Friday, December 18, 2009

शिवमंगल सिंह सुमन

असमंजस
जीवन में कितना सूनापन
पथ निर्जन है, एकाकी है,
उर में मिटने का आयोजन
सामने प्रलय की झाँकी है
वाणी में है विषाद के कण
प्राणों में कुछ कौतूहल है
स्मृति में कुछ बेसुध-सी कम्पन
पग अस्थिर है, मन चंचल है
यौवन में मधुर उमंगें हैं
कुछ बचपन है, नादानी है
मेरे रसहीन कपालो पर
कुछ-कुछ पीडा का पानी है
आंखों में अमर-प्रतीक्षा ही
बस एक मात्र मेरा धन है
मेरी श्वासों, निःश्वासों में
आशा का चिर आश्वासन है
मेरी सूनी डाली पर खग
कर चुके बंद करना कलरव
जाने क्यों मुझसे रूठ गया
मेरा वह दो दिन का वैभव
कुछ-कुछ धुँधला सा है अतीत
भावी है व्यापक अन्धकार
उस पार कहां? वह तो केवल
मन बहलाने का है विचार
आगे, पीछे, दायें, बायें
जल रही भूख की ज्वाला यहाँ
तुम एक ओर, दूसरी ओर
चलते फिरते कंकाल यहाँ
इस ओर रूप की ज्वाला में
जलते अनगिनत पतंगे हैं
उस ओर पेट की ज्वाला से
कितने नंगे भिखमंगे हैं
इस ओर सजा मधु-मदिरालय
हैं रास-रंग के साज कहीं
उस ओर असंख्य अभागे हैं
दाने तक को मुहताज कहीं
इस ओर अतृप्ति कनखियों से
सालस है मुझे निहार रही
उस ओर साधना पथ पर
मानवता मुझे पुकार रही
तुमको पाने की आकांक्षा
उनसे मिल मिटने में सुख है
किसको खोजूँ, किसको पाऊँ
असमंजस है, दुस्सह दुख है
बन-बनकर मिटना ही होगा
जब कण-कण में परिवर्तन है
संभव हो यहां मिलन कैसे
जीवन तो आत्म-विसर्जन है
सत्वर समाधि की शय्या पर
अपना चिर-मिलन मिला लूँगा
जिनका कोई भी आज नहीं
मिटकर उनको अपना लूँगा ।
अंगारे और धुआँ

इतने पलाश क्यों फूट पड़े है एक साथ
इनको समेटने को इतने आँचल भी तो चाहिए,
ऐसी कतार लौ की दिन-रात जलेगी जो
किस-किस की पुतली से क्या-क्या कहिए।

क्या आग लग गई है पानी में
डालों पर प्यासी मीनों की भीड़ लग गई है,
नाहक इतनी भूबरि धरती ने उलची है
फागुन के स्वर को भीड़ लग गई है।

अवकाश कभी था इनकी कलियाँ चुन-चुन कर
होली की चोली रसमय करने का
सारे पहाड़ की जलन घोल
अनजानी डगरों में बगरी पिचकारी भरने का।

अब ऐसी दौड़ा-धूपी में
खिलना बेमतलब है,
इस तरह खुले वीरानों में
मिलना बेमतलब है।

अब चाहूँ भी तो क्या रुककर
रस में मिल सकता हूँ?
चलती गाड़ी से बिखरे-
अंगारे गिन सकता हूँ।

अब तो काफी हाऊस में
रस की वर्षा होती है
प्यालों के प्रतिबिंबों में
पुलक अमर्षा होती है।

टेबिल-टेबिल पर टेसू के
दल पर दल खिलते हैं
दिन भर के खोए क्षण
क्षण भर डालों पर मिलते हैं।

पत्ते अब भी झरते पर
कलियाँ धुआँ हो गई हैं
अंगारों की ग्रंथियाँ
हवा में हवा हो गई हैं।
आभार
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।
जीवन अस्थिर अनजाने ही
हो जाता पथ पर मेल कहीं
सीमित पग-डग, लम्बी मंज़िल
तय कर लेना कुछ खेल नहीं
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते
सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।
साँसों पर अवलम्बित काया
जब चलते-चलते चूर हुई
दो स्नेह-शब्द मिल गए, मिली
नव स्फूर्ति थकावट दूर हुई
पथ के पहचाने छूट गए
पर साथ-साथ चल रही याद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।
जो साथ न मेरा दे पाए
उनसे कब सूनी हुई डगर
मैं भी न चलूँ यदि तो भी क्या
राही मर लेकिन राह अमर
इस पथ पर वे ही चलते हैं
जो चलने का पा गए स्वाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।
कैसे चल पाता यदि न मिला
होता मुझको आकुल-अन्तर
कैसे चल पाता यदि मिलते
चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर
आभारी हूँ मैं उन सबका
दे गए व्यथा का जो प्रसाद
जिस जिससे पथ पर स्नेह मिला
उस उस राही को धन्यवाद ।
कितनी बार तुम्हें देखा
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।

सीमित उर में चिर-असीम
सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका
एक बूँद थी, किंतु,
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।

कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।

शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी,
हाय, गूँथने के ही क्रम में
कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।

कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
चलना हमारा काम है
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है ।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है ।
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है ।
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है ।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है ।
साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है ।
फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है ।

