Saturday, December 19, 2009

दूसरा रूख

दूसरा रूख
चित्रकार दोस्त ने भेंट स्वरूप एक तस्वीर दी। आवरध हटा कर देखा तो निहायत खुशी हुई। तस्वीर भारत माता की थी। मां सी सुंदर भोली सूरत अधरों पर मुस्कान क़घ्ठ में सुशोभित आभुषण मस्तक को और ऊंचा करता हुआ मुकुट व हाथ में तिरंगा।
मैं लगातार उस तस्वीर को देखने लगा। तभी क्या देखता हूं कि तस्वीर में से एक और औरत निकली।
अधेड उम्र अर्स्तव्यस्त दशा आंखों से छलकते आंसू। उसके शरीर पर काफी घाव थे। कुछ ताज़े क़ुछ घावों के निशान। मैंने पूछा तुम कौन हो?
बोली मैं तुम्हारी मां हूं भारत मां।
मैंने हैरत से पूछा भारत मां पर - तुम्हारी ये दशा? चित्रकार मित्र ने तो कुछ और ही तस्वीर दिखाई थी तुम्हारी? तुमहारा मुकुट कहां है? तुम्हारे ये बेतरतीब बिखरे केश मुकुट विहीन मस्तक और फटे हुए वस्त्र? नहीं तुम भारत माता नहीं हो?' मैंने अविश्वास प्रकट किया।
कहने लगी तुम ठीक कहते हो। चित्रकार की कल्पना भी अनुचित नहीं है। पहले तो मैं बन्दी थी पर बन्धन से तो छूट गई। अब विडम्बना क़ि घावग्रस्त हूं। कुछ घाव गैरों ने दिए तो कुछ अपने ही बच्चों ने। और रही बात मेरे मुकुट और ज़ेवरात की वो कुछ विदेशियों ने लूट लिए और कुछ कुपूतों ने बेच खाए। रो रही हूं सैकडों वर्षो से रो रही हूं। पहले गैरों पर व बंधन पर रोती थी। अब अपनों की आज़ादी की दुर्दशा पर।
उसकी बात सच लगने लगी। तस्वीर का दूसरा रूख देख मेरी खुशी धीरे धीरे खत्म होने लगी और आंख में पानी बन छलक उठी।
रोहित कुमार, न्यूजीलैंड
अगस्त 10, 2000
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दूसरा ताजमहल

