गाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई में भाग ले चुके थे और बात-बात पर खी-खी करके हँसते और गोरे फौजियों की खिल्ली उड़ाते रहे थे। डिब्बे में तीन पठान व्यापारी भी थे, उनमें से एक हरे रंग की पोशाक पहने ऊपरवाली बर्थ पर लेटा हुआ था। वह आदमी बड़ा हँसमुख था और बड़ी देर से मेरे साथवाली सीट पर बैठे एक दुबले-से बाबू के साथ उसका मजाक चल रहा था। वह दुबला बाबू पेशावर का रहनेवाला जान पड़ता था क्योंकि किसी-किसी वक्त वे आपस में पश्तो में बातें करने लगते थे। मेरे सामने दाईं ओर कोने में, एक बुढ़िया मुँह-सिर ढाँपे बैठी थी और देर से माला जप रही थी। यही कुछ लोग रहे होंगे। संभव है दो-एक और मुसाफिर भी रहे हों, पर वे स्पष्टत: मुझे याद नहीं।
गाड़ी धीमी रफ्तार से चली जा रही थी, और गाड़ी में बैठे मुसाफिर बतिया रहे थे और बाहर गेहूँ के खेतों में हल्की-हल्की लहरियाँ उठ रही थीं, और मैं मन-ही-मन बड़ा खुश था क्योंकि मैं दिल्ली में होनेवाला स्वतंत्रता-दिवस समारोह देखने जा रहा था।
उन दिनों के बारे में सोचता हूँ, तो लगता है, हम किसी झुटपुटे में जी रहे हैं। शायद समय बीत जाने पर अतीत का सारा व्यापार ही झुटपुटे में बीता जान पड़ता है। ज्यों-ज्यों भविष्य के पट खुलते जाते हैं, यह झुटपुटा और भी गहराता चला जाता है।
उन्हीं दिनों पाकिस्तान के बनाए जाने का ऐलान किया गया था और लोग तरह-तरह के अनुमान लगाने लगे थे कि भविष्य में जीवन की रूपरेखा कैसी होगी। पर किसी की भी कल्पना बहुत दूर तक नहीं जा पाती थी। मेरे सामने बैठे सरदार जी बार-बार मुझसे पूछ रहे थे कि पाकिस्तान बन जाने पर जिन्ना साहिब बंबई में ही रहेंगे या पाकिस्तान में जा कर बस जाएँगे, और मेरा हर बार यही जवाब होता - बंबई क्यों छोड़ेंगे, पाकिस्तान में आते-जाते रहेंगे, बंबई छोड़ देने में क्या तुक है! लाहौर और गुरदासपुर के बारे में भी अनुमान लगाए जा रहे थे कि कौन-सा शहर किस ओर जाएगा। मिल बैठने के ढंग में, गप-शप में, हँसी-मजाक में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। कुछ लोग अपने घर छोड़ कर जा रहे थे, जबकि अन्य लोग उनका मजाक उड़ा रहे थे। कोई नहीं जानता था कि कौन-सा कदम ठीक होगा और कौन-सा गलत। एक ओर पाकिस्तान बन जाने का जोश था तो दूसरी ओर हिंदुस्तान के आजाद हो जाने का जोश। जगह-जगह दंगे भी हो रहे थे, और योम-ए-आजादी की तैयारियाँ भी चल रही थीं। इस पूष्ठभूमि में लगता, देश आजाद हो जाने पर दंगे अपने-आप बंद हो जाएँगे। वातावरण में इस झुटपुट में आजादी की सुनहरी धूल-सी उड़ रही थी और साथ-ही-साथ अनिश्चय भी डोल रहा था, और इसी अनिश्चय की स्थिति में किसी-किसी वक्त भावी रिश्तों की रूपरेखा झलक दे जाती थी।
शायद जेहलम का स्टेशन पीछे छूट चुका था जब ऊपर वाली बर्थ पर बैठे पठान ने एक पोटली खोल ली और उसमें से उबला हुआ माँस और नान-रोटी के टुकड़े निकाल-निकाल कर अपने साथियों को देने लगा। फिर वह हँसी-मजाक के बीच मेरी बगल में बैठे बाबू की ओर भी नान का टुकड़ा और माँस की बोटी बढ़ा कर खाने का आग्रह करने लगा था - ‘का ले, बाबू, ताकत आएगी। अम जैसा ओ जाएगा। बीवी बी तेरे सात कुश रएगी। काले दालकोर, तू दाल काता ए, इसलिए दुबला ए...’
डिब्बे में लोग हँसने लगे थे। बाबू ने पश्तो में कुछ जवाब दिया और फिर मुस्कराता सिर हिलाता रहा।
इस पर दूसरे पठान ने हँस कर कहा – ‘ओ जालिम, अमारे हाथ से नई लेता ए तो अपने हाथ से उठा ले। खुदा कसम बकरे का गोश्त ए, और किसी चीज का नईए।’
ऊपर बैठा पठान चहक कर बोला - ‘ओ खंजीर के तुम, इदर तुमें कौन देखता ए? अम तेरी बीवी को नई बोलेगा। ओ तू अमारे साथ बोटी तोड़। अम तेरे साथ दाल पिएगा...’
इस पर कहकहा उठा, पर दुबला-पतला बाबू हँसता, सिर हिलाता रहा और कभी-कभी दो शब्द पश्तो में भी कह देता।
‘ओ कितना बुरा बात ए, अम खाता ए, और तू अमारा मुँ देखता ए...’ सभी पठान मगन थे।
‘यह इसलिए नहीं लेता कि तुमने हाथ नहीं धोए हैं,’ स्थूलकाय सरदार जी बोले और बोलते ही खी-खी करने लगे! अधलेटी मुद्रा में बैठे सरदार जी की आधी तोंद सीट के नीचे लटक रही थी – ‘तुम अभी सो कर उठे हो और उठते ही पोटली खोल कर खाने लग गए हो, इसीलिए बाबू जी तुम्हारे हाथ से नहीं लेते, और कोई बात नहीं।’ और सरदार जी ने मेरी ओर देख कर आँख मारी और फिर खी-खी करने लगे।
‘माँस नई खाता ए, बाबू तो जाओ जनाना डब्बे में बैटो, इदर क्या करता ए?’ फिर कहकहा उठा।
डब्बे में और भी अनेक मुसाफिर थे लेकिन पुराने मुसाफिर यही थे जो सफर शुरू होने में गाड़ी में बैठे थे। बाकी मुसाफिर उतरते-चढ़ते रहे थे। पुराने मुसाफिर होने के नाते उनमें एक तरह की बेतकल्लुफी आ गई थी।
‘ओ इदर आ कर बैठो। तुम अमारे साथ बैटो। आओ जालिम, किस्सा-खानी की बातें करेंगे।’
तभी किसी स्टेशन पर गाड़ी रुकी थी और नए मुसाफिरों का रेला अंदर आ गया था। बहुत-से मुसाफिर एक साथ अंदर घुसते चले आए थे।
‘कौन-सा स्टेशन है?’ किसी ने पूछा।
‘वजीराबाद है शायद,’ मैंने बाहर की ओर देख कर कहा।
गाड़ी वहाँ थोड़ी देर के लिए खड़ी रही। पर छूटने से पहले एक छोटी-सी घटना घटी। एक आदमी साथ वाले डिब्बे में से पानी लेने उतरा और नल पर जा कर पानी लोटे में भर रहा था तभी वह भाग कर अपने डिब्बे की ओर लौट आया। छलछलाते लोटे में से पानी गिर रहा था। लेकिन जिस ढंग से वह भागा था, उसी ने बहुत कुछ बता दिया था। नल पर खड़े और लोग भी, तीन-चार आदमी रहे होंगे - इधर-उधर अपने-अपने डिब्बे की ओर भाग गए थे। इस तरह घबरा कर भागते लोगों को मैं देख चुका था। देखते-ही-देखते प्लेटफार्म खाली हो गया। मगर डिब्बे के अंदर अभी भी हँसी-मजाक चल रहा था।
‘कहीं कोई गड़बड़ है,’ मेरे पास बैठे दुबले बाबू ने कहा।
कहीं कुछ था, लेकिन क्या था, कोई भी स्पष्ट नहीं जानता था। मैं अनेक दंगे देख चुका था इसलिए वातावरण में होने वाली छोटी-सी तबदील को भी भाँप गया था। भागते व्यक्ति, खटाक से बंद होते दरवाजे, घरों की छतों पर खड़े लोग, चुप्पी और सन्नाटा, सभी दंगों के चिह्न थे।
तभी पिछले दरवाजे की ओर से, जो प्लेटफार्म की ओर न खुल कर दूसरी ओर खुलता था, हल्का-सा शोर हुआ। कोई मुसाफिर अंदर घुसना चाह रहा था।
‘कहाँ घुसा आ रहा है, नहीं है जगह! बोल दिया जगह नहीं है,’ किसी ने कहा।
‘बंद करो जी दरवाजा। यों ही मुँह उठाए घुसे आते हैं।’ आवाजें आ रही थीं।
जितनी देर कोई मुसाफिर डिब्बे के बाहर खड़ा अंदर आने की चेष्टा करता रहे, अंदर बैठे मुसाफिर उसका विरोध करते रहते हैं। पर एक बार जैसे-तैसे वह अंदर जा जाए तो विरोध खत्म हो जाता है, और वह मुसाफिर जल्दी ही डिब्बे की दुनिया का निवासी बन जाता है, और अगले स्टेशन पर वही सबसे पहले बाहर खड़े मुसाफिरों पर चिल्लाने लगता है - नहीं है जगह, अगले डिब्बे में जाओ...घुसे आते हैं...
दरवाजे पर शोर बढ़ता जा रहा था। तभी मैले-कुचैले कपड़ों और लटकती मूँछों वाला एक आदमी दरवाजे में से अंदर घुसता दिखाई दिया। चीकट, मैले कपड़े, जरूर कहीं हलवाई की दुकान करता होगा। वह लोगों की शिकायतों-आवाजों की ओर ध्यान दिए बिना दरवाजे की ओर घूम कर बड़ा-सा काले रंग का संदूक अंदर की ओर घसीटने लगा।
‘आ जाओ, आ जाओ, तुम भी चढ़ जाओ! वह अपने पीछे किसी से कहे जा रहा था। तभी दरवाजे में एक पतली सूखी-सी औरत नजर आई और उससे पीछे सोलह-सतरह बरस की साँवली-सी एक लड़की अंदर आ गई। लोग अभी भी चिल्लाए जा रहे थे। सरदार जी को कूल्हों के बल उठ कर बैठना पड़ा।’
‘बंद करो जी दरवाजा, बिना पूछे चढ़े आते हैं, अपने बाप का घर समझ रखा है। मत घुसने दो जी, क्या करते हो, धकेल दो पीछे...’ और लोग भी चिल्ला रहे थे।
वह आदमी अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था और उसकी पत्नी और बेटी संडास के दरवाजे के साथ लग कर खड़े थे।
‘और कोई डिब्बा नहीं मिला? औरत जात को भी यहाँ उठा लाया है?’
वह आदमी पसीने से तर था और हाँफता हुआ सामान अंदर घसीटे जा रहा था। संदूक के बाद रस्सियों से बँधी खाट की पाटियाँ अंदर खींचने लगा।
‘टिकट है जी मेरे पास, मैं बेटिकट नहीं हूँ।’ इस पर डिब्बे में बैठे बहुत-से लोग चुप हो गए, पर बर्थ पर बैठा पठान उचक कर बोला – ‘निकल जाओ इदर से, देखता नई ए, इदर जगा नई ए।’
और पठान ने आव देखा न ताव, आगे बढ़ कर ऊपर से ही उस मुसाफिर के लात जमा दी, पर लात उस आदमी को लगने के बजाए उसकी पत्नी के कलेजे में लगी और वहीं ‘हाय-हाय’ करती बैठ गई।
उस आदमी के पास मुसाफिरों के साथ उलझने के लिए वक्त नहीं था। वह बराबर अपना सामान अंदर घसीटे जा रहा था। पर डिब्बे में मौन छा गया। खाट की पाटियों के बाद बड़ी-बड़ी गठरियाँ आईं। इस पर ऊपर बैठे पठान की सहन-क्षमता चुक गई। ‘निकालो इसे, कौन ए ये?’ वह चिल्लाया। इस पर दूसरे पठान ने, जो नीचे की सीट पर बैठा था, उस आदमी का संदूक दरवाजे में से नीचे धकेल दिया, जहाँ लाल वर्दीवाला एक कुली खड़ा सामान अंदर पहुँचा रहा था।
उसकी पत्नी के चोट लगने पर कुछ मुसाफिर चुप हो गए थे। केवल कोने में बैठो बुढ़िया करलाए जा रही थी – ‘ए नेकबख्तो, बैठने दो। आ जा बेटी, तू मेरे पास आ जा। जैसे-तैसे सफर काट लेंगे। छोड़ो बे जालिमो, बैठने दो।’
अभी आधा सामान ही अंदर आ पाया होगा जब सहसा गाड़ी सरकने लगी।
‘छूट गया! सामान छूट गया।’ वह आदमी बदहवास-सा हो कर चिल्लाया।
‘पिताजी, सामान छूट गया।’ संडास के दरवाजे के पास खड़ी लड़की सिर से पाँव तक काँप रही थी और चिल्लाए जा रही थी।
‘उतरो, नीचे उतरो,’ वह आदमी हड़बड़ा कर चिल्लाया और आगे बढ़ कर खाट की पाटियाँ और गठरियाँ बाहर फेंकते हुए दरवाजे का डंडहरा पकड़ कर नीचे उतर गया। उसके पीछे उसकी व्याकुल बेटी और फिर उसकी पत्नी, कलेजे को दोनों हाथों से दबाए हाय-हाय करती नीचे उतर गई।
‘बहुत बुरा किया है तुम लोगों ने, बहुत बुरा किया है।’ बुढ़िया ऊँचा-ऊँचा बोल रही थी –‘तुम्हारे दिल में दर्द मर गया है। छोटी-सी बच्ची उसके साथ थी। बेरहमो, तुमने बहुत बुरा किया है, धक्के दे कर उतार दिया है।’
गाड़ी सूने प्लेटफार्म को लाँघती आगे बढ़ गई। डिब्बे में व्याकुल-सी चुप्पी छा गई। बुढ़िया ने बोलना बंद कर दिया था। पठानों का विरोध कर पाने की हिम्मत नहीं हुई।
तभी मेरी बगल में बैठे दुबले बाबू ने मेरे बाजू पर हाथ रख कर कहा – ‘आग है, देखो आग लगी है।’
गाड़ी प्लेटफार्म छोड़ कर आगे निकल आई थी और शहर पीछे छूट रहा था। तभी शहर की ओर से उठते धुएँ के बादल और उनमें लपलपाती आग के शोले नजर आने लगे।
‘दंगा हुआ है। स्टेशन पर भी लोग भाग रहे थे। कहीं दंगा हुआ है।’
शहर में आग लगी थी। बात डिब्बे-भर के मुसाफिरों को पता चल गई और वे लपक-लपक कर खिड़कियों में से आग का दृश्य देखने लगे।
जब गाड़ी शहर छोड़ कर आगे बढ़ गई तो डिब्बे में सन्नाटा छा गया। मैंने घूम कर डिब्बे के अंदर देखा, दुबले बाबू का चेहरा पीला पड़ गया था और माथे पर पसीने की परत किसी मुर्दे के माथे की तरह चमक रही थी। मुझे लगा, जैसे अपनी-अपनी जगह बैठे सभी मुसाफिरों ने अपने आसपास बैठे लोगों का जायजा ले लिया है। सरदार जी उठ कर मेरी सीट पर आ बैठे। नीचे वाली सीट पर बैठा पठान उठा और अपने दो साथी पठानों के साथ ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ गया। यही क्रिया शायद रेलगाड़ी के अन्य डिब्बों में भी चल रही थी। डिब्बे में तनाव आ गया। लोगों ने बतियाना बंद कर दिया। तीनों-के-तीनों पठान ऊपरवाली बर्थ पर एक साथ बैठे चुपचाप नीचे की ओर देखे जा रहे थे। सभी मुसाफिरों की आँखें पहले से ज्यादा खुली-खुली, ज्यादा शंकित-सी लगीं। यही स्थिति संभवत: गाड़ी के सभी डिब्बों में व्याप्त हो रही थी।
‘कौन-सा स्टेशन था यह?’ डिब्बे में किसी ने पूछा।
‘वजीराबाद,’ किसी ने उत्तर दिया।
जवाब मिलने पर डिब्बे में एक और प्रतिक्रिया हुई। पठानों के मन का तनाव फौरन ढीला पड़ गया। जबकि हिंदू-सिक्ख मुसाफिरों की चुप्पी और ज्यादा गहरी हो गई। एक पठान ने अपनी वास्कट की जेब में से नसवार की डिबिया निकाली और नाक में नसवार चढ़ाने लगा। अन्य पठान भी अपनी-अपनी डिबिया निकाल कर नसवार चढ़ाने लगे। बुढ़िया बराबर माला जपे जा रही थी। किसी-किसी वक्त उसके बुदबुदाते होंठ नजर आते, लगता, उनमें से कोई खोखली-सी आवाज निकल रही है।
अगले स्टेशन पर जब गाड़ी रुकी तो वहाँ भी सन्नाटा था। कोई परिंदा तक नहीं फड़क रहा था। हाँ, एक भिश्ती, पीठ पर पानी की मशकल लादे, प्लेटफार्म लाँघ कर आया और मुसाफिरों को पानी पिलाने लगा।
‘लो, पियो पानी, पियो पानी।’ औरतों के डिब्बे में से औरतों और बच्चों के अनेक हाथ बाहर निकल आए थे।
‘बहुत मार-काट हुई है, बहुत लोग मरे हैं। लगता था, वह इस मार-काट में अकेला पुण्य कमाने चला आया है।’
गाड़ी सरकी तो सहसा खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे। दूर-दूर तक, पहियों की गड़गड़ाहट के साथ, खिडक़ियों के पल्ले चढ़ाने की आवाज आने लगी।
किसी अज्ञात आशंकावश दुबला बाबू मेरे पासवाली सीट पर से उठा और दो सीटों के बीच फर्श पर लेट गया। उसका चेहरा अभी भी मुर्दे जैसा पीला हो रहा था। इस पर बर्थ पर बैठा पठान उसकी ठिठोली करने लगा – ‘ओ बेंगैरत, तुम मर्द ए कि औरत ए? सीट पर से उट कर नीचे लेटता ए। तुम मर्द के नाम को बदनाम करता ए।’ वह बोल रहा था और बार-बार हँसे जा रहा था। फिर वह उससे पश्तो में कुछ कहने लगा। बाबू चुप बना लेटा रहा। अन्य सभी मुसाफिर चुप थे। डिब्बे का वातावरण बोझिल बना हुआ था।
‘ऐसे आदमी को अम डिब्बे में नईं बैठने देगा। ओ बाबू, अगले स्टेशन पर उतर जाओ, और जनाना डब्बे में बैटो।’
मगर बाबू की हाजिरजवाबी अपने कंठ में सूख चली थी। हकला कर चुप हो रहा। पर थोड़ी देर बाद वह अपने आप उठ कर सीट पर जा बैठा और देर तक अपने कपड़ों की धूल झाड़ता रहा। वह क्यों उठ कर फर्श पर लेट गया था? शायद उसे डर था कि बाहर से गाड़ी पर पथराव होगा या गोली चलेगी, शायद इसी कारण खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जा रहे थे।
कुछ भी कहना कठिन था। मुमकिन है किसी एक मुसाफिर ने किसी कारण से खिड़की का पल्ला चढ़ाया हो। उसकी देखा-देखी, बिना सोचे-समझे, धड़ाधड़ खिड़कियों के पल्ले चढ़ाए जाने लगे थे।
बोझिल अनिश्चत-से वातावरण में सफर कटने लगा। रात गहराने लगी थी। डिब्बे के मुसाफिर स्तब्ध और शंकित ज्यों-के-त्यों बैठे थे। कभी गाड़ी की रफ्तार सहसा टूट कर धीमी पड़ जाती तो लोग एक-दूसरे की ओर देखने लगते। कभी रास्ते में ही रुक जाती तो डिब्बे के अंदर का सन्नाटा और भी गहरा हो उठता। केवल पठान निश्चित बैठे थे। हाँ, उन्होंने भी बतियाना छोड़ दिया था, क्योंकि उनकी बातचीत में कोई भी शामिल होने वाला नहीं था।
धीरे-धीरे पठान ऊँघने लगे जबकि अन्य मुसाफिर फटी-फटी आँखों से शून्य में देखे जा रहे थे। बुढ़िया मुँह-सिर लपेटे, टाँगें सीट पर चढ़ाए, बैठी-बैठी सो गई थी। ऊपरवाली बर्थ पर एक पठान ने, अधलेटे ही, कुर्ते की जेब में से काले मनकों की तसबीह निकाल ली और उसे धीरे-धीरे हाथ में चलाने लगा।
खिड़की के बाहर आकाश में चाँद निकल आया और चाँदनी में बाहर की दुनिया और भी अनिश्चित, और भी अधिक रहस्यमयी हो उठी। किसी-किसी वक्त दूर किसी ओर आग के शोले उठते नजर आते, कोई नगर जल रहा था। गाड़ी किसी वक्त चिंघाड़ती हुई आगे बढ़ने लगती, फिर किसी वक्त उसकी रफ्तार धीमी पड़ जाती और मीलों तक धीमी रफ्तार से ही चलती रहती।
सहसा दुबला बाबू खिड़की में से बाहर देख कर ऊँची आवाज में बोला – ‘हरबंसपुरा निकल गया है।’ उसकी आवाज में उत्तेजना थी, वह जैसे चीख कर बोला था। डिब्बे के सभी लोग उसकी आवाज सुन कर चौंक गए। उसी वक्त डिब्बे के अधिकांश मुसाफिरों ने मानो उसकी आवाज को ही सुन कर करवट बदली।
‘ओ बाबू, चिल्लाता क्यों ए?’, तसबीह वाला पठान चौंक कर बोला – ‘इदर उतरेगा तुम? जंजीर खींचूँ?’ अैर खी-खी करके हँस दिया। जाहिर है वह हरबंसपुरा की स्थिति से अथवा उसके नाम से अनभिज्ञ था।
बाबू ने कोई उत्तर नहीं दिया, केवल सिर हिला दिया और एक-आध बार पठान की ओर देख कर फिर खिड़की के बाहर झाँकने लगा।
डब्बे में फिर मौन छा गया। तभी इंजन ने सीटी दी और उसकी एकरस रफ्तार टूट गई। थोड़ी ही देर बाद खटाक-का-सा शब्द भी हुआ। शायद गाड़ी ने लाइन बदली थी। बाबू ने झाँक कर उस दिशा में देखा जिस ओर गाड़ी बढ़ी जा रही थी।
‘शहर आ गया है।’ वह फिर ऊँची आवाज में चिल्लाया – ‘अमृतसर आ गया है।’ उसने फिर से कहा और उछल कर खड़ा हो गया, और ऊपर वाली बर्थ पर लेटे पठान को संबोधित करके चिल्लाया – ‘ओ बे पठान के बच्चे! नीचे उतर तेरी माँ की...नीचे उतर, तेरी उस पठान बनाने वाले की मैं...’
बाबू चिल्लाने लगा और चीख-चीख कर गालियाँ बकने लगा था। तसबीह वाले पठान ने करवट बदली और बाबू की ओर देख कर बोला – ‘ओ क्या ए बाबू? अमको कुच बोला?’
बाबू को उत्तेजित देख कर अन्य मुसाफिर भी उठ बैठे।
‘नीचे उतर, तेरी मैं...हिंदू औरत को लात मारता है! हरामजादे! तेरी उस...।’
‘ओ बाबू, बक-बकर नई करो। ओ खजीर के तुख्म, गाली मत बको, अमने बोल दिया। अम तुम्हारा जबान खींच लेगा।’
‘गाली देता है मादर...।’ बाबू चिल्लाया और उछल कर सीट पर चढ़ गया। वह सिर से पाँव तक काँप रहा था।
‘बस-बस।’ सरदार जी बोले – ‘यह लड़ने की जगह नहीं है। थोड़ी देर का सफर बाकी है, आराम से बैठो।’
‘तेरी मैं लात न तोड़ूँ तो कहना, गाड़ी तेरे बाप की है?’ बाबू चिल्लाया।
‘ओ अमने क्या बोला! सबी लोग उसको निकालता था, अमने बी निकाला। ये इदर अमको गाली देता ए। अम इसका जबान खींच लेगा।’
बुढ़िया बीच में फिर बोले उठी – ‘वे जीण जोगयो, अराम नाल बैठो। वे रब्ब दिए बंदयो, कुछ होश करो।’
उसके होंठ किसी प्रेत की तरह फड़फड़ाए जा रहे थे और उनमें से क्षीण-सी फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी।
बाबू चिल्लाए जा रहा था – ‘अपने घर में शेर बनता था। अब बोल, तेरी मैं उस पठान बनाने वाले की...।’
तभी गाड़ी अमृतसर के प्लेटफार्म पर रुकी। प्लेटफार्म लोगों से खचाखच भरा था। प्लेटफार्म पर खड़े लोग झाँक-झाँक कर डिब्बों के अंदर देखने लगे। बार-बार लोग एक ही सवाल पूछ रहे थे – ‘पीछे क्या हुआ है? कहाँ पर दंगा हुआ है?’
खचाखच भरे प्लेटफार्म पर शायद इसी बात की चर्चा चल रही थी कि पीछे क्या हुआ है। प्लेटफार्म पर खड़े दो-तीन खोमचे वालों पर मुसाफिर टूटे पड़ रहे थे। सभी को सहसा भूख और प्यास परेशान करने लगी थी। इसी दौरान तीन-चार पठान हमारे डिब्बे के बाहर प्रकट हो गए और खिड़की में से झाँक-झाँक कर अंदर देखने लगे। अपने पठान साथियों पर नजर पड़ते ही वे उनसे पश्तो में कुछ बोलने लगे। मैंने घूम कर देखा, बाबू डिब्बे में नहीं था। न जाने कब वह डिब्बे में से निकल गया था। मेरा माथा ठिनका। गुस्से में वह पागल हुआ जा रहा था। न जाने क्या कर बैठे! पर इस बीच डिब्बे के तीनों पठान, अपनी-अपनी गठरी उठा कर बाहर निकल गए और अपने पठान साथियों के साथ गाड़ी के अगले डिब्बे की ओर बढ़ गए। जो विभाजन पहले प्रत्येक डिब्बे के भीतर होता रहा था, अब सारी गाड़ी के स्तर पर होने लगा था।
खोमचे वालों के इर्द-गिर्द भीड़ छँटने लगी। लोग अपने-अपने डिब्बों में लौटने लगे। तभी सहसा एक ओर से मुझे वह बाबू आता दिखाई दिया। उसका चेहरा अभी भी बहुत पीला था और माथे पर बालों की लट झूल रही थी। नजदीक पहुँचा, तो मैंने देखा, उसने अपने दाएँ हाथ में लोहे की एक छड़ उठा रखी थी। जाने वह उसे कहाँ मिल गई थी! डिब्बे में घुसते समय उसने छड़ को अपनी पीठ के पीछे कर लिया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठने से पहले उसने हौले से छड़ को सीट के नीचे सरका दिया। सीट पर बैठते ही उसकी आँखें पठान को देख पाने के लिए ऊपर को उठीं। पर डिब्बे में पठानों को न पा कर वह हड़बड़ा कर चारों ओर देखने लगा।
‘निकल गए हरामी, मादर...सब-के-सब निकल गए!’ फिर वह सिटपिटा कर उठ खड़ा हुआ चिल्ला कर बोला – ‘तुमने उन्हें जाने क्यों दिया? तुम सब नामर्द हो, बुजदिल!’
पर गाड़ी में भीड़ बहुत थी। बहुत-से नए मुसाफिर आ गए थे। किसी ने उसकी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
गाड़ी सरकने लगी तो वह फिर मेरी वाली सीट पर आ बैठा, पर वह बड़ा उत्तेजित था और बराबर बड़बड़ाए जा रहा था।
धीरे-धीरे हिचकोले खाती गाड़ी आगे बढ़ने लगी। डिब्बे में पुराने मुसाफिरों ने भरपेट पूरियाँ खा ली थीं और पानी पी लिया था और गाड़ी उस इलाके में आगे बढ़ने लगी थी, जहाँ उनके जान-माल को खतरा नहीं था।
नए मुसाफिर बतिया रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी फिर समतल गति से चलने लगी थी। कुछ ही देर बाद लोग ऊँघने भी लगे थे। मगर बाबू अभी भी फटी-फटी आँखों से सामने की ओर देखे जा रहा था। बार-बार मुझसे पूछता कि पठान डिब्बे में से निकल कर किस ओर को गए हैं। उसके सिर पर जुनून सवार था।
गाड़ी के हिचकोलों में मैं खुद ऊँघने लगा था। डिब्बे में लेट पाने के लिए जगह नहीं थी। बैठे-बैठे ही नींद में मेरा सिर कभी एक ओर को लुढ़क जाता, कभी दूसरी ओर को। किसी-किसी वक्त झटके से मेरी नींद टूटती, और मुझे सामने की सीट पर अस्त-व्यस्त से पड़े सरदार जी के खर्राटे सुनाई देते। अमृतसर पहुँचने के बाद सरदार जी फिर से सामने वाली सीट पर टाँगे पसार कर लेट गए थे। डिब्बे में तरह-तरह की आड़ी-तिरछी मुद्राओं में मुसाफिर पड़े थे। उनकी बीभत्स मुद्राओं को देख कर लगता, डिब्बा लाशों से भरा है। पास बैठे बाबू पर नजर पड़ती तो कभी तो वह खिड़की के बाहर मुँह किए देख रहा होता, कभी दीवार से पीठ लगाए तन कर बैठा नजर आता।
किसी-किसी वक्त गाड़ी किसी स्टेशन पर रुकती तो पहियों की गड़गड़ाहट बंद होने पर निस्तब्धता-सी छा जाती। तभी लगता, जैसे प्लेटफार्म पर कुछ गिरा है, या जैसे कोई मुसाफिर गाड़ी में से उतरा है और मैं झटके से उठ कर बैठ जाता।
इसी तरह जब एक बार मेरी नींद टूटी तो गाड़ी की रफ्तार धीमी पड़ गई थी, और डिब्बे में अँधेरा था। मैंने उसी तरह अधलेटे खिड़की में से बाहर देखा। दूर, पीछे की ओर किसी स्टेशन के सिगनल के लाल कुमकुमे चमक रहे थे। स्पष्टत: गाड़ी कोई स्टेशन लाँघ कर आई थी। पर अभी तक उसने रफ्तार नहीं पकड़ी थी।
डिब्बे के बाहर मुझे धीमे-से अस्फुट स्वर सुनाई दिए। दूर ही एक धूमिल-सा काला पुंज नजर आया। नींद की खुमारी में मेरी आँखें कुछ देर तक उस पर लगी रहीं, फिर मैंने उसे समझ पाने का विचार छोड़ दिया। डिब्बे के अंदर अँधेरा था, बत्तियाँ बुझी हुई थीं, लेकिन बाहर लगता था, पौ फटने वाली है।
मेरी पीठ-पीछे, डिब्बे के बाहर किसी चीज को खरोंचने की-सी आवाज आई। मैंने दरवाजे की ओर घूम कर देखा। डिब्बे का दरवाजा बंद था। मुझे फिर से दरवाजा खरोंचने की आवाज सुनाई दी। फिर, मैंने साफ-साफ सुना, लाठी से कोई डिब्बे का दरवाजा पटपटा रहा था। मैंने झाँक कर खिड़की के बाहर देखा। सचमुच एक आदमी डिब्बे की दो सीढ़ियाँ चढ़ आया था। उसके कंधे पर एक गठरी झूल रही थी, और हाथ में लाठी थी और उसने बदरंग-से कपड़े पहन रखे थे और उसके दाढ़ी भी थी। फिर मेरी नजर बाहर नीचे की ओर आ गई। गाड़ी के साथ-साथ एक औरत भागती चली आ रही थी, नंगे पाँव, और उसने दो गठरियाँ उठा रखी थीं। बोझ के कारण उससे दौड़ा नहीं जा रहा था। डिब्बे के पायदान पर खड़ा आदमी बार-बार उसकी ओर मुड़ कर देख रहा था और हाँफता हुआ कहे जा रहा था – ‘आ जा, आ जा, तू भी चढ़ आ, आ जा!’
दरवाजे पर फिर से लाठी पटपटाने की आवाज आई – ‘खोलो जी दरवाजा, खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो।’
वह आदमी हाँफ रहा था – ‘खुदा के लिए दरवाजा खोलो। मेरे साथ में औरतजात है। गाड़ी निकल जाएगी...’
सहसा मैंने देखा, बाबू हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ और दरवाजे के पास जा कर दरवाजे में लगी खिड़की में से मुँह बाहर निकाल कर बोला – ‘कौन है? इधर जगह नहीं है।’
बाहर खड़ा आदमी फिर गिड़गिड़ाने लगा – ‘खुदा के वास्ते दरवाजा खोलो। गाड़ी निकल जाएगी।...’
