Thursday, November 26, 2009

समुद्र - एक प्रेमकथा

समुद्र - एक प्रेमकथा
उसने जीवन में कभी समुद्र नहीं देखा था।और देखा तो देखती ही चली गई।अपनी छोटी छोटी लहरों से हाथ हिला हिलाकर पास बुलाता समुद्र, किनारों से टकराता , सिर धुनता , अपनी बेबसी पर मानों पछाड ख़ाता समुद्र और अन्त में सबकुछ लील जाने को आतुर , पागल समुद्र!
उसे लगा, समुद्र तो उसकी सत्ता ही समाप्त कर देगा। वह घबरा कर पीछे हट गई।
लेकिन तब भी समुद्र के अपने आसपास ही कहीं होने का अहसास उसके मन में बना रहा बरसों । उसे लगता अब समुद्र कहीं बाहर न होकर उसके अन्दर समा गया है और वह एक भंवर में चक्कर काट रही है लगातार विवृत्ति उसकी नियति नहीं है।
वह रह रहकर चौंकती। समुद्र उसके आस पास ही है कहीं। वह लौट नहीं आई है और न समुद्र उससे दूर है।
फिर उसने पहचाना , समुद्र भयानक था लेकिन उसका उद्दाम आकर्षण अब भी उसे खींचता है। वह लौटने को बेचैन हो उठी।
उसने खुद को अर्घ्य सासमर्पित करना चाहा।
लेकिन, ज्वार थम गया था। लौटती लहरें उसे भिगोकर किनारे पर ही छोड ग़ईं।उसके पैर कीचड और बालू में सन गए।
समुद्र ने उसे कहीं नहीं पहुंचाया था। बस मुक्त कर दिया था और वह उसके लिए तैयार नहीं थी। मुक्ति का बोध उसे था लेकिन, उसने स्वीकारना नहीं चाहा।अब सचमुच समुद्र उसके अन्दर भर गया था। वह चुपचाप , अकेले में लौटने को बेचैन , रोती बिसूरती, अपने ही अन्दर डूबती उतराती , अपनी विवशता पर पछाड ख़ाती , किनारों से टकरा टकराकर टूटती रही।
फिर एक दिन उसने सुना । समुद्र में फिर तूफान आया थाऔर किसी ने लहरों पर चढक़र उसे भेंट लिया।खुद को समर्पित कर अपनी नियति पा ली।
उसने महसूसा, उसके अन्दर कुछ मर गया।
वह जानती थी, समुद्र में अब कभी तूफान नहीं आयेगा।
इला प्रसाद
अगस्त 1,2005

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