Saturday, December 3, 2011

सोलह आने - त्रिलोचन

कमलनारायण ने आग्रहपूर्वक कहा कि आज तुम भी यहीं खाओ। वरुण है... बना लेगा।

-- अच्छा...। मैंने स्वीकार कर लिया।

दुमंज़िले की ओर देखकर कमलनारायण चिल्लाया।

-- वरुण, ओ वरुण!

-- आया। वरुण की आवाज़ आई, उसके पीछे वह स्वयं।

-- क्या है?

-- आज तीन आदमियों के लिए खाना बनाना। देवल भी यहीं खाएगा।

-- तीन...? वरुण बोला।

-- हाँ।

-- एक बात है...।

-- क्या।

--आटा, दाल, चावल... सब खतम।

-- कोई बात नहीं। पैसे दे दो। देवल ले आएगा।

वरुण मुसकराया। बोला-- पैसे भी तो नहीं हैं।

कमल ने मेरी ओर देखा और हँस पड़ा।

मैं भी हँस पड़ा। कहा-- रहने दो। क्यों बेकार की झंझट लोगे, मैं होटल में खा आऊंगा।

कमल ने कहा-- सो नहीं होगा। देखता हूँ मैं पैसे, आज यहीं खाना!

और कमल अपने कमरे में चला गया।

-- बैठो वरुण। मैंने कहा और हाथ पकड़ पास में पड़ी हुई कुर्सी की ओर खींचा।

वरुण बैठ गया।

पूछा उसने-- आपको काम मिल गया।

-- हाँ भाई। प्रेस में पंद्रह रुपए मासिक।

-- अच्छा हुआ। सहारा हो गया। अब ठीक है, हाँ। इधर तो आपके पास पैसे कुछ थे नहीं, काम कैसे चल रहा है?

-- इधर चार-पाँच दिन अनशन करके बिता दिया। फिर तीन रुपये ऐडवांस ले लिया। काम चल ही रहा है। अब मेरे पास एक रुपया, छह आने बाकी बचे हैं।

ये खतम हो जाएँगे तब...?

-- देखा जाएगा। कोई-न-कोई सूरत निकल ही आएगी।

-- सोते कहाँ हैं?

-- मुसाफ़िरख़ाने चला जाता हूँ। मज़े में रात कट जाती है।

सुनकर वरुण हँसा और मैं भी हँसने लगा।

कमल पीठ पर हाथ बांधे हुए लौट आया। चिंता-मग्न। खाट पर मेरे पास बैठ गया।

वरुण ने कहा-- तो भाई, पैसे दे दो। अब तो दिन बीता। जल्दी भोजन बनाया जाए।

कमल ने कहा-- पैसे तो मेरे पास भी नहीं हैं। क्या करें?

वरुण को याद आया। कहा उसने-- पैसे देवल के पास हैं। कह दीजिए, जाकर चीज़ें ख़रीद लाएँ, फिर दे दिए जाएँगे।

कमल ने कहा-- है देवल? तो जाओ भाई, ले जाओ। जो खर्च होगा मैं दे दूंगा।

मैंने कहा-- अच्छी बात है।

सब भोजन करने बैठे। वरुण ने अकेले बनाया था।

कमल ने कहा-- देवल, आज वरुण को बड़ी तकलीफ़ हुई।

वरुण ने कहा-- तकलीफ़? तकलीफ़ तो मुझ कोई नहीं हुई।... हाँ, भोजन कैसा बना?

कमल बोला-- बहुत बढ़िया... तुम्हारे बनाने की तारीफ़ है भाई... क्यों देवल, तुम्हें कैसा लगा?

