Monday, December 5, 2011

रमन्ते तत्र देवता -- अज्ञेय

अक्टूबर सन् 1946 का कलकत्ता। तब हम लोग दंगे के आदी हो गये थे, अख़बार में इक्के-दुक्केखून और लूटपाट की घटनाएँ पढक़र तन नहीं सिहरता था; इतने से यह भी नहीं लगता था कि शहर की शान्ति भंग हो गयी। शहर बहुत-से छोटे-छोटे हिन्दुस्तान-पाकिस्तानों में बँट गया था, जिनकी सीमाओं की रक्षा पहरेदार नहीं करते थे, लेकिन जो फिर भी परस्पर अनुल्लंघ्य हो गये थे। लोग इसी बँटी हुई जीवन-प्रणाली को लेकर भी अपने दिन काट रहे थे; मान बैठे थे कि जैसे जुकाम होने पर एक नासिका बन्द हो जाती है तो दूसरी से श्वास लिया जाता है-तनिक कष्ट होता है तो क्या हुआ, कोई मर थोड़े ही जाता है?- वैसे ही श्वास की तरह नागरिक जीवन भी बँट गया तो क्या हुआ... एक नासिका ही नहीं, एक फेफड़ा भी बन्द हो जा सकता है और उसकी सडऩ का विष सारे शरीर में फैलता है और दूसरे फेफड़े को भी आक्रान्त कर लेता है, इतनी दूर तक रूपक को घसीट ले जाने की क्या जरूरत?

बीच-बीच में इस या उस मुहल्ले में विस्फोट हो जाता था। तब थोड़ी देर के लिए उस या आसपास के मुहल्लों में जीवन स्थगित हो जाता था, व्यवस्था पटकी खा जाती थी और आतंक उसी छाती पर चढ़ बैठता था। कभी दो-एक दिन के लिए गड़बड़ रहती थी, तब बात कानोंकान फैल जाती थी कि ‘ओ पाड़ा भालो ना’ और दूसरे मुहल्लों के लोग दो-चार दिन के लिए उधर आना-जाना छोड़ देते थे। उसके बाद ढर्रा फिर उभर आता था और गाड़ी चल पड़ती थी...

हठात् एक दिन कई मुहल्लों पर आतंक छा गया। वे वैसे मुहल्ले थे जिनमें हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की सीमाएँ नहीं बाँधी जा सकती थीं क्योंकि प्याज की परतों की तरह एक के अन्दर एक जमा हुआ था। इनमें यह होता था कि जब कहीं आसपास कोई गड़बड़ हो, या गड़बड़ की अफवाह हो, तो उसका उद्भव या कारण चाहे हिन्दू सुना जाए चाहे मुसलमान, सब लोग अपने-अपने किवाड़ बन्द करके जहाँ के तहाँ रह जाते, बाहर गये हुए शाम को घर न लौटकर बाहर ही कहीं रात काट देते, और दूसरे-तीसरे दिन तक घर के लोग यह न जान पाते कि गया हुआ व्यक्ति इच्छापूर्वक कहीं रह गया है या कहीं रास्ते में मारा गया है...

मैं तब बालीगंज की तरफ़ रहता था। यहाँ शान्ति थी और शायद ही कभी भंग होती थी। यों खबरें सब यहाँ मिल जाती थीं, और कभी-कभी आगामी ‘प्रोग्रामों’ का कुछ पूर्वाभास भी। मन्त्रणाएँ यहाँ होती थीं, शरणार्थी यहाँ आते थे, सहानुभूति के इच्छुक आकर अपनी गाथाएँ सुनाकर चले जाते थे...