और वह आदमी खिड़की में से अपना हाथ अंदर डाल कर दरवाजा खोल पाने के लिए सिटकनी टटोलने लगा।
‘नहीं है जगह, बोल दिया, उतर जाओ गाड़ी पर से।’ बाबू चिल्लाया और उसी क्षण लपक कर दरवाजा खोल दिया।
‘या अल्लाह! उस आदमी के अस्फुट-से शब्द सुनाई दिए। दरवाजा खुलने पर जैसे उसने इत्मीनान की साँस ली हो।’
और उसी वक्त मैंने बाबू के हाथ में छड़ चमकते देखा। एक ही भरपूर वार बाबू ने उस मुसाफिर के सिर पर किया था। मैं देखते ही डर गया और मेरी टाँगें लरज गईं। मुझे लगा, जैसे छड़ के वार का उस आदमी पर कोई असर नहीं हुआ। उसके दोनों हाथ अभी भी जोर से डंडहरे को पकड़े हुए थे। कंधे पर से लटकती गठरी खिसट कर उसकी कोहनी पर आ गई थी।
तभी सहसा उसके चेहरे पर लहू की दो-तीन धारें एक साथ फूट पड़ीं। मुझे उसके खुले होंठ और चमकते दाँत नजर आए। वह दो-एक बार 'या अल्लाह!' बुदबुदाया, फिर उसके पैर लड़खड़ा गए। उसकी आँखों ने बाबू की ओर देखा, अधमुँदी-सी आँखें, जो धीर-धीरे सिकुड़ती जा रही थीं, मानो उसे पहचानने की कोशिश कर रही हों कि वह कौन है और उससे किस अदावत का बदला ले रहा है। इस बीच अँधेरा कुछ और छन गया था। उसके होंठ फिर से फड़फड़ाए और उनमें सफेद दाँत फिर से झलक उठे। मुझे लगा, जैसे वह मुस्कराया है, पर वास्तव में केवल क्षय के ही कारण होंठों में बल पड़ने लगे थे।
नीचे पटरी के साथ-साथ भागती औरत बड़बड़ाए और कोसे जा रही थी। उसे अभी भी मालूम नहीं हो पाया था कि क्या हुआ है। वह अभी भी शायद यह समझ रही थी कि गठरी के कारण उसका पति गाड़ी पर ठीक तरह से चढ़ नहीं पा रहा है, कि उसका पैर जम नहीं पा रहा है। वह गाड़ी के साथ-साथ भागती हुई, अपनी दो गठरियों के बावजूद अपने पति के पैर पकड़-पकड़ कर सीढ़ी पर टिकाने की कोशिश कर रही थी।
तभी सहसा डंडहरे से उस आदमी के दोनों हाथ छूट गए और वह कटे पेड़ की भाँति नीचे जा गिरा। और उसके गिरते ही औरत ने भागना बंद कर दिया, मानो दोनों का सफर एक साथ ही खत्म हो गया हो।
बाबू अभी भी मेरे निकट, डिब्बे के खुले दरवाजे में बुत-का-बुत बना खड़ा था, लोहे की छड़ अभी भी उसके हाथ में थी। मुझे लगा, जैसे वह छड़ को फेंक देना चाहता है लेकिन उसे फेंक नहीं पा रहा, उसका हाथ जैसे उठ नहीं रहा था। मेरी साँस अभी भी फूली हुई थी और डिब्बे के अँधियारे कोने में मैं खिड़की के साथ सट कर बैठा उसकी ओर देखे जा रहा था।
फिर वह आदमी खड़े-खड़े हिला। किसी अज्ञात प्रेरणावश वह एक कदम आगे बढ़ आया और दरवाजे में से बाहर पीछे की ओर देखने लगा। गाड़ी आगे निकलती जा रही थी। दूर, पटरी के किनारे अँधियारा पुंज-सा नजर आ रहा था।
बाबू का शरीर हरकत में आया। एक झटके में उसने छड़ को डिब्बे के बाहर फेंक दिया। फिर घूम कर डिब्बे के अंदर दाएँ-बाएँ देखने लगा। सभी मुसाफिर सोए पड़े थे। मेरी ओर उसकी नजर नहीं उठी।
थोड़ी देर तक वह खड़ा डोलता रहा, फिर उसने घूम कर दरवाजा बंद कर दिया। उसने ध्यान से अपने कपड़ों की ओर देखा, अपने दोनों हाथों की ओर देखा, फिर एक-एक करके अपने दोनों हाथों को नाक के पास ले जा कर उन्हें सूँघा, मानो जानना चाहता हो कि उसके हाथों से खून की बू तो नहीं आ रही है। फिर वह दबे पाँव चलता हुआ आया और मेरी बगलवाली सीट पर बैठ गया।
धीरे-धीरे झुटपुटा छँटने लगा, दिन खुलने लगा। साफ-सुथरी-सी रोशनी चारों ओर फैलने लगी। किसी ने जंजीर खींच कर गाड़ी को खड़ा नहीं किया था, छड़ खा कर गिरी उसकी देह मीलों पीछे छूट चुकी थी। सामने गेहूँ के खेतों में फिर से हल्की-हल्की लहरियाँ उठने लगी थीं।
सरदार जी बदन खुजलाते उठ बैठे। मेरी बगल में बैठा बाबू दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर देखे जा रहा था। रात-भर में उसके चेहरे पर दाढ़ी के छोटे-छोटे बाल उग आए थे। अपने सामने बैठा देख कर सरदार उसके साथ बतियाने लगा – ‘बड़े जीवट वाले हो बाबू, दुबले-पतले हो, पर बड़े गुर्दे वाले हो। बड़ी हिम्मत दिखाई है। तुमसे डर कर ही वे पठान डिब्बे में से निकल गए। यहाँ बने रहते तो एक-न-एक की खोपड़ी तुम जरूर दुरुस्त कर देते...’ और सरदार जी हँसने लगे।
बाबू जवाब में मुसकराया - एक वीभत्स-सी मुस्कान, और देर तक सरदार जी के चेहरे की ओर देखता रहा।
Friday, December 2, 2011
अभिमन्यु की आत्महत्या राजेंद्र यादव
तुम्हें पता है, आज मेरी वर्षगाँठ है और आज मैं आत्महत्या करने गया था? मालूम है, आज मैं आत्महत्या करके लौटा हूँ?
अब मेरे पास शायद कोई 'आत्म' नहीं बचा, जिसकी हत्या हो जाने का भय हो। चलो, भविष्य के लिए छुट्टी मिली!
किसी ने कहा था कि उस जीवन देने वाले भगवान को कोई हक नहीं है कि हमें तरह-तरह की मानसिक यातनाओं से गुजरता देख-देखकर बैठा-बैठा मुस्कराए, हमारी मजबूरियों पर हँसे। मैं अपने आपसे लड़ता रहूँ, छटपटाता रहूँ, जैसे पानी में पड़ी चींटी छटपटाती है, और किनारे पर खड़े शैतान बच्चे की तरह मेरी चेष्टाओं पर 'वह' किलकारियाँ मारता रहे! नहीं, मैं उसे यह क्रूर आनंद नहीं दे पाऊँगा और उसका जीवन उसे लौटा दूँगा। मुझे इन निरर्थक परिस्थितियों के चक्रव्यूह में डालकर तू खिलवाड़ नहीं कर पाएगा कि हल तो मेरी मुट्ठी में बंद है ही। सही है, कि माँ के पेट में ही मैंने सुन लिया था कि चक्रव्यूह तोड़ने का रास्ता क्या है, और निकलने का तरीका मैं नहीं जानता था.... लेकिन निकल कर ही क्या होगा? किस शिव का धनुष मेरे बिना अनटूटा पड़ा है? किस अपर्णा सती की वरमालाएँ मेरे बिना सूख-सूखकर बिखरी जा रही हैं? किस एवरेस्ट की चोटियाँ मेरे बिना अछूती बिलख रही हैं? जब तूने मुझे जीवन दिया है तो 'अहं' भी दिया है, 'मैं हूँ' का बोध भी दिया है, और मेरे उस 'मैं' को हक है कि वह किसी भी चक्रव्यूह को तोड़ कर घुसने और निकलने से इंकार कर दे..... और इस तरह तेरे इस बर्बर मनोरंजन की शुरूआत ही न होने दे.....
और इसीलिए मैं आत्महत्या करने गया था, सुना?
किसी ने कहा था कि उस पर कभी विश्वास मत करो, जो तुम्हें नहीं तुम्हारी कला को प्यार करती है, तुम्हारे स्वर को प्यार करती है, तुम्हारी महानता और तुम्हारे धन को प्यार करती है। क्योंकि वह कहीं भी तुम्हें प्यार नहीं करती। तुम्हारे पास कुछ है जिससे उसे मुहब्बत है। तुम्हारे पास कला है; हृदय है, मुस्कराहट है, स्वर है, महानता है, धन है और उसी से उसे प्यार है; तुमसे नहीं। और जब तुम उसे वह सब नहीं दे पाओगे तो दीवाला निकले शराबखाने की तरह वह किसी दूरे मैकदे की तलाश कर लेगी और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा तिरस्कार हुआ। एक दिन यही सब बेचनेवाला दूसरा दूकानदार उसे इसी बाजार में मिल जाएगा और वह हर पुराने को नए से बदल लेगी, हर बुरे को अच्छे से बदल लेगी, और तुम चिलचिलाते सीमाहीन रेगिस्तान में अपने को अनाथ और असहाय बच्चे-सा प्यासा और अकेला पाओगे.... तुम्हारे सिर पर छाया का सुरमई बादल सरककर आगे बढ़ गया होगा और तब तुम्हें लगेगा कि बादल की उस श्यामल छाया ने तुम्हें ऐसी जगह ला छोड़ा है जहाँ से लौटने का रास्ता तुम्हें खुद नहीं मालूम.... जहाँ तुममें न आगे बढ़ने की हिम्मत है, न पीछे लौटने की ताकत। तब यह छलावा और स्वप्न-भंग खुद मंत्र-टूटे साँप-सा पलटकर तुम्हारी ही एड़ी में अपने दाँत गड़ा देगा और नस-नस से लपकती हुई नीली लहरों के विष बुझे तीर तुम्हारे चेतना के रथ को छलनी कर डालेंगे और तुम्हारे रथ के टूटे पहिए तुम्हारी ढाल का काम भी नहीं दे पाएंगे.... कोई भीम तब तुम्हारी रक्षा को नहीं आएगा।
क्योंकि इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता तुम्हें किसी अर्जुन ने नहीं बताया- इसीलिए मुझे आत्महत्या कर लेनी पड़ी और फिर मैं लौट आया- अपने लिए नहीं, परीक्षित के लिए, ताकि वह हर साँस से मेरी इस हत्या का बदला ले सके, हर तक्षक को यज्ञ की सुगंधित रोशनी तक खींच लाए।
मुझे याद है : मैं बड़े ही स्थिर कदमों से बांद्रा पर उतरा था और टहलता हुआ 'सी' रूट के स्टैंड पर आ खड़ा हुआ था। सागर के उस एकांत किनारे तक जाने लायक पैसे जेब में थे। पास ही मजदूरों का एक बड़ा-सा परिवार धूलिया फुटपाथ पर लेटा था। धुआंते गड्ढे जैसे चूल्हे की रोशनी में एक धोती में लिपटी छाया पीला-पीला मसाला पीस रही थी। चूल्हे पर कुछ खदक रहा था। पीछे की टूटी बाउंड्री से कोई झूमती गुन-गुनाहट निकली और पुल के नीचे से रोशनी-अँधेरे के चारखाने के फीते-सी रेल सरकती हुई निकल गई-विले पार्ले के स्टेशन पर मेरे पास कुछ पाँच आने बचे थे।
घोड़ाबंदर के पार जब दस बजे वाली बस सीधी बैंड स्टैंड की तरफ दौड़ी तो मैंने अपने-आपसे कहा -"वॉट डू आई केयर? मैं किसी की चिंता नहीं करता!"
और जब बस अंतिम स्टेज पर आकर खड़ी हो गई तो मैं ढालू सड़क पार कर सागर-तट के ऊबड़-खाबड़ पत्थरों पर उतर पड़ा। ईरानी रेस्त्रां की आसमानी नियोन लाइटें किसी लाइटहाउस की दिशा देती पुकार जैसी लग रही थीं,.... नहीं, मुझे अब कोई पुकार नहीं सुननी.... कोई और अप्रतिरोध पुकार है जो इससे ज्यादा जोर से मुझे खींच रही है। दौड़ती बस में सागर की सीली-सीली हवाओं में आती यह गंभीर पुकार कैसी फुरहरी पैदा करती थी। और मैं ऊँचे-नीचे पत्थरों के ढोकों पर पाँव रखता हुआ बिल्कुल लहरों के पास तक चला आया था। अँधेरे के काले-काले बालों वाली आसमानी छाती के नीचे भिंचा सागर सुबक-सुबककर रो रहा था, लंबी-लंबी साँसें लेता लहर-लहर में उमड़ा पड़ रहा था। रोशनी की आड़ में पत्थर के एक बडे से टुकड़े के पीछे जाने के लिए मैं बढ़ा तो देखा कि वहाँ आपस में सटी दो छायाएँ पहले से बैठी हैं 'ईवनिंग इन पेरिस' की खुशबू पर अनजाने ही मुस्कराता मैं दूसरी ओर बढ़ आया। हाँ, यही जगह ठीक है, यहाँ से अब कोई नहीं दीखता। धम से बैठ गया था। सामने ही सागर की वह सीमा थी जहाँ लहरों से अजगर फन पटक-पटक फुफकार उठते थे और रूपहले फेनों की गोटें सागर की छाती पर यहाँ-वहाँ अँधेरे में दमक उठती थीं। पानी की बौछार की तरह छींटे शरीर को भिगो जाते थे और पास की दरारवाली नाली में झागदार पानी उफन उठता था।
सब कुछ कैसा निस्तब्ध था! कितना व्याकुल था! हाँ, यही तो जगह है जो आत्महत्या-जैसे कामों के लिए ठीक मानी गई है। किसी को पता भी नहीं लगेगा। सागर की गरज में कौन सुनेगा कि क्या हुआ और बड़े-बड़े विज्ञापनों के नीचे एक पतली-सी लाइन में निकली इस सूचना को कौन पढ़ेगा? इस विराट बंबई में एक आदमी रहा, न रहा। मैंने जरा झाँककर देखा- मछुओं के पास वाले गिरजे से लेकर ईरानी रेस्त्रां के पास वाले मंडप तक, सड़क सुनसान लेटी थी। बंगलों की खिडकियाँ चमक रही थीं और सफेद कपड़ों के एकाध धब्बे-से कहीं-कहीं आदमियों का आभास होता था। रात का आनंद लेने वालों को लिए टैक्सी इधर चली आ रही थी।
असल में मैं आत्महत्या करने नहीं आया था। मैं तो चाहता था कोई मरघट-जैसी शांत जगह, जहाँ थोड़ी देर यों ही चुपचाप बैठा जा सके। यह दिमाग में भरा सीसे-सा भारी बोझ कुछ तो हल्का हो, यह साँस-साँस में रड़कती सुनाई की नोक-सा दर्द कुछ तो थमे। लहरें सिर फटककर-फटककर रो रही थीं और पानी कराह उठता था। घायल चील-सी हवा इस क्षितिज तक चीखती फिरती थी। आज सागर-मंथन जोरों पर था। चारों ओर भीषण गरजते अँधेरे की घाटियों में दैत्यवाहिनी की सफें की सफें मार्च करती निकल जाती थीं। दूर, बहुत दूर, बस दो चार बत्तियाँ कभी-कभी लहरों के नीचे होते ही झिलमिला उठती थीं। बाईं ओर नगर की बत्तियों की लाइन चली गई थी। सामने शायद कोई जहाज खड़ा है, बत्तियों से तो ऐसा लगता है। इस चिंघाड़ते एकांत में, मान लो, एक लहर जरा-सी करवट बदलकर झपट पड़े तो...? किसे पता चलेगा कि कल यहाँ, इस ढोंके की आड़ में, कोई अपना बोझ सागर को सौंपने आया था, एक पिसा हुआ भुनगा। मगर आखिर मैं जियूँ ही क्यों? किसके लिए? इस जिंदगी ने मुझे क्या दिया? वहीं अनथक संघर्ष स्वप्न भंग, विश्वासघात और जलालत। सब मिलाकर आपस में गुत्थम-गुत्था करते दुहरे-तिहरे व्यक्तित्व, एक वह जो मैं बनना चाहता था, एक वह जो मुझे बनना पड़ता था...
और उस समय मन में आया था कि, क्यों नहीं कोई लहर आगे बढ़कर मुझे पीस डालती? थोड़ी देर और बैठूँगा, अगर इस ज्वार में आए सागर की लहर जब भी आगे नहीं आई तो मैं खुद उसके पास जाऊँगा। और अपने को उसे सौंप दूँगा..... कोई आवेश नहीं, कोई उत्तेजना नहीं, स्थिर और दृढ़... खूब सोच-विचार के बाद....
अँधेरे के पार से दीखती रोशनी के इस गुच्छे को देख-देखकर जाने क्यों मुझे लगता है कि कोई जहाज है जो वहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। जाने किन-किन किनारों को छूता हुआ आया है यहाँ लंगर डाले खड़ा है कि मैं आऊँ और वह चल पड़े। यहाँ से दो-तीन मील तो होगा ही। कहीं उसी में जाने के लिए तो मैं अनजाने रूप से नहीं आ गया... क्योंकि वह मुझे लेने आएगा यह मुझे मालूम था। दिन-भर उस जानने को मैं झुठलाता रहा और अब आखिर रात के साढ़े दस बजे बंबई की लंबी-चौड़ी सड़कें, और कंधे रगड़ती भीड़ें चीरता हुआ मैं यहाँ चला आया हूँ। जाने कौन मन में घिसे रिकार्ड-सा दिनभर दुहराता रहा है कि मुझे यहाँ जाना है। अनजान पहाड़ों की खूंख्वार तलहटियों से आती यह आवाज हातिम ने सुनी थी और वह सारे जाल-जंजाल को तोड़कर उस आवाज के पीछे-पीछे चला गया था। जाने क्यों मैंने भी तो जब-जब पहाड़ों के चीड़ और देवदारू-लदे ढलवानों पर चकमक करती बर्फानी चोटियों और लहराते रेशम से फैले सागर की तरंगों को आँख भरकर देखा है, मुझे यही आवाज सुनाई दी है और मुझे लगा है कि उस आवाज को मैं अनसुनी नहीं कर पाऊँगा। हिप्नोटाइज्ड की तरह दोनों बाँहें खोलकर अपने को इस आवाज को सौंप दूँगा। अब भी इसी पुकार पर मैं अपने-आपको पहाड़ की चोटी से छलांग लगाकर लहरों तक आते देख रहा हूँ। वह जहाज मेरी राह में जो खड़ा है, मैं आवाज देकर उन्हें बता देना चाहता हूँ कि देखो, मैं आ गया हूँ.... देखो, मैं यहाँ बैठा हूँ, मुझे लिए बिना मत जाना।
मुझे लगता है एक छोटी-सी डोंगी अभी जहाज से नीचे उतार दी जाएगी और मुझे अपनी ओर आती दिखाई देगी...बस, उस लहर के झुकते ही तो दीख जाएगी। उसमें एक अकेली लालटेन वाली नाव! कहाँ पढ़ा था? हाँ याद आया, चेखव की 'कुत्तेवाली महिला' में ऐसा ही दृश्य है जो एक अजीब कवित्वपूर्ण छाप छोड़ गया है मन पर.....गुरोव और सर्जिएव्ना को मैं भूल गया हूँ (अभी तो देखा था उस पत्थर की आड़ में) मगर इस फुफकारते सागर को देखकर मेरा सारा अस्तित्व सिहर उठता है। यह गुर्राते शेर-सी गरज और रह-रहकर मूसलाधार पानी की तरह दौड़ती लहरों की वल्गा-हीन उन्मत्त अश्व-पंक्तियाँ। मुझे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता कोई नहीं बताता? अलीबाबा के भाई की तरह मैंने भीतर जाने के सारे रास्ते पा लिए हैं लेकिन उस 'सिम-सिम खुला जा' मंत्र को मैं भूल गया हूँ जिससे बाहर निकलने का रास्ता खुलता है। लेकिन मैं उस चक्रव्यूह में क्यों घुसा? कौन-सी पुकार थी जो उस नौजवान को अनजान देश की शहजादी के महलों तक ले आई थी?
दूर सतखण्डे की हाथीदांती खिड़की से झाँकती शहजादी ने इशारे से बुलाया और नौजवान न जाने कितने गलियारे और बारहदरियाँ लाँघता शाहजादी के महलों में जा पहुँचा। सारे दरवाजे खुद-बखुद खुलते गए। आगे झुके हुए ख्वाजासराओं के बिछाए ईरानी कालीन और किवाड़ों के पीछे छिपी कनीजों के हाथ उसे हाथों-हाथ लिये चले गए; और नौजवान शाहजादी के सामने था....ठगा और मंत्र-मुग्ध।
शाहजादी ने उसे तोला; अपने जादू और सम्मोहन को देखा और मुस्करा पड़ी। नौजवान होश में आ गया। हकला कर बोला, "हीरे बेचता हूँ, जहाँपनाह।"
"हाँ, हमें हीरों का शौक है और हमने तुम्हारे हीरों की तारीफ सुनी है।"
और उसकी चमड़े की थैली के चमकते अंगारे शाहजादी की गुलाबी हथेली पर यों जगमगा उठे जैसे कमल पर ओस की बूँदें सतरंगी किरणों में खिलखिला उठें.... उसे हीरों का शौक था। उसे हीरों की तमीज थी। उसके कानों में हीरे थे, उसके केशों मे हीरे थे, कलाइयाँ हीरों से भरी थीं और होठों के मखमल में जगमगाती हीरों पर आँख टिकाने की ताव उस नौजवान में नहीं थी।
"कीमत.....?" सवाल आया।
"कीमत....?"
"कीमत नहीं लोगे क्या?" शाहजादी के स्वर में परिहास मुखर हुआ।
नौजवान सहसा संभल गया, "क्यों नहीं लूँगा हुजूर? यही तो मेरी रोजी है। कीमत नहीं लूँगा तो बूढ़ी माँ और अब्बा को क्या खिलाऊँगा।" लेकिन वह कहीं भीतर अटक गया था। उसकी पेशानी पर पसीना चुहचुहा आया।
"कीमत क्या, बता दे?" किसी ने दुहराया।
"आपसे कैसे अर्ज करूँ कि इनकी कीमत क्या है? जरूरतमंदों और पारखियों के हिसाब से हर चीज की कीमत बदलती रही है। आपको इनका शौक है, आप ज्यादा जानती हैं।"
"फिर भी, बदले में क्या चाहोगे?" शाहजादी ने फिर पारखी निगाह से हीरों को तोला। उसकी आवाज दबी थी, "लगते तो काफी कीमती हैं।"
"हुजूर, जो मुनासिब समझें। खुदारा, मैं सचमुच नहीं जानता कि इनकी कीमत आपसे क्या माँग लूँ? आप एक दीनार देंगी, मुझे मंजूर है।" नौजवान कृतार्थ हो आया।
"फिर भी आखिर, अपनी मेहनत का तो कुछ चाहोगे ही न!" शहजादी की आँखों के हीरे चमकने लगे थे और उनमें प्रशंसा झूम आई थी।
"हीरों को सामने रखकर शाहजादी इनकी मेहनत की कहानी सुनना पसंद करेंगी?" इस बार नौजवान की वाणी में आत्मविश्वास था और उसने गर्दन उठा ली थी। होंठों पर मुस्कुराहट रेंग आई थी।
"तुम लोग ये सब लाते कहाँ से हो?"
"कोहकाफ से!"
"कोहकाफ" सुनकर ताज्जुब से खुले शाहजादी के मुँह की ओर नौजवान ने देखा और बाँहों की मछलियों को हाथों से टटोलते हुए बोला, "तो सुनिए, मेढ़ों और बकरों का एक बड़ा झुंड लेकर में पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर जा पहुँचा। वहाँ उनकों मैंने जिबह कर डाला और उनके गोश्त को अपने बदन पर चारों तरफ इस तरह बाँध लिया कि मैं खुद भी गोश्त की एक भारी लोथ लगने लगा। उसी गलाजत और बदबू में मुझे वहाँ कई दिन बारिश और धूप सहते लेटे रहना पड़ा। तब फिर आँधी की तरह वह उकाब आया जिसका मुझे इंतजार था। चारों ओर एक जलजले का आलम बरपा हो गया था। उसने झपटकर मुझे अपने पंजों में दबोचा और बच्चों को खिलाने के लिए ले चला घोंसले की तरफ।
बीच आसमान में लटकता मैं चला जा रहा आखिर मैंने अपने आपको बहुत ही वसीह खुली घाटी में पाया। यही कोहकाफ था। यहाँ एक चोटी पर मादा उकाब अपने बच्चों को दुलरा रही थी। जैसे ही मैंने जमीन छुई, छुरी की मदद से अपने को फौरन ही उस सड़े गोश्त से अगल कर लिया, और चुपचाप एक चट्टान की आड़ में हो गया। चारों ओर देखा तो मेरी आँखे खुशी से दमकने लगीं। वह घाटी सचमुच हीरों की थी। कितने भरूँ और कितने छोडूँ! मैं सब कुछ भूलकर दोनों हाथों से ही अपनी झोली में भरने लगा। लेकिन यह देखकर मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई कि चारों तरफ उस घाटी में भयानक अजदहे लहरा रहे थे - उकाब के डर से उस चोटी के पास नहीं आते थे, लेकिन जैसे उस चोटी की रखवाली कर रहे हों। उनकी फुंकारों से सारी घाटी गूँज रही थी।
जलती लपटों-सी जीभें देख-देखकर मेरे तो सारे होश फना हो गए। अब कैसे लौटूँ? आखिर मैंने मौत की परवाह न करके फिर उसी उकाब के साथ वापस आने की सोची और फिर उसके पंजे से जा चिपका। बीच में पकड़ छूट गई; क्योंकि दो दिन लगातार लटके उड़ते रहने से मेरे हाथों ने जवाब दे दिया था। छूटकर जो गिरा तो सीधा समुंदर में जा पड़ा। खैर, किसी तरह एक बहता हुआ तख्त हाथ लगा और उसी के सहारे आपके इस खूबसूरत मुल्क में आ लगा।"
नौजवान की आवाज मैं चुनौती और आत्मविश्वास दोनों थे। "यह मेरी मेहनतकी कहानी है, शाहजादी!"
शाहजादी ने उस जांबाज नौजवान को प्रशंसा की निगाहों से देखा, "आफरीं! सचमुच आदमी तुम हिम्मत वाले हो?" फिर जाने क्या सोचती-सी अनमनी अपलक आँखों से उसे देखती रही- देखती रही और दूर कहीं हीरे की घाटियों में खो गई। वह भूल गई कि उसके होंठों की वह मुस्कराहट अभी तक अन-सिमटी पड़ी है। वहीं कहीं दूर से बोली, "यों चारों तरफ से गलाजत में लिपटे, पंजों में बिंधे अनजानी खूंख्वार अँधेरी घाटियों में उतरते चले जाने में कैसा लगा होगा तुम्हें? और फिर जब तुमने भट्टों-सी जलती अजदहों की आँखे देखी होंगी।" फिर उसे होश आ गया। स्नेह से बोली, "अच्छा कीमत बोल दो अब। और देखो, हमें इसी घाटी के हीरे और चाहिए।"
"आपने इन्हें परखा, मेरी मेहनत को देखा, बस आपकी यह हमदर्द मुस्कुराहट ही इनकी कीमत थी और वह मुझे मिल गई।
अब मेरे पास शायद कोई 'आत्म' नहीं बचा, जिसकी हत्या हो जाने का भय हो। चलो, भविष्य के लिए छुट्टी मिली!
किसी ने कहा था कि उस जीवन देने वाले भगवान को कोई हक नहीं है कि हमें तरह-तरह की मानसिक यातनाओं से गुजरता देख-देखकर बैठा-बैठा मुस्कराए, हमारी मजबूरियों पर हँसे। मैं अपने आपसे लड़ता रहूँ, छटपटाता रहूँ, जैसे पानी में पड़ी चींटी छटपटाती है, और किनारे पर खड़े शैतान बच्चे की तरह मेरी चेष्टाओं पर 'वह' किलकारियाँ मारता रहे! नहीं, मैं उसे यह क्रूर आनंद नहीं दे पाऊँगा और उसका जीवन उसे लौटा दूँगा। मुझे इन निरर्थक परिस्थितियों के चक्रव्यूह में डालकर तू खिलवाड़ नहीं कर पाएगा कि हल तो मेरी मुट्ठी में बंद है ही। सही है, कि माँ के पेट में ही मैंने सुन लिया था कि चक्रव्यूह तोड़ने का रास्ता क्या है, और निकलने का तरीका मैं नहीं जानता था.... लेकिन निकल कर ही क्या होगा? किस शिव का धनुष मेरे बिना अनटूटा पड़ा है? किस अपर्णा सती की वरमालाएँ मेरे बिना सूख-सूखकर बिखरी जा रही हैं? किस एवरेस्ट की चोटियाँ मेरे बिना अछूती बिलख रही हैं? जब तूने मुझे जीवन दिया है तो 'अहं' भी दिया है, 'मैं हूँ' का बोध भी दिया है, और मेरे उस 'मैं' को हक है कि वह किसी भी चक्रव्यूह को तोड़ कर घुसने और निकलने से इंकार कर दे..... और इस तरह तेरे इस बर्बर मनोरंजन की शुरूआत ही न होने दे.....
और इसीलिए मैं आत्महत्या करने गया था, सुना?
किसी ने कहा था कि उस पर कभी विश्वास मत करो, जो तुम्हें नहीं तुम्हारी कला को प्यार करती है, तुम्हारे स्वर को प्यार करती है, तुम्हारी महानता और तुम्हारे धन को प्यार करती है। क्योंकि वह कहीं भी तुम्हें प्यार नहीं करती। तुम्हारे पास कुछ है जिससे उसे मुहब्बत है। तुम्हारे पास कला है; हृदय है, मुस्कराहट है, स्वर है, महानता है, धन है और उसी से उसे प्यार है; तुमसे नहीं। और जब तुम उसे वह सब नहीं दे पाओगे तो दीवाला निकले शराबखाने की तरह वह किसी दूरे मैकदे की तलाश कर लेगी और तुम्हें लगेगा कि तुम्हारा तिरस्कार हुआ। एक दिन यही सब बेचनेवाला दूसरा दूकानदार उसे इसी बाजार में मिल जाएगा और वह हर पुराने को नए से बदल लेगी, हर बुरे को अच्छे से बदल लेगी, और तुम चिलचिलाते सीमाहीन रेगिस्तान में अपने को अनाथ और असहाय बच्चे-सा प्यासा और अकेला पाओगे.... तुम्हारे सिर पर छाया का सुरमई बादल सरककर आगे बढ़ गया होगा और तब तुम्हें लगेगा कि बादल की उस श्यामल छाया ने तुम्हें ऐसी जगह ला छोड़ा है जहाँ से लौटने का रास्ता तुम्हें खुद नहीं मालूम.... जहाँ तुममें न आगे बढ़ने की हिम्मत है, न पीछे लौटने की ताकत। तब यह छलावा और स्वप्न-भंग खुद मंत्र-टूटे साँप-सा पलटकर तुम्हारी ही एड़ी में अपने दाँत गड़ा देगा और नस-नस से लपकती हुई नीली लहरों के विष बुझे तीर तुम्हारे चेतना के रथ को छलनी कर डालेंगे और तुम्हारे रथ के टूटे पहिए तुम्हारी ढाल का काम भी नहीं दे पाएंगे.... कोई भीम तब तुम्हारी रक्षा को नहीं आएगा।
क्योंकि इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता तुम्हें किसी अर्जुन ने नहीं बताया- इसीलिए मुझे आत्महत्या कर लेनी पड़ी और फिर मैं लौट आया- अपने लिए नहीं, परीक्षित के लिए, ताकि वह हर साँस से मेरी इस हत्या का बदला ले सके, हर तक्षक को यज्ञ की सुगंधित रोशनी तक खींच लाए।
मुझे याद है : मैं बड़े ही स्थिर कदमों से बांद्रा पर उतरा था और टहलता हुआ 'सी' रूट के स्टैंड पर आ खड़ा हुआ था। सागर के उस एकांत किनारे तक जाने लायक पैसे जेब में थे। पास ही मजदूरों का एक बड़ा-सा परिवार धूलिया फुटपाथ पर लेटा था। धुआंते गड्ढे जैसे चूल्हे की रोशनी में एक धोती में लिपटी छाया पीला-पीला मसाला पीस रही थी। चूल्हे पर कुछ खदक रहा था। पीछे की टूटी बाउंड्री से कोई झूमती गुन-गुनाहट निकली और पुल के नीचे से रोशनी-अँधेरे के चारखाने के फीते-सी रेल सरकती हुई निकल गई-विले पार्ले के स्टेशन पर मेरे पास कुछ पाँच आने बचे थे।
घोड़ाबंदर के पार जब दस बजे वाली बस सीधी बैंड स्टैंड की तरफ दौड़ी तो मैंने अपने-आपसे कहा -"वॉट डू आई केयर? मैं किसी की चिंता नहीं करता!"
और जब बस अंतिम स्टेज पर आकर खड़ी हो गई तो मैं ढालू सड़क पार कर सागर-तट के ऊबड़-खाबड़ पत्थरों पर उतर पड़ा। ईरानी रेस्त्रां की आसमानी नियोन लाइटें किसी लाइटहाउस की दिशा देती पुकार जैसी लग रही थीं,.... नहीं, मुझे अब कोई पुकार नहीं सुननी.... कोई और अप्रतिरोध पुकार है जो इससे ज्यादा जोर से मुझे खींच रही है। दौड़ती बस में सागर की सीली-सीली हवाओं में आती यह गंभीर पुकार कैसी फुरहरी पैदा करती थी। और मैं ऊँचे-नीचे पत्थरों के ढोकों पर पाँव रखता हुआ बिल्कुल लहरों के पास तक चला आया था। अँधेरे के काले-काले बालों वाली आसमानी छाती के नीचे भिंचा सागर सुबक-सुबककर रो रहा था, लंबी-लंबी साँसें लेता लहर-लहर में उमड़ा पड़ रहा था। रोशनी की आड़ में पत्थर के एक बडे से टुकड़े के पीछे जाने के लिए मैं बढ़ा तो देखा कि वहाँ आपस में सटी दो छायाएँ पहले से बैठी हैं 'ईवनिंग इन पेरिस' की खुशबू पर अनजाने ही मुस्कराता मैं दूसरी ओर बढ़ आया। हाँ, यही जगह ठीक है, यहाँ से अब कोई नहीं दीखता। धम से बैठ गया था। सामने ही सागर की वह सीमा थी जहाँ लहरों से अजगर फन पटक-पटक फुफकार उठते थे और रूपहले फेनों की गोटें सागर की छाती पर यहाँ-वहाँ अँधेरे में दमक उठती थीं। पानी की बौछार की तरह छींटे शरीर को भिगो जाते थे और पास की दरारवाली नाली में झागदार पानी उफन उठता था।
सब कुछ कैसा निस्तब्ध था! कितना व्याकुल था! हाँ, यही तो जगह है जो आत्महत्या-जैसे कामों के लिए ठीक मानी गई है। किसी को पता भी नहीं लगेगा। सागर की गरज में कौन सुनेगा कि क्या हुआ और बड़े-बड़े विज्ञापनों के नीचे एक पतली-सी लाइन में निकली इस सूचना को कौन पढ़ेगा? इस विराट बंबई में एक आदमी रहा, न रहा। मैंने जरा झाँककर देखा- मछुओं के पास वाले गिरजे से लेकर ईरानी रेस्त्रां के पास वाले मंडप तक, सड़क सुनसान लेटी थी। बंगलों की खिडकियाँ चमक रही थीं और सफेद कपड़ों के एकाध धब्बे-से कहीं-कहीं आदमियों का आभास होता था। रात का आनंद लेने वालों को लिए टैक्सी इधर चली आ रही थी।
असल में मैं आत्महत्या करने नहीं आया था। मैं तो चाहता था कोई मरघट-जैसी शांत जगह, जहाँ थोड़ी देर यों ही चुपचाप बैठा जा सके। यह दिमाग में भरा सीसे-सा भारी बोझ कुछ तो हल्का हो, यह साँस-साँस में रड़कती सुनाई की नोक-सा दर्द कुछ तो थमे। लहरें सिर फटककर-फटककर रो रही थीं और पानी कराह उठता था। घायल चील-सी हवा इस क्षितिज तक चीखती फिरती थी। आज सागर-मंथन जोरों पर था। चारों ओर भीषण गरजते अँधेरे की घाटियों में दैत्यवाहिनी की सफें की सफें मार्च करती निकल जाती थीं। दूर, बहुत दूर, बस दो चार बत्तियाँ कभी-कभी लहरों के नीचे होते ही झिलमिला उठती थीं। बाईं ओर नगर की बत्तियों की लाइन चली गई थी। सामने शायद कोई जहाज खड़ा है, बत्तियों से तो ऐसा लगता है। इस चिंघाड़ते एकांत में, मान लो, एक लहर जरा-सी करवट बदलकर झपट पड़े तो...? किसे पता चलेगा कि कल यहाँ, इस ढोंके की आड़ में, कोई अपना बोझ सागर को सौंपने आया था, एक पिसा हुआ भुनगा। मगर आखिर मैं जियूँ ही क्यों? किसके लिए? इस जिंदगी ने मुझे क्या दिया? वहीं अनथक संघर्ष स्वप्न भंग, विश्वासघात और जलालत। सब मिलाकर आपस में गुत्थम-गुत्था करते दुहरे-तिहरे व्यक्तित्व, एक वह जो मैं बनना चाहता था, एक वह जो मुझे बनना पड़ता था...
और उस समय मन में आया था कि, क्यों नहीं कोई लहर आगे बढ़कर मुझे पीस डालती? थोड़ी देर और बैठूँगा, अगर इस ज्वार में आए सागर की लहर जब भी आगे नहीं आई तो मैं खुद उसके पास जाऊँगा। और अपने को उसे सौंप दूँगा..... कोई आवेश नहीं, कोई उत्तेजना नहीं, स्थिर और दृढ़... खूब सोच-विचार के बाद....