दूसरा ताजमहल
हवाई जहाज में बैठी नयना किसी परिंदे की तरह सहमी और निराश थी। जिसको उडान भरते हुए बीच में ही बहेलिये ने झपट लिया था। नियति का यह खेल उसकी समझ में नहीं आया।
दिल्ली पहुँच कर वह हवाई जहाज क़ी सीट पर बेहिस सी बैठी रही। भीड छंटने पर एयरहोस्टेस ने उसकी हालत देखी और पास आकर बोली, ''मैम, आपकी मदद कर सकती हूँ? ''
'' नहीं मैं ठीक हूँ।''
बडी देर तक वह कुर्सी पर बैठी खाली नजरों से मुसाफिरों को बाहर निकलते देखती रही। उसके दिमाग से सब कुछ पुछ सा गया था। कौनसा घर,कौनसा शहर और कौनसा पता जहाँ उसको जाना था?
एयरहोस्टेस ने उसकी अटैची निकाली। वह उठी, सीढियां उतरी और इमारत में दाखिल हुई। प्रिपेड टैक्सी काउंटर पर वह बडी देर तक चुप रही। फिर बडी मुश्किल से उसने सडक़ का नाम बताया।टैक्सी पर बैठी तो लगा सर के अन्दर झनझनाहट सी है। घर का नम्बर याद ही नहीं आया। टैक्सी बडी देर तक उस सडक़ पर दांये बांये घूमती रही फिर ड्राईवर ने झुंझला कर कहा कि मेम साहब,मुझे घर भी लौटना है। नयना की चेतना लौटी। बहुत देर तक ढूंढने के बाद उसने पर्स से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और बडी क़ठिनता से पता पढा। घर पहुंच कर उसको अजीब घुटन का अहसास हो रहा था। सर में शदीद दर्द उठ रहा था। उसकी हालत देख कर नौकर परेशान थे। वह सर दोनों हाथों से पकडे बेडरूम में जा बिस्तर पर लुढक़ गयी।
सारी रात नयना के दिमाग में फोन की घंटी घनघनाती रही। उसी के साथ रोजी क़े शब्द तपकन बन उसके दिल को मसलते रहे, '' मुझे कभी कभी लगता है कि सर अपने सारे दु:खों को नशे की हालत में तरतीब दे लेते हैंबडे बडे प्राेजेक्ट तक, जो उनकी अभिलाषा रही है, मगर पूरे नहीं हो पायेअनजाने में ही सही मुझे उनका यह अन्दाज बडा निर्मम लगाआपको देख कर मैं समझ सकती हूँकि आपका विश्वास कहाँ पर टूटा है। प्लीज मैम हो सके तो सर को भूल जाईये।।'' एयरपोर्ट पर विदा देते हुये रोजी ने बहुत धीमे सुर में कहा था।
नयना को अच्छी तरह याद है कि वह जून का तपता महीना था, जब उसकी मुलाकात रविभूषण से हुई थी, शादी की उस पार्टी में ढेरों मर्द - औरतों का जमघट था। कुछ चेहरे जाने पहचाने थे कुछ कुछ अजनबी थे। उन्हीं में से एक चेहरा रविभूषण का था। कुमकुमों की रंगीन झालरों से सजे पेड क़े पास खडा वह बेतहाशा सिगरेट फूंक रहा था। धुंए से डूबा उसका चेहरा उसे और भी रहस्यमय बना रहा था। जब किसी के परिचय कराने पर उसने होंठों में सिगरेट दबा कर परम्परागत अंदाज से दोनों हाथ जोडक़र नमस्ते की तो, नयना को हल्का सा झटका महसूस हुआ। वह हलो या हाय की आशा कर रही थी मगरउसने गौर से रविभूषण को देखा, चेहरे पर खोयापन, माहौल से लापरवाह उसकी बडी बडी आँखें अपने ही सिगरेट के धुंए से अधमुंदी हो रही थीं। उसने संवाद शुरु करना चाहा, मगर जाने क्यों रुक गयी। वह भी खामोश खडा सम्पूर्ण वातावरण का जायज़ा लेता रहा। नयना को वह आदमी कुछ अलग सा लगा, बल्कि यूं कहा जाये कि उस आदमी के व्यक्तित्व से कोई और शख्स अन्दर बाहर होता नजर आ रहा था, भीड क़े बावजूद नयना की नजरें कई बार रविभूषण पर पडीं ।
रविभूषण से नयना की यह पहली मुलाकात बडी सरसरी सी थी सो धुंधला गयी। मगर चंद माह बाद जब लंच पर उससे दूसरी मुलाकात हुई तो वह गुमनाम चेहरा गर्द झाड क़र साफ नजर आया।सिगरेट, धुंआ, खोयापन और लापरवाह अन्दाज। चूंकि यह बिजनेस लंच था सो बाकायदा परिचय हुआ और कार्ड का आदान प्रदान भी। नयना ने तब जाना कि एक साथ दो व्यक्तित्व की झलकियां दिखाने वाला यह इंसान बंबई शहर ही नहीं बल्कि देश का जाना माना वास्तुविद् रविभूषण है तो उसने रवि से अपनी पहली मुलाकात का कोई जिक़्र नहीं किया। रवि को वैसे भी कुछ याद नहीं था, वरना वह कह सकता था कि हम पहले मिल चुके हैं। इंटीरियर डेकोरेशन को लेकर यह मीटींग बम्बई के मशहूर उद्योगपति द्वारा बुलवाई गयी थी। उसके पोते का ऑफिस जिसको रवि ने डिजाईन किया था,वह ईंट गारे की मदद से बन कर अब साकार रूप ले चुका था। उसकी सजावट को लेकर सलाह मशविरा चल रहा था। लंच के बाद कॉफी पीते हुए नयना को रविभूषण बहुत हँसमुख व मिलनसार आदमी लगा। खासकर काम को लेकर उसका नजरिया और राय जानकर महसूस हुआ कि इतनी शोहरत पाने के बावजूद आदमी काफी सुलझे स्वभाव का है, दंभ या ओछापन उसमें नहीं है।
नयना को दूसरे दिन दिल्ली लौटना था। वह लौट आई। सप्ताह भर बाद उसको रविभूषण का फोन मिला। बस यूं ही हालचाल पूछने की नीयत से और नयना को उसका बात करना बुरा नहीं लगा।पांच मिनट की यह बात अगले सप्ताह दस मिनट में बदली तो नयना को कुछ अटपटा सा लगा, बात में वही दोहराव था। औपचारिकता के अतिरिक्त कोई और स्वर की गुंजाईश नहीं थी, क्योंकि वह एक इंटीरियर डेकारेटर जरूर थी, मगर रविभूषण जैसे आर्किटैक्ट से वह क्या बात कर सकती थी? जब तीसरा, चौथा फोन आया, तो नयना सोच में पड ग़ई कि आखिर बिना किसी योजना पर बात किये यह बार बार क्यों फोन कर रहा है! फिर ख्याल गुजरा, शायद उसको कोई बडा प्रोजेक्ट दिल्ली में मिला हो और उस सिलसिले से वह सम्वाद की भूमिका बना रहा हो। आखिर बंबई शहर का मामला है, दो शहर के बीच दूरियां काफी हैं मगर एक प्रोफेशनल को तो साफ साफ बात करना ज्यादा पसन्द आता है, फिर? इस फिर का जवाब नयना के पास नहीं था। वह फोन करने के लिये मना भी नहीं कर सकती थी, आखिर वह देश का सम्मानित वास्तुविद् था और बेहद शालीन स्वर में बातचीत करता था। स्वयं नयना सारे दिन अपने ऑफिस में नये नये लोगों से प्रोजेक्ट को लेकर मिलती थी।आखिर उसका काम ही ऐसा था मगर बिना काम के फोन का मौसम तो कब का बीत चुका है, वह स्कूल के दिन जब दोस्तों से बातें ही खत्म नहीं होती थीं, उन दिनों के मुकाबले में आज कम्प्यूटर का दौर है, जहां सम्वेदनाओं के लिये समय ही नहीं बचा है।
वह अगस्त का उमस भरा महीना था, जब रविभूषण किसी मीटिंग के सिलसिले में उसके शहर आया था। पता नहीं क्यों नयना ने महसूस किया कि रविभूषण काम का बहाना बना केवल उससे मिलने आया है। दिमाग के इस शक को यह कह कर उसने झटक दिया कि यह बेवकूफी का खयाल उसको टेलीफोन पर होती बातों के कारण आया है, वरना एक व्यस्त आदमी बिना कारण यात्राएं नहीं करता है। मगर वह आँखे उनकी भाषा क्या अलग सी इबारत की तरफ इशारा नहीं कर रही थी? शाम की चाय पीकर जब रविभूषण उसके बंगले से निकला तो पोर्टिको में आन खडी हुई। जाते जाते रविभूषण ने उसकी तरफ मुडक़र देखा और उसने हाथ उठा कर बाय कहा, फिर चौंक कर उसने अपने उठे हाथ के नर्म इशारे को ताका और नजर उठा कर जो रविभूषण की तरफ देखा, तो धक् सी रह गई। उनआँखों में सम्मोहन था। गहरा आकर्षण! उसने हाथ नीचे किया और स्वयं से पूछा, कहीं यह तेरा भ्रम तो नहीं है नयना?
एक रंग, जो मौसम बदलने से पहले हवा में फैलने लगता है, कुछ वैसी ही कैफियत से नयना दो चार हुई। एक खुशी जैसे उसको कुछ मिल गया हो,मगर क्या? इसी उधेडबुन में वह तैरती उतरती प्लाजा की तरफ चल पडी,ज़िसकी सारी सजावट उसी को करनी थी। रास्ते के सारे पेड उसको चमकीली पत्तियों से सजे लगे और शाम ज्यादा गुलाबी जिसमें धुंधलका सुरमई रंग की धारियां जहां तहां भर रहा था। घर लौटते हुए उसको सडक़ की बत्तियां चिराग क़ी तरह जलती लगीं, जैसे छतों पर दीवाली की सजावट घरों को दूर तक रोशनी की लकीरों में बांट देती थीं।
आज उसका मूड बरसों बाद हल्का हुआ था। कोई कुंठा, कोई शिकायत, कोई कडवापन या झुंझलाहट उसको आहत नहीं कर रही थी। वह हवा में तैरती हुई जब घर पहुंची, तो नौकर ने बताया कि साहब को कोई एमरजेंसी ऑपरेशन करना है, जिसके कारण वे देर से लौटेंगे। सूचना सुनकर वह हमेशा की तरह आक्रोश से नहीं भरी, बल्कि उसने लापरवाही से कंधे झटके और गुनगुनाती हुई कमरे में दाखिल हुई।
नहाने के बाद जब वह गाउन में लिपटी ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी, तो अपना ही चेहरा इस तरह देखने लगी जैसे पहली बार देख रही हो। आंखों के नीचे हल्का कालापन, भंवों के पास कई लकीरें,माथे पर सफेद बालों का झांकना, आंखों में एक जिज्ञासा कि मैं कैसी लगती हूँ? उसको अपनी त्चचा मुलायम और चमकीली लगी। होंठों पर जाने कहां से आई मुस्कान उसको अजनबी लग रही थी।थकान के बावजूद उसमें फुर्ती का अहसास था। खाना खाने के बाद जब वह पलंग पर लेटी तो उसे महसूस हुआ कि आज बरसों बाद उसके बदन को मुलायम बिस्तर मिला है। उसने आराम की सांस ली और आंखें बन्द की तो सामने रविभूषण का चेहरा तैर गया।
बंबई पहुंचते ही रवि ने नयना को फोन किया कि वह भली प्रकार पहुंच गया। रात को जब दोबारा उसने फोन किया, तो नयना को पहली बार लगा कि उसकी आवाज सुन कर उसके दिल में कुछ उथल पुथल सी हुई। फिर फोन का यह सिलसिला पांच मिनट से आधा घंटा हो गया और हफ्ते की जगह रोज बातें होने लगीं, जिसमें प्रोफेशनल बातें कम और आपसी बातें ज्यादा होतीं - खाना खाया या नहीं? दिन कैसा गुजरा? मौसम कैसा है? नयना को फोन का इंतजार आठ बजे से शुरु हो जाता,जबकि ठीक दस बजे फोन की घंटी बज उठती थी, इस बीच वह सारे काम निबटा लेती ताकि,आराम से बातें कर सके। उसको अकेले घर में एक साथी मिल गया था, जिससे वह दु:ख सुख की बात कर सकती थी।
पिछले पांच छ: वर्षों से नयना का अकेलापन बढता जा रहा था। दोनों बेटे पढाई के सिलसिले में अमेरिका चले गये थे। नरेन्द्र जब से डायरेक्टर बना है, तब से इतना व्यस्त होता जा रहा है कि नयना को गुस्सा आने लगा था कि ऐसा भी क्या पागलपन, जो दिन रात अस्पताल में रहना, आखिर घर की भी कोई जिम्मेदारी होती है। सारे दिन की उडान के बाद परिंदे भी तो अपने घर घोंसले को लौटते हैं? पिछले तीन दिन से डॉ नरेन्द्र घर नहीं लौटे थे, कोई बेहद पेचीदा केस आ गया है। कई विदेशी प्रोफेसर मेडिकल क्षेत्र के भी रात दिन सर खपा रहे थे। नयना को स्थिति की गंभीरता का ज्ञान था, मगर हर दिन आपातकाल का वातावरण बना रहे तो, इंसान जिये कैसे अकेले घर में? कब तक टी वी देखे, मित्रों को फोन करे और पार्टियों में शामिल हो? हर तरफ से उसको ऊब लगने लगी थी। थोडी बहुत खुशी उसको मिलती, तो वह सिर्फ अपना ऑफिस था, जहां काम में उसका दिल बहल जाता था। या फिर बच्चों के ई मेल संदेशों और फोन पर उनकी आवाजें सुनकर वह खुश हो जाती थी। नरेन्द्र इतना थके लौटते कि खाना खा कर सो जाते और नयना जब फोन पर बातें करके लेटती तो उसके दिमाग में यह प्रश्न फूलों से भरी क्यारी की तरह खिल उठता कि रविभूषण उसका क्या लगता है दोस्त या भाई?
नयना अपनी सालगिरह के दिन बच्चों के बिना उदास थी। नरेन्द्र भी विदेश गये हुये थे। उस रात फोन पर रवि ने जब उसकी उदासी का कारण जानकर यह कह दिया कि वह नयना को खुश देखना चाहता है, इसके लिये वह अपने जीवन के बचे वर्ष उसको भेंट स्वरूप देता है, तो नयना भी भावुक होकर बोल उठी कि क्या वह रवि को भाई कह सकती है? इस पर रवि ने जल्दी से कहा,
'' नहीं, नहीं भाई हरगिज नहीं, हमारा रिश्ता तो सखा का है।'' और यह सुन नयना विश्वास से भर उठी, सारी दुनिया उसे सुगंध से भरी महसूस हुई। आखिर हर रिश्ते से बडा रिश्ता दोस्त का होता है जिसमें न कोई लालच न बंधन न जोर जबरदस्ती। जितनी लम्बी पेंग लेना चाहो, ले सकते हो। इस रात ने दोनों के वार्तालाप का अन्दाज ही बदल डाला। बातों का सिलसिला सुबह तीन बजे तक चलता रहा और अनजाने में नई दिशा की तरफ मुड ग़या।
नयना का छोटा भाई, जो दो वर्ष पहले ही कार दुर्घटना में जीवित नहीं रहा था, उसके बहुत करीब था। दोनों में बचपन से दोस्ती थी। जब वह बनारस से दिल्ली नौकरी के सिलसिले में आया तो नयना की खुशी का पूछना क्या था। कुछ दिन भाई बहन के साथ नरेन्द्र घूमने गये, फिर बोर होकर अपने अस्पताल में गुम हो गये। नयना को उनकी कमी खलती न थी। उसका बचपना उसको दोबारा मिल गया था। भाई की शादी की सारी खरीदारी उसने दिल्ली से की थी। मगर होनी को कौन टाल सकता था। शादी के सप्ताह भर पहले तालकटोरा के पास कार की टक्कर होने से उसकी मौत हो गयी। डॉ नरेन्द्र कुछ न कर पाये, आखिर वो ईसामसीह तो थे नहीं, जो मुर्दाबदन में भी जान फूंक देते। नयना गहरी उदासी में डूब गई थी, उसी दुर्घटना के बाद बेटों का अमेरिका जाना हो गया।नयना को लगता कि वह इस दुनिया में तन्हा रह गई है, किसी को उससे बात करने, उसके साथ समय गुजारने की फुर्सत नहीं है।
नरेन्द्र से उसकी शादी पसन्द की थी। दोनों ने शादी के पहले एक दूसरे को देखा परखा था, मगर जिन्दगी तो हमेशा से समय से आगे निकल जाने वाली चीज है, न कि ठहरी हुई जन्मपत्री, जिसके सारे शब्द अनेक संकेतों से भरे होते हैं! अपने काम को परखते, उसकी दौड में शामिल नरेन्द्र भी पहले वाले इंसान नहीं रह गये थे। उनके जीवन मूल्य जड न रह कर तरलता में अपना समाधान ढूंढने लगे थे। बहुत सी बातें नयना को परेशान करती थीं। कई सवाल थे जो वह नरेन्द्र से करना चाहती थी। मगर उनके पास हर बात का जवाब खामोशी थी। नयना भी नरेन्द्र से उखडक़र अपने ऑफिस से अधिक जुडने लगी मगर यह अहसास समय के साथ बढने लगा कि उसका पुराना घर कहीं खो गया है।
नयना के दिल में छुपा नरेन्द्र के खिलाफ भरा गुबार कभी कभी फोन पर निकल जाता। आखिर रवि ने एक दिन कह दिया कि, क्यों सहती हो यह सब? चली आओ सब कुछ छोड क़र मेरे पास। सुनकर नयना चौंक पडी। पूछने वाली थी, आखिर किस रिश्ते से? फिर कुछ सोच कर रुक गयी। पूरी रात रवि के इस बुलावे पर गौर करती रही, उसमें ध्वनित प्रेम के स्वरों को पकडने की कोशिश में स्वयं से सवाल करती, क्या रवि? और उसने अपने को टटोला, दिल की गहराई में कहीं रवि मौजूद था।उसने चौंक कर स्वयं से पूछा कि नयना इस रिश्ते का यदि आरंभ अनजाने में हो गया है, तो अंत क्या होगा? समझा बूझा या फिर समझा बूझा या फिर या फिर?
बहरहाल रवि से दोस्ती नयना के जीवन में एक नई उपलब्धि थी, जिसने जीवन से उसका मोह बढा दिया था। उसमें थकान की जगह खुशमिजाजी आ गयी थी। पहनने ओढने का दिल करता। सजने संवरने की इच्छा के चलते उसने क्रीम, सेन्ट का ढेर लगा लिया और हर रात रविभूषण के बुलावे पर उसका मन बम्बई जाने को मचलने लगा। उसको अपने इस घर में एक और घर नजर आने लगा।बातों की लय में दोस्ती का अनुराग मर्द - औरत की चाहत में बदल चुका था। एक दिलनशीन कैफियत थी। जिसमें नयना डूबती चली जा रही थी। उसके क्षेत्र की अन्य औरतें उसके चेहरे पर आयी ताजग़ी देखकर जब कॉम्प्लीमेन्ट्स देतीं तो स्वयं नयना को लगता कि उम्र के इस दौर में जब औरतें दुनियावी जिम्मेदारी से निबट धर्म की तरफ मुडने लगती हैं या फिर सूखी नदी में तब्दील होने लगती हैं उस समय उसको ऊपरवाले ने कैसा वरदान दिया, जो दिल दोबारा धडक़ा और जीवन में अनुराग ताजा कोंपल की तरह फूटा।
कभी नरेन्द्र और नयना का जीवन एक सुखी जीवन था, वे दोनों अपना समय अपने कार्यक्षेत्र में उनमुक्त भाव से देते थे, दिमाग पर कोई बोझ न होता, न घर की जिम्मेदारियों से दिल परेशान रहता। अपनी कामयाबी को देख कर दोनों ने फैसला लिया था कि वे ऊंची शिक्षा के लिये बच्चों को बाहर भेजेंगे। दोनों लडक़े गज़ब के जहीन थे। स्कॉलरशिप मिली और उमंग से भरे वे अमेरिकापहूँचे। उनके जाने के बाद डॉक्टर नरेन्द्र की रुचि अपने काम में और बढ ग़ई। तरक्की मिली तो व्यस्तता का बढना लाजमी था। नरेन्द्र का उलट नयना के साथ हुआ। उसका काम में दिल कम लगने लगा। मन भटका भटका सा लडक़ों के ख्याल में डूबा रहता। घर सूना लगता। खाना पीना अच्छा न लगता। कुछ माह बाद वह संभल गयी। शायद अस्पताल के नये प्रोजेक्ट ने उसका ध्यान बंटा दिया, मगर एक उदासी जरूर हरदम उसके मन पर छाई रहती थी। जिसको रविभूषण ने दूर कर दिया था।
वह बम्बई जाने की तैयारी करने लगी। नरेन्द्र को बम्बई जाना प्रोफेशनल टूर लगा। इसमें क्या खास बात थी। दोनों ही समय समय पर एक दूसरे से दूर घर से बाहर जाते थे, सो नरेन्द्र ने सुबह नयना को सेफ जर्नी कह बाय बाय किया और नयना ने हमेशा की तरह उसको कुछ हिदायतें दीं और फिर वह पैकिंग में लग गई।
नयना जब नये खरीदे कपडे पहन कर आईने के सामने खडी हुई, तो उसको लगा कि उम्र का साया अभी उसके चेहरे पर नहीं आया है। खुशी ने उसके चेहरे पर चमक ला दी है। इस खयाल से उसकी उत्तेजना बढी क़ि यदि रविभूषण ने उसको रोका और अपने साथ रहने का आग्रह किया तो वह क्या फैसला लेगी? रविभूषण तो साफ शब्दों में कह चुका है कि, तुम बेकार में समय नष्ट कर रही हो,वहां तुम्हारा कोई इंतजार नहीं कर रहा है। यहां मैं हूँ, आओ न - मैं फोन रखता हूँ। तब तक तुम फैसला लो। मैं दस मिनट बाद फोन करुंगा। उसकी इस तरह की बातें छोटी छोटी शिकायतों के जख्म ताजा कर देती और उसको महसूस होता कि उसने अपनी जिन्दगी जी ही कहाँ? कभी बच्चे,कभी पति कभी ससुरालवालेअब मैं अपनी जिन्दगी जी सकती हूँ। रविभूषण वास्तुविद् हैं, जो इमारत बनने से पहले उसका नक्शा खींच, मॉडल के रूप में पूरी इमारत सामने लाने की क्षमता रखता है।वह जिन्दगी का नक्शा भी बडा मजबूत बनायेगा। जिसमें वह अपनी महबूबा के लिये ताजमहल न सही, एक छोटा सा घर तो बना सकता है। जिसको वह अपनी मर्जी से सजा सकती है। नयना ने पूरे विश्वास से होंठों पर लिपस्टिक लगाई और गहरी नजरों से अपने सरापे को ताका। उडान का समय हो गया था।
दिल्ली से बम्बई उडान बहुत कम समय की थी। नयना का मन तेजी से धडक़ रहा था। दो मुलाकातों के बाद घटनायें सम्वेदना के स्तर पर जिस तरह घटीं थीं, सारी मौखिक थीं मगर उसमें जादू था, जो नयना के सर चढ क़र बोल रहा था। कल रात रविभूषण की खुशी का कोई ठिकाना न था, जब उसको पता चला कि नयना ने बम्बई आना तय कर लिया है। उसके स्वर में जो धडक़न थी, उसने नयना को विश्वास दिलाया कि जीवन का अंतिम पहर जैसे रविभूषण के साथ गुजरने वाला है, वही मेरा अंत होगा धीरे से नयना ने कहा और बैग उठा हवाई जहाज़ की सीढियां उतरने लगी। उसको डर था कि रवि को देख कर वह इतनी भावुक न हो उठे कि वहीं हवाई अड्डे पर उससे लिपट जाये। या फिर रवि वहीं सबके सामने उसका चुम्बन न ले ले। नयना किसी किशोरी की तरह शर्माई शर्माई सी थी। प्यार किसी भी उम्र में हो उसका अपना तर्क होता है। जो उम्र, जात पात, धर्म, भाषा की सारी दीवारों को गिरा देने की शक्ति अपने में रखता है।
नयना की बेकरार आंखें भीड में रविभूषण को ढूंढ रही थीं। जब वह बाहर निकली तो रवि धुंये में घिरा अपनी तरफ उसको आता दिखा। वह व्याकुलता से आगे बढी, मगररविभूषण का ठहरा हुआ चेहरा देख कर ठिठक गई। वहां पर अहसास की कोई लकीर न थी, बस औपचारिकतापूर्ण मुस्कान। एक ठण्डा सहाज अन्दाज नयना को परेशान कर गया। सुस्त कदमों से चल वह कार में बैठ गई। जिसको स्वयं रविभूषण चला रहा था। नयना के दिल में कुछ टूटा। मन भटक कर कहीं दूर चला गया। दिमाग रवि के गंभीर चेहरे को देख कर बार बार प्रश्न करने लगा कि क्या यह वही आदमी है जो रात के आखिरी पहर और कभी भोर तक बडी ललक से बातें करता है और दिलो दिमाग़ को उमंगों से भर देता है?
'' आपकी तबियत ठीक है? ''
'' हाँ।''
'' बहुत चुपचुप हैं?''
'' दरअसल दिन को काम में उलझा रहता हूँ सो बात करने का मन नहीं होता ! ''
रवि की हल्की हँसी और जवाब ने नयना को संभाल लिया। उसके अन्दर बुझी खुशी फिर जिन्दा हो गय्ी और वह चहकने लगी। बातों में पता नहीं चला कि वह होटल पहुंच गये हैं। ऊपर समन्दर के सामने वाली कुर्सी पर बैठा रवि सिगरेट पीता रहा और वह बातें, फिर रवि ने लम्बी गहरी सांस लेकर खाली चाय की प्याली रखते हुए कहा, '' मुझे आज बंबई से निकलना होगा। अहमदाबाद में होटल बन रहा है, वहाँ कुछ दिक्कत पेश आई है। बहुत अच्छा हुआ हमारी मुलाकात हो गयी। शाम की एक उडान दिल्ली के लिये हैअगर दिल चाहे तो रुको, मैं दो तीन दिन में लौटता हूँ।''
नयना सकपका सी गई। कोई उत्तर नहीं सूझा। दिल पर घूंसा सा लगा। मगर जल्द संभल गई।
गहरी नजरों से उसने रवि को देखा। आंखों में छाया सूनापन था। उसने दिल को तसल्ली दी कि वे दोनों जिन्दगी के उस पडाव पर हैं, जहां फर्ज क़ा नम्बर पहले आता है। उसने शाम की उडान से लौटना तय कर लिया। रवि ने उसको बाजार छोडा ताकि वह कुछ शॉपिंग करना चाहे तो कर ले,फिर वह दो घंटे बाद जरूरी काम निबटा कर लौटता है और लंच पर साथ रहेगा। इस बीच वह टिकट भी बदलवाने की कोशिश करता है। नयना को सबकुछ अटपटा लगा। फिर यह सोच कर चुप हो गयी कि यह दो शहर की अपनी संस्कृति का प्रश्न भी है। बम्बई प्रोफेशनल सिटी है, दिल्ली पॉलीटिकल,जहाँ कभी भी प्रोग्राम बदला जा सकता है।
लंच पर रवि थोडा खुला। अपने काम के बारे में बताया कि वास्तुविद कला उसका ईमान है। उसे शब्दों से ज्यादा लकीरों पर विश्वास है, जिनसे वह घरों का खाका खींचता है और लोगों को छत मुहैय्या करवाता है। नयना ने रवि के लिये एक शर्ट खरीदी थी जो उसने थैंक्स के साथ ले ली और नयना को हवाई अड्डे छोडने के लिये उठा। जब वह बाय करके चलने लगा तो उसकी आंखों में एक नरमी सी उभरी। यह संदेश नयना को संतोष दे गया। उसे याद आया कि रवि ने कहा था कि मिलना, रहना और जीना क्या होता है, इसको समय से नहीं आंका जा सकता है, कभी कभी पल भर की मुलाकात पूरी जिन्दगी पर भारी होती है। नयना को लगा आखिर रवि भी तो उससे मिलने चंद घंटों के लिये ही तो आया था। अब वह भी दो चार दिन की जगह एक दोपहर एक साथ गुजार कर जा रही है और इसमें बुरा क्या है? आखिर रवि वास्तुविद् है, उसका काम नक्शा बनाना है, अपने नक्शे को साकार रूप में देखने के लिये संयम, धैर्य की आवश्यकता होती ही है। बता तो रहा था कि उसके कई प्रोजेक्ट कई कई वर्षों तक चले हैं। फिर मुझे इतनी व्याकुलता दिखाने की जरूरत नहीं, न ही उसके बर्ताव में अतिरिक्त कुछ पढने की जरूरत है।
एक नई तरंग के साथ नयना दिल्ली लौट आई। नौकर जो दो तीन दिन के आराम का प्रोग्राम बनाये बैठे थे, वे हडबडा गये। ठीक दस बजे फोन की घंटी घनघना उठी। अहमदाबाद से रवि का फोन था।नयना हाथ में पकडा कौर प्लेट में रख बेडरूम में आ गयी और बिस्तर पर लेट कर बातों में डूब गई। फोन रखते हुये उसको चुम्बन मिला, नयना के चेहरे पर एक साथ कई चांद चमक उठे। उसने आंखें बन्द कर लीं। सामने एक भरपूर जिन्दगी का नक्शा था, जहाँ वह होगी और रविभूषण। उसने हंस कर आँखे खोलीं और अपने से कहा -
'' नयना, जरा धैर्य से काम लो, माना कि तुम्हारा काम सूने कमरों को सजाना है, मगर इतनी जल्दबाजी क़ी क्या जरूरत है, जिन्दगी से भरपूर शरबत का गिलास तुम्हारे हाथ में है। उसको आहिस्ता आहिस्ता करके पियो, एक एक घूंट कर, ताकि तरावट तुम्हारे वजूद में इस तरह फैले, जैसे सूखी धरती पर पानी धीरे धीरे उसकी खुश्की क़ो जज्ब करता है।''
नयना ने रात को एक सपना देखा। एक खूबसूरत घर है, जिसके सामने घास का मैदान है, जिसके चारों तरफ फूलों से भरी क्यारियाँ हैं। एक बडे सायेदार दरख्त के नीचे रवि उसके साथ बैठा है।सामने पडी मेज पर एक नक्शा फैला है जिसको दिखाते हुए रवि कह रहे हैं, नयना, जापान में मेरे इस प्रोजेक्ट को बहुत पसन्द किया गया है। उम्मीद है इस जाडे में इसकी शुरुआत मैं कर दूँ। तुम साथ रहोगी, देखना मेरी लकीरों का कमाल - वह इस तरह बोलेंगी कि उनके सामने शब्द भी फीके पड ज़ाएंगे।
' नहीं रवि जाडे में नहीं हम बसन्त में जाएंगे, जब हर तरफ फूल की मालाएं लिये पेड हमारा स्वागत करेंगे। चमकीला सूरज नीचे आसमान पर चमकेगा। तब हिरोशिमा घूमने में मजा आयेगा,वह शहर बमबारी के बाद दोबारा बसा है जैसे हमारी यह जिन्दगी, जो बिना बमबारी हमको सागर मंथन के द्वारा मिली है! '' नयना हँसती है।
उसकी बात सुन रविभूषण ने जोर से ठहाका कहकहा लगाया और गहरी सम्मोहन भरी नजरों से नयना को ताका और सिगरेट मुंह में दबा लाईटर को जलाया, लपकते शोले ने सिगरेट को लाल बिन्दी में बदल दिया। धुंए के छल्लों में घिरी नयना के कान सुनते हैं - '' तुम्हारी आँखे बहुत खूबसूरत हैं। तुम मुझे पहले क्यों नहीं मिली नयना? मैं इस तरह न भटकता, मैं इस भटकाव में जिन्दगी की जुस्तजू को छोड नहीं पाया हूँ, तो भी नयना तुम मुझे कभी छोडना मतचलना क्षितिज के अंतिम छोर तकमेरे साथ।''
रात का सपना नयना के दिमाग पर छाया रहा, दिल ने कहा कि रवि मैं दुनिया छोड सकती हूँ, मगर तुम्हें नहीं, तुम मेरी श्वासों में बस गये हो, मेरे वजूद में समा चुके हो। तुमसे अलग होने का मतलब है अपने शरीर को दो हिस्सों में बांट देनानहीं नहीं रविमैं अब तुम्हारी हूँ। सिर्फ तुम्हारी। जैसे मीरा कृष्णमय हो गय्ी थी, मैं रविमय हो गई हूँ, मेरी तपस्या हो तुम, मेरी निष्ठा हो तुम, मेरी जिन्दगी की नई शुरुआत हो तुम!
कई दिनों से रविभूषण के जुमले रात दिन नयना के कानों में गूंजते थे। उस पर हर पल नशा दर नशा चढाते हुए। काम करते करते वह ठहर जाती, बात करते करते खामोश हो जाती।
''नयना! तुम कैसे उस माहौल में जी लेती हो। आओमैं तुम्हारे इंतजार में यहाँ बैठा हूँ। मुझ पर विश्वास करो। अपनी बडी बडी आंखों से इस रविभूषण को देखो, यह तुम्हारा है। नयना, सिर्फ तुम्हारा है। मैं तुम्हारे सारे दु:खों को मिटा दूंगा। तुम्हें इतना प्यार दूंगा कि तुम फिर से खिल उठोगी, एक तरोताजा गुलाब की तरह महकी महकी सी।''
रात के लम्बे पहर तक टेलीफोन व्यस्त रहने से बाकि की कॉल रुकी रहतीं। कई बार नरेन्द्र को सुनने को मिला कि मरीज क़ी हालत खराब थी, घर फोन किया मगर बात न हो पाई। बेटों का भी ई मेल मिला तो इसमें भी वही जिक़्र, जिसको पढ क़र नरेन्द्र को कोई विशेष फर्क नहीं पडा। आखिर नयना फोन पर अपने क्लाईन्ट से ही तो बात करती होगी, फिर मेरा तो सैल ऑन रहता ही है।
मगर उस दिन न जाने क्यों नरेन्द्र पर क्रोध का दौरा पड ग़या। जब कानपुर से कॉल था। मरीज क़े रिश्तेदार फोन मिलाते मिलाते थक गये थे। सुबह जब फोन मिला, तब तक मरीज बिना दवा की गोली खाये चल बसा यह दवा उसकी जान बचा सकती थी, अगर समय पर मिल गई होती तोवह होश खोकर नयना पर जी भर के बिगडा, यह मरीज उसके कैरियर की सबसे बडी उपलब्धि था।उसका ऑपरेशन कामयाब हुआ था। मेडिकल क्षेत्र में उसके काम को सराहा गया था। अखबारों में उसकी तस्वीरें छपी थीं। बी बी सी ने उसकी एक विशेष भेंटवार्ता प्रसारित की थी। उस कामयाबी का यह अम्जाम?
नयना को नरेन्द्र की यह बातें बेहद बुरी लगीं। उसके पास तर्क था कि पूरे अस्पताल में कितने फोन होंगे, उसका अपना सैलुलर था। क्या सारा मेडिकल विभाग एक ही फोन पर टिका है? इस बात को जान कर नयना बुरी तरह भडक़ उठी, जब नरेन्द्र ने बताया कि उसने थकान के कारण सैल बन्द कर दिया था, ताकि पूरी नींद सो सके। दूसरे दिन उसको कहीं लैक्चर देने जाना था। नयना को लगा कि सारी जिन्दगी नरेन्द्र ने अपनी हर लापरवाही का इल्जाम नयना पर थोपा है। उसकी हर गलती को नयना ने हंस कर टाला, मगर कब तक? वह भी इन्सान है, उसको भी प्यार चाहिये, तारीफ चाहिये, धन्यवाद वाले चन्द शब्द, ताकि वह भी जी सके, मगर पूरी जिन्दगी वह इस घर की सलीब पर टंगी हर तरफ से ताने सुनती रही है। जिसकी जरूरत पूरी नहीं हुई उसीने शिकायत दर्ज कर दी,मगर कभी यह नहीं पूछा कि उसकी जरूरत क्या है, उसके मन में कौनसी नाकाम इच्छाएं मचलती रहती हैं? रवि ठीक ही कहता है कि मैं यहां क्यों टिकी हुई हूँ?
नयना उस रात बहुत दुखी थी। उसने अपने मन का दुख रवि के सामने नहीं खोला, जब वह कह ही चुका है कि तुम आओ, यह चैम्बर तुम्हारा है। तुम्हारे लिये मैं इतनी रात गये तक यहां रुकता हूँ,ताकि बात कर सकूं, वरनायह सब सोच कर नयना खामोश रही कि फैसला जब उसी को लेना है तो फिर शिकवा क्या, सो रविभूषण की जादुई आवाज में खोई रही, जो कह रहा था।
'' नयना, मैंने कितने घर बनाये मगर दुखी होता हूँ, जब उनमें लोगों को खुशी के साथ रहते नहीं देखता हूँ। क्या वे नहीं जानते कि नर नारी एक दूसरे के पूरक होते हैं, फिर काहे कि लडाई? जो सम्बन्ध शाश्वत है, उसमें एक दूसरे को ध्वस्त करने की बेजा हठ क्यों? इन सारी गैरजरूरी बतकही का जवाब कौन देगा? शताब्दियां गुजर गईं हैं, मगर यह जो समस्या नर नारी के बीच आन खडी हुई है, वह आज की तारीख तक सुलझ नहीं पाई है, आखिर क्यों? क्या कर रहे हैं हमारे बुध्दिजीवी,जिन्हें लेखक, कवि, पत्रकार, समाजसेवी की सम्मानित उपाधि समाज ने दे रखी है, जो शब्दों के जन्मदाता हैं, जो शब्दों से खिलवाड क़रते हैं, मगर क्या उन्होंने इन सम्बन्धों के लिये कोई त्याग किया है? नयना सच मानो किसी ने कुछ नहीं किया है, केवल दिमाग को पालने, मन को मारने के सिवा। मेरा तो अटूट विश्वास है कि इंसान को मन की बात माननी चाहिये। संवेदना से बढ क़र सुन्दर इस संसार में कुछ भी नहीं है और यह शातिर दिमाग जाने कबसे उसको तबाह करने की योजनायें बनाता आया है। कितनी तरह के नियंत्रण, कितनी संख्या में कारागार, अनेक तरह के अत्याचार हुए हैं इस पर, देखो नयना, इतिहास के पन्ने पलट कर देखो। मगर क्या कोई कैद कर पाया है भावना को? क्या वास्तव में किसी ने उसकी हत्या की है? नहींनहीं, बस शोषण के बलबूते पर इंसान एक दूसरे का दोहन कर रहे हैं, नहीं जानते वे मूर्ख कि नर नारी संबध संसार का सबसे सर्वोत्तम संबंध है। काश! कोई इस संबंध को जीने का सही फार्मूला ढूंढ पाता और उसको घर घर बांट सकता। काश!''
रविभूषण की आवाज ग़हरी होते, अंत में आकर भर्रा गई। नयना को लगा कि रवि रो रहे हैं। उसका दिल भी भर आया। बांध से रुके आँसू बेकरार हो गालों पर लुढक़ आये। उसकी सिसकियां सुनकर रविभूषण ने चुम्बन लेना शुरु कर दिया। आवाज द्वारा स्पर्श की यह भूमिका नयना को और भावुक बना गई। सारी जिन्दगी का दुख मोम बन कर पिघलने लगा। जब शमा पिघल कर खामोश हो गयी तो रवि का स्वर फूटा -
'' नयना तुम्हारे पास होता तो ये सारे आंसू पी जाता। आंखों में आये पानी को मैं बहुत पवित्र मानता हूँ। उसको संभाल कर रखो। मेरा दरवाजा खुला है, जब चाहो आ जाओ नयना।''