आतंक का दूसरा दिन था। तीसरे पहर घर के सामने बरामदे में आरामकुर्सी पर पड़े-पड़े मैं आने-जानेवालों को देख रहा था। ‘आने-जानेवाले’ यों भी अध्ययन की श्रेष्ठ सामग्री होते हैं, ऐसे आतंक के समय में तो और भी अधिक। तभी देखा, मेरा पड़ोसी ही एक सिख सरदार साहब, अपने साथ तीन-चार और सिखों को लिये हुए घर की तरफ जा रहे हैं। ये अन्य सिख मैंने पहले इधर नहीं देखे थे- कौतूहल स्वाभाविक था और फिर आज अपने पड़ोसी को लम्बी किरपान लगाये देखकर तो और भी अचम्भा हुआ। सरदार बिशनसिंह सिख तो थे, पर बड़े संकोची, शन्तिप्रिय और उदार विचारों के; प्रतीक-रूप से किरपान रखते रहे हों तो रहे हों, मैंने देखी नहीं थी और ऐसे उद्धत ढंग से कोट के ऊपर कमरबन्द के साथ लटकायी हुई तो कभी नहीं।

मैंने कुछ पंजाबी लहजा बनाकर कहा, ‘‘सरदारजी, अज्ज किद्धर फौजीं चल्लियाँ ने?’’
बिशनसिंह ने व्यस्त आँखों से मेरी ओर देखा। मानो कह रहे हों, ‘मैं जानता हूँ कि तुम्हारे लहजे पर मुस्कुराकर तुम्हारा विनोद स्वीकार करना चाहिए, पर देखते तो हो, मैं फँसा हूँ...’ स्वयं उन्होंने कहा, ‘‘फेर हाजिर होवांगा...’’
टोली आगे बढ़ गयी।

जो लोग आरामकुर्सियों पर बैठकर आने-जानेवालों को देखा करते हैं, उन्हें एक तो देखने को बहुत कुछ नहीं मिलता है, दूसरे जो कुछ वे देखते हैं उसके साथ उनका रागात्मक लगाव तो जरा भी होता नहीं कि वह मन में जम जाए। मैं भी सरदार बिशनसिंह को भूल-सा गया था जब रात को वे मेरे यहाँ आये। लेकिन अचम्भे को दबाकर मैंने कुर्सी दी और कहा, ‘‘आओ बैठो, बड़ी किरपा कीत्ती?’’
वे बैठ गये। थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले, ‘‘अज जी बड़ा दुखी हो गया ए?...’’
मैंने पंजाबी छोडक़र गम्भीर होकर कहा, ‘‘क्या बात है सरदारजी? खैर तो है?’’
‘‘सब खैर-ही-खैर है इस अभागे मुल्क में, भाई साहब, और क्या कहूँ। मैं तो कहता हूँ दंगा और खून-खराबा न हो तो कैसे न हो, जब कि हम रोज नई जगह उसकी लड़ें रोप आते हैं, फिर उन्हें सींचते हैं... मुझे तो अचम्भा होता है, हमारी कौम बची कैसे रही अब तक!’’

उनकी वाणी में दर्द था। मैंने समझा कि वे भूमिका में उसे बहा न लेंगे तो बात न कह पाएँगे, इसलिए चुप सुनता रहा। वे कहते गये, ‘‘सारे मुसलमान अरब और फारस और तातार से नहीं आए थे। सौ में एक होगा जिसको हम आज अरब या फारस या तातार की नस्ल कह सकें। और मेरा तो खयाल है-खयाल नहीं तजरुबा है कि अरब या ईरानी बड़ा नेक, मिलनसारी और अमन पसन्द होता है। तातारियों से साबिका नहीं पड़ा। बाकी सारे मुसलमान कौन हैं? हमारे भाई, हमारे मजलूम जिनका मुँह हम हज़ारों बरसों से मिट्टी में रगड़ते आए हैं! वही, आज वही मुँह उठाकर हम पर थूकते हैं, तो हमें बुरा लगता है। पर वे मुसलमान हैं, इसलिए हम खिसियाकर अपने दो भाइयों को पकडक़र उनका मुँह मिट्टी में रगड़ते हैं। और भाइयों को ही क्यों, बहिनों को पैरों के नीचे रौंदते हैं, और चूँ नहीं करने देते क्योंकि चूँ करने से धरम नहीं रहता।’’