-- बहुत उत्तम। मैंने कहा।

-- कितने पैसे खर्च हुए? कमल ने मुझ से पूछा।

वरुण ने पलकें उठाकर मेरी ओर देखा।

-- नौ आने। मैंने कहा।

-- नौ आने? कमल को आश्चर्य हुआ-- यह बहुत है। मतलब, हाथ से बनाने का कोई असर नहीं पड़ा। खर्चा होटल के बराबर ही रहा।

-- क्या-क्या ले आए थे? वरुण ने कहा। मैंने सब गिना दिया।

कमल ने कहा-- देवल, अभी तो नहीं हैं, दो-तीन दिन में तुम याद रखकर तीन आने मुझ से मांग लेना। हाँ।

उसने और कहा-- और वरुण, तुम भी तीन आने दे देना।

वरुण ने कहा-- यह कहने की बात है...?

-- मैं उठता हूँ। कमल खाकर उठ गया।

मैं और वरुण खाते रहे।

वरुण ने कहा-- देवल!

-- क्या कहना है? मैंने कहा।

-- अब आपके पास कुल कितने पैसे हैं?

-- तेरह आने... क्यों?

-- आपको अभी पैसों की कोई ख़ास ज़रूरत तो नहीं है?

-- अभी तो नहीं है।

-- तो मुझे दे दीजिए। ज़रूरी काम है। जल्दी ही दे दूंगा।

-- कितना दूँ?

-- सब...।

इसके बाद हम खाकर उठे।

कमल अपने कमरे में बैठा था। मैं उसके पास गया। वह हारमोनियम पर उलटे-सीधे हाथ फेर रहा था और किसी सताए हुए आदमी के स्वर में चिल्ला रहा था -

जाओ उनके पास
बादल, जाओ उनके पास...
मैं चुपचाप बैठ गया।

मेरे पीछे वरुण आया। उसने मुझे और कमल को पान दिया। कमल का ध्यान टूटा ओर वरुण से कहा उसने कि बैठ जाओ।

-- वरुण बैठ जाओ। कमल ने कहा-- तुम गाओ वरुण!

कुछ इधर-उधर करने के बाद वह गाने लगा।

जाओ उनके पास
बादल, जाओ उनके पास ...
गाते समय उसकी अधखुली आँखें और लक्ष्यहीन किंतु भावपूर्ण दृष्टि सामने की ओर एकाग्र, ऊर्मिल स्वर-लहरी, निकंप आसन, और सुंदर ढाँचे का मुखमंडल, वर्तमान परिस्थिति से मुक्त निर्जन-भाव मुद्रा। सब एक गंभीर तन्मयता की सृष्टि कर रहे थे।

गाना समाप्त हुआ तब कमल जागा, मैं जागा। मैंने देखा कमल रूमाल से अपने गाल पर बहने वाली आँसुओं की धारों को सुखा रहा है और वरुण अपने मुख पर रूमाल फेर रहा है। मैं बहुत ही प्रभावित हो गया था।

मैंने कहा-- वरुण...।

वह बोला-- कहिए।

और मैंने तब कुछ नहीं कहा। क्या उससे यह कहता कि तुम्हारा गाना बहुत ही सुंदर हुआ? ज़रूर कह देता लेकिन मेरे मन में यह भाव आया कि ऐसा कहना उसका अपमान है। इसी से मैं चुप-का-चुप रहा।

वरुण ने फिर कहा-- क्या कहना चाहते हैं, कहिए न!

मैंने कहा-- कुछ नहीं।

कमल ने कहा-- वरुण, तुम जाओ।

और फिर हम दोनों सो रहे।

इसके बाद दो दिन बीत गए। मैं इधर-उधर में रहा। कमल के यहाँ न जा सका। तबियत भी कुछ ठीक न थी। न तो रहने का कोई ठिकाना न खाने का बंदोबस्त : यह तो दशा थी।

इसी दशा में एक दिन कमल के यहाँ चल पड़ा। सवेरे का समय था। पहुँचा तो कमल कमरे में पढ़ता हुआ मिला। मुझे देखकर कमल ने कहा कि बैठो।

मैं बैठ गया।

मुझे मालूम हुआ कि कमल को जुकाम है। मैंने कहा-- कमल, तुम्हें जुकाम कब से है?

परसों से है। उस रात बाहर छत पर सोया रह गया।

कमल ने पूछा-- तुम कैसे रहे?

