितरतों की बाढ़ आने लगी थी। उसकी कई धाराओं में इसी धारा में उनकी बहने की इच्छा और जरूरत उन्हें सटीक लगी थी। पेनशन है ही कोई स्वजातीय गरीब कन्या मिल जाती तो अच्छा था। अन्यथा विजातीय ही हो परन्तु हो गरीब ताकि निठल्ले बेटे-बहू पर पेनशन का और मेरा दबदबा रहे नहीं तो इस बुढ़ापे में मेरी क्या अहमियत ? बेटे के बेकारीपन की वजह थी। अचानक बेकारी, बेकारी से काम फिर अनएम्प्लायमेन्ट। रोजगार की अस्थिरता उसके जीवन में बनी हुयी थी। देवरिया से बाहर उसे वह भावनात्मक दबाव डालकर जाने नहीं देते थे। ऐसे में आय और व्यय में बहुत उतार-चढ़ाव आते रहने से मितव्ययिता और सूझ-बूझ से खर्च करने की उसकी आदत छूट गयी थी। अच्छे दिनों में भी जब पुन: रोजगार मिल जाता है तो नियन्त्रित तरीके से धन खर्च करने की आदत छू-मन्तर हो जाती। बेरोजगारी के दिनों में जिन बचनाओं को सहना करना पड़ता उसकी तो मनोवैज्ञानिक रूप से क्षतिपूर्ति निरन्तर उन मानसिक मरीचिकाओं से होती, जी भर कर ऐश करते समय जिनके साथ वह अपने होने की कल्पना करता। अन्तत: ऐसी स्थिति में उनके तीसरे बेटे का पूरे माह का वेतन एक सप्ताह में ही समाप्त हो जाता था। फिर वह अपने कहलाऊ पिता राज नरायण पर आश्रित हो जाता। उसकी इस आदत पर उन्होंने न कभी टीका टिप्पणी ही की नाही नाराज-एतराज किया।
सफेदपोश राज नरायण को इस बात की भनक लग गयी थी। उनका बेटा खूबसूरत जवान महरिन पर मर रहा था। मन को समझा लेते, बाहर मौज-मस्ती करेगा तो बदनामी होगी। चारदिवारी में कौन जान पायेगा। नाक भी बची रहेगी। इश्क-मुश्क की गन्ध-सुगन्ध कहाँ कैद रह सकती थी। बात मुहल्ले में फैलने लगी थी। बेटा को समझाया, महरिन को डपटा पर सब बेअसर ही रहा। बुढ़ापे में अन्दर ही अन्दर भय भी खाते थे। कहीं बेटा नाराज हो गया तो और और वह काम छोड़ गयी तो सब से हाथ धोएंगे। अलग हुयी बड़ी बहू ने नसीहत भी दी थी, 'बाबू रउवा हमरे चूल्हा मा खाना खांई, छोड़ी उनहन के बड़ बदनामी होखऽऽऽत। बाद म आप ही के पोता-पोती के बियाहे म दिक्कत होई। खबर लगने पर दूसरे बेटे की बहू ने भी अपने तरीके से समझाया था, 'बाबू जी शादी-ब्याह में धन-पैसे, जाति-धर्म का स्तर ना सही परन्तु शिक्षा का स्तर तो देखना ही चाहिए। घर में एक भी अशिक्षित सदस्य हो, वह भी परम्परा वाहक हो तो सोचिए आगे का भविश्य कैसा होगा ? परन्तु उन्हें ऐसी गूढ़ बातें निजी फायदे के आगे कहां समझ में आती। दोनों बेटा-बहू के भारी विरोध के बावजूद विजातीय गरीब, अशिक्षित मजदूर कन्या को बहू स्वीकार लिया था। कन्या भी मन-तन से मालामाल हो गयी थी और मजदूरी से भी छुटकारा मिला था। राज नरायण भी सन्तुष्ट हो गये थे। सुश्रुषा को कन्या रूपी बहू जो मिल गयी थी। अपने से भिन्न जाति की निर्धन लड़की स्वीकारी थी, कुल का नाम दिया था, वह कृतज्ञता के बोझ तले दबी रहेगी तभी तो उनकी हेकड़ी चलती रहेगी।
अशक्त बुढ़ापा इन्सान में निराशा भरने लगता है। निराशा ज्यादा दिन साथ निभा दे तो हताशा घर करने लगती है। राज नरायण इससे अछूते नहीं थे। समय गुजरने के साथ-साथ तीसरा बेटा भी दो बच्चों का पिता बन गया था। राज नरायण की चिन्ता दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। बुदबुदाते, ' मैं अस्सी पचासी के बीच रन कर रहा हँ, मेरे बाद इस अलहदी बेटे के बच्चों का क्या होगा, जो अभी अबोध असहाय हैं।
उन्होंने हमेशा ही लाभ का सरल शार्टकट ढूंढ़ा था। दोनों बेटे-बहुओं की उपेक्षा से उनका शरीर दुगुने वेग से छीज रहा था। उन्हें अब अपनी जिन्दगी में ज्यादा गुंजाइश नहीं महसूस हो रही थी। नजदीक रहता बेटा उन्हें अब बोझ लगने लगा था। पोतों का बोझ उन्हें तोड़ रहा था। मरने के पहले कुछ उपाय कर लेना चाहते थे। फिर वही सरल और निर्मम रास्ता सूझ गया था। अति फिक्रमन्दी से जर्जरित काया में ताप घर कर गया था। दोनों न सही एक ही पोता कोई गोद ले लेता तो राहत मिलती। मेरे मरने के बाद तंगहाली में बहू खून-पसीना करने लगेगी तो यदि कहीं मासूमों को भी इसी में लगा दिया तो उनका भविष्य , यह भीषण समस्या उनके सामने मुँह बाए खड़ी थी। लिहाजा परिचितों शुभचिन्तकों में एक बात चलानी शुरु कर दी थी। उनसे कहते, 'बहुत से नि:सन्तान दम्पति हैं जो लाख उपायों के बावजूद औलाद से महरूम हैं और अनाथालय की बेरहम-उबाऊ प्रक्रिया में वह गुजरने से परहेज तथा अपमान दोनों ही समझते हैं।
वह अलगरजी जरूर थे परन्तु असामाजिक नहीं थे। उन्हीं के एक खास मित्र ने एक नि:सन्तान दम्पति को भेज भी दिया था जो संयोगवश समृध्द भी थे। यह जानकर कि वह ठाठ वाले हैं, नफा का चीलर फिर कुलबुलाने लगा था। मन ही मन गणित बैठाने लगे थे। पोते के बदले कुछ चल-अचल मिल जाता तो मेरा वर्तमान-बेटे का भविष्य निश्चिंत हो जाता। लेकिन चौथेपन की लाचारी ने आत्मविश्वास डिगा दिया था। जर्जर काया मन को धिक्कारती मांगूंगा नहीं उनके द्वारा अस्वीकार की स्थिति में मित्रों के मध्य बदनामी और बेरुखी दोनों का सामना करना पड़ सकता था। जीवन के अन्तिम समय में कलंक की सोच रूह कांप उठी थी। कभी भी सिर से पानी ऊपर न गया था। हमेशा ढ़ँकी-तोपी में जी आए थे। अब भी कुछ-कुछ वैसी ही युक्ति सोच रहे थे।
सभ्य सुशील एक जोड़ा उनके सबसे छोटे पोते, जो मात्र छह माह का था, को पसन्द कर गये थे। उन्होंने बड़े पोते को सयाना मान अस्वीकार कर दिया था। एक सप्ताह बाद मय तैयारी के साथ आने की बात कर गये थे। एक पखवाड़ा बीत गया। नहीं आए। चिन्ता स्वाभाविक थी। दौड़े-लपके, गये परिचित के यहाँ। जो सुना उससे अवसन्न से हो गये थे और मित्रों को जब पता चलेगा तो उघाड़ हो जाऊँगा।