अँधेरे के पार से दीखती रोशनी के इस गुच्छे को देख-देखकर जाने क्यों मुझे लगता है कि कोई जहाज है जो वहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। जाने किन-किन किनारों को छूता हुआ आया है यहाँ लंगर डाले खड़ा है कि मैं आऊँ और वह चल पड़े। यहाँ से दो-तीन मील तो होगा ही। कहीं उसी में जाने के लिए तो मैं अनजाने रूप से नहीं आ गया... क्योंकि वह मुझे लेने आएगा यह मुझे मालूम था। दिन-भर उस जानने को मैं झुठलाता रहा और अब आखिर रात के साढ़े दस बजे बंबई की लंबी-चौड़ी सड़कें, और कंधे रगड़ती भीड़ें चीरता हुआ मैं यहाँ चला आया हूँ। जाने कौन मन में घिसे रिकार्ड-सा दिनभर दुहराता रहा है कि मुझे यहाँ जाना है। अनजान पहाड़ों की खूंख्वार तलहटियों से आती यह आवाज हातिम ने सुनी थी और वह सारे जाल-जंजाल को तोड़कर उस आवाज के पीछे-पीछे चला गया था। जाने क्यों मैंने भी तो जब-जब पहाड़ों के चीड़ और देवदारू-लदे ढलवानों पर चकमक करती बर्फानी चोटियों और लहराते रेशम से फैले सागर की तरंगों को आँख भरकर देखा है, मुझे यही आवाज सुनाई दी है और मुझे लगा है कि उस आवाज को मैं अनसुनी नहीं कर पाऊँगा। हिप्नोटाइज्ड की तरह दोनों बाँहें खोलकर अपने को इस आवाज को सौंप दूँगा। अब भी इसी पुकार पर मैं अपने-आपको पहाड़ की चोटी से छलांग लगाकर लहरों तक आते देख रहा हूँ। वह जहाज मेरी राह में जो खड़ा है, मैं आवाज देकर उन्हें बता देना चाहता हूँ कि देखो, मैं आ गया हूँ.... देखो, मैं यहाँ बैठा हूँ, मुझे लिए बिना मत जाना।
मुझे लगता है एक छोटी-सी डोंगी अभी जहाज से नीचे उतार दी जाएगी और मुझे अपनी ओर आती दिखाई देगी...बस, उस लहर के झुकते ही तो दीख जाएगी। उसमें एक अकेली लालटेन वाली नाव! कहाँ पढ़ा था? हाँ याद आया, चेखव की 'कुत्तेवाली महिला' में ऐसा ही दृश्य है जो एक अजीब कवित्वपूर्ण छाप छोड़ गया है मन पर.....गुरोव और सर्जिएव्ना को मैं भूल गया हूँ (अभी तो देखा था उस पत्थर की आड़ में) मगर इस फुफकारते सागर को देखकर मेरा सारा अस्तित्व सिहर उठता है। यह गुर्राते शेर-सी गरज और रह-रहकर मूसलाधार पानी की तरह दौड़ती लहरों की वल्गा-हीन उन्मत्त अश्व-पंक्तियाँ। मुझे इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता कोई नहीं बताता? अलीबाबा के भाई की तरह मैंने भीतर जाने के सारे रास्ते पा लिए हैं लेकिन उस 'सिम-सिम खुला जा' मंत्र को मैं भूल गया हूँ जिससे बाहर निकलने का रास्ता खुलता है। लेकिन मैं उस चक्रव्यूह में क्यों घुसा? कौन-सी पुकार थी जो उस नौजवान को अनजान देश की शहजादी के महलों तक ले आई थी?
दूर सतखण्डे की हाथीदांती खिड़की से झाँकती शहजादी ने इशारे से बुलाया और नौजवान न जाने कितने गलियारे और बारहदरियाँ लाँघता शाहजादी के महलों में जा पहुँचा। सारे दरवाजे खुद-बखुद खुलते गए। आगे झुके हुए ख्वाजासराओं के बिछाए ईरानी कालीन और किवाड़ों के पीछे छिपी कनीजों के हाथ उसे हाथों-हाथ लिये चले गए; और नौजवान शाहजादी के सामने था....ठगा और मंत्र-मुग्ध।
शाहजादी ने उसे तोला; अपने जादू और सम्मोहन को देखा और मुस्करा पड़ी। नौजवान होश में आ गया। हकला कर बोला, "हीरे बेचता हूँ, जहाँपनाह।"
"हाँ, हमें हीरों का शौक है और हमने तुम्हारे हीरों की तारीफ सुनी है।"
और उसकी चमड़े की थैली के चमकते अंगारे शाहजादी की गुलाबी हथेली पर यों जगमगा उठे जैसे कमल पर ओस की बूँदें सतरंगी किरणों में खिलखिला उठें.... उसे हीरों का शौक था। उसे हीरों की तमीज थी। उसके कानों में हीरे थे, उसके केशों मे हीरे थे, कलाइयाँ हीरों से भरी थीं और होठों के मखमल में जगमगाती हीरों पर आँख टिकाने की ताव उस नौजवान में नहीं थी।
"कीमत.....?" सवाल आया।
"कीमत....?"
"कीमत नहीं लोगे क्या?" शाहजादी के स्वर में परिहास मुखर हुआ।
नौजवान सहसा संभल गया, "क्यों नहीं लूँगा हुजूर? यही तो मेरी रोजी है। कीमत नहीं लूँगा तो बूढ़ी माँ और अब्बा को क्या खिलाऊँगा।" लेकिन वह कहीं भीतर अटक गया था। उसकी पेशानी पर पसीना चुहचुहा आया।
"कीमत क्या, बता दे?" किसी ने दुहराया।
"आपसे कैसे अर्ज करूँ कि इनकी कीमत क्या है? जरूरतमंदों और पारखियों के हिसाब से हर चीज की कीमत बदलती रही है। आपको इनका शौक है, आप ज्यादा जानती हैं।"
"फिर भी, बदले में क्या चाहोगे?" शाहजादी ने फिर पारखी निगाह से हीरों को तोला। उसकी आवाज दबी थी, "लगते तो काफी कीमती हैं।"
"हुजूर, जो मुनासिब समझें। खुदारा, मैं सचमुच नहीं जानता कि इनकी कीमत आपसे क्या माँग लूँ? आप एक दीनार देंगी, मुझे मंजूर है।" नौजवान कृतार्थ हो आया।
"फिर भी आखिर, अपनी मेहनत का तो कुछ चाहोगे ही न!" शहजादी की आँखों के हीरे चमकने लगे थे और उनमें प्रशंसा झूम आई थी।
"हीरों को सामने रखकर शाहजादी इनकी मेहनत की कहानी सुनना पसंद करेंगी?" इस बार नौजवान की वाणी में आत्मविश्वास था और उसने गर्दन उठा ली थी। होंठों पर मुस्कुराहट रेंग आई थी।
"तुम लोग ये सब लाते कहाँ से हो?"
"कोहकाफ से!"
"कोहकाफ" सुनकर ताज्जुब से खुले शाहजादी के मुँह की ओर नौजवान ने देखा और बाँहों की मछलियों को हाथों से टटोलते हुए बोला, "तो सुनिए, मेढ़ों और बकरों का एक बड़ा झुंड लेकर में पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर जा पहुँचा। वहाँ उनकों मैंने जिबह कर डाला और उनके गोश्त को अपने बदन पर चारों तरफ इस तरह बाँध लिया कि मैं खुद भी गोश्त की एक भारी लोथ लगने लगा। उसी गलाजत और बदबू में मुझे वहाँ कई दिन बारिश और धूप सहते लेटे रहना पड़ा। तब फिर आँधी की तरह वह उकाब आया जिसका मुझे इंतजार था। चारों ओर एक जलजले का आलम बरपा हो गया था। उसने झपटकर मुझे अपने पंजों में दबोचा और बच्चों को खिलाने के लिए ले चला घोंसले की तरफ।
बीच आसमान में लटकता मैं चला जा रहा आखिर मैंने अपने आपको बहुत ही वसीह खुली घाटी में पाया। यही कोहकाफ था। यहाँ एक चोटी पर मादा उकाब अपने बच्चों को दुलरा रही थी। जैसे ही मैंने जमीन छुई, छुरी की मदद से अपने को फौरन ही उस सड़े गोश्त से अगल कर लिया, और चुपचाप एक चट्टान की आड़ में हो गया। चारों ओर देखा तो मेरी आँखे खुशी से दमकने लगीं। वह घाटी सचमुच हीरों की थी। कितने भरूँ और कितने छोडूँ! मैं सब कुछ भूलकर दोनों हाथों से ही अपनी झोली में भरने लगा। लेकिन यह देखकर मेरी ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई कि चारों तरफ उस घाटी में भयानक अजदहे लहरा रहे थे - उकाब के डर से उस चोटी के पास नहीं आते थे, लेकिन जैसे उस चोटी की रखवाली कर रहे हों। उनकी फुंकारों से सारी घाटी गूँज रही थी।
जलती लपटों-सी जीभें देख-देखकर मेरे तो सारे होश फना हो गए। अब कैसे लौटूँ? आखिर मैंने मौत की परवाह न करके फिर उसी उकाब के साथ वापस आने की सोची और फिर उसके पंजे से जा चिपका। बीच में पकड़ छूट गई; क्योंकि दो दिन लगातार लटके उड़ते रहने से मेरे हाथों ने जवाब दे दिया था। छूटकर जो गिरा तो सीधा समुंदर में जा पड़ा। खैर, किसी तरह एक बहता हुआ तख्त हाथ लगा और उसी के सहारे आपके इस खूबसूरत मुल्क में आ लगा।"
नौजवान की आवाज मैं चुनौती और आत्मविश्वास दोनों थे। "यह मेरी मेहनतकी कहानी है, शाहजादी!"
शाहजादी ने उस जांबाज नौजवान को प्रशंसा की निगाहों से देखा, "आफरीं! सचमुच आदमी तुम हिम्मत वाले हो?" फिर जाने क्या सोचती-सी अनमनी अपलक आँखों से उसे देखती रही- देखती रही और दूर कहीं हीरे की घाटियों में खो गई। वह भूल गई कि उसके होंठों की वह मुस्कराहट अभी तक अन-सिमटी पड़ी है। वहीं कहीं दूर से बोली, "यों चारों तरफ से गलाजत में लिपटे, पंजों में बिंधे अनजानी खूंख्वार अँधेरी घाटियों में उतरते चले जाने में कैसा लगा होगा तुम्हें? और फिर जब तुमने भट्टों-सी जलती अजदहों की आँखे देखी होंगी।" फिर उसे होश आ गया। स्नेह से बोली, "अच्छा कीमत बोल दो अब। और देखो, हमें इसी घाटी के हीरे और चाहिए।"
"आपने इन्हें परखा, मेरी मेहनत को देखा, बस आपकी यह हमदर्द मुस्कुराहट ही इनकी कीमत थी और वह मुझे मिल गई।
अन्तिम प्यार से-रवीन्द्रनाथ टैगोर
आर्ट स्कूल के प्रोफेसर मनमोहन बाबू घर पर बैठे मित्रों के साथ मनोरंजन कर रहे थे, ठीक उसी समय योगेश बाबू ने कमरे में प्रवेश किया।
योगेश बाबू अच्छे चित्रकार थे, उन्होंने अभी थोड़े समय पूर्व ही स्कूल छोड़ा था। उन्हें देखकर एक व्यक्ति ने कहा-योगेश बाबू! नरेन्द्र क्या कहता है, आपने सुना कुछ?
योगेश बाबू ने आराम-कुर्सी पर बैठकर पहले तो एक लम्बी सांस ली, पश्चात् बोले-क्या कहता है?
नरेन्द्र कहता है- बंग-प्रान्त में उसकी कोटि का कोई भी चित्रकार इस समय नहीं है।
ठीक है, अभी कल का छोकरा है न। हम लोग तो जैसे आज तक घास छीलते रहे हैं। झुंझलाकर योगेश बाबू ने कहा।
जो लड़का बातें कर रहा था, उसने कहा-केवल यही नहीं, नरेन्द्र आपको भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता।
योगेश बाबू ने उपेक्षित भाव से कहा-क्यों, कोई अपराध!
वह कहता है आप आदर्श का ध्यान रखकर चित्र नहीं बनाते।
तो किस दृष्टिकोण से बनाता हूं?
दृष्टिकोण...?
रुपये के लिए।
योगेश ने एक आंख बन्द करके कहा-व्यर्थ! फिर आवेश में कान के पास से अपने अस्त-व्यस्त बालों की ठीक कर बहुत देर तक मौन बैठा रहा। चीन का जो सबसे बड़ा चित्रकार हुआ है उसके बाल भी बहुत बड़े थे। यही कारण था कि योगेश ने भी स्वभाव-विरुध्द सिर पर लम्बे-लम्बे बाल रखे हुए थे। ये बाल उसके मुख पर बिल्कुल नहीं भाते थे। क्योंकि बचपन में एक बार चेचक के आक्रमण से उनके प्राण तो बच गये थे। किन्तु मुख बहुत कुरूप हो गया था। एक तो स्याम-वर्ण, दूसरे चेचक के दाग। चेहरा देखकर सहसा यही जान पड़ता था, मानो किसी ने बन्दूक में छर्रे भरकर लिबलिबी दाब दी हो।
कमरे में जो लड़के बैठे थे, योगेश बाबू को क्रोधित देखकर उसके सामने ही मुंह बन्द करके हंस रहे थे।
सहसा वह हंसी योगेश बाबू ने भी देख ली, क्रोधित स्वर में बोले-तुम लोग हंस रहे हो, क्यों?
एक लड़के ने चाटुकारिता से जल्दी-जल्दी कहा-नहीं महाशय! आपको क्रोध आये और हम लोग हंसे, यह भला कभी सम्भव हो सकता है?
ऊंह! मैं समझ गया, अब अधिक चातुर्य की आवश्यकता नहीं। क्या तुम लोग यह कहना चाहते हो कि अब तक तुम सब दांत निकालकर रो रहे थे, मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूं? यह कहकर उन्होंने आंखें बन्द कर ली।
लड़कों ने किसी प्रकार हंसी रोककर कहा-चलिए यों ही सही, हम हंसते ही थे और रोते भी क्यों? पर हम नरेन्द्र के पागलपन को सोचकर हंसते थे। वह देखो मास्टर साहब के साथ नरेन्द्र भी आ रहा है।
मास्टर साहब के साथ-साथ नरेन्द्र भी कमरे में आ गया।
योगेश ने एक बार नरेन्द्र की ओर वक्र दृष्टि से देखकर मनमोहन बाबू से कहा-महाशय! नरेन्द्र मेरे विषय में क्या कहता है?
मनमोहन बाबू जानते थे कि उन दोनों की लगती है। दो पाषाण जब परस्पर टकराते हैं तो अग्नि उत्पन्न हो ही जाती है। अतएव वह बात को संभालते, मुस्कराते-से बोले-योगेश बाबू, नरेन्द्र क्या कहता है?
नरेन्द्र कहता है कि मैं रुपये के दृष्टिकोण से चित्र बनाता हूं। मेरा कोई आदर्श नहीं है?
मनमोहन बाबू ने पूछा- क्यों नरेन्द्र?
नरेन्द्र अब तक मौन खड़ा था, अब किसी प्रकार आगे आकर बोला-हां कहता हूं, मेरी यही सम्मति है।'
योगेश बाबू ने मुंह बनाकर कहा- बड़े सम्मति देने वाले आये। छोटे मुंह बड़ी बात। अभी कल का छोकरा और इतनी बड़ी-बड़ी बातें।
मनमोहन बाबू ने कहा-योगेश बाबू जाने दीजिए, नरेन्द्र अभी बच्चा है, और बात भी साधारण है। इस पर वाद-विवाद की क्या आवश्यकता है?
योगेश बाबू उसी तरह आवेश में बोले-बच्चा है। नरेन्द्र बच्चा है। जिसके मुंह पर इतनी बड़ी-बड़ी मूंछें हों, वह यदि बच्चा है तो बूढ़ा क्या होगा? मनमोहन बाबू! आप क्या कहते हैं?
एक विद्यार्थी ने कहा-महाशय, अभी जरा देर पहले तो आपने उसे कल का छोकरा बताया था।
योगेश बाबू का मुख क्रोध से लाल हो गया, बोले-कब कहा था?
अभी इससे ज़रा देर पहले।'
झूठ! बिल्कुल झूठ!! जिसकी इतनी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं उसे छोकरा कहूं, असम्भव है। क्या तुम लोग यह कहना चाहते हो कि मैं बिल्कुल मूर्ख हूं।
सब लड़के एक स्वर से बोले-नहीं, महाशय! ऐसी बात हम भूलकर भी जिह्ना पर नहीं ला सकते।
मनमोहन बाबू किसी प्रकार हंसी को रोककर बोले- चुप-चुप! गोलमाल न करो।
योगेश बाबू ने कहा- हां नरेन्द्र! तुम यह कहते हो कि बंग-प्रान्त में तुम्हारी टक्कर का कोई चित्रकार नहीं है।
नरेन्द्र ने कहा-आपने कैसे जाना?
तुम्हारे मित्रों ने कहा।
मैं यह नहीं कहता। तब भी इतना अवश्य कहूंगा कि मेरी तरह हृदय-रक्त पीकर बंगाल में कोई चित्र नहीं बनाता।
इसका प्रमाण?
नरेन्द्र ने आवेशमय स्वर में कहा- प्रमाण की क्या आवश्यकता है? मेरा अपना यही विचार है।
तुम्हारा विचार असत्य है।
नरेन्द्र बहुत कम बोलने वाला व्यक्ति था। उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
मनमोहन बाबू ने इस अप्रिय वार्तालाप को बन्द करने के लिए कहा- नरेन्द्र इस बार प्रदर्शनी के लिए तुम चित्र बनाओगे ना?
नरेन्द्र ने कहा- विचार तो है।
देखूंगा तुम्हारा चित्र कैसा रहता है?
नरेन्द्र ने श्रध्दा-भाव से उनकी पग-धूलि लेकर कहा- जिसके गुरु आप हैं उसे क्या चिन्ता? देखना सर्वोत्तम रहेगा।
योगेश बाबू ने कहा- राम से पहले रामायण! पहले चित्र बनाओ फिर कहना।
नरेन्द्र ने मुंह फेरकर योगेश बाबू की ओर देखा, कहा कुछ भी नहीं, किन्तु मौन भाव और उपेक्षा ने बातों से कहीं अधिक योगेश के हृदय को ठेस पहुंचाई।
मनमोहन बाबू ने कहा- योगेश बाबू, चाहे आप कुछ भी कहें मगर नरेन्द्र को अपनी आत्मिक शक्ति पर बहुत बड़ा विश्वास है। मैं दृढ़ निश्चय से कह सकता हूं कि यह भविष्य में एक बड़ा चित्रकार होगा।'
नरेन्द्र धीरे-धीरे कमरे से बाहर चला गया।
एक विद्यार्थी ने कहा- प्रोफेसर साहब, नरेन्द्र में किसी सीमा तक विक्षिप्तता की झलक दिखाई देती है।'
मनमोहन बाबू ने कहा- हां, मैं भी मानता हूं। जो व्यक्ति अपने घाव अच्छी तरह प्रकट करने में सफल हो जाता है, उसे सर्व-साधारण किसी सीमा तक विक्षिप्त समझते हैं। चित्र में एक विशेष प्रकार का आकर्षण तथा मोहकता उत्पन्न करने की उसमें असाधारण योग्यता है। तुम्हें मालूम है, नरेन्द्र ने एक बार क्या किया था? मैंने देखा कि नरेन्द्र के बायें हाथ की उंगली से खून का फव्वारा छूट रहा है और वह बिना किसी कष्ट के बैठा चित्र बना रहा है। मैं तो देखकर चकित रह गया। मेरे मालूम करने पर उसने उत्तर दिया कि उंगली काटकर देख रहा था कि खून का वास्तविक रंग क्या है? अजीब व्यक्ति है। तुम लोग इसे विक्षिप्तता कह सकते हो, किन्तु इसी विक्षिप्तता के ही कारण तो वह एक दिन अमर कलाकार कहलायेगा।
योगेश बाबू आंख बन्द करके सोचने लगे। जैसे गुरु वैसे चेले दोनों के दोनों पागल हैं।
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नरेन्द्र सोचते-सोचते मकान की ओर चला-मार्ग में भीड़-भाड़ थी। कितनी ही गाड़ियां चली जा रही थीं; किन्तु इन बातों की ओर उसका ध्यान नहीं था। उसे क्या चिन्ता थी? सम्भवत: इसका भी उसे पता न था।
वह थोड़े समय के भीतर ही बहुत बड़ा चित्रकार हो गया, इस थोड़े-से समय में वह इतना सुप्रसिध्द और सर्व-प्रिय हो गया था कि उसके ईष्यालु मित्रों को अच्छा न लगा। इन्हीं ईष्यालु मित्रों में योगेश बाबू भी थे। नरेन्द्र में एक विशेष योग्यता और उसकी तूलिका में एक असाधारण शक्ति है। योगेश बाबू इसे दिल-ही-दिल में खूब समझते थे, परन्तु ऊपर से उसे मानने के लिए तैयार न थे।
इस थोड़े समय में ही उसका इतनी प्रसिध्दि प्राप्त करने का एक विशेष कारण भी था। वह यह कि नरेन्द्र जिस चित्र को भी बनाता था अपनी सारी योग्यता उसमें लगा देता था उसकी दृष्टि केवल चित्र पर रहती थी, पैसे की ओर भूलकर भी उसका ध्यान नहीं जाता था। उसके हृदय की महत्वाकांक्षा थी कि चित्र बहुत ही सुन्दर हो। उसमें अपने ढंग की विशेष विलक्षणता हो। मूल्य चाहे कम मिले या अधिक। वह अपने विचार और भावनाओं की मधुर रूप-रेखायें अपने चित्र में देखता था। जिस समय चित्र चित्रित करने बैठता तो चारों ओर फैली हुई असीम प्रकृति और उसकी सारी रूप-रेखायें हृदय-पट से गुम्फित कर देता। इतना ही नहीं; वह अपने अस्तित्व से भी विस्मृत हो जाता। वह उस समय पागलों की भांति दिखाई पड़ता और अपने प्राण तक उत्सर्ग कर देने से भी उस समय सम्भवत: उसको संकोच न होता। यह दशा उस समय की एकाग्रता की होती। वास्तव में इसी कारण से उसे यह सम्मान प्राप्त हुआ। उसके स्वभाव में सादगी थी, वह जो बात सादगी से कहता, लोग उसे अभिमान और प्रदर्शनी से लदी हुई समझते। उसके सामने कोई कुछ न कहता परन्तु पीछे-पीछे लोग उसकी बुराई करने से न चूकते, सब-के-सब नरेन्द्र को संज्ञाहीन-सा पाते, वह किसी बात को कान लगाकर न सुनता, कोई पूछता कुछ और वह उत्तर देता कुछ और ही। वह सर्वदा ऐसा प्रतीत होता जैसे अभी-अभी स्वप्न देख रहा था और किसी ने सहसा उसे जगा दिया हो, उसने विवाह किया और एक लड़का भी उत्पन्न हुआ, पत्नी बहुत सुन्दर थी, परन्तु नरेन्द्र को गार्हस्थिक जीवन में किसी प्रकार का आकर्षण न था, तब भी उसका हृदय प्रेम का अथाह सागर था, वह हर समय इसी धुन में रहता था कि चित्रकला में प्रसिध्दि प्राप्त करे। यही कारण था कि लोग उसे पागल समझते थे। किसी हल्की वस्तु को यदि पानी में जबर्दस्ती डुबो दो तो वह किसी प्रकार भी न डूबेगी, वरन ऊपर तैरती रहेगी। ठीक यही दशा उन लोगों की होती है जो अपनी धुन के पक्के होते हें। वे सांसारिक दु:ख-सुख में किसी प्रकार डूबना नहीं जानते। उनका हृदय हर समय कार्य की पूर्ति में संलग्न रहता है।
नरेन्द्र सोचते-सोचते अपने मकान के सामने आ खड़ा हुआ। उसने देखा कि द्वार के समीप उसका चार साल का बच्चा मुंह में उंगली डाले किसी गहरी चिन्ता में खड़ा है। पिता को देखते ही बच्चा दौड़ता हुआ आया और दोनों हाथों से नरेन्द्र को पकड़कर बोला- बाबूजी!
क्यों बेटा?
बच्चे ने पिता का हाथ पकड़ लिया और खींचते हुए कहा- बाबूजी, देखो हमने एक मेंढक मारा है जो लंगड़ा हो गया है...
नरेन्द्र ने बच्चे को गोद में उठाकर कहा-तो मैं क्या करूं? तू बड़ा पाजी है।
बच्चे ने कहा- वह घर नहीं जा सकता-लंगड़ा हो गया है, कैसे जाएगा? चलो उसे गोद में उठाकर घर पहुंचा दो।
नरेन्द्र ने बच्चे को गोद में उठा लिया और हंसते-हंसते घर में ले गया।
3
एक दिन नरेन्द्र को ध्यान आया कि इस बार की प्रदर्शनी में जैसे भी हो अपना एक चित्र भेजना चाहिए। कमरे की दीवार पर उसके हाथ के कितने ही चित्र लगे हुए थे। कहीं प्राकृतिक दृश्य, कहीं मनुष्य के शरीर की रूप-रेखा, कहीं स्वर्ण की भांति सरसों के खेत की हरियाली, जंगली मनमोहक दृश्यावलि और कहीं वे रास्ते जो छाया वाले वृक्षों के नीचे से टेढ़े-तिरछे होकर नदी के पास जा मिलते थे। धुएं की भांति गगनचुम्बी पहाड़ों की पंक्ति, जो तेज धूप में स्वयं झुलसी जा रही थीं और सैकड़ों पथिक धूप से व्याकुल होकर छायादार वृक्षों के समूह में शरणार्थी थे, ऐसे कितने ही दृश्य थे। दूसरी ओर अनेकों पक्षियों के चित्र थे। उन सबके मनोभाव उनके मुखों से प्रकट हो रहे थे। कोई गुस्से में भरा हुआ, कोई चिन्ता की अवस्था में तो कोई प्रसन्न-मुख।
कमरे के उत्तरीय भाग में खिड़की के समीप एक अपूर्ण चित्र लगा हुआ था; उसमें ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप सर्वदा मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी। उसके होंठों और मुख की रेखाओं में चित्रकार ने हृदय की पीड़ा अंकित की थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो चित्र बोलना चाहता है, किन्तु यौवन अभी उसके शरीर में पूरी तरह प्रस्फुटित नहीं हुआ है।
इन सब चित्रों में चित्रकार के इतने दिनों की आशा और निराशा मिश्रित थी, परन्तु आज उन चित्रों की रेखाओं और रंगों ने उसे अपनी ओर आकर्षित न किया। उसके हृदय में बार-बार यही विचार आने लगे कि इतने दिनों उसने केवल बच्चों का खेल किया है। केवल कागज के टुकड़ों पर रंग पोता है। इतने दिनों से उसने जो कुछ रेखाएं कागज पर खींची थीं, वे सब उसके हृदय को अपनी ओर आकर्षित न कर सकी, क्योंकि उसके विचार पहले की अपेक्षा बहुत उच्च थे। उच्च ही नहीं बल्कि बहुत उच्चतम होकर चील की भांति आकाश में मंडराना चाहते थे। यदि वर्षा ऋतु का सुहावना दिन हो तो क्या कोई शक्ति उसे रोक सकती थी? वह उस समय आवेश में आकर उड़ने की उत्सुकता में असीमित दिशाओं में उड़ जाता। एक बार भी फिरकर नहीं देखता। अपनी पहली अवस्था पर किसी प्रकार भी वह सन्तुष्ट नहीं था। नरेन्द्र के हृदय में रह-रहकर यही विचार आने लगा। भावना और लालसा की झड़ी-सी लग गई।
उसने निश्चय कर लिया कि इस बार ऐसा चित्र बनाएगा। जिससे उसका नाम अमर हो जाये। वह इस वास्तविकता को सबके दिलों में बिठा देना चाहता था कि उसकी अनुभूति बचपन की अनुभूति नहीं है।
मेज पर सिर रखकर नरेन्द्र विचारों का ताना-बाना बुनने लगा। वह क्या बनायेगा? किस विषय पर बनायेगा? हृदय पर आघात होने से साधारण प्रभाव पड़ता है। भावनाओं के कितने ही पूर्ण और अपूर्ण चित्र उसकी आंखों के सामने से सिनेमा-चित्र की भांति चले गये, परन्तु किसी ने भी दमभर के लिए उसके ध्यान को अपनी ओर आकर्षित न किया। सोचते-सोचते सन्ध्या के अंधियारे में शंख की मधुर ध्वनि ने उसको मस्त कर देने वाला गाना सुनाया। इस स्वर-लहरी से नरेन्द्र चौंककर उठ खड़ा हुआ। पश्चात् उसी अंधकार में वह चिन्तन-मुद्रा में कमरे के अन्दर पागलों की भांति टहलने लगा। सब व्यर्थ! महान प्रयत्न करने के पश्चात् भी कोई विचार न सूझा।
रात बहुत जा चुकी थी। अमावस्या की अंधेरी में आकाश परलोक की भांति धुंधला प्रतीत होता था। नरेन्द्र कुछ खोया-खोया-सा पागलों की भांति उसी ओर ताकता रहा।
बाहर से रसोइये ने द्वार खटखटाकर कहा- बाबूजी!
चौंककर नरेन्द्र ने पूछा- कौन है?
बाबूजी भोजन तैयार है, चलिये।
झुंझलाते हुए नरेन्द्र ने कटु स्वर में कहा- मुझे तंग न करो। जाओ मैं इस समय न खाऊंगा।
कुछ थोड़ा-सा।
मैं कहता हूं बिल्कुल नहीं। और निराश-मन रसोइया भारी कदमों से वापस लौट गया और नरेन्द्र ने अपने को चिन्तन-सागर में डुबो दिया। दुनिया में जिसको ख्याति प्राप्त करने का व्यसन लग गया हो उसको चैन कहां?
4
एक सप्ताह बीत गया। इस सप्ताह में नरेन्द्र ने घर से बाहर कदम न निकाला। घर में बैठा सोचता रहता- किसी-न-किसी मन्त्र से तो साधना की देवी अपनी कला दिखाएगी ही।
इससे पूर्व किसी चित्र के लिऐ उसे विचार-प्राप्ति में देर न लगती थी, परन्तु इस बार किसी तरह भी उसे कोई बात न सूझी। ज्यों-ज्यों दिन व्यतीत होते जाते थे वह निराश होता जाता था? केवल यही क्यों? कई बार तो उसने झुंझलाकर सिर के बाल नोंच लिये। वह अपने आपको गालियां देता, पृथ्वी पर पेट के बल पड़कर बच्चों की तरह रोया भी परंतु सब व्यर्थ।
प्रात:काल नरेन्द्र मौन बैठा था कि मनमोहन बाबू के द्वारपाल ने आकर उसे एक पत्र दिया। उसने उसे खोलकर देखा। प्रोफेसर साहब ने उसमें लिखा था-
प्रिय नरेन्द्र,
प्रदर्शनी होने में अब अधिक दिन शेष नहीं हैं। एक सप्ताह के अन्दर यदि चित्र न आया तो ठीक नहीं। लिखना, तुम्हारी क्या प्रगति हुई है और तुम्हारा चित्र कितना बन गया है?
योगेश बाबू ने चित्र चित्रित कर दिया है। मैंने देखा है, सुन्दर है, परन्तु मुझे तुमसे और भी अच्छे चित्र की आशा है। तुमसे अधिक प्रिय मुझे और कोई नहीं। आशीर्वाद देता हूं, तुम अपने गुरु की लाज रख सको।
इसका ध्यान रखना। इस प्रदर्शनी में यदि तुम्हारा चित्र अच्छा रहा तो तुम्हारी ख्याति में कोई बाधा न रहेगी। तुम्हारा परिश्रम सफल हो, यही कामना है।
-मनमोहन
पत्र पढ़कर नरेन्द्र और भी व्याकुल हुआ। केवल एक सप्ताह शेष है और अभी तक उसके मस्तिष्क में चित्र के विषय में कोई विचार ही नहीं आया। खेद है अब वह क्या करेगा?
उसे अपने आत्म-बल पर बहुत विश्वास था, पर उस समय वह विश्वास भी जाता रहा। इसी तुच्छ शक्ति पर वह दस व्यक्तियों में सिर उठाए फिरता रहा?
उसने सोचा था अमर कलाकार बन जाऊंगा, परन्तु वाह रे दुर्भाग्य! अपनी अयोग्यता पर नरेन्द्र की आंखों में आंसू भर आये।
5
रोगी की रात जैसे आंखों में निकल जाती है उसकी वह रात वैसे ही समाप्त हुई। नरेन्द्र को इसका तनिक भी पता न हुआ। उधर वह कई दिनों से चित्रशाला ही में सोया था। नरेन्द्र के मुख पर जागरण के चिन्ह थे। उसकी पत्नी दौड़ी-दौड़ी आई और शीघ्रता से उसका हाथ पकड़कर बोली- अजी बच्चे को क्या हो गया है, आकर देखो तो।
नरेन्द्र ने पूछा- क्या हुआ?
पत्नी लीला हांफते हुए बोली- शायद हैजा! इस प्रकार खड़े न रहो, बच्चा बिल्कुल अचेत पड़ा है।
बहुत ही अनमने मन से नरेन्द्र शयन-कक्ष में प्रविष्ट हुआ।
बच्चा बिस्तर से लगा पड़ा था। पलंग के चारों ओर उस भयानक रोग के चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे थे। लाल रंग दो घड़ी में ही पीला हो गया था। सहसा देखने से यही ज्ञात होता था जैसे बच्चा जीवित नहीं है। केवल उसके वक्ष के समीप कोई वस्तु धक-धक कर रही थी, और इस क्रिया से ही जीवन के कुछ चिन्ह दृष्टिगोचर होते थे।
वह बच्चे के सिरहाने सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
लीला ने कहा- इस तरह खड़े न रहो। जाओ, डॉक्टर को बुला लाओ।
मां की आवाज सुनकर बच्चे ने आंखें मलीं। भर्राई हुई आवाज में बोला- मां! ओ मां!!
मेरे लाल! मेरी पूंजी। क्या कह रहा है? कहते-कहते लीला ने दोनों हाथों से बच्चे को अपनी गोद से चिपटा लिया। मां के वक्ष पर सिर रखकर बच्चा फिर पड़ा रहा।
नरेन्द्र के नेत्र सजल हो गए। वह बच्चे की ओर देखता रहा।
लीला ने उपालम्भमय स्वर में कहा-अभी तक डॉक्टर को बुलाने नहीं गये?
नरेन्द्र ने दबी आवाज में कहा-ऐं...डॉक्टर?
पति की आवाज का अस्वाभाविक स्वर सुनकर लीला ने चकित होते हुए कहा-क्या?
कुछ नहीं।
जाओ, डॉक्टर को बुला लाओ।
अभी जाता हूं।
नरेन्द्र घर से बाहर निकला।
घर का द्वार बन्द हुआ। लीला ने आश्चर्य-चकित होकर सुना कि उसके पति ने बाहर से द्वार की जंजीर खींच ली और वह सोचती रही- यह क्या?