-- मजे में रहा।

-- खाने-पीने का क्या बंदोबस्त किया?

-- अभी तो कुछ नहीं।

-- ऐं! तब तुम खाते क्या हो?

-- कुछ नहीं।

-- उफ़ भाई, तुम उपवास कर रहे हो?

-- नहीं, क्योंकि मैं भरपेट पानी पी लेता हूँ।

-- अजीब हो। सीधे क्यों नहीं कहते कि भूखे दिन काट रहो हो! यहाँ क्यों नहीं चले आए?

-- नहीं आ पाया। कोई बात नहीं है। फिर मैं जानता हूँ न कि तुम्हारा खुद का अर्थ-बल कैसा है!

-- जाओ, मैं तुमसे नहीं बोलूंगा। कमल नाराज़ हुआ।

मैंने कहा-- भाई, यह सज़ा मत दो और चाहे जो करो।

कमल ने कहा-- यह लो तीन आने पैसे। किसी होटल में खा आओ। तब बैठो।

मैं पैसे लेकर चल दिया।

खाकर लौट आया।

कमल ने देखा तो पूछा-- खा आए?

-- हाँ।

-- क्या खाया?

-- पूड़ियाँ।

-- कितने पैसे दिए।

-- छह पैसे पूड़ियों के और दो पैसे शाक के।

-- दो पैसे शाक के?

-- हाँ।

-- शाक के पैसे अलग से दिए?

-- हाँ।

-- यह क्यों... शाक तो पूड़ी के साथ यों ही मिलता है?

-- अच्छा!... मुझे मालूम न था। और एक बात हुई। मैं खा चुका तो मैंने दुकान के नौकर से कहा कि तुम्हारे कितने पैसे हुए? उसने पूछा कि आपने पूड़ियाँ कितनी लीं? मैंने बताया तीन छटाँक। दूसरे नौकर ने मेरे कहने पर हामी भरी। तब उस नौकर ने कहा कि पूड़ियों के तो छ: पैसे हुए। मैंने उसकी बात अच्छी तरह समझकर कहा कि और शाक के? तब उसने हँसकर पूछा कि शाक आपने कितनी बार लिया? परोसने वाले नौकर ने हँसकर कहा कि दो बार। मैंने कहा कि ठीक है, दो बार। तब उसने बताया कि शाक के दो पैसे हुए। अत: मैं आठ पैसे देकर चला गया। मेरे चार पैसे बच गए। होटल में तो सब खर्च हो जाते। ठीक किया न?

कमल झल्लाया-- अजीब बुद्धू हो। दो पैसे फिजूल में लुटा आए और पूछते हो कि ठीक किया न?

मैंने अपनी ग़लती महसूस की और कहा-- अब तो मैं जान गया। आगे ऐसी बात होने की आशंका नहीं है। जाने दो अब इस बात को।

कमल ने कहा-- याद है तुम्हें? किस दूकान पर गए थे?

मैंने कहा-- भूख थी। खाने गया था। दूकान चीन्हने नहीं। कैसी बात करते हो?

कमल विरक्त हुआ-- हमें क्या? तुम अपना सब लुटा दो।

इसके बाद लंबे अरसे तक चुप्पी रही।

मैंने मौन भंग किया-- भाई कमल, अब तो मैं जाऊंगा। देर हो रही है।

-- मैंने तुम्हें बाँध रखा है?... तुम्हारा मन था आए। तुम्हारा मन हो चले जाओ। मुझसे क्यों पूछते हो? कमल उदासीन स्वर में बोला।

-- भाई, तुम व्यर्थ नाराज़ हो रहे हो। मैं...।

-- मैं नाराज़ होकर तुम्हारा क्या कर लूंगा? फिर तुमसे नाराज़ क्या होऊँ? जिस पर अपना कोई अधिकार हो उससे नाराज़ हुआ जाता है। तुमने अपने लिए मेरा कोई अधिकार स्वीकार किया है? तुमने कभी मुझे अपना माना है?