नहाते हुये नयना ने अपने सरापे को निहारा। बदन का हर अंग जैसे उत्सव मनाने की चाहत में सरशार लगा, मन बार बार भटक जाता था। अभी तक रविभूषण ने उसके गालों पर चुम्बनों के फूल नहीं खिलाए थे, मगर इस बार रात को हवा में तैराये गये सारे लाल गुलाब उसके चेहरे पर खिलेंगे।झब वह हमेशा के लिये रवि के साथ होगी। तब वह अनुभव कैसा होगा? उसने पिछले कई वर्षों से किसी का चुम्बन नहीं लिया है, न पति का, न बेटों का। पति के संग उसके सम्बंध अलग तरह से पनपे थे, जिसमें बिस्तर लगभग गायब हो गया था और जिम्मेदारी, परिवार, काम, भविष्य की समस्याओं ने उसकी जगह ले ली थी। वह मर्द के स्पर्श से बेगाना एक बैरागी जीवन व्यतीत कर रही थी, जहां पति को उसके स्पर्श की चाहत जगह मरीजों की चिन्ता ज्यादा सताने लगी थी। यह सब कुछ धीरे धीरे घटा था। मगर आज का यथार्थ यही था कि मधु की बूंद की तरह मीठा प्यार शब्द व्यवहारिक रूप से उसकी धरती छोड चुका था।
कानपुर के मरीज क़ी मौत ने कई तरह के सवाल नरेन्द्र के लिये उठा दिये थे, जिनका जवाब उनसे मांगा जा रहा था, यह सब कुछ उनसे जलने वाले करा रहे थे, यह सबको पता था मगर बात तो उठ ही गई थी। नरेन्द्र इन दिनों बहुत परेशान था। उसको किसी अपने की जरूरत थी जो उसका हाल सुन उससे सच्ची हमदर्दी जता सकता। बच्चे दूर थे। नयना बुरी तरह से खफा थी। वह सुकून की तलाश में अकसर दोस्तों के पास चला जाता और जब घर लौटता नयना फोन में डूबी होती। वह परेशान सा शराब की बोतल खोलता और अकेले ही पीना शुरु कर देता, फिर धुत्त सा सोफे पर सो जाता था। सैलुलर जेब में पडा बजता रहता। यह कैफियत भी ज्यादा दिन नहीं चली।
उसको किसी कॉनफ्रेन्स का बुलावा आ मिला, जिसने उपद्रव को जहां शांत किया, वहीं पर उसकी खोई प्रतिष्ठा भी उसे वापस मिल गई। चूंकि कॉनफ्रेन्स को लेकर रोज ख़बरें पत्रों में होतीं और भारत से प्रतिनिधित्व करने वाले केवल डॉक्टर नरेन्द्र कुमार थे, सो माहौल बदलते देर नहीं लगी।
नयना हमेशा के लिये घर छोडने का प्लान बना चुकी थी। उसको नरेन्द्र से कोई मतलब न था,पिछले दो हफ्तों से उनके बीच कोई बात नहीं हुई थी। अपना ऑफिस वह फिलहाल अपने असिस्टेन्ट के हवाले कर चुकी थी, जिससे कहा सिर्फ इतना था कि वह महीने भर के लिये किसी बडे प्राेजेक्ट के सिलसिले में बम्बई जा रही है। यही बात नौकरों को कहते हुए उसने नरेन्द्र को सुनाई थी। बैंक जाकर लॉकर से उसने वह सारे जेवर छांट कर निकाले थे जो उसको मायके से मिले थे और स्वयं खरीदे थे। चेकबुक उसने पर्स में डाली और महीने भर का राशन पानी का इंतजाम किया। आये हुये बिल जमा करवाये। वह सब काम किया, जो उसकी आज तक की डयूटी में शामिल था। जब यह सब कर चुकी तो उसने अपनी सीट बुक कराई और अटैची में कपडे सजाने लगी। नरेन्द्र जा चुका था। हफ्ते भर बाद उसको लौटना था। उसकी भी जरूरी चीजें उसने पूरी कीं और एक दो लोगों से जरूरी मुलाकात के लिये चल पडी।
रात को रविभूषण का फोन आया तो उसने बताया कि वह कल सुबह की फ्लाईट से आ रही है।फ्लाईट न और एयरलाईन्स का नाम रविभूषण ने नोट कर लिया। रविभूषण ने फोन काट कर शायद किसी को इत्तिला दी, फिर मिलाया और लम्बी बातों का सिलसिला चल पडा। दो बजे के लगभग बात खत्म हुई। फोन रख कर नयना बिस्तर पर पैर फैला कर लेट गयी। यादों का काफिला घर के कोनों से निकल कर उसकी आँखों के सामने से गुजरने लगा। शादी के आरंभ के दिन, बच्चों की पैदाइश,सास ससुर का बुढापा, बीमारी, फिर मौत, मायके का घर, भाई बहनों की मौत और अपने काम में जुडे लोगों की अच्छाईयां और बुराईयां। एकाएक खयाल कौंधा क्या बच्चे इस रिश्ते को स्वीकार कर पाएंगे? शायद वे मुझसे घृणा करने लगें। अपने डैडी से उन्हें ज्यादा हमदर्दी हो और वे नरेन्द्र की उस मित्रता को एकदम भूल जायें जो बडे ज़ाेर शोर से अपनी जूनियर डॉक्टर से हुई थी। तब घर में तनाव ही तनाव था। उस लडक़ी का विवाह मां बाप ने अगर न करा दिया होता तो आज वह मुसीबत इस घर को बांट देती। तब तो बच्चे छोटे थे, ग्यारह और तेरह साल के। वह भी काम नहीं करती थी। तब भविष्य किसी अंधकारमय गुफा की तरह डराता था। सहेलियों के हिम्मत दिलाने पर उसने पुरानी डिग्री का सर्टिफिकेट किसी फाईल से निकाला था और किसी की सिफारिश पर छोटे मोटे बिजनेस मैन का ऑफिस डेकोरेट किया था। उसके बाद काम मिलता ही गया और घर में उसकी हैसियत हर दिन मजबूत होती चली गई।
नरेन्द्र को अपने सम्बन्ध टूटने का दु:ख था। वह लडक़ी कई बार नरेन्द्र से मिलने भी आई। दो साल बाद वे दोनों पति पत्नी सऊदी चले गये और नरेन्द्र दिल को बहलाने के लिये काम में रमता चला गया। आज वे सारी बातें नयना को आक्रोश से नहीं भर रही थीं, बल्कि उसको संतोष भरा विश्वास दे रही थीं कि उसने अपना गृहस्थाश्रम बखूबी निभाया। बेटे विवाह शायद वहीं करें और बस भी जायेंगे।उनमें भौतिक दौड क़ी गर्मी और रिश्तों का ठण्डापन उसने बराबर महसूस किया। मगर वह कर भी क्या सकती है, जब इंसान बदल रहा हो, सम्वेदनाएं मूर्खता समझी जाने लगें तब?
अपने बालों को रंग करते हुए एकाएक नयना के हाथ रुक गये। शंका का गर्म थपेडा फूलों भरे बाग में दाखिल होकर उससे पूछने लगा कि अगर यह सब कुछ छलावा साबित हुआ और रवि भी नरेन्द्र की तरह निकला तो वह क्या करेगी? क्या तब वह अकेलापन सह पाएगी? इस उम्र में सम्मोहन का क्या कोई तर्क है? क्या यह वास्तविकता है जिसके आधार पर वह सब कुछ छोड क़र जा रही है?कहीं यह आवेग उसको यथार्थ के विरोध में तो नहीं खडा कर रहा है? प्रेम कहींनहीं नहींरविभूषण एक जिम्मेदार इन्सान हैं, उनकी उम्र भी अब गैरजरूरी हरकत करने की नहीं है, फिर बम्बई में जवान औरतों की कमी थी, जो वह मेरी तरफ आकर्षित हुए, यह आकर्षण वास्तव में पुराने जीवन की निराशा से उपजा भाव है या फिर यूं कहा जाये कि एक फसल कट जाने के बाद दूसरे पौधे लगाने का समय है। जीवन तो निरन्तरता का नाम है, तो फिर भावनाएं भी तो खिल सकती हैं बार बार!
अपने नये सूट, सेंट, क्रीम अटैची में सलीके से रख कर जब उसने जिप लगाई तो एक बार फिर आशंका ने उसका दिल दहलाया कि नयना यह ज्वार कहीं भाटा बनकर तुमको बर्बाद न कर दे। यूं पुराना छोड क़र नये की तरफ जाना वह भी इस जल्दबाजी में कहां की अक्लमन्दी है? नयना ने मुडआईना देखा, अपनी आशंका को मुंहतोड ज़वाब दिया कि उम्र के इस मोड पर उसके पास साल ही कितने बचे हैं, सो वह सोचने में गंवा दे। और बुढापे को गले लगा ले। उम्र का यह दौर ढलती जवानी का जरूर है मगर यह भी सच है कि हम अभी जवान हैं। इस जज्बे को संभालना ही चुनौती है और आज का सच यही है कि रविभूषण मेरे अहसास में उपजी एक सुगन्ध है, जिसकी चाह मेरी आत्मा को है।
पौ फट चुकी थी। उसने चाय बनाई, नहाई और रवि की पसन्द के रंग वाले कपडे पहने। सारी रात आंखों में कटी थी। आखिर गृहस्थाश्रम का अंतिम अध्याय आज खत्म होने वाला था। मगर नये सूरज ने उसको थकान की जगह उमंग दी! नयना को पता था कि नई जिन्दगी की शुरुआत दिल के आईने में शुरु हो चुकी है। मगर उसकी कोई रूपरेखा व्यवहारिक रूप से सामने नहीं थी। उसको पता था कि रविभूषण विवाहित है, उसके तीन बच्चे हैं। माता पिता का देहांत हो चुका है। इकलौती बहन ससुराल में खुश है। उस पर ऐसी कोई बडी ज़िम्मेदारी नहीं बची है जो उसके जीवन में बाधा बन कर आए। बडी बेटी का विवाह हो चुका है। बेटा कैम्ब्रिज में अपनी विदेशी पत्नी के संग है, केवल छोटी बेटी इंटर कर रही है। अब बचा सवाल समाज का, उसका मुकाबला हर कदम पर हर तरह से नयना ने किया है, कभी प्रताडना मिली तो कभी सराहना और अब वह हर अंजाम के लिये तैयार है!
हवाई जहाज क़ब उडा, कब उतरा नयना न जान पाई। चौंकी तब जब सारे मुसाफिर अपना सामान निकालने लगे। नयना मंद मंद मुस्कुराती उठी। जेवरों से भरा पर्स कंधे पर टांगा और अटैची किसी की मदद से उतरवाई, फिर उतरते मुसाफिरों के पीछे चलने लगी! घर से भागने का यह अंदाज पुराना होने के बावजूद कितना नया था। जब तर्जुबा आपके बालों में सफेदी बन कर उभर रहा हो और आपके पैर किसी पुराने बरगद की तरह धरती में एक विशेष स्थान पर गहरे धंस चुके हों, तब सब कुछ नकार कर एक नई जिन्दगी की बुनियाद डालना कितना अनोखा अनुभव है!
जहाज क़ी सीढी उतरते हुए नयना को महसूस हुआ कि वह पिंजडे में कैद मैना थी जो आज बरसों बाद पंख फैला कर सूरज की गर्मी को डेनों में भर हवा के डोले पर सवार फल फूलों से भरे बागानों की तरफ उडान भरने वाली है, जहां हरी पत्तियों वाली मोटी शाखों वाले दरख्त पर पडे झूले में बैठ उसे केवल प्रेमगीत गाना होगा और राग उठाना होगा, जिसका आलाप जाने कब से उसने सीने में दबा रखा था।
सामान लेकर जब वह बाहर निकली तो उसकी बेचैन आंखें रविभूषण को तलाश करने में लग गईं।आस पास की भीड छंटी तो वर्दी पहने ड्राईवर उसकी तरफ बढा और अदब से पूछा, '' नयना मेम साहब! ''
''हाँ।''
'' साहब की मीटिंग थी, सो वह न आ सके।'' सलाम कर उसने अटैची हाथ बढा कर उठाई।
नयना को हाथों में पकडा गुलाबी फूलों का गुच्छा कांटों से भरा गुलदस्ता लगा। आंखों में दिल के टूटने से पानी तैर गया। नया गुलाबी सूट, उसी रंग की लिपस्टिक, सफेद मोतियों और गुलाबी नगों के जेवर, सारा साज श्रृंगार अर्थहीन हो उठी। दिल्ली से बम्बई तक का रास्ता इसी पहली नजर के इंतजार में बार बार पर्स से आईना निकाल कर देखने में गुज़ारा था। तडप के सुलगते अम्गार दहकने के बाद एकाएक राख होने लगे। वह अपने आप को समझाने लगी कि इतना आवेश ठीक नहीं।रविभूषण एक व्यस्त आदमी है। उसके पास समय की कमी हो सकती है आखिर जिन्दगी की शुरुआत में यह कैसे नकारात्मक भाव उभर रहे हैं। यदि उनको नयना का खयाल न होता तो वह कार क्यों भेजते? शिकवे शिकायत तो कम से कम बाद के लिये रखे, मगर सारी समझदारी के तर्क मन की इच्छा के आगे निहत्थे हो उठे। जब वह हठ से बार बार यह प्रश्न करता कि आज तो एक विशेष दिन था! माना कि वह अपने कार्यक्रम में महत्वपूर्ण व्यक्ति है, तो आधा घंटा देर से मीटिंग शुरु करने की व्यवस्था नहीं कर सकते थे?
'' मुझे नयना तुमसे सब कुछ चाहिये। बस तुम पूरे विश्वास से इस जमीन पर खडी रहो, मैं तुम्हारे पास हूँ।''
कई महीनों से अनुराग भरा आग्रह उन्हीं की तरफ से रहा था और परसों रात को सारा कार्यक्रम तय हुआ था। आज सुबह पहुंचने का फैसला हम दोनों ने लिया था। फिर? उसने सर झटका। पर्स से आईना निकाल कर चेहरा देखा। ताजग़ी रूखेपन में बदल रही थी। उसने अपने को संभाला और जबरदस्ती मुस्कान चेहरे पर लाई, ताकि रवि उदासी उसकी उदासी न ताड ज़ायें।
'' मेम साहब किधर जाना है? '' हवाई अड्डे की सडक़ से निकल ड्राईवर ने मोड से पहले पूछा।
'' किधर चलूं यानि क्या? '' नयना ने पलक झपकाई! फिर धीरे से बोली, '' क्या साहब ने कुछ नहीं बताया?''
'' नहीं, बस इतना कहा था कि मेम साहब जहां जाना चाहें पहुंचा देना और जहां ठहरें वहां का नम्बर लेते आना, ताकि मीटिंग के बाद मैं उनसे फोन पर बात कर सकूं। '' ड्राईवर ने धीरे से कहा।
'' मतलब? तय तो कुछ और हुआ था। क्या रवि सबकुछ भूल गये?'' मन ही मन नयना ने कहा और चकराई सी बैठी रही।
'' किधर जाना है?'' ड्राईवर ने दोहराया।
'' साहब के ऑफिस चलो।'' नयना के मुंह से निकला।
कार सडक़ पर तेजी से फिसलने लगी। चेहरे पर तना खुशी का शामियाना धीरे धीरे उतरने लगा।वहां चिन्ता प्रश्न बन कर उभर आई। कहीं रवि की धर्म पत्नी तो कोई फसाद नहीं खडा कर दिया? मैं इस शहर में कहाँ ठहरने जाऊं। दो बार आई तो ठहरने का इंतजाम बुलाने वालों ने किया था। इस बार बुलावा रवि की तरफ से था। उसने साफ शब्दों में कहा था, '' मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ। पिछली बार तुम्हारा स्टे कम रहा, मगर इस बार ताजमहल होटल में एक सुईट बुक करवा दूंगा। उसको फूलों से सजवा दूंगा ताकि उनकी उपस्थिति में हम कई दिनों तक एक दूसरे की बांहों में बेहोश रहें। फिर देखेंगे कि जिन्दगी कैसे शुरु करेंगे। मुझे कोई जल्दी नहीं है, अब रात दिन हमारी मुट्ठी में हैं, तुम मुझ पर यकीन रखो, मैं हूँ ना तुम्हारे साथजानती हो मेरे दो दिल हैं, एक में तुम मौजूद हो और दूसरे में मेरा प्रोफेशन!''
मीठी बातों की याद से नयना के चेहरे पर मुस्कान दौड ग़ई। फिर दूसरे ही लम्हे वह कार रुकने से चौंक पडी। फ़ीके चेहरे पर खुशी की तह जमाने की नाकाम कोशिश करती हुई नयना कार से नीचे उतरी। मन में रवि का कमरा देखने की जिज्ञासा उभरी। जब तब वह अपने कमरे को घर कह कर नयना को वहां रहने की दावत देता था, उसका कहना था कि मुझे घर से ज्यादा अपने ऑफिस में सुकून मिलता है। वहां मेरी जरूरत की हर चीज मौजूद है। इसलिये नयना को अपने घर में पहला कदम रखना था।
ड्राईवर के पीछे पीछे ग्यारहवें फ्लोर पर नयना लिफ्ट से पहुंची। रवि का ऑफिस शानदार था। चौकोर कमरे में दो लोग सिर झुकाए लैम्प के नीचे काम कर रहे थे। कई रंगों के फोन के पीछे काउंटर पर एक जवान लडक़ी बैठी थी। उसने नयना को देख कर नजरें उठाईं,
'' यस मैम? ''
'' मुझे रविभूषण जी से मिलना है।''
'' किस सिलसिले से? योर गुडनेम प्लीज? '' लडक़ी ने डायरी के पन्ने पलटते हुए पूछा।
'' नयना।'' एक तीखा अपमान बोध नयना को हुआ, मगर नाम तो बताना था।
'' सॉरी मैम! आज सर से आपकी मुलाकात का कोई समय दर्ज नहीं है।''
'' वह साहब ने आपको लेने भेजा था।'' ड्राईवर ने कहा।
'' ओह तो ऐसे बोलो ना।'' इतना कह कर लडक़ी ने दूसरे कमरे का दरवाजा लपक कर खोला और बेहद विनीत भाव से बोली, '' सॉरी मैम! प्लीज आईएरात को सर ने फोन करके बताया था। गाडी ठीक समय पर आपको लेने पहुंच गई थी ना? ''
'' हाँ, डा्रईवर पहुंच गया था। रवि कब तक मीटिंग से लौटेंगे? '' नयना ने सोफे पर बैठते हुए कहा।
'' सर का फोन आया था। अभी वह मीटिंग से साईट पर जायेंगे। फिर ऑफिस दोपहर तक लौटेंगे।''
'' ओह! उनको याद था कि मैं आ रही हूँ।'' दु:ख में नयना के मुंह से निकला।
'' जी?'' चौंक कर लडक़ी ने नयना को देखा।
'' कुछ नहीं।'' नयना संभल कर बोली!
'' इधर बाथरूम है, आप फ्रेश हो लें, मैं कॉफी भिजवाती हूँ।''
इतना कह कर वह लडक़ी कमरे से बाहर निकली। ड्राईवर अटैची लेकर अन्दर दाखिल हुआ और कोने में रख कर चला गया।
फिर एक अधेड मर्द हाथ में शीट लिये दाखिल हुआ और गौर से नयना को देख, बिना विश किये हुए उसको मेज पर रख कर बाहर निकल गया। नयना को उसका यूं देखना खल गया! उसका मूड खराब था। मगर इतना नहीं कि वह वातावरण में फैली जिज्ञासा को सूंघ नहीं सकती थी! वह उठ कर बाथरूम गई। बाल ठीक कर होंठों पर नई परत लिपस्टिक की जमाई, फिर बाहर आकर कमरे का जायज़ा लिया। रविभूषण की बडी सी मेज क़े पीछे उफनते समुन्दर की पेन्टिंग लगी थी। बाईं तरफ रोल किये हुए कागज़ों का ढेर था। मेज पर उपर से लटकता लैम्प और दो दो टेलेफोन, मेज के पीछे रखी नीली ऊंची सीट वाली कुरसी, तो यहां बैठ कर रविभूषण फोन करते होंगे।
'' सुनो नयना, मेरा कोई भावनात्मक जुडाव पत्नी से नहीं हो पाया। बहुत कोशिश की, मगर वह खुश्बू, जिसकी मुझे तलाश थी हमारे बीच कभी नहीं फैली। क्या एक इंसान सामाजिक बंधन से बंध सारी जिन्दगी तडपता छटपटाता रहे और अपने लिये कोई लम्हा उधार न ले सके?''
दरवाजा खुला, नयना ने नजर उठाई। कॉफी और सैण्डविच की ट्रे लेकर लडक़ा कमरे में दाखिल हुआ और मेज पर रख कर जाने लगा, तभी वह लडक़ी अन्दर दाखिल हुई।
'' सॉरी मैम! आपको अकेला छोड दिया था। मेरा नाम रोज़ी है। आप कॉफी लें। हमारे ऑफिस की कॉफी पूरे पन्द्रह माले में मशहूर है।'' कहते हुये रोजी ने कॉफी आगे बढाई। तभी फोन की घंटी बज उठी। '' हलो, रविज एसोसियेटजी सर! ऐसी कोई इनफॉरमेशन नहीं है। आपने रात को कब बात की थी? साढे ग्यारह बजेसॉरी सर मुझे रात की बातों की कोई सूचना नहीं रहती, यदि आप चाहें तो दो बजे फोन कर लें।'' इतना कह कर रोजी ने लम्बी सांस ली और गरदन हिलाते हुए फोन रखा।
नयना का मन हुआ कि उसके चेहरे पर उभरे अजीब से भाव और आँखों में उभरी परेशानी देख कर पूछे कि क्या हुआ, मगर फिर सोचा कि भले ही वह रवि के नजदीक है, मगर यह तो उसका ऑफिस है। उसको चिन्ता व्यक्त करने की कोई जरूरत नहीं है। कॉफी का घूंट भरते हुए उसको रविभूषण का आक्रोश में भरा स्वर याद आया, ''एक एक को मैं देख लूंगा। समाज के ठेकेदारों को एक दिन जवाबदेह होना पडेग़ा। मैं यहां बैठा हूं न, आएं और मेरे प्रश्नों का उत्तर दें कि अपमान बडा होता है या शोषण? किसी एक अवस्था में जीना बेहतर होता है या सब कुछ नकारते चले जाना? सच्चाई को स्वीकार करने से डरना कोई अच्छी बात नहीं है! मेरे ऊपर लांछन लगाना बहुत बडा मानवीय कारनामा नहीं है, फिर हिम्मत है, तो सामने आओ न,''
इस तरह का वार्तालाप वह किसको सम्बोधित करके करता था, नयना समझ नहीं पाती थी। इतना जरूर जानती थी कि रविभूषण के अन्दर कहीं जहर से बुझा आहत परिन्दा कैद है, जब तब उसका उद्गार निकलता रहता है। उसका यह अन्दाज ज़िसमें भटकन भी थी और ठहराव भी, आजादी भी थी और विस्तार भी! परम्परागत पुरुषों एवं नये सांचे में ढले मर्दों से वह अलग था। कुछ था जरूर।
एक तेज झटके से कमरे का दरवाजा खुला और एकाएक छह फुट लम्बे रविभूषण अन्दर दाखिल हुए। होंठों में सिगरेट थी। आंखें धुएं से अथमुंदी थीं, जिनको जरा तिरछी करके उसने सोफे पर बैठी नयना को ताका और पास रखे गुलदान की ऊंची मेज पर रखी ऐश ट्रे में सिगरेट बुझाया फिर बडी शालीनता से दोनों हाथ जोड क़र नयना को नमस्ते किया, बडी अदा से थोडा झुक कर पूछा,
'' आपको कोई कष्ट तो नहीं हुआ? ''
'' जी? जी नहीं।'' नयना का चेहरा लाल पड ग़या।
'' ठहरी कहाँ हैं इस बार? '' अपनी कुर्सी पर बैठते हुए उसने नयना से पूछा।
'' क्या आपको याद नहीं कि कल रात आपने'' नयना ने गुस्सा पीते हुए हैरत से पूछा।
'' दरअसल मुझे रात की सारी बातें याद नहीं रहतीं है, आप कह रही है, तो यकीन करता हूँ। मैं ने जरूर कुछ कहा होगा।'' रविभूषण कहकहा लगा कर बोले।
'' यस सर!'' रोजी घंटी की आवाज पर हाजिर थी।
'' लंच का टाईम हो रहा है।'' रविभूषण ने कहा।
'' जी सर, मैं ऑर्डर देती हूँ।'' कह कर रोजी मुडी।
'' हाँ, जरा बताईये तो मैं ने क्या कहा था? पीने के बाद दरअसल मेरे जहन की सारी खिडक़ियां,दरवाजे ख़ुल जाते हैं। अकसर दोस्त बताते हैं कि उस समय बोलते बोलते मैं बहुत मार्के की बात कह जाता हूँ।''
'' जी? '' नयना को लगा रवि उसको छेड रहा है!
'' कभी कभी फैन्टासी में रहना अच्छा लगता है, जो असलियत में न हो उसको गढना क्या सृजन नहीं है? मानिये चाहे न मानिये इस सारे ताम झाम के बावज़ूद हमारा काम बहुत रूखा सूखा है और मैं अब इन समानान्तर रेखाओं और वृत्ताकार लकीरों के बीच घुटने लगा हूँ। हमारा पेशा है तो बडा अमीर मगर सच तो यह है कि हमारे पेशे में बडे ग़रीब लोग हैं। आप समझ रही हैं मेरा इशारा किस तरफ है? सोच की विपन्नताओं और दिल की दरिद्रता की तरफ ''
'' आप पीते हैं? ''
'' मैं किसी से कुछ छिपाता नहीं हूँ। अपने को असहज स्थितियों में सहज बनाये रखने के लिये अकसर लोगों को गैरजरूरी चीजों का सहारा लेना पडता है।'' अपनी धुन में रविभूषण, आज दिन में कुछ ज्यादा बोल रहा था।
'' आपने रात को जो बातें कीं थीं, वह सारी की सारी नशे की कैफियत में कीं थीं? वे वायदे, वे''नयना की सांसे उखडने लगीं।
'' जरूर किये होंगे। अकसर नशे की झोंक में बडे बडे प्लान डिसकस कर जाता हूँ, पूरी बारीकी के साथ, मगर जब क्लाइन्ट आता है तो यकीन करें, मुझे कुछ याद नहीं रहता है।'' रवि ने मासूमियत से कहा।
'' मुझे बुलाना भी नहीं? और वह ताजमहल भी नहीं?'' नयना के जहन में बना ताजमहल जगमगाने सा लगा।
'' ताजमहल? क्या उसको बनाने की कोई बात आपसे कर डाली? माय गुडनेस! आय एम रियली जीनियस! मगर मैं उस्ताद मोहम्मद मूसा की तरह हाथ कटवाना नहीं पसन्द करुंगा।'' रविभूषण कहकहा मार कर हंस पडे!
नयना के दिमाग में कोयले का इंजन पूरे वेग से धुंआ फैलाता सीटी देता गुजरने लगा। उसकी आंखें जलने लगीं। उसने कांपते हुए होंठों से पूछा,
'' मुझसे बात करना तो याद है या वह भी भूल गये?''
'' बिलकुल याद है जनाब! मैं रोज आपकी खैरियत लेने के लिये दिल्ली फोन करता हूँ, मगर बातों की दिशा किस ओर बढ ज़ाती है वह सब मुझे कुछ याद नहीं रहता। मुझे छानबीन की आदत नहीं है,तो भी मैं ने आपसे कोई गैरजरूरी बात कह दी हो तो मुझे क्षमा करेंमैं बदतमीज आदमी हूँ, मगर मेरी मंशा किसी का दिल दुखाना नहीं होतायह रुमाल लेंप्लीज अपने को संभालें।''
'' मैं ठीक हूँ।'' नयना ने आंसू पौंछे।
'' मन हो तो हम कहीं और चल कर बैठते हैंलीजिये खाना आ गया।''
'' सर आपने सुबह ब्लडप्रेशर की दवा ली थी?'' रोजी ने धीरे से पूछा।
'' नहीं।'' रविभूषण को अपनी उत्तेजना का भेद समझ में आ गया!
'' सर आपका फोन।'' रोजी ने बजते फोन को उठाया।
'' हलो, माय स्वीट हार्ट बोलो! मुझे याद नहीं खैर अभी दिल्ली से मेरी क्लाईन्ट आई है। मैं निकल नहीं पाऊंगातुम मम्मी के साथ हो आओसॉरी!''
'' सर, आपकी मीटिंग पांच बजे लीला में मिस्टर बृजेश मदान के साथ है फिर सात बजे आपको नाज ज़ाना होगा, जहाँ सेमिनार के बाद डिनर भी है।''
'' ठीक है! नयना जी आप खाना लें।''
कहते हुए रविभूषण आकर नयना के पास सोफे पर बैठ गये। नयना ने नजरें उठा कर रवि के चेहरे को ताका, क्या सचमुच रवि गंभीर है, वह मुझसे मजाक नहीं कर रहे हैं, तो फिर क्या पिछले ग्यारह माह से होती बातें झूठ थीं? इतना लम्बा झूठ किसी वृत्तान्त की तरह कैसे कोई हर रात बोल सकता है? क्या मौखिक शब्दों की कोई जिम्मेदारी नहीं होती? क्या वह मुंह से निकलते ही हवा में विलीन हो जाते हैं? कैसे विश्वास कर लूं कि उन शब्दों में रस नहीं था, भाव नहीं थे। निष्ठा नहीं थी? माना कि वे लिखित नहीं थे, मगर उन्होंने मुझे पूरा संसार दिया था।
नयना कोई सीन क्रिएट नहीं करना चाहती थी, सो न चाहने पर भी उसने प्लेट में खाना निकाला। ऑफिस के बाकि लोग लगातार कमरे में आ जा रहे थे। कुछ रख उठा रहे थे। रोजी पास ही खडी थी।
'' आप ठहरी कहाँ हैं? ओह सॉरी! जहां भी ठहरना चाहें, मेरा ड्राईवर आपको ले जाएगा। कार आप अपने साथ रख सकती हैं। ड्राईवर को फोन नम्बर दे दीजियेगा, अब में इजाजत चाहूंगा। हाँ रोजी तुम मैम के साथ रहना, उन्हें कोई तकलीफ न होकल मुलाकात होगी।'' रवि ने बडी सी अटैची पर नजर डालते हुए नैपकिन से हाथ पौंछा और उठ खडे हुए। नयना ने बडी बेबसी से उन्हें जाते देखा। उसकी आँखों से आंसू गालों पर बह निकले। अपमान की सिद्दत ने उसके सारे बांध तोड दिये!
'' मैम! '' रोजी ने घबरा कर दरवाजा लॉक किया, '' आप अपने को संभालें मैम! सर को रात की बातें याद नहीं रहतीं, आप विश्वास करें। अकसर लोग सर की इस आदत से परेशान हैं और हम ऑफिस वाले भीयूं न रोएं मैम! '' रोजी बौखलाई परेशान सी नयना के पास खडी दिलासा देती रही।
'' मैं ठीक हूँ।'' नयना ने अपने को संभालते हुए कहा।
'' सर एक अच्छे इंसान हैं, वरना मैं कब का काम छोद देती, मगर जब ऐसी दुर्घटना घटती है तो अकसर यह सवाल मैं अपने आप से करती हूँ, क्या सचमुच सर एक ईमानदार संवेदनशील व्यक्ति हैं या फिर मानसिक रोगी?''
नयना अपने को संभालने के लिये बाथरूम गई। जब जी भर कर रो चुकी तो मुंह धोकर बाहर निकली। रोज़ी से नजरें बचाते हुए उसने दीवार पर लगी तस्वीरें देखना शुरु कर दिया।
'' इस ग्रुप फोटोग्राफ में कौन कौन से कौन कौन हैं? '' एका एक अपनी जगह से उठ कर नयना बोली। उसको रोजी क़ा अपनी जिन्दगी में झांकना जाने क्यों बुरा लग रहा था।
'' सर के स्टूडेन्ट्स की हैं।''
'' यह लडक़ी'' नयना ने गौर से देखा!
'' यह सरला जी हैं, आप जब ऑफिस में दाखिल हुईं, तो निजाम साहब समझे सरला जी आई हैं,आप उनसे बहुत मिलती हैं, वह बता रहे थे।''
'' अब कहाँ है?'' नयना का दिमाग जाग उठा।
'' शादी के बाद पता नहीं कहां चली गईंसुना सर और सरला जी विवाह करना चाहते थे मगर'' रोजी ने धीरे से कहा।
'' सब कुछ कितना उलझ गया है'' नयना ने धीरे से कहा!
'' सर काम में ईमानदार हैं, इसलिये लगातार कठिनाइयों का सामना करते हैं। फिर भी उनको वह सब नहीं मिला, जो वह चाहते हैं, इसलिये कभी कभी बहुत तल्ख हो जाते हैंहो सके तो उन्हें माफ कर दें मैम! ''
रोजी क़ी आंखों में याचना थी।
नयना वापस आकर सोफे पर बैठ गई। उसके साथ क्या घट गया, यह रोजी नहीं जानती। वह ईंट गारा, बेजान नक्शे और इंसान के अन्दर की दुनिया का ढहना वह नहीं जानती, अभी बहुत छोटी है।वीराने की खंडहर होती इमारतों को वह नहीं समझ सकती है। मेरी टूटन का हिसाब वह नहीं लगा सकती, अब मुझे चलना चाहिये।
'' रात की या शाम की फ्लाईट में बुकिंग मिल सकती है?'' सहज हो नयना ने पूछा।
'' श्योर मैम! सर तोआप रुकेंगी नहीं?''
'' मेरा आज ही लौटना जरूरी है।'' नयना हल्के से मुस्कुराई। '' ओके मैम! '' रोजी क़े चेहरे पर राहत सी उभरी।
सुबह नयना को लगा कि वह लम्बी बीमारी के बाद उठी है। बाथरूम जाकर उसने ठण्डे पानी से मुंह धोया। सर का दर्द अभी बाकि था। चाय पीते हुए उसकी नजर नरेन्द्र और बेटों की तस्वीर पर पडी।वे तीनों उसको अजनबी से लगे। इनसे कट कर वह पानी के जिस जहाज पर बैठी थी, उसने पता नहीं किस निर्जन द्वीप पर लाकर उसको पटका था! वह खाली नजरों से टकटकी बांधे फोन को देख रही थी, मन में आक्रोश बवंडर उठ रहा था कि फोन को पटक दे, अपना सर दीवार पर मार ले।कनपटी के पास तपकन अब टीसों में बदल रही थी। टीसों के साथ उसके अन्दर का उबाल भी पल पल बढ रहा था।
नरेन्द्र हफ्ते भर के लिये गया था। घर के नौकर मालकिन के यूं लौटने से मन ही मन खिन्न थे।दुपहर तक वे कमरे के आस पास चक्कर लगाते रहे कि नाश्ते खाने के लिये कुछ कहे। एक ने हिम्मत कर कमरे में झांका भी, मगर नयना को लेटा देख कर वह लौट गया। सभी परेशान थे कि ना डॉक्टर आ रहा है, न दवा, वरना मेम साहब जरा सी छींक भी सहन नहीं कर सकती थीं। नयना सारी चीजों से बेखबर पीडा के संसार में डूबती जा रही थी। निराशा अपमान भरे दुख के साथ मिल कर उसकी मांसपेशियों में उत्तेजना भर रही थी! उसके अन्दर सांस लेती औरत किसी तूफान की तरह तडप रही थी।
मोहब्बत के बिना यूं जिन्दगी जीने का मकसद? क्या अब कोई भी किसी से प्यार नहीं कर पायेगा?ऐसा प्यार जो दो लोगों के बीच हुई जबानी बात का संदर्भ तलाश कर सके? जो शताब्दियों के गुजर जाने के बाद किसी कलाकृति में डूब अमर हो जाये? किसी पुस्तक के खुले पन्नों पर सदा के लिये दर्ज हो सके? या फिर सिर्फ इतना कि वह किसी दो इन्सानों के दिलों में पल भर के लिये ही पूरी ईमानदारी के साथ जिन्दा रह सके?
शाम का धुंधलका कमरे में दाखिल हो चुका था। नयना को उठने की सुध न थी कि बत्ती जलाती।कुछ देर पहले नौकर आया था। चाय की प्याली वैसे ही मेज पर पडी थी। उसके कानों में घडी क़ी टिकटिक गूंज रही थी। ऐसी ही गूंज और सनसनाहट उसको तब महसूस हुई थी, जब उसका बडा ऑपरेशन हुआ था। पेट के अर्धचन्द्राकार कटाव के बाद यूट्रस खो चुकी थी तब गहरी बेहोशी से निकलते हुए महसूस हुआ था कि भारी पत्थर उसके पेट पर रखा है। दो माह आराम करने के बाद जब वह ऑफिस जाने के काबिल हुई तो लेडी डॉक्टर ने हिदायत दी थी कि,
' डॉ नरेन्द्र इसके बाद औरतें आहत और सम्वेदनशील हो जाती हैं। मूड में फर्क आता है, इसलिये आपको कुछ खास ध्यान अपनी श्रीमति का रखना होगा। इन्हें ज्यादा संभालने की जरूरत होगी। इसलिये गुस्से और निराशा के समय आप इनकी विशेष देख रेख करें, वैसे तो आप सफल डॉक्टर हैं सारी पेचीदगियां आपको मालूम हैं, आपसे ज्यादा क्या कहना?
'' मैम साहब! डॉक्टर को फोन कर दूं, हस्पताल से कोई आ जाएगा।'' नौकर बरतन उठाते हुए बोला!
'' नहीं।'' डूबती आवाज उभरी।
कमरे में रोशनी थी। नयना के अन्दर अंधेरा बढता जा रहा था। घडी क़ी टिकटिक उसके सर पर हथौडे बरसा रही थी। तभी फोन की घंटी हमेशा की तरह ठीक दस बजे घनघना उठी। बिना सोचे आदत के मुताबिक नयना का हाथ आगे बढ ग़या।
'' क्या सो गई थीं?''
'' नहीं।'' नयना का पूरा वजूद जल उठा!
'' मुझे अगले हफ्ते इटली जाना है। इस बार तुम्हें साथ लेकर चलूंगा, अरसे से आराम करने की सोच रहा हूँ। इस बहाने हमारा हनीमून भी हो जाएगा सुन रही हो ना? '' फिर बात रोक कर चुम्बनों की दीपशिखाएं।
नयना का जख्मों से भरा वजूद इस ज्वार लहरी से थर्रा उठा। शब्दों का ये कैसा सम्मोहन है, जो उसको फिर अपनी ओर खींच रहा है। फिर वही सब कुछ? घबरा कर उसने फोन रख दिया, '' नहीं,नहीं अब यह सब फिर से दोहराना बेकार है, कितनी पीडा सही है, मगर इन शब्दों से दूर रहने का सन्ताप जो वह सहेगी। उसका विकल्प क्या होगा? यदि हर सच में अन्त में झूठ साबित होकर रह जाता है तो फिर इस झूठ को सच क्यों नहीं मान लेती है, आखिर वह भी तो यथार्थ का एक चेहरा है''
तभी फोन की घण्टी फिर बज उठी।
'' तुम बहुत सुन्दर नारी हो, मेरी तन्हा जिन्दगी में एक दीप की तरह, जो कभी नहीं बुझ सकता। मेरी विश्वास की जमीन बहुत पुख्ता है, मेरा यकीन करो।''
नयना की कनपटी के पास पीडा का खिंचाव बढा और रविभूषण की जानलेवा आवाज क़े साथ नयना आहिस्ता आहिस्ता ताजमहल के आंगन में दाखिल हो गयी। सारे प्रश्नों को पीछे छोड क़र संगमरमर की जालीदार खिडक़ी से वह यमुना को चांद की रोशनी में बहता देखती रही, जहां रेत की स्थिरता और जल का बहाव जाने कब से साथ साथ था!
'' सुन रही हो नाकुछ तो बोलो, कब चल रही हो? आओमेरा विश्वास करो''
नयना के दिमाग में रविभूषण की पुख्ता जमीन गोल गोल घूमने लगी। हाथ से टेलीफोन फिसल गया और नाक के नथुनों से तेज बहता खून उसके गले को तर करता कपडे भिगोने लगा। नयना की सांसो का सरगम धीमा पडने लगा। फोन पर शब्द घनघनाते रहे। जैस कहना चाह रहे हों कि मेरा यकीन करो, मेरे विश्वास की जमीन बहुत पुख्ता है। मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता हूँआओ! मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिये खुले हैंनयना कुछ तो बोलो?
नयना मुमताज क़ी कब्र में दाखिल हो गयी।
– नासिरा शर्मा
अप्रेल 6, 2002