6
नरेन्द्र चित्रशाला में प्रविष्ट होकर एक कुर्सी पर बैठ गया।
दोनों हाथों से मुंह ढांपकर वह सोचने लगा। उसकी दशा देखकर ऐसा लगता था कि वह किसी तीव्र आत्मिक पीड़ा से पीड़ित है। चारों ओर गहरे सूनेपन का राज्य था। केवल दीवार लगी हुई घड़ी कभी न थकने वाली गति से टिक-टिक कर रही थी और नरेन्द्र के सीने के अन्दर उसका हृदय मानो उत्तर देता हुआ कह रहा था- धक! धक! सम्भवत: उसके भयानक संकल्पों से परिचित होकर घड़ी और उसका हृदय परस्पर कानाफूसी कर रहे थे। सहसा नरेन्द्र उठ खड़ा हुआ। संज्ञाहीन अवस्था में कहने लगा- क्या करूं? ऐसा आदर्श फिर न मिलेगा, परन्तु ...वह तो मेरा पुत्र है।
वह कहते-कहते रुक गया। मौन होकर सोचने लगा। सहसा मकान के अन्दर से सनसनाते हुए बाण की भांति 'हाय' की हृदयबेधक आवाज उसके कानों में पहुंची।
मेरे लाल! तू कहां गया?
जिस प्रकार चिल्ला टूट जाने से कमान सीधी हो जाती है, चिन्ता और व्याकुलता से नरेन्द्र ठीक उसी तरह सीधा खड़ा हो गया। उसके मुख पर लाली का चिन्ह तक न था, फिर कान लगाकर उसने आवाज सुनी, वह समझ गया कि बच्चा चल बसा।
मन-ही-मन में बोला- भगवान! तुम साक्षी हो, मेरा कोई अपराध नहीं।
इसके बाद वह अपने सिर के बालों को मुट्ठी में लेकर सोचने लगा। जैसे कुछ समय पश्चात् ही मनुष्य निद्रा से चौंक उठता है उसी प्रकार चौंककर जल्दी-जल्दी मेज पर से कागज, तूलिका और रंग आदि लेकर वह कमरे से बाहर निकल गया।
शयन-कक्ष के सामने एक खिड़की के समीप आकर वह अचकचा कर खड़ा हो गया। कुछ सुनाई देता है क्या? नहीं सब खामोश हैं। उस खिड़की से कमरे का आन्तरिक भाग दिखाई पड़ रहा था। झांककर भय से थर-थर कांपते हुए उसने देखा तो उसके सारे शरीर में कांटे-से चुभ गये। बिस्तर उलट-पुलट हो रहा था। पुत्र से रिक्त गोद किए मां वहीं पड़ी तड़प रही थी।
और इसके अतिरिक्त...मां कमरे में पृथ्वी पर लोटते हुए, बच्चे के मृत शरीर को दोनों हाथों से वक्ष:स्थल के साथ चिपटाए, बाल बिखरे, नेत्र विस्फारित किए, बच्चे के निर्जीव होंठों को बार-बार चूम रही थी।
नरेन्द्र की दोनों आंखों में किसी ने दो सलाखें चुभो दी हों। उसने होंठ चबाकर कठिनता से स्वयं को संभाला और इसके साथ ही कागज पर पहली रेखा खींची। उसके सामने कमरे के अन्दर वही भयानक दृश्य उपस्थित था। संभवत: संसार के किसी अन्य चित्रकार ने ऐसा दृश्य सम्मुख रखकर तूलिका न उठाई होगी।
देखने में नरेन्द्र के शरीर में कोई गति न थी, परन्तु उसके हृदय में कितनी वेदना थी? उसे कौन समझ सकता है, वह तो पिता था।
नरेन्द्र जल्दी-जल्दी चित्र बनाने लगा। जीवन-भर चित्र बनाने में इतनी जल्दी उसने कभी न की। उसकी उंगलियां किसी अज्ञात शक्ति से अपूर्व शक्ति प्राप्त कर चुकी थीं। रूप-रेखा बनाते हुए उसने सुना- बेटा, ओ बेटा! बातें करो, बात करो, जरा एक बार तुम देख तो लो?
नरेन्द्र ने अस्फुट स्वर में कहा- उफ! यह असहनीय है। और उसके हाथ से तूलिका छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ी।
किन्तु उसी समय तूलिका उठाकर वह पुन: चित्र बनाने लगा। रह-रहकर लीला का क्रन्दन-रुदन कानों में पहुंचकर हृदय को छेड़ता और रक्त की गति को मन्द करता और उसके हाथ स्थिर होकर उसकी तूलिका की गति को रोक देते।
इसी प्रकार पल-पर-पल बीतने लगे।
मुख्य द्वार से अन्दर आने के लिए नौकरों ने शोर मचाना शुरू कर दिया था, परन्तु नरेन्द्र मानो इस समय विश्व और विश्वव्यापी कोलाहल से बहरा हो चुका था।
वह कुछ भी न सुन सका। इस समय वह एक बार कमरे की ओर देखता और एक बार चित्र की ओर, बस रंग में तूलिका डुबोता और फिर कागज पर चला देता।
वह पिता था, परन्तु कमरे के अन्दर पत्नी के हृदय से लिपटे हुए मृत बच्चे की याद भी वह धीरे-धीरे भूलता जा रहा था।
सहसा लीला ने उसे देख लिया। दौड़ती हुई खिड़की के समीप आकर दुखित स्वर में बोली-क्या डॉक्टर को बुलाया? जरा एक बार आकर देख तो लेते कि मेरा लाल जीवित है या नहीं...यह क्या? चित्र बना रहे हो?
चौंककर नरेन्द्र ने लीला की ओर देखा। वह लड़खड़ाकर गिर रही थी।
बाहर से द्वार खटखटाने और बार-बार चिल्लाने पर भी जब कपाट न खुले, तो रसोइया और नौकर दोनों डर गये। वे अपना काम समाप्त करके प्राय: संध्या समय घर चले जाते थे और प्रात:काल काम करने आ जाते थे। प्रतिदिन लीला या नरेन्द्र दोनों में से कोई-न-कोई द्वार खोल देता था, आज चिल्लाने और खटखटाने पर भी द्वार न खुला। इधर रह-रहकर लीला की क्रन्दन-ध्वनि भी कानों में आ रही थी।
उन लोगों ने मुहल्ले के कुछ व्यक्तियों को बुलाया। अन्त में सबने सलाह करके द्वार तोड़ डाला।
सब आश्चर्य-चकित होकर मकान में घुसे। जीने से चढ़कर देखा कि दीवार का सहारा लिये, दोनों हाथ जंघाओं पर रखे नरेन्द्र सिर नीचा किए हुए बैठा है।
उनके पैरों की आहट से नरेन्द्र ने चौंककर मुंह उठाया। उसके नेत्र रक्त की भांति लाल थे। थोड़ी देर पश्चात् वह ठहाका मारकर हंसने लगा और सामने लगे चित्र की ओर उंगली दिखाकर बोल उठा- डॉक्टर! डॉक्टर!! मैं अमर हो गया।
7
दिन बीतते गये, प्रदर्शनी आरम्भ हो गई।
प्रदर्शनी में देखने की कितनी ही वस्तुएं थीं, परन्तु दर्शक एक ही चित्र पर झुके पड़ते थे। चित्र छोटा-सा था और अधूरा भी, नाम था 'अन्तिम प्यार।'
चित्र में चित्रित किया हुआ था, एक मां बच्चे का मृत शरीर हृदय से लगाये अपने दिल के टुकड़े के चन्दा से मुख को बार-बार चूम रही है।
शोक और चिन्ता में डूबी हुई मां के मुख, नेत्र और शरीर में चित्रकार की तूलिका ने एक ऐसा सूक्ष्म और दर्दनाक चित्र चित्रित किया कि जो देखता उसी की आंखों से आंसू निकल पड़ते। चित्र की रेखाओं में इतनी अधिक सूक्ष्मता से दर्द भरा जा सकता है, यह बात इससे पहले किसी के ध्यान में न आई थी।
इस दर्शक-समूह में कितने ही चित्रकार थे। उनमें से एक ने कहा- देखिए योगेश बाबू, आप क्या कहते हैं?
योगेश बाबू उस समय मौन धारण किए चित्र की ओर देख रहे थे, सहसा प्रश्न सुनकर एक आंख बन्द करके बोले- यदि मुझे पहले से ज्ञात होता तो मैं नरेन्द्र को अपना गुरु बनाता।
दर्शकों ने धन्यवाद, साधुवाद और वाह-वाह की झड़ी लगा दी; परन्तु किसी को भी मालूम न हुआ कि उस सज्जन पुरुष का मूल्य क्या है, जिसने इस चित्र को चित्रित किया है।
किस प्रकार चित्रकार ने स्वयं को धूलि में मिलाकर रक्त से इस चित्र को रंगा है, उसकी यह दशा किसी को भी ज्ञात न हो सकी।
योगेश बाबू अच्छे चित्रकार थे, उन्होंने अभी थोड़े समय पूर्व ही स्कूल छोड़ा था। उन्हें देखकर एक व्यक्ति ने कहा-योगेश बाबू! नरेन्द्र क्या कहता है, आपने सुना कुछ?
योगेश बाबू ने आराम-कुर्सी पर बैठकर पहले तो एक लम्बी सांस ली, पश्चात् बोले-क्या कहता है?
नरेन्द्र कहता है- बंग-प्रान्त में उसकी कोटि का कोई भी चित्रकार इस समय नहीं है।
ठीक है, अभी कल का छोकरा है न। हम लोग तो जैसे आज तक घास छीलते रहे हैं। झुंझलाकर योगेश बाबू ने कहा।
जो लड़का बातें कर रहा था, उसने कहा-केवल यही नहीं, नरेन्द्र आपको भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता।
योगेश बाबू ने उपेक्षित भाव से कहा-क्यों, कोई अपराध!
वह कहता है आप आदर्श का ध्यान रखकर चित्र नहीं बनाते।
तो किस दृष्टिकोण से बनाता हूं?
दृष्टिकोण...?
रुपये के लिए।
योगेश ने एक आंख बन्द करके कहा-व्यर्थ! फिर आवेश में कान के पास से अपने अस्त-व्यस्त बालों की ठीक कर बहुत देर तक मौन बैठा रहा। चीन का जो सबसे बड़ा चित्रकार हुआ है उसके बाल भी बहुत बड़े थे। यही कारण था कि योगेश ने भी स्वभाव-विरुध्द सिर पर लम्बे-लम्बे बाल रखे हुए थे। ये बाल उसके मुख पर बिल्कुल नहीं भाते थे। क्योंकि बचपन में एक बार चेचक के आक्रमण से उनके प्राण तो बच गये थे। किन्तु मुख बहुत कुरूप हो गया था। एक तो स्याम-वर्ण, दूसरे चेचक के दाग। चेहरा देखकर सहसा यही जान पड़ता था, मानो किसी ने बन्दूक में छर्रे भरकर लिबलिबी दाब दी हो।
कमरे में जो लड़के बैठे थे, योगेश बाबू को क्रोधित देखकर उसके सामने ही मुंह बन्द करके हंस रहे थे।
सहसा वह हंसी योगेश बाबू ने भी देख ली, क्रोधित स्वर में बोले-तुम लोग हंस रहे हो, क्यों?
एक लड़के ने चाटुकारिता से जल्दी-जल्दी कहा-नहीं महाशय! आपको क्रोध आये और हम लोग हंसे, यह भला कभी सम्भव हो सकता है?
ऊंह! मैं समझ गया, अब अधिक चातुर्य की आवश्यकता नहीं। क्या तुम लोग यह कहना चाहते हो कि अब तक तुम सब दांत निकालकर रो रहे थे, मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूं? यह कहकर उन्होंने आंखें बन्द कर ली।
लड़कों ने किसी प्रकार हंसी रोककर कहा-चलिए यों ही सही, हम हंसते ही थे और रोते भी क्यों? पर हम नरेन्द्र के पागलपन को सोचकर हंसते थे। वह देखो मास्टर साहब के साथ नरेन्द्र भी आ रहा है।
मास्टर साहब के साथ-साथ नरेन्द्र भी कमरे में आ गया।
योगेश ने एक बार नरेन्द्र की ओर वक्र दृष्टि से देखकर मनमोहन बाबू से कहा-महाशय! नरेन्द्र मेरे विषय में क्या कहता है?
मनमोहन बाबू जानते थे कि उन दोनों की लगती है। दो पाषाण जब परस्पर टकराते हैं तो अग्नि उत्पन्न हो ही जाती है। अतएव वह बात को संभालते, मुस्कराते-से बोले-योगेश बाबू, नरेन्द्र क्या कहता है?
नरेन्द्र कहता है कि मैं रुपये के दृष्टिकोण से चित्र बनाता हूं। मेरा कोई आदर्श नहीं है?
मनमोहन बाबू ने पूछा- क्यों नरेन्द्र?
नरेन्द्र अब तक मौन खड़ा था, अब किसी प्रकार आगे आकर बोला-हां कहता हूं, मेरी यही सम्मति है।'
योगेश बाबू ने मुंह बनाकर कहा- बड़े सम्मति देने वाले आये। छोटे मुंह बड़ी बात। अभी कल का छोकरा और इतनी बड़ी-बड़ी बातें।
मनमोहन बाबू ने कहा-योगेश बाबू जाने दीजिए, नरेन्द्र अभी बच्चा है, और बात भी साधारण है। इस पर वाद-विवाद की क्या आवश्यकता है?
योगेश बाबू उसी तरह आवेश में बोले-बच्चा है। नरेन्द्र बच्चा है। जिसके मुंह पर इतनी बड़ी-बड़ी मूंछें हों, वह यदि बच्चा है तो बूढ़ा क्या होगा? मनमोहन बाबू! आप क्या कहते हैं?
एक विद्यार्थी ने कहा-महाशय, अभी जरा देर पहले तो आपने उसे कल का छोकरा बताया था।
योगेश बाबू का मुख क्रोध से लाल हो गया, बोले-कब कहा था?
अभी इससे ज़रा देर पहले।'
झूठ! बिल्कुल झूठ!! जिसकी इतनी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं उसे छोकरा कहूं, असम्भव है। क्या तुम लोग यह कहना चाहते हो कि मैं बिल्कुल मूर्ख हूं।
सब लड़के एक स्वर से बोले-नहीं, महाशय! ऐसी बात हम भूलकर भी जिह्ना पर नहीं ला सकते।
मनमोहन बाबू किसी प्रकार हंसी को रोककर बोले- चुप-चुप! गोलमाल न करो।
योगेश बाबू ने कहा- हां नरेन्द्र! तुम यह कहते हो कि बंग-प्रान्त में तुम्हारी टक्कर का कोई चित्रकार नहीं है।
नरेन्द्र ने कहा-आपने कैसे जाना?
तुम्हारे मित्रों ने कहा।
मैं यह नहीं कहता। तब भी इतना अवश्य कहूंगा कि मेरी तरह हृदय-रक्त पीकर बंगाल में कोई चित्र नहीं बनाता।
इसका प्रमाण?
नरेन्द्र ने आवेशमय स्वर में कहा- प्रमाण की क्या आवश्यकता है? मेरा अपना यही विचार है।
तुम्हारा विचार असत्य है।
नरेन्द्र बहुत कम बोलने वाला व्यक्ति था। उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
मनमोहन बाबू ने इस अप्रिय वार्तालाप को बन्द करने के लिए कहा- नरेन्द्र इस बार प्रदर्शनी के लिए तुम चित्र बनाओगे ना?
नरेन्द्र ने कहा- विचार तो है।
देखूंगा तुम्हारा चित्र कैसा रहता है?
नरेन्द्र ने श्रध्दा-भाव से उनकी पग-धूलि लेकर कहा- जिसके गुरु आप हैं उसे क्या चिन्ता? देखना सर्वोत्तम रहेगा।
योगेश बाबू ने कहा- राम से पहले रामायण! पहले चित्र बनाओ फिर कहना।
नरेन्द्र ने मुंह फेरकर योगेश बाबू की ओर देखा, कहा कुछ भी नहीं, किन्तु मौन भाव और उपेक्षा ने बातों से कहीं अधिक योगेश के हृदय को ठेस पहुंचाई।
मनमोहन बाबू ने कहा- योगेश बाबू, चाहे आप कुछ भी कहें मगर नरेन्द्र को अपनी आत्मिक शक्ति पर बहुत बड़ा विश्वास है। मैं दृढ़ निश्चय से कह सकता हूं कि यह भविष्य में एक बड़ा चित्रकार होगा।'
नरेन्द्र धीरे-धीरे कमरे से बाहर चला गया।
एक विद्यार्थी ने कहा- प्रोफेसर साहब, नरेन्द्र में किसी सीमा तक विक्षिप्तता की झलक दिखाई देती है।'
मनमोहन बाबू ने कहा- हां, मैं भी मानता हूं। जो व्यक्ति अपने घाव अच्छी तरह प्रकट करने में सफल हो जाता है, उसे सर्व-साधारण किसी सीमा तक विक्षिप्त समझते हैं। चित्र में एक विशेष प्रकार का आकर्षण तथा मोहकता उत्पन्न करने की उसमें असाधारण योग्यता है। तुम्हें मालूम है, नरेन्द्र ने एक बार क्या किया था? मैंने देखा कि नरेन्द्र के बायें हाथ की उंगली से खून का फव्वारा छूट रहा है और वह बिना किसी कष्ट के बैठा चित्र बना रहा है। मैं तो देखकर चकित रह गया। मेरे मालूम करने पर उसने उत्तर दिया कि उंगली काटकर देख रहा था कि खून का वास्तविक रंग क्या है? अजीब व्यक्ति है। तुम लोग इसे विक्षिप्तता कह सकते हो, किन्तु इसी विक्षिप्तता के ही कारण तो वह एक दिन अमर कलाकार कहलायेगा।
योगेश बाबू आंख बन्द करके सोचने लगे। जैसे गुरु वैसे चेले दोनों के दोनों पागल हैं।
2
नरेन्द्र सोचते-सोचते मकान की ओर चला-मार्ग में भीड़-भाड़ थी। कितनी ही गाड़ियां चली जा रही थीं; किन्तु इन बातों की ओर उसका ध्यान नहीं था। उसे क्या चिन्ता थी? सम्भवत: इसका भी उसे पता न था।
वह थोड़े समय के भीतर ही बहुत बड़ा चित्रकार हो गया, इस थोड़े-से समय में वह इतना सुप्रसिध्द और सर्व-प्रिय हो गया था कि उसके ईष्यालु मित्रों को अच्छा न लगा। इन्हीं ईष्यालु मित्रों में योगेश बाबू भी थे। नरेन्द्र में एक विशेष योग्यता और उसकी तूलिका में एक असाधारण शक्ति है। योगेश बाबू इसे दिल-ही-दिल में खूब समझते थे, परन्तु ऊपर से उसे मानने के लिए तैयार न थे।
इस थोड़े समय में ही उसका इतनी प्रसिध्दि प्राप्त करने का एक विशेष कारण भी था। वह यह कि नरेन्द्र जिस चित्र को भी बनाता था अपनी सारी योग्यता उसमें लगा देता था उसकी दृष्टि केवल चित्र पर रहती थी, पैसे की ओर भूलकर भी उसका ध्यान नहीं जाता था। उसके हृदय की महत्वाकांक्षा थी कि चित्र बहुत ही सुन्दर हो। उसमें अपने ढंग की विशेष विलक्षणता हो। मूल्य चाहे कम मिले या अधिक। वह अपने विचार और भावनाओं की मधुर रूप-रेखायें अपने चित्र में देखता था। जिस समय चित्र चित्रित करने बैठता तो चारों ओर फैली हुई असीम प्रकृति और उसकी सारी रूप-रेखायें हृदय-पट से गुम्फित कर देता। इतना ही नहीं; वह अपने अस्तित्व से भी विस्मृत हो जाता। वह उस समय पागलों की भांति दिखाई पड़ता और अपने प्राण तक उत्सर्ग कर देने से भी उस समय सम्भवत: उसको संकोच न होता। यह दशा उस समय की एकाग्रता की होती। वास्तव में इसी कारण से उसे यह सम्मान प्राप्त हुआ। उसके स्वभाव में सादगी थी, वह जो बात सादगी से कहता, लोग उसे अभिमान और प्रदर्शनी से लदी हुई समझते। उसके सामने कोई कुछ न कहता परन्तु पीछे-पीछे लोग उसकी बुराई करने से न चूकते, सब-के-सब नरेन्द्र को संज्ञाहीन-सा पाते, वह किसी बात को कान लगाकर न सुनता, कोई पूछता कुछ और वह उत्तर देता कुछ और ही। वह सर्वदा ऐसा प्रतीत होता जैसे अभी-अभी स्वप्न देख रहा था और किसी ने सहसा उसे जगा दिया हो, उसने विवाह किया और एक लड़का भी उत्पन्न हुआ, पत्नी बहुत सुन्दर थी, परन्तु नरेन्द्र को गार्हस्थिक जीवन में किसी प्रकार का आकर्षण न था, तब भी उसका हृदय प्रेम का अथाह सागर था, वह हर समय इसी धुन में रहता था कि चित्रकला में प्रसिध्दि प्राप्त करे। यही कारण था कि लोग उसे पागल समझते थे। किसी हल्की वस्तु को यदि पानी में जबर्दस्ती डुबो दो तो वह किसी प्रकार भी न डूबेगी, वरन ऊपर तैरती रहेगी। ठीक यही दशा उन लोगों की होती है जो अपनी धुन के पक्के होते हें। वे सांसारिक दु:ख-सुख में किसी प्रकार डूबना नहीं जानते। उनका हृदय हर समय कार्य की पूर्ति में संलग्न रहता है।
नरेन्द्र सोचते-सोचते अपने मकान के सामने आ खड़ा हुआ। उसने देखा कि द्वार के समीप उसका चार साल का बच्चा मुंह में उंगली डाले किसी गहरी चिन्ता में खड़ा है। पिता को देखते ही बच्चा दौड़ता हुआ आया और दोनों हाथों से नरेन्द्र को पकड़कर बोला- बाबूजी!
क्यों बेटा?
बच्चे ने पिता का हाथ पकड़ लिया और खींचते हुए कहा- बाबूजी, देखो हमने एक मेंढक मारा है जो लंगड़ा हो गया है...
नरेन्द्र ने बच्चे को गोद में उठाकर कहा-तो मैं क्या करूं? तू बड़ा पाजी है।
बच्चे ने कहा- वह घर नहीं जा सकता-लंगड़ा हो गया है, कैसे जाएगा? चलो उसे गोद में उठाकर घर पहुंचा दो।
नरेन्द्र ने बच्चे को गोद में उठा लिया और हंसते-हंसते घर में ले गया।
3
एक दिन नरेन्द्र को ध्यान आया कि इस बार की प्रदर्शनी में जैसे भी हो अपना एक चित्र भेजना चाहिए। कमरे की दीवार पर उसके हाथ के कितने ही चित्र लगे हुए थे। कहीं प्राकृतिक दृश्य, कहीं मनुष्य के शरीर की रूप-रेखा, कहीं स्वर्ण की भांति सरसों के खेत की हरियाली, जंगली मनमोहक दृश्यावलि और कहीं वे रास्ते जो छाया वाले वृक्षों के नीचे से टेढ़े-तिरछे होकर नदी के पास जा मिलते थे। धुएं की भांति गगनचुम्बी पहाड़ों की पंक्ति, जो तेज धूप में स्वयं झुलसी जा रही थीं और सैकड़ों पथिक धूप से व्याकुल होकर छायादार वृक्षों के समूह में शरणार्थी थे, ऐसे कितने ही दृश्य थे। दूसरी ओर अनेकों पक्षियों के चित्र थे। उन सबके मनोभाव उनके मुखों से प्रकट हो रहे थे। कोई गुस्से में भरा हुआ, कोई चिन्ता की अवस्था में तो कोई प्रसन्न-मुख।
कमरे के उत्तरीय भाग में खिड़की के समीप एक अपूर्ण चित्र लगा हुआ था; उसमें ताड़ के वृक्षों के समूह के समीप सर्वदा मौन रहने वाली छाया के आश्रय में एक सुन्दर नवयुवती नदी के नील-वर्ण जल में अचल बिजली-सी मौन खड़ी थी। उसके होंठों और मुख की रेखाओं में चित्रकार ने हृदय की पीड़ा अंकित की थी। ऐसा प्रतीत होता था मानो चित्र बोलना चाहता है, किन्तु यौवन अभी उसके शरीर में पूरी तरह प्रस्फुटित नहीं हुआ है।
इन सब चित्रों में चित्रकार के इतने दिनों की आशा और निराशा मिश्रित थी, परन्तु आज उन चित्रों की रेखाओं और रंगों ने उसे अपनी ओर आकर्षित न किया। उसके हृदय में बार-बार यही विचार आने लगे कि इतने दिनों उसने केवल बच्चों का खेल किया है। केवल कागज के टुकड़ों पर रंग पोता है। इतने दिनों से उसने जो कुछ रेखाएं कागज पर खींची थीं, वे सब उसके हृदय को अपनी ओर आकर्षित न कर सकी, क्योंकि उसके विचार पहले की अपेक्षा बहुत उच्च थे। उच्च ही नहीं बल्कि बहुत उच्चतम होकर चील की भांति आकाश में मंडराना चाहते थे। यदि वर्षा ऋतु का सुहावना दिन हो तो क्या कोई शक्ति उसे रोक सकती थी? वह उस समय आवेश में आकर उड़ने की उत्सुकता में असीमित दिशाओं में उड़ जाता। एक बार भी फिरकर नहीं देखता। अपनी पहली अवस्था पर किसी प्रकार भी वह सन्तुष्ट नहीं था। नरेन्द्र के हृदय में रह-रहकर यही विचार आने लगा। भावना और लालसा की झड़ी-सी लग गई।
उसने निश्चय कर लिया कि इस बार ऐसा चित्र बनाएगा। जिससे उसका नाम अमर हो जाये। वह इस वास्तविकता को सबके दिलों में बिठा देना चाहता था कि उसकी अनुभूति बचपन की अनुभूति नहीं है।
मेज पर सिर रखकर नरेन्द्र विचारों का ताना-बाना बुनने लगा। वह क्या बनायेगा? किस विषय पर बनायेगा? हृदय पर आघात होने से साधारण प्रभाव पड़ता है। भावनाओं के कितने ही पूर्ण और अपूर्ण चित्र उसकी आंखों के सामने से सिनेमा-चित्र की भांति चले गये, परन्तु किसी ने भी दमभर के लिए उसके ध्यान को अपनी ओर आकर्षित न किया। सोचते-सोचते सन्ध्या के अंधियारे में शंख की मधुर ध्वनि ने उसको मस्त कर देने वाला गाना सुनाया। इस स्वर-लहरी से नरेन्द्र चौंककर उठ खड़ा हुआ। पश्चात् उसी अंधकार में वह चिन्तन-मुद्रा में कमरे के अन्दर पागलों की भांति टहलने लगा। सब व्यर्थ! महान प्रयत्न करने के पश्चात् भी कोई विचार न सूझा।
रात बहुत जा चुकी थी। अमावस्या की अंधेरी में आकाश परलोक की भांति धुंधला प्रतीत होता था। नरेन्द्र कुछ खोया-खोया-सा पागलों की भांति उसी ओर ताकता रहा।
बाहर से रसोइये ने द्वार खटखटाकर कहा- बाबूजी!
चौंककर नरेन्द्र ने पूछा- कौन है?
बाबूजी भोजन तैयार है, चलिये।
झुंझलाते हुए नरेन्द्र ने कटु स्वर में कहा- मुझे तंग न करो। जाओ मैं इस समय न खाऊंगा।
कुछ थोड़ा-सा।
मैं कहता हूं बिल्कुल नहीं। और निराश-मन रसोइया भारी कदमों से वापस लौट गया और नरेन्द्र ने अपने को चिन्तन-सागर में डुबो दिया। दुनिया में जिसको ख्याति प्राप्त करने का व्यसन लग गया हो उसको चैन कहां?
4
एक सप्ताह बीत गया। इस सप्ताह में नरेन्द्र ने घर से बाहर कदम न निकाला। घर में बैठा सोचता रहता- किसी-न-किसी मन्त्र से तो साधना की देवी अपनी कला दिखाएगी ही।
इससे पूर्व किसी चित्र के लिऐ उसे विचार-प्राप्ति में देर न लगती थी, परन्तु इस बार किसी तरह भी उसे कोई बात न सूझी। ज्यों-ज्यों दिन व्यतीत होते जाते थे वह निराश होता जाता था? केवल यही क्यों? कई बार तो उसने झुंझलाकर सिर के बाल नोंच लिये। वह अपने आपको गालियां देता, पृथ्वी पर पेट के बल पड़कर बच्चों की तरह रोया भी परंतु सब व्यर्थ।
प्रात:काल नरेन्द्र मौन बैठा था कि मनमोहन बाबू के द्वारपाल ने आकर उसे एक पत्र दिया। उसने उसे खोलकर देखा। प्रोफेसर साहब ने उसमें लिखा था-
प्रिय नरेन्द्र,
प्रदर्शनी होने में अब अधिक दिन शेष नहीं हैं। एक सप्ताह के अन्दर यदि चित्र न आया तो ठीक नहीं। लिखना, तुम्हारी क्या प्रगति हुई है और तुम्हारा चित्र कितना बन गया है?
योगेश बाबू ने चित्र चित्रित कर दिया है। मैंने देखा है, सुन्दर है, परन्तु मुझे तुमसे और भी अच्छे चित्र की आशा है। तुमसे अधिक प्रिय मुझे और कोई नहीं। आशीर्वाद देता हूं, तुम अपने गुरु की लाज रख सको।
इसका ध्यान रखना। इस प्रदर्शनी में यदि तुम्हारा चित्र अच्छा रहा तो तुम्हारी ख्याति में कोई बाधा न रहेगी। तुम्हारा परिश्रम सफल हो, यही कामना है।
-मनमोहन
पत्र पढ़कर नरेन्द्र और भी व्याकुल हुआ। केवल एक सप्ताह शेष है और अभी तक उसके मस्तिष्क में चित्र के विषय में कोई विचार ही नहीं आया। खेद है अब वह क्या करेगा?
उसे अपने आत्म-बल पर बहुत विश्वास था, पर उस समय वह विश्वास भी जाता रहा। इसी तुच्छ शक्ति पर वह दस व्यक्तियों में सिर उठाए फिरता रहा?
उसने सोचा था अमर कलाकार बन जाऊंगा, परन्तु वाह रे दुर्भाग्य! अपनी अयोग्यता पर नरेन्द्र की आंखों में आंसू भर आये।
5
रोगी की रात जैसे आंखों में निकल जाती है उसकी वह रात वैसे ही समाप्त हुई। नरेन्द्र को इसका तनिक भी पता न हुआ। उधर वह कई दिनों से चित्रशाला ही में सोया था। नरेन्द्र के मुख पर जागरण के चिन्ह थे। उसकी पत्नी दौड़ी-दौड़ी आई और शीघ्रता से उसका हाथ पकड़कर बोली- अजी बच्चे को क्या हो गया है, आकर देखो तो।
नरेन्द्र ने पूछा- क्या हुआ?
पत्नी लीला हांफते हुए बोली- शायद हैजा! इस प्रकार खड़े न रहो, बच्चा बिल्कुल अचेत पड़ा है।
बहुत ही अनमने मन से नरेन्द्र शयन-कक्ष में प्रविष्ट हुआ।
बच्चा बिस्तर से लगा पड़ा था। पलंग के चारों ओर उस भयानक रोग के चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे थे। लाल रंग दो घड़ी में ही पीला हो गया था। सहसा देखने से यही ज्ञात होता था जैसे बच्चा जीवित नहीं है। केवल उसके वक्ष के समीप कोई वस्तु धक-धक कर रही थी, और इस क्रिया से ही जीवन के कुछ चिन्ह दृष्टिगोचर होते थे।
वह बच्चे के सिरहाने सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
लीला ने कहा- इस तरह खड़े न रहो। जाओ, डॉक्टर को बुला लाओ।
मां की आवाज सुनकर बच्चे ने आंखें मलीं। भर्राई हुई आवाज में बोला- मां! ओ मां!!
मेरे लाल! मेरी पूंजी। क्या कह रहा है? कहते-कहते लीला ने दोनों हाथों से बच्चे को अपनी गोद से चिपटा लिया। मां के वक्ष पर सिर रखकर बच्चा फिर पड़ा रहा।
नरेन्द्र के नेत्र सजल हो गए। वह बच्चे की ओर देखता रहा।
लीला ने उपालम्भमय स्वर में कहा-अभी तक डॉक्टर को बुलाने नहीं गये?
नरेन्द्र ने दबी आवाज में कहा-ऐं...डॉक्टर?
पति की आवाज का अस्वाभाविक स्वर सुनकर लीला ने चकित होते हुए कहा-क्या?
कुछ नहीं।
जाओ, डॉक्टर को बुला लाओ।
अभी जाता हूं।
नरेन्द्र घर से बाहर निकला।
घर का द्वार बन्द हुआ। लीला ने आश्चर्य-चकित होकर सुना कि उसके पति ने बाहर से द्वार की जंजीर खींच ली और वह सोचती रही- यह क्या?
6
नरेन्द्र चित्रशाला में प्रविष्ट होकर एक कुर्सी पर बैठ गया।
दोनों हाथों से मुंह ढांपकर वह सोचने लगा। उसकी दशा देखकर ऐसा लगता था कि वह किसी तीव्र आत्मिक पीड़ा से पीड़ित है। चारों ओर गहरे सूनेपन का राज्य था। केवल दीवार लगी हुई घड़ी कभी न थकने वाली गति से टिक-टिक कर रही थी और नरेन्द्र के सीने के अन्दर उसका हृदय मानो उत्तर देता हुआ कह रहा था- धक! धक! सम्भवत: उसके भयानक संकल्पों से परिचित होकर घड़ी और उसका हृदय परस्पर कानाफूसी कर रहे थे। सहसा नरेन्द्र उठ खड़ा हुआ। संज्ञाहीन अवस्था में कहने लगा- क्या करूं? ऐसा आदर्श फिर न मिलेगा, परन्तु ...वह तो मेरा पुत्र है।
वह कहते-कहते रुक गया। मौन होकर सोचने लगा। सहसा मकान के अन्दर से सनसनाते हुए बाण की भांति 'हाय' की हृदयबेधक आवाज उसके कानों में पहुंची।
मेरे लाल! तू कहां गया?
जिस प्रकार चिल्ला टूट जाने से कमान सीधी हो जाती है, चिन्ता और व्याकुलता से नरेन्द्र ठीक उसी तरह सीधा खड़ा हो गया। उसके मुख पर लाली का चिन्ह तक न था, फिर कान लगाकर उसने आवाज सुनी, वह समझ गया कि बच्चा चल बसा।
मन-ही-मन में बोला- भगवान! तुम साक्षी हो, मेरा कोई अपराध नहीं।
इसके बाद वह अपने सिर के बालों को मुट्ठी में लेकर सोचने लगा। जैसे कुछ समय पश्चात् ही मनुष्य निद्रा से चौंक उठता है उसी प्रकार चौंककर जल्दी-जल्दी मेज पर से कागज, तूलिका और रंग आदि लेकर वह कमरे से बाहर निकल गया।
शयन-कक्ष के सामने एक खिड़की के समीप आकर वह अचकचा कर खड़ा हो गया। कुछ सुनाई देता है क्या? नहीं सब खामोश हैं। उस खिड़की से कमरे का आन्तरिक भाग दिखाई पड़ रहा था। झांककर भय से थर-थर कांपते हुए उसने देखा तो उसके सारे शरीर में कांटे-से चुभ गये। बिस्तर उलट-पुलट हो रहा था। पुत्र से रिक्त गोद किए मां वहीं पड़ी तड़प रही थी।
और इसके अतिरिक्त...मां कमरे में पृथ्वी पर लोटते हुए, बच्चे के मृत शरीर को दोनों हाथों से वक्ष:स्थल के साथ चिपटाए, बाल बिखरे, नेत्र विस्फारित किए, बच्चे के निर्जीव होंठों को बार-बार चूम रही थी।
नरेन्द्र की दोनों आंखों में किसी ने दो सलाखें चुभो दी हों। उसने होंठ चबाकर कठिनता से स्वयं को संभाला और इसके साथ ही कागज पर पहली रेखा खींची। उसके सामने कमरे के अन्दर वही भयानक दृश्य उपस्थित था। संभवत: संसार के किसी अन्य चित्रकार ने ऐसा दृश्य सम्मुख रखकर तूलिका न उठाई होगी।
देखने में नरेन्द्र के शरीर में कोई गति न थी, परन्तु उसके हृदय में कितनी वेदना थी? उसे कौन समझ सकता है, वह तो पिता था।
नरेन्द्र जल्दी-जल्दी चित्र बनाने लगा। जीवन-भर चित्र बनाने में इतनी जल्दी उसने कभी न की। उसकी उंगलियां किसी अज्ञात शक्ति से अपूर्व शक्ति प्राप्त कर चुकी थीं। रूप-रेखा बनाते हुए उसने सुना- बेटा, ओ बेटा! बातें करो, बात करो, जरा एक बार तुम देख तो लो?