चल रही उसकी कुदाली
हाथ हैं दोनों सधे-से
गीत प्राणों के रूँधे-से
और उसकी मूठ में, विश्वास
जीवन के बँधे-से

धकधकाती धरणि थर-थर
उगलता अंगार अम्बर
भुन रहे तलुवे, तपस्वी-सा
खड़ा वह आज तनकर

शून्य-सा मन, चूर है तन
पर न जाता वार खाली
चल रही उसकी कुदाली

(२)

वह सुखाता खून पर-हित
वाह रे साहस अपिरिमत
युगयुगों से वह खड़ा है
विश्व-वैभव से अपिरिचत

जल रहा संसार धू-धू
कर रहा वह वार कह "हूँ"
साथ में समवेदना के
स्वेद-कण पड़ते कभी चू

कौन-सा लालच? धरा की
शुष्क छाती फाड़ डाली
चल रही उसकी कुदाली

(३)

लहलहाते दूर तरू-गण
ले रहे आश्रय पथिक जन
सभ्य शिष्ट समाज खस की
मधुरिमा में हैं मगन मन

सब सरसता रख किनारे
भीम श्याम शरीर धारे
खोदता तिल-तिल धरा वह
किस शुभाशा के सहारे?

किस सुवर्ण् भविष्य के हित
यह जवानी बेच डाली?
चल रही उसकी कुदाली

(४)

शांत सुस्थिर हो गया वह
क्या स्वयं में खो गया वह
हाँफ कर फिर पोंछ मस्तक
एकटक-सा रह गया वह

आ रही वह खोल झोंटा
एक पुटली, एक लोटा
थूँक सुरती पोंछ डाला
शीघ्र अपना होंठ मोठा

एक क्षण पिचके कपोलों में
गई कुछ दौड़ लाली
चल रही उसकी कुदाली

(५)

बैठ जा तू क्यों खड़ी है
क्यों नज़र तेरी गड़ी है
आह सुखिया, आज की रोटी
बनी मीठी बड़ी है

क्या मिलाया सत्य कह री?
बोल क्या हो गई बहरी?
देखना, भगवान चाहेगा
उगेगी खूब जुन्हरी

फिर मिला हम नोन-मिरची
भर सकेंगे पेट खाली
चल रही उसकी कुदाली

(६)

आँख उसने भी उठाई
कुछ तनी, कुछ मुसकराई
रो रहा होगा लखनवा
भूख से, कह बड़बड़ाई

हँस दिया दे एक हूँठा
थी बनावट, था न रूठा
याद आई काम की, पकड़ा
कुदाली, काष्ठ-मूठा

खप्प-खप चलने लगी
चिर-संगिनी की होड़ वाली
चल रही उसकी कुदाली

(७)

भूमि से रण ठन गया है
वक्ष उसका तन गया है
सोचता मैं, देव अथवा
यन्त्र मानव बन गया है

शक्ति पर सोचो ज़रा तो
खोदता सारी धरा जो
बाहुबल से कर रहा है
इस धरणि को उवर्रा जो
लाल आँखें, खून पानी
यह प्रलय की ही निशानी
नेत्र अपना तीसरा क्या
खोलने की आज ठानी