मैंने कहा-- कमल, यह तुम्हारा अत्याचार है। मैं कुछ कहना चाहता हूँ।

कमल नरम पड़ गया। बोला-- कहो।

मैंने कहा-- तुम जानते हो, वरुण ने मुझ से तेरह आने पैसे लिए हैं और तीन आने उस दिन का उसका भोजन-व्यय। सब सोलह आने हुए। बड़ा हर्ज़ है। तुम जानते हो, मेरे पास कुल चार पैसे हैं। इनसे कब तक काम चलेगा?

-- काम तो नहीं चल सकता। मुझ से क्या चाहते हो?

-- तुम वरुण से कहा दो कि देवल को उसके पैसे दे दो। उसकी इन दिनों बड़ी तंगी की हालत है।

-- तुम ख़ुद क्यों नहीं मांग लेते?

-- भाई, संकोच लगता है कि सोलह आने के लिए तगादा कैसा? मेरा मन इस मामले में मज़बूत नहीं है। भाई, तुम्हीं कह दो।

-- वरुण के पास भी पैसे नहीं टिकते। आए कि गए। एक से एक नए-नए खर्च बढ़ते जाते हैं। सो मुझे विश्वास नहीं है कि वह पैसे दे सकेगा। ओर दे भी दे तो भी मुझे नहीं कहना चाहिए, क्योंकि वह मेरा मित्र है। मेरे कहने से जाने क्या बात उसके मन में समा जाए। अच्छा तो यही होगा कि तुम खुद कहो। लो, मैं बुलाता हूँ। वरुण...।

-- रहने दो तब। वह आप ही दे दे तो ठीक, नहीं तो देखा जाएगा। मैंने कहा।

परंतु वह पुकारता ही रहा-- वरुण, ओ वरुण...!

-- आया । आवाज़ के बाद वरुण आया।

उसने मुझे नमस्ते किया और कमल से पूछा-- क्या है?

-- देवल ने बुलवाया है।

-- आप कुछ कहना चाहते हैं?

-- नहीं। मैंने कहा।

-- तो मैं जाता हूँ। वरुण बोला।

वह मेरी ओर, फिर कमल की ओर देख रहा था।

कमल चिल्लाया-- देवल...?

मैं चुप का चुप।

-- कहते क्यों नहीं, देवल?

-- बात क्या है? इतना संकोच क्यों है? वरुण बोला।

मैं फिर भी चुप।

-- कहते क्यों नहीं, देवल?

कमल बोला-- तुमने देवल से पैसे लिए हैं! सो इसका हर्ज़ हो रहा है, अब दे दो। कितना है?

-- एक रुपया।

-- अच्छा दे दो। इसे खाने-पीने का कष्ट है।

वरुण ने मेरी ओर देखा-- आप क्या दो-एक दिन रुक नहीं सकते?

-- अभी पैसे नहीं हैं मेरे पास। मैं ज़रूर दे दूंगा। अभी कोई ख़ास ज़रूरत तो नहीं है?

-- नहीं। मैंने कहा।

कमल हतबुद्धि होकर मुझे एकटक देख रहा था। उसने कहा-- अरे, तुम खाओगे कैसे...?

वरुण ने मुझे देखा और कहा-- तो मैं जाऊँ न?

-- हाँ जाओ। मैंने कहा।

वह चला गया।

पीछे कमल मुझ पर बहुत नाराज़ हुआ। उसने कहा-- अब अच्छा है। जाओ, तुम भूखों मरो। मुझे क्या?

इसके बाद मैं वहाँ से अपने काम पर चला गया।

उसने कहा-- मुझे दुख है...।

मैंने कहा-- दुखी मत हो। जब कहो मैं आ जाऊँ। इसमें दुख की कोई बात नहीं।

-- अच्छा आप परसों आए।

-- तो कहो कब आऊँ, जिससे तुम मिलो?

-- शाम को आइए।

-- अच्छा। फिर गया। लेकिन न वरुण मिला, न पैसे। मन को समझाकर जैसे-तैसे कुछ दिन काट दिए। मेरे और लोगों को मेरा ढंग पसंद नहीं आया। उपवास! रोज उपवास! इस तरह ज़िंदगी कितने दिन चलेगी?