आवेश में सरदार की जबान लडख़ड़ाने लगी थी। वे क्षण-भर चुप हो गये। फिर बोले, ‘‘बाबू साहब, आप सोचते होंगे, यह सिख होकर मुसलमानों का पच्छ करता है ठीक है, उनसे किसी का वैर हो सकता है तो हमारा ही। पर आप सोचिए तो, मुसलमान है कौन? मजलूम हिन्दू ही तो मुसलमान हैं। हमने जिससे हिकारत की, वह हमसे नफरत करे तो क्या बुरा करता है-हमारा कर्ज ही तो अदा करता है न! मैं तो यह भी कहता हूँ कि यह ठीक न भी हो, तो भी हम नुक्स निकालनेवाले कौन होते हैं? इनसान को पहले अपना ऐब देखना चाहिए, तभी वह दूसरे को कुछ कहने लायक बनता है। आप नहीं मानते?’’

मैंने कहा, ‘‘ठीक कहते हैं आप। लेकिन इनसान आखिर इनसान है, देवता नहीं।’’
उन्होंने उत्तेजित स्वर में कहा, ‘‘देवता? आप कहते हैं देवता? काश कि वह इनसान भी हो सकता। बल्कि वह खरा हैवान भी होता तो भी कुछ बात थी- हैवान भी अपने नियम-कायदे से चलता है! लेकिन बहस करने नहीं आया, आप आज की बात सुन लीजिए।’’

मैंने कहा, ‘‘आप कहिए। मैं सुन रहा हूँ।’’
‘‘आप जानते हैं कि मेरे घर के पास गुरुद्वारा है। जहाँ जब-तब कुछ लोगों ने पनाह पायी है, और जब-तब मैंने भी वहाँ पहरा दिया है। यह कोई तारीफ की बात नहीं, गुरुद्वारे की सेवा का भी एक ढर्रा है, पनाह देने की भी रीत चली आयी है, इसलिए यह हो गया है। हम लोगों ने इंसानियत की कोई नई ईजाद नहीं की। खैर, कल मैं शाम बाजार से वापस आ रहा था तो देखा, रास्ते में अचानक मिनटों में सन्नाटा छाता जा रहा है। दो-एक ने मुझे भी पुकारकर कहा, ‘घर जाओ, दंगा हो गया है’ पर यह न बता पाये कि कहाँ। ट्राम तो बन्द थी ही।

‘‘धरमतल्ले के पास मैंने देखा, एक औरत अकेली घबरायी हुई आगे दौड़ती चली जा रही है, एक हाथ में एक छोटा बंडल है, दूसरे में जोर से एक छोटा मनीबेग दाबे है। रो रही है। देखने से भद्दरलोक की थी। मैंने सोचा, भटक गयी है और डरी हुई है, यों भी ऐसे व$क्त में अकेली जाना-और फिर बंगालिन का-ठीक नहीं, पूछकर पहुँचा दूँ। मैंने पूछा, ‘माँ, तुम कहाँ जाओगी?’ पहले तो वह और सहमी, फिर देखकर कि मुसलमान नहीं सिख हूँ, जरा सँभली। मालूम हुआ कि उत्तरी कलकत्ता से उसका खाविन्द और वह दोनों धरमतल्ले आये थे, तय हुआ था कि दोनों अलग-अलग सामान खरीदकर के.सी. दास की दुकान पर नियत समय पर मिल जाएँगे और फिर घर जाएँगे। इसी बीच गड़बड़ हो गयी, वह सन्नाटे से डरकर घर भागी जा रही-दास की दुकान पर नहीं गयी, रास्ते में चाँदनी पड़ती है जो उसने सदा सुना है कि मुसलमानों का गढ़ है।