क्या गया वह जान
शोषक-वर्ग की करतूत काली
चल रही उसकी कुदाली

जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी
दीप, जिनमें स्नेहकन ढाले गए हैं
वर्तिकाएँ बट बिसुध बाले गए हैं
वे नहीं जो आँचलों में छिप सिसकते
प्रलय के तूफ़ान में पाले गए हैं
एक दिन निष्ठुर प्रलय को दे चुनौती
हँसी धरती मोतियों के बीज बोती
सिंधु हाहाकार करता भूधरों का गर्व हरता
चेतना का शव चपेटे, सृष्टि धाड़ें मार रोती
एक अंकुर फूटकर बोला कि मैं हारा नहीं हूँ
एक उल्का-पिण्ड हूँ, तारा नहीं हूँ
मृत्यु पर जीवन-विजय उदघोष करता
मैं अमर ललकार हूँ, चारा नहीं हूँ
लाल कोंपल से गयी भर गोद धरती की
कि लौ थी जगमगाई,
लाल दीपों की प्रगति-परम्परा थी मुस्कराई,
गीत, सोहर, लोरियाँ जो भी कहो तुम
गोद कलियों से भरे लोनी-लता झुक झूम गायी
और उस दिन ही किसी मनु ने अमा की चीर छाती
मानवी के स्नेह में बाती डुबायी
जो जली ऐसी कि बुझने की बुझायी-
बुझ गयी, शरमा गयी, नत थरथरायी
और जीवन की बही धारा जलाती दीप सस्वर
आग-पानी पर जली-मचली पिघलने लगे पत्थर
जल उठे घर, जल उठे वन
जल उठे तन, जल उठे मन
जल उठा अम्बर सनातन
जल उठा अंबुधि मगन-मन
और उस दिन चल पड़े थे साथ उन्चासों प्रभंजन
और उस दिन घिर बरसते साथ उन्चासों प्रलय-घन
अंधड़ों में वेग भरते वज्र बरबस टूट पड़ते
धकधकाते धूमकेतों की बिखर जाती चिनगियाँ
रौद्र घन की गड़गड़ाहट कड़कड़ाती थी बिजलियाँ
और शिशु लौ को कहीं साया न था, सम्बल नहीं था
घर न थे, छप्पर न थे, अंचल नहीं था
हर तरफ़ तूफ़ान अन्धड़ के बगूले
सृष्टि नंगी थी अभी बल्कल नहीं था
सनसनाता जब प्रभंजन लौ ध्वजा-सी फरफराती
घनघनाते घन कि दुगुणित वेदना थी मुस्कराती
जब झपेटों से कभी झुक कर स्वयं के चरण छूती
एक लोच कमान की तारीकियों को चीर जाती
बिजलियों से जो कभी झिपती नहीं थी
प्रबल उल्कापात से छिपती नहीं थी
दानवी तम से अकड़ती होड़ लेती
मानवी लौ थी कि जो बुझती नहीं थी
क्योंकि उसको शक्ति धरती से मिली थी
हर कली जिस हवा पानी में खिली थी
सहनशीलता, मूकतम जिसकी अतल गहराइयों में
आह की गोड़ी निगोड़ी खाइयों में
स्नेह का सोता बहा करता निरंतर
बीज धँसता ही चला जाता जहाँ जड़ मूल बनकर
गोद में जिसके पला करता विधाता विवश बनकर
धात्री है वह सृजन के पंथ से हटती नहीं है
व्यर्थ के शिकवे प्रलय-संहार के रटती नहीं है
जानती है वह कि मिट्टी तो कभी मिटती नहीं है
आग उसकी ही निरंतर हर हृदय में जल रही है
स्वर्ण दीपों की सजीव परम्परा-सी चल रही है
हर अमा में, हर ग्रहन की ध्वंसपूर्ण विभीषिका में
एक कसकन, एक धड़कन, बार-बार मचल रही है
बर्फ की छाती पिघलकर गल रही है, ढल रही है
आज भी तूफान आता सरसराता
आज भी ब्रह्माण्ड फटता थरथराता
आज भी भूचाल उठते, क़हर ढहता
आज भी ज्वालामुखी लावा उगलता
एक क्षण लगता की जीत गया अँधेरा
एक क्षण लगता कि हार गया सवेरा
सूर्य, शशि, नक्षत्र, ग्रह-उपग्रह सभी को
ग्रस रहा विकराल तम का घोर घेरा
किंतु चुंबक लौह में फिर पकड़ होती
दो दिलों में, धमनियों में रगड़ होती
वासना की रूई जर्जर बी़च में ही
उसी लौ की एक चिनगी पकड़ लेती
और पौ फटती, छिटक जाता उजाला
लाल हो जाता क्षितिज का वदन काला
देखते सब, अंध कोटर, गहन गह्वर के तले पाताल की मोटी तहों को
एक नन्ही किरण की पैनी अनी ने छेद डाला,
मैं सुनाता हूँ तुम्हें जिसकी कहानी
बात उतनी ही नयी है, हो चुकी जितनी पुरानी
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी
तुम मनाते हो जिसे कहकर दिवाली
यह नहीं कोई प्रथा नूतन निराली
आज भी जग में अमा की रात काली
स्नेह से नव मृत्तिका के पात्र खाली
अधर सूखे, गाल पिचके, दीन कोटरलीन आँखें
शलभ बेसुध छटपटाते क्लिन्न मन विछिन्न पाँखें
मुर्दनी वातावरण में धुएँ की घूर्णित घुटन-सी
दर-ब-दर फैली हुई, बदबू विकट शव के सड़न-सी
उग रहीं कीटाणु की फसलें
प्रलय-अणुबम बरसता
खो गयी मानव-हृदय की सब सरसता
और जीने के लिए जीवन तरसता
युगों पहले एक दिन यों ही अँधेरा हो गया था
सूर्य, शनि, तारे छिपे सहसा, सवेरा खो गया था
एक काला हाथ ऊषा की ललाई धो गया था
गरज यह, जो कुछ न होना चाहिए वह हो गया था
दौर नव कृषि सभ्यता का राम बन कर रम रहा था