नरेन्द्र ने अस्फुट स्वर में कहा- उफ! यह असहनीय है। और उसके हाथ से तूलिका छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ी।
किन्तु उसी समय तूलिका उठाकर वह पुन: चित्र बनाने लगा। रह-रहकर लीला का क्रन्दन-रुदन कानों में पहुंचकर हृदय को छेड़ता और रक्त की गति को मन्द करता और उसके हाथ स्थिर होकर उसकी तूलिका की गति को रोक देते।
इसी प्रकार पल-पर-पल बीतने लगे।
मुख्य द्वार से अन्दर आने के लिए नौकरों ने शोर मचाना शुरू कर दिया था, परन्तु नरेन्द्र मानो इस समय विश्व और विश्वव्यापी कोलाहल से बहरा हो चुका था।
वह कुछ भी न सुन सका। इस समय वह एक बार कमरे की ओर देखता और एक बार चित्र की ओर, बस रंग में तूलिका डुबोता और फिर कागज पर चला देता।
वह पिता था, परन्तु कमरे के अन्दर पत्नी के हृदय से लिपटे हुए मृत बच्चे की याद भी वह धीरे-धीरे भूलता जा रहा था।
सहसा लीला ने उसे देख लिया। दौड़ती हुई खिड़की के समीप आकर दुखित स्वर में बोली-क्या डॉक्टर को बुलाया? जरा एक बार आकर देख तो लेते कि मेरा लाल जीवित है या नहीं...यह क्या? चित्र बना रहे हो?
चौंककर नरेन्द्र ने लीला की ओर देखा। वह लड़खड़ाकर गिर रही थी।
बाहर से द्वार खटखटाने और बार-बार चिल्लाने पर भी जब कपाट न खुले, तो रसोइया और नौकर दोनों डर गये। वे अपना काम समाप्त करके प्राय: संध्या समय घर चले जाते थे और प्रात:काल काम करने आ जाते थे। प्रतिदिन लीला या नरेन्द्र दोनों में से कोई-न-कोई द्वार खोल देता था, आज चिल्लाने और खटखटाने पर भी द्वार न खुला। इधर रह-रहकर लीला की क्रन्दन-ध्वनि भी कानों में आ रही थी।
उन लोगों ने मुहल्ले के कुछ व्यक्तियों को बुलाया। अन्त में सबने सलाह करके द्वार तोड़ डाला।
सब आश्चर्य-चकित होकर मकान में घुसे। जीने से चढ़कर देखा कि दीवार का सहारा लिये, दोनों हाथ जंघाओं पर रखे नरेन्द्र सिर नीचा किए हुए बैठा है।
उनके पैरों की आहट से नरेन्द्र ने चौंककर मुंह उठाया। उसके नेत्र रक्त की भांति लाल थे। थोड़ी देर पश्चात् वह ठहाका मारकर हंसने लगा और सामने लगे चित्र की ओर उंगली दिखाकर बोल उठा- डॉक्टर! डॉक्टर!! मैं अमर हो गया।
7
दिन बीतते गये, प्रदर्शनी आरम्भ हो गई।
प्रदर्शनी में देखने की कितनी ही वस्तुएं थीं, परन्तु दर्शक एक ही चित्र पर झुके पड़ते थे। चित्र छोटा-सा था और अधूरा भी, नाम था 'अन्तिम प्यार।'
चित्र में चित्रित किया हुआ था, एक मां बच्चे का मृत शरीर हृदय से लगाये अपने दिल के टुकड़े के चन्दा से मुख को बार-बार चूम रही है।
शोक और चिन्ता में डूबी हुई मां के मुख, नेत्र और शरीर में चित्रकार की तूलिका ने एक ऐसा सूक्ष्म और दर्दनाक चित्र चित्रित किया कि जो देखता उसी की आंखों से आंसू निकल पड़ते। चित्र की रेखाओं में इतनी अधिक सूक्ष्मता से दर्द भरा जा सकता है, यह बात इससे पहले किसी के ध्यान में न आई थी।
इस दर्शक-समूह में कितने ही चित्रकार थे। उनमें से एक ने कहा- देखिए योगेश बाबू, आप क्या कहते हैं?
योगेश बाबू उस समय मौन धारण किए चित्र की ओर देख रहे थे, सहसा प्रश्न सुनकर एक आंख बन्द करके बोले- यदि मुझे पहले से ज्ञात होता तो मैं नरेन्द्र को अपना गुरु बनाता।
दर्शकों ने धन्यवाद, साधुवाद और वाह-वाह की झड़ी लगा दी; परन्तु किसी को भी मालूम न हुआ कि उस सज्जन पुरुष का मूल्य क्या है, जिसने इस चित्र को चित्रित किया है।
किस प्रकार चित्रकार ने स्वयं को धूलि में मिलाकर रक्त से इस चित्र को रंगा है, उसकी यह दशा किसी को भी ज्ञात न हो सकी।
जीनियस-मोहन राकेश
15.
जीनियस कॉफ़ी की प्याली आगे रखे मेरे सामने बैठा था।
मैं उस आदमी को ध्यान से देख रहा था। मेरे साथी ने बताया था कि यह जीनियस है और मैंने सहज ही इस बात पर विश्वास कर लिया था। उससे पहले मेरा जीनियस से प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं हुआ था। इतना मैं जानता था कि अब वह पहला ज़माना नहीं है जब एक सदी में कोई एकाध ही जीनियस हुआ करता था। आज के ज़माने को जीनियस पैदा करने की नज़र से कमाल हासिल है। रोज़ कहीं न कहीं किसी न किसी जीनियस की चर्चा सुनने को मिल जाती है। मगर जीनियस की चर्चा सुनना और बात है, और एक जीनियस को अपने सामने देखना बिलकुल दूसरी बात। तो मैं उसे ग़ौर से देख रहा था। उसके भूरे बाल उलझकर माथे पर आ गये थे। चेहरे पर हल्की-हल्की झुर्रियाँ थीं, हालाँकि उम्र सत्ताईस-अट्ठाईस साल से ज़्यादा नहीं थी। होंठों पर एक स्थायी मुस्कराहट दिखाई देती थी, फिर भी चेहरे का भाव गम्भीर था। वह सिगरेट का कश खींचकर नीचे का होंठ ज़रा आगे को फैला देता था जिससे धुआँ बजाय सीधा जाने के ऊपर की तरफ़ उठ जाता था। उसकी आँखें निर्विकार भाव से सामने देख रही थी। हाथ मशीनी ढंग से कॉफ़ी की प्याली को होंठों तक ले जाते थे, हल्का-सा घूँट अन्दर जाता था और प्याली वापस सॉसर में पहुँच जाती थी।
“हूँ!” कई क्षणों के बाद उसके मुँह से यह स्वर निकला। मुझे लगा कि उसकी ‘हूँ’ साधारण आदमी की ‘हूँ’ से बहुत भिन्न है।
“मेरे मित्र आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे,” मैंने वक़्त की ज़रूरत समझते हुए बात आरम्भ की। जीनियस के माथे के बल गहरे हो गये और उसके होंठों पर मुस्कराहट ज़रा और फैल गयी।
“मैंने इनसे कहा था कि चलिए आपका परिचय करा दूँ,” मेरे साथी ने कहा। साथ ही उसकी आँखें झपकीं और उसके दो-एक दाँत बाहर दिखाई दे गये। मुझे एक क्षण के लिए सन्देह हुआ कि कहीं यह संकेत स्वयं उसी के जीनियस होने का परिचायक तो नहीं? परन्तु दूसरे ही क्षण उसकी सधी हुई मुद्रा देखकर मेरा सन्देह जाता रहा। जीनियस एक पल आँखें मूँदे रहा। फिर उसने इस तरह विस्मय के साथ आँखें खोलीं जैसे वह यह निश्चय न कर पा रहा हो कि अपने आसपास बैठे हुए लोगों के साथ उसका क्या सम्बन्ध हो सकता है। उसके फैले हुए होंठ ज़रा सिकुड़ गये। उसने सिगरेट का एक कश खींचा और तम्बाकू का धुआँ सरसराता हुआ ऊपर को उठने लगा, तो उसने कहा, “देखिए, ये सिर्फ़ आपको बना रहे हैं। मैं जीनियस-वीनियस कुछ नहीं, साधारण आदमी हूँ।”
मैंने अपने साथी की तरफ़ देखा कि शायद उसके किसी संकेत से पता चले कि मुझे क्या कहना चाहिए। मगर वह दम साधे पत्थर के बुत की तरह गम्भीर बैठा था। मैंने फिर जीनियस की तरफ़ देखा। वह भी अपनी जगह निश्चल था। बुश्शर्ट के खुले होने से उसकी बालों से भरी छाती का काफ़ी भाग बाहर दिखाई दे रहा था।
वह कहवाख़ाने का काफ़ी अँधेरा कोना था। आसपास धुआँ जमा हो रहा था। दूर ज़ोर-ज़ोर के कहकहे लग रहे थे और हाथों में थालियाँ लिये छायाएँ इधर-उधर घूम रही थीं।
“मैं आज तक नहीं समझ सका कि कुछ लोग जीनियस क्यों माने जाते हैं?” जीनियस ने फिर कहना आरम्भ किया, “मैंने बड़े-बड़े जीनियसों के विषय में पढ़ा है और जिन्हें लोग जीनियस समझते हैं, उनकी रचनाएँ भी पढ़ी हैं। उनमें कुछ नाम हैं—शेक्सपियर, टॉल्स्टाय, गोर्की और टैगोर। मैं इन सबको हेच समझता हूँ।”
मैं अब और भी ध्यान से उसे देखने लगा। उसके माथे के ठीक बीच में एक फूली हुई नाड़ी थी जिसकी धडक़न दूर से ही नज़र आती थी। उसकी गलौठी बाहर की निकली हुई थी। बायीं आँख के नीचे हल्का-सा फफोला था। मैं उसके नक़्श अच्छी तरह ज़हन में बिठा लेना चाहता था। डर था कि हो सकता है फिर ज़िन्दगी-भर किसी जीनियस से मिलने का सौभाग्य प्राप्त न हो।
“शेक्सपियर सिर्फ़ एक वार्ड था,” दो कश खींचकर उसने फिर कहना आरम्भ किया, “और अगर मर्लोवाली कहानी सच है, तो इस बात में ही सन्देह है कि शेक्सपियर शेक्सपियर था। टॉल्स्टाय, गोर्की और चेख़व जैसे लेखकों को मैं अच्छे कॉपीइस्ट समझता हूँ—केवल कॉपीइस्ट, और कुछ नहीं। जो जैसा अपने आसपास देखा उसका हूबहू चित्रण करते गये। इसके लिए विशेष प्रतिभा की आवश्यकता नहीं। टैगोर में हाँ, थोड़ी कविता ज़रूर थी।”
वह खुलकर मुस्कराया। मेरे लिए उस मुस्कराहट का थाह पाना बहुत कठिन था। पास ही कहीं दो-एक प्यालियाँ गिरकर टूट गयीं। एक कबूतर पंख फडफ़ड़ाता हुआ कहवाख़ाने के अन्दर आया और कुछ लोग मिलकर उसे बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। जीनियस की आँखें भी कबूतर की तरफ़ मुड़ गयीं और वह कुछ देर के लिए हमारे अस्तित्व को बिलकुल भूल गया। जब उसने कबूतर की तरफ़ से आँखें हटाईं तो उसे जैसे नए सिरे से हमारी मौजूदगी का एहसास हुआ।
“मैं एक निहायत ही अदना इन्सान हूँ,” उसने हमारे कन्धों से ऊपर दीवार की तरफ देखते हुए कहा, “लेकिन यह मैं ज़रूर जानता हूँ कि जीनियस कहते किसे हैं—माफ़ कीजिए, कहते नहीं, जीनियस कहना किसे चाहिए।” उसने प्याली रख दी और शब्दों के साथ-साथ उसकी उँगलियाँ हवा में खाके बनाने लगीं। “आप जानते हैं—या शायद नहीं जानते—कि जीनियस एक व्यक्ति नहीं होता। वह एक फिनोमेना होता है, एक परिस्थिति जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। उसका अपना एक रेडिएशन, एक प्रकाश होता है। उस रेडिएशन का अनुमान उसके चेहरे की लकीरों से, उसके हाव-भाव से, या उसकी आँखों से नहीं होता। वह एक फिनोमेना है जिसके अन्दर एक अपनी हलचल होती है परन्तु जो हलचल उसकी आँखों में देखने से नहीं होती। वह स्वयं भी अपने सम्बन्ध में नहीं जानता, परन्तु जिस व्यक्ति का उसके साथ सम्पर्क हो, उस व्यक्ति को उसे पहचानने में कठिनाई नहीं होती। जीनियस को जीनियस के रूप में जानने के लिए उसकी लिखी हुई पुस्तकों या उसके बनाए हुए चित्रों को सामने रखने की आवश्यकता नहीं होती। जीनियस एक फिनोमेना है, जो अपना प्रमाण स्वयं होता है। उसके अस्तित्व में एक चीज़ होती है, जो अपने-आप बाहर महसूस हो जाती है। मैं यह इसलिए कह सकता हूँ कि मैं एक ऐसे फिनोमेना से परिचित हूँ। मेरा उसका हर रोज़ का साथ है, और मैं अपने को उसके सामने बहुत तुच्छ, बहुत हीन अनुभव करता हूँ।”
उसकी मुस्कराहट फिर लम्बी हो गयी थी। उसने नया सिगरेट सुलगाकर एक और बड़ा-सा कश खींच लिया। कॉफ़ी की प्याली उठाकर उसने एक घूँट में ही समाप्त कर दी। मैं अवाक् भाव से उसके माथे की उभरी हुई नाड़ी को देखता रहा।
“मुझे उसके साथ के कारण एक आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है,” वह फिर बोला, “मुझे उसके सम्पर्क से अपना-आप भी जीवन की साधारण सतह से उठता हुआ महसूस होता है। उसमें सचमुच वह चीज़ है जो दूसरे को ऊँचा उठा सकती है। मैं तब उसका रेडिएशन देख सकता हूँ। उसके अन्दर की हलचल महसूस कर सकता हूँ। जिस तरह अभी-अभी वह कबूतर पंख फडफ़ड़ा रहा था, उसी तरह उसकी आत्मा में हर समय एक फडफ़ड़ाहट, एक छटपटाहट भरी रहती है। उस छटपटाहट में ऐसा कुछ है जो यदि बाहर आ जाए, तो चाहे ज़िन्दगी का नक़्शा बदल दे। मगर उसे उस चीज़ को बाहर लाने का मोह नहीं है। उसकी दृष्टि में अपने को बाहर व्यक्त करने की चेष्टा करना व्यवसाय-बुद्धि है, बनियापन है। और इसलिए मैं उसका इतना सम्मान करता हूँ। मैं उससे बहुत छोटा हूँ, बहुत-बहुत छोटा हूँ, परन्तु मुझे गर्व है कि मुझे उससे स्नेह मिलता है। मैं भी उसके लिए अपने प्राणों का बलिदान दे सकता हूँ। मैंने जीवन में बहुत भूख देखी है—हर वक़्त की भूख—और अपनी भूख से प्राय: मैं व्याकुल हो जाता रहा हूँ। परन्तु जब उसे देखता हूँ तो मैं शर्मिन्दा हो जाता हूँ, भूख उसने भी देखी है, और मुझसे कहीं ज़्यादा भूख देखी है—परन्तु मैंने कभी उसे ज़रा भी विचलित या व्याकुल होते नहीं देखा। वह कठिन से कठिन अवसर पर भी मुस्कराता रहता है। मेरा सिर उसके सामने झुक जाता है। मैं जीवन के हरएक मामले में उससे राय लेता हूँ, और हमेशा उसकी बताई हुई राह पर चलने की चेष्टा करता हूँ। कई बार तो उसके सामने मुझे महसूस होता है कि मैं तो हूँ ही नहीं, बस वही वह है, क्योंकि उसके रेडिएशन के सामने मेरा व्यक्तित्व बहुत फीका पड़ जाता है। परन्तु मैं अपनी सीमाएँ जानता हूँ। मैं लाख चेष्टा करूँ फिर भी उसकी बराबरी तक नहीं उठ सकता।
उसके दाँत आपस में मिल गये और चेहरा काफी सख़्त हो गया। चेहरे की लकीरें पहले से भी गहरी हो गयीं। फिर उसने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में उलझाईं और एक बार उन्हें चटका दिया। धीरे-धीरे उसके चेहरे का तनाव फिर मुस्कराहट में बदलने लगा।
“ख़ैर!” उसने उठने की तैयारी में अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, मैं अब आपसे इजाज़त लूँगा। मैं भूल गया था कि मुझे एक जगह जाना है...।”
“मगर...” मैं इतना ही कह पाया। मैं तब तक उसी अवाक् भाव से उसे देख रहा था। उसका इस तरह एकदम उठकर चल देना मुझे ठीक नहीं लग रहा था। अभी तो उसने बात आरम्भ ही की थी।
“आप शायद सोच रहे हैं कि वह व्यक्ति कौन है जिसकी मैं बात कर रहा था...” वह उसी तरह हाथ बढ़ाए हुए बोला, “मुझे खेद है कि मैं आपका या किसी का भी उससे परिचय नहीं करा सकता। मैंने आपसे कहा था न कि वह एक व्यक्ति नहीं, एक फिनोमेना है। अपने से बाहर वह मुझे भी दिखाई नहीं देता। मैं केवल अपने अन्दर उसका रेडिएशन ही महसूस कर सकता हूँ।”
और वह हाथ मिलाकर उठ खड़ा हुआ। चलने से पहले उसकी आँखों में क्षण भर के लिए एक चमक आ गयी और उसने कहा, “वह मेरा इनरसेल्फ है।”
और क्षण भर स्थिर दृष्टि से हमें देखकर वह दरवाज़े की तरफ़ चल दिया।
जीनियस कॉफ़ी की प्याली आगे रखे मेरे सामने बैठा था।
मैं उस आदमी को ध्यान से देख रहा था। मेरे साथी ने बताया था कि यह जीनियस है और मैंने सहज ही इस बात पर विश्वास कर लिया था। उससे पहले मेरा जीनियस से प्रत्यक्ष परिचय कभी नहीं हुआ था। इतना मैं जानता था कि अब वह पहला ज़माना नहीं है जब एक सदी में कोई एकाध ही जीनियस हुआ करता था। आज के ज़माने को जीनियस पैदा करने की नज़र से कमाल हासिल है। रोज़ कहीं न कहीं किसी न किसी जीनियस की चर्चा सुनने को मिल जाती है। मगर जीनियस की चर्चा सुनना और बात है, और एक जीनियस को अपने सामने देखना बिलकुल दूसरी बात। तो मैं उसे ग़ौर से देख रहा था। उसके भूरे बाल उलझकर माथे पर आ गये थे। चेहरे पर हल्की-हल्की झुर्रियाँ थीं, हालाँकि उम्र सत्ताईस-अट्ठाईस साल से ज़्यादा नहीं थी। होंठों पर एक स्थायी मुस्कराहट दिखाई देती थी, फिर भी चेहरे का भाव गम्भीर था। वह सिगरेट का कश खींचकर नीचे का होंठ ज़रा आगे को फैला देता था जिससे धुआँ बजाय सीधा जाने के ऊपर की तरफ़ उठ जाता था। उसकी आँखें निर्विकार भाव से सामने देख रही थी। हाथ मशीनी ढंग से कॉफ़ी की प्याली को होंठों तक ले जाते थे, हल्का-सा घूँट अन्दर जाता था और प्याली वापस सॉसर में पहुँच जाती थी।
“हूँ!” कई क्षणों के बाद उसके मुँह से यह स्वर निकला। मुझे लगा कि उसकी ‘हूँ’ साधारण आदमी की ‘हूँ’ से बहुत भिन्न है।
“मेरे मित्र आपकी बहुत प्रशंसा कर रहे थे,” मैंने वक़्त की ज़रूरत समझते हुए बात आरम्भ की। जीनियस के माथे के बल गहरे हो गये और उसके होंठों पर मुस्कराहट ज़रा और फैल गयी।
“मैंने इनसे कहा था कि चलिए आपका परिचय करा दूँ,” मेरे साथी ने कहा। साथ ही उसकी आँखें झपकीं और उसके दो-एक दाँत बाहर दिखाई दे गये। मुझे एक क्षण के लिए सन्देह हुआ कि कहीं यह संकेत स्वयं उसी के जीनियस होने का परिचायक तो नहीं? परन्तु दूसरे ही क्षण उसकी सधी हुई मुद्रा देखकर मेरा सन्देह जाता रहा। जीनियस एक पल आँखें मूँदे रहा। फिर उसने इस तरह विस्मय के साथ आँखें खोलीं जैसे वह यह निश्चय न कर पा रहा हो कि अपने आसपास बैठे हुए लोगों के साथ उसका क्या सम्बन्ध हो सकता है। उसके फैले हुए होंठ ज़रा सिकुड़ गये। उसने सिगरेट का एक कश खींचा और तम्बाकू का धुआँ सरसराता हुआ ऊपर को उठने लगा, तो उसने कहा, “देखिए, ये सिर्फ़ आपको बना रहे हैं। मैं जीनियस-वीनियस कुछ नहीं, साधारण आदमी हूँ।”
मैंने अपने साथी की तरफ़ देखा कि शायद उसके किसी संकेत से पता चले कि मुझे क्या कहना चाहिए। मगर वह दम साधे पत्थर के बुत की तरह गम्भीर बैठा था। मैंने फिर जीनियस की तरफ़ देखा। वह भी अपनी जगह निश्चल था। बुश्शर्ट के खुले होने से उसकी बालों से भरी छाती का काफ़ी भाग बाहर दिखाई दे रहा था।
वह कहवाख़ाने का काफ़ी अँधेरा कोना था। आसपास धुआँ जमा हो रहा था। दूर ज़ोर-ज़ोर के कहकहे लग रहे थे और हाथों में थालियाँ लिये छायाएँ इधर-उधर घूम रही थीं।
“मैं आज तक नहीं समझ सका कि कुछ लोग जीनियस क्यों माने जाते हैं?” जीनियस ने फिर कहना आरम्भ किया, “मैंने बड़े-बड़े जीनियसों के विषय में पढ़ा है और जिन्हें लोग जीनियस समझते हैं, उनकी रचनाएँ भी पढ़ी हैं। उनमें कुछ नाम हैं—शेक्सपियर, टॉल्स्टाय, गोर्की और टैगोर। मैं इन सबको हेच समझता हूँ।”
मैं अब और भी ध्यान से उसे देखने लगा। उसके माथे के ठीक बीच में एक फूली हुई नाड़ी थी जिसकी धडक़न दूर से ही नज़र आती थी। उसकी गलौठी बाहर की निकली हुई थी। बायीं आँख के नीचे हल्का-सा फफोला था। मैं उसके नक़्श अच्छी तरह ज़हन में बिठा लेना चाहता था। डर था कि हो सकता है फिर ज़िन्दगी-भर किसी जीनियस से मिलने का सौभाग्य प्राप्त न हो।
“शेक्सपियर सिर्फ़ एक वार्ड था,” दो कश खींचकर उसने फिर कहना आरम्भ किया, “और अगर मर्लोवाली कहानी सच है, तो इस बात में ही सन्देह है कि शेक्सपियर शेक्सपियर था। टॉल्स्टाय, गोर्की और चेख़व जैसे लेखकों को मैं अच्छे कॉपीइस्ट समझता हूँ—केवल कॉपीइस्ट, और कुछ नहीं। जो जैसा अपने आसपास देखा उसका हूबहू चित्रण करते गये। इसके लिए विशेष प्रतिभा की आवश्यकता नहीं। टैगोर में हाँ, थोड़ी कविता ज़रूर थी।”
वह खुलकर मुस्कराया। मेरे लिए उस मुस्कराहट का थाह पाना बहुत कठिन था। पास ही कहीं दो-एक प्यालियाँ गिरकर टूट गयीं। एक कबूतर पंख फडफ़ड़ाता हुआ कहवाख़ाने के अन्दर आया और कुछ लोग मिलकर उसे बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। जीनियस की आँखें भी कबूतर की तरफ़ मुड़ गयीं और वह कुछ देर के लिए हमारे अस्तित्व को बिलकुल भूल गया। जब उसने कबूतर की तरफ़ से आँखें हटाईं तो उसे जैसे नए सिरे से हमारी मौजूदगी का एहसास हुआ।
“मैं एक निहायत ही अदना इन्सान हूँ,” उसने हमारे कन्धों से ऊपर दीवार की तरफ देखते हुए कहा, “लेकिन यह मैं ज़रूर जानता हूँ कि जीनियस कहते किसे हैं—माफ़ कीजिए, कहते नहीं, जीनियस कहना किसे चाहिए।” उसने प्याली रख दी और शब्दों के साथ-साथ उसकी उँगलियाँ हवा में खाके बनाने लगीं। “आप जानते हैं—या शायद नहीं जानते—कि जीनियस एक व्यक्ति नहीं होता। वह एक फिनोमेना होता है, एक परिस्थिति जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। उसका अपना एक रेडिएशन, एक प्रकाश होता है। उस रेडिएशन का अनुमान उसके चेहरे की लकीरों से, उसके हाव-भाव से, या उसकी आँखों से नहीं होता। वह एक फिनोमेना है जिसके अन्दर एक अपनी हलचल होती है परन्तु जो हलचल उसकी आँखों में देखने से नहीं होती। वह स्वयं भी अपने सम्बन्ध में नहीं जानता, परन्तु जिस व्यक्ति का उसके साथ सम्पर्क हो, उस व्यक्ति को उसे पहचानने में कठिनाई नहीं होती। जीनियस को जीनियस के रूप में जानने के लिए उसकी लिखी हुई पुस्तकों या उसके बनाए हुए चित्रों को सामने रखने की आवश्यकता नहीं होती। जीनियस एक फिनोमेना है, जो अपना प्रमाण स्वयं होता है। उसके अस्तित्व में एक चीज़ होती है, जो अपने-आप बाहर महसूस हो जाती है। मैं यह इसलिए कह सकता हूँ कि मैं एक ऐसे फिनोमेना से परिचित हूँ। मेरा उसका हर रोज़ का साथ है, और मैं अपने को उसके सामने बहुत तुच्छ, बहुत हीन अनुभव करता हूँ।”
उसकी मुस्कराहट फिर लम्बी हो गयी थी। उसने नया सिगरेट सुलगाकर एक और बड़ा-सा कश खींच लिया। कॉफ़ी की प्याली उठाकर उसने एक घूँट में ही समाप्त कर दी। मैं अवाक् भाव से उसके माथे की उभरी हुई नाड़ी को देखता रहा।
“मुझे उसके साथ के कारण एक आत्मिक प्रसन्नता प्राप्त होती है,” वह फिर बोला, “मुझे उसके सम्पर्क से अपना-आप भी जीवन की साधारण सतह से उठता हुआ महसूस होता है। उसमें सचमुच वह चीज़ है जो दूसरे को ऊँचा उठा सकती है। मैं तब उसका रेडिएशन देख सकता हूँ। उसके अन्दर की हलचल महसूस कर सकता हूँ। जिस तरह अभी-अभी वह कबूतर पंख फडफ़ड़ा रहा था, उसी तरह उसकी आत्मा में हर समय एक फडफ़ड़ाहट, एक छटपटाहट भरी रहती है। उस छटपटाहट में ऐसा कुछ है जो यदि बाहर आ जाए, तो चाहे ज़िन्दगी का नक़्शा बदल दे। मगर उसे उस चीज़ को बाहर लाने का मोह नहीं है। उसकी दृष्टि में अपने को बाहर व्यक्त करने की चेष्टा करना व्यवसाय-बुद्धि है, बनियापन है। और इसलिए मैं उसका इतना सम्मान करता हूँ। मैं उससे बहुत छोटा हूँ, बहुत-बहुत छोटा हूँ, परन्तु मुझे गर्व है कि मुझे उससे स्नेह मिलता है। मैं भी उसके लिए अपने प्राणों का बलिदान दे सकता हूँ। मैंने जीवन में बहुत भूख देखी है—हर वक़्त की भूख—और अपनी भूख से प्राय: मैं व्याकुल हो जाता रहा हूँ। परन्तु जब उसे देखता हूँ तो मैं शर्मिन्दा हो जाता हूँ, भूख उसने भी देखी है, और मुझसे कहीं ज़्यादा भूख देखी है—परन्तु मैंने कभी उसे ज़रा भी विचलित या व्याकुल होते नहीं देखा। वह कठिन से कठिन अवसर पर भी मुस्कराता रहता है। मेरा सिर उसके सामने झुक जाता है। मैं जीवन के हरएक मामले में उससे राय लेता हूँ, और हमेशा उसकी बताई हुई राह पर चलने की चेष्टा करता हूँ। कई बार तो उसके सामने मुझे महसूस होता है कि मैं तो हूँ ही नहीं, बस वही वह है, क्योंकि उसके रेडिएशन के सामने मेरा व्यक्तित्व बहुत फीका पड़ जाता है। परन्तु मैं अपनी सीमाएँ जानता हूँ। मैं लाख चेष्टा करूँ फिर भी उसकी बराबरी तक नहीं उठ सकता।
उसके दाँत आपस में मिल गये और चेहरा काफी सख़्त हो गया। चेहरे की लकीरें पहले से भी गहरी हो गयीं। फिर उसने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में उलझाईं और एक बार उन्हें चटका दिया। धीरे-धीरे उसके चेहरे का तनाव फिर मुस्कराहट में बदलने लगा।
“ख़ैर!” उसने उठने की तैयारी में अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, मैं अब आपसे इजाज़त लूँगा। मैं भूल गया था कि मुझे एक जगह जाना है...।”
“मगर...” मैं इतना ही कह पाया। मैं तब तक उसी अवाक् भाव से उसे देख रहा था। उसका इस तरह एकदम उठकर चल देना मुझे ठीक नहीं लग रहा था। अभी तो उसने बात आरम्भ ही की थी।
“आप शायद सोच रहे हैं कि वह व्यक्ति कौन है जिसकी मैं बात कर रहा था...” वह उसी तरह हाथ बढ़ाए हुए बोला, “मुझे खेद है कि मैं आपका या किसी का भी उससे परिचय नहीं करा सकता। मैंने आपसे कहा था न कि वह एक व्यक्ति नहीं, एक फिनोमेना है। अपने से बाहर वह मुझे भी दिखाई नहीं देता। मैं केवल अपने अन्दर उसका रेडिएशन ही महसूस कर सकता हूँ।”
और वह हाथ मिलाकर उठ खड़ा हुआ। चलने से पहले उसकी आँखों में क्षण भर के लिए एक चमक आ गयी और उसने कहा, “वह मेरा इनरसेल्फ है।”
और क्षण भर स्थिर दृष्टि से हमें देखकर वह दरवाज़े की तरफ़ चल दिया।
अपरिचित - मोहन राकेश
कोहरे की वजह से खिड़कियों के शीशे धुँधले पड़ गये थे। गाड़ी चालीस की रफ़्तार से सुनसान अँधेरे को चीरती चली जा रही थी। खिड़की से सिर सटाकर भी बाहर कुछ दिखाई नहीं देता था। फिर भी मैं देखने की कोशिश कर रहा था। कभी किसी पेड़ की हल्की-गहरी रेखा ही गुज़रती नज़र आ जाती तो कुछ देख लेने का सन्तोष होता। मन को उलझाए रखने के लिए इतना ही काफ़ी था। आँखों में ज़रा नींद नहीं थी। गाड़ी को जाने कितनी देर बाद कहीं जाकर रुकना था। जब और कुछ दिखाई न देता, तो अपना प्रतिबिम्ब तो कम से कम देखा ही जा सकता था। अपने प्रतिबिम्ब के अलावा और भी कई प्रतिबिम्ब थे। ऊपर की बर्थ पर सोये व्यक्ति का प्रतिबिम्ब अजब बेबसी के साथ हिल रहा था। सामने की बर्थ पर बैठी स्त्री का प्रतिबिम्ब बहुत उदास था। उसकी भारी पलकें पल-भर के लिए ऊपर उठतीं, फिर झुक जातीं। आकृतियों के अलावा कई बार नई-नई आवाज़ें ध्यान बँटा देतीं, जिनसे पता चलता कि गाड़ी पुल पर से जा रही है या मकानों की क़तार के पास से गुज़र रही है। बीच में सहसा इंजन की चीख़ सुनाई दे जाती, जिससे अँधेरा और एकान्त और गहरे महसूस होने लगते।
मैंने घड़ी में वक़्त देखा। सवा ग्यारह बजे थे। सामने बैठी स्त्री की आँखें बहुत सुनसान थीं। बीच-बीच में उनमें एक लहर-सी उठती और विलीन हो जाती। वह जैसे आँखों से देख नहीं रही थी, सोच रही थी। उसकी बच्ची, जिसे फर के कम्बलों में लपेटकर सुलाया गया था, ज़रा-ज़रा कुनमुनाने लगी। उसकी गुलाबी टोपी सिर से उतर गयी थी। उसने दो-एक बार पैर पटके, अपनी बँधी हुई मुट्ठियाँ ऊपर उठाईं और रोने लगी। स्त्री की सुनसान आँखें सहसा उमड़ आयीं। उसने बच्ची के सिर पर टोपी ठीक कर दी और उसे कम्बलों समेत उठाकर छाती से लगा लिया।
मगर इससे बच्ची का रोना बन्द नहीं हुआ। उसने उसे हिलाकर और दुलारकर चुप कराना चाहा, मगर वह फिर भी रोती रही। इस पर उसने कम्बल थोड़ा हटाकर बच्ची के मुँह में दूध दे दिया और उसे अच्छी तरह अपने साथ सटा लिया।
मैं फिर खिड़की से सिर सटाकर बाहर देखने लगा। दूर बत्तियों की एक क़तार नज़र आ रही थी। शायद कोई आबादी थी, या सिर्फ़ सडक़ ही थी। गाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी और इंजन बहुत पास होने से कोहरे के साथ धुआँ भी खिड़की के शीशों पर जमता जा रहा था। आबादी या सडक़, जो भी वह थी, अब धीरे-धीरे पीछे रही जा रही थी। शीशे में दिखाई देते प्रतिबिम्ब पहले से गहरे हो गये थे। स्त्री की आँखें मुँद गयी थीं और ऊपर लेटे व्यक्ति की बाँह ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थी। शीशे पर मेरी साँस के फैलने से प्रतिबिम्ब और धुँधले हो गये थे। यहाँ तक कि धीरे-धीरे सब प्रतिबिम्ब अदृश्य हो गये। मैंने तब जेब से रूमाल निकालकर शीशे को अच्छी तरह पोंछ दिया।
स्त्री ने आँखें खोल ली थीं और एकटक सामने देख रही थी। उसके होंठों पर हल्की-सी रेखा फैली थी जो ठीक मुस्कराहट नहीं थी। मुस्कराहट ने बहुत कम व्यक्त उस रेखा में कहीं गम्भीरता भी थी और अवसाद भी—जैसे वह अनायास उभर आयी किसी स्मृति की रेखा थी। उसके माथे पर हल्की-सी सिकुडऩ पड़ गयी थी।
बच्ची जल्दी ही दूध से हट गयी। उसने सिर उठाकर अपना बिना दाँत का मुँह खोल दिया और किलकारी भरती हुई माँ की छाती पर मुट्ठियों से चोट करने लगी। दूसरी तरफ़ से आती एक गाड़ी तेज़ रफ़्तार में पास से गुज़री तो वह ज़रा सहम गयी, मगर गाड़ी के निकलते ही और भी मुँह खोलकर किलकारी भरने लगी। बच्ची का चेहरा गदराया हुआ था और उसकी टोपी के नीचे से भूरे रंग के हल्के-हल्के बाल नज़र आ रहे थे। उसकी नाक ज़रा छोटी थी, पर आँखें माँ की ही तरह गहरी और फैली हुई थीं। माँ के गाल और कपड़े नोचकर उसकी आँखें मेरी तरफ घूम गयीं और वह बाँहें हवा में पटकती हुई मुझे अपनी किलकारियों का निशाना बनाने लगी।
स्त्री की पलकें उठीं और उसकी उदास आँखें क्षण-भर मेरी आँखों से मिली रहीं। मुझे उस क्षण-भर के लिए लगा कि मैं एक ऐसे क्षितिज को देख रहा हूँ जिसमें गहरी साँझ के सभी हल्के-गहरे रंग झिलमिला रहे हैं और जिसका दृश्यपट क्षण के हर सौवें हिस्से में बदलता जा रहा है...।
बच्ची मेरी तरफ़ देखकर बहुत हाथ पटक रही थी, इसलिए मैंने अपने हाथ उसकी तरफ़ बढ़ा दिये और कहा, “आ बेटे, आ...।”
मेरे हाथ पास आ जाने से बच्ची के हाथों का हिलना बन्द हो गया और उसके होंठ रुआँसे हो गये।
स्त्री ने बच्ची को अपने होंठों से छुआ और कहा, “जा बिट्टू, जाएगी उनके पास?”