‘‘मैंने उससे कहा कि डरे नहीं, मेरे साथ धरमतल्ला पार कर ले। अगर के.सी.दास की दुकान पर उसका आदमी मिल गया तो ठीक, नहीं तो वहाँ से बालीगंज की ट्राम तो चलती होगी, उसमें जाकर गुरुद्वारे में रात रह जाएगी और सवेरे मैं उसे घर पहुँचा आऊँगा। दिन छिप चला था, बिजली सडक़ों पर वैसे ही नहीं है, ऐसे में पाँच-छ: मील पैदल दंगे का इलाका पार करना ठीक नहीं है।’’ इतना कहकर सरदार बिशनसिंह क्षण-भर रुके, और मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘बताइए, मैंने ठीक कहा कि गलत? और मैं क्या कर सकता था?’’
‘‘ठीक ही तो कहा, और रास्ता ही क्या था?’’
‘‘मगर ठीक नहीं कहा। बाद में पता लगा कि मुझे उसे अकेली भटकने देना चाहिए था।’’
‘‘क्यों?’’ मैंने अचकचाकर पूछा।
‘‘सुनिए।’’ सरदार ने एक लम्बी साँस ली, ‘‘के.सी.दास की दुकान बन्द थी। पति देवता का कोई निशान नहीं था। मैं उस औरत को ट्राम में बिठाकर यहाँ ले आया। रात वह गुरुद्वारे के ऊपरवाले कमरे में रही। मैं तो अकेला हूँ आप जानते हैं, मेरी बहिन ने उसे वहीं ले जाकर खाना खिलाया और बिस्तरा वगैरा दे आयी। सवेरे मैंने एक सिख ड्राइवर से बात करके टैक्सी की, और ढूँढ़ता हुआ उसके घर ले गया शामपुकुर लेन में था-एकदम उत्तर में। दरवाजा बन्द था, हमने खटखटाया तो एक सुस्त-से महाशय बाहर निकले-पति देवता।’’
‘‘आप लोगों को देखते ही उछल पड़े होंगे?’’
सरदार क्षण-भर चुप रहे।
‘‘हाँ, उछल तो पड़े। लेकिन बहू को देखकर तो नहीं, मुझे देखकर।’’ उन्होंने फिर एक लम्बी साँस ली। ‘‘महाशय के.सी. दास घर पर नहीं ठहरे थे, दंगे की खबर हुई तो कहीं एक दोस्त के यहाँ चले गये थे। रात वहीं रहे थे, हमसे कुछ पहले ही लौटकर आये थे। आँखें भारी थीं। दरवाजा खोलकर मुझे देखकर चौंके, फिर मेरे पीछे स्त्री देखकर तनिक ठिठके और खड़े-खड़े बोले, ‘‘आप कौन?’’ मैंने कहा, ‘‘पहले इन्हें भीतर ले जाइए, फिर मैं सब बतलाता हूँ।’’ स्त्री पहले ही सकुची झुकी खड़ी थी, इस बात पर उसने घूँघट जरा आगे सरकाकर अपने को और भी समेट-सा लिया।’’
बिशनसिंह फिर जरा चुप रहे, मैं भी चुप रहा।

पति ने फिर पूछा, ‘‘ये रात आपके यहाँ रहीं?’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ, हमारे गुरुद्वारे में रहीं। शाम को यहाँ आना मुमकिन नहीं था।’’ उन्होंने फिर कहा, ‘‘आपके बीवी-बच्चे हैं?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं मेरी विधवा बहिन साथ रहती है, पर इससे आपको क्या?’’

उन्होंने मुझे जवाब नहीं दिया। वहीं से स्त्री की ओर उन्मुख होकर बंगाली में पूछा, ‘‘तुम रात को क्या जाने कहाँ रही हो, सवेरे तुम्हें यहाँ आते शरम न आयी?’’ सरदार बिशनसिंह ने रुककर मेरी ओर देखा।
मैंने कहा, ‘‘नीच?’’

बिशनसिंह के चेहरे पर दर्द-भरी मुस्कान झलककर खो गयी। बोले, ‘‘मैं न जाने क्या करता उस आदमी को-और सोचता हूँ कि स्त्री भी न जाने क्या जवाब देती। लेकिन औरत जात का जवाब न देना भी कितना बड़ा जवाब होता है, इसको आजकल का कीड़ा इनसान क्या समझता है? मैंने पीछे धमाका सुनकर मुडक़र देखा, वह औरत गिर गयी थी-बेहोश होकर। मैं फौरन उठाने कोझुका, पर उस आदमी ने ऐसा तमाचा मारा था कि मेरे हाथ ठिठक गये। मैंने उसी से कहा, ‘उठाओ, पानी का छींटा दो...’ पर वह सरका नहीं, फिर उसकी ढबर-ढबर आँखें छोटी होकर लकीरें-सी बन गयीं, और एकाएक उसने दरवाजा बन्द कर लिया।’’