कारवाँ यायावरों का बस रहा था, जम रहा था
झोंपड़ों में ज्योति जीवन का प्रदीप जला गयी थी
धरा की बेटी मनुज की ब्याहता बन आ गयी थी
कि जिसके जनक ने धरती स्वयं जोती, स्वयं बोयी
कि हल की नोक में लक्ष्मी उलझ उभरी, रही खोयी
ज़माना बाहुबल का था, स्वयंवर का बहाना था
जिसे पाना पिनाकी के धनुष पर ज्या चढ़ाना था
धनुष जो झिल न सकता था, धनुष जो हिल न सकता था
बिना अच्युत हुए जिसका निशाना मिल न सकता था
धनुष को राम ने तोड़ा घने घनश्याम ने तोड़ा
नया निर्माण करना था पुराना तो पुराना था
हुई आश्वस्त भयभीता
खिली धरती, मिली सीता
कि दिशि-दिशि दुंदुभी दमकी
वही जीता, वही जीता
किया जिसने अहल्या-सी शिला
को प्रीति-परिणीता
धरा की आत्मजा कर में लिए वरमाल चलती थी
कि स्वर्णिम दीप की चल लौ अँधेरे में बिछलती थी
त्रियामा में किसी घनश्याम की छाती मचलती थी
गड़ा धन पा गया मानव कि खेती लहलहाती थी
कि गेहूँ गहगहाता था, कि मक्का महमहाती थी
कि अरहर सरसराती थी, कि बजरा हरहराता था
कि अलसी आँख मलती थी, कि जौ में ज्वार आता था
नयन में स्वप्न ढलते थे, हृदय में प्यार आता था
फसल उठती जवानी में लहरती झूम जाती थी
हवा दो हाथ आगे बढ़ उसे झुककर उठाती थी
लिपटते ही खुदी ख़ुद बेख़ुदी को चूम जाती थी
हृदय से हृदय मिलते थे, अधर से अधर मिलते थे
नयी कोंपल निकलती थी, हँसी के फूल खिलते थे
निकट जब आग आती थी तो लज्जा भाग जाती थी
गरज या दीपमाला सी जला करती थी धरती पर
नये अंकुर किलकते शुष्क बंजर, ख़ुश्क परती पर
मरुस्थल लहलहाता था कि चाहा चहचहाता था
अँधेरी रात में कोई खड़ा खेतों की मेड़ों पर
विकल विरहा सुनाता था
फड़कते होंठ, सूखे तालुओं से
फिर तरी की माँग उठती थी
अचानक दिल धड़कता था
निशा भी जाग उठती थी
न फिर सोने का लेती नाम थी
जो धुर सवेरे तक
कई संसार बनते ओ' बिगड़ते थे
अँधेरे से उजेले तक
सहम-सी साँस जाती थी
शिथिल अंचल उठाती थी
उनींदी रात आँखों में नये सपने बसाती थी
उभरती साँस छाती में
कि चोली कसमसाती थी
कहीं से धान की बाली
खड़ी चुप-चुप बुलाती थी
चढ़ी स्वर की लहर में
भावना सी दौड़ जाती थी
रवानी खून की बढ़ कर
समुन्दर को सुखाती थी
हवा में पेंग भरती थी
हिमालय को गलाती थी,
स्वयं मिटकर नयी हस्ती
नयी हस्ती बनाती थी
कि नव-निर्माण की बेला
विधाता को लजाती थी
बदलते दीप थे पर
स्नेह लौ को खो न पाता था
कि ब्रह्मानन्द का आनन्द
बासी हो न पाता था
क्षितिज से मेघ फटते थे
उषा भी खिलखिलाती थी
नये पत्तों पँखुरियों पर
नये मोती ढलाती थी
कि दिन में दीप जलते थे
कि तन में दीप जलते थे
कि मन में दीप जलते थे
निशा में दीप जलते थे
दिशा में दीप जलते थे
कि दीपों का नया त्यौहार घर-घर जगमगाता था
छलकता स्नेह पग-पग पर नयी धुन गुनगुनाता था
पवन नद नदी निर्झर में रवानी ही रवानी थी
कलि-अलि तरू-लता सब में जवानी ही जवानी थी
नये ज्योतिष्क पिण्डों से तमस की कुछ न चलती थी
कहत या महामारी की न कुछ भी दाल गलती थी
विषमता दैन्य करूणा भूख सिर धुन-धुन के रोती थी
जगाजग ज्योति से उनके हृदय में जलन होती थी
कि जो जग को रूलाने के लिए रावण बुला लायीं
अधमतम क्रूरकर्मा ध्वंस का धावन बुला लायीं
हरी खेती भरी बस्ती में जल-प्लावन बुला लायीं
कि जिसने भव-विभवमय स्वर्ण की लंका बनायी थी
हजारों घर उजाड़े थे दीवाली खुद मनायी थी
चमकते स्वर्ण-कलशों में गरीबों की कमायी थी
कुबेर ओ' इन्द्र जिसके द्वार पै दरबानी करते थे
पवन पंखा झला करता था पानी मेघ भरते थे
स्वयं यमराज चौखट से बँधे सब जुल्म सहते थे
विलासी देवगण को जिस तरह रखता था रहते थे
प्रकृति की शक्तियाँ जिसकी सलामी निज बजाती थीं
हज़ारों तारिकाएँ दीपमालाएँ सजाती थीं
करोड़ों शव के अम्बारों पै सिंहासन बनाया था
धरा की नन्दिनी को बन्दिनी जिसने बनाया था
दहलकर दम्भ से जिसको सभी दशशीश कहते थे
प्रबल आतंक से दो बाहुओं को बीस कहते थे
हवाओं की हवा उड़ती समुन्दर थरथराता था
जिसे लखकर खड़ी खेती को पाला मार जाता था
ककहरा ज़ुल्म का बच्चों को बचपन से सिखाता था
कि वेदों और शास्त्रों की सदा होली जलाता था
मनन करते हुए मुनियों की खालें खींच लेता था
घरौंदे खेलते बच्चों की टाँगें चीर देता था
पिताओं की सहेजी थातियों को छीन लेता था