दु:ख का वह जीवित स्मारक / वाशिंगटन इर्विंग

दु:ख का वह जीवित स्मारक / वाशिंगटन इर्विंग
-अनुवादक रामनाथ सुमन

अपने ग्राम्य निवास के दिनों में मैं पुरातन देहाती में प्राय: जाया करता था। वहां के सत्संग में एक बूढ़ी जर्जर स्त्री मात्र ऐसी थी, जो सच्चे ईसाई की विनम्र तथा प्रणत धर्म-निष्ठा का पूर्ण अनुभव करती जान पड़त थी। वह आयु और दुर्बलताओं के बोझ से झुक गई थी। उसमें नितांत दीनता से अधिक अच्छी किसी चीज की रेखाएं भी थीं। उसकी मुखाकृति पर गौरव मंडराता दीखा रहा था। यद्यपि उसकी पोशाक बिल्कुल ही सादी थी, किन्तु वह बहुत स्वच्छ थी। जिसे कुछ सम्मान भी प्रदान किया गया था, क्योंकि वह गांव के दीनों के बीच न बैठकर वेदिका की सीढ़ियों पर अकेली बैठी हुई थी। ऐसा जान पड़ता था कि वह समस्त प्रेम, समस्त मैत्री और समस्त समाज को सहन कर भी जीवित है और अब उसके लिए स्वर्ग की आशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचा है। जब मैंने दुर्बलतापूर्वक उसे उइते और अपनी जरा-ग्रस्त काया को झुकाते देखा, तब देखा कि वह अभ्यास-वश अपनी प्रार्थना-पुस्तक खोल रही है, किन्तु उसके जीर्ण कम्पित हाथ तथा दुर्बल दृष्टि आंखें उसे पढ़ने नहीं दे रही है।, यद्यपि वह उसे कंठग्र है, तब मैंने अनुभव किया कि उस अकिंचन महिला की भग्नवाणी, क्लर्क की आवाज, बाजे की ध्वनि तथा भजन-मंडली के गायन से पहले ही स्वर्ग के निकट पहुंच रही है।