मैं स्तब्ध सुनता रहा। कुछ कहने को न मिला।
‘‘लोग इकट्ठे होने लगे थे। मैं उस स्त्री की बात सोचकर ज्यादा भीड़ करना भी नहीं चाहता था। ड्राइवर की मदद से मैंने उसे टैक्सी में रखा और घर ले आया। बहिन को उसकी देखभाल करने को कहकर बाबा बचित्तर सिंह के पास गया-वे हमारे बुजुर्ग हैं और गुरुद्वारे के ट्रस्टी। वहीं हम लोगों ने मीटिंग करके सलाह की कि क्या किया जाए। कुछ की तो राय थी कि उस आदमी को कत्ल कर देना चाहिए, पर उससे उसकी विधवा का मसला तो हल न होता। फिर यही सोचा गया कि पाँच सरदारों का जत्था गुरुद्वारे की तरफ़ से उस औरत को उसके घर लेकर जाए, और उसके आदमी से कहे कि या तो इसको अपनाकर घर में रखे या हम समझेंगे कि तुमने गुरुद्वारे की बेइज्जती की है और तुम्हें काट डालेंगे।’’

‘‘आप शायद कल तीसरे पहर वहीं से लौट रहे होंगे...’’
‘‘हाँ! नहीं तो आप जानते हैं मैं वैसे किरपान नहीं बाँधता। एक जमाने में जिन बजूहात से गुरुओं ने किरपान बाँधना धर्म बताया था, आज उनके लिए राइफल से कम कोई क्या बाँधेगा? निरी निशानी का मोह अपनी बुजदिली को छिपाने का तरीका बन जाता है, और क्या! खैर, हम लोग औरत को लेकर गये। हमें देखते ही पहले तो और भी कई लोग जुट गये, पर जत्थे को देखकर शायद पति देवता को अकल आ गयी, उन्होंने हमसे कहा, ‘आप लोगों की मेहरबानी’, और औरत से कहा, ‘चल, भीतर चल’ बस। हमें आने या बैठने को नहीं कहा... हम बैठते तो क्या उस कमीने के घर में...’’

‘‘औरत भीतर चली गयी? कुछ बोली नहीं?’’

‘‘बोलती क्या? जब से होश आया तब से बोली नहीं थी। उसकी आँखें न जाने कैसे हो गयी थीं, उनमें झाँककर भी कोई जैसे कुछ नहीं देखता था, सिर्फ एक दीवार। मुझसे तो उसके पास नहीं ठहरा जाता था। वह चुपचाप खड़ी रही। जब हम लोगों ने कहा, ‘जाओ माँ, घर में जाओ, अब...’ तब जैसे मशीन-सी दो-तीन कदम आगे बढ़ी। पति के फैलते-सिकुड़ते नथुनों की ओर उसने देखा, एक-एक कदम पर जैसे और झुकती और छोटी होती जाती थी। देहरी तक ही गयी, फिर वहीं लडख़ड़ाकर बैठ गयी। मैं तो समझा था फिर गिरी, पर बैठते-बैठते उसका सिर चौखट से टकराया तो चोट से वह सँभल गयी। बैठ गयी। उसे वैसे ही छोडक़र हम चले आये।’’

हम दोनों देर तक चुप रहे।
थोड़ी देर बाद सरदार बिशनसिंह ने कहा, ‘‘बोलिए कुछ, भाई साहब?’’
मैंने कहा, ‘‘चलिए, बात खत्म हो गयी जैसे-तैसे। उन्होंने उसे घर में ले लिया...’’
बिशनसिंह ने तीखी दृष्टि से मेरी तरफ देखा। ‘‘आप सच-सच कह रहे हैं बाबू साहिब?’’
मैंने चौंककर कहा, ‘‘क्यों? झूठ क्या है?’’
‘‘आप सचमुच मानते हैं कि बात खत्म हो गयी?’’
मैंने कुछ रुकते-रुकते कहा, ‘‘नहीं, वैसा तो नहीं मान पाता। यानी हमारे लिए भले ही खत्म हो गयी हो, उनके लिए तो नहीं हुई।’’
‘‘हमारे लिए भी क्या हुई है? पर उसे अभी छोडि़ए, बताइए कि उस औरत का क्या होगा?’’
मैंने अपने शब्द तौलते हुए कहा, ‘‘बंगाल में आये दिन अखबारों में पढऩे को मिलता है कि स्त्री ने सास या ननद या पति के अत्याचार से दुखी होकर आत्महत्या कर ली, जहर खा लिया या कुएँ में कूद पड़ी। और ... कभी-कभी ऐसे एक्सीडेंट भी होते हैं कि स्त्री के कपड़ों में आग लग गयी, चाहे यों ही, चाहे मिट्टी के तेल के साथ...’’