किसानों के घरों के शेष दाने बीन लेता था
श्रमिक की रक्तमज्जा से रँगी जिसकी हवेली थी
धरा ने बड़े धीरज से दमन की धमक झेली थी
घिरी लंका के चारों ओर गहरा गूढ़ खाई थी
इन्हीं गड्ढों से महलों की गगनभेदी ऊँचाई थी
हज़ारों अस्मतों को लूटकर वह खिलखिलाता था
स्वयं सूरज तमस से तुप गया था, तिलमिलाता था
सभी भूखे थे नंगे थे, तबाही ही तबाही थी
मगर अन्याय का प्रतिरोध करने की मनाही थी
किसी ने न्याय माँगा तो समझ लो उसकी आफ़त थी
न जीने की इजाज़त थी न मरने की इजाज़त थी
धरा को क़ैद कर आराम से वह रह न सकता था
मनुज इस क्रूर शोषण को बहुत दिन सह न सकता था
स्वयं अन्याय ने पीड़ित दलित को ला जुटाया था
प्रवासी राम ने विद्रोह का बीड़ा उठाया था
नये संघर्ष की यह शक्ति धरती ने जगायी थी
किसी अवधेश या मिथिलेश की सेना न आयी थी
सुबह से शाम तक जो राक्षसी अन्याय सहते थे
जिन्हें सब जंगली हैवान बन्दर भालु कहते थे
नयी जनशक्ति की हर साँस से हुंकार उठती थी
प्रबल गतिरोध के विध्वंस की धधकार उठती थी
कि बर्बर राक्षसों का जंगली वीरों से पाला था
महीधर फाँद डाले थे समुन्दर बाँध डाला था
उधर थी संगठित सेना अनेकों यन्त्र दुर्धर थे
इधर हुंकारते हाथों में केवल पेड़-पत्थर थे
मगर था एक ही आदर्श जीने का जिलाने का
विगत जर्जर व्यवस्था को स्वयं मिटकर मिटाने का
नयी थी कामना, नवभावना, संदेश नूतन था
नयी थी प्रेरणा, नव कल्पना, परिवेश नूतन था
नया था मोल जीवन का विषमता ध्वंस करने का
नया था कौल मानव का, धरा को मुक्त करने का
चली क्या राम की सेना कि धरती बोल उठती थी
अखंडित शक्ति का भण्डार अपना खोल उठती थी
धरा की लाड़ली की जब अभय आशीष पायी थी
किसी हनुमान ने तब स्वर्ण की लंका जलायी थी
कँगूरे स्वर्ण-सौधों के धरा लुंठित दिखाते थे
नुकीले अस्त्र दुश्मन के निरे कुंठित दिखाते थे
अमन का शंख बजता था दमन की दाह होती थी
मनुज की दानवों को आज खुल करके चुनौती थी
विजय का बिगुल बजता था, अनय का नाश होता था
अँधेरा साँस गिनता था, सबेरा पास होता था
सिसकती रात के अंचल में रजनीचर बिलखते थे
उभरती उषा की गोदी में नव अंकुर किलकते थे
घड़ी अन्तिम समझ दनुकुल जले शोले गिराता था
प्रबल जनबल उन्हें फिर मोड़ उन पर ही फिराता था
नयी गंगा विषमता के कगारों को ढहाती थी
नयी धारा, नयी लहरें उसे समतल बनाती थी
युगों की साधना-सी राम ने जब शक्ति छोड़ी थी
किसी जर्जर व्यवस्था की विकट चट्टान तोड़ी थी
कटे सिर-सा पड़ा रावण धरा पर छटपटाता था
विगत युग मर्सिया गाता, नया युग गान गाता था
बहुत दिन बाद दलितों की हँसी की आज पारी थी
कि फिर से मुक्त था मानव कि फिर से मुक्त नारी थी
बँधी मुट्ठी दिखा जन-टोलियाँ जय-गान गाती थीं
कि नव निर्माण के जंगल में भी मंगल मनाती थी
धरा की लाड़ली प्रिय से लिपटने को ललकती थी
नयी कोंपल के होठों से, नयी कलिका किलकती थी
चपल चपला-सी आँखों में नयी आभा झलकती थी
सुधा के युगकटोरों से मदिर छलकन छलकती थी
सबेरे का भटकता शाम को घर लौट आया था
नयी उन्मुक्त जनता ने नया उत्सव मनाया था
छिनी धरती मिली फिर से नये सपने सँजोए थे
सभी ने खेत जोते थे सभी ने बीज बोए थे
घिरा काली घटाएँ थीं अमा की रात काली थी
मगर मानव-धरा के सम्मिलन की बात ही ऐसी निराली थी
अयोध्या में नये युग को बुलाने की बेहाली थी
कि जिसके साज स्वागत में सजी पहली दिवाली थी
धरा की लाड़ली ने स्वयं जिसकी ज्योति बाली थी
विकल सूखे हुए अधरों में नव मुस्कान ढाली थी
कि अस्त-व्यस्त तारों में नयी स्वर तान ढाली थी
धरा में स्वर्ग से बढ़कर सरसता थी, खुशहाली थी
वही पहला जनोत्सव था वही पहली दिवाली थी
लहलहाती जब धरा थी, शस्य-श्यामल
गुनगुनाती जब गिरा थी गीत कल-कल
छलछलाते स्नेह से जब पात्र छ्लछल
झलमलाते जब प्रभा के पर्व पल-पल
आज तुम दुहरा रहे हो प्रथा केवल
आज घर-घर में नहीं है स्नेह सम्बल
आज जन-जन में नहीं है ज्योति का बल
आज सूखी वर्त्तिका का सुलगता गुल
दीप बुझते जा रहे हैं विवश ढुल-ढुल
शेष खण्डहर में विगत युग की निशानी
सुन रहे हो स्वपन में जैसे कहानी
बन गई हो जिस तरह अपनी बिरानी
किंतु जन-जागृति धधकती जा रही है
जल उठेगी फिर नयी बाती सुहानी
जल रहे हैं दीप, जलती है जवानी