एक दिन सवेरे मैं वहां बैठा हुआ दो मजदूरों को देख रहा था, जो कब्र खोदने में लगे हुए थें इस काम के लिए उन्होंने गिरजे के अहाते में एक सबसे दूरस्थ और उपेक्षित कोना चुना था। उसके आसपास कितनी ही अनाम समाधियां थीं, जिनसे मालूम होता था कि अकिंचन और बंधु-बांधव-रहित जन वहां पृथ्वी के गर्भ में ठूंस दिये गए हैं। मुझे बताया गया कि नव-निर्मित कब्र एक दरिद्र विधवा के एकमात्र पुत्र के लिए है।

जब मैं सांसारिक श्रेणियों के विभेद पर जो, इस प्रकार भस्मावशेष तक फैला हुआ था, चिन्तन कर रहा था, तब घंटा-ध्वनि ने सूचित किया कि अर्थी आ रही है। वह गरीबों की अंत्येष्टि थी, जिसमें अहंकार का कोई चिन्ह नहीं होता। अर्थी बड़ी ही सादी चीजो से बनी हुई थी और उसमें पर्दे आदि का नाम भी नहीं था। उसे चन्द ग्रामवासी उठाये हुए थें। गिरजे का उत्खनक आगे-आगे शुष्क उदासीनता की मुद्रा में चल रहा था। प्रदर्शित व्यथा की भूषा में कोई कृत्रिम शोक-कर्त्ता वहां नहीं थे, किन्तु एक सच्चा शोक-कर्त्ता वहां अवश्य था। वह एक बुढ़िया थी, जो शव के पीछे दुर्बलता के कारण लड़खड़ाती चल रही थी। यह मृतात्मा की बृद्धा मां थी, वहीं गरीब बुढ़िया, जिसे मैने वेदिका की सीढ़ियों पर बैठे देखा था। एक गरीब स्त्री उसे सहारा और सांत्वना देती चल रही थी। पास-पड़ोस के कुछ गरीब आदमी साथ में थे। जब शव-यात्रा का जुलूस कब्र के पास पहुंच गया तब गिरजा के द्वार मंडप से पादरी बाहर निकला—लम्बा चोंगा पहने तथा प्रार्थना-पुस्तक हाथ में लिये हुए एक क्लर्क उसक साथ था। अन्तिम धर्म-क्रिया दानखाते जैसी थी। मृतक अकिंचन था और उसके घर जो बच गई थी—मां, वह कौड़ी-कौड़ी को मोहताज थी। इसीलिए रीति का पालन तो हुआ, परन्तु भावना-रहित और शुष्क ढंग पर।

मैं कब्र के पास गया। ताबूत जमीन पर रखा था। उस पर मृतक का नाम और आयु अंकित थी—जार्ज सामर्स उम्र २६ वर्ष। अभागी मां की जीर्ण हाथ जुड़े हुए थे, जैसे वह प्रार्थना में बैठी हो, परन्तु उसके शरीर के क्षीण कम्पन और ओठों की ऐंठती गति से मैं समझ सका कि वह मां के हृदय की व्याकुलता के साथ अपने पुत्र का अंतिम अवशेष देख रही थी।

धरती के अन्दर ताबूत को उतारने की तैयारियां होने लगीं। वह दौड़-धूप और हलचल मच गई, तो व्यथा और अनुराग की भावनाओं को बड़ी कठोरता से झकझोर देती है। जब आदमी रस्सी लेकर ताबूत को नीचे उतारने आये तो मां ने अपने हाथ मरोड़ लिये और व्यथा की यंत्रणा से फूट पड़ी। ज्योंही लाश उन्होंने नीचे उतारी, रस्सियों की रगड़ के शब्द सुनकर मां कराह उठी, किन्तु जब किसी घटना के कारण रुकावट आने से ताबूत टकरा गया तो मां की समस्त कोमलता फूट पड़ी जेसे उस आदमी को क्षति पहुंची हो, जो सांसारिक व्यथा की पहुंच से बाहर जा चुका हो।

अब मुझसे और नहीं देखा गया। मेरा हृदय मानो गले में आ गया, मेरी आंखें आंसुओं से भर गईं। मुझे लगा, मैं वहां खड़ा रहने और मां की यंत्रण का दृश्य अलसभाव से देखने में कोई बर्बर अभिनय कर रहा होऊं। मैं गिरजे के अहाते के दूसरे भाग में चला गया और वहां तबतक रहा जबतक कि शव-यात्रा की मंडली बिखर नहीं गई।

जब मैंने देखा कि मां के लिए इस धरती पर जो कुछ प्रिय था, उसे अपने पीछे छोड़कर वह बड़ी व्यथा के साथ कब्र से विदा हो रही है और नीरवता तथा दरिद्रता की ओर लौट रही है तो मेरा हृदय रो पउ़ा। मैं सोचने लगा कि इनके आग्र धनिकों की विपदा क्या है!उनके पास सांत्वना देने वाले मित्र हैं, भुलाने वाले सुख हैं, उनके दुखों को मोड़ने और बंटाने वाली दुनिया है। उसके सामने तरुणों के शोक क्या हैं? उनके विकासशील मस्तिष्क शीघ्र ही घाव को भर देते हैं। किन्तु उन गरीबों का शोक, जिनके पास सांत्वना के बाहरी साधन नहीं, है; उन बृद्धों का शोक, जिनका जीवन अपने अच्छे-से-अच्छे रुप में भी एक शिशिर के दिवस जैसा है; एक विधवा का दुख, जो वृद्ध है, अकेली है अकिंचन है, जो अपने बुढ़ापे की एकमात्र सांत्वना अपने पुत्र को खोकर रो रही है, ये निश्चय ही ऐसे शोक, ऐसे दु:ख हैं, जिनमें हम सांत्वना की अक्षमता का अनुभव करते है।

कुछ देर बाद मैं गिरजे के प्रांगण से बाहर आया। घर की ओर लौटते समय मुझे वह औरत मिल गई, जो बुढ़िया को सांत्वना देने का काम कर रही थी। वह मां को उसके निर्जन आवास पर पहुंचा कर आ रही थीं उसने बताया कि मृतात्मा के मां-बाप उस गांव में बचपन से रहते आये थे। उनकी बहुत ही साफ-सुथरी कुटीर थी और वे बड़े मान-सम्मान और आराम के साथ जीवन बिता रहे थे। उनके एक ही पुत्र था, जो बड़ा ही सुदर्शन, शीलवान, दयालु और माता-पिता कि प्रति कर्त्तवयशील था।

दुर्भाग्य से दुष्काल और कृषि-संकट के एक साल लड़के ने प्रलोभन में आकर पास की नदी में चलनेवाली नौका पर नौकरी कर ली। वहां काम करते अधिक दिन नहीं हुए कि जलदस्युओं का गिरोह उसे पकड़कर समुद्र की ओर ले गया। माता-पिता को इसकी सूचना-मात्र मिली, उससे अधिक पता नहीं चला। उनका मुख्य अवलम्ब छिन गया। पिता पहले से ही दुर्बल थे, उनका दिल बैठ गया, वह उदास रहने लगे और एक दिन मौत की गोद में सो गये। वृद्धावस्था और दुर्बलता के बीच विधवा अकेली रह गई। वह अपनी जीविका नहीं चला पाई। सदावर्त पर रहने लगी।

एक दिन वह अपने खाने के लिए बगीचे में कुछ तरकारियां तोड़ रही थी कि सहसा उसके घर का दरवाजा किसी ने खोल दिया। आगन्तुक समुद्री पोशाक पहने था और सूखकर कांटा हो गया था, मुर्दे की तरह पीला पड़ गया था। उसकी मुद्रा ऐसी थी, जैसी बीमारी और कष्ट से टूटे आदमी की होती है। उसकी निगाह बुढ़िया पर पड़ी और वह झपट

कर उसके सामने जाकर घुटनों के बल बैठ गया और बच्चे की तरह सुबकने लगा। बेचारी बुढ़िया शून्य एवं अस्थिर नयनों से उसे ताक रही थी।

"ओ मेरी प्यारी अम्मा, क्या तुम अपने बेटे को नहीं पहचान रही हो? अपने गरीब बेटे जार्ज को?" वह पहले के श्रेष्ठ लड़के का ध्वंसावशेष मात्र था, जो घावों, बीमारियों और विदेशी कारावासों के प्रहारों के खंडित, अपने क्षयित अंगों को घर की ओर घसीटते हुए बचपने के दृश्यों के बीच विश्राम पाने आया था।

वह उसे शैया पर पड़ गया, जिस पर उसकी विधवा मां ने जाने कितनी ही विद्राहीन रातें बिताई थीं। वह फिर उससे उठ नहीं सका। अभागा जार्ज अनुभव कर चुका था कि ऐसी बीमारी में पड़े रहना, जहां कोई सांत्वना देने वाला नहीं है—अकेले, कारागार में, जहां कोई उससे मिलने आने वाला नहीं है, कैसा होता है। अब वह अपनी मां का आंखो से ओझल होना सहन नहीं कर सकता था। बेचारी मां उसकी शैया के पास घंटों बैठी रहती। कभी-कभी जार्ज स्वप्न से चौककर इधर-उधर देखन लगता और तबतक देखता रहता जबतक मां को अपने ऊपर झुके हुए न देख लेता। तब वह मां का हाथ अपने हाथ में ले लेता, उसे अपनी छाती पर रखता और एक बच्चे की शांति के साथ गहरी नींद में सो जाता।

इसी तरह वह मर गया।

दूसरे रविवार को जब मैं गिरजे में गया तो मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि गरीब बुढ़िया लड़खड़ाती हुई उसी तरह वेदिका की सीढ़ियों पर अपने स्थान की ओर बढ़ी जा रही है। उसने कुछ ऐसी चीज पहनने की चेष्टा की थी, जो अपने पुत्र के प्रति शोकार्त्तता की द्योतक हो। पवित्र अनुराग और नितान्त अकिंचनता के बीच के इस संघर्ष से अधिक करुणा की और क्या बात हो सकती थी?

कुछ धनी सदस्यों ने उसकी कहानी सुनकर द्रवित हो उसकी सिथति को सुखदायी बनाने और उसका दुख हल्का करने का प्रयत्न किया, किन्तु यह सब कब्र की ओर बढ़ते हुए चन्द कदमों को सरल बनाना भर था। एक या दो रविवारों की अवधि में ही वह गिरजे के अपने आसन पर अनुपस्थित पाई गई। उसने शांतिपूर्वक अपनी अंतिम सांसें छोड़ दीं और जिन्हें वह प्यार करती थी, उनसे मिलने को उस लोक में चली गई, जहां शोक का कहीं पता नहीं और जहां मित्रों से कभी बिछोड़ नहीं होता।

दुक्खम् शरणम गच्छामि!