लेकिन बिट्टू के होंठ और रुआँसे हो गये और वह माँ के साथ सट गयी।
“ग़ैर आदमी से डरती है,” मैंने मुस्कराकर कहा और हाथ हटा लिये।
स्त्री के होंठ भिंच गये और माथे की खाल में थोड़ा खिंचाव आ गया। उसकी आँखें जैसे अतीत में चली गयीं। फिर सहसा वहाँ से लौट आयी और वह बोली, “नहीं, डरती नहीं। इसे दरअसल आदत नहीं है। यह आज तक या तो मेरे हाथों में रही है या नौकरानी के...,” और वह उसके सिर पर झुक गयी। बच्ची उसके साथ सटकर आँखें झपकने लगी। महिला उसे हिलाती हुई थपकियाँ देने लगी। बच्ची ने आँखें मूँद लीं। महिला उसकी तरफ़ देखती हुई जैसे चूमने के लिए होंठ बढ़ाए उसे थपकियाँ देती रही। फिर एकाएक उसने झुककर उसे चूम लिया।
“बहुत अच्छी है हमारी बिट्टू, झट-से सो जाती है,” यह उसने जैसे अपने से कहा और मेरी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में एक उदास-सा उत्साह भर रहा था।
“कितनी बड़ी है यह बच्ची?” मैंने पूछा।
“दस दिन बाद पूरे चार महीने की हो जाएगी,” वह बोली, “पर देखने में अभी उससे छोटी लगती है। नहीं?”
मैंने आँखों से उसकी बात का समर्थन किया। उसके चेहरे में एक अपनी ही सहजता थी—विश्वास और सादगी की। मैंने सोई हुई बच्ची के गाल को ज़रा-सा सहला दिया। स्त्री का चेहरा और भावपूर्ण हो गया।
“लगता है आपको बच्चों से बहुत प्यार है,” वह बोली, “आपके कितने बच्चे हैं?”
मेरी आँखें उसके चेहरे से हट गयीं। बिजली की बत्ती के पास एक कीड़ा उड़ रहा था।
“मेरे?” मैंने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा, “अभी तो कोई नहीं है, मगर...।”
“मतलब ब्याह हुआ है, अभी बच्चे-अच्चे नहीं हुए,” वह मुस्कराई, “आप मर्द लोग तो बच्चों से बचे ही रहना चाहते हैं न?”
मैंने होंठ सिकोड़ लिये और कहा, “नहीं, यह बात नहीं...।”
“हमारे ये तो बच्ची को छूते भी नहीं,” वह बोली, “कभी दो मिनट के लिए भी उठाना पड़ जाए तो झल्लाने लगते हैं। अब तो ख़ैर वे इस मुसीबत से छूटकर बाहर ही चले गये हैं।” और सहसा उसकी आँखें छलछला आयीं। रुलाई की वजह से उसके होंठ बिलकुल उस बच्ची जैसे हो गये थे। फिर सहसा उसके होंठों पर मुस्कराहट लौट आयी—जैसा अक्सर सोए हुए बच्चों के साथ होता है। उसने आँखें झपककर अपने को सहेज लिया और बोली, “वे डॉक्टरेट के लिए इंग्लैंड गये हैं। मैं उन्हें बम्बई में जहाज़ पर चढ़ाकर आ रही हूँ।...वैसे छ:-आठ महीने की बात है। फिर मैं भी उनके पास चली जाऊँगी।”
फिर उसने ऐसी नज़र से मुझे देखा जैसे उसे शिकायत हो कि मैंने उसकी इतनी व्यक्तिगत बात उससे क्यों जान ली!
“आप बाद में अकेली जाएँगी?” मैंने पूछा, “इससे तो आप अभी साथ चली जातीं...।”
उसके होंठ सिकुड़ गये और आँखें फिर अन्तर्मुख हो गयीं। वह कई पल अपने में डूबी रही और उसी भाव से बोली, “साथ तो नहीं जा सकती थी क्योंकि अकेले उनके जाने की भी सुविधा नहीं थी। लेकिन उनको मैंने किसी तरह भेज दिया है। चाहती थी कि उनकी कोई तो चाह मुझसे पूरी हो जाए।...दीशी की बाहर जाने की बहुत इच्छा थी।...अब छ:-आठ महीने मैं अपनी तनख़ाह में से कुछ पैसा बचाऊँगी और थोड़ा-बहुत कहीं से उधार लेकर अपने जाने का इन्तज़ाम करूँगी।”
उसने सोच में डूबती-उतराती अपनी आँखों को सहसा सचेत कर लिया और फिर कुछ क्षण शिकायत की नज़र मुझे देखती रही। फिर बोली, “अभी बिट्टू भी बहुत छोटी है न? छ:-आठ महीने में यह बड़ी हो जाएगी और मैं भी तब तक थोड़ा और पढ़ लूँगी। दीशी की बहुत इच्छा है कि मैं एम.ए. कर लूँ। मगर मैं ऐसी जड़ और नाकारा हूँ कि उनकी कोई भी चाह पूरी नहीं कर पाती। इसीलिए इस बार उन्हें भेजने के लिए मैंने अपने सब गहने बेच दिए हैं। अब मेरे पास बस मेरी बिट्टू है, और कुछ नहीं।” और वह बच्ची के सिर पर हाथ फेरती हुई, भरी-भरी नज़र से उसे देखती रही।
बाहर वही सुनसान अँधेरा था, वही लगातार सुनाई देती इंजन की फक्-फक्। शीशे से आँख गड़ा लेने पर भी दूर तक वीरानगी ही वीरानगी नज़र आती थी।
मगर उस स्त्री की आँखों में जैसे दुनिया-भर की वत्सलता सिमट आयी थी। वह फिर कई क्षण अपने में डूबी रही। फिर उसने एक उसाँस लीं और बच्ची को अच्छी तरह कम्बलों में लपेटकर सीट पर लिटा दिया।
ऊपर की बर्थ पर लेटा हुआ आदमी खुर्राटे भर रहा था। एक बार करवट बदलते हुए वह नीचे गिरने को हुआ, पर सहसा हड़बड़ाकर सँभल गया। फिर कुछ ही देर में वह और ज़ोर से खुर्राटे भरने लगा।
“लोगों को जाने सफ़र में कैसे इतनी गहरी नींद आ जाती है!” वह स्त्री बोली, “मुझे दो-दो रातें सफ़र करना हो, तो भी मैं एक पल नहीं सो पाती। अपनी-अपनी आदत होती है!”
“हाँ, आदत की ही बात है,” मैंने कहा, “कुछ लोग बहुत निश्चिन्त होकर जीते हैं और कुछ होते हैं कि...।”
“बग़ैर चिन्ता के जी ही नहीं सकते!” और वह हँस दी। उसकी हँसी का स्वर भी बच्चों जैसा ही था। उसके दाँत बहुत छोटे-छोटे और चमकीले थे। मैंने भी उसकी हँसी में साथ दिया।
“मेरी बहुत ख़राब आदत है,” वह बोली, “मैं बात-बेबात के सोचती रहती हूँ। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं सोच-सोचकर पागल हो जाऊँगी। ये मुझसे कहते हैं कि मुझे लोगों से मिलना-जुलना चाहिए, खुलकर हँसना, बात करना चाहिए, मगर इनके सामने मैं ऐसे गुमसुम हो जाती हूँ कि क्या कहूँ? वैसे और लोगों से भी मैं ज़्यादा बात नहीं करती लेकिन इनके सामने तो चुप्पी ऐसी छा जाती है जैसे मुँह में ज़बान हो ही नहीं...।...अब देखिए न, इस वक़्त कैसे लतर-लतर बात कर रही हूँ!” और वह मुस्कराई। उसके चेहरे पर हल्की-सी संकोच की रेखा आ गयी।
“रास्ता काटने के लिए बात करना ज़रूरी हो जाता है,” मैंने कहा, “ख़ासतौर से जब नींद न आ रही हो।”
उसकी आँखें पल-भर फैली रहीं। फिर वह गरदन ज़रा झुकाकर बोली, “ये कहते हैं कि जिसके मुँह में ज़बान ही न हो, उसके साथ पूरी ज़िन्दगी कैसे काटी जा सकती है? ऐसे इन्सान में और एक पालतू जानवर में क्या फ़र्क़ है? मैं हज़ार चाहती हूँ कि इन्हें ख़ुश दिखाई दूँ और इनके सामने कोई न कोई बात करती रहूँ, लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं। इन्हें फिर गुस्सा आ जाता है और मैं रो देती हूँ। इन्हें मेरा रोना बहुत बुरा लगता है।” कहते हुए उसकी आँखों में आँसू छलक आये, जिन्हें उसने अपनी साड़ी के पल्ले से पोंछ लिया।
“मैं बहुत पागल हूँ,” वह फिर बोली, “ये जितना मुझे टोकते हैं, मैं उतना ही ज़्यादा रोती हूँ। दरअसल ये मुझे समझ नहीं पाते। मुझे बात करना अच्छा नहीं लगता, फिर जाने क्यों ये मुझे बात करने के लिए मजबूर करते हैं?” और फिर माथे को हाथ से दबाए हुए बोली, “आप भी अपनी पत्नी से ज़बर्दस्ती बात करने के लिए कहते हैं?”
मैंने पीछे टेक लगाकर कन्धे सिकोड़ लिये और हाथ बगलों में दबाए बत्ती के पास उड़ते कीड़े को देखने लगा। फिर सिर को ज़रा-सा झटककर मैंने उसकी तरफ़ देखा। वह उत्सुक नज़र से मेरी तरफ़ देख रही थी।
“मैं?” मैंने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा, “मुझे यह कहने का कभी मौका ही नहीं मिल पाता। मैं बल्कि पाँच साल से यह चाह रहा हूँ कि वह ज़रा कम बात किया करे। मैं समझता हूँ कि कई बार इन्सान चुप रहकर ज़्यादा बात कह सकता है। ज़बान से कही बात में वह रस नहीं होता जो आँख की चमक से या होंठों के कम्पन से या माथे की एक लकीर से कही गयी बात में होता है। मैं जब उसे यह समझाना चाहता हूँ, तो वह मुझे विस्तारपूर्वक बात देती है कि ज़्यादा बात करना इन्सान की निश्छलता का प्रमाण है और मैं इतने सालों में अपने प्रति उसकी भावना को समझ ही नहीं सका! वह दरअसल कॉलेज में लेक्चरर है और अपनी आदत की वजह से घर में भी लेक्चर देती रहती है।”
“ओह!” वह थोड़ी देर दोनों हाथों में अपना मुँह छिपाए रही। फिर बोली, “ऐसा क्यों होता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। मुझे दीशी से यही शिकायत है कि वे मेरी बात नहीं समझ पाते। मैं कई बार उनके बालों में अपनी उँगलियाँ उलझाकर उनसे बात करना चाहती हूँ, कई बार उनके घुटनों पर सिर रखकर मुँदी आँखों से उनसे कितना कुछ कहना चाहती हूँ। लेकिन उन्हें यह सब अचछा नहीं लगता। वे कहते हैं कि यह सब गुडिय़ों का खेल है, उनकी पत्नी को जीता-जागता इन्सान होना चाहिए। और मैं इन्सान बनने की बहुत कोशिश करती हूँ, लेकिन नहीं बन पाती, कभी नहीं बन पाती। इन्हें मेरी कोई आदत अच्छी नहीं लगती। मेरा मन होता है कि चाँदनी रात में खेतों में घूमूँ, या नदी में पैर डालकर घंटों बैठी रहूँ, मगर ये कहते हैं कि ये सब आइडल मन की वृत्तियाँ हैं। इन्हें क्लब, संगीत-सभाएँ और डिनर-पार्टियाँ अच्छी लगती हैं। मैं इनके साथ वहाँ जाती हूँ तो मेरा दम घुटने लगता है। मुझे वहाँ ज़रा अपनापन महसूस नहीं होता। ये कहते हैं कि तू पिछले जन्म में मेंढकी थी जो तुझे क्लब में बैठने की बजाय खेतों में मेंढकों की आवाज़ें सुनना ज़्यादा अच्छा लगता है। मैं कहती हूँ कि मैं इस जन्म में भी मेंढकी हूँ। मुझे बरसात में भीगना बहुत अच्छा लगता है। और भीगकर मेरा मन कुछ न कुछ गुनगुनाने को कहने लगता है—हालाँकि मुझे गाना नहीं आता। मुझे क्लब में सिगरेट के धुएँ में घुटकर बैठे रहना नहीं अच्छा लगता। वहाँ मेरे प्राण गले को आने लगते हैं।”
उस थोड़े-से समय में ही मुझे उसके चेहरे का उतार-चढ़ाव काफ़ी परिचित लगने लगा था। उसकी बात सुनते हुए मेरे मन पर हल्की उदासी छाने लगी थी, हालाँकि मैं जानता था कि वह कोई भी बात मुझसे नहीं कह रही—वह अपने से बात करना चाहती है और मेरी मौजूदगी उसके लिए सिर्फ़ एक बहाना है। मेरी उदासी भी उसके लिए न होकर अपने लिए थी, क्योंकि बात उससे करते हुए भी मुख्य रूप से मैं सोच अपने विषय में रहा था। मैं पाँच साल से मंज़िल दर मंज़िल विवाहित जीवन से गुज़रता आ रहा था—रोज़ यही सोचते हुए कि शायद आनेवाला कल ज़िन्दगी के इस ढाँचे को बदल देगा। सतह पर हर चीज़ ठीक थी, कहीं कुछ ग़लत नहीं था, मगर सतह से नीचे जीवन कितनी-कितनी उलझनों और गाँठों से भरा था! मैंने विवाह के पहले दिनों में ही जान लिया था कि नलिनी मुझसे विवाह करके सुखी नहीं हो सकी, क्योंकि मैं उसकी कोई भी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने में सहायक नहीं हो सकता। वह एक भरा-पूरा घर चाहती थी, जिसमें उसका शासन हो और ऐसा सामाजिक जीवन जिसमें उसे महत्त्व का दर्जा प्राप्त हो। वह अपने से स्वतन्त्र अपने पति के मानसिक जीवन की कल्पना नहीं करती थी। उसे मेरी भटकने की वृत्ति और साधारण का मोह मानसिक विकृतियाँ लगती थीं जिन्हें वह अपने अधिक स्वस्थ जीवन-दर्शन से दूर करना चाहती थी। उसने इस विश्वास के साथ जीवन आरम्भ किया था कि वह मेरी त्रुटियों की क्षतिपूर्ति करती हुई बहुत शीघ्र मुझे सामाजिक दृष्टि से सफल व्यक्ति बनने की दिशा में ले जाएगी। उसकी दृष्टि में यह मेरे संस्कारों का दोष था जो मैं इतना अन्तर्मुख रहता था और इधर-उधर मिल-जुलकर आगे बढऩे का प्रयत्न नहीं करता था। वह इस परिस्थिति को सुधारना चाहता थी, पर परिस्थिति सुधरने की जगह बिड़ती गयी थी। वह जो कुछ चाहती थी, वह मैं नहीं कर पाता था और जो कुछ मैं चाहता था, वह उससे नहीं होता था। इससे हममें अक्सर चख्ï-चख्ï होने लगती थी और कई बार दीवारों से सिर टकराने की नौबत आ जाती थी। मगर यह सब हो चुकने पर नलिनी बहुत जल्दी स्वस्थ हो जाती थी और उसे फिर मुझसे यह शिकायत होती थी कि मैं दो-दो दिन अपने को उन साधारण घटनाओं के प्रभाव से मुक्त क्यों नहीं कर पाता। मगर मैं दो-दो दिन क्या, कभी उन घटनाओं के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता था, औरत को जब वह सो जाती थी, तो घंटों तकिये में मुँह छिपाए कराहता रहता था। नलिनी आपसी झगड़े को उतना अस्वाभाविक नहीं समझती थी, जितना मेरे रात-भर जागने को, और उसके लिए मुझे नर्व टॉनिक लेने की सलाह दिया करती थी। विवाह के पहले दो वर्ष इसी तरह बीते थे और उसके बाद हम अलग-अलग जगह काम करने लगे थे। हालाँकि समस्या ज्यों की त्यों बनी थी, और जब भी हम इकट्ठे होते, वही पुरानी ज़िन्दगी लौट आती थी, फिर भी नलिनी का यह विश्वास अभी कम नहीं हुआ था कि कभी न कभी मेरे सामाजिक संस्कारों का उदय अवश्य होगा और तब हम साथ रहकर सुखी विवाहित जीवन व्यतीत कर सकेंगे।
“आप कुछ सोच रहे हैं?” उस स्त्री ने अपनी बच्ची के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
मैंने सहसा अपने को सहेजा और कहा, “हाँ, मैं आप ही की बात को लेकर सोच रहा था। कुछ लोग होते हैं, जिनसे दिखावटी शिष्टाचार आसानी से नहीं ओढ़ा जाता। आप भी शायद उन्हीं लोगों में से हैं।”
“मैं नहीं जानती,” वह बोली, “मगर इतना जानती हूँ कि मैं बहुत-से परिचित लोगों के बीच अपने को अपरिचित, बेगाना और अनमेल अनुभव करती हूँ। मुझे लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है। मैं इतनी बड़ी होकर भी वह कुछ नहीं जान-समझ पायी, जो लोग छुटपन में ही सीख जाते हैं। दीशी का कहना है कि मैं सामाजिक दृष्टि से बिलकुल मिसफिट हूँ।”
“आप भी यही समझती हैं?” मैंने पूछा।
“कभी समझती हूँ, कभी नहीं भी समझती,” वह बोली, “एक ख़ास तरह के समाज में मैं ज़रूर अपने को मिसफिट अनुभव करती हूँ। मगर...कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके बीच जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है। ब्याह से पहले मैं दो-एक बार कॉलेज की पार्टियों के साथ पहाड़ों पर घूमने के लिए गयी थी। वहाँ सब लोगों को मुझसे यही शिकायत होती थी कि मैं जहाँ बैठ जाती हूँ, वहीं की हो सकती हूँ। मुझे पहाड़ी बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। मैं उनके घर के लोगों से भी बहुत जल्दी दोस्ती कर लेती थी। एक पहाड़ी परिवार की मुझे आज तक याद है। उस परिवार के बच्चे मुझसे इतना घुल-मिल गये थे कि मैं बड़ी मुश्किल से उन्हें छोडक़र उनके यहाँ से चल पायी थी। मैं कुल दो घंटे उन लोगों के पास रही थी। दो घंटे में मैंने उन्हें नहलाया-धुलाया भी, और उनके साथ खेलती भी रही। बहुत ही अच्छे बच्चे थे वे। हाय, उनके चहरे इतने लाल थे कि क्या कहूँ! मैंने उनकी माँ से कहा कि वह अपने छोटे लडक़े किशनू को मेरे साथ भेज दे। वह हँसकर बोली कि तुम सभी को ले जाओ, यहाँ कौन इनके लिए मोती रखे हैं! यहाँ तो दो साल में इनकी हड्डियाँ निकल आएँगी, वहाँ खा-पीकर अच्छे तो रहेंगे। मुझे उसकी बात सुनकर रुलाई आने को हुई।...मैं अकेली होती, तो शायद कई दिनों के लिए उन लोगों के पास रह जाती। ऐसे लोगों में जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है।...अब तो आपको भी लग रहा होगा कि कितनी अजीब हूँ मैं! ये कहा करते हैं कि मुझे किसी अच्छे मनोविद् से अपना विश्लेषण कराना चाहिए, नहीं तो किसी दिन मैं पागल होकर पहाड़ों पर भटकती फिरूँगी!”
“यह तो अपनी-अपनी बनावट की बात है,” मैंने कहा, “मुझे खुद आदिम संस्कारों के लोगों के बीच रहना बहुत अच्छा लगता है। मैं आज तक एक जगह घर बनाकर नहीं रह सका और न ही आशा है कि कभी रह सकूँगा। मुझे अपनी ज़िन्दगी की जो रात सबसे ज़्यादा याद आती है, वह रात मैंने पहाड़ी गूजरों की एक बस्ती में बिताई थी। उस रात उस बस्ती में एक ब्याह था, इसलिए सारी रात वे लोग शराब पीते और नाचते-गाते रहे। मुझे बहुत हैरानी हुई जब मुझे बताया गया कि वही गूजर दस-दस रुपये के लिए आदमी का ख़ून भी कर देते हैं!”
“आपको सचमुच इस तरह की ज़िन्दगी अच्छी लगती है?” उसने कुछ आश्चर्य और अविश्वास के साथ पूछा।
“आपको शायद ख़ुशी हो रही है कि पागल होने की उम्मीदवार आप अकेली ही नहीं हैं,” मैंने मुस्कराकर कहा। वह भी मुस्कराई। उसकी आँखें सहसा भावनापूर्ण हो उठीं। उस एक क्षण में मुझे उन आँखों में न जाने कितनी-कुछ दिखाई दिया—करुणा, क्षोभ, ममता, आर्द्रता, ग्लानि, भय, असमंजस और स्नेह! उसके होंठ कुछ कहने के लिए काँपे, लेकिन काँपकर ही रह गये। मैं भी चुपचाप उसे देखता रहा। कुछ क्षणों के लिए मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिमाग़ बिलकुल ख़ाली है और मुझे पता नहीं कि मैं क्या कर रहा था और आगे क्या कहना चाहता था। सहसा उसकी आँखों में फिर वही सूनापन भरने लगा ओर क्षण-भर में ही वह इतना बढ़ गया कि मैंने उसकी तरफ़ से आँखें हटा लीं।
बत्ती के पास उड़ता कीड़ा उसके साथ सटकर झुलस गया था।
बच्ची नींद में मुस्करा रही थी।
खिड़की के शीशे पर इतनी धुँध जम गयी थी कि उसमें अपना चेहरा भी दिखाई नहीं देता था।
गाड़ी की रफ़्तार धीमी हो रही थी। कोई स्टेशन आ रहा था। दो-एक बत्तियाँ तेज़ी से निकल गयीं। मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया। बाहर से आती ब$र्फानी हवा के स्पर्श ने स्नायुओं को थोड़ा सचेत कर दिया। गाड़ी एक बहुत नीचे प्लेटफार्म के पास आकर खड़ी हो रही थी।
“यहाँ कहीं थोड़ा पानी मिल जाएगा?”
मैंने चौंककर देखा कि वह अपनी टोकरी में से काँच का गिलास निकालकर अनिश्चित भाव से हाथ में लिये हैं। उसके चेहरे की रेखाएँ पहले से गहरी हो गयी थीं।
“पानी आपको पीने के लिए चाहिए?” मैंने पूछा।
“हाँ। कुल्ला करूँगी और पिऊँगी भी। न जाने क्यों होंठ कुछ चिपक-से रहे हैं। बाहर इतनी ठंड है, फिर भी...।”
“देखता हूँ, अगर यहाँ कोई नल-वल हो, तो...।”
मैंने गिलास उसके हाथ से ले लिया और जल्दी से प्लेटफ़ार्म पर उतर गया। न जाने कैसा मनहूस स्टेशन था कि कहीं पर भी कोई इन्सान नज़र नहीं आ रहा था। प्लेटफ़ार्म पर पहुँचते ही हवा के झोंकों से हाथ-पैर सुन्न होने लगे। मैंने कोट के कॉलर ऊँचे कर लिये। प्लेटफ़ार्म के जंगले के बाहर से फैलकर ऊपर आये दो-एक पेड़ हवा में सरसरा रहे थे। इंजन के भाप छोडऩे से लम्बी शूँ-ऊँ की आवाज़ सुनाई दे रही थी। शायद वहाँ गाड़ी सिग्नल न मिलने की वजह से रुक गयी थी।
दूर कई डिब्बे पीछे एक नल दिखाई दिया, तो मैं तेज़ी से उस तरफ़ चल दिया। ईंटों के प्लेटफ़ार्म पर अपने जूते का शब्द मुझे बहुत अजीब-सा लगा। मैंने चलते-चलते गाड़ी की तरफ़ देखा। किसी खिड़की से कोई चेहरा बाहर नहीं झाँक रहा था। मैं नल के पास जाकर गिलास में पानी भरने लगा। तभी हल्की-सी सीटी देकर गाड़ी एक झटके के साथ चल पड़ी। मैं भरा हुआ पानी का गिलास लिये अपने डिब्बे की तरफ़ दौड़ा। दौड़ते हुए मुझे लगा कि मैं उस डिब्बे तक नहीं पहुँच पाऊँगा और सर्दी में उस अँधेरे और सुनसान प्लेटफ़ार्म पर ही मुझे बिना सामान के रात बितानी होगी। यह सोचकर मैं और तेज़ दौडऩे लगा। किसी तरह अपने डिब्बे के बराबर पहुँच गया। दरवाज़ा खुला था और वह दरवाज़े के पास खड़ी थी। उसने हाथ बढ़ाकर गिलास मुझसे ले लिया। फुटबोर्ड पर चढ़ते हुए एक बार मेरा पैर ज़रा-सा फिसला, मगर अगले ही क्षण मैं स्थिर होकर खड़ा हो गया। इंजन तेज़ होने की कोशिश में हल्के-हल्के झटके दे रहा था और ईंटों के प्लेटफ़ार्म की जगह अब नीचे अस्पष्ट गहराई दिखाई देने लगी थी।
“अन्दर आ जाइए,” उसके ये शब्द सुनकर मुझे एहसास हुआ कि मुझे फुटबोर्ड से आगे भी कहीं जाना है। डिब्बे के अन्दर क़दम रखा, तो मेरे घुटने ज़रा-ज़रा काँप रहे थे।
अपनी जगह पर आकर मैंने टाँगें सीधी करके पीछे टेक लगा लीं। कुछ पल बाद आँखें खोलीं तो लगा कि वह इस बीच मुँह धो आयी है। फिर भी उसके चेहरे पर मुर्दनी-सी छा रही थी। मेरे होंठ सूख रहे थे, फिर भी मैं थोड़ा मुस्कराया।
“क्या बात है, आपका चेहरा ऐसा क्यों हो रहा है?” मैंने पूछा।
“मैं कितनी मनहूस हूँ...,” कहकर उसने अपना निचला होंठ ज़रा-सा काट लिया।
“क्यों?”
“अभी मेरी वज़ह से आपको कुछ हो जाता...।”
“यह खूब सोचा आपने!”
“नहीं। मैं हूँ ही ऐसी...,” वह बोली, “ज़िन्दगी में हर एक को दु:ख ही दिया है। अगर कहीं आप न चढ़ पाते...।”
“तो?”
“तो?” उसने होंठ ज़रा सिकोड़े, “तो मुझे पता नहीं...पर...।”
उसने ख़ामोश रहकर आँखें झुका लीं। मैंने देखा कि उसकी साँस जल्दी-जल्दी चल रही है। महसूस किया कि वास्तविक संकट की अपेक्षा कल्पना का संकट कितना बड़ा और ख़तरनाक होता है। शीशा उठा रहने से खिड़की से ठंडी हवा आ रही थी। मैंने खींचकर शीशा नीचे कर दिया।
“आप क्यों गये थे पानी लाने के लिए? आपने मना क्यों नहीं कर दिया?” उसने पूछा।
उसके पूछने के लहज़े से मुझे हँसी आ गयी।
“आप ही ने तो कहा था...।”
“मैं तो मूर्ख हूँ, कुछ भी कह देती हूँ। आपको तो सोचना चाहिए था।”
“अच्छा, मैं अपनी ग़लती मान लेता हूँ।”
इससे उसके मुरझाए होंठों पर भी मुस्कराहट आ गयी।
“आप भी कहेंगे, कैसी लडक़ी है,” उसने आन्तरिक भाव के साथ कहा। “सच कहती हूँ, मुझे ज़रा अक्ल नहीं है। इतनी बड़ी हो गयी हूँ, पर अक्ल रत्ती-भर नहीं है—सच!”
मैं फिर हँस दिया।
“आप हँस क्यों रहे हैं?” उसके स्वर में फिर शिकायत का स्पर्श आ गया।
“मुझे हँसने की आदत है!” मैंने कहा।
“हँसना अच्छी आदत नहीं है।”
मुझे इस पर फिर हँसी आ गयी।
वह शिकायत-भरी नज़र से मुझे देखती रही।
गाड़ी की रफ़्तार फिर तेज़ हो रही थी। ऊपर की बर्थ पर लेटा आदमी सहसा हड़बड़ाकर उठ बैठा और ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगा। खाँसी का दौरा शान्त होने पर उसने कुछ पल छाती को हाथ में दबाये रखा, फिर भारी आवाज़ में पूछा, “क्या बजा है?”
“पौने बारह,” मैंने उसकी तरफ़ देखकर उत्तर दिया।
“कुल पौने बारह?” उसने निराश स्वर में कहा और फिर लेट गया। कुछ ही देर में वह फिर खुर्राटे भरने लगा।
“आप भी थोड़ी देर सो जाइए।” वह पीछे टेक लगाए शायद कुछ सोच रही थी या केवल देख रही थी।
“आपको नींद आ रही है, आप सो जाइए,” मैंने कहा।
“मैंने आपसे कहा था न मुझे गाड़ी में नींद नहीं आती। आप सो जाइए।”
मैंने लेटकर कम्बल ले लिया। मेरी आँखें देर तक ऊपर की बत्ती को देखती रहीं जिसके साथ झुलसा हुआ कीड़ा चिपककर रह गया था।
“रजाई भी ले लीजिए, काफी ठंड है,” उसने कहा।
“नहीं, अभी ज़रूरत नहीं है। मैं बहुत-से गर्म कपड़े पहने हूँ।”
“ले लीजिए, नहीं बाद में ठिठुरते रहिएगा।”
“नहीं, ठिठुरूँगा नहीं,” मैंने कम्बल गले तक लपेटते हुए कहा, “और थोड़ी-थोड़ी ठंड महसूस होती रहे, तो अच्छा लगता है।”
“बत्ती बुझा दूँ?” कुछ देर बाद उसने पूछा।
“नहीं, रहने दीजिए।”
“नहीं, बुझा देती हूँ। ठीक से सो जाइए।” और उसने उठकर बत्ती बुझा दी। मैं काफी देर अँधेरे में छत की तरफ़ देखता रहा। फिर मुझे नींद आने लगी।
शायद रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी, जब इंजन के भोंपू की आवाज़ से मेरी नींद खुली। वह आवाज़ कुछ ऐसी भारी थी कि मेरे सारे शरीर में एक झुरझुरी-सी भर गयी। पिछले किसी स्टेशन पर इंजन बदल गया था।
गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी तो मैंने सिर थोड़ा ऊँचा उठाया। सामने की सीट ख़ाली थी। वह स्त्री न जाने किस स्टेशन पर उतर गयी थी। इसी स्टेशन पर न उतरी हो, यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा। प्लेटफ़ार्म बहुत पीछे रह गया था और बत्तियों की क़तार के सिवा कुछ साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने शीशा फिर नीचे खींच लिया। अन्दर की बत्ती अब भी बुझी हुई थी। बिस्तर में नीचे को सरकते हुए मैंने देखा कि कम्बल के अलावा मैं अपनी रजाई भी लिये हूँ जिसे अच्छी तरह कम्बल के साथ मिला दिया गया है। गरमी की कई एक सिहरनें एक साथ शरीर में भर गयीं।
ऊपर की बर्थ पर लेटा आदमी अब भी उसी तरह ज़ोर-ज़ोर से खुर्राटे भर रहा था।
मैंने घड़ी में वक़्त देखा। सवा ग्यारह बजे थे। सामने बैठी स्त्री की आँखें बहुत सुनसान थीं। बीच-बीच में उनमें एक लहर-सी उठती और विलीन हो जाती। वह जैसे आँखों से देख नहीं रही थी, सोच रही थी। उसकी बच्ची, जिसे फर के कम्बलों में लपेटकर सुलाया गया था, ज़रा-ज़रा कुनमुनाने लगी। उसकी गुलाबी टोपी सिर से उतर गयी थी। उसने दो-एक बार पैर पटके, अपनी बँधी हुई मुट्ठियाँ ऊपर उठाईं और रोने लगी। स्त्री की सुनसान आँखें सहसा उमड़ आयीं। उसने बच्ची के सिर पर टोपी ठीक कर दी और उसे कम्बलों समेत उठाकर छाती से लगा लिया।
मगर इससे बच्ची का रोना बन्द नहीं हुआ। उसने उसे हिलाकर और दुलारकर चुप कराना चाहा, मगर वह फिर भी रोती रही। इस पर उसने कम्बल थोड़ा हटाकर बच्ची के मुँह में दूध दे दिया और उसे अच्छी तरह अपने साथ सटा लिया।
मैं फिर खिड़की से सिर सटाकर बाहर देखने लगा। दूर बत्तियों की एक क़तार नज़र आ रही थी। शायद कोई आबादी थी, या सिर्फ़ सडक़ ही थी। गाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी और इंजन बहुत पास होने से कोहरे के साथ धुआँ भी खिड़की के शीशों पर जमता जा रहा था। आबादी या सडक़, जो भी वह थी, अब धीरे-धीरे पीछे रही जा रही थी। शीशे में दिखाई देते प्रतिबिम्ब पहले से गहरे हो गये थे। स्त्री की आँखें मुँद गयी थीं और ऊपर लेटे व्यक्ति की बाँह ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थी। शीशे पर मेरी साँस के फैलने से प्रतिबिम्ब और धुँधले हो गये थे। यहाँ तक कि धीरे-धीरे सब प्रतिबिम्ब अदृश्य हो गये। मैंने तब जेब से रूमाल निकालकर शीशे को अच्छी तरह पोंछ दिया।
स्त्री ने आँखें खोल ली थीं और एकटक सामने देख रही थी। उसके होंठों पर हल्की-सी रेखा फैली थी जो ठीक मुस्कराहट नहीं थी। मुस्कराहट ने बहुत कम व्यक्त उस रेखा में कहीं गम्भीरता भी थी और अवसाद भी—जैसे वह अनायास उभर आयी किसी स्मृति की रेखा थी। उसके माथे पर हल्की-सी सिकुडऩ पड़ गयी थी।
बच्ची जल्दी ही दूध से हट गयी। उसने सिर उठाकर अपना बिना दाँत का मुँह खोल दिया और किलकारी भरती हुई माँ की छाती पर मुट्ठियों से चोट करने लगी। दूसरी तरफ़ से आती एक गाड़ी तेज़ रफ़्तार में पास से गुज़री तो वह ज़रा सहम गयी, मगर गाड़ी के निकलते ही और भी मुँह खोलकर किलकारी भरने लगी। बच्ची का चेहरा गदराया हुआ था और उसकी टोपी के नीचे से भूरे रंग के हल्के-हल्के बाल नज़र आ रहे थे। उसकी नाक ज़रा छोटी थी, पर आँखें माँ की ही तरह गहरी और फैली हुई थीं। माँ के गाल और कपड़े नोचकर उसकी आँखें मेरी तरफ घूम गयीं और वह बाँहें हवा में पटकती हुई मुझे अपनी किलकारियों का निशाना बनाने लगी।
स्त्री की पलकें उठीं और उसकी उदास आँखें क्षण-भर मेरी आँखों से मिली रहीं। मुझे उस क्षण-भर के लिए लगा कि मैं एक ऐसे क्षितिज को देख रहा हूँ जिसमें गहरी साँझ के सभी हल्के-गहरे रंग झिलमिला रहे हैं और जिसका दृश्यपट क्षण के हर सौवें हिस्से में बदलता जा रहा है...।
बच्ची मेरी तरफ़ देखकर बहुत हाथ पटक रही थी, इसलिए मैंने अपने हाथ उसकी तरफ़ बढ़ा दिये और कहा, “आ बेटे, आ...।”
मेरे हाथ पास आ जाने से बच्ची के हाथों का हिलना बन्द हो गया और उसके होंठ रुआँसे हो गये।
स्त्री ने बच्ची को अपने होंठों से छुआ और कहा, “जा बिट्टू, जाएगी उनके पास?”