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।।
पतवार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी ना मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।
सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।
पर आँखें नहीं भरीं
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
सीमित उर में चिर-असीम
सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका
एक बूँद थी, किंतु,
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी,
हाय, गूँथने के ही क्रम में
कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।
बात की बात


इस जीवन में बैठे ठाले
ऐसे भी क्षण आ जाते हैं
जब हम अपने से ही अपनी-
बीती कहने लग जाते हैं।

तन खोया-खोया-सा लगता
मन उर्वर-सा हो जाता है
कुछ खोया-सा मिल जाता है
कुछ मिला हुआ खो जाता है।

लगता; सुख-दुख की स्‍मृतियों के
कुछ बिखरे तार बुना डालूँ
यों ही सूने में अंतर के
कुछ भाव-अभाव सुना डालूँ

कवि की अपनी सीमाऍं है
कहता जितना कह पाता है
कितना भी कह डाले, लेकिन-
अनकहा अधिक रह जाता है

यों ही चलते-फिरते मन में
बेचैनी सी क्‍यों उठती है?
बसती बस्‍ती के बीच सदा
सपनों की दुनिया लुटती है

जो भी आया था जीवन में
यदि चला गया तो रोना क्‍या?
ढलती दुनिया के दानों में
सुधियों के तार पिरोना क्‍या?

जीवन में काम हजारों हैं
मन रम जाए तो क्‍या कहना!
दौड़-धूप के बीच एक-
क्षण, थम जाए तो क्‍या कहना!

कुछ खाली खाली होगा ही
जिसमें निश्‍वास समाया था
उससे ही सारा झगड़ा है
जिसने विश्‍वास चुराया था

फिर भी सूनापन साथ रहा
तो गति दूनी करनी होगी
साँचे के तीव्र-विवर्त्‍तन से
मन की पूनी भरनी होगी

जो भी अभाव भरना होगा
चलते-चलते भर जाएगा
पथ में गुनने बैठूँगा तो
जीना दूभर हो जाएगा।

मिट्टी की महिमा
निर्मम कुम्हार की थापी से
कितने रूपों में कुटी-पिटी,
हर बार बिखेरी गई, किंतु
मिट्टी फिर भी तो नहीं मिटी!

आशा में निश्छल पल जाए, छलना में पड़ कर छल जाए
सूरज दमके तो तप जाए, रजनी ठुमकी तो ढल जाए,
यों तो बच्चों की गुडिया सी, भोली मिट्टी की हस्ती क्या
आँधी आये तो उड़ जाए, पानी बरसे तो गल जाए!

फसलें उगतीं, फसलें कटती लेकिन धरती चिर उर्वर है
सौ बार बने सौ बर मिटे लेकिन धरती अविनश्वर है।
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।

विरचे शिव, विष्णु विरंचि विपुल
अगणित ब्रम्हाण्ड हिलाए हैं।
पलने में प्रलय झुलाया है
गोदी में कल्प खिलाए हैं!

रो दे तो पतझर आ जाए, हँस दे तो मधुरितु छा जाए
झूमे तो नंदन झूम उठे, थिरके तो तांड़व शरमाए
यों मदिरालय के प्याले सी मिट्टी की मोहक मस्ती क्या
अधरों को छू कर सकुचाए, ठोकर लग जाये छहराए!

उनचास मेघ, उनचास पवन, अंबर अवनि कर देते सम
वर्षा थमती, आँधी रुकती, मिट्टी हँसती रहती हरदम,
कोयल उड़ जाती पर उसका निश्वास अमर हो जाता है
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है!

मिट्टी की महिमा मिटने में
मिट मिट हर बार सँवरती है
मिट्टी मिट्टी पर मिटती है
मिट्टी मिट्टी को रचती है

मिट्टी में स्वर है, संयम है, होनी अनहोनी कह जाए
हँसकर हालाहल पी जाए, छाती पर सब कुछ सह जाए,
यों तो ताशों के महलों सी मिट्टी की वैभव बस्ती क्या
भूकम्प उठे तो ढह जाए, बूड़ा आ जाए, बह जाए!

लेकिन मानव का फूल खिला, अब से आ कर वाणी का वर
विधि का विधान लुट गया स्वर्ग अपवर्ग हो गए निछावर,
कवि मिट जाता लेकिन उसका उच्छ्वास अमर हो जाता है
मिट्टी गल जाती पर उसका विश्वास अमर हो जाता है।
मृत्तिका दीप
मृत्तिका का दीप तब तक जलेगा अनिमेष
एक भी कण स्नेह का जब तक रहेगा शेष ।
हाय जी भर देख लेने दो मुझे
मत आँख मीचो
और उकसाते रहो बाती
न अपने हाथ खींचो
प्रात जीवन का दिखा दो
फिर मुझे चाहे बुझा दो
यों अंधेरे में न छीनो-
हाय जीवन-ज्योति के कुछ क्षीण कण अवशेष ।
तोड़ते हो क्यों भला
जर्जर रूई का जीर्ण धागा
भूल कर भी तो कभी
मैंने न कुछ वरदान माँगा
स्नेह की बूँदें चुवाओ
जी करे जितना जलाओ
हाथ उर पर धर बताओ
क्या मिलेगा देख मेरा धूम्र कालिख वेश ।
शांति, शीतलता, अपरिचित
जलन में ही जन्म पाया
स्नेह आँचल के सहारे
ही तुम्हारे द्वार आया
और फिर भी मूक हो तुम
यदि यही तो फूँक दो तुम
फिर किसे निर्वाण का भय
जब अमर ही हो चुकेगा जलन का संदेश ।
मेरा देश जल रहा, कोई नहीं बुझानेवाला
घर-आंगन में आग लग रही ।
सुलग रहे वन -उपवन,
दर दीवारें चटख रही हैं
जलते छप्पर- छाजन ।
तन जलता है , मन जलता है
जलता जन-धन-जीवन,
एक नहीं जलते सदियों से
जकड़े गर्हित बंधन ।
दूर बैठकर ताप रहा है,
आग लगानेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