‘‘हाँ, हो सकता है। आप माफ करना, मैं कड़वी बात कहनेवाला हूँ। इससे अगर आपको कुछ तसल्ली हो तो कहूँ कि अपने को हिन्दू मानकर ही यह कह रहा हूँ। आप हिन्दू हैं न, इसलिए यही सोचते हैं। वह मर जाएगी; छुटकारा हो जाएगा। हिन्दू धर्म उदार है न; मारता नहीं, मरने का सब तरह से सुभीता कर देता है। इसमें दो फायदे हैं-एक तो कभी चूक नहीं होती, दूसरे यह तरीका दया का भी है। लेकिन यह बताइए, अगर आदमी पशु है तो औरत क्यों देवता हो? देवता मैं जान-बूझकर कहता हूँ, क्योंकि इनसान का इन्साफ तो देवताओं से भी ऊँचा उठ सकता है। देवता सूद न लें, धेले-पाई की वसूली पूरी करते हैं। ...करते हैं कि नहीं?’’

मैंने कहा, ‘‘सरदार साहब, आपको सदमा पहुँचा है इसलिए आप इतनी कड़वी बात कर रहे हैं। मैं उस आदमी को अच्छा नहीं कहता, पर एक आदमी की बात को आप हिन्दू जाति पर क्यों थोपते हैं?’’

‘‘क्या वह सचमुच एक आदमी की बात है? सुनिए, मैं जब सोचता हूँ कि क्या हो तो उस आदमी के साथ इन्साफ हो, तब यही देखता हूँ कि वह और घर से दुत्कारी जाकर मुसलमान हो, मुसलमान जने, ऐसे मुसलमान जो एक-एक सौ-सौ हिन्दुओं को मारने की कसम खाये। और आप तो साइकोलॉजी पढ़े हैं न, आप समझेंगे-हिन्दू औरतों के साथ सचमुच वही करे जिसकी झूठी तोहमत उसकी माँ पर लगायी गयी। देवताओं का इन्साफ तो हमेशा से यही चला आया है-नफरत के एक-एक बीज से हमेशा सौ-सौ जहरीले पौधे उगे हैं। नहीं तो यह जंगल यहाँ उगा कैसे, जिसमें आज मैं-आप खो गये हैं और क्या जाने अभी निकलेंगे कि नहीं? हम रोज दिन में कई बार नफरत का नया बीज बोते हैं और जब पौधा फलता है तो चीखते हैं कि धरती ने हमारे साथ धोखा किया!’’

मैं काफ़ी देर तक चुप रहा। सरदार बिशनसिंह की बात चमड़ी के नीचे कंकड़-सी रगडऩे लगी। वातावरण बोझीला हो गया। मैंने उसे कुछ हल्का करने के लिए कहा, ‘‘सिख कौम की शिवेलरी मशहूर है। देखता हूँ, उस बिचारी का दु:ख आपकी शिवेलरी को छू गया है!’’

उन्होंने उठते हुए कहा, ‘‘मेरी शिवेलरी!’’ और थोड़ी देर बाद फिर ऐसे स्वर में, जिसमें एक अजीब गूँज थी, ‘‘मेरी शिवेलरी, भाई साहब!’’

उन्होंने मुँह फेर लिया, लेकिन मैंने देखा, उनके होठों की कोर काँप रही है-हल्की-सी लेकिन बड़ी बेबसी के साथ...

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