लेकिन बिट्टू के होंठ और रुआँसे हो गये और वह माँ के साथ सट गयी।
“ग़ैर आदमी से डरती है,” मैंने मुस्कराकर कहा और हाथ हटा लिये।
स्त्री के होंठ भिंच गये और माथे की खाल में थोड़ा खिंचाव आ गया। उसकी आँखें जैसे अतीत में चली गयीं। फिर सहसा वहाँ से लौट आयी और वह बोली, “नहीं, डरती नहीं। इसे दरअसल आदत नहीं है। यह आज तक या तो मेरे हाथों में रही है या नौकरानी के...,” और वह उसके सिर पर झुक गयी। बच्ची उसके साथ सटकर आँखें झपकने लगी। महिला उसे हिलाती हुई थपकियाँ देने लगी। बच्ची ने आँखें मूँद लीं। महिला उसकी तरफ़ देखती हुई जैसे चूमने के लिए होंठ बढ़ाए उसे थपकियाँ देती रही। फिर एकाएक उसने झुककर उसे चूम लिया।
“बहुत अच्छी है हमारी बिट्टू, झट-से सो जाती है,” यह उसने जैसे अपने से कहा और मेरी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में एक उदास-सा उत्साह भर रहा था।
“कितनी बड़ी है यह बच्ची?” मैंने पूछा।
“दस दिन बाद पूरे चार महीने की हो जाएगी,” वह बोली, “पर देखने में अभी उससे छोटी लगती है। नहीं?”
मैंने आँखों से उसकी बात का समर्थन किया। उसके चेहरे में एक अपनी ही सहजता थी—विश्वास और सादगी की। मैंने सोई हुई बच्ची के गाल को ज़रा-सा सहला दिया। स्त्री का चेहरा और भावपूर्ण हो गया।
“लगता है आपको बच्चों से बहुत प्यार है,” वह बोली, “आपके कितने बच्चे हैं?”
मेरी आँखें उसके चेहरे से हट गयीं। बिजली की बत्ती के पास एक कीड़ा उड़ रहा था।
“मेरे?” मैंने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा, “अभी तो कोई नहीं है, मगर...।”
“मतलब ब्याह हुआ है, अभी बच्चे-अच्चे नहीं हुए,” वह मुस्कराई, “आप मर्द लोग तो बच्चों से बचे ही रहना चाहते हैं न?”
मैंने होंठ सिकोड़ लिये और कहा, “नहीं, यह बात नहीं...।”
“हमारे ये तो बच्ची को छूते भी नहीं,” वह बोली, “कभी दो मिनट के लिए भी उठाना पड़ जाए तो झल्लाने लगते हैं। अब तो ख़ैर वे इस मुसीबत से छूटकर बाहर ही चले गये हैं।” और सहसा उसकी आँखें छलछला आयीं। रुलाई की वजह से उसके होंठ बिलकुल उस बच्ची जैसे हो गये थे। फिर सहसा उसके होंठों पर मुस्कराहट लौट आयी—जैसा अक्सर सोए हुए बच्चों के साथ होता है। उसने आँखें झपककर अपने को सहेज लिया और बोली, “वे डॉक्टरेट के लिए इंग्लैंड गये हैं। मैं उन्हें बम्बई में जहाज़ पर चढ़ाकर आ रही हूँ।...वैसे छ:-आठ महीने की बात है। फिर मैं भी उनके पास चली जाऊँगी।”
फिर उसने ऐसी नज़र से मुझे देखा जैसे उसे शिकायत हो कि मैंने उसकी इतनी व्यक्तिगत बात उससे क्यों जान ली!
“आप बाद में अकेली जाएँगी?” मैंने पूछा, “इससे तो आप अभी साथ चली जातीं...।”
उसके होंठ सिकुड़ गये और आँखें फिर अन्तर्मुख हो गयीं। वह कई पल अपने में डूबी रही और उसी भाव से बोली, “साथ तो नहीं जा सकती थी क्योंकि अकेले उनके जाने की भी सुविधा नहीं थी। लेकिन उनको मैंने किसी तरह भेज दिया है। चाहती थी कि उनकी कोई तो चाह मुझसे पूरी हो जाए।...दीशी की बाहर जाने की बहुत इच्छा थी।...अब छ:-आठ महीने मैं अपनी तनख़ाह में से कुछ पैसा बचाऊँगी और थोड़ा-बहुत कहीं से उधार लेकर अपने जाने का इन्तज़ाम करूँगी।”
उसने सोच में डूबती-उतराती अपनी आँखों को सहसा सचेत कर लिया और फिर कुछ क्षण शिकायत की नज़र मुझे देखती रही। फिर बोली, “अभी बिट्टू भी बहुत छोटी है न? छ:-आठ महीने में यह बड़ी हो जाएगी और मैं भी तब तक थोड़ा और पढ़ लूँगी। दीशी की बहुत इच्छा है कि मैं एम.ए. कर लूँ। मगर मैं ऐसी जड़ और नाकारा हूँ कि उनकी कोई भी चाह पूरी नहीं कर पाती। इसीलिए इस बार उन्हें भेजने के लिए मैंने अपने सब गहने बेच दिए हैं। अब मेरे पास बस मेरी बिट्टू है, और कुछ नहीं।” और वह बच्ची के सिर पर हाथ फेरती हुई, भरी-भरी नज़र से उसे देखती रही।
बाहर वही सुनसान अँधेरा था, वही लगातार सुनाई देती इंजन की फक्-फक्। शीशे से आँख गड़ा लेने पर भी दूर तक वीरानगी ही वीरानगी नज़र आती थी।
मगर उस स्त्री की आँखों में जैसे दुनिया-भर की वत्सलता सिमट आयी थी। वह फिर कई क्षण अपने में डूबी रही। फिर उसने एक उसाँस लीं और बच्ची को अच्छी तरह कम्बलों में लपेटकर सीट पर लिटा दिया।
ऊपर की बर्थ पर लेटा हुआ आदमी खुर्राटे भर रहा था। एक बार करवट बदलते हुए वह नीचे गिरने को हुआ, पर सहसा हड़बड़ाकर सँभल गया। फिर कुछ ही देर में वह और ज़ोर से खुर्राटे भरने लगा।
“लोगों को जाने सफ़र में कैसे इतनी गहरी नींद आ जाती है!” वह स्त्री बोली, “मुझे दो-दो रातें सफ़र करना हो, तो भी मैं एक पल नहीं सो पाती। अपनी-अपनी आदत होती है!”
“हाँ, आदत की ही बात है,” मैंने कहा, “कुछ लोग बहुत निश्चिन्त होकर जीते हैं और कुछ होते हैं कि...।”
“बग़ैर चिन्ता के जी ही नहीं सकते!” और वह हँस दी। उसकी हँसी का स्वर भी बच्चों जैसा ही था। उसके दाँत बहुत छोटे-छोटे और चमकीले थे। मैंने भी उसकी हँसी में साथ दिया।
“मेरी बहुत ख़राब आदत है,” वह बोली, “मैं बात-बेबात के सोचती रहती हूँ। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं सोच-सोचकर पागल हो जाऊँगी। ये मुझसे कहते हैं कि मुझे लोगों से मिलना-जुलना चाहिए, खुलकर हँसना, बात करना चाहिए, मगर इनके सामने मैं ऐसे गुमसुम हो जाती हूँ कि क्या कहूँ? वैसे और लोगों से भी मैं ज़्यादा बात नहीं करती लेकिन इनके सामने तो चुप्पी ऐसी छा जाती है जैसे मुँह में ज़बान हो ही नहीं...।...अब देखिए न, इस वक़्त कैसे लतर-लतर बात कर रही हूँ!” और वह मुस्कराई। उसके चेहरे पर हल्की-सी संकोच की रेखा आ गयी।
“रास्ता काटने के लिए बात करना ज़रूरी हो जाता है,” मैंने कहा, “ख़ासतौर से जब नींद न आ रही हो।”
उसकी आँखें पल-भर फैली रहीं। फिर वह गरदन ज़रा झुकाकर बोली, “ये कहते हैं कि जिसके मुँह में ज़बान ही न हो, उसके साथ पूरी ज़िन्दगी कैसे काटी जा सकती है? ऐसे इन्सान में और एक पालतू जानवर में क्या फ़र्क़ है? मैं हज़ार चाहती हूँ कि इन्हें ख़ुश दिखाई दूँ और इनके सामने कोई न कोई बात करती रहूँ, लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं। इन्हें फिर गुस्सा आ जाता है और मैं रो देती हूँ। इन्हें मेरा रोना बहुत बुरा लगता है।” कहते हुए उसकी आँखों में आँसू छलक आये, जिन्हें उसने अपनी साड़ी के पल्ले से पोंछ लिया।
“मैं बहुत पागल हूँ,” वह फिर बोली, “ये जितना मुझे टोकते हैं, मैं उतना ही ज़्यादा रोती हूँ। दरअसल ये मुझे समझ नहीं पाते। मुझे बात करना अच्छा नहीं लगता, फिर जाने क्यों ये मुझे बात करने के लिए मजबूर करते हैं?” और फिर माथे को हाथ से दबाए हुए बोली, “आप भी अपनी पत्नी से ज़बर्दस्ती बात करने के लिए कहते हैं?”
मैंने पीछे टेक लगाकर कन्धे सिकोड़ लिये और हाथ बगलों में दबाए बत्ती के पास उड़ते कीड़े को देखने लगा। फिर सिर को ज़रा-सा झटककर मैंने उसकी तरफ़ देखा। वह उत्सुक नज़र से मेरी तरफ़ देख रही थी।
“मैं?” मैंने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा, “मुझे यह कहने का कभी मौका ही नहीं मिल पाता। मैं बल्कि पाँच साल से यह चाह रहा हूँ कि वह ज़रा कम बात किया करे। मैं समझता हूँ कि कई बार इन्सान चुप रहकर ज़्यादा बात कह सकता है। ज़बान से कही बात में वह रस नहीं होता जो आँख की चमक से या होंठों के कम्पन से या माथे की एक लकीर से कही गयी बात में होता है। मैं जब उसे यह समझाना चाहता हूँ, तो वह मुझे विस्तारपूर्वक बात देती है कि ज़्यादा बात करना इन्सान की निश्छलता का प्रमाण है और मैं इतने सालों में अपने प्रति उसकी भावना को समझ ही नहीं सका! वह दरअसल कॉलेज में लेक्चरर है और अपनी आदत की वजह से घर में भी लेक्चर देती रहती है।”
“ओह!” वह थोड़ी देर दोनों हाथों में अपना मुँह छिपाए रही। फिर बोली, “ऐसा क्यों होता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। मुझे दीशी से यही शिकायत है कि वे मेरी बात नहीं समझ पाते। मैं कई बार उनके बालों में अपनी उँगलियाँ उलझाकर उनसे बात करना चाहती हूँ, कई बार उनके घुटनों पर सिर रखकर मुँदी आँखों से उनसे कितना कुछ कहना चाहती हूँ। लेकिन उन्हें यह सब अचछा नहीं लगता। वे कहते हैं कि यह सब गुडिय़ों का खेल है, उनकी पत्नी को जीता-जागता इन्सान होना चाहिए। और मैं इन्सान बनने की बहुत कोशिश करती हूँ, लेकिन नहीं बन पाती, कभी नहीं बन पाती। इन्हें मेरी कोई आदत अच्छी नहीं लगती। मेरा मन होता है कि चाँदनी रात में खेतों में घूमूँ, या नदी में पैर डालकर घंटों बैठी रहूँ, मगर ये कहते हैं कि ये सब आइडल मन की वृत्तियाँ हैं। इन्हें क्लब, संगीत-सभाएँ और डिनर-पार्टियाँ अच्छी लगती हैं। मैं इनके साथ वहाँ जाती हूँ तो मेरा दम घुटने लगता है। मुझे वहाँ ज़रा अपनापन महसूस नहीं होता। ये कहते हैं कि तू पिछले जन्म में मेंढकी थी जो तुझे क्लब में बैठने की बजाय खेतों में मेंढकों की आवाज़ें सुनना ज़्यादा अच्छा लगता है। मैं कहती हूँ कि मैं इस जन्म में भी मेंढकी हूँ। मुझे बरसात में भीगना बहुत अच्छा लगता है। और भीगकर मेरा मन कुछ न कुछ गुनगुनाने को कहने लगता है—हालाँकि मुझे गाना नहीं आता। मुझे क्लब में सिगरेट के धुएँ में घुटकर बैठे रहना नहीं अच्छा लगता। वहाँ मेरे प्राण गले को आने लगते हैं।”
उस थोड़े-से समय में ही मुझे उसके चेहरे का उतार-चढ़ाव काफ़ी परिचित लगने लगा था। उसकी बात सुनते हुए मेरे मन पर हल्की उदासी छाने लगी थी, हालाँकि मैं जानता था कि वह कोई भी बात मुझसे नहीं कह रही—वह अपने से बात करना चाहती है और मेरी मौजूदगी उसके लिए सिर्फ़ एक बहाना है। मेरी उदासी भी उसके लिए न होकर अपने लिए थी, क्योंकि बात उससे करते हुए भी मुख्य रूप से मैं सोच अपने विषय में रहा था। मैं पाँच साल से मंज़िल दर मंज़िल विवाहित जीवन से गुज़रता आ रहा था—रोज़ यही सोचते हुए कि शायद आनेवाला कल ज़िन्दगी के इस ढाँचे को बदल देगा। सतह पर हर चीज़ ठीक थी, कहीं कुछ ग़लत नहीं था, मगर सतह से नीचे जीवन कितनी-कितनी उलझनों और गाँठों से भरा था! मैंने विवाह के पहले दिनों में ही जान लिया था कि नलिनी मुझसे विवाह करके सुखी नहीं हो सकी, क्योंकि मैं उसकी कोई भी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने में सहायक नहीं हो सकता। वह एक भरा-पूरा घर चाहती थी, जिसमें उसका शासन हो और ऐसा सामाजिक जीवन जिसमें उसे महत्त्व का दर्जा प्राप्त हो। वह अपने से स्वतन्त्र अपने पति के मानसिक जीवन की कल्पना नहीं करती थी। उसे मेरी भटकने की वृत्ति और साधारण का मोह मानसिक विकृतियाँ लगती थीं जिन्हें वह अपने अधिक स्वस्थ जीवन-दर्शन से दूर करना चाहती थी। उसने इस विश्वास के साथ जीवन आरम्भ किया था कि वह मेरी त्रुटियों की क्षतिपूर्ति करती हुई बहुत शीघ्र मुझे सामाजिक दृष्टि से सफल व्यक्ति बनने की दिशा में ले जाएगी। उसकी दृष्टि में यह मेरे संस्कारों का दोष था जो मैं इतना अन्तर्मुख रहता था और इधर-उधर मिल-जुलकर आगे बढऩे का प्रयत्न नहीं करता था। वह इस परिस्थिति को सुधारना चाहता थी, पर परिस्थिति सुधरने की जगह बिड़ती गयी थी। वह जो कुछ चाहती थी, वह मैं नहीं कर पाता था और जो कुछ मैं चाहता था, वह उससे नहीं होता था। इससे हममें अक्सर चख्ï-चख्ï होने लगती थी और कई बार दीवारों से सिर टकराने की नौबत आ जाती थी। मगर यह सब हो चुकने पर नलिनी बहुत जल्दी स्वस्थ हो जाती थी और उसे फिर मुझसे यह शिकायत होती थी कि मैं दो-दो दिन अपने को उन साधारण घटनाओं के प्रभाव से मुक्त क्यों नहीं कर पाता। मगर मैं दो-दो दिन क्या, कभी उन घटनाओं के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता था, औरत को जब वह सो जाती थी, तो घंटों तकिये में मुँह छिपाए कराहता रहता था। नलिनी आपसी झगड़े को उतना अस्वाभाविक नहीं समझती थी, जितना मेरे रात-भर जागने को, और उसके लिए मुझे नर्व टॉनिक लेने की सलाह दिया करती थी। विवाह के पहले दो वर्ष इसी तरह बीते थे और उसके बाद हम अलग-अलग जगह काम करने लगे थे। हालाँकि समस्या ज्यों की त्यों बनी थी, और जब भी हम इकट्ठे होते, वही पुरानी ज़िन्दगी लौट आती थी, फिर भी नलिनी का यह विश्वास अभी कम नहीं हुआ था कि कभी न कभी मेरे सामाजिक संस्कारों का उदय अवश्य होगा और तब हम साथ रहकर सुखी विवाहित जीवन व्यतीत कर सकेंगे।
“आप कुछ सोच रहे हैं?” उस स्त्री ने अपनी बच्ची के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
मैंने सहसा अपने को सहेजा और कहा, “हाँ, मैं आप ही की बात को लेकर सोच रहा था। कुछ लोग होते हैं, जिनसे दिखावटी शिष्टाचार आसानी से नहीं ओढ़ा जाता। आप भी शायद उन्हीं लोगों में से हैं।”
“मैं नहीं जानती,” वह बोली, “मगर इतना जानती हूँ कि मैं बहुत-से परिचित लोगों के बीच अपने को अपरिचित, बेगाना और अनमेल अनुभव करती हूँ। मुझे लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है। मैं इतनी बड़ी होकर भी वह कुछ नहीं जान-समझ पायी, जो लोग छुटपन में ही सीख जाते हैं। दीशी का कहना है कि मैं सामाजिक दृष्टि से बिलकुल मिसफिट हूँ।”
“आप भी यही समझती हैं?” मैंने पूछा।
“कभी समझती हूँ, कभी नहीं भी समझती,” वह बोली, “एक ख़ास तरह के समाज में मैं ज़रूर अपने को मिसफिट अनुभव करती हूँ। मगर...कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके बीच जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है। ब्याह से पहले मैं दो-एक बार कॉलेज की पार्टियों के साथ पहाड़ों पर घूमने के लिए गयी थी। वहाँ सब लोगों को मुझसे यही शिकायत होती थी कि मैं जहाँ बैठ जाती हूँ, वहीं की हो सकती हूँ। मुझे पहाड़ी बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। मैं उनके घर के लोगों से भी बहुत जल्दी दोस्ती कर लेती थी। एक पहाड़ी परिवार की मुझे आज तक याद है। उस परिवार के बच्चे मुझसे इतना घुल-मिल गये थे कि मैं बड़ी मुश्किल से उन्हें छोडक़र उनके यहाँ से चल पायी थी। मैं कुल दो घंटे उन लोगों के पास रही थी। दो घंटे में मैंने उन्हें नहलाया-धुलाया भी, और उनके साथ खेलती भी रही। बहुत ही अच्छे बच्चे थे वे। हाय, उनके चहरे इतने लाल थे कि क्या कहूँ! मैंने उनकी माँ से कहा कि वह अपने छोटे लडक़े किशनू को मेरे साथ भेज दे। वह हँसकर बोली कि तुम सभी को ले जाओ, यहाँ कौन इनके लिए मोती रखे हैं! यहाँ तो दो साल में इनकी हड्डियाँ निकल आएँगी, वहाँ खा-पीकर अच्छे तो रहेंगे। मुझे उसकी बात सुनकर रुलाई आने को हुई।...मैं अकेली होती, तो शायद कई दिनों के लिए उन लोगों के पास रह जाती। ऐसे लोगों में जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है।...अब तो आपको भी लग रहा होगा कि कितनी अजीब हूँ मैं! ये कहा करते हैं कि मुझे किसी अच्छे मनोविद् से अपना विश्लेषण कराना चाहिए, नहीं तो किसी दिन मैं पागल होकर पहाड़ों पर भटकती फिरूँगी!”
“यह तो अपनी-अपनी बनावट की बात है,” मैंने कहा, “मुझे खुद आदिम संस्कारों के लोगों के बीच रहना बहुत अच्छा लगता है। मैं आज तक एक जगह घर बनाकर नहीं रह सका और न ही आशा है कि कभी रह सकूँगा। मुझे अपनी ज़िन्दगी की जो रात सबसे ज़्यादा याद आती है, वह रात मैंने पहाड़ी गूजरों की एक बस्ती में बिताई थी। उस रात उस बस्ती में एक ब्याह था, इसलिए सारी रात वे लोग शराब पीते और नाचते-गाते रहे। मुझे बहुत हैरानी हुई जब मुझे बताया गया कि वही गूजर दस-दस रुपये के लिए आदमी का ख़ून भी कर देते हैं!”
“आपको सचमुच इस तरह की ज़िन्दगी अच्छी लगती है?” उसने कुछ आश्चर्य और अविश्वास के साथ पूछा।
“आपको शायद ख़ुशी हो रही है कि पागल होने की उम्मीदवार आप अकेली ही नहीं हैं,” मैंने मुस्कराकर कहा। वह भी मुस्कराई। उसकी आँखें सहसा भावनापूर्ण हो उठीं। उस एक क्षण में मुझे उन आँखों में न जाने कितनी-कुछ दिखाई दिया—करुणा, क्षोभ, ममता, आर्द्रता, ग्लानि, भय, असमंजस और स्नेह! उसके होंठ कुछ कहने के लिए काँपे, लेकिन काँपकर ही रह गये। मैं भी चुपचाप उसे देखता रहा। कुछ क्षणों के लिए मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिमाग़ बिलकुल ख़ाली है और मुझे पता नहीं कि मैं क्या कर रहा था और आगे क्या कहना चाहता था। सहसा उसकी आँखों में फिर वही सूनापन भरने लगा ओर क्षण-भर में ही वह इतना बढ़ गया कि मैंने उसकी तरफ़ से आँखें हटा लीं।
बत्ती के पास उड़ता कीड़ा उसके साथ सटकर झुलस गया था।
बच्ची नींद में मुस्करा रही थी।
खिड़की के शीशे पर इतनी धुँध जम गयी थी कि उसमें अपना चेहरा भी दिखाई नहीं देता था।
गाड़ी की रफ़्तार धीमी हो रही थी। कोई स्टेशन आ रहा था। दो-एक बत्तियाँ तेज़ी से निकल गयीं। मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया। बाहर से आती ब$र्फानी हवा के स्पर्श ने स्नायुओं को थोड़ा सचेत कर दिया। गाड़ी एक बहुत नीचे प्लेटफार्म के पास आकर खड़ी हो रही थी।
“यहाँ कहीं थोड़ा पानी मिल जाएगा?”
मैंने चौंककर देखा कि वह अपनी टोकरी में से काँच का गिलास निकालकर अनिश्चित भाव से हाथ में लिये हैं। उसके चेहरे की रेखाएँ पहले से गहरी हो गयी थीं।
“पानी आपको पीने के लिए चाहिए?” मैंने पूछा।
“हाँ। कुल्ला करूँगी और पिऊँगी भी। न जाने क्यों होंठ कुछ चिपक-से रहे हैं। बाहर इतनी ठंड है, फिर भी...।”
“देखता हूँ, अगर यहाँ कोई नल-वल हो, तो...।”
मैंने गिलास उसके हाथ से ले लिया और जल्दी से प्लेटफ़ार्म पर उतर गया। न जाने कैसा मनहूस स्टेशन था कि कहीं पर भी कोई इन्सान नज़र नहीं आ रहा था। प्लेटफ़ार्म पर पहुँचते ही हवा के झोंकों से हाथ-पैर सुन्न होने लगे। मैंने कोट के कॉलर ऊँचे कर लिये। प्लेटफ़ार्म के जंगले के बाहर से फैलकर ऊपर आये दो-एक पेड़ हवा में सरसरा रहे थे। इंजन के भाप छोडऩे से लम्बी शूँ-ऊँ की आवाज़ सुनाई दे रही थी। शायद वहाँ गाड़ी सिग्नल न मिलने की वजह से रुक गयी थी।
दूर कई डिब्बे पीछे एक नल दिखाई दिया, तो मैं तेज़ी से उस तरफ़ चल दिया। ईंटों के प्लेटफ़ार्म पर अपने जूते का शब्द मुझे बहुत अजीब-सा लगा। मैंने चलते-चलते गाड़ी की तरफ़ देखा। किसी खिड़की से कोई चेहरा बाहर नहीं झाँक रहा था। मैं नल के पास जाकर गिलास में पानी भरने लगा। तभी हल्की-सी सीटी देकर गाड़ी एक झटके के साथ चल पड़ी। मैं भरा हुआ पानी का गिलास लिये अपने डिब्बे की तरफ़ दौड़ा। दौड़ते हुए मुझे लगा कि मैं उस डिब्बे तक नहीं पहुँच पाऊँगा और सर्दी में उस अँधेरे और सुनसान प्लेटफ़ार्म पर ही मुझे बिना सामान के रात बितानी होगी। यह सोचकर मैं और तेज़ दौडऩे लगा। किसी तरह अपने डिब्बे के बराबर पहुँच गया। दरवाज़ा खुला था और वह दरवाज़े के पास खड़ी थी। उसने हाथ बढ़ाकर गिलास मुझसे ले लिया। फुटबोर्ड पर चढ़ते हुए एक बार मेरा पैर ज़रा-सा फिसला, मगर अगले ही क्षण मैं स्थिर होकर खड़ा हो गया। इंजन तेज़ होने की कोशिश में हल्के-हल्के झटके दे रहा था और ईंटों के प्लेटफ़ार्म की जगह अब नीचे अस्पष्ट गहराई दिखाई देने लगी थी।
“अन्दर आ जाइए,” उसके ये शब्द सुनकर मुझे एहसास हुआ कि मुझे फुटबोर्ड से आगे भी कहीं जाना है। डिब्बे के अन्दर क़दम रखा, तो मेरे घुटने ज़रा-ज़रा काँप रहे थे।
अपनी जगह पर आकर मैंने टाँगें सीधी करके पीछे टेक लगा लीं। कुछ पल बाद आँखें खोलीं तो लगा कि वह इस बीच मुँह धो आयी है। फिर भी उसके चेहरे पर मुर्दनी-सी छा रही थी। मेरे होंठ सूख रहे थे, फिर भी मैं थोड़ा मुस्कराया।
“क्या बात है, आपका चेहरा ऐसा क्यों हो रहा है?” मैंने पूछा।
“मैं कितनी मनहूस हूँ...,” कहकर उसने अपना निचला होंठ ज़रा-सा काट लिया।
“क्यों?”
“अभी मेरी वज़ह से आपको कुछ हो जाता...।”
“यह खूब सोचा आपने!”
“नहीं। मैं हूँ ही ऐसी...,” वह बोली, “ज़िन्दगी में हर एक को दु:ख ही दिया है। अगर कहीं आप न चढ़ पाते...।”
“तो?”
“तो?” उसने होंठ ज़रा सिकोड़े, “तो मुझे पता नहीं...पर...।”
उसने ख़ामोश रहकर आँखें झुका लीं। मैंने देखा कि उसकी साँस जल्दी-जल्दी चल रही है। महसूस किया कि वास्तविक संकट की अपेक्षा कल्पना का संकट कितना बड़ा और ख़तरनाक होता है। शीशा उठा रहने से खिड़की से ठंडी हवा आ रही थी। मैंने खींचकर शीशा नीचे कर दिया।
“आप क्यों गये थे पानी लाने के लिए? आपने मना क्यों नहीं कर दिया?” उसने पूछा।
उसके पूछने के लहज़े से मुझे हँसी आ गयी।
“आप ही ने तो कहा था...।”
“मैं तो मूर्ख हूँ, कुछ भी कह देती हूँ। आपको तो सोचना चाहिए था।”
“अच्छा, मैं अपनी ग़लती मान लेता हूँ।”
इससे उसके मुरझाए होंठों पर भी मुस्कराहट आ गयी।
“आप भी कहेंगे, कैसी लडक़ी है,” उसने आन्तरिक भाव के साथ कहा। “सच कहती हूँ, मुझे ज़रा अक्ल नहीं है। इतनी बड़ी हो गयी हूँ, पर अक्ल रत्ती-भर नहीं है—सच!”
मैं फिर हँस दिया।
“आप हँस क्यों रहे हैं?” उसके स्वर में फिर शिकायत का स्पर्श आ गया।
“मुझे हँसने की आदत है!” मैंने कहा।
“हँसना अच्छी आदत नहीं है।”
मुझे इस पर फिर हँसी आ गयी।
वह शिकायत-भरी नज़र से मुझे देखती रही।
गाड़ी की रफ़्तार फिर तेज़ हो रही थी। ऊपर की बर्थ पर लेटा आदमी सहसा हड़बड़ाकर उठ बैठा और ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगा। खाँसी का दौरा शान्त होने पर उसने कुछ पल छाती को हाथ में दबाये रखा, फिर भारी आवाज़ में पूछा, “क्या बजा है?”
“पौने बारह,” मैंने उसकी तरफ़ देखकर उत्तर दिया।
“कुल पौने बारह?” उसने निराश स्वर में कहा और फिर लेट गया। कुछ ही देर में वह फिर खुर्राटे भरने लगा।
“आप भी थोड़ी देर सो जाइए।” वह पीछे टेक लगाए शायद कुछ सोच रही थी या केवल देख रही थी।
“आपको नींद आ रही है, आप सो जाइए,” मैंने कहा।
“मैंने आपसे कहा था न मुझे गाड़ी में नींद नहीं आती। आप सो जाइए।”
मैंने लेटकर कम्बल ले लिया। मेरी आँखें देर तक ऊपर की बत्ती को देखती रहीं जिसके साथ झुलसा हुआ कीड़ा चिपककर रह गया था।
“रजाई भी ले लीजिए, काफी ठंड है,” उसने कहा।
“नहीं, अभी ज़रूरत नहीं है। मैं बहुत-से गर्म कपड़े पहने हूँ।”
“ले लीजिए, नहीं बाद में ठिठुरते रहिएगा।”
“नहीं, ठिठुरूँगा नहीं,” मैंने कम्बल गले तक लपेटते हुए कहा, “और थोड़ी-थोड़ी ठंड महसूस होती रहे, तो अच्छा लगता है।”
“बत्ती बुझा दूँ?” कुछ देर बाद उसने पूछा।
“नहीं, रहने दीजिए।”
“नहीं, बुझा देती हूँ। ठीक से सो जाइए।” और उसने उठकर बत्ती बुझा दी। मैं काफी देर अँधेरे में छत की तरफ़ देखता रहा। फिर मुझे नींद आने लगी।
शायद रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी, जब इंजन के भोंपू की आवाज़ से मेरी नींद खुली। वह आवाज़ कुछ ऐसी भारी थी कि मेरे सारे शरीर में एक झुरझुरी-सी भर गयी। पिछले किसी स्टेशन पर इंजन बदल गया था।
गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी तो मैंने सिर थोड़ा ऊँचा उठाया। सामने की सीट ख़ाली थी। वह स्त्री न जाने किस स्टेशन पर उतर गयी थी। इसी स्टेशन पर न उतरी हो, यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा। प्लेटफ़ार्म बहुत पीछे रह गया था और बत्तियों की क़तार के सिवा कुछ साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने शीशा फिर नीचे खींच लिया। अन्दर की बत्ती अब भी बुझी हुई थी। बिस्तर में नीचे को सरकते हुए मैंने देखा कि कम्बल के अलावा मैं अपनी रजाई भी लिये हूँ जिसे अच्छी तरह कम्बल के साथ मिला दिया गया है। गरमी की कई एक सिहरनें एक साथ शरीर में भर गयीं।
ऊपर की बर्थ पर लेटा आदमी अब भी उसी तरह ज़ोर-ज़ोर से खुर्राटे भर रहा था।
कलाकार की मुक्ति-अज्ञेय
मैं कोई कहानी नहीं कहता। कहानी कहने का मन भी नहीं होता, और सच पूछो तो मुझे कहानी कहना आता भी नहीं है। लेकिन जितना ही अधिक कहानी पढ़ता हूँ या सुनता हूँ उतना ही कौतूहल हुआ करता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं! फिर यह भी सोचने लगता हूँ कि अगर ऐसे न बनकर ऐसे बनतीं तो कैसा रहता? और यह प्रश्न हमेशा मुझे पुरानी या पौराणिक गाथाओं की ओर ले जाता है। कहते हैं कि पुराण-गाथाएँ सब सर्वदा सच होती है क्योंकि उनका सत्य काव्य-सत्य होता है, वस्तु-सत्य नहीं। उस प्रतीक सत्य को युग के परिवर्तन नहीं छू सकते।
लेकिन क्या प्रतीक सत्य भी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में कभी परिवर्तन नहीं आता? वृद्धि भी तो परिवर्तन है और अगर कवि ने अनुभव में कोई वृद्धि नहीं की तो उसकी संवेदना किस काम की?
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते मानो एक नई खिडक़ी खुल जाती है और पौराणिक गाथाओं के चरित-नायक नए वेश में दीखने लगते हैं। वह खिडक़ी मानो जीवन की रंगस्थली में खुलनेवाली एक खिडक़ी है, अभिनेता रंगमंच पर जिस रूप में आएँगे उससे कुछ पूर्व के सहज रूप में उन्हें इस खिडक़ी से देखा जा सकता है। या यह समझ लीजिए कि सूत्रधार उन्हें कोई आदेश न देकर रंगमंच पर छोड़ दे तो वे पात्र सहज भाव से जो अभिनय करेंगे वह हमें दीखने लगता है और कैसे मान लें कि सूत्रधार के निर्देश के बिना पात्र जिस रूप में सामने आते हैं-जीते हैं-यही अधिक सच्चा नहीं है?