भाई की गर्दन पर
भाई का तन गया दुधारा
सब झगड़े की जड़ है
पुरखों के घर का बँटवारा
एक अकड़कर कहता
अपने मन का हक ले लेंगें,
और दूसरा कहता तिल
भर भूमि न बँटने देंगें ।
पंच बना बैठा है घर में,
फूट डालनेवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
दोनों के नेतागण बनते
अधिकारों के हामी,
किंतु एक दिन को भी
हमको अखरी नहीं गुलामी ।
दानों को मोहताज हो गए
दर-दर बने भिखारी,
भूख, अकाल, महामारी से
दोनों की लाचारी ।
आज धार्मिक बना,
धर्म का नाम मिटानेवाला
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
होकर बड़े लड़ेंगें यों
यदि कहीं जान मैं लेती,
कुल-कलंक-संतान
सौर में गला घोंट मैं देती ।
लोग निपूती कहते पर
यह दिन न देखना पड़ता,
मैं न बंधनों में सड़ती
छाती में शूल न गढ़ता ।
बैठी यही बिसूर रही माँ,
नीचों ने घर घाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
भगतसिंह, अशफाक,
लालमोहन, गणेश बलिदानी,
सोच रहें होंगें, हम सबकी
व्यर्थ गई कुरबानी
जिस धरती को तन की
देकर खाद खून से सींचा ,
अंकुर लेते समय उसी पर
किसने जहर उलीचा ।
हरी भरी खेती पर ओले गिरे,
पड़ गया पाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
जब भूखा बंगाल,
तड़पमर गया ठोककर किस्मत,
बीच हाट में बिकी
तुम्हारी माँ - बहनों की अस्मत।
जब कुत्तों की मौत मर गए
बिलख-बिलख नर-नारी ,
कहाँ कई थी भाग उस समय
मरदानगी तुम्हारी ।
तब अन्यायी का गढ़ तुमने
क्यों न चूर कर डाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

पुरखों का अभिमान तुम्हारा
और वीरता देखी,
राम - मुहम्मद की संतानों !
व्यर्थ न मारो शेखी ।
सर्वनाश की लपटों में
सुख-शांति झोंकनेवालों !
भोले बच्चें, अबलाओ के
छुरा भोंकनेवालों !
ऐसी बर्बरता का
इतिहासों में नहीं हवाला,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
घर-घर माँ की कलख
पिता की आह, बहन का क्रंदन,
हाय , दूधमुँहे बच्चे भी
हो गए तुम्हारे दुश्मन ?
इस दिन की खातिर ही थी
शमशीर तुम्हारी प्यासी ?
मुँह दिखलाने योग्य कहीं भी
रहे न भारतवासी।
हँसते हैं सब देख
गुलामों का यह ढंग निराला ।
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला।

जाति-धर्म गृह-हीन
युगों का नंगा-भूखा-प्यासा,
आज सर्वहारा तू ही है
एक हमारी आशा ।
ये छल छंद शोषकों के हैं
कुत्सित, ओछे, गंदे,
तेरा खून चूसने को ही
ये दंगों के फंदे ।
तेरा एका गुमराहों को
राह दिखानेवाला ,
मेरा देश जल रहा,
कोई नहीं बुझानेवाला ।
मैं अकेला और पानी बरसता है
मैं अकेला और पानी बरसता है

प्रीती पनिहारिन गई लूटी कहीं है,
गगन की गगरी भरी फूटी कहीं है,
एक हफ्ते से झड़ी टूटी नहीं है,
संगिनी फिर यक्ष की छूटी कहीं है,
फिर किसी अलकापुरी के शून्य नभ में
कामनाओं का अँधेरा सिहरता है।

मोर काम-विभोर गाने लगा गाना,
विधुर झिल्ली ने नया छेड़ा तराना,
निर्झरों की केलि का भी क्या ठिकाना,
सरि-सरोवर में उमंगों का उठाना,
मुखर हरियाली धरा पर छा गई जो
यह तुम्हारे ही हृदय की सरसता है।

हरहराते पात तन का थरथराना,
रिमझिमाती रात मन का गुनगुनाना,
क्या बनाऊँ मैं भला तुमसे बहाना,
भेद पी की कामना का आज जाना,
क्यों युगों से प्यास का उल्लास साधे
भरे भादों में पपीहा तरसता है।
मैं अकेला और पानी बरसता है।
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था।