वह बेटे की नग्नता की थर्राहट से क्रोधाग्नि मे जल रहे थे। सोचा कहीं क्रोध में मामला हाथ से न निकल जाए। वह बेटे को समझाने की मुद्रा में बोले, लेकिन आवाज की तल्खी पर नियंत्रण न रख पाए थे, 'नीच कमीने तुम्हारा जीवन तो नहीं सुधरेगा पर अपने जन्मे की तो सोच, उसकी जिन्दगी बन जायेगी। तू गया और दो लाख की डिमान्ड कर आया। कहता है मैं अपना बच्चा भी दूँ, और कुछ नफा भी न हो, अबे गधे फौरी नफा की क्यों सोचता है।'
'बाबू जी कल किसने देखा है। नियति बदलते कितनी देर लगती है, अपने खून का भी भरोसा नहीं करना चाहिए।' बेटे के इस अप्रत्याशित घुड़की भरे जवाब से उन्हें काठ सा मार गया था।

सहज होते ही वह चिन्तन करने लगे थे। पशु भोजन की तलाश तभी करता है जब उसे भूख लगती है। प्रारम्भिक स्थिति के जीवों में आत्मसुरक्षा की भावना अपने निज की रक्षा से आगे नहीं जाती। उनमें आत्म तत्व प्रबल होने के साथ, वे आत्मकेन्द्रित भी होते हैं। दूसरे वर्तमान तक ही सीमित रहते हैं। वे वर्तमान से हटकर किसी भविश्य की कल्पना कर ही नहीं पाते। तो क्या उनका बेटा पशु बनने की राह पर चल रहा था बल्कि जानवर ही हो गया था।
अपना पूरा जीवन-चक्र उन्होंने खंगाल डाला था। उनके ही
हमा-हमी के विचार तो उसमें जड़ें भी गहराई तक समाए हुए थे। बच्चों का अभिभावकों से वैचारिक रूप से मेल खाना शायद यही संस्कार है। बदलते समय में जैसे-जैसे निजत्व की भावना का फैलाव होता गया पारिवारिक व्यवस्था चरमराती गयी। व्यक्ति स्वर्ग से गिरकर नरक में पहुँच रहा है। सीधे शब्दों में कहा जाय तो उनका अपना बेटा ही अपने जन्मे का सौदा कर रहा था। इससे बढ़कर नैतिकता का पतन और क्या हो सकता है। उनकी तरह वह भी निजत्व की भावना से ऊपर नहीं उठ पा रहा था। उन्होंने भी तो पूरे जीवन-काल में यही किया था। तो अब क्यों वह उनका सम्मान करने लगेगा। भावी पीढ़ियां तो अपने हितों की रक्षा करने वाले को नहीं अपितु अपने सुखों का परित्याग करने वालों का आदर करती है तो उन्हें यह मलाल क्यों था कि उनका बेटा अनैतिक-अपराध के गड्ढ़े में जा रहा।
वे नैतिक कंगाली के भंवर में फंस चुके थे। निजात पाना आसान नहीं लग रहा था। यहां से उन्हें सिर्फ डूबना ही दिखाई दे रहा था। वह सोचने से परे की अवस्था में जाना चाहते थे यानि पलायन ताकि भावों की भीतरी तहें षांत हो सकें। कायरों,डरपोकों की भांति जीना और उस पर साहसी-शराफत का लबादा ओढ़े रहना ही उनकी नियति बन चुकी थी।
नीलम शंकर
फरवरी 22, 2008

करगिल की विधवा(मेजर रतन जांगिड )

करगिल की विधवा
करगिल की लड़ाई जारी थी। जिन घरों के फौजी लड़ रहे थे उन घरों के सारे लोग गमकीन थे। शाम का चूल्हा भी इतना लंबा नहीं जलता था जितना कि लड़ाई से पहले। पूरे दिन-रात गांव व शहरों में एक ही चर्चा रहती थी। आज 'टाइगर हिल' फतह कर ली है, सुनकर सबके सीने तन गए। पन्ना पिछले कई दिनों से मन के बवंडर में उलझी हुई थी। पति रामेश्वर करगिल की चोटियों में था। उसे तो बस इतना पता लगता कि लड़ रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं और जल्दी ही पाकिस्तानी घुसपैठियों को पीछे धकेल देंगे।
कितना साथ बिताया रामेश्वर के साथ। एक रोज वह गिनने लगी। दो साल भी शादी को पूरे नहीं हुए। पहली बार छै: रोज, फिर दूसरी बार पन्द्रह रोज की छुट्टी आया तो ग्यारह रोज, फिर एक बार एक महिना तीन दिन और पिछली बार तेइस दिन, कुल मिलकर तेहतर दिन। ढाई महिने भी पूरे नहीं। लेकिन याद हमेशा रहता है, बिल्कुल सामने। पता नहीं कैसे गोले गिरते होंगे और रामेश्वर कहां छिपता होगा। कई कल्पनाएं करती हुई वह व्यथित रहती।
फिर एक रोज समाचार भी आ गया। रामेश्वर शहीद हो गया। जान दे दी भारत-मां के लिए। पूरा देश गौरवान्वित हो गया लेकिन उसे क्या मिला। एक असह्य दर्द, लंबी पीड़ा और जिंदगीभर की रूलाई। कितनी दहाड़ी थी जब उसने यह सुना और फिर पागलों जैसी हो गई थी जब गांव में रामेश्वर का शव आया।
दाह संस्कार में शामिल थे जिले के कलक्टर, बड़े-बड़े हाकिम, अफसर, मंत्री, नेता और आसपास के गांवों के लोग। 'जब तक सूरज चांद रहेगा, रामेश्वर तेरा नाम रहेगा' के नारों से आसमान गूंज उठा। लेकिन उसके मन में क्या तूफान था, उसे तो वही समझ रही थी।
पूरे घर में मायूसी थी। सास-ससुर रो-रोकर पागल हो गए लेकिन अब वह नहीं रोती। कितना रोएगी। फिर सरकार ने भी लाखों रुपये देने की घोषणा कर दी। साथ ही कई एकड़ जमीन देने का वादा भी। पेंशन भी मिलेगी। पैसा खूब मिलेगा लेकिन रामेश्वर कभी नहीं आएगा।
बारह रोज से बीस रोज और फिर डेढ़ महिना। सास-ससुर की तमाम इच्छाएं और उम्मीद पन्ना पर आ टिकी। इकलौता बेटा था और कोई नहीं जो अब उनका भरण-पोषण कर सके।
गांव वाले राय देते, तमाम पैसा बैंक में डाल दो और ब्याज से काम चलाओ। सास-ससुर रोते रहते और पन्ना को अब पैसे से क्या मोह। जब रामेश्वर नहीं तो पैसा किसके लिए रखेगी। कहां खर्च करेगी। किसके लिए श्रृंगार करेगी।
एक रोज उसके गांव की सहेली चंदा उससे मिलने आई। दोनों गले लगकर खूब रोई। पन्ना को भी सुकून मिला कि कोई तो है जो अब मन की बात पूछेगा। एकांत में दोनों बैठकर बातें करने लगी।
''पन्ना तुम्हारे सामने तो पूरी जिंदगी पड़ी है।''
''हाँ................।''
''कब तक अकेली बैठी रहोगी।''
''जब तक भगवान चाहेगा।''
''अब तो भगवान नहीं, तुम्हें ही करना पड़ेगा।''
''क्या करूं।''