शिप्र द्वीप के महान कलाकार पिंगमाल्य का नाम किसने नहीं सुना? कहते हैं कि सौन्दर्य की देवी अपरोदिता का वरदान उसे प्राप्त है-उसके हाथ में असुन्दर कुछ बन ही नहीं सकता। स्त्री-जातिमात्र से पिंगमाल्य को घृणा है लेकिन एक के बाद एक सैकड़ों स्त्री-मूर्तियाँ उसने निर्माण की है। प्रत्येक को देखकर दर्शक उसे उससे पहली निर्मित से अधिक सुन्दर बताते हैं और विस्मय से कहते हैं, ‘‘इस व्यक्ति के हाथ में न जाने कैसा जादू है। पत्थर भी इतना सजीव दीखता है कि जीवित व्यक्ति भी कदाचित् उसकी बराबरी न कर सके। कहीं देवी अपरोदिता प्रस्तर-मूर्तियों में जान डाल देतीं। देश-देशान्तर के वीर और राजा उस नारी के चरण चूमते जिसके अंग पिंगमाल्य की छेनी ने गढ़े हैं और जिसमें प्राण स्वयं देवी अपरोदिता ने फूँके हैं।’’
कभी कोई समर्थन में कहता, ‘‘हाँ, उस दिन पिंगमाल्य की कला पूर्ण सफल हो जाएगी, और उसके जीवन की साधना भी पूरी हो जाएगी-इससे बड़ी सिद्धि और क्या हो सकती है!’’
पिंगमाल्य सुनता और व्यंग्य से मुस्करा देता। जीवित सौन्दर्य कब तक पाषाण के सौन्दर्य की बराबरी कर सकता है! जीवन में गति है, ठीक है; लेकिन गति स्थानान्तर के बिना भी हो सकती है-बल्कि वह तो सच्ची गति है। कला की लयमयता-प्रवहमान रेखा का आवर्तन और विर्वतन-यह निश्चल सेतु जो निरन्तर भूमि को अन्तरिक्ष से मिलाता चलता है-जिस पर से हम क्षण में कई बार आकाश को छूकर लौट आ सकते हैं-वही तो गति है! नहीं तो सुन्दरियाँ पिंगमाल्य ने अमथ्य के उद्यानों में बहुत देखी थीं-उन्हीं की विलासिता और अनाचारिता के कारण तो उसे स्त्री-जाति से घृणा हो गयी थी... उसे भी कभी लगता कि जब वह मूर्ति बनाता है तो देवी अपरोदिता उसके निकट अदृश्य खड़ी रहती है-देवी की छाया-स्पर्श ही उसके हाथों को प्रेरित करता है, देवी का यह ध्यान ही उसकी मन:शक्ति को एकाग्र करता है। कभी वह मूर्ति बनाते-बनाते अपरोदिता के अनेक रूपों का ध्यान करता चलता-काम की जननी, विनोद की रानी, लीला-विलास की स्वामिनी, रूप की देवी...
एक दिन साँझ को पिंगमाल्य तन्मय भाव से अपनी बनायी हुई एक नई मूर्ति को देख रहा था। मूर्ति पूरी हो चुकी थी और एक बार उस पर ओप भी दिया जा चुका था। लेकिन उसे प्रदर्शित करने से पहले साँझ के रंजित प्रकाश में वह स्थिर भाव से देख लेना चाहता था। वह प्रकाश प्रस्तर को जीवित त्वचा की सी क्रान्ति दे देता है, दर्शक उससे और अधिक प्रभावित होता है, लेकिन कलाकार उसमें कहीं कोई कोर-कसर रह गयी हो तो उसे भी देख लेता है।
किन्तु कहीं कोई कमी नहीं थी, पिंगमाल्य मुग्ध माव से उसे देखता हुआ मूर्ति को सम्बोधन करके कुछ कहने ही जा रहा था कि सहसा कक्ष में एक नया प्रकाश भर गया जो साँझ के प्रकाश से भिन्न था। उसकी चकित आँखों के सामने प्रकट होकर देवी अपरोदिता ने कहा, ‘‘पिंगमाल्य, मैं तुम्हारी साधना से प्रसन्न हूँ। आजकल कोई मूर्तिकार अपनी कला से मेरे सच्चे रूप के इतना निकट नहीं आ सका है, जितना तुम। मैं सौन्दर्य की पारमिता हूँ। बोलो, तुम क्या चाहते हो-तुम्हारी कौन-सी अपूर्ण, अव्यक्त इच्छा है?’’
पिंगमाल्य अपलक उसे देखता हुआ किसी तरह कह सका, ‘‘देवि, मेरी तो कोई इच्छा नहीं है। मुझमें कोई अतृप्ति नहीं है।’’
‘‘तो ऐसे ही सही,’’ देवी तनिक मुस्करायी, ‘‘मेरी अतिरिक्त अनुकम्पा ही सही। तुम अभी मूर्ति से कुछ कहने जा रहे थे मेरे वरदान से अब मूर्ति ही तुम्हें पुकारेगी-’’
रोमांचित पिंगमाल्य ने अचकचाते हुए कहा, ‘‘देवि...’’
‘‘और उसके उपरान्त...’’ देवी ने और भी रहस्यपूर्ण भाव से मुस्कराकर कहा, ‘‘पर उसके अनन्तर जो होगा वह तुम स्वयं देखना, पिंगमाल्य! मैं मूर्ति को नहीं, तुम्हें भी नया जीवन दे रही हूँ-और मैं आनन्द की देवी हूँ!’’
एक हल्के-से स्पर्श से मूर्ति को छूती हुई देवी उसी प्रकार सहसा अन्तर्धान हो गयी, जिस प्रकार वह प्रकट हुई थी।
लेकिन देवी के साथ जो आलोक प्रकट हुआ था, वह नहीं बुझा। वह मूर्ति के आसपास पुंजित हो आया।
एक अलौकिक मधुर कंठ ने कहा, ‘‘मेरे निर्माता-मेरे स्वामी!’’ और पिंगमाल्य ने देखा कि मूर्ति पीठिका से उतरकर उसके आगे झुक गयी है।
पिंगमाल्य काँपने लगा। उसके दर्शकों ने अधिक-से-अधिक अतिरंजित जो कल्पना की थी वह तो सत्य हो आयी है। विश्व का सबसे सुन्दर रूप सजीव होकर उसके सम्मुख खड़ा है, और उसका है। रूप भोग्य है, नारी भी...
मूर्ति ने आगे बढक़र पिंगमाल्य की भुजाओं पर हाथ रखा और अत्यन्त कोमल दबाव से उसे अपनी ओर खींचने लगी।
यह मूर्ति नहीं, नारी है। संसार की सुन्दरतम नारी, जिसे स्वयं अपरोदिता ने उसे दिया है। देवी जो गढ़ती है उससे परे सौन्दर्य नहीं है; जो देती है उससे परे आनन्द नहीं है। पिंगमाल्य के आगे सीमाहीन आनन्द का मार्ग खुला है।
जैसे किसी ने उसे तमाचा मार दिया है, ऐसे सहसा पिंगमाल्य दो कदम पीछे हट गया। स्वर को यथासम्भव सम और अविकल बनाने का प्रयास करते हुए उसने कहा, ‘‘तुम यहाँ बैठो।’’
रूपसी पुन: उसी पीठिका पर बैठ गयी, जिस पर से वह उतरी थी। उसके चेहरे की ईषत् स्मित कक्ष में चाँदनी बिखरेनी लगी।
दूसरे दिन पिंगमाल्य का कक्ष नहीं खुला। लोगों को विस्मय तो हुआ, लेकिन उन्होंने मान लिया कलाकार किसी नई रचना में व्यस्त होगा। सायंकाल जब धूप फिर पहले दिन की भाँति कक्ष के भीतर वायुमंडल को रंजित करती हुई पडऩे लगी तब देवी अपरोदिता ने प्रकट होकर देखा कि पिंगमाल्य अपलक वहीं-का-वहीं खड़ा है और रूपसी जड़वत् पीठिका पर बैठी है। इस अप्रत्याशित दृश्य को देखकर देवी ने कहा, ‘‘यह क्या देखती हूँ, पिंगमाल्य? मैंने तो तुम्हें अतुलनीय सुख का वरदान दिया था?’’
पिंगमाल्य ने मानो सहसा जागकर कहा, ‘‘देवी, यह आपने क्या किया?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मेरी जो कला अमर और अजर थी, उसे आप ने जरा-मरण के नियमों के अधीन कर दिया! मैंने तो सुख-भोग नहीं माँगा-मैं तो यही जानता आया कि कला का आनन्द चिरन्तन है।’’
देवी हँसने लगी, ‘‘भोले पिंगमाल्य! लेकिन कलाकार सभी भोले होते हैं। तुम यह नहीं जानते कि तुम क्या माँग रहे हो-या कि क्या तुम्हें मिला है जिसे तुम खो रहे हो। किन्तु तुम चाहते हो तो और विचार करके देख लो। मैं तुम्हारी मूर्ति को फिर जड़वत् किये जाती हूँ। लेकिन रात को तुम उसे पुकारोगे और उत्तर न पाकर अधीर हो उठोगे। कल मैं आकर पूछूँगी-तुम चाहोगे तो कल मैं इसमें फिर प्राण डाल दूँगी। मेरे वरदान वैकल्पिक नहीं होते। लेकिन तुम मेरे विशेष प्रिय हो, क्योंकि तुम रूपस्रष्टा हो।’’
देवी फिर अन्तर्धान हो गयी। उसके साथ ही कक्ष का आलोक भी बुझ गया। पिंगमाल्य ने लपककर मूर्ति को छूकर देखा, वह मूर्ति ही थी, सुन्दर ओपयुक्त, किन्तु शीतल और निष्प्राण।
विचार करके और क्या देखना है? वह रूप का स्रष्टा है, रूप का दास होकर रहना वह नहीं चाहता। मूर्ति सजीव होकर प्रेय हो जाए, यह कलाकार की विजय भी हो सकती है, लेकिन कला की निश्चय ही वह हार है।...पिंगमाल्य ने एक बार फिर मूत्र्त को स्पर्श करके देखा। कल देवी फिर प्रकट होगी और इस मूर्ति में प्राण डाल देगी आज जो पिंगमाल्य की कला है, कल वह एक किंवदन्ती बन जाएगी। लोग कहेंगे कि इतना बड़ा कलाकार पहले कभी नहीं हुआ, और यही प्रशंसा का अपवाद भविष्य के लिए उसके पैरों की बेडिय़ाँ बन जाएगा... किन्तु कल...
चौंककर पिंगमाल्य ने एक बार फिर मूर्ति को छुआ और मूर्ति की दोनों बाँहें अपनी मुट्ठियों में जकड़ लीं। कल... उसकी मु_ियों की पकड़ धीरे-धीरे शिथिल हो गयी। आज वह मूर्ति है, पिंगमाल्य की गढ़ी हुई अद्वितीय सुन्दर मूर्ति, कल यह एक नारी हो जाएगी-अपरोदिता से उपहार में मिली हुई अद्वितीय सुन्दर नारी। पिंगमाल्य ने भुजाओं को पकड़ कर मूर्ति को ऊँचा उठा लिया और सहसा बड़े जोर से नीचे पटक दिया।
मूर्ति चूर-चूर हो गयी।
अब वह कल नहीं आएगा। पिंगमाल्य की कला जरा-मरण के नियमों के अधीन नहीं होगी। कला उसकी श्रेय ही रहेगी, प्रेय होने का डर अब नहीं है।
किन्तु अपरोदिता? क्या देवी का कोप उसे सहना होगा? क्या उसने सौन्दर्य की देवी की अवज्ञा कर दी है! और इसीलिए अब उसकी रूप-कल्पी प्रतिभा नष्ट हो जाएगी?
किन्तु अवज्ञा कैसी? देवी ने स्वयं उसे विकल्प का अधिकार दिया है।
पिंगमाल्य धरती पर बैठ गया और अनमने भाव से मूर्ति के टुकड़ों को अँगुलियों से धीरे-धीरे इधर-उधर करने लगा।
क्या देवी अब भी छायावत् उसकी कोहनी के पीछे रहेगी और उसकी अँगुलियों कोप प्रेरित करती रहेगी? या कि वह उदासीन हो जाएगी? क्या वह-क्या वह आज के कला साधना में अकेला हो गया है?
पिंगमाल्य अवष्टि-सा उठकर खड़ा हो गया। एक दुर्दान्त साहसपूर्ण भाव उसके मन में उदित हुआ और शब्दों में बँध आया। कला-साधना में अकेला होना ही तो साधक होना है। वह अकेला नहीं हुआ है, वह मुक्त हो गया है।
वह आसक्ति से मुक्त हो गया है और वह देवी से भी मुक्त हो गया है।
कथा है कि पिंगमाल्य ने उस मूर्ति से जिसमें देवी ने प्राण डाले थे, विवाह कर लिया था और उससे एक सन्तान भी उत्पन्न की थी, जिसने अनन्तर प्रपोष नाम का नगर बसाया। किन्तु वास्तव में पिंगमाल्य की पत्नी शिलोद्भवा नहीं थी। बन्धनमुक्त हो जाने के बाद पिंगमाल्य ने पाया कि वह घृणा से भी मुक्त हो गया है। और उसने एक शीलवन्ती कन्या से विवाह किया। भग्न मूर्ति के खंड उसने बहुत दिनों तक अपनी मुक्ति की स्मृति में सँभाल रखे। मूर्ति के लुप्त हो जाने का वास्तविक इतिहास किसी को पता नहीं चला। देवी ने भी पिंगमाल्य के लिए व्यस्त होना आवश्यक समझा। क्योंकि कला-साधना की एक दूसरी देवी है, और निष्ठावान गृहस्थ जीवन की देवी उससे भी भिन्न है।
और पिंगमाल्य की वास्तविक कला-सृष्टि इसके बाद ही हुई। उसकी कीर्ति जिन मूर्तियों पर आधारित है वे सब इस घटना के बाद ही निर्मित हुईं।
कहानी मैं नहीं कहता। लेकिन मुझे कुतूहल होता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं? पुराण-गाथाओं के प्रतीक सत्य क्या कभी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में अभी कोई वृद्धि नहीं होती? क्या कलाकार की संवेदना ने किसी नए सत्य का संस्पर्श नहीं पाया?
लेकिन क्या प्रतीक सत्य भी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में कभी परिवर्तन नहीं आता? वृद्धि भी तो परिवर्तन है और अगर कवि ने अनुभव में कोई वृद्धि नहीं की तो उसकी संवेदना किस काम की?
यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते मानो एक नई खिडक़ी खुल जाती है और पौराणिक गाथाओं के चरित-नायक नए वेश में दीखने लगते हैं। वह खिडक़ी मानो जीवन की रंगस्थली में खुलनेवाली एक खिडक़ी है, अभिनेता रंगमंच पर जिस रूप में आएँगे उससे कुछ पूर्व के सहज रूप में उन्हें इस खिडक़ी से देखा जा सकता है। या यह समझ लीजिए कि सूत्रधार उन्हें कोई आदेश न देकर रंगमंच पर छोड़ दे तो वे पात्र सहज भाव से जो अभिनय करेंगे वह हमें दीखने लगता है और कैसे मान लें कि सूत्रधार के निर्देश के बिना पात्र जिस रूप में सामने आते हैं-जीते हैं-यही अधिक सच्चा नहीं है?
शिप्र द्वीप के महान कलाकार पिंगमाल्य का नाम किसने नहीं सुना? कहते हैं कि सौन्दर्य की देवी अपरोदिता का वरदान उसे प्राप्त है-उसके हाथ में असुन्दर कुछ बन ही नहीं सकता। स्त्री-जातिमात्र से पिंगमाल्य को घृणा है लेकिन एक के बाद एक सैकड़ों स्त्री-मूर्तियाँ उसने निर्माण की है। प्रत्येक को देखकर दर्शक उसे उससे पहली निर्मित से अधिक सुन्दर बताते हैं और विस्मय से कहते हैं, ‘‘इस व्यक्ति के हाथ में न जाने कैसा जादू है। पत्थर भी इतना सजीव दीखता है कि जीवित व्यक्ति भी कदाचित् उसकी बराबरी न कर सके। कहीं देवी अपरोदिता प्रस्तर-मूर्तियों में जान डाल देतीं। देश-देशान्तर के वीर और राजा उस नारी के चरण चूमते जिसके अंग पिंगमाल्य की छेनी ने गढ़े हैं और जिसमें प्राण स्वयं देवी अपरोदिता ने फूँके हैं।’’
कभी कोई समर्थन में कहता, ‘‘हाँ, उस दिन पिंगमाल्य की कला पूर्ण सफल हो जाएगी, और उसके जीवन की साधना भी पूरी हो जाएगी-इससे बड़ी सिद्धि और क्या हो सकती है!’’
पिंगमाल्य सुनता और व्यंग्य से मुस्करा देता। जीवित सौन्दर्य कब तक पाषाण के सौन्दर्य की बराबरी कर सकता है! जीवन में गति है, ठीक है; लेकिन गति स्थानान्तर के बिना भी हो सकती है-बल्कि वह तो सच्ची गति है। कला की लयमयता-प्रवहमान रेखा का आवर्तन और विर्वतन-यह निश्चल सेतु जो निरन्तर भूमि को अन्तरिक्ष से मिलाता चलता है-जिस पर से हम क्षण में कई बार आकाश को छूकर लौट आ सकते हैं-वही तो गति है! नहीं तो सुन्दरियाँ पिंगमाल्य ने अमथ्य के उद्यानों में बहुत देखी थीं-उन्हीं की विलासिता और अनाचारिता के कारण तो उसे स्त्री-जाति से घृणा हो गयी थी... उसे भी कभी लगता कि जब वह मूर्ति बनाता है तो देवी अपरोदिता उसके निकट अदृश्य खड़ी रहती है-देवी की छाया-स्पर्श ही उसके हाथों को प्रेरित करता है, देवी का यह ध्यान ही उसकी मन:शक्ति को एकाग्र करता है। कभी वह मूर्ति बनाते-बनाते अपरोदिता के अनेक रूपों का ध्यान करता चलता-काम की जननी, विनोद की रानी, लीला-विलास की स्वामिनी, रूप की देवी...
एक दिन साँझ को पिंगमाल्य तन्मय भाव से अपनी बनायी हुई एक नई मूर्ति को देख रहा था। मूर्ति पूरी हो चुकी थी और एक बार उस पर ओप भी दिया जा चुका था। लेकिन उसे प्रदर्शित करने से पहले साँझ के रंजित प्रकाश में वह स्थिर भाव से देख लेना चाहता था। वह प्रकाश प्रस्तर को जीवित त्वचा की सी क्रान्ति दे देता है, दर्शक उससे और अधिक प्रभावित होता है, लेकिन कलाकार उसमें कहीं कोई कोर-कसर रह गयी हो तो उसे भी देख लेता है।
किन्तु कहीं कोई कमी नहीं थी, पिंगमाल्य मुग्ध माव से उसे देखता हुआ मूर्ति को सम्बोधन करके कुछ कहने ही जा रहा था कि सहसा कक्ष में एक नया प्रकाश भर गया जो साँझ के प्रकाश से भिन्न था। उसकी चकित आँखों के सामने प्रकट होकर देवी अपरोदिता ने कहा, ‘‘पिंगमाल्य, मैं तुम्हारी साधना से प्रसन्न हूँ। आजकल कोई मूर्तिकार अपनी कला से मेरे सच्चे रूप के इतना निकट नहीं आ सका है, जितना तुम। मैं सौन्दर्य की पारमिता हूँ। बोलो, तुम क्या चाहते हो-तुम्हारी कौन-सी अपूर्ण, अव्यक्त इच्छा है?’’
पिंगमाल्य अपलक उसे देखता हुआ किसी तरह कह सका, ‘‘देवि, मेरी तो कोई इच्छा नहीं है। मुझमें कोई अतृप्ति नहीं है।’’
‘‘तो ऐसे ही सही,’’ देवी तनिक मुस्करायी, ‘‘मेरी अतिरिक्त अनुकम्पा ही सही। तुम अभी मूर्ति से कुछ कहने जा रहे थे मेरे वरदान से अब मूर्ति ही तुम्हें पुकारेगी-’’
रोमांचित पिंगमाल्य ने अचकचाते हुए कहा, ‘‘देवि...’’
‘‘और उसके उपरान्त...’’ देवी ने और भी रहस्यपूर्ण भाव से मुस्कराकर कहा, ‘‘पर उसके अनन्तर जो होगा वह तुम स्वयं देखना, पिंगमाल्य! मैं मूर्ति को नहीं, तुम्हें भी नया जीवन दे रही हूँ-और मैं आनन्द की देवी हूँ!’’
एक हल्के-से स्पर्श से मूर्ति को छूती हुई देवी उसी प्रकार सहसा अन्तर्धान हो गयी, जिस प्रकार वह प्रकट हुई थी।
लेकिन देवी के साथ जो आलोक प्रकट हुआ था, वह नहीं बुझा। वह मूर्ति के आसपास पुंजित हो आया।
एक अलौकिक मधुर कंठ ने कहा, ‘‘मेरे निर्माता-मेरे स्वामी!’’ और पिंगमाल्य ने देखा कि मूर्ति पीठिका से उतरकर उसके आगे झुक गयी है।
पिंगमाल्य काँपने लगा। उसके दर्शकों ने अधिक-से-अधिक अतिरंजित जो कल्पना की थी वह तो सत्य हो आयी है। विश्व का सबसे सुन्दर रूप सजीव होकर उसके सम्मुख खड़ा है, और उसका है। रूप भोग्य है, नारी भी...
मूर्ति ने आगे बढक़र पिंगमाल्य की भुजाओं पर हाथ रखा और अत्यन्त कोमल दबाव से उसे अपनी ओर खींचने लगी।
यह मूर्ति नहीं, नारी है। संसार की सुन्दरतम नारी, जिसे स्वयं अपरोदिता ने उसे दिया है। देवी जो गढ़ती है उससे परे सौन्दर्य नहीं है; जो देती है उससे परे आनन्द नहीं है। पिंगमाल्य के आगे सीमाहीन आनन्द का मार्ग खुला है।
जैसे किसी ने उसे तमाचा मार दिया है, ऐसे सहसा पिंगमाल्य दो कदम पीछे हट गया। स्वर को यथासम्भव सम और अविकल बनाने का प्रयास करते हुए उसने कहा, ‘‘तुम यहाँ बैठो।’’
रूपसी पुन: उसी पीठिका पर बैठ गयी, जिस पर से वह उतरी थी। उसके चेहरे की ईषत् स्मित कक्ष में चाँदनी बिखरेनी लगी।
दूसरे दिन पिंगमाल्य का कक्ष नहीं खुला। लोगों को विस्मय तो हुआ, लेकिन उन्होंने मान लिया कलाकार किसी नई रचना में व्यस्त होगा। सायंकाल जब धूप फिर पहले दिन की भाँति कक्ष के भीतर वायुमंडल को रंजित करती हुई पडऩे लगी तब देवी अपरोदिता ने प्रकट होकर देखा कि पिंगमाल्य अपलक वहीं-का-वहीं खड़ा है और रूपसी जड़वत् पीठिका पर बैठी है। इस अप्रत्याशित दृश्य को देखकर देवी ने कहा, ‘‘यह क्या देखती हूँ, पिंगमाल्य? मैंने तो तुम्हें अतुलनीय सुख का वरदान दिया था?’’
पिंगमाल्य ने मानो सहसा जागकर कहा, ‘‘देवी, यह आपने क्या किया?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘मेरी जो कला अमर और अजर थी, उसे आप ने जरा-मरण के नियमों के अधीन कर दिया! मैंने तो सुख-भोग नहीं माँगा-मैं तो यही जानता आया कि कला का आनन्द चिरन्तन है।’’
देवी हँसने लगी, ‘‘भोले पिंगमाल्य! लेकिन कलाकार सभी भोले होते हैं। तुम यह नहीं जानते कि तुम क्या माँग रहे हो-या कि क्या तुम्हें मिला है जिसे तुम खो रहे हो। किन्तु तुम चाहते हो तो और विचार करके देख लो। मैं तुम्हारी मूर्ति को फिर जड़वत् किये जाती हूँ। लेकिन रात को तुम उसे पुकारोगे और उत्तर न पाकर अधीर हो उठोगे। कल मैं आकर पूछूँगी-तुम चाहोगे तो कल मैं इसमें फिर प्राण डाल दूँगी। मेरे वरदान वैकल्पिक नहीं होते। लेकिन तुम मेरे विशेष प्रिय हो, क्योंकि तुम रूपस्रष्टा हो।’’
देवी फिर अन्तर्धान हो गयी। उसके साथ ही कक्ष का आलोक भी बुझ गया। पिंगमाल्य ने लपककर मूर्ति को छूकर देखा, वह मूर्ति ही थी, सुन्दर ओपयुक्त, किन्तु शीतल और निष्प्राण।
विचार करके और क्या देखना है? वह रूप का स्रष्टा है, रूप का दास होकर रहना वह नहीं चाहता। मूर्ति सजीव होकर प्रेय हो जाए, यह कलाकार की विजय भी हो सकती है, लेकिन कला की निश्चय ही वह हार है।...पिंगमाल्य ने एक बार फिर मूत्र्त को स्पर्श करके देखा। कल देवी फिर प्रकट होगी और इस मूर्ति में प्राण डाल देगी आज जो पिंगमाल्य की कला है, कल वह एक किंवदन्ती बन जाएगी। लोग कहेंगे कि इतना बड़ा कलाकार पहले कभी नहीं हुआ, और यही प्रशंसा का अपवाद भविष्य के लिए उसके पैरों की बेडिय़ाँ बन जाएगा... किन्तु कल...
चौंककर पिंगमाल्य ने एक बार फिर मूर्ति को छुआ और मूर्ति की दोनों बाँहें अपनी मुट्ठियों में जकड़ लीं। कल... उसकी मु_ियों की पकड़ धीरे-धीरे शिथिल हो गयी। आज वह मूर्ति है, पिंगमाल्य की गढ़ी हुई अद्वितीय सुन्दर मूर्ति, कल यह एक नारी हो जाएगी-अपरोदिता से उपहार में मिली हुई अद्वितीय सुन्दर नारी। पिंगमाल्य ने भुजाओं को पकड़ कर मूर्ति को ऊँचा उठा लिया और सहसा बड़े जोर से नीचे पटक दिया।
मूर्ति चूर-चूर हो गयी।
अब वह कल नहीं आएगा। पिंगमाल्य की कला जरा-मरण के नियमों के अधीन नहीं होगी। कला उसकी श्रेय ही रहेगी, प्रेय होने का डर अब नहीं है।
किन्तु अपरोदिता? क्या देवी का कोप उसे सहना होगा? क्या उसने सौन्दर्य की देवी की अवज्ञा कर दी है! और इसीलिए अब उसकी रूप-कल्पी प्रतिभा नष्ट हो जाएगी?
किन्तु अवज्ञा कैसी? देवी ने स्वयं उसे विकल्प का अधिकार दिया है।
पिंगमाल्य धरती पर बैठ गया और अनमने भाव से मूर्ति के टुकड़ों को अँगुलियों से धीरे-धीरे इधर-उधर करने लगा।
क्या देवी अब भी छायावत् उसकी कोहनी के पीछे रहेगी और उसकी अँगुलियों कोप प्रेरित करती रहेगी? या कि वह उदासीन हो जाएगी? क्या वह-क्या वह आज के कला साधना में अकेला हो गया है?
पिंगमाल्य अवष्टि-सा उठकर खड़ा हो गया। एक दुर्दान्त साहसपूर्ण भाव उसके मन में उदित हुआ और शब्दों में बँध आया। कला-साधना में अकेला होना ही तो साधक होना है। वह अकेला नहीं हुआ है, वह मुक्त हो गया है।
वह आसक्ति से मुक्त हो गया है और वह देवी से भी मुक्त हो गया है।
कथा है कि पिंगमाल्य ने उस मूर्ति से जिसमें देवी ने प्राण डाले थे, विवाह कर लिया था और उससे एक सन्तान भी उत्पन्न की थी, जिसने अनन्तर प्रपोष नाम का नगर बसाया। किन्तु वास्तव में पिंगमाल्य की पत्नी शिलोद्भवा नहीं थी। बन्धनमुक्त हो जाने के बाद पिंगमाल्य ने पाया कि वह घृणा से भी मुक्त हो गया है। और उसने एक शीलवन्ती कन्या से विवाह किया। भग्न मूर्ति के खंड उसने बहुत दिनों तक अपनी मुक्ति की स्मृति में सँभाल रखे। मूर्ति के लुप्त हो जाने का वास्तविक इतिहास किसी को पता नहीं चला। देवी ने भी पिंगमाल्य के लिए व्यस्त होना आवश्यक समझा। क्योंकि कला-साधना की एक दूसरी देवी है, और निष्ठावान गृहस्थ जीवन की देवी उससे भी भिन्न है।
और पिंगमाल्य की वास्तविक कला-सृष्टि इसके बाद ही हुई। उसकी कीर्ति जिन मूर्तियों पर आधारित है वे सब इस घटना के बाद ही निर्मित हुईं।
कहानी मैं नहीं कहता। लेकिन मुझे कुतूहल होता है कि कहानियाँ आखिर बनती कैसे हैं? पुराण-गाथाओं के प्रतीक सत्य क्या कभी बदलते नहीं? क्या सामूहिक अनुभव में अभी कोई वृद्धि नहीं होती? क्या कलाकार की संवेदना ने किसी नए सत्य का संस्पर्श नहीं पाया?
कमज़ोर -अन्तोन चेख़व
आज मैं अपने बच्चों की अध्यापिका यूल्या वसिल्येव्ना का हिसाब चुकता करना चाहता था।
"बैठ जाओ यूल्या वसिल्येव्ना।" मैंने उससे कहा, "तुम्हारा हिसाब चुकता कर दिया जाए। हाँ, तो फ़ैसला हुआ था कि तुम्हें महीने के तीस रूबल मिलेंगे, है न?"
"जी नहीं, चालीस।"
"नहीं, नहीं, तीस में ही बात की थी । तुम हमारे यहाँ दो ही महीने तो रही हो।"
"जी, दो महीने और पाँच दिन।"
"नहीं, पूरे दो महीने। इन दो महीनों में से नौ इतवार निकाल दो। इतवार के दिन तो तुम कोल्या को सिर्फ़ सैर कराने के लिए ही लेकर जाती थी। और फिर तीन छुट्टियाँ भी तो तुमने ली थीं... नौ और तीन, बारह। तो बारह रूबल कम हो गए। कोल्या चार दिन तक बीमार रहा, उन दिनों तुमने उसे नहीं पढ़ाया। सिर्फ़ वान्या को ही पढ़ाया, और फिर तीन दिन तुम्हारे दाँत में भी दर्द रहा। उस समय मेरी पत्नी ने तुम्हें छुट्टी दे दी थी। बारह और सात हुए उन्नीस। साठ में से इन्हें निकाल दिया जाए तो बाक़ी बचे... हाँ, इकतालीस रूबल,क्यों ठीक है न?”
यूल्या की आँखों में आँसू भर आए थे।
"और नए साल के दिन तुमने एक कप-प्लेट तोड़ दिया था । दो रूबल उसके घटाओ। तुम्हारी लापरवाही से कोल्या ने पेड़ पर चढ़कर अपना कोट फाड़ दिया था। दस रूबल उसके और फिर तुम्हारी लापरवाही के कारण ही नौकरानी वान्या के बूट लेकर भाग गई। सो, पाँच रूबल उसके भी कम हुए... दस जनवरी को दस रूबल तुमने उधार लिए थे। इकतालीस में से सत्ताइस निकालो। बाकी रह गए- चौदह।"
यूल्या की आँखों में आँसू उमड़ आए थे, "मैंने एक बार आपकी पत्नी से तीन रूबल लिए थे।"
"अच्छा, यह तो मैंने लिखा ही नहीं। चौदह में से तीन निकालो, अब बचे ग्यारह। सो, यह रही तुम्हारी तनख़्वाह ! तीन, तीन, तीन... एक और एक।"
"धन्यवाद !" उसने बहुत ही हौले से कहा।
"तुमने धन्यवाद क्यों कहा?"
"पैसों के लिए।"
"लानत है ! क्या तुम देखती नहीं कि मैंने तुम्हें धोखा दिया है? मैंने तुम्हारे पैसे मार लिए हैं और तुम इस पर मुझे धन्यवाद कहती हो ! अरे, मैं तो तुम्हें परख रहा था... मैं तुम्हें अस्सी रूबल ही दूंगा। यह रही पूरी रक़म।"
वह धन्यवाद कहकर चली गई। मैं उसे देखता रहा और फिर सोचने लगा कि दुनिया में ताक़तवर बनना कितना आसान है!
"बैठ जाओ यूल्या वसिल्येव्ना।" मैंने उससे कहा, "तुम्हारा हिसाब चुकता कर दिया जाए। हाँ, तो फ़ैसला हुआ था कि तुम्हें महीने के तीस रूबल मिलेंगे, है न?"
"जी नहीं, चालीस।"
"नहीं, नहीं, तीस में ही बात की थी । तुम हमारे यहाँ दो ही महीने तो रही हो।"
"जी, दो महीने और पाँच दिन।"
"नहीं, पूरे दो महीने। इन दो महीनों में से नौ इतवार निकाल दो। इतवार के दिन तो तुम कोल्या को सिर्फ़ सैर कराने के लिए ही लेकर जाती थी। और फिर तीन छुट्टियाँ भी तो तुमने ली थीं... नौ और तीन, बारह। तो बारह रूबल कम हो गए। कोल्या चार दिन तक बीमार रहा, उन दिनों तुमने उसे नहीं पढ़ाया। सिर्फ़ वान्या को ही पढ़ाया, और फिर तीन दिन तुम्हारे दाँत में भी दर्द रहा। उस समय मेरी पत्नी ने तुम्हें छुट्टी दे दी थी। बारह और सात हुए उन्नीस। साठ में से इन्हें निकाल दिया जाए तो बाक़ी बचे... हाँ, इकतालीस रूबल,क्यों ठीक है न?”
यूल्या की आँखों में आँसू भर आए थे।
"और नए साल के दिन तुमने एक कप-प्लेट तोड़ दिया था । दो रूबल उसके घटाओ। तुम्हारी लापरवाही से कोल्या ने पेड़ पर चढ़कर अपना कोट फाड़ दिया था। दस रूबल उसके और फिर तुम्हारी लापरवाही के कारण ही नौकरानी वान्या के बूट लेकर भाग गई। सो, पाँच रूबल उसके भी कम हुए... दस जनवरी को दस रूबल तुमने उधार लिए थे। इकतालीस में से सत्ताइस निकालो। बाकी रह गए- चौदह।"
यूल्या की आँखों में आँसू उमड़ आए थे, "मैंने एक बार आपकी पत्नी से तीन रूबल लिए थे।"
"अच्छा, यह तो मैंने लिखा ही नहीं। चौदह में से तीन निकालो, अब बचे ग्यारह। सो, यह रही तुम्हारी तनख़्वाह ! तीन, तीन, तीन... एक और एक।"
"धन्यवाद !" उसने बहुत ही हौले से कहा।
"तुमने धन्यवाद क्यों कहा?"
"पैसों के लिए।"
"लानत है ! क्या तुम देखती नहीं कि मैंने तुम्हें धोखा दिया है? मैंने तुम्हारे पैसे मार लिए हैं और तुम इस पर मुझे धन्यवाद कहती हो ! अरे, मैं तो तुम्हें परख रहा था... मैं तुम्हें अस्सी रूबल ही दूंगा। यह रही पूरी रक़म।"
वह धन्यवाद कहकर चली गई। मैं उसे देखता रहा और फिर सोचने लगा कि दुनिया में ताक़तवर बनना कितना आसान है!
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