दुक्खम् शरणम गच्छामि!
अंधेरा पूरा था और सन्नाटा संगदिल। उस विशाल कैफे के ठंडे हॉल में मेरे कदम इस तरह पड़े जैसे आश्चर्य लोक में एलिस। हॉल सिरे से खाली था और मैं निपट अकेला। उढ़के हुए शानदार दरवाजे को खोल कर भीतर आने पर सबसे पहला सामना काउंटर के ऊपर वाली दीवार पर टंगी घड़ी से हुआ। सुबह के चार बजकर बीस मिनट हो रहे थे। घड़ी के ठीक ऊपर एक मर्करी बल्ब जल रहा था, सिर्फ घड़ी के लिए। लगभग बर्फ हो चुकी उंगलियों को एक दूसरे से लगातार भिड़ाकर उन्हें गर्म करने के निष्फल प्रयत्न के दौरान मैं एक विशाल दर्पण के सामने आ गया। वहां मैं था जैकेट और कनटोप के साथ अपनी उंगलियां रगड़ता। जैकेट के साथ लगे सिर के कनटोप को मैंने पीठ पर गिरा दिया और दोनों हथेलियों को कसकर रगड़ने के बाद चेहरे पर जोर-जोर से फिराने लगा। दर्पण में मेरा प्रतिरूप मेरे साथ-साथ था एक ठिठुरते और धुंधलाते अक्स की तरह।
तभी बाहर कहीं किसी निर्जन सड़क पर कोई ट्रक गुजरा। मैंने सुना एकदम साफ कि ट्रक की आवाज में एक कर्मठ व्यक्तित्व और मर्दाना लय जैसा कुछ था। किसी ट्रक के गुजरने को मैंने इससे पहले इस तरह नहीं सुना था। शहरों, खासकर बड़े शहरों में तो एक अराजक शोर भर होता है। और मुंबई में तो किसी वाहन की अपनी कोई निजी आवाज ही नहीं होती।
कैफे में जागरण का कोई चिह्न नजर नहीं आ रहा था। ऐसा लगता था मानो किसी भयावह आपदा की खबर पाकर लोग बाग बरसों पहले इस कैफे को छोड़कर जा चुके हों। भविष्य लोक से आती किसी भूली भटकी प्रार्थना की आहट तक वहां नहीं थी। हर कुर्सी और मेज पर एक अवाक निस्तब्धता सशरीर उपस्थित थी। लगभग चालीस-बयालीस मेजों और डेढ़ पौने दो सौ कुर्सियों वाले इतने बड़े तन्हा कैफै में उपस्थित रहने का यह मेरा पहला और मौलिक अनुभव था। मैं घूम-घमकर कैफे को टटोलने लगा तो लगा कि कहीं कोई आवाज है। मैं रूक गया। आवाज अनुपस्थित हो गई। मैं काउंटर की तरफ बढ़ा। आवाज फिर उभरी। ओहो! मैंने अपने अचरज को विश्राम दिया। यह मेरे अपने चलने की आवाज थी।
मैंने कैफे को उसके अभिशाप के हवाले छोड़ दिया। बाहर पार्क था। एकदम आक्रामक। वह दूर-दूर जलती उदास रोशनी के बीच ठंड के चाकू लेकर तना हुआ था। कनटोप को वापस कान पर साधते हुए मैंने सुना कहीं से टप-टप की आवाज आ रही थी। मैं आवाज का पीछा करता चला गया। एक नल था, जो थोड़ा खुला रह गया था। उस नल की गर्दन ऐंठ कर मुझे लगा जैसे बरसों-बरस बाद मैंने कोई काम संपन्न किया हो। मैं संभवत: समयातीत समय में चल रहा था। यह एलिस का आश्चर्य लोक नहीं मेरा वर्तमान था, मेरी स्मृतियों, मेरी आदतों और मेरे अभ्यासों के हाथ लगातार पिटता हुआ। मैंने सुना अब एक बड़े जेनरेटर की आवाज गूंज रही थी, किसी अग्रज की तरह आश्वस्त करती कि मैं हूं न! जेनरेटर की उपस्थिति को अनुभव करते हुए पार्क में रात भर बेखौफ टहला जा सकता था। मैं इस तरह टहल रहा था जैसे यह इतना बड़ा पार्क नितांत मेरा है। मैं सहसा गर्वोन्नत हो उठा। मुंबई का वह दुख यकायक जाता रहा जिससे मैं अपने घर की बाल्कनी में कुछ गमले, कुछ फूल, कुछ घास देखने की आस में सतत तड़पा करता था। वहां बाल्कनी ही नहीं थी। कहां से होते फूल, गमले, घास।
और फिर दो घोंसलों से टकरा गया मैं। वे एक पेड़ पर थे-कपड़े के घोंसले। यह आश्वस्ति देते हुए कि वे तोड़े नहीं जाएंगे। जिस भी पक्षी का मन चाहे वह इनमें अपना घर बसा ले। मुझे अचानक लगा कि हमारे शहर के तो पक्षी तक भी 'स्ट्रगलर' होते हैं। पता है कि घोंसला टूटेगा फिर भी घर बनाते हैं।
घर बेतरह याद आया। घर में बीवी थी। चिड़चिड़ाती और पस्त होती हुई। दो बेटे थे-तेज-तेज कदमों से जवानी की तरफ जाते हुए-अपने -अपने सपनों और जिदों और सूचनाओं के साथ। उन सपनों और जिदों और सूचनाओं में मां के गठिया का दर्द और पिता की हताशा तथा वेदना और एकाकीपन के लिए कोई जगह नहीं थी। वहां लड़कियां थीं, फोन थे, कंप्यूटर था। फन था और गति थी।
मैं थके कदमों से फिर कैफे में लौट आया। मेरा दिमाग बहुत सारे आंय-बांय विचारों और न खत्म होने वाले हादसों की मर्मांतक चीखों से लदा-पदा था। कैफे की घड़ी पांच दस बजा रही थी। मुंबई में सुबह की लोकल ट्रनों में लोग लद चुके थे। दादर का फूल बाजार सज चुका था। रात एक पांच की आखिरी लोकल छोड़ चुके शराबी कवि-कथाकार-पत्रकार सुबह चार दस की पहली ट्रेन पकड़ अपने-अपने घर पहुंच चुके थे या पहुंचने की प्रक्रिया में थे। नीलम, मेरी बीवी जाग रही थी। अलार्म घड़ी की अलार्म को तेज गुस्से से बंद किया होगा उसने।
'कोई है?' एक कुर्सी पर बैठकर मैं चिल्लाया। कैफे की छत बहुत ऊंची थी। मेरी 'कोई है' की अनगिनत प्रतिध्वनियां विभिन्न कुर्सी-मेजों तक हो आईं। इसके बाद फिर वही ठंडा और सख्त सन्नाटा। मैं मुक्तिबोध की पानी और अंधकार में डूबी चक्करदार सीढ़ियां उतरने को था कि बदन पर नीली कमीज डाले एक जवान लड़के ने काउंटर के पीछे बने दरवाजे के उस पार से झांककर देखा और शालीनता से बुदबुदाया-'पहला नींबू शर्बत सुबह छह बजे मिलेगा। तब तक आप पार्क में टहल लीजिए।'
नींबू शर्बत? इस पत्थर तोड़ ठंड में? मैंने सोचा भर था और इस सोचने के अवकाश का लाभ उठाकर लड़का वापस किचन में गुम हो गया था-अगली सदी के आगमन तक! कम-से-कम मुझे ऐसा ही लगा था। एक पूरी सदी थी-ठंड-से-ठंड की तरफ जाती हुई। यहां के हर अनुभव का आरंभ उस भीषण ठंड की कंपकंपाहट से ही हो रहा था।
सुबह पौने तीन बजे इस गांव के एक डिग्री वाले टेंपरेचर में मैंने प्रवेश लिया था। रिसेप्शन पर इस अस्पताल की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद मैं तीन बजे कमरे में घुसा था और हीटर ऑन करके रजाई में घुस गया था। काफी देर, शायद एकाध घंटे, करवटें बदलने के बाद मैं उठ खड़ा हुआ था और ठंड के साजो-सामान से लैस होकर इस कैफे में चला आया था-यह सोचकर कि यह भी मुंबई की तरह रात भर जागता होगा। पर मुंबई यहां इस तरह नदारद थी जैसे चोर के पांव।
मैं अत्यंत मायूस होकर उठा और चोर के पांवों की तरह चलता हुआ 'योगा हॉल' की तरफ बढ़ने लगा। हॉल के बाहर कुछ जोड़ी जूते-चप्पल रखे हुए थे और भीतर से प्रार्थना के स्वर आ रहे थे-
आरोग्यम् शरणम गच्छामि! निसर्गम् शरणम् गच्छामि! कुछ देर मैं उन दिव्य से लगते प्रार्थना के स्वरों को सुनता रहा। वे सभी स्त्री-पुरुष प्रकृति और स्वास्थ्य की शरण में जाना चाहते थे। मैं पलट गया।
अस्पताल का लंबा कारीडोर सूना पड़ा था और उस कारीडोर में प्रार्थना के समवेत स्वर अपनी पूरी तन्मयता और लय के साथ तैर रहे थे। मुझे लगा वे परलोक से आती प्रार्थनाओं की तरह हैं जो इहलोक में आते ही दुर्घटनाओं में बदल जाते रहे हैं। अपनी सपाट हथेली को मैंने सूनी और सिकुड़ती आंखों से देखा, वहां बहत्तार साल तक जीते चले जाने की बद्दुआ दर्ज थी। मैं बीते समय के पायदान उतरने लगा। वहां एक अंधा भविष्य वक्ता था-मेरा दोस्त! शहर के बड़े-बड़े आंख, कान और दिमाग वाले लोग उससे एपाइंटमेंट लेकर मिला करते थे। मेरा रेखाओं और अंक शास्त्र में बिल्कुल भी यकीन नहीं था लेकिन मेरे उस अंधे भविष्यवक्ता दोस्त ने मेरी हथेलियों को छू-छूकर यह बता दिया था कि बहत्तार साल से पहले मुझे कोई छू भी नहीं सकता है। बहुत बरस पहले जब मैं अपने पुराने शहर में एक प्रतिष्ठित नौकरी खोकर दूसरी प्रतिष्ठित नौकरी पाने के प्रयत्नों में अपमानित और उदास होता जा रहा था उस दोस्त ने भविष्यवाणी की थी : समुद्र वाले एक सबसे बड़े शहर में, जहां लोग अंधों की तरह दौड़ते भागते हैं, एक सम्मानित नौकरी मेरा इंतजार कर रही है। इस भविष्यवाणी के चंद रोज बाद मैं मुंबई आ गया था और भविष्यवक्ता पुराने शहर में छूटा रह गया था।
तो, अगर बहत्तार साल की उम्र तक मुझे कोई छू नहीं सकता है...मैंने सोचा तो इस वीराने में मुझे कौन से डर खींच लाए हैं? सहसा कहीं एक बांसुरी बजी। मैं कैफे से बाहर आ गया-तीखी ठंड और मुसलसल टपकती ओस के बीचों-बीच। सुबह-साढ़े पांच बजे वह जनवरी के जयपुर का एक गांव था जहां अपनी अदम्य जिजीविषा से कोई बांसुरी पर अपनी अद्वितीयता सिध्द कर रहा था। योगा हॉल के भीतर से अब भी वे मंत्र निरंतर बाहर निकल रहे थे जिनका अर्थ था-हमें प्रकृति की शरण में जाना है...हमें रोगों से दूर ले चलो। मैं फिर पार्क में उतर गया। वहां कुछ मोर चले आए थे। मैं उनके निकट चला गया। मुझे देखकर वे भागे नहीं। दुनिया देख चुके बूढ़ों की तरह वे पूरी शांति से मेरे साथ-साथ टहलते रहे। उनमें शहर के मनुष्य का भय नहीं था।
भय मुझमें भी नहीं था। मरने से नहीं डरता था मैं। मेरी निर्भयता को देख मुंबई का मेरा एक डॉक्टर दोस्त वाघमारे मेरा इलाज छोड़कर भाग गया था। हुआ यूं कि एक शाम वह बिना पूर्व सूचना के मेरे दफ्तर चला आया। मैं उस वक्त सिगरेट पी रहा था। डॉक्टर नाराज हो गया। गुस्से से बोला -'डॉक्टर से झूठ बोलते हो। तुम्हें शर्म आनी चाहिए। तुम तो फोन पर हमेशा कहते हो कि सिगरेट छोड़ दी है। तो यह सब क्या है?'
'डॉ. वाघमारे।' मैंने गंभीरता से कहा -'आपने आज के अखबार पढ़े हैं?'
'नहीं।' डॉक्टर अपने ज्ञान को लेकर चिंतित हो गया। उसे लगा अमेरिका में किसी ने सिगरेट समर्थक कोई खोज तो नहीं कर ली है।
'यह लीजिए।' मैंने अखबार उसके सामने रख दिया। डॉक्टर ने बोल-बोलकर पढ़ा-चीन में भूकंप से चार हजारे मारे गए।
'तो?' डॉक्टर ने अपनी उत्सुक आंखें मुझसे मिलाईं।
'तो यह डॉक्टर, कि इन चार हजार मरने वालों में से आधे से ज्यादा लोग सिगरेट नहीं पीते होंगे, यह मैं शर्त लगा सकता हूं।' मैंने कहा।
'तुम...' डॉक्टर गुस्से से कांपने लगा... 'तुम एक नंबर के हरामी हो...तुम्हारा इलाज बंद।' डॉक्टर उठा और गुड बाय बोलकर चला गया। शहर के एक योग्य डॉक्टर और बेहतरीन दोस्त को मैंने इस तरह अकारण खो दिया था।
तो यहां क्या पाने आया था मैं? मैंने सोचा-मिस्टर देव सिन्हा, आपका दिमाग क्या उस वक्त जलावतन पर था जब आप मुंबई से हजारों किलोमीटर दूर राजस्थान के इस निर्जन गांव में आकर इलाज कराने का निर्णय ले रहे थे? मेरी घड़ी में पौने छह हो गए थे। मैं पार्क से निकलकर रिसेप्शन की तरफ चला आया। रिसेप्शन के दरवाजे के पास पहुंच कर एक पल के लिए मैं रुका। दरवाजे के शीशे के पीछे झांकने पर मैंने पाया-रात की डयूटी वाले शर्मा जी काउंटर पर सिर रखे सो रहे थे। ऐसी एक बेफिक्र और बेझिझक नींद के लिए कितने बरसों से तड़प रहा था मैं। थके और उदास कदमों से मैं अपने कमरे का ताला खोलकर भीतर घुसा और लिहाफ के भीतर दुबक कर सिगरेट पीने लगा। मुझे छह बजने का इंतजार था।
कैफे जीवित हो रहा था।
छह बजकर दस मिनट पर जब मैं जैकेट उतार, शाल ओढ़कर वापस कैफे में घुसा तो तीन-चार मेजों पर बैठे कुछ लोग नींबू-शहद का शर्बत पीने में व्यस्त थे। मुझे सहसा यकीन नहीं हुआ कि नींबू के पानी को भी इतने उत्साह और तन्मयता के साथ पिया जा सकता है। उनमें से कुछ ने मुझे एक उड़ती नजर से देखा और फिर से नींबू पानी में व्यस्त हो गए। एक-दो लोगों के गिलासों को भेदिए की दृष्टि से देखता हुआ मैं काउंटर पर चला गया।
मेरे कुछ मांगने से पहले ही नीली कमीज वाले लड़के ने मेरे सामने नींबू पानी का गिलास रख दिया। मैंने गिलास को देर तक घूरा फिर लड़के की आंखों में देखते हुए बोला-'मुझे एक कप चाय की जरूरत है।'
लड़का हो-हो करके हंसा फिर शालीनता से बोला-'यहां चाय किसी को नहीं मिलती।'
नींबू पानी के गिलास को ठुकरा कर मैं वापस मुड़ा। दरवाजा खोलकर मैं बाहर आया और रिसेप्शन वाले कमरे में घुसा। पौन घंटा पहले काउंटर पर सिर झुका कर सो रहे शर्मा जी चाक चौबंद खड़े थे।
'यस सर!' उन्होंने अतिशय विनम्रता से पूछा।
'आज के अखबार आ गए क्या?' मैंने पूछा फिर घड़ी देखी और तत्काल लग गया कि सवाल गलत वक्त पर पूछा है। केवल साढ़े छह बजे थे। इस समय तक तो मुंबई में भी अखबार नहीं मिलते। यहां कैसे मिलेंगे?
आश्चर्य हर कदम पर मेरे पीछे लगा हुआ था। लग रहा था कि मुझे नींद से जागे हुए एक युग बीत गया है जबकि घड़ी की सुइयां केवल साढ़े छह बजा रही थीं।
मैंने अपनी गलती दुरूस्त की और पुन: पूछा-'मेरा मतलब है, अखबार कितने बजे आते हैं?'
'अखबार तो यहां नहीं आते सर!' शर्मा जी ने माफी-सी मांगते हुए कहा, 'अखबारों में कितनी तो मारकाट, चोरी चकारी, बलात्कार, हत्या होती है। यहां के पवित्र वातावरण पर दूषित प्रभाव न पड़े इसलिए यहां अखबार नहीं आते।'
'मतलब?' मेरी आंखें शायद फटने जा रही थीं। मैंने उन्हें मसल कर वापस उनकी जगह किया, 'मिस्टर शर्मा, आपका मतलब यह है कि देश और दुनिया में क्या हो रहा है, इससे यहां के लोगों को कोई वास्ता नहीं है?'
'देश और दुनिया से थक जाने के बाद ही लोग यहां आते हैं सर।'
'लेकिन बिना अखबार का जीवन?' मैं किसी दुखी बूढ़े की तरह गर्दन हिलाता हुआ अपने कमरे की तरफ बढ़ा, श्रीकांत वर्मा की पंक्तियां मेरे पीछे लग गई थीं-'बंद करो अखबारों के दफ्तर और रुपयों की टकसाल। मैंने बिताए हैं खबरों और पैसों के बिना कई साल।'
मैंने दो काम एक साथ किए। अपनी कनपटी पर चांटा मारा। क्या मुझे यहां आए हुए कई साल बीत गए हैं। उसके बाद कमरे का दरवाजा खोल दिया। फोन की घंटी बज रही थी। भीतर कहीं बहुत दूर उल्लास और हर्ष का सोता-सा फूट पड़ा। फोन! मेरे लिए फोन! इस जंगल में। जंगल के बावजूद।
'गुड मार्निंग मिस्टर देव!' उधर कोई स्त्री स्वर था।
'कौन?' मैं अचकचा गया।
'सॉरी मिस्टर देव! पूरन की तरफ से मैं माफी चाहती हूं। आपका 'डाइट चार्ट' आ गया है। आप दिन में दो बार हर्बल टी ले सकते हैं। प्लीज कम।' स्त्री स्वर कमनीय था। उसमें लोच और नजाकत थी, नफासत भी।
'लेकिन आप अपना परिचय तो दीजिए।' मैंने हिचकते हुए कहा। शायद मेरे मन के कुछ उजाड़ कोने यह आत्मीय स्वर सुनकर सिंच रहे थे।
'आप आइए तो।' स्त्री स्वर ने आग्रह किया, 'पहले ही दिन रूठ जाएंगे तो कैसे चलेगा। पूरन बच्चा है। अस्पताल के नियमों से बंधा है। लेकिन मैं किचन की मैनेजर हूं। कुछ नियम तोड़ सकती हूं।' स्त्री स्वर खिलखिलाने लगा। 'बहुत जमाने के बाद इस अस्पताल में कोई राइटर आया है... हम भी तो देखें, राइटर कैसे होते हैं?'
'आता हूं।' मैंने फोन रख दिया। होठों को गोल कर एक सीटी बजाई। जेब से कंधी निकाल कर बाल ठीक किए। शॉल को कायदे से लपेटा और कमरे से बाहर निकल कर ताला बंद करने लगा। मुझसे पहले मेरी जानकारियां उड़ रही हैं। मैंने सोचा, थोड़ा आश्वस्त भी हुआ कि कोई तो मिलने वाला है जो अपने को लेखक की हैसियत से जानता है या जानना चाहता है।
स्त्री स्वर कैफे के दरवाजे पर ही खड़ा था। जींस की पेंट शर्ट, जींस की टोपी, स्पोर्ट्स शूज, गोरा रक्तिम-सा चेहरा, टोपी के बाहर निकलकर सीने पर लटक गई लंबी चोटी। मासूम आंखें। यह स्त्री नहीं, बमुश्किल 23-24 वर्ष की एकदम युवा, तरोताजा लड़की थी। पुरुषों की हिंसा से गाफिल, पुरुषों के प्रेम में पड़ने को आतुर।
इस वीराने में, जीवन से थके-टूटे मरीजों के बीच यौवन और उमंग से लबरेज यह लड़की यहां क्या कर रही है? मैंने सोचा और पूछा-'आप?'
'आइए।' उसने दरवाजे पर जगह बनाते हुए कहा-'मेरा नाम सोनल है। सोनल खुल्लर! मैं किचन की इंचार्ज हूं।ं'
मैंने देखा-यह विशाल कैफे पुन: खाली था, खाली और प्रतीक्षारत।
'पूरन!' लड़की ने आवाज लगाई, 'दो हर्बल टी। गुड़ वाली।' लड़की ने मेज पर बैठने का इशारा किया।
'गुड़ क्यों? मुझे चीनी चाहिए।' मैंने हल्का-सा प्रतिवाद किया।
'क्योंकि शुगर को हम लोग 'व्हाइट पॉइजन' मानते हैं।' लड़की खिलखिलाने लगी। 'मैंने फोन पर डॉक्टर से आपके लिए स्पेशल परमिशन ली है, हर्बल टी के लिए।'
वही नीली कमीज वाला लड़का मेज पर दो कप चाय रखकर चला गया। तो, यह महाशय पूरन हैं। मैं मुस्कराया। काउंटर पर खड़ा पूरन भी मुस्कराया।
'सारे मरीज कहां गए?' मैंने कैफे में नजरें दौड़ाते हुए पूछा।
'इलाज कराने।' लड़की फिर हंसी।
'आपको तुम बोल सकता हूं?' मैंने लड़की की आंखों में देखा।
'मुझे अच्छा लगेगा।' लड़की मुस्कराने लगी, 'आपके 'डाइट चार्ट' से पता चलता है कि आप मुझसे दुगनी उम्र के हैं।'
'और क्या-क्या पता चलता है 'डाइट चार्ट' से?' मैंने क्षुब्ध स्वर में कहा।
'पूरा इंटरव्यू आज ही कर लेंगे। अभी तो पहला ही दिन है। आपको दस दिन हमारे साथ रहना है।' लड़की फिर खिलखिलाने लगी। लड़की को खिलखिलाता देख मुझे याद आया कि मैं कितने सारे फूलों के नाम भी नहीं जानता हूं।
'तुम्हारे साथ रहना है?' मैं रोमांचित था।
'मेरा मतलब हम सब लोगों के साथ।' लड़की का चेहरा रक्तिम हो आया, 'एक हर्बल टी और लेंगे?'
'क्या यह संभव है?'
'क्यों नहीं?' वह ताजे उत्साह से दमादम थी, 'आफ्टरऑल आयम मैनेजर! इतना राइट तो है मेरा।' फिर वह रुकी। शरारत से मुस्कराई और बोली, 'अगर आप मैनेजमेंट से चुगली न करें तो?'
'निश्चिंत रहें। इस उजाड़ की एकमात्र खुशी का वध नहीं करने वाला मैं।' मैं मुस्कराया।
'थैंक्यू।' वह फिर खिलखिलाने लगी, 'आप लेखक लोग लोगों का दिल रखना खूब जानते हैं।' जुमला बोलकर वह लपकती हुई किचन के भीतर चली गई। मेज पर उसकी हंसी बिखरी रह गई थी। मैं उस हंसी की पंखुड़ियों को चुनते हुए सोच रहा था कि इतनी ढेर सारी हंसी वह कहां से बटोर लाई है। रास्तों, प्लेटफार्मों, सीढ़ियों, पुलों और ट्रेनों में लदकर जाती मुंबई की लड़कियां आगे-पीछे से उत्तोजक जरूर लगती हैं लेकिन उनकी हंसी कोई छीनकर ले गया रहता है। इस सुनसान गांव के निविड़ एकांत में बैठी सोनल खुल्लर की मासूम मादकता को ऐश्वर्या राय देख कर भर ले तो विश्व सुंदरी का ताज उतार फेंके। सोनल के गालों की तुलना गुलाब से करने के छायावादी उपक्रम में था मैं कि वह लौट आई। उसके हाथ में दो कप चाय थी।
'पूरन और महेश मरीजों का नाश्ता तैयार कर रहे हैं। मैंने सोचा खुद ही बना लेती हूं। चख कर देखिए, ठीक तो है।'
'तुमने बनाई है तो उम्दा ही होगी।' मैंने जवाब दिया। यह जवाब देते हुए मैं शोख और चंचल बनना चाहता था लेकिन मैंने पाया कि मैं उदास हूं। बहुत-बहुत उदास। पता नहीं क्यों?
'इतनी खूबसूरत जगह में भी आप दुखी हैं?' सोनल की नुकीली नाक की कोर से बूंद-बूंद अचरज टपक रहा था। 'अच्छा यह बताइए कि आप लेखक लोग कहीं भी सुखी नहीं रह पाते क्या?'
जिस समय उसने यह प्रश्न किया, मैं अपना प्याला उठा रहा था। उसका प्रश्न शायद सीधे प्याले पर जाकर लगा था या फिर मेरे अतीत के किसी हरे जख्म को उसने छू लिया था। मैंने आश्चर्यों के बोझ से गिरी जा रही पलकों को बमुश्किल ऊपर उठाकर उसे देखा और उसकी आंखों के तेइस-चौबीस वर्षीय अबोध कौतूहल से टकरा गया।
मेरे हाथ का प्याला मेज पर गिर पड़ा था।
लड़की चौंक कर खड़ी हो गई थी।
मरीजों ने आना शुरू कर दिया था।

×××

उस पाला मारती ठंड में शाम होते-होते मेरे दुख गर्म हो गए। डॉ. नीरज ने मेरे बदन में उच्च रक्तचाप, लीवर की सूजन और कोलेस्ट्रॉल की बढ़ी हुई मात्रा को खोज लिया था। रक्त में हीमोग्लोबिन की कमी थी और सिगरेट का धुआं पेप्टिक अल्सर का निर्माण करने में व्यस्त था।
वह एक युवा डॉक्टर था। इतने युवा व्यक्ति को प्रकृति की शरण में जाते हुए मैं पहली बार देख रहा था। प्रकृति, अध्यात्म और मुक्ति वगैरह के पचड़ों में अपने देश के लोग अमूमन पैंतालिस-पचास के बाद पड़ते हैं और यह तो मुश्किल से चालीस का भी नहीं था। अगर मेरा अनुमान सही है तो डॉक्टर उम्र में मुझसे तीन-चार साल छोटा था। ताजा, कटे अनान्नास जैसा चेहरा था उसका। मेरी मेडिकल रिपोर्टों के बीच वह तनकर बैठा हुआ था। मर्माहत कर देने वाली सर्द आवाज में उसने अपना निर्णय सुनाया-आकाश, जल, वायु, मिट्टी और अग्नि इन पांच तत्वों से यह शरीर बना है। इन्हीं में विलीन भी हो जाने वाला है। अंत तो सबका सुनिश्चत है लेकिन समय से पहले क्यों? मुंबई के मेरे दोस्त ने बताया कि आप लेखक हैं। मैं भी पढ़ूंगा आपकी किताबें, तो लेखक होने के कारण आपके जीवन पर केवल आपका अधिकार नहीं है। उस पर समाज का हक है...
डॉ. बोलता जा रहा था और मैं कहना चाह रहा था कि कौन से समाज की बात कर रहे हो डॉक्टर? उस समाज की जो मुझे आप तक पहुंचने के लिए अपने उद्योगपति मित्र की सहायता प्राप्त करने को मजबूर करता है। मैं तो फिर भी भाग्यशाली हूं कि चार मित्र ऐसे हैं लेकिन पूरे दिन में दो बड़ा पाव खाकर जीवन गुजारने वाले कैसे पहुंचेंगे आप तक? उनको तो बिना इलाज के ही पांच तत्वों में विलीन होना है।
कुछ नहीं कह सका मैं। क्या कह सकता था? दोपहर तक पता चल गया था कि जहां मैं हूं, वह एक पांच सितारा चिकित्सालय है। एक हजार रोज वहां का खर्च था। मेरे दस दिन का मतलब था दस हजार इलाज के और दस हजार बजरिए विमान यहां आने-जाने के यानी पूरे बीस हजार का अहसान लेकर मैं यहां आ पाया था।
अचानक मैंने खुद को बहुत फंसा हुआ अनुभव किया, दरअसल मैं एक गंदी और शर्मनाक बीमारी की चपेट में आ गया था। मुझे बवासीर हो गई थी और सभी तरह के इलाज कराने के बावजूद डटी हुई थी। बदहवासी के उसी दौर में मुंबई के एक उद्योगपति दोस्त ने मुझे यहां का पता और आने-जाने का टिकट पकड़ा दिया और मैं मूर्खों की तरह यहां आकर डॉ. नीरज के सामने बैठ गया था। जिन्होंने बवासीर के अलावा भी पता नहीं क्या-क्या खोज लिया था।
'कल सुबह से आपका इलाज शुरू होगा।' डॉ. नीरज ने मुस्कराते हुए कहा, 'कहिए, ओराग्यम् शरणम् गच्छामि।'
'क्या आप कभी अखबार नहीं पढ़ते डॉक्टर?' मैंने एक बेतुका-सा सवाल किया।
'कभी-कभी देख लेता हूं, जब बाहर जाता हूं।'
'और टीवी?'
'टीवी नहीं है मेरे पास। कई साल पहले अपनी पत्नी के साथ 'मेरा नाम जोकर' देखी थी। डॉक्टर उत्साह-उत्साह में मित्रता जैसी नर्म और आत्मीय सीढ़ियां उतरने लगा। 'बहुत अच्छी फिल्म थी। अब शायद अच्छी फिल्में बनने का चलन नहीं रहा। क्यों आप बहुत फिल्में देखते हैं क्या?'
'नहीं, फिल्में तो मैं भी कभी-कभार ही देखता हूं मगर एक अखबार तो आपको मंगाना ही चाहिए। नहीं?'
'मिस्टर देव' डॉक्टर की आवाज सहसा बहुत खुश्क हो गई। 'लोग यहां पर अपना इलाज कराने आते हैं। यहां की जो दिनचर्या है उसमें अखबार के लिए न तो समय है, न ही जरूरत। आप खुद देखिएगा। अब आप जा सकते हैं। मुझे राउंड पर जाना है।' डॉक्टर उठ खड़ा हुआ। मैं भी।
डॉक्टर के चेंबर से निकल कर मैं सिगरेट लेने के लिए परिसर से बाहर निकला। गेट पर सुरक्षा अधिकारी अड़ गए। 'यहां सब बड़े लोग ही आते हैं। बड़प्पन का रौब तो मारिए मत। हमारे लिए सब मरीज हैं। बाहर जाकर आपने चाय सिगरेट पी ली तो हमारी तो नौकरी गई न! अपराध करें बड़े लोग, दंड भरें छोटे लोग। यह तो न्याय नहीं हुआ न? आप डॉ. नीरज से लिखवा लाइए, हम आपको जाने देंगे।'
मेरा मूड उखड़ गया। मेरे पैकेट में केवल तीन सिगरेट बाकी थीं। सुरक्षा अधिकारियों से झिड़की खाकर मैं कमरे में आ गया। मैंने तय किया कि अपनी यह दस दिवसीय यात्रा ठीक इसी बिंदु पर पहुंच कर समाप्त कर देना ज्यादा उचित होगा। इतनी सारी वर्जनाओं, इतने घनघोर अकेलेपन, इस कदर दुनिया से कटे रह कर केवल कुछ मरीजों और एक डेढ़ दर्जन स्टाफ के बीच तो मेरा दम ही घुट जाएगा।
क्या नीलम को याद नहीं रहा, मैंने बची हुई तीन सिगरेटों में से एक को बड़ी शिद्दत से सुलगाते हुए सोचा, कि भीड़ और शोर और निरंतर साथ मेरे जीवन में आरंभ से ही अनिवार्यता की तरह लगे हुए हैं तो फिर नीलम ने सोचा भी कैसे कि मैं उसके बिना पूरे दस दिन ऐसी जगह रहूंगा जहां जीवन से हताश कुछेक मरीजों के सिवा कोई नहीं होगा। आखिर क्या सोचकर उसने मुझे ठेल-ठाल कर इस यात्रा के प्रस्ताव को स्वीकार करने पर मजबूर किया था।
यहां यह मेरी पहली शाम थी और दूसरी शाम यहां करने का मेरा कोई इरादा नहीं था। न मिले मुंबई की फ्लाइट। मैं घोड़ा, तांगा, टैक्सी, ट्रेन कुछ भी लेकर यहां से निकलने का मन बना चुका था।
ठीक ऐसे त्रस्त मन के बीच मुझे गुटरगूं गुटरगूं सुनाई दी। कमरे की छत पर शायद ढेर सारे कबूतर चले आए थे।
आह! मैंने सिगरेट फेंकते हुए सोचा-कितने बरस के बाद मैं कबूतरों को सुन रहा था। बची हुई दो सिगरेटों को बड़े प्यार और जतन से छूते हुए मैंने घड़ी देखी। शाम के साढ़े सात बजे थे। मुंबई में इस समय मैं अपने दफ्तर में होता था। लेकिन यहां रात के खाने का समय आधा घंटा पार कर चुका था।
उसी वक्त किसी भूली बिसरी याद की तरह फोन की घंटी बजने लगी।
उस तरफ सोनल थी।