''देख, छोड़ यह रोना-धोना। तेरी भी कोई शादी है, भला। मात्र दो-तीन महिने तो साथ रही, फिर क्या शादी। पूरा जीवन सामने है। पैसा भी पूरा तेरे ही नाम है। देख, कोई दूसरा ढूंढ ले, ऐश करेगी।''
''चन्दा, क्या बोलती है। उनकी मेरे मन में याद...........।''
''अरे ये भी ज्यादा दिन नहीं टिकने वाली। एक साल बाद ही तू महसूस करेगी। अकेलापन तुझे खा जाएगा।''
''लोग क्या कहेंगे।''
''कहने दो। यही कहेंगे कि सास-ससुर को छोड़कर चली गई।''
''मेरा मन गवाही नहीं देता।''
''तो फिर रो जिंदगी भर। फिर कभी मिलने पर मत कहना, मैंने तेरा भला नहीं चाहा।''
सुनकर पन्ना भी सोचने पर मजबूर हो गई। चन्दा की बात में सच्चाई तो है। लेकिन सास-ससुर को कौन संभालेगा। दुनिया वाले क्या कहेंगे। कई तरह की बातें उसके मन में उमड़ती रही।
चंदा तो कहकर चली गई लेकिन पन्ना के मन में उथल-पुथल मचा गई। और फिर एक रोज पन्ना के बाबा उसे लेने भी आ गए। पीहर में रहेगी तो मन हल्का हो जाएगा। सास-ससुर ने भी यही सोचा और पन्ना को बाबा के साथ पीहर भेज दिया।
पन्ना पीहर आ गई। मिलने वाली महिलाओं का घर पर तांता लगा रहता। 'क्या करेगी बापड़ी (बेचारी), कैसे गुजारेगी जिंदगी।' बार-बार महिलाएं बोलती। उसे यहां भी चैन न मिलता। न किसी सखी-सहेली से खुलकर बातें कर पाती और न ही पूरी तरह गांव की गलियों में जा पाती। बस घर पर ही रहती और जो भी मिलने आता, उसके मन के तारों को झंझाकर चला जाता।
एक रोज तो मां और बाबा ने भी कह दिया,
''बेटी, जो कुछ हो गया उसे भूल जा। अभी हम बैठे हैं न तुम्हारे लिए। फिक्र मत कर। हम तुम्हें अच्छे घर भेजेंगे।''
सुनते ही वह अवाक रह गई। मां-बाप भी उसे कहीं भेजने की सोच रहे हैं। वह धीरे से बोली,
''नहीं मां, मुझे कहीं नहीं जाना। सास-ससुर को कौन संभालेगा।''
''पागल है तू। तूने ठेका लिया है। और भी तो जीते हैं। जब तक रामेश्वर था तब तक ही वह तेरा ससुराल था। जब पति नहीं तो ससुराल को क्या धोकर पीना है।''
सुबह-शाम अब तो एक ही चर्चा रहने लगी। मां-बाप बार-बार यही कहते रहते कि उसे दूसरा घर करना है। दो हफ्ते भी नहीं बीते होंगे कि ससुरजी वापस लेने आ गए और बोले,
''बेटी, घर चल। तेरे जाने के बाद तो घर पूरा ही सूना हो गया। तू सामने रहती है तो थोड़ा मन लगा रहता है।''
''अबकी बार तो भेज देता हूँ लेकिन अगली बार नहीं। अरे अभी बच्ची है। इसने देखा भी क्या है। इसके तो पहनने-खाने के दिन आगे पड़े हैं। हमने सोच लिया है, इसका दूसरा घर बसाएंगे।'' उसके बाबा बीच में बोल पड़े।
''लेकिन हमारा क्या होगा। सब कुछ तो बहू के नाम है। आखिर बेटा हमारा भी तो था।''
''यह तो सरकार जाने। जिसके किस्मत में जो लिखा है वही मिलता है। हम अपनी बच्ची को आपके यहां अब ज्यादा दिन नहीं छोड़ेंगे।''
बेचारा ससुर चुप हो गया। उसकी आंखें गीली हो गई। खैर उसके बाबा ने पन्ना को एक बार तो उसके ससुर के साथ भेज दिया।
फिर वापस आकर ससुराल रहने लगी। पूरे गांव में बात फैल गई। पन्ना दूसरा घर बसाएगी। उसके मां-बाप भी यही चाहते हैं। घर के पास गली निकलती गांव की महिलाएं पन्ना पर फिकरा कस ही देती थी, 'कैसी करगिल की विधवा, पूरा पैसा लेकर चली जाएगी। रोएंगे बेचारे फौजी के मां-बाप।' कोई तो यहां तक भी कहती न चूकती, 'पैसा भी मिलेगा और पति भी मिलेगा, ऐश करेगी।' सुनकर वह घंटों रोती।
ज्यादा वक्त नहीं गुजरा। एक रोज उसके बाबा फिर उसके ससुराल पधार गए। पन्ना को लेकर जाएंगे। सास-ससुर ने बहुत विनती की। बाबा को समझाया कि अब पन्ना ही उनका सब कुछ है। बेटी की तरह रखेंगे। घर पर रानी की तरह रहेगी। घर पर पूरा अधिकार उसी का रहेगा। उसे यहीं रहने दो।
बाबा न माने और पन्ना को जबरदस्ती पीहर ले गए। सास ससुर रोते रह गए। बाबा के सामने वह भी अपना मुंह न खोल पाई। पन्ना फिर पीहर आकर रहने लगी।
अगला सावन आ गया। लड़कियां हिंडोलों पर पींग चढ़ाने लगी। सारी साथिनें गीत गाती और वह उन्हें देखती। मन दु:खी हो जाता। कैसी नाव पर चढ़ेगी, उसे खूद नहीं मालूम। उसके बाबा के पास कई लोग आते और बाबा उनसे चुपचाप बातें करते। लेकिन उसे पता लग ही जाता। उसका घर बसाने की तैयारी चल रही है।
बाबा महिने की महिने शहर लेकर जाते और वह कागज पर टूटा-फूटा सा लिखकर दस्तख्त कर देती। पैसा लेकर बाबा खुशी-खुशी गांव लौटते। एक दिन रात का समय था, सभी खाना खा रहे थे। उसके छोटे भाई ने बात छेड़ दी,
''बाबा, सभी अच्छी-अच्छी जगह पढ़ने जा रहे हैं। मैं ही रह गया हूँ। अगर अपने पास पैसा होता तो मैं भी दिल्ली जाकर पढ़ता।''
''अरे बेटे दु:खी क्यों होता है। बोल न अपनी जीजी को। लाखों पड़े हैं बैंक में। जब कमाने लायक हो जाएगा तो वापस लौटा देना। फिर बहन-भाई का किसने बांटा है।'' उसके बाबा बोले।
''क्यों जीजी, आप मुझे भेजेंगी दिल्ली।'' छोटे ने कहा।
''अरे क्यों उसे तंग करता है। सोजा। सुबह सब प्रबंध हो जाएगा।'' उसके बाबा ने पन्ना की ओर देखकर कहा।
वह कुछ न बोली। दूसरे रोज उसके बाबा उसे शहर के बैंक में ले गए। उसने फिर दस्तखत कर दिए और हजारों रुपये खाते से निकल गए। छोटा भाई उसी दिन शाम को ही दिल्ली रवाना हो गया। साथ में पन्ना से वह वचन भी ले गया कि जब भी पैसे की जरूरत पड़ेगी, वह देगी।
पीहर में पन्ना महसूस करने लगी कि उसके बाबा अब ज्यादा ही खुश रहते हैं। एक रोज वे मुस्कराते हुए पन्ना के पास आए। साथ में बड़ी-बड़ी मूंछों वाला एक अधेड़ सा आदमी भी था। बाबा मुस्कराते हुए पन्ना से बोले,