गति मिली मैं चल पड़ा
पथ पर कहीं रुकना मना था,
राह अनदेखी, अजाना देश
संगी अनसुना था।
चांद सूरज की तरह चलता
न जाना रात दिन है,
किस तरह हम तुम गए मिल
आज भी कहना कठिन है,
तन न आया मांगने अभिसार
मन ही जुड़ गया था।

देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छिपाए मुख
कली भी मुस्कुराई।
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आ गई आंधी सदलबल।
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था।

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ
मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती,
जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्त्रा चूर होती,
गल रहा हूँ क्योंकि हल्का बोझ हो जाता हृदय का,
ढल रहा हूँ क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का ।
चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण-भर तुम्हारे
किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहे पसारे,
अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता
मुँह दिखाने योग्य रक्खेगी ना मुझको स्वार्थपरता ।
इसलिए ही आज युग की देहली को लाँघ कर मैं-
पथ नया अपना रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
ज्ञात है कब तक टिकेगी यह घड़ी भी संक्रमण की
और जीवन में अमर है भूख तन की, भूख मन की
विश्व-व्यापक-वेदना केवल कहानी ही नहीं है
एक जलता सत्य केवल आँख का पानी नहीं है ।
शान्ति कैसी, छा रही वातावरण में जब उदासी
तृप्ति कैसी, रो रही सारी धरा ही आज प्यासी
ध्यान तक विश्राम का पथ पर महान अनर्थ होगा
ऋण न युग का दे सका तो जन्म लेना व्यर्थ होगा ।
इसलिए ही आज युग की आग अपने राग में भर-
गीत नूतन गा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
सोचता हूँ आदिकवि क्या दे गये हैं हमें थाती
क्रौञ्चिनी की वेदना से फट गई थी हाय छाती
जबकि पक्षी की व्यथा से आदिकवि का व्यथित अन्तर
प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज कंकाल जर्जर ।
अन्य मानव और कवि में है बड़ा कोई ना अन्तर
मात्र मुखरित कर सके, मन की व्यथा, अनुभूति के स्वर
वेदना असहाय हृदयों में उमड़ती जो निरन्तर
कवि न यदि कह दे उसे तो व्यर्थ वाणी का मिला वर
इसलिए ही मूक हृदयों में घुमड़ती विवशता को-
मैं सुनाता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
आज शोषक-शोषितों में हो गया जग का विभाजन
अस्थियों की नींव पर अकड़ा खड़ा प्रासाद का तन
धातु के कुछ ठीकरों पर मानवी-संज्ञा-विसर्जन
मोल कंकड़-पत्थरों के बिक रहा है मनुज-जीवन ।
एक ही बीती कहानी जो युगों से कह रहे हैं
वज्र की छाती बनाए, सह रहे हैं, रह रहे हैं
अस्थि-मज्जा से जगत के सुख-सदन गढ़ते रहे जो
तीक्ष्णतर असिधार पर हँसते हुए बढ़ते रहे जो
अश्रु से उन धूलि-धूसर शूल जर्जर क्षत पगों को-
मैं भिगोता जा रहा हूँ
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
आज जो मैं इस तरह आवेश में हूँ अनमना हूँ
यह न समझो मैं किसी के रक्त का प्यासा बना हूँ
सत्य कहता हूँ पराए पैर का काँटा कसकता
भूल से चींटी कहीं दब जाय तो भी हाय करता
पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है
कोटि-कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है
'लाभ शुभ' लिख कर ज़माने का हृदय चूसा जिन्होंने
और कल बंगालवाली लाश पर थूका जिन्होंने ।
बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी
यदि क्षमा कर दूँ उन्हें धिक्कार माँ की कोख मेरी
चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता की कहानी
हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी ।
नव भवन निर्माणहित मैं जर्जरित प्राचीनता का-
गढ़ ढ़हाता जा रहा हूँ ।
पर तुम्हें भूला नहीं हूँ ।
वरदान माँगूँगा नहीं
यह हार एक विराम है
जीवन महासंग्राम है
तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

स्‍मृति सुखद प्रहरों के लिए
अपने खंडहरों के लिए
यह जान लो मैं विश्‍व की संपत्ति चाहूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

क्‍या हार में क्‍या जीत में
किंचित नहीं भयभीत मैं
संधर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

लघुता न अब मेरी छुओ
तुम हो महान बने रहो
अपने हृदय की वेदना मैं व्‍यर्थ त्‍यागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।

चाहे हृदय को ताप दो
चाहे मुझे अभिशप दो
कुछ भी करो कर्तव्‍य पथ से किंतु भागूँगा नहीं।
वरदान माँगूँगा नहीं।।
सूनी साँझ
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।
पेड खडे फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधुली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।
कुलबुल कुलबुल नीड-नीड में
चहचह चहचह मीड-मीड में
धुन अलबेली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।
जागी-जागी सोई-सोई
पास पडी है खोई-खोई
निशा लजीली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।
ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमडी धारा, जैसी मुझपर-
बीती झेली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।
यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली आँख मिचौनी
खुलकर खेली, साथ नहीं हो तुम,
बहुत दिनों में आज मिली है
साँझ अकेली, साथ नहीं हो तुम ।
हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे।

हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्‍यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से,

स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले।

ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंचखोल
चुगते तारक-अनार के दाने।

होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी।

नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालों।

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