कमलापति ने कहा-- आज तुम ज़रूर वरुण के यहाँ जाओ। रुपये तुम्हारे हैं। तब तुम्हें मांगने में संकोच किस बात का?

-- अच्छा। चला जाऊंगा। मैंने कहा।

-- ज़रूर जाओ। कल मैं तुमसे फिर पूछूंगा कि तुम गए कि नहीं और न गए तो फिर हमारा-तुम्हारा कोई वास्ता न रहेगा।

मैंने कहा-- जाऊंगा भैया, ज़रूर जाऊंगा। आप कह रहे हैं तो बिना गए न मानूंगा।

-- अवश्य!

-- अवश्य!

गया। पैसे नहीं मिले। वरुण को दुख हुआ। जिसके कारण मैं अपने तईं लज्जित हुआ।

इसके बाद दो-डेढ़ महीने मैं उसके यहाँ न जा सका। कभी उपवास, कभी भोजन, यों ही दिन कटते गए।

आख़िर फिर एक अनशन-सप्ताह आया। मैंने देखा कि कमज़ोरी बढ़ती जा रही है। सोचा, ऐसे नहीं निभेगा। और मैं वरुण के घर की ओर चल पड़ा।

वहाँ पहुँचा। कमल के कमरे में पहले गया। वह खाट पर लेटा हुआ था। सिर पर पट्टी बंधी थी। मालूम हुआ कि ऐक्टिंग का रिहर्सल कर रहा था, उसी बीच उसका सिर दीवार से टकरा गया और वह अचिंतित चोट से मूर्च्छित हो गया और बहुत-सा रक्त भी बहा। मुझे उसके प्रति सच्ची संवेदना हुई।

उनसे काफ़ी देर तक उसी के बारे में बातचीत करता रहा। फिर कमल ने ही एकाएक पूछा-- कहो देवल, आजकल खाने-पीने का क्या प्रबंध है?

-- होटल में ऐडवांस दे दिया था सो ख़तम हो गया। तीन दिन हुए।

-- अब...?

-- वहीं पुराना ढंग चल रहा है।

-- क्या करोगे?

-- वरुण के पास जो पैसे हैं उन्हीं के लिए आया था। दे देता तो अच्छा होता।

-- वरुण के पास? कब दिया था? मुझे याद नहीं आता।

-- उस दिन... जब हम तीनों का भोजन वरुण ने बनाया था और जिस दिन मैंने नौ आने पैसे चीज़ें ख़रीदने में खरच किया था... याद आया?

-- नहीं। इसी से तुमसे कह रहा हूँ कि दिला दो।

-- तुम ख़ुद मांगो। मैं कैसे दिला सकता हूँ... और आजकल मुझ से उसकी बोल-चाल भी बंद है। मेरे भी उसने पैसे लिए हैं। दिए नहीं। मांगा। इसी पर बिगड़ गया और अब मुझ से नहीं बोलता। लेकिन मेरी कोई हानि नहीं। मैं तो उसी के मकान में रहता हूँ, किराये में पटा दूंगा। तुम ... तुम्हें तो अपने पैसे ज़रूर मांग लेने चाहिए, नहीं तो फिर मुश्किल से मिलेंगे। या तुम जाकर उससे कह दो कि मेरे पैसे कमल को दे देना और तब मैं उससे लेकर पैसे तुम्हें दे दूंगा।

मैंने कहा-- कोई बात नहीं। दे ही देगा। और न भी दे तो मेरा क्या जाता है... सोलह आने... बस!

-- जाकर तुम कहते क्यों नहीं?

-- इसी छोटी-सी बात से तुम्हारे खाने का इंतज़ाम कुछ दिन के लिए हो सकता है।

-- तो चला जाऊँ?

-- हाँ। हाँ। और क्या करना चाहते हो?