''बेटी, ये माणक गांव के प्रधान हैं। करोड़पति आसामी हैं। बस एक ही कमी है कि पत्नी छोड़कर चली गई है। दो ही बेटे हैं, बड़ी स्कूलों में पढ़ते हैं। तू इनका घर बसा देगी तो राज करेगी। कोई कमी नहीं होगी तुझे जिंदगी में।''
पन्ना ने देखा कि वह प्रधान महाशय मुस्करा रहा था और घनी मूंछों में वह किसी डाकू से कम नहीं लग रहा था। उसे थोड़ी सी घिन्न आई। वह गुस्से से बोली,
''बाबा, रहने दीजिए मुझे अकेली। नहीं करनी मुझे शादी।'' और वह वहां से उठकर दूसरी ओर चली गई। उसके बाबा बड़बड़ाते हुए बाहर निकल गए।
बरसात का मौसम खत्म हो चुका था। रामी मौसी आई हुई थी। बड़े प्यार से पन्ना के गले लगी। पन्ना को पास बिठाया ऐसे जैसे कि वही उसकी असली हिमतगार है। प्यार से सर पर हाथ फेरा और बोली,
''बेटी, अब तो एक साल से ज्यादा अरसा गुजर गया है। मैं तेरे लिए ही आई हूँ। मेरे जेठ का लड़का है। उम्र भी ज्यादा नहीं। पैंतीस के आसपास होगा। कद काठी का अच्छा है। बस तू हां कर दे। जिंदगी भर मेरे ही पास रहेगी।''
पन्ना को याद आया, एक बार तीन-चार साल पहले देखा था। कितनी गंदी शक्ल का आदमी था और ऊपर से कुबड़ा भी। रामी मौसी को जरा भी शर्म नहीं आई। कैसी बातें करती हैं।
''नहीं मौसी, मैंने बार-बार कह दिया है न कि मैं दुबारा शादी नहीं करूंगी।'' और वह रोने लगी।
रात को उसके बाबा और रामी मौसी ने कितना उसे बुरा-भला कहा। 'कोई उसे उठा ले जाएगा तो क्या करेगी' कैसे-कैसे डर दिखाए। पूरा जोर डाला कि वह दूसरा घर कर ले। लेकिन वह बिल्कुल टस से मस न हुई। चुपचाप सुनती रही।
छोटे भाई का भी दिल्ली से बार-बार तकाजा आ जाता। बाबा भी वक्त वेवक्त पैसा ऐंठ ही लेते थे। घर पर कुछ सामान और कपड़े भी आ गए थे। एक बार घर का रंग रोगन भी हो गया लेकिन उसमें कोई तब्दीली न आई। वह देखती रहती थी कि उसके बाबा के पास कितने लोग आते थे। सभी की एक ही ख्वाईश कि पन्ना की शादी उनके लड़के के साथ कर दो या कई ऐसे भी थे जो खुद पन्ना के साथ घर बसाना चाहते थे।

इस दौरान एक बार फिर चंदा उससे मिलने आई। दोनों सहेलियां जोहड़ की तरफ जा रही थी। वहां पर गोलू खड़ा था। पन्ना को देखते ही बोला,
''पन्ना, तू तो विधवा हो गई। लेकिन तेरे पास पैसा बहुत है। मैं तैयार हूँ। बस तू हां कह दे।''
पन्ना ने देखा उसकी आंखें गीड़ से तर थी और वह बड़ी कामुकता से पन्ना को निहार रहा था। उसे उस पर गुस्सा तो बहुत आया लेकिन चंदा को खींचती हुई वहां से हट गई।
पन्ना अब महसूस करने लगी कि क्यों लोग लालायित हैं उससे शादी करने के लिए। सारे के सारे स्वार्थी हैं। लोगों की नजर तो उसके पैसे पर है फिर वह सोने का अंडा देने वाली मुर्गी भी है। जीवन भर पेंशन मिलती रहेगी। किसी को उससे क्या लेना देना। एक विधवा से शादी करने को इतने लोग उतावले। देश में और भी तो विधवाएं हैं, फिर क्यों नहीं उनका दामन थामते। लेकिन उनके पास शायद पैसा नहीं है।
और बाबा भी मतलबी। पता नहीं किस आड़ में उसका घर बसाना चाहते हैं। क्यों लेकर आते हैं ऐसे लोगों को उसके पास। वे भी शायद कुछ ऐंठना चाहते हों ऐसे लोगों से। वह जितना भी सोचती और उलझती चली जाती।
एक रोज डाकिए ने उसे एक 'रजिस्टर्ड पत्र' थमाया। सरकार ने उसको 'गैस एजेंसी' आवंटित करने का निर्णय लिया है। पत्र पहले ससुराल गया और फिर वहां पर वह न मिली तो पीहर के पते पर सूचना भेजी गई। उसके बाबा तो सुनकर निहाल हो गए।
सर्दी का मौसम जा चुका था। वह घर के कोने वाले कमरे में सोई हुई थी। अचानक उसकी नींद खुल गई। उसने कान लगाकर सुना, उसी की ही बातें चल रही थी। वह ध्यान से सुनने लगी,
''नहीं वह मान जाएगी।'' उसके बाबा बोल रहे थे।
''मैं उसे हमेशा खुश रखूंगा। फिर गैस वाला काम मैं संभाल लूंगा और घर वह देख लेगी।''
''यह तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन आपकी पहली पत्नी का क्या होगा।''
''उसे तो मैं पास तक नहीं फटकने दूंगा। फिर बड़े-बड़े नेताओं से पूरी सांठ गांठ है। इस बार टिकट भी पक्की है। मेरे सिवाय पार्टी में दूसरा कोई है भी तो नहीं।''
''मेरे तो धन्य भाग जो आप पधारे।''
''जरा पन्ना से बात तो कर लिजिए।''
''बात क्या करनी है, समझो सब कुछ पक्का। इतना बड़ा आदमी खुद रिश्ता लेकर घर आया है, यह तो उसका भाग्य है।''
उसने खिड़की को धीरे से खोला और देखा टोपी लगाए खद्दर का कुर्ता पाजामा पहने कोई नेता बाबा से बात कर रहे हैं। उम्र भी कम नहीं, चालीस से तो ज्यादा के ही लग रहे हैं। देखकर वह धक्क रह गई। 'उसे नहीं चाहिए ऐसी गैस एजेंसी', उसने स्वयं से कहा। बाबा को क्या होता जा रहा है।
पन्ना को अब अच्छी तरह मालूम हो चुका कि लोग क्यों उसके पीछे हैं। वह तुरंत उठी और बाबा के पास जा पहुंची। हिम्मत करके सिर्फ इतना बोली,
''मुझे नहीं करनी किसी से शादी। जिसको चाहिए वह ले ले यह गैस एजेंसी।''
फिर वापस कमरे में आकर रोने लगी।
दूसरे रोज उसके मामा का लड़का मगनू आया। नेत्रहीन मगनू ने पन्ना से ढेरों बातें की। पन्ना को उसी से मालूम पड़ा कि वह एक रोज उसके ससुराल गया था किसी के साथ। वहां पता चला कि उसके ससुर बहुत बीमार हैं, शायद ही बचें। सुना तो वह भी दु:खी हो गई। बाबा से कहा तो उन्होंने सुना अनसुना कर दिया।
पन्ना का दिल नहीं माना। उसके ससुर के पास उनका बेटा नहीं रहा लेकिन वह तो है। आज अगर रामेश्वर होता तो क्या मजाल जो उसके बाप की यह हालत होती। उसका भी तो फर्ज है। अगर रामेश्वर नहीं है तो वह तो है। जो कुछ उसके पास है वह रामेश्वर के बदले ही तो है। तो फिर उसको क्या हक है कि जो रामेश्वर का है उसे इस तरह लुटाए और रामेश्वर के मां-बाप ऐसी जिंदगी गुजारें। जीवन भर अन्न-अन्न को तरसें। सभी तो स्वार्थी हैं। चाहे बाबा हों और चाहे दूसरे लोग जो उससे बंधना चाहते हैं।