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सात चालीस पर मैंने कैफे में प्रवेश लिया तो सोनल दरवाजे पर ही खड़ी थी।
'खाने का समय छह से सात के बीच का है राइटर।' सोनल एअर इंडिया के महाराज की तरह अदब से झुकते हुए बोली। मैंने क्षण के दसवें हिस्से में ताड़ लिया कि 'राइटर' कहते समय उसकी मंशा उपहास उड़ाने की नहीं है। मैं सहज हो गया। मुस्कराया और बोला, 'मैं जैन साधु नहीं हूं मैडम कि सूर्यास्त से पहले ही खाना खा लूं।'
'सूर्यास्त से पहले खाना खा लेने के पीछे धर्म नहीं विज्ञान है। खाने की भी एक वैज्ञानिक थ्योरी है।' सोनल गंभीर हो गई।
'वैज्ञानिक थ्योरी तुम अपने पास रखो।' मैंने लापरवाही से कहा, 'तुमने खाना खा लिया?'
'मैंने?' सोनल पानी में डूबी चक्करदार अंधेरी सीढ़ियां उतरने लगी, 'मैं तो जयपुर के फार्म हाउस में रहती थी। वहां कोई पूछता ही नहीं था। पापा फौज में थे। मम्मी सोशल वर्कर। अकेले रहते-रहते बड़ी हो गई तो पेशे के लिए एक 'रिमोट एरिया' चुन लिया। यहां भी कोई नहीं पूछता मेरे खाने के बारे में। आपके मन में मेरे खाने की याद कहां से चली आई?' सोनल की आंखें पानी-पानी थीं। उस पानी पर रपटते हुए मैं अपने शायर दोस्त निदा फाजली के घर चला गया, जहां टेप पर उनकी गजल बज रही थी -
दिया तो बहुत
जिंदगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से...
'अंतिम पेशेंट को खिला देने के बाद ही मुझे खाना चाहिए, नहीं?' सोनल पूछ रही थी।
'क्या खिला रही हो?' मैं हंसा। हंसने के पीछे कोई तर्क होता है क्या? मैंने सोचा।
'आज छूट है, कुछ भी खाइए। कल सुबह से आपका इलाज चलेगा। रोज का जो 'डाइट चार्ट' डॉ. नीरज की तरफ से आएगा, वही खाना होगा।'
'क्या-क्या है तुम्हारे किचन में?' मैंने पूछा, 'तुम भी मेरे साथ क्यों नहीं खाती हो? अकेले खाना मुझे भाता नहीं है।' मैं सफेद झूठ बोल गया। मुंबई में मैं दोनों वक्त अकेला ही खाता था। दोपहर को दफ्तर में, रात को बारह-एक बजे, सबके खा-पी लेने के बाद। बच्चों को कॉलेज भेजने के लिए नीलम को सुबह पांच बजे उठना पड़ता था इसलिए वह रात को बच्चों के साथ नौ-दस बजे तक खा लेती थी।
'अरे बाप रे! आप तो मरवा देंगे।' सोनल चौंक गई, 'एक मरीज में इतनी दिलचस्पी लूंगी तो मैनेजमेंट तो मेरी छुट्टी ही कर देगा। चलिए टेबल पर बैठिए, मैं आपके सामने खड़ी रहूंगी।' सोनल बोली और किचन की तरफ मुंह करके चिल्लाई-'पूरन, पालक सूप ले आओ।'
खाली कैफे की उस रात होती शाम में सोनल की आवाज मधुर तरीके से गूंज उठी। मुझे लगा इस आवाज के सहारे रहा जा सकता है दस दिन।
'तुम्हारे पेशेंट कहां गए?' मैंने यूं ही पूछा।
'सब गए। पार्क में टहल रहे होंगे या अपने-अपने कमरों में होंगे।' सोनल ने जानकारी दी। पूरन पालक सूप रख गया। सूप का पहला चम्मच पीते ही मुझे कुछ खाली-खाली सा, कुछ छूट गया सा लगा। याद आया मुंबई में यह समय शराब पीने का होता था या होनेवाला होता था।
सूप समाप्त होते ही मेज पर सलाद की प्लेट, छोटी-सी मक्के की रोटी, सरसों का साग, गुड़ और दही आ गया। पत्ताा गोभी और करेले की भाजी भी थी।
'अरे वाह।' मैं सचमुच प्रसन्न हो गया। 'तुमको कैसे पता चला कि मुझे मक्के की रोटी, सरसों का साग और करेले की सब्जी पसंद है?' मैंने आश्चर्य से पूछा।
'डाइट चार्ट के साथ लगी आपकी मेडिकल और फिजीकल रिपोर्ट से।' सोनल सहज थी लेकिन मैं असहज और लज्जित सा हो गया। इसका मतलब यह जान चुकी है कि मुझे बवासीर है, मैंने सोचा और तत्काल ही मेरा चेहरा लाल हो गया।
'सहज हो जाइए।' सोनल खिलखिलाई, 'यहां स्वस्थ लोग नहीं आते। हर पेशेंट की हर तकलीफ के बारे में जानना ही होता है वरना देखभाल कैसे कर पाएंगे?'
लेकिन बवासीर? एक अनजान जवान लड़की की जानकारी में। मेरी चेतना में एक नामालूम-सी शर्म दिप-दिप करने लगी।
मैं चुप खाना खाता रहा। रोटी खत्म करके मैंने सोनल की तरफ देखा। वह शायद मुझे चाव से खाना खाते ही देख रही थी। उसकी आंखों से मेरी आंखें टकरा गईं। वह शरारात से मुस्कराई, 'बस, और खाना नहीं मिलेगा।'
'केवल एक रोटी?' मैं चकित रह गया।
'यह भी बहुत हैवी हो गया है।' सोनल ने हिदायत दी, 'अब आप एक घंटा टहल लें। चाबी यहां छोड़ जाएं। पूरन सोते समय खाने के लिए आपके कमरे में खजूर रख आएगा।'
'लेकिन मैं खजूर नहीं खाता।' मैंने प्रतिवाद किया।
'क्यों? जितनी भी अच्छी चीजें हैं, उन सबसे बैर है क्या?'
'तुमसे कहां बैर है?' मैं पता नहीं क्यों और कैसे बोल गया। आम तौर पर ऐसे नायाब जुमले मुझे शराब पीने के बाद ही सूझते थे।
'अब जाइए। टहल कर आइए और सो जाइए। मैं भी खाना खाकर सोने जाऊंगी। सुबह चार बजे उठना होता है।'
'लेकिन!' मैंने घड़ी देखी, आठ बजकर पांच मिनट हुए थे, 'इतनी जल्दी कैसे सो जाऊं?'
'साढ़े नौ बजे लाइटें बंद हो जाएंगी।' सोनल ने नयी जानकारी दी। मुझे याद आया, सुबह पौने तीन बजे जब मैं इस अस्पताल में आया था, तो कमरे में लाइट नहीं थी। मुझे कमरे में रखी मोमबत्ताी जलानी पड़ी थी।
'यह तो ज्यादती है।' मैं बुझे मन से उठा, 'पानी तो पिलवाओ।'
'पानी खाना खाने के एक घंटे बाद अपने कमरे में पीजिएगा।'
'इसमें भी कोई विज्ञान है?' मैं चिढ़ सा गया।
'हां,' सोनल खिलखिलाने लगी, 'आएगा, बहुत मजा आएगा। आपके साथ बड़ा मजा आएगा।'
'गुड नाइट।' मैं चिढ़ा-चिढ़ा मुड़ गया।
'कमरे की चाबी?' सोनल हंस कर बोली।
'मुझे नहीं चाहिए तुम्हारे खजूर।' मैंने चिढ़े-चिढ़े ही जवाब दिया और अपने कमरे की तरफ मुड़ गया। कमरे में जाकर पहले एक सिगरेट पीनी थी।
कमरे में आकर सिगरेट पीते हुए मैंने सोचा, नीलम को फोन करूं क्या? उसे बताऊं कि मैंने खाना खा लिया है और सोने जा रहा हूं। घर में किसी को भी यकीन नहीं होगा। छोटा बेटा पढ़ रहा होगा। बड़ा बेटा कॉलेज से लौटा नहीं होगा। इस वक्त ट्रेन या बस में होगा। नीलम खाना बना रही होगी। निशा मेरे लिए शामी कबाब लेकर आई होगी और यह सुनकर सिर धुन रही होगी कि उसके अंकल मुंबई में नहीं हैं...
निशा मेरे एक मुसलिम दोस्त की बेटी थी। उसका पिता शराब नहीं पीता था इसलिए वह अक्सर मेरे लिए शामी कबाब तलकर ले आती थी। ठीक शराब पीने के समय या खाना खाने के चंद क्षणों पहले। निशा बी.कॉम में पढ़ती थी, इसके बावजूद उसके हाथों के बने शामी कबाब अविस्मरणीय ढंग से लजीज होते थे। उन कबाबों के कुरकुरेपन में एक बेटी के अप्रतिम प्यार की सोंधी खुशबू घुली-मिली होती थी।
रिसेप्शन पर आकर मैंने फोन किया। फोन छोटे बेटे राहुल ने उठाया और आवाज पहचान कर जोर से बोला, 'पापा ऽऽऽ मेरे लिए राजस्थान की कठपुतली लाना।'
'मम्मी को दे।' मैंने अधीरता से कहा।
'मम्मी सब्जी लेने मार्केट गई है।'
'खाना खाया?'
'अभी नहीं।'
'लो कर लो बात।' मैंने सोचा और बोला, 'अच्छा मम्मी को बोलना पापा ठीक से हैं।'
'ओके. पापा, आपने टीवी देखा?'
'टीवी यहां नहीं है बेटा।' मैं दुखी-सा हो गया।
'ओह शिट। पापा, पाकिस्तान के आतंकवादियों ने हमारा प्लेन हाईजैक कर लिया।'
'अरे?' मैं चौंक उठा।
'हां, पापा।' राहुल उत्तोजित था। 'उन्होंने हमारे एक यात्री... को तो मार भी दिया। जहाज में डेढ़ सौ इंडियन हैं।'
'क्या बोल रहा है?'
'हां पापा। आप अखबार तो पढ़ो?'
'ओके बेटा बाय! मैं सुबह फोन करूंगा?' मैंने कहा और फोन रख दिया। मेरी बेचैनी मेरे सिर चढ़कर बोल रही थी। मैं पार्क में घूमने निकल पड़ा।
पार्क एकदम खाली था। खाली और निस्तब्ध। अचानक ऐसा लगा मानो इतनी बड़ी पृथ्वी पर मैं अकेला ही बचा रह गया हूं। एक राउंड भी पूरा नहीं कर पाया था कि ठंड के कारण बदन कंपकंपाने लगा। प्यास भी खूब तेज लगने लगने लगी थी। मैं तेज कदमों से पार्क का चक्कर लगा कर वापस कमरे पर आ गया। घड़ी में पौने नौ बजे थे।
बत्तिायां गुल होने में पूरे पैंतालिस मिनट बाकी थे।
मुझे याद आया। मुंबई में जब किसी कारणवश जल्दी घर आना होता था तो मैं नौ अट्ठावन की ट्रेन पकड़ा करता था। यूं आमतौर पर मैं रात ग्यारह उनतालिस की आखिरी फास्ट ट्रेन पकड़ कर जाया करता था।
स्मृतियों पर अवसाद झर रहा था। न सिर्फ स्मृतियों पर वरन् पूरी चेतना ही पक्षाघात के जबड़े में जाने को आतुर थी। अपने देश का एक पूरा विमान हाईजैक हो गया था और यहां एक पांच सितारा चिकित्सालय में खा-खाकर बीमार हुए लोग अपने-अपने कमरों में सो रहे थे।
'मैं उल्लू का पट्ठा हूं क्या?' मैं जोर से चिल्लाया।
पट्ठा, पट्ठा पट्ठा...शब्द मुझ तक लौट आए।
अस्पताल की बत्तिायां बुझ गईं। मतलब साढ़े नौ बज चुके थे।
मेरे पास सिर्फ एक सिगरेट बची थी। मुंबई में बच्चे विमान अपहरण का लाइव टेलीकास्ट देख रहे होंगे। मैंने सोचा और बिस्तर में घुस कर लिहाफ ओढ़ लिया जैसे शुतुरमुर्ग रेत में मुंह गड़ा कर सो जाता है।