मैं उठकर चल पड़ा। दुमंज़िले को जाने वाली सीढ़ी के पास गया और इस तरह मैं एक-एक सीढ़ी पर ठहरकर सोचता हुआ आगे बढ़ने लगा।

एक जीना पार करके दूसरे पर पहुँचा। वहीं पर उधर से नीचे को जाता हुआ वरुण मिला।

उसने मुझसे नमस्कार किया।

मैंने प्रति-नमस्कार किया।

आगे बढ़ना चाहता था कि मैंने कहा-- मुझे आपसे कुछ काम है।

-- मुझ से?

-- हाँ।

-- कहिए।

-- पहले अपने कमरे में चलिए।

-- यहीं कहिए न... क्या काम है?

--यहाँ नहीं। वहीं चलिए। मैं कहता हूँ।

मेरे साथ-साथ वरुण अपने कमरे में आया। एक कुरसी पर बैठ गया और दूसरी कुरसी पर बैठने के लिए मुझे इशारा किया। मैं अच्छी तरह बैठ गया तो मैंने देखा कि वहाँ एक और साहब बैठे हुए हैं। उन्हें मैंने वरुण के यहाँ अकसर देखा था। उसके साथी, परिचित, स्वजातीय या रिश्तेदार हों। मैं इतना साहस नहीं संचित कर पाया कि उनके परिचय को उत्कंठित होता। वे भी मेरे दृष्टि स्पर्श के परिचय में थे।

मेरे पहुँचने से उनकी अटल एकता में बाधा पहुँची और उन्होंने प्रश्न की दृष्टि से वरुण को देखा।

वरुण ने मतलब समझ लिया और उसने मुझे अच्छी तरह देखकर हँसकर कहा-- आपका शुभ नाम देवल है। आप यह हैं-वह हैं... वह है... वह है... गरजे कि आप एक ही हैं... इनको अच्छी तरह समझने के लिए इनका साथ करना ज़्यादा आवश्यक है... आप...आपका ना... है और ये बगल के सुविख्यात कलाकार...के सुपुत्र हैं।

इस तरह एक-दूसरे का परिचय पाकर दोनों ने परस्पर अपने को धन्य माना और हाथ मिलाया।

मैं तो संकोच में गड़ गया कि जिस काम के लिए आया हूँ उसे कैसे अंजाम दूँ, कैसे कहूँ कि मेरे पैसे दे दीजिए, बड़ा हर्ज़ है। और न कहूँ तो और कौन उपाय है कि रोटी का सवाल हल हो?

मेरी चिंता से दबकर वरुण ने एकतार मुझे देखा और कहा-- तो...।

मुझे अवसर मिला। जी में आया कि कह दूँ। लेकिन कुछ आगा-पीछा हुआ ही। फिर भी एक-एक शब्द के बोझ को अकेले ही उठाते हुए मैंने कहा-- एक बात है... उसी के लिए...आया हूँ...।

-- किताब? वरुण ने कहा-- किताब तो नहीं है।

बहुत दिन पहले मैंने उससे शरद-ग्रंथावली मांगी थी, पढ़ने के लिए, और वह दे नहीं सका था। उसने तब बताया था कि किताब उसकी भाभी की है और वह देने में असमर्थ है और यह कि देवल जैसे भूमिहीन के पास से वह किताब फिर वापस मिलेगी, इसका भी विश्वास नहीं है और तब मैंने अपनी याचना को वापस ले लिया था।

आज मेरी अपूर्ण बात से जो उसने किताब की उद्भावना की, वह अकारण नहीं। उस समय मेरे हाथ में 'साहित्याचार्य शरच्चंद्र' पुस्तक थी, इसी से उसने धारणा की होगी कि यह पढ़कर इन्हें फिर संभवत: शरद-ग्रंथावली की आवश्यकता हुई हो। लेकिन मैं चूँकि पैसा लेने गया था सो इस ढंग के उत्तर से मुझे एक धक्का लगा। मैं हृदय से चाहता था कि वह मेरे इशारे को समझ जाए और पैसा दे दे। परंतु ऐसा न हुआ। बिना खुलकर कहे काम चलता नहीं दिखा।

मैंने कहा-- किताब नहीं... पैसे...।

-- पैसे? वरुण ने कहा।

-- हाँ...।

-- कैसे?