'पन्ना तुम गलत कर रही हो। तुम किसी की अमानत हो। तुम जिम्मेदारी से भाग रही हो। तुम गुमराह हो चुकी हो। तुम चाहती हो कि रामेश्वर की आत्मा खुश रहे तो वापस लौट जाओ। वापस लौट जाओ............. वापस लौट जाओ।' उसकी अंतरात्मा ने कई बार उसे आवाज दी।
''मैं वापस जाऊंगी।'' वह जोर से चिल्लाई।
''क्या हुआ बेटी।'' बाबा जोर से बोले।
''मैं अब यहां बिल्कुल नहीं रूकूंगी। बाबा उनको मेरी जरूरत है। मैं रामेश्वर के मां-बाप के साथ विश्वासघात नहीं कर सकती। मैं जाऊंगी।''
''तुम पागल हो गई हो।''
''नहीं, पागल तो मैं पहले थी। अब ठीक हो गई हूँ। मैं आपकी कोई बात नहीं सूनूंगी। मैं तुरंत वापस जाऊंगी।'' पन्ना ने जोर देकर अपने बाबा से कहा।
बाबा भी समझ गए कि पन्ना अब नहीं मानेगी। उन्होंने हथियार डालना ही उचित समझा।
पन्ना ससुराल की ओर चल पड़ी। ज्योंही वह अपने घर में दाखिल हुई तो ससुर की हालत देखकर रो पड़ी। उसने अपने ससुर के चरण स्पर्श किए और बोली,
''बाबा, मैं लौट आई हूँ और अब कभी उधर नहीं जाऊंगी। मैं जिंदगीभर आपके साथ रहूंगी। आपका रामेश्वर बनूंगी। मैं आपके लिए अपने जीवन की तपस्या करूंगी। मैं शान से करगिल की विधवा कहलाऊंगी और शान से जिऊंगी।''
''अरे सुनती हो। अपनी पन्ना लौट आई है। मत देना मुझे वो कड़वी जहर जैसी दवाई। मैं ठीक हो गया हूँ। आओ देखो, मेरी बहू आ गई है। मेरी बेटी वापस आ गई है।'' वह खाट पर पड़ा-पड़ा कई बार बोलता रहा।
दो दिन बाद ही पूरे गांव में खबर फैल गई। 'बहू हो तो ऐसी। बहुत ही समझदार। अरे उसे तो लोगों ने बहका दिया। पन्ना तो हीरा है। असली करगिल के फौजी की पत्नी। गांव का नाम रोशन कर दिया।' सभी ने कहना शुरू कर दिया।
और ऐसा कहते हुए सभी गर्व से सीना फूलाते।
मेजर रतन जांगिड
सितम्बर 15,2007

कागभाखा(एस आर हरनोट)

कागभाखा
कौआ जानता है, दादी कब उठती है। वह रोज सुबह आंगन के उस पार बीऊल के पेड पर आकर बैठा रहता। दादी बाहर निकलती तो उसके हाथ में रात के बचे रोटियों के टुकडे होते।वह उन्हें हथेलियों के बीच बारीक मसलती और आंगन में एक ओर पत्थर पर रख देती। जैसे ही वह भीतर आती, कौआ उडक़र उन्हें निगल जाता। फिर काफी देर पेड पर बैठा रहता चुपचाप।
दादी जिस पत्थर पर रोटी रखती थी, वह काफी चौडा था। वह उसे रोज पानी से धोया करती। सप्ताह में दो बार तो असंख्य कौए दादी के घर के इर्द - गिर्द घूमते रहते। दादी उन्हें भी रोटी के टुकडे देती। कभी वह मोटे मोटे रोट पकाती, जो कुछ मीठे होते तो कुछ नमकीन। आंगन में आकर उन्हें एक तरफ रखती। थोडा पानी ले आती कडछी में दो चार आग के अंगारे और उंगलियों में थोडा ताजा मक्खन लगा कर अंगारों के ऊपर डाल देती। फिर देवता को एकाग्रता से धूप देती, जल चढाती और रोट के टुकडे - टुकडे क़रके चारों तरफ फेंकती। कभी - कभार कोई कौआ आस - पास नहीं दिखता। दादी उन्हें जोर जोर से पुकारती, ''आओ कागा आओ!''
कौए जहां कहीं भी हों, उडक़र झटपट चले आते मानो उन्होंने दादी का बुलावा सुन लिया हो।
कौओं से दादी का गहरा स्नेह गांव वालों को बराबर सकते में डाल दिया करता। तरह तरह की चर्चाएं गांव में होतीं। दादी के हमउम्र लोग जानते, दादी का मन जल की तरह निर्मल है। साफ है। उस पर दैवी कृपा है। लेकिन नई बहू - बेटियों, जवान लडक़ों इत्यादि के लिये दादी अच्छी नहीं थी। वह समझते, दादी जरूर कुछ जानती है। जरूर किसी को जादू टोना करती होगी। कुछ औरतें तो दादी को डायन कहते भी नहीं लजातीं।
पर दादी के लिये इसके कोई मायने नहीं थे। कोई कुछ बोले, कुछ कहे, कुछ समझे, पर दादी की दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आता।कोई भी गांव का अच्छा - बुरा काम दादी के बगैर सम्पन्न न होता। जहां किसी के घर बेटा जन रहा हो वहां दादी, जहां किसी के घर कथा हो रही हो वहां दादी, किसी का ब्याह - शादी वहां दादी और किसी के घर गमी हो तो वहां भी दादी।
बच्चे स्कूल से जाते तो दादी का आंगन पाठशाला बन जाती। वह कभी दादी से बुरा सलूक नहीं करते। दादी बच्चों की तरह खुश हो जाती। सोचती सारा घर उन पर लुटा दे। मौसमी फल न हों तो गुड क़ी डलियां तो बराबर बच्चों में बंटती रहतीं। फिर बच्चे दादी को तंग करते कि कोई कहानी सुनाए। दादी बाहर भीतर के काम से फारिग होती तो कई तरह की कहानियां बच्चों को सुनाती। और बच्चे खुशी - खुशी अपने अपने घर चले जाते।
दादी की उम्र पैंसठ से चार महीने ऊपर थी। लेकिन वह अभी सठियाई नहीं थी। चौकस फुर्तीली, एक गबरू की तरह चुस्त। दो तीन गाय, सात बकरियां, तीन भेडें और एक छोटा बच्छू दादी के ओबारे में थे। परिवार ज्यादा बडा नहीं। एक बेटा था। जो दोघरी में ब्याहने के बाद चला गया। बहू को दादी अच्छी नहीं लगी। बहू जब भी बीमार होती या जुकाम तक भी आ जाता तो बजाय इसके दवा दारु करे, दादी पर ही इल्जाम लगते - '' इस बुढिया के पास भूत है।'' दादी सुन कर चुप रहती। इधर - उधर निकल जाती। या पेड क़े नीचे सिर घुटनों के बीच धर खूब रोया करती। तभी वह कौआ आत कांव - कांव करता और दादी को न चाहते हुए भी उसे दोबारा रोटी देनी पडती। जैस वह दादी के भीतर के दुख को बांटने चला आया हो। वह रोटी नहीं चुगता, जोर जोर से कांव - कांव करता रहता। बहू भीतर से आती उसे पत्थर मारती। पर वह बच बचा कर फिर उसी पेड पर बैठ जाता। चीखता - चिल्लाता। बहू बिदक जाती, '' जरूर कोई बुरा वक्त आने वाला है। इस मरे को भी कर्ड - कर्ड मेरे ही घर के सामने करना है।फिर पत्थर मारती।
दादी बेबस होकर बहू को समझाती, '' बहू! पगशी किसी का बुरा नहीं करते। तू बजाय पत्थर मारने के इसे टुकडा फेंका कर। पुन्न होगा बेटा पुन्न।''
बहू चिढ ज़ाती, '' कौए को कौन पाले है सास जी। कौआ तो गृहा के आस - पास होना ही नहीं चाहिये। आपका तो भगवान ही जाने।''
अब नासमझ को दादी कैसे समझाए? कैसे विश्वास दिलाए कि कौआ भी और पक्षियों की तरह है। फर्क इतना जरूर है कि वह सबसे ज्यादा चालाक और समझदार है।
कौन जाने दादी को कौए की भाषा किसने पढाई होगी? पर दादी को इस बात में महारत हासिल थी। वह कभी कभार बोला करती थी- कौआ पूरे गांव और परगने की खबर रखता है। अच्छे बुरे की पहचान इसे होती है। कोई इसकी बोली समझे तो विपत्ति आने से पहले ही टल जाये। पर ऐसा समझना सभी के बस की बात न थी। लोगों के लिये यह कोरा मजाक था। लेकिन जब कभी दादी किसी अनहोनी या अच्छे बुरे की खबर पहले दे देती तो लोग हैरान रह जाते।
दादी को कई बरस हो गये अकेले रहते। बेटा कभी कभार दिन - दिन को आ जाया करता है। हाल चाल पुछ लेता है। पर दादी घास पत्ती को आते - जाते पोते - पोतुओं को हांक दे ही लेती है।
दादी का घर छोटा सा है। बहुत पुराना होगा। पूर्व की तरफ दरवाजे हैं। निचली मंजिल में पशु रहते हैं। उसके ऊपर एक कमरा सोने - बैठने के लिये और उसी के साथ रसोई है। आंगन से रसोई तक के लिये पत्थर की सीढियां बनी हैं। ऊपर नीचे बरामदा है। घर की छत मोटे अनघडे चौडे पत्थरों से छवाई गई है। ऐसे ही पत्थर पूरे आंगन में बिछे हुए हैं।
दादी अपने बुजुर्गों की कई कहानियां आज भी सुनाया करती थी। बच्चे उस एक कहानी को बार बार सुनते। दादी सुनाती तो लगता कि जैसे उसी युग में चली गई हो।
दादी के पडदादा की बात थी। वह बहुत गुणी था। कई मंत्र जानता था। पंडताई में माहिर हुआ करता। एक दिन वह सुबह आंगन में नहाने चला गया। अभी कपडे उतारे ही थे कि एक कौआ आंगन के पेड पर बतियाने लगा। पडदादा चुपचाप उसकी तरफ देख रहा था।एकदम कपडे पहने और पानी ज्यूं का त्यूं छोड क़र भाग लिये। घरवाले हैरान कि इन्हें क्या हो गया। तकरीबन दस मील का सफर तय करने के बाद एक गांव पहुंचे। बरसात के दिन थे। वहां मक्कियों की गुडाई थी। दोपहर की रोटी खिलाई जा रही थी। उसमें सभी को लस्सी और सत्तू दिये जा रहे थे। अभी लस्सी घडे से बर्तनों को उल्टाई ही थी कि पडदादा ने घर के ऊपर से हांक लगाई - '' रुक जाओ रे, मत खाओ छाछ।''
लोगों ने आवाज सुनी तो सहम गये। किसी ने कहा यह बूढा पागल तो नहीं हो गया?
वह आंगन में पगलाया हांफता हुआ पहुंचा। पसीने से तर - ब - तर। सीधा रसोई में घुसा और लस्सी के घडे क़ो उठा कर आंगन में ले आया। फिर घर की बुढिया को बुलाया, बोला - '' घडे क़ी सारी छाछ फेंक दो। इसमें सांप मर गया है।''
किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन पडदादा तो पुरोहित भी था, उसको सभी आदर - सम्मान भी देते थे। वैसा ही किया गया।लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही जब घडे में सांप मरा देखा।लोगों ने खा ली होती तो एक भी जिन्दा न बचता।
बच्चे पूछते, '' दादी , तुम्हारे पडदादा को कैसे पता चला कि घडे में सांप मर गया है?''
दादी समझाती, '' पडदादा गुणी थे। कौए की बोली जानते थे।'' बच्चे हैरान रह जाते । कौआ भी ऐसा बताता है। दादी को छेड देते - ''दादी, तू भी समझती है कौए की बोली?'' दादी मुस्कुरा देती। कहती कुछ नहीं।
आज का समां देख कर दादी भीतर ही भीतर कुढती है, जलती है, फुंकती है। जैस गांव ही बदल गया। पहले जैसे लोग नहीं रहे। दया - धर्म खत्म हो गया। ममता नहीं रही। एक दूसरे के लिये सरीक बन गये। छोटी - छोटी बातों पर लडते - झगडते रहते हैं। मारपीट करते हैं। भला - बुरा बोलते हैं। पहले कितना प्यार था। मिलजुल कर लोग आपस में रहते। एक दूसरे के दुख - सुख में आते - जाते रहते - जैसे एक ही घर हो एक ही परिवार हो । अब तो कोई बच्चा भी इधर नहीं निकलता। शायद सभी समझते होंगे, दादी डायन है।
दादी जब सोचती तो बीडी क़े आठ दस कश एक साथ लगा जाती। जैसे भीतर के बवाल को धुएं से दबा रही हो। आंखें लाल हो जातीं। सिकुडे ग़ाल फरकने लगते। कभी दादी आंगन में बंधी गाय के पास बैठ जाती। उसका गला खुरकते - खुरकते नींद आ जाती और अपने पुराने जमाने में पहुंच जाती।
गांव जब सहर जैसा नहीं हुआ था। लोग परम्पराओं के रहते संस्कार निभाते थे। कहीं ब्याह होता तो दादी को औरतें घेर लेतीं। कहतीं- '' दादी ब्याह के गीत गाओ न।'' दादी इस अनुनय को नहीं टाल पाती, गाने लग जाती -
'' हरीए नी रसभरिये खजूरे, किने बे लाए ठण्डे बाग बे।''
देख लैणा बापू जी दा देश बे, बापू तो तेरा धीए गढ दिल्लिया दा राजा,
अम्मा तेरी धीए गढ दिल्लिया दी रानी, उन पर दिती बेटी दूर बे।''
दादी जानती किस वक्त कौनसा सुहाग गाना है। लडक़ी की शादी में कौनसा और लडक़े की शादी में कैसा । पर आज की औरतों को क्या पता। दादी को दुख होता कि अब ब्याह में बधावा नहीं गया जाता, सुहाग नहीं गाये जाते और सीठणी नहीं दी जाती। अब उनकी जगह फिल्मी गाने, जिनका न सिर न पैर।दादी तो गांव परगने में गिध्दे की माहिर थी। जहां रिश्तेदारी नहीं होती, वहां के लिये भी दादी को विशेष आमंत्रण आता। अब कौन गाए गिध्दे। बन्दरों की तरह उछलते हैं, घोडे क़ी तरह कूदते हैं। दादी मन ही मन गाली देती है, '' ये नाच पाया इना रे फशके रा!''
गांव कहीं भी जाये। कैसा भी करे। दादी के अपने नियम थे। संक्रात आती तो दादी सबसे पहले गांव में देवता के मंदिर के पास पहुंच जाती। एक बर्तन में गाय का गांच और एक ठाकरी रोट ले जाती। पुजारी को थमा कर मन से देवता को माथा टेकती। फिर पुजारी रोट चढा कर दादी को रक्षा के फूल और चावल देता। दादी तब तक बैठी रहती जब तक देवता की पंची खत्म नहीं हो जाती।
दादी यह देखकर हैरान होती कि अब न तो पंच पूरे आते हैं और न ही गांव के लोग इकट्ठे होते हैं। सब कुछ नाम का होता है।कितने दिन हो गये, कितने साल गुजर गये, न देवता का भडेरा ही हुआ और न देवता की चेरशी ही किसी ने दी। वरना हर छठे महीने भडेरा और तीसरे साल चेरशी होती। चेरशी में पूरा परगना ही जैसे उमड पडता। देवता के रथ - छतर सजाये जाते। पूरी परम्परा से देवता का मेला लगता। पंची - पंचायत होती। सभी देव थलों के लिये पूजाएं दी जातीं। जहां बकरे की बलि लगती वहां बकरा काटा जाता। जहां नारियल लगता, वहां उसे काटा जाता।
दादी परेशान होती है कि अब तो पुजारी ने देवता की कितनी जगह पर अपना कब्जा जमा लिया है। जिन पेडों की टहनी भी तोडना दोष समझा जाता था, उसका प्रयोग अब जलाने के लिये किया जाने लगा है। दादी देवता को हाथ जोडती - रक्षा करना देवा! रक्षा करना।
गांव में लडाई झगडा, दुश्मनी और हारी बीमारी का कारण यही है, दादी अकसर कहती। अब तो बाघ ने सीमा लांग ली है। रोज किसी न किसी ओबरे से बकरी या भेड ले जाता। पुजारी की तो गाय तक नहीं छोडी दादी ने कई बार सोचा कि गांव के लोगों को इकट्ठा करके समझाए पर दादी की मानेगा कौन? नए लोग, नई बातें। दादी के वश में क्या रह गया है यह सोच कर मन ही मन जहर का घूंट पी जाती।
कुछ दिनों में दादी कई ऐसी बातें बताने लगीं, जिन पर विश्वास कौन करे? एक दिन दादी ने गांव की एक बहू को बताया कि परधान ने मंगलू का खून कर दिया। पर गांव में यह विश्वास हो गया था कि मंगलू पेड से गिरकर मरा है। उसकी लाश गांव से कुछ दूर चूली के पेड क़े नीचे थी। एक तरफ दराट पडा था। सभी ने सोचा वह पत्तियां लेने पेड पर चढा होगा और गिर कर मर गया।
दादी जानती थी कि उसका खून हुआ है। जहां यह हादसा हुआ वह जगह दादी के घर से एक फर्लांग दूरी पर थी। कौवा अचानक जब आधी रात को बाहर बोला तो दादी तत्काल उठ गई। हल्की चांदनी थी। चुपचाप उसकी बाणी सुनी और भीतर आकर बूट पहने, शाल ओढी और हाथ में दराट लेकर उसी तरफ निकल गई। पेड क़े पास उसे खुसर पुसर सुनाई दी। वह चुपचाप झाडियों की ओट में छिपी रही। यह देखकर हैरान रह गई कि परधान के आदमियों ने मंगलू का मृत शरीर बोरी से वहां फेंक दिया। साथ उसका दराट और एक आदमी ने पेड पर चढक़र कुछ पत्तियां भी काट डालीं।
दादी इस दृश्य को देख कर पगला - सी गई।
मंगलू अधेड उम्र का था। उसका एक बेटा था जो शहर डाकखाने में नौकर था। मंगलू घर में अकेला रहता। उसके पास जमीन काफी थी। परधान उससे कई दिनों से कुछ जमीन मांग रहा था। इसीलिय पिरधान ने जमीन के कागजातों पर जबरदस्ती अंगूठा लगवा कर उसे मार दिया।
गांव में परधान के सामने मजाल जो कोई जुबान खोले। कोई कुछ बोले तो आ बैल मुझे मार देने वाली बात थी। पर दादी बौखला गई कि करे तो क्या करे। मंगलू का बेटा भी परेशान था। बापू कैसे मर गया? दादी ने एक दिन उसे सारी बात बता दी। रिपोर्ट थाने तक चली गयी। मंगलू की रिश्तेदारी में भी कुछ हलचल होने लगी। थाना पुलिस तो परधान के जेब की चीजें थीं, ऐसा कौन नहीं जानता। पर छानबीन तो करनी ही थी।
पुलिस गांव पहुंच गई। लोगों को बुलाया गया। थानेदार ने बारी बारी से पूछा लेकिन किसी ने मुंह न खोला। मान लिया मंगलू गिर कर मरा है। दादी एक ओर चुपचाप बैठी है। लेकिन भीतर एक तूफान मचा था। दादी ने जेब से बीडी निकाली, सुलगाई और जोर जोर से दम लेने लगी। किनारे से धुंआ जब थानेदार तक पहुंचा तो बुढिया पर नजर पडी, तिलमिला गया थानेदार। हांक मारी - '' ये रे बुढिया। पूछ रहा हूं तैनें तो कुछ नहीं कहना।''
दादी ने बीडी नीचे फेंकी। जूते से मसल दी। बोली, '' बेटा, तेरी मां जैसी हूं। दादी जैसी हूं। फिर तू तो बडा अफसर है। क्या अफसरी में तमीज नहीं सिखाई जाती। अदब नहीं सिखाया जाता कि अपने बुजुर्गों से कैसे बोलते हैं। घर में अपनी मां - दादी से ऐसे ही बोलता है क्या।''
दादी पुलिस के आगे इतना बोलेगी, कौन जानता था। कई पल सन्नाटा छाया रहा। थानेदार का दर्प जैसे भीतर ही भीतर झुलस गया।मूंछे फडफ़डाती रहीं। सोचता होगा, कोई मर्द ऐसी बदतमीजी करता तो बेंत से साले की हड्डी पसली एक कर देता। पर ये साले बुढिया?
दादी ने ही चुप्पी तोडी थी, '' मंगलू को मारा गया थानेदार। तहकीकात ठीक से क्यों नहीं करते।''
थानेदार के हाथ से बेंत इस तरह खिसका कि सांप ने डंक मार दिया हो। पास बैठा परधान उछल गया और लोग हैरान - परेशान।
'' ये पागल बुढिया है आप इसकी बातों का विश्वास मत करो थानेदार साहब।मत करो।''
थानेदार ने एक नजर परधान की तरफ डाली और दूसरी बुढिया की तरफ। कुर्सी छोडी और दादी तक चला आया।
'' आप कैसे कहती हैं माताजी कि मंगलू का खून हुआ है!''
थानेदार की थानेदारी गायब थी। अब वह दादी के सामने आदमी हो गया था। दादी ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा। गुर्राई -
'' अपने परधान से क्यों नहीं पूछते, जिसके घर रातभर मांस - दारू गटकते रहे हो। इन कुत्तों से क्यों नहीं पूछते जो मंगलू के टब्बर के हैं पर जुबान नहीं खोलते। पूछो थानेदार इनसे कि जिस दिन मंगलू को मारा गया, यही तो लोग थे जो बोरी में भरकर उसकी लाश को चूली के पेड क़े नीचे फेंक गये थे।
दादी का चेहरा लाल हो गया था। थानेदार को कुछ सूझ नहीं रहा था। उधर परधान बराबर कह रहा था कि यह बुढिया पगला गई है।थानेदार ने चारों तरफ देखा। अब दादी से आंखें मिलाने की हिम्मत उसमें नहीं रही थी। उसने मेज पर से कागज समेटे। हौलदार को पकडाए और चलने लगा फिर कुछ सोच कर मुड ग़या, '' आपको थाने में बयान देना होगा।''
यह कह कर वह चला गया। दादी वहीं थी। चुपचाप। परधान ने एक नजर दादी की तरफ दी।
बुदबुदाया, '' बुढिया! तुझे देख लूंगातुझे देख लूंगा।''
वहां खडे लोगों ने जब दादी की तरफ देखा तो वह हंस रही थी। बिलकुल सहज। मानो कुछ नहीं हुआ हो। जैसे आंगन में आए बच्चों को गुडत्त् बांट रही हो। भीतर का गुस्सा एकाएक कहीं चला गया। कितना हल्कापन महसूस कर रही थी दादी। मन पर से जैसे हजारों मन बोझ उतरा हो। लोग सोच रहे थे कि दादी उन्हें कुछ कहेगी। पर उसने कुछ नहीं कहा वह घर लौट आई।
गांव परगने में यही चर्चा थी कि दादी ने थनेदार के सामने प्रधान पर खून का इल्जाम लगाया है। इस बात को लेकर सभी हैरान थे।पर दादी यह सब कुछ कैसे देखा इसका किसी को क्या मालूम।
कई दिन बीत गये। कहीं कुछ नहीं हुआ। न परधान कहीं दिखा और न उसके लोग। थाने से भी कोई खबर नहीं आई।
इस मध्य चुनाव का ऐलान हो गया। फिर लोग उसमें उलझने लगे। हालांकि गांव में चुनाव का इतना असर नहीं था जितना कि शहरों में होता है। पर दादी जानती थी कि गांव में लोगों को बेवकूफ बना कर कैसे वोटें ली जाती हैं। गांव की तरक्की की बात सभी कर जाते थे, पर दादी जानती थी कि पांच साल फिर कोई नहीं आएगा। सारी स्कीमें परधान के घरों के इर्द - गिर्द घूमेंगी।
एक दिन दादी भीतर का काम निपटा कर जैसे ही आंगन में उतरी, कुछ लोग आते दिखाई दिये। उनके हाथ में लाल - हरे झण्डे थे।आंगन में पहुंचते ही उन्होंने तीन चार झंडे दादी के छत में ठूंस दिये। बीच में परधान भी था। दादी ने आदतन उसे नमस्कार किया।जैसे कभी कुछ घटा ही न हो।एक आदमी जो शायद बाहर से था, दादी को समझाने लगा -
'' माताजी, आज के नौंवे दिन वोट पडने हैं। इस बार हमारी पार्टी पर मेहरबानी रखना। इस निशान पर मोहर लगाना। हमारी पार्टी हिन्दुओं के लिये लड रही है। राम के लिये लड रही है। इस बार हम अयोध्या में मंदिर अवश्य बनाएंगे।''
दादी के चेहरे की मुस्कान उड ग़ई। गुस्से में बोली - '' भगवान के लिये तुम बनवाओगे मंदिर। बेटा वह तो सबको घर देता है।सबका रखवाला है। तुम उसको क्या दोगे? पर इस परधान से पूछती हूं, राम का मंदिर तो बनाओगे, पर कभी अपने गांव के देवता के बारे में सोचा? उसके मंदिर की क्या हालत है? कोठी के ऊपर की छत उड ग़ई है। पानी भीतर जाता है। चीजें सड रही हैं। कहते हैं पैसे नहीं हैं। कैसे मरम्मत होगी। सोना चांदी था वह पुजारी उडा ले गया। दो चार पुरानी मूर्तियां थीं, उन्हें लाखों में बेच दिया।सत्यानाश! झूठ बोलूं तो परधान से पूछो न। जब तुम लोग अपने गांव के देवता को नहीं बचा सके तो उस परमेश्वर को क्या दोगे?''
एक पल चुप्पी रही। परधान खिसकना चाहता था। तभी उस आदमी ने बात पलटी, '' माता जी आपको हम वृध्दावस्था पेंशन लगवा देंगे।''
दादी अब सहज थी। जोर से हंसी बोली - '' बेटा मेरी पिनशन तो पिछले पांच सालों से लगी है।''
वह खुश हो गया, '' देखा न हमारी सरकार ने ही तो।''
'' बिलकुल बेटा। पर मुझे नहीं मिलती वह पिनशन।''
औरों ने इस बात को गंभीरता से न लिया हो परंतु परधान को सांप सूंघ गया था। उसने फिर पूछा -
''फिर कहां जाती है माता जी?''
दादी तमतमा गई परधान को ऐसे देखा जैसे कोई शेर अपने शिकार को देखता है।
'' अपने परधान से क्यों नहीं पूछते। वह पेंशन मेरे नाम से अपनी जनानी को लगा रखी है।''
सभी के पांव उखड ग़ये। चुपचाप खिसक लिये। दादी अपने काम में जुट गई। कई दूसरी पार्टियां आईं पर उसके बाद दादी कभी घर पर नहीं मिली।
उधर परधान की पार्टी हार गई।उसकी परेशानियां बढने लगीं। पुराने मामले खुलने लगे। मंगलू का केस, वृध्दा पेंशन और
मूर्तियों की चोरी जैसी बातें उसे घेरे रखतीं। अपने राज में उसने क्या कुछ नहीं किया? यहां तक कि अपने देवता तक को नहीं छोडा।गांव का मंदिर काफी पुराना था। परगने में कई ऐसे ही और मंदिर भी थे जिन्हें लोग पांडवों के समय का मानते थे। बडे - बूढे क़हते, इतनी भारी लकडियां और पत्थर तो भीम जैसा बली ही ला सकता है। पर अब तो भीतर खाली है। परधान शहर में मूर्ति चोरों तक यहां से मूर्तियां अपने लोगों के जरिये पहुंचाता । दादी जानती थी कि यहां ही नहीं; बाहर भी इसका धन्धा फला - फूला है।करोडाें की मूर्तियां परधान जैसे लोगों की मिलीभगत से कहां से कहां पहुंच गईं। अब अनर्थ नहीं होगा तो और क्या होगा?
परधान परेशान था। दादी को और भी बहुत कुछ पता होगा। वह कैसे जानती है। इस बुढिया के पास ऐसी क्या चीज है जिसका इसे सब कुछ पहले से पता होता है?
एक दिन दादी गहरी नींद सोई थी। अचानक कौआ बोला। उसी पड पर। दादी तत्काल उठ गई। उनींदी सी बरामदे में आई। कांव - कांव सुनी। घबरा गई। भीतर नहीं मुडी। न सिर पर ओढनी, न पांव में जूते। झटपट ओबरे से अपनी गाय, बकरियां और भेडें ख़ोल दीं। जैसे - तैसे बाहर निकालीं। दरवाजा बन्द कर दिया ताकि पुन: भीतर न चली जायें। अकेली, असहाय दादी भला दुनिया का मुकाबला कैसे करती?
पल भर में दादी का घर आग की लपटों में घिर गया। किसी को कानों कान खबर नहीं लगी।
दादी भाग कर दोघरी पहुंची। अपने बेटे के सान्निध्य में। दरवाजा खडख़डाया। शायद बेटा घर पर नहीं था। बहू ने नींद में ऊंघते हुए पूछा - '' कौन है इस वक्त ?''
'' मैं हूं बहू, मैं। जल्दी से दरवाजा खोलो बहू।''
बहू पहचान गई। उसकी सास, जिससे वह नफरत करती है। आवाज सुनकर बच्चे भी उठ गये। बडी लडक़ी ने पूछा, '' अम्मा कौन है? दरवाजा खोलूं?''
'' नही नहीं मत खोलना। वह डायन है।''
दादी ने सुना तो भीतर तक टूट गई। पता नहीं कितनी देर दरवाजे के पास अंधेरे में रोती रही। घर के जलने की रोशनी यहां तक उजाला कर रही थी। बच्चे, औरतें और सभी बडे - बूढे रो रहे थे कि दादी भीतर जिन्दा जल गई होगी। परधान और उसके आदमी भीड क़े बीच थे। न जाने क्यों इस दृश्य को देखकर उनकी आंखें भी नम हो आईं।
पेड पर कौआ जोर जोर से कांव - कांव कर रहा था। कोई कागभाखा समझता तो जानता पिछली रात क्या घटा? पर गांव में दादी जैसा कौन?
उसके बाद दादी कहां चली गई किसी को नहीं मालूम। पर परधान दिनों दिनसूखता जा रहा है। अब वह कैसे बताये कि दादी को आधी रात के बाद कई बार उसने अपने आंगन की मुंडेर पर बीडी पीते देखा है।
एस आर हरनोट
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