×××

सुबह पांच बजने में पांच मिनट पर फोन आ गया। वह तब तक बजता रहा जब तक मैंने फोन को उठा नहीं लिया।
'जय श्री राम।' उधर से आवाज आई। 'सुबह हो गई है। उठिए, फ्रेश होकर आधा घंटा पार्क में टहलने जाइए। उसके बाद योगा हॉल में आइए, प्रार्थना करेंगे। नमस्कार।' और फोन कट गया।
बिस्तर में घुसने से पहले मैंने बाथरूम की लाइट बंद नहीं की थी और दरवाजे को भी खुला छोड़ रखा था। फोन बजने पर मैंने रजाई से मुंह निकाला तो बाथरूम में उजाला था और उसकी लाइट से कमरा भी थोड़ा-थोड़ा रोशन था।
बहुत चिढ़कर मैं उठा। बिना शराब पिए पूरी रात नींद नहीं आई थी। शायद सुबह के चार सवा चार पर पलकें झपकी थीं। मैं उठा। अंतिम सिगरेट जलाकर बाथरूम में घुस गया। फ्रेश होकर वापस बिस्तर पर आया। बगल की तिपाही पर रखे कागज को देखा-वह दिनचर्या चार्ट था। यह चार्ट कल दिन में नहीं था। शायद शाम को कोई रख गया होगा।
चार्ट में दर्ज था-'सुबह पांच बजे उठना। साढ़े पांच बजे तक पार्क में टहलना। छह बजे तक योगा हॉल में प्रार्थना, पौने सात तक हेल्थ क्लब में जाकर नेति, कुंजल और एनिमा का इलाज लेना, सात बजे कैफे में जाकर नींबू-पानी-शहद पीना। आठ बजे तक वापस योगा हॉल में जाकर योगासन करना। वहीं पर नौ बजे तक डॉ. नीरज का प्रवचन। नौ से साढ़े ग्यारह तक हेल्थ क्लब में जाकर मिट्टी पट्टी, मालिश, ठंडा-गर्म स्नान, भाप स्नान, पिरामिड चिकित्सा, चुंबक चिकित्सा आदि लेना। साढ़े बारह तक कैफे में आकर खा लेना। दो बजे तक पार्क में घूमना। आराम करना या पुस्तकालय में बैठकर स्वास्थय संबंधी किताबें पढ़ना। ढ़ाई बजे वापस कैफे में जाकर जूस पीना और पुन: हेल्थ कल्ब में चल देना। साढ़े पांच बजे इलाज से लौटकर कैफे में फल खाना। साढ़े छह तक पार्क में टहलना। साढ़े सात तक हर हाल में खाना खा लेना। साढ़े आठ तक पुन: इलाज लेना। नौ बजे कमरे में आना और साढ़े नौ तक सो जाना।'
अचरज की चक्करघिन्नी में गोल-गोल घूमकर मेरे दिमाग की नसें तड़कने लगीं। इस दिनचर्या में रोटी की मशक्कत, भाग-दौड़, हत्या, बलात्कार, डकैती, अपहरण की बुरी सूचनाएं, माधुरी दीक्षित की धक-धक, बिजली गुल होने की समस्या, ट्रैफिक जाम में फंस जाने की पीड़ा, बेटे के देर रात तक घर न लौटने पर नीलम का चिड़चिड़ापन और चिंता कुछ नहीं था, कहीं नहीं था। यहां सिर्फ डॉ. नीरज थे और था उनका प्राकृतिक इलाज।
मैं कमरे से बाहर आ गया-गर्म कपड़ों से लदा हुआ। बाहर, परिसर में इस सिरे से उस सिरे तक एक पागल ठंड हा हा हू हू करती दौड़ रही थी। ठंड के कारण मेरे दांत बजने लगे थे।
पार्क में परिचित सन्नाटा था। परिसर के विशाल गेट पर सुरक्षा अधिकारी तक नहीं थे। मैंने गेट की छोटी खिड़की से मुंह बाहर निकाल कर देखा-ठीक सामने एक छोटी-सी गुमटी जैसी बंद दुकान थी। एक टूटी-फूटी कच्ची सड़क दाएं-बाएं दूर तक चली गई थी। पता नहीं सामने वाली दुकान में सिगरेट मिलती है या नहीं? बाहर जाने की स्पेशल परमिशन तो डॉ. नीरज से लेनी ही होगी।
मैं पलट कर पार्क में आ गया। पार्क के बीचों-बीच सोफे के आकार के जो छह सात झूले खड़े थे, वे संभवत: दोपहर की धूप में आराम करने के लिए रहे होंगे। तभी एक हल्का-सा झोंका आया और मुझे लगा पार्क में पत्ताों की पाजेब बजी है।
अब तक मैं आधे पार्क का चक्कर लगा चुका था। थोड़ा-थोड़ा उजास झरने लगा था। पार्क की बत्तिायां क्रमश: बुझ रही थीं। हेल्थ क्लब की बत्तिायां एकाएक जलने लगीं। मैं एक छोटे से बांस के घर के सामने रुक गया। उसके भीतर प्यारे-प्यारे खरगोश टहल रहे थे। जीवन में पहली बार मैंने खरगोशों से बातें कीं और उस दिन को नफरत की तरह याद किया जब मैंने पहली बार खरगोश का मांस खाया था।
उसी समय कबूतरों का एक झुंड वहां पर उतरा और पार्क की ओस में भीगी, मखमली घास पर बिखर गया। मैंने तत्काल चप्पलें उतारीं और कबूतरों की तरह उस गीली घास पर देर तक चलता रहा। शुरूआती ठंड के बाद हरी-गीली-नरम घास पर नंगे पांव चलना एक सुखद आश्चर्य जैसा लगा, मैं देर तक नंगे पांव टहलता रहा और सोचता रहा कि मुंबई-दिल्ली-कलकत्ताा के मेरे तमाम दोस्त इस समय निश्चित रूप से सो रहे होंगे। जबकि उनसे अधिक देर तक सोने वाला मैं यहां, नंगे पांव सूर्य के स्वागत में खड़ा था।
मेरी चिढ़ का क्या हुआ। क्या सचमुच मेरा भी कायाकल्प हो रहा है। मैं सृष्टि और उसके चमत्कार से मित्रता करने की दिशा में फिसल रहा था क्या? यह एक अपूर्व अनुभव था-ठीक वैसा, जैसा निर्मल वर्मा की कहानियों और उपन्यासों में मिलता है-धुंध, धुएं, आलोक में तिरता रहस्यमय मगर चमकीला-सा, वर्षों के कठोर दुखों को अनवरत सहते रहने के बाद सहसा सामने आ खड़े मायावी सुख-सा, एक चिड़चिड़ी, थका देनेवाली जद्दोजहद के बाद की उनींदी नींद के बाद अर्जित हुआ विरल अनुभव। घड़ी देखी-साढ़े पांच बज गए थे। अब आधे घंटे की प्रार्थना में जाना था। मैं योगा हॉल में जाने के बजाय रिसेप्शन पर चला गया। मुझे मालूम था कि मुंबई में नीलम उठ चुकी होगी।
फोन मिलाया। नीलम ही थी।
'मुझे यकीन नहीं हो रहा है कि यह तुम हो?' नीलम ने खुशी से लगभग चीखते हुए कहा, 'इतनी सुबह।'
'मार्निंग वॉक से लौट रहा हूं।' मैंने रौब मार दिया।
'देव, मैं रियली बहुत खुश हूं...तुम खुश हो न?' नीलम ने आशंकित होकर पूछा।
'मैं अपनी अंतिम सिगरेट पी चुका हूं और कल रात शराब भी नहीं मिली।'
नीलम को खुश होना चाहिए था लेकिन उसके मुंह से अफसोस में डूबा 'बेचारे' शब्द निकल गया। मुझे खुशी हुई कि वह मेरी यातना को समझ पा रही है।
'और क्या समाचार है?' मैंने पूछा।
'सबसे बड़ा समाचार विमान अपहरण का ही है। तुमने नहीं पढ़ा?' नीलम चकित थी।
'यहां टीवी और अखबार कुछ नहीं है।' मैंने कुढ़कर कहा।
'ओह!' नीलम बोली, 'मैं तुम्हें फोन करती रहूंगी।'
'नहीं! तुम फोन मत करना। आज से मैं पेशेंट हूं। पता नहीं कब कहां रहूंगा। मैं ही तुम्हें फोन करूंगा। बाय!' मैंने फोन काट दिया। फोन का बिल अपने खाते में जमा करने का निर्देश शर्मा जी को देकर मैं बाहर निकला तो थोड़ा प्रफुल्लित था। यह नीलम से बात हो जाने की प्रसन्नता थी शायद। हालांकि मन में कहीं यह कसक भी थी कि विमान में बंधक यात्रियों का थोड़ा विस्तृत समाचार मिल जाता तो अच्छा था। योगा हॉल में जाकर प्रार्थना में शामिल होने का मन नहीं बन रहा था इसलिए छह बजे तक मैं रिसेप्शन के बाहर बने लंबे कारीडोर में टहलता रहा।
ठीक छह बजे मैं इलाज के लिए 'हेल्थ क्लब' की दिशा में निकल पड़ा।
शायद प्रार्थना ठीक छह बजे समाप्त नहीं हुई थी। इलाज के लिए पहुंचने वालों में मैं सबसे पहला शख्स था।
एक दाढ़ी वाले वर्मा जी ने मुझे एक जग गुनगुना पानी दिया और बोले, 'पूरा पानी पी जाएं और उसके बाद मुंह में उंगली डालकर उल्टी कर दें।'
उल्टी के साथ पीला-पीला पित्ता और बलगम भी बाहर आ गया। मुझे अच्छा लगा। इसे'कुंजल' कहते थे। इसके बाद वर्मा जी ने स्टील के एक नली वाले लोटे को पकड़ा कर बताया, 'दाईं नाक से पानी लेकर बाईं नाक से निकालें, फिर बाईं नाक से पानी लेकर दाईं नाक से निकाल दें।' यह 'नेति' थी। फिर वर्मा जी ने मुझे 'एनिमा' वाले कमरे में पहुंचा दिया। नीम के पानी का 'एनिमा' लेकर मैं 'कमोड' पर बैठा तो लगा पूरा पेट एक बार में ही खाली हो गया है।
बाथरूम से निकला तो देखा बाकी मरीज आने शुरू हो गए थे। स्त्रियों और पुरुषों की अलग-अलग व्यवस्था थी। स्त्रियों के लिए स्त्री परिचारिकाएं थीं।
ठंड से कुड़कुड़ाते हुए मैं कैफे में पहुंचा और पूरन से 'हर्बल' टी की मांग की।
'नहीं साब!' पूरन मेरा डाइट चार्ट देखकर बोला, 'आज से नींबू-पानी-शहद ही मिलेगा।'
मैं नींबू-शहद का गिलास लेकर एक कोने में बैठ गया और कैफे में क्रमश: प्रवेश करते मरीजों को देखने लगा। कोई बहुत मोटा था, कोई बहुत पतला। कोई लंगड़ा कर चल रहा था, किसी की कमर झुकी हुई थी। ज्यादातर अधेड़ स्त्री-पुरुष थे, लेकिन सबके सब निश्चित रूप से संपन्न रहे होंगे।
सात से आठ वाली योगासन की कक्षा मैंने छोड़ दी लेकिन आठ बजने में पांच मिनट पर मैं 'योगा हॉल' के भीतर था - डॉ. नीरज के प्रवचन के लिए। चिकित्सालय के 'योगा हॉल' के भीतर था-डॉ. नीरज के प्रवचन के लिए। चिकित्सालय के 'योगा हॉल' से यह मेरा पहला साक्षात्कार था।
वह एक विशाल हॉल था। जिसमें सामने की दीवार पर बहुत बड़े आकार का तांबे का'ऊँ' लगा हुआ था। उसके सामने डॉ. नीरज का सफेद आसन था और आसन के सामने पूरे हॉल में कीमती दरियां बिछी हुई थीं। योगासन की कक्षा समाप्त हो गई थी और सभी मरीज डॉ. नीरज के इंतजार में थे।
ठीक आठ बजे चीते जैसी फुर्ती के साथ डॉ. नीरज ने प्रवेश लिया और मुझे गेट पर खड़ा देख प्रसन्न हो गए।
'आइए।' डॉ. नीरज ने कहा और अपने आसन पर जाकर बैठ गए। बाकी मरीजों से थोड़ा हट कर मैं भी एक तरफ बैठ गया।
'पहले आप सबका अपने नये सदस्य से परिचय कराते हैं।' डॉ. नीरज ने मेरी तरफ इशारा कर सभा को संबोधित किया। मैंने खड़े होकर सबको नमस्कार कर दिया। प्रत्युत्तार में बाकी लोगों ने भी हाथ जोड़ दिए।
'यह श्री देव सिन्हा हैं। लेखक और पत्रकार। मुंबई से आए हैं। मेरा श्री देव से आग्रह है कि जब उनके जैसा व्यक्ति यहां आ ही गया है तो हमारे इस चेतना के जागरण के विज्ञान का खुद भी लाभ ले और यहां से जाकर दूसरे लोगों को भी जागृत करे। मैं फिर कहता हूं कि लिखने-पढ़ने वालों का जीवन केवल उनका अपना नहीं होता। आप यहां से एक बड़े समाज के लिए जनहित का संदेश लेकर जाएंगे तो हमारे यह प्रयत्न सार्थक होंगे। चलिए अब मेरे पीछे-पीछे बोलिए-
निसर्गम् शरणम् गच्छामि
योगम् शरणम् गच्छामि
आरोग्यम् शरणम् गच्छामि!!
'हां तो मित्रो!' डॉ. नीरज शुरू हो गए, 'जैसा कि आप जानते हैं कि दवा से रोग दबा दिया जाता है। दबा हुआ रोग बार-बार उभरता है। हम रोग को दबाने में नहीं जड़ से मिटाने में यकीन रखते हैं। हमारे केंद्र की एक बड़ी विशेषता यही है कि यहां रोगी न केवल स्वस्थ होता है वरन खुद एक चिकित्सक बन कर जीवन में लौटता है। हम मानते हैं कि सारे रोग एक हैं और रोग की दवा भी एक ही है। आहार को लेकर हमारा अज्ञान ही समस्त रोगों की जड़ है इसलिए दूषित, जहरीले भोजन से 'कचराघर' बन चुका पेट यहां सबसे पहले स्वच्छ किया जाता है। आज हमारी इंदौरवासी महिला मरीज श्रमती कुसुम व्यास हमसे विदा ले रही हैं, हमारे केंद्र में आईं तो इनका वजन पिच्चासी किलो था। अब यह बासठ किलो की हैं। क्यों बहन जी, कोई संदेश?'
श्रीमती व्यास उठकर खड़ी हो गईं और लजाते हुए बोलीं -'मुझे तो इतना ही कहना है जी कि मैं यहां स्ट्रेचर पर लाई गई थी और अपने पांवों से चलकर जा रही हूं।'
सभागार तालियों से गूंज उठा।
'कोई प्रश्न?' डॉक्टर ने पूछा।
मेरा मन नहीं माना। मैंने हाथ उठा दिया।
'पूछिए!' डॉ. नीरज बोले।
'बाहर जो दुख है, शोक है, दैन्य है, रोजी-रोटी की मशक्कत है, भूख है, संताप है, अपहरण, बलात्कार, हत्याएं, तालाबंदी, हड़तालें और लाठीचार्ज हैं, चौबीस घंटों की भागदौड़ और तनाव है, झुग्गी-झोपड़ियों का नरक और जीवन का विराट तथा अनवरत संग्राम है और जिसके कारण ही बड़े-बड़े रोग हैं, निधन है, लाचारियां हैं, आत्महत्याएं है...'
'बस बस! मिस्टर देव! मैं आपका प्रश्न समझ गया!' डॉ. नीरज ने मुझे टोक दिया, 'लेकिन इस शाश्वत प्रश्न का जवाब मुंबई हॉस्पिटल, अपोलो हॉस्पिटल या 'एम्स' का कोई डॉक्टर दे सकता है?' अंत तक आते-आते डॉ. नीरज का चेहरा तमतमाने लगा था। 'आप चाहें तो इस विषय पर हम अलग से बैठक कर सकते हैं मिस्टर देव वैसे आपकी सूचना के लिए बता दूं कि चिकित्सक होने से पहले मैं कवि और उससे भी पहले माक्र्सवाद का विद्यार्थी था। और इन दोनों कारणों से ही मैं प्राकृतिक चिकित्सा की तरफ आया। जिस बाईपास सर्जरी का खर्च मुंबई अस्पताल में डेढ़ दो लाख रुपये आता है उसी रोगी हृदय को हमारे यहां बीस दिन और बीस हजार रुपये में ठीक कर देते हैं।'
'थैंक्यू डॉक्टर। मेरी मंशा आपको चोट पहुंचाने की नहीं थी। एक लेखक होने के कारण मेरी जिज्ञासाएं जरा दूसरी तरह की हैं।' मैंने जवाब दिया और उठ खड़ा हुआ क्योंकि स्वयं डॉ. नीरज भी खड़े हो चुके थे। घड़ी में ठीक नौ बज रहे थे। मरीजों को इलाज के लिए हेल्थ क्लब जाना था।

×××

रात बारह बजे आने वाले फोन ने जगा दिया।
इस समय? मैंने लिहाफ में से मुंह निकालकर सोचा और टेबल लैंप जलाकर घड़ी देखी-सचमुच बारह ही बजे थे। असल में दिन भर के इलाज ने शरीर को भरपूर राहत देने के साथ-साथ बेतरह थका भी दिया था। आखिरी, गर्म पानी में पैरों का स्नान और नाभि में गाय के दूध से बना शुध्द घी लगवा कर जब मैं कमरे पर लौटा तो रात ग्यारह बजते-बजते ही बड़ी सुहानी नींद में चला गया था।
फोन पर शर्मा जी थे।
'कीचड़ स्नान के लिए जाना है क्या?' मैं चिढ़कर पूछा।
'नहीं सर!' डायरेक्ट लाइन पर आपका फोन है मुंबई से।' शर्मा जी संयत थे।
'आया।' मैंने कहा और बिस्तर से निकल कर शॉल ढूंढने लगा। इस समय फोन क्यों किया होगा नीलम ने? मैंने सोचा। हालांकि मुंबई के लिहाज से यह कोई ज्यादा समय नहीं था। इस समय तक तो मैंने रात का खाना भी नहीं खाया होता था।
'देव बुरी खबर है।' नीलम हांफ-सी रही थी। 'आज दोपहर निशा ने 'रैटौल' खाकर आत्महत्या कर ली। अभी-अभी अस्पताल से उसकी बॉडी लेकर आए हैं। बाहर पूरी कॉलोनी जमा है। मैं उसे देखने अस्पताल गई थी। वह अंत समय तक बड़बड़ा रही थी कि देव अंकल होते तो मैं बताती मेरे साथ क्या हुआ?'
'ओह!' मेरे मुंह से निकला। फिर मैंने फोन रख दिया। शरीर का एक-एक रोम खड़ा हो गया था।
फिर रात भर नींद नहीं आई। ऐसा क्या हुआ होगा कि चार्टर्ड एकांउटेंट बनने का स्वप्न देखने वाली एक युवा लड़की को आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा?
सिगरेट होती तो मैं शायद रात भर चहलकदमी करता। बिस्तर में पड़े-पड़े सुबह पांच बजे आने वाले फोन का इंतजार करता रहा। भूख भी बहुत कस कर लग रही थी क्योंकि डॉ. नीरज ने मुझे तीन दिन के उपवास पर रख दिया था-सिर्फ नींबू-पानी-शहद पीने की छूट थी।

×××

मैंने तुम्हें एक नया नाम दिया है। सुबह सात बजे मैं सोनल को बता रहा था। सात से आठ वाली 'योगा क्लास' से डॉ. नीरज ने मुझे मुक्ति दिला दी थी। इसलिए यह पूरा एक घंटा मेरा स्थायी रूप से कैफे में बीतता था-सोनल के साथ। यह मेरी पांचवीं सुबह थी।
'क्या नाम दिया है सुनें तों!' सोनल किचन के उस पार से मेरे लिए खुद नींबू-पानी-शहद लेकर आ गई थी।
'रिमोट एरिया की महारानी।' मैं बुदबुदाया।
सोनल ने सुना और खिलखिलाने लगी लेकिन खिलखिलाते खिलखिलाते वह दूर चली गई। काउंटर के उस पार जाकर वह चीखी, 'तुम्हारा आज का चार्ट आ गया है राइटर! आज तुमको दोपहर के खाने में एक प्लेट सलाद, सोयाबीन का दही और आधा प्लेट उबला हुआ पालक मिलने वाला है।'
मैं विस्मित रह गया। उसी विस्मय में थरथराता मैं काउंटर तक गया और बोला -'तुमको मालूम है, तुम मुझे तुम कह रही हो।'
'क्या? नहीं!!' काउंटर के उस पार सोनल थिर थी।
फिर वह धीरे-धीरे पीछे हटी, एकाएक झटके से घूमी और भीतर किचन में कहीं गायब हो गई।
कुछ देर इंतजार करने के बाद मैंने काउंटर पर ठक-ठक की तो पूरन बाहर निकला।
'सोनल कहां है?' मैंने पूछा।
'मेम साब अपने कमरे पर चली गई हैं।' पूरन ने बताया और मुझे अवाक छोड़ किचन के भीतर चला गया।
कैफे की एक मेज पर मेरा नींबू-पानी-शहद लावारिस पड़ा था।

×××

दोपहर का भोजन वही था जो सोनल ने बताया था लेकिन खुद सोनल वहां नहीं थी। वह रात के खाने पर भी नहीं दिखी। पूरन ने बताया उनकी तबीयत ठीक नहीं है। वह कमरे पर हैं। बहुत डरते-डरते पूरन ने सोनल के कमरे का फोन नंबर दिया।
रात नौ बजे मैंने सोनल का फोन नंबर घुमा दिया। सोनल ही थी।
'सोनल मैं देव!'
'जी।' उधर से दबा भिंचा स्वर आया।
'बीमार हो?'
'हां।'
'तुम लोग भी बीमार पड़ते हो?' मैंने परिहास किया, 'खाना खाया?'
'नहीं।'
'क्यों?'
'क्यों इतना पूछते हैं?' सोनल बिदक गई।
'आखिर तुम्हें हुआ क्या है?' मैं झल्ला ही तो पड़ा।
'मैं कमजोर पड़ गई हूं राइटर। मुझे बख्श दो प्लीज।' सोनल बाकायदा सिसक रही थी, 'जैसा भी था मेरा एक जीवन था, जो सिर्फ मेरा अपना था, उसमें किसी की पूछताछ नहीं थी, उपेक्षा नहीं थी, अपेक्षा भी नहीं थी। तुमने ये सब चीजें मुझमें जगा दीं राइटर। और मैं नहीं चाहती कि ये सब चीजें मुझमें जाग जाएं। प्लीज...गुड नाइट।' सोनल ने फोन काट दिया, एकाएक।
मैं सन्न रह गया। अनजाने ही मैंने एक क्रूर काम कर दिया था। हम लेखक लोग अंतत: क्रूर ही होते हैं। उम्मीदें जगाकर फिर उन्हें नष्ट कर देते हैं।
सचमुच सोनल को मेरे बीत चुके और आनेवाले जीवन के बारे में क्या पता था? यह सच है कि चार-पांच रोज बाद मैं यहां से चला जाऊंगा। मेरे चले जाने के बाद सोनल का जो जीवन होगा उसमें क्या कोई उससे पूछने वाला होगा कि तू इतनी उदास क्यों है सोनल।
मैंने फिर फोन नंबर घुमाया। फोन एंगेज था। शायद सोनल ने फोन उठाकर रख दिया था।
तभी कमरे की बत्ताी चली गई।
अरे? साढ़े नौ बज गए? मैंने सोचा और दोनों हाथों से माथा पकड़ कर बिस्तर पर बैठ गया।
अगले रोज दोपहर मेरे जीवन में एक नया दुख लग गया। पूरन ने मुझे एक नीले रंग का खूबसूरत कागज दिया। उस पर लिखा था -'राइटर! मैं यह चिकित्सालय छोड़कर जा रही हूं। हममें से किसी एक को इस तरह जाना ही था। तुम तो संवेदनशील हो। सहृदय हो। हो सके तो, इस तरह छोड़कर जाने के लिए, माफ कर देना। तुम्हारी-रिमोट एरिया की महारानी।'
'पूरन। मुझे एक हर्बल टी पिला सकते हो?' मैंने पूछा
'नहीं साब।' पूरन ने सपाट-सा जवाब दिया।
'शटअप।' मैं बड़बड़ाया और पार्क में जाकर एक झूले पर लेट गया।
उसी समय मुझे ढूंढते हुए रिसेप्शन वाले शर्मा जी आ गए। 'देव साब, अपने घर पर फोन करें। भाभी जी का फोन था। जरूरी बात करनी है।'
नीलम ने जो बताया उससे मेरे रहे सहे होश भी जाते रहे।
मालिकों ने हमारी पत्रिका अपने फर्नीचर और कर्मचारियों सहित दिल्ली के किसी सेठ को बेच दी थी। कर्मचारी संगठित होकर लेबर कोर्ट में जा रहे थे और चाहते थे कि इस लड़ाई में मैं उनके साथ खड़ा नजर आऊं। मुझे तत्काल बुलाया गया था।

×××

शाम को मैं डॉक्टर से विदा ले रहा था। डॉक्टर ने जयपुर तक के लिए अपनी गाड़ी का इंतजाम कर दिया था। जयपुर में मेरा एक दोस्त रात की किसी फ्लाइट का टिकट लेकर प्रतीक्षारत था।
'मैं तो जा ही रहा था सोनल।' मैंने सोचा, 'तुम क्यों चली गर्इं?'
'सचमुच बहुत सुख मिला यहां।' मैंने डॉक्टर से हाथ मिलाया और कार में बैठ गया। सुरक्षा अधिकारियों ने चिकित्सालय का विशाल द्वार खोल दिया।
बाहर दुख था।
-धीरेन्द्र अस्थाना