-- आपने लिए थे मुझसे...उस दिन...।

-- आपसे?... पैसे...?

उसने मुझे सर से पैर तक बार-बार देखा। मेरे फटे पुराने कपड़े उसके जी को संतोष दे रहे थे कि इसके पास पैसे कभी नहीं हो सकते।

-- हाँ।

-- कब?

-- उस दिन... जब आपने मेरा और कमल का भी भोजन बनाया था... आपके पास पैसे न थे... मेरे थे... एक रुपये छह आने... और नव आने खर्च हुए भोजन में... तेरह आने आपने मुझसे मांग लिए थे... आपको कोई काम था... सो कुल सोलह आने हुए...।

-- तो वे पैसे आपके थे?

-- मैंने समझा, कमल के थे। उसी को दे दिया मैंने।

-- अच्छी बात है। तो दिला दीजिए। कृपया।

वरुण ने पुकारा-- कमल! ओ कमल...!

-- आया! आवाज़ के पीछे-पीछे कमल आया।

-- क्या है?

-- मैंने तुम्हें एक रुपया दिया है। वह देवल का है। दे दो इन्हें।

-- वाह, एक रुपया तो बहुत दिन हुए मैंने भी तुम्हें दिया था, उसे मैं न लूँ?

-- कब?

-- अगस्त का महीना था। क्लब के लिए तुमने लिया था...।

-- अच्छा... देवल के पैसे... तुम्हें याद है... मैंने कब लिए?

-- अच्छी तरह याद नहीं है। हाँ? उस दिन तीनों का भोजन बना था। तुमने ही बनाया था। पैसे देवल के लगे थे... कुल नौ आने। तीन आने अपनी ओर के मैंने बहुत पहिले दे दिए। तुमने दिए कि नहीं?

-- नहीं।

-- तो दे दो।

-- तेरह आने आपने और मुझ से लिए थे। कमल खाकर उठ गया था तब...। मैंने कहा।

-- याद तो नहीं आता। परंतु आप कह रहे हैं तो मैंने ज़रूर लिए होंगे। किस काम के लिए... आपको याद है?

-- यह तो बताया नहीं आपने मुझको।

-- अच्छा... अच्छा... आप कुछ दिन और नहीं ठहर सकते? आपको कोई ख़ास ज़रूरत तो नहीं है?

-- नहीं। मैंने कह दिया।

कमल ने मेरी ओर आँखें फाड़कर देखा और वरुण से कहा-- वरुण, कुछ भी पैसे हों तो दे दो, ये आजकल निराहार रह रहे हैं। दे दो, वरुण, कुछ तो दे दो।

-- अफसोस! क्या करूँ, है ही नहीं।

मैंने कहा-- अफ़सोस की कोई बात नहीं।

-- तो...!

-- हाँ, आप अगले इतवार को... एक सप्ताह बाद आइए। मैं ज़रूर दे दूंगा...।

-- अच्छी बात है। नमस्ते।

कमल को मैंने देखा और कहा-- नमस्ते। फिर चला आया।

-- वरुण है?

-- वरुण? कमल ने कहा-- वह तो कलकत्ते चला गया।

-- कब?

-- आज तीसरा दिन होगा।

-- कब तक लौटेगा भला?

-- अब एक साल बिताकर ही आ सकेगा। नहीं, न भी लौटे। अब तो उसके जल्दी लौटने की बिलकुल उम्मीद नहीं है।

-- तुम्हारे खाने-पीने का क्या इंतज़ाम है?

-- सब ठीक है।

-- होटल में खाते हो?

-- हाँ। कभी-कभी।

-- कभी-कभी?

-- हाँ।

-- आज खाना खाया है?

-- नहीं। मैं परसों खा चुका हूँ। तो वरुण के आने की कोई आशा नहीं... भाई कमल, मैं अब चलूंगा... अच्छा, नमस्ते।

-- आया करना।

-- अच्छी बात है।

No comments: