Friday, December 18, 2009

अजेय

घास-फूल धैर्य का
दृश्यों के अंतराल में
जीवन बिला गया
संशय के दंश से
साहस तिलमिला गया
प्यार पर हारा नहीं
अमल विनय से
घास-फूल धैर्य का
चुपके खिला गया!

प्रथम किरण
भोर की
प्रथम किरण
फीकी :
अनजाने
जागी हो
याद
किसी की--

अपनी
मीठी
नीकी !
धीरे-धीरे
उदित
रवि का
ल्लाल-लाल
गोला
चौंक कहीं पर
छिपा
मुदित
बन-पाखी
बोला
दिन है
जब है
यह बहु-जन की :

प्रणति
लाल रवि
ओ जन-जीवन
लो यह
मेरी
सकल साधना
तन की
मन की--

वह बन-पाखी
जाने गरिमा
महिमा
मेरे छोटे
चेतन
छन की !
बावरा अहेरी (कविता)
भोर का बावरा अहेरी
पहले बिछाता है आलोक की
लाल-लाल कनियाँ
पर जब खींचता है जाल को
बाँध लेता है सभी को साथः
छोटी-छोटी चिड़ियाँ
मँझोले परेवे
बड़े-बड़े पंखी
डैनों वाले डील वाले
डौल के बैडौल
उड़ने जहाज़
कलस-तिसूल वाले मंदिर-शिखर से ले
तारघर की नाटी मोटी चिपटी गोल घुस्सों वाली
उपयोग-सुंदरी
बेपनाह कायों कोः
गोधूली की धूल को, मोटरों के धुँए को भी
पार्क के किनारे पुष्पिताग्र कर्णिकार की आलोक-खची तन्वि
रूप-रेखा को
और दूर कचरा जलाने वाली कल की उद्दण्ड चिमनियों को, जो
धुआँ यों उगलती हैं मानो उसी मात्र से अहेरी को
हरा देगी !

बावरे अहेरी रे
कुछ भी अवध्य नहीं तुझे, सब आखेट हैः
एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को
दुबकी ही छोड़ कर क्या तू चला जाएगा ?
ले, मैं खोल देता हूँ कपाट सारे
मेरे इस खँढर की शिरा-शिरा छेद के
आलोक की अनी से अपनी,
गढ़ सारा ढाह कर ढूह भर कर देः
विफल दिनों की तू कलौंस पर माँज जा
मेरी आँखे आँज जा
कि तुझे देखूँ
देखूँ और मन में कृतज्ञता उमड़ आये
पहनूँ सिरोपे-से ये कनक-तार तेरे –
बावरे अहेरी
हवाएँ चैत की
बह चुकी बहकी हवाएँ चैत की
कट गईं पूलें हमारे खेत की
कोठरी में लौ बढ़ा कर दीप की
गिन रहा होगा महाजन सेंत की।
शरद की साँझ के पंछी

ऊपर फैला है आकाश, भरा तारों से
भार-मुक्त से तिर जाते हैं
पंछी डैने बिना फैलाये ।
जी होता है मैं सहसा गा उठूँ
उमगते स्वर
जो कभी नहीं भीतर से फूटे
कभी नहीं जो मैं ने -
कहीं किसी ने - गाये ।

किन्तु अधूरा है आकाश
हवा के स्वर बन्दी हैं
मैं धरती से बँधा हुआ हूँ -
हूँ ही नहीं, प्रतिध्वनि भर हूँ
जब तक नहीं उमगते तुम स्वर में मेरे प्राण-स्वर
तारों मे स्थिर मेरे तारे,
जब तक नही तुम्हारी लम्बायित परछाहीं
कर जाती आकाश अधूरा पूरा ।
भार-मुक्त
ओ मेरी संज्ञा में तिर जाने वाले पंछी
देख रहा हूँ तुम्हें मुग्ध मैं ।

यह लो :
लाली से में उभर चम्पई
उठा दूज का चाँद कँटीला ।

नदी के द्वीप
हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।

माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।

और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।

द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप। यह अपनी नियती है।
हम नदी के पुत्र हैं। बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -

तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।
अच्छा खंडित सत्य
अच्छा
खंडित सत्य
सुघर नीरन्ध्र मृषा से,
अच्छा
पीड़ित प्यार सहिष्णु
अकम्पित निर्ममता से।

अच्छी कुण्ठा रहित इकाई
साँचे-ढले समाज से,
अच्छा
अपना ठाठ फ़क़ीरी
मँगनी के सुख-साज से।

अच्छा
सार्थक मौन
व्यर्थ के श्रवण-मधुर भी छन्द से।
अच्छा
निर्धन दानी का उघडा उर्वर दुख
धनी सूम के बंझर धुआँ-घुटे आनन्द से।

अच्छे
अनुभव की भट्टी में तपे हुए कण-दो कण
अन्तर्दृष्टि के,
झूठे नुस्खे वाद, रूढि़, उपलब्धि परायी के प्रकाश से
रूप-शिव, रूप सत्य की सृष्टि के।

हम कृती नहीं हैं
हम कृति नहीं हैं
कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्।
क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब
इस विलास का योग मिला ?—जो
हों, इतने भर को ही
भरसक तपते-जलते रहे—रहे गये ?
हम हुए, यही बस,
नामहीन हम, निर्विशेष्य,
कुछ हमने किया नहीं।

या केवल
मानव होने की पीड़ा का एक नया स्तर खोलाः
नया रन्ध्र इस रुँधे दर्द की भी दिवार में फोड़ाः
उस से फूटा जो आलोक, उसे
--छितरा जाने से पहले—
निर्निमेष आँखों से देखा
निर्मम मानस से पहचाना
नाम दिया।

चाहे
तकने में आँखें फूट जायें,
चाहे
अर्थ भार से तन कर भाषा झिल्ली फट जाये,
चाहे
परिचित को गहरे उकेरते
संवेदना का प्याला टूट जायः
देखा
पहचाना
नाम दिया।

कृति नहीं हैः
हों, बस इतने भर को हम
आजीवन तपते-जलते रहे—रह गये।
शब्द और सत्य
यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
प्रश्न यही रहता है :
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं
मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे
उस में सेंध लगा दूँ
या भर कर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ।

कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं, करें,
प्रयोजन मेरा बस इतना है :
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ—
दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।
नया कवि : आत्म स्वीकार
किसी का सत्य था
मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया।
कोई मधु-कोष काट लाया था
मैं ने निचोड़ लिया।

किसी की उक्ति में गरिमा थी
मैं ने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया,
किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था
मैं ने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।

कोई हुनरमन्द था :
मैं ने देखा और कहा, ‘यों !’
थका भारवाही पाया—
घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों ?’


किसी की पौध थी,
मैं ने सींची और बढ़ने पर अपना ली,
किसी की लगायी लता थी,
मैं ने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली।

किसी की कली थी
मैं ने अनदेखे में बीन ली,
किसी की बात थी
मैंने मुँह से छीन ली।

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ :
काव्य-तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें।
पर प्रतिमा—अरे, वह तो
जैसे आप को रुचि आप स्वयं गढ़े !

बड़ी लम्बी राह
न देखो लौट कर पीछे
वहाँ कुछ नहीं दीखेगा
न कुछ है देखने को
उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते
हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं
अनुभूति के तेज़ाब से

राह चलते
बड़ी लम्बी राह।

गा रही थी एक दिन
उस छोर बेपरवाह,
लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह
--अवगुण्ठवमयी ठगिनी !—
एक मीठी रागिनी

बड़ी लम्बी राह।
आज सँकरे मोड़ पर यह
वास्तविक विडम्बना
रो रही है :
एक नंगी डाकिनी

बड़ी लम्बी राह : आह,
पनाह इस पर नहीं—
कोई ठौर जिस पर छाँह हो।
कौन आँके मोल उस के शोध का
मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने
एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला ?
जल जहाँ है नहीं
क्या वह अब्धि है ?
रेत क्या
उपलब्धि है ?

बड़ी लम्बी राह। जब उस ओर
थे हम, एक संवेदना की डोर
बाँधती थी हमें—तुम को : और हम-तुम मानते थे
डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि
पुनीत है, उन से बँधे
सरकार आयेंगे चले

बड़ी लम्बी राह ! अब इस ओर पर
संवेदना की आरियाँ ही
मुझे तुम से काटती हैं :
और फिर लोहू-सनी उन धारियों में
और राहों की अथक ललकार है।
और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले !
बाँगर और खादर

बाँगर में
राजाजी का बाग है,
चारों ओर दीवार है
जिस में एक ओर द्वार है,
बीच-बाग़ कुआँ है
बहुत-बहुत गहरा।
और उस का जल
मीठा, निर्मल, शीतल।
कुएँ तो राजाजी के और भी हैं
-एक चौगान में, एक बाज़ार में-
पर इस पर रहता है पहरा।
खादर में
राजाजी के पुरवे हैं,
मिट्टी के घरवे हैं,
आगे खुली रेती के पार
सदानीरा नदी है।
गाँव के गँवार
उसी में नहाते हैं,
कपड़े फींचते हैं,
आचमन करते हैं,
डाँगर भँसाते हैं,
उसी से पानी उलीच
पहलेज सींचते हैं,
और जो मर जायें उन की मिट्टी भी
वहीं होनी बदी है।
कुएँ का पानी
राजाजी मँगाते हैं,
शौक़ से पीते हैं।
नदी पर लोग सब जाते हैं,
उस के किनारे मरते हैं
उसके सहारे जीते हैं।
बाँगर का कुआँ
राजाजी का अपना है
लोक-जन के लिए एक
कहानी है, सपना है
खादर की नदी नहीं
किसी की बपौती की,
पुरवे के हर घरवे को
गंगा है अपनी कठौती की।

चिड़िया की कहानी
उड़ गई चिड़िया
काँपी, फिर
थिर
हो गई पत्ती।

हे अमिताभ
हे अमिताभ !
नभ पूरित आलोक,
सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक :
हे अवलोकित
हे हिरण्यनाभ !
धरा-व्योम
अंकुरित धरा से क्षमा
व्योम से झरी रुपहली करुणा
सरि, सागर, सोते-निर्झर-सा
उमड़े जीवन :
कहीं नहीं है मरना ।
सोन-मछली
हम निहारते रूप
काँच के पीछे
हाँप रही है, मछली ।

रूप तृषा भी
(और काँच के पीछे)
हे जिजीविषा ।
दीप पत्थर का
दीप पत्थर का
लजीली किरण की
पद चाप नीरव :
अरी ओ करुणा प्रभामय !
कब ? कब ?
हिरोशिमा
एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौक:
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की
दिशाहिन
सब ओर पड़ीं-वह सूरज
नहीं उगा था वह पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर के:
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!
केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की
दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।
फिर?
छायाएँ मानव-जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:
मानव ही सब भाप हो गए।
छायाएँ तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्‍थरों पर
उजरी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुया सूरज
मानव को भाप बनाकर सोख गया।
पत्‍थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।
मैं ने देखा, एक बूँद
मैं ने देखा
एक बूँद सहसा
उछली सागर के झाग से;
रंग गई क्षणभर,
ढलते सूरज की आग से।
मुझ को दीख गया:
सूने विराट् के सम्‍मुख
हर आलोक-छुआ अपनापन
है उन्‍मोचन
नश्‍वरता के दाग से!
चाँदनी चुप-चाप

चाँदनी चुप-चाप सारी रात
सूने आँगन में
जाल रचती रही।
मेरी रूपहीन अभिलाषा
अधूरेपन की मद्धिम
आँच पर तँचती रही।
व्यथा मेरी अनकही
आनन्द की सम्भावना के
मनश्चित्रों से परचती रही।

मैं दम साधे रहा,
मन में अलक्षित
आँधी मचती रही :
प्रातः बस इतना कि मेरी बात
सारी रात
उघड़कर वासना का
रूप लेने से बचती रही।

असाध्य वीणा
आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !
राजा ने आसन दिया। कहा :
"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।
भरोसा है अब मुझ को
साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"

लघु संकेत समझ राजा का
गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,
साधक के आगे रख उसको, हट गये।
सभा की उत्सुक आँखें
एक बार वीणा को लख, टिक गयीं
प्रियंवद के चेहरे पर।

"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से
--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --
बहुत समय पहले आयी थी।
पूरा तो इतिहास न जान सके हम :
किन्तु सुना है
वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस
अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --
उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,
कंधों पर बादल सोते थे,
उसकी करि-शुंडों सी डालें



हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,
कोटर में भालू बसते थे,
केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,
उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।
उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढा़ :
हठ-साधना यही थी उस साधक की --
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"

राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :
"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।
अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।
इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।
तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे
वज्रकीर्ति की वीणा,
यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :
सब उदग्र, पर्युत्सुक,
जन मात्र प्रतीक्षमाण !"



केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।
धरती पर चुपचाप बिछाया।
वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,
करके प्रणाम,
अस्पर्श छुअन से छुए तार।

धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो
कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।
वज्रकीर्ति!
प्राचीन किरीटी-तरु!
अभिमन्त्रित वीणा!
ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"

चुप हो गया प्रियंवद।
सभा भी मौन हो रही।

वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।
धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।
सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?
केशकम्बली अथवा होकर पराभूत
झुक गया तार पर?
वीणा सचमुच क्या है असाध्य?
पर उस स्पन्दित सन्नाटे में
मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--
नहीं, अपने को शोध रहा था।
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को
कौन प्रियंवद है कि दंभ कर
इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?
कौन बजावे
यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?
भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को :

कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था
जिसमें साक्षी के आगे था
जीवित रही किरीटी-तरु
जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,
जिसके कन्धों पर बादल सोते थे
और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य।
सम्बोधित कर उस तरु को, करता था
नीरव एकालाप प्रियंवद।

"ओ विशाल तरु!
शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,
कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,
दिन भौंरे कर गये गुंजरित,
रातों में झिल्ली ने
अनथक मंगल-गान सुनाये,
साँझ सवेरे अनगिन
अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि
डाली-डाली को कँपा गयी--

चित्र:Veena instrument.jpg

ओ दीर्घकाय!
ओ पूरे झारखंड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के
वृन्दगान के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूँ,
देखूँ, ध्याऊँ
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक :
कहाँ साहस पाऊँ
छू सकूँ तुझे !
तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को

किस स्पर्धा से
हाथ करें आघात
छीनने को तारों से
एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में
स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।

"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,
किन्तु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,
तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय :
मैं सुनूँ,
गुनूँ,
विस्मय से भर आँकू
तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय--
गा तू :
तेरी लय पर मेरी साँसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें।
"गा तू !
यह वीणा रखी है : तेरा अंग -- अपंग।
किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,
रस-विद,
तू गा :
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का --

तू गा, तू गा, तू गा, तू गा !

" हाँ मुझे स्मरण है :
बदली -- कौंध -- पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट।
घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।
चौंके खग-शावक की चिहुँक।
शिलाओं को दुलारते वन-झरने के
द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।
कुहरें में छन कर आती
पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।
गड़रिये की अनमनी बाँसुरी।
कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :
ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते

चित्र:Veena instrument.jpg

मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।
भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।
कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।
पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।
चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट
जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।
झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में
संसृति की साँय-साँय।

"हाँ मुझे स्मरण है :
दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़
हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ।
घरघराहट चढ़ती बहिया की।
रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़।
झंझा की फुफकार, तप्त,
पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।

ओले की कर्री चपत।
जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।
ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।
हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप।
घाटियों में भरती
गिरती चट्टानों की गूंज --
काँपती मन्द्र -- अनुगूँज -- साँस खोयी-सी,
धीरे-धीरे नीरव।

"मुझे स्मरण है
हरी तलहटी में, छोटे पेडो़ की ओट ताल पर
बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें :
गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट।
कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित
जल-पंछी की चाप।
थाप दादुर की चकित छलांगों की।
पन्थी के घोडे़ की टाप धीर।
अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की।
"मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब तकती है ओस-बूँद को
उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।
और दुपहरी में जब
घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं
मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --
उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।
और साँझ को
जब तारों की तरल कँपकँपी

स्पर्शहीन झरती है --
मानो नभ में तरल नयन ठिठकी
नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --
उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।

"मुझे स्मरण है
और चित्र प्रत्येक
स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।
सुनता हूँ मैं
पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --
वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...
मुझे स्मरण है --
पर मुझको मैं भूल गया हूँ :
सुनता हूँ मैं --
पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।

"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !
ओ रे तरु ! ओ वन !
ओ स्वर-सँभार !
नाद-मय संसृति !
ओ रस-प्लावन !
मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --
मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --
ओ शरण्य !
मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !
आ, मुझे भला,
तू उतर बीन के तारों में
अपने से गा
अपने को गा --
अपने खग-कुल को मुखरित कर

चित्र:Veena instrument.jpg

अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,
अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर
अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,
अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !
तू गा, तू गा --
तू सन्निधि पा -- तू खो
तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !"

राजा आगे
समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --
काँपी थी उँगलियाँ।
अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :
किलक उठे थे स्वर-शिशु।
नीरव पद रखता जालिक मायावी
सधे करों से धीरे धीरे धीरे
डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।

सहसा वीणा झनझना उठी --
संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --
रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।
अवतरित हुआ संगीत
स्वयम्भू
जिसमें सीत है अखंड
ब्रह्मा का मौन
अशेष प्रभामय ।

डूब गये सब एक साथ ।
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।
राजा ने अलग सुना :

"जय देवी यश:काय
वरमाल लिये
गाती थी मंगल-गीत,
दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी,
राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फल सिरिस का
ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये, निखर आया था जीवन-कांचन
धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा ।

रानी ने अलग सुना :
छँटती बदली में एक कौंध कह गयी --
तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र,
मेखला किंकिणि --
सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है
प्यार अनन्य ! उसी की
विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,
थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है
आश्वस्त, सहज विश्वास भरी ।
रानी
उस एक प्यार को साधेगी ।

चित्र:Veena instrument.jpg

सबने भी अलग-अलग संगीत सुना ।
इसको
वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का --
उसकी
आतंक-मुक्ति का आश्वासन :
इसको
वह भरी तिजोरी में सोने की खनक --
उसे
बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू ।
किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि ।
किसी दूसरे को शिशु की किलकारी ।
एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन --
एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की ।
एक तीसरे को मंडी की ठेलमेल, गाहकों की अस्पर्धा-भरी बोलियाँ

चौथे को मन्दिर मी ताल-युक्त घंटा-ध्वनि ।
और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें
और छठें को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक ।
बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिये --
और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल
इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की
उसे युद्ध का ढाल :
इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --
उसे प्रलय का डमरू-नाद ।
इसको जीवन की पहली अँगड़ाई
पर उसको महाजृम्भ विकराल काल !
सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे --
ओ रहे वशंवद, स्तब्ध :
इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,
संघीत हुई,
पा गयी विलय ।
वीणा फिर मूक हो गयी ।
साधु ! साधु ! "
उसने
राजा सिंहासन से उतरे --
"रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,

हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य ! "

संगीतकार
वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक -- मानो
गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ
हट जाय, दीठ से दुलारती --
उठ खड़ा हुआ ।
बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,
बोला :
"श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था --
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ की तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सबमें गाता है ।"

नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। लेकर कम्बल गेह-गुफा को चला गया ।

उठ गयी सभा । सब अपने-अपने काम लगे ।
युग पलट गया ।

प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी
मौन हुई ।



सरस्वती पुत्र
मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,
खुले गले से
मुखर स्वरों में
अति-प्रगल्भ
गाते जाते थे राम-नाम।
भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक,
निर्बोध, अयाने, नाटे,
पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।

बाहर वह
खोया-पाया, मैला-उजला
दिन-दिन होता जाता वयस्क,
दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
सुस्पष्ट देखता जाता था;
पहचान रहा था रूप,
पा रहा वाणी और बूझता शब्द,
पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था:
दिन-दिन पर उसकी घिग्घी बँधती जाती थी।

बना दे, चितेरे
बना दे चितेरे,
मेरे लिए एक चित्र बना दे।

पहले सागर आँक :
विस्तीर्ण प्रगाढ़ नीला,
ऊपर हलचल से भरा,
पवन के थपेड़ों से आहत,
शत-शत तरंगों से उद्वेलित,
फेनोर्मियों से टूटा हुआ,
किन्तु प्रत्येक टूटन में
अपार शोभा लिये हुए,
चंचल उत्कृष्ट,
-जैसे जीवन।
हाँ, पहले सागर आँक :
नीचे अगाध, अथाह,
असंख्य दबावों, तनावों,
खींचों और मरोड़ों को
अपनी द्रव एकरूपता में समेटे हुए,
असंख्य गतियों और प्रवाहों को
अपने अखण्ड स्थैर्य में समाहित किये हुए
स्वायत्त,
अचंचल
-जैसे जीवन....

सागर आँक कर फिर आँक एक उछली हुई मछली :
ऊपर अधर में
जहाँ ऊपर भी अगाध नीलिमा है
तरंगोर्मियाँ हैं, हलचल और टूटन है,
द्रव है, दबाव है
और उसे घेरे हुए वह अविकल सूक्ष्मता है
जिस में सब आन्दोलन स्थिर और समाहित होते हैं;
ऊपर अधर में
हवा का एक बुलबुला-भर पीने को
उछली हुई मछली
जिसकी मरोड़ी हुई देह-वल्ली में
उसकी जिजीविषा की उत्कट आतुरता मुखर है।
जैसे तडिल्लता में दो बादलों के बीच के खिंचाव सब कौंध जाते हैं-
वज्र अनजाने, अप्रसूत, असन्धीत सब
गल जाते हैं।

उस प्राणों का एक बुलबुला-भर पी लेने को-
उस अनन्त नीलिमा पर छाये रहते ही
जिस में वह जनमी है, जियी है, पली है, जियेगी,
उस दूसरी अनन्त प्रगाढ़ नीलिमा की ओर
विद्युल्लता की कौंध की तरह
अपनी इयत्ता की सारी आकुल तड़प के साथ उछली हुई
एक अकेली मछली।

बना दे, चितेरे,
यह चित्र मेरे लिए आँक दे।
मिट्टी की बनी, पानी से सिंची, प्राणाकाश की प्यासी
उस अन्तहीन उदीषा को
तू अन्तहीन काल के लिए फलक पर टाँक दे-
क्योंकि यह माँग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के
एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूँ उदग्र, वह
अन्तहीन काल तक मुझे खींचता रहे :
मैं उदग्र ही बना रहूँ कि
-जाने कब-
वह मुझे सोख ले

भीतर जागा दाता
मतियाया
सागर लहराया।
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर
पवन से भर उमंग से गाया।
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
किरण-अपसराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं-
जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती।
दूर धुँधला किनारा
झूम-झूम आया, डगमगाया किया।
मेरे भीतर जागा
दाता
बोला :
लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया।

हरियाली बिछ गयी तराई पर,
घाटी की पगडण्डी
लजाई और ओट हुई-
पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गयी।
छरहरे पेड़ की नयी रंगीली फुनगी
आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गयी।
गेहूँ की हरी बालियों में से
कभी राई की उजली, कभी सरसों की पाली फूल-ज्योत्स्ना दिप गयी,
कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गयी-
कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गयी।
मेरे भीतर फिर जागा
दाता
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :
लो, यह हरी-भरी धरती-यह सवत्सा कामधेनु-मैंने तुम्हें दी
आकाश भी तुम्हें दिया
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,
ये मैंने तुम्हें दीं।
आँकी-बाँकी रेखा यह,
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,
यह तलैया, गलियारा यह
सरसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते-
यह रूप जो केवल मैंने देखा है,
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,
सब तुम्हें दिया।
एक स्मृति से मन पूत हो आया।
एक श्रद्धा से आहुत प्राणों ने गाया।
एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया।
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया,
फिर भीतर
दाता खिल आया।
हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया :
लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,
यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव
यह मैं, यह तुम, यह खिलना,
यह ज्वार, यह प्लवन,
यह प्यार, यह अडूब उमड़ना-
सब तुम्हें दिया।
सब
तुम्हें
दिया।
अन्धकार में दीप
अन्धकार था :
सब-कुछ जाना-
पहचाना था
हुआ कभी न गया हो, फिर भी
सब-कुछ की संयति थी,
संहति थी,
स्वीकृति थी।

दिया जलाया :
अर्थहीन आकारों की यह
अर्थहीनतर भीड़-
निरर्थकता का संकुल-
निर्जल पारावार न-कारों का
यह उमड़ा आया।

कहाँ गया वह
जिस ने सब-कुछ को
ऋत के ढाँचे में बैठाया ?
पास और दूर
जो पास रहे
वे ही तो सबसे दूर रहे :
प्यार से बार-बार
जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे,
वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो
सब से क्रूर रहे।

जो चले गये
ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये
पर जो मिट्टी
उन के पग रोष-भरे खूँदते रहे,
फिर अवहेला से रौंद गये :
उसको वे ही एक अनजाने नयी खाद दे गाड़ गये :
उसमें ही वे एक अनोखा अंकुर रोप गये।
-जो चले गये, जो छोड़ गये,
जो जड़े काट, मिट्टी उपाट,
चुन-चुन कर डाल मरोड़ गये
वे नहर खोद कर अनायास
सागर से सागर जोड़ गये
मिटा गये अस्तित्व,
किन्तु वे
जीवन मुझको सौंप गये।

पहचान
तुम वही थीं :
किन्तु ढलती धूप का कुछ खेल था-
ढलती उमर के दाग़ उसने धो दिये थे।
भूल थी
पर
बन गयी पहचान-
मैं भी स्मरण से
नहा आया।
मैं जो बन्‍दी हूं
मैं, जो बंदी हूं
गाता हूं आनन्दित-मुक्तिगीत:
मेरी बेडि़यां फुसफुसाती रहती हैं-
"तुम समग्र हो,
तुम हो स्‍वतन्‍त्र"
तुम्‍हारे बन्‍धन हैं
केवल तुम्‍हारे बन्‍धुओं के
मुक्ति-प्रतीक !"

और...
तुम जो आबद्ध/स्‍वेच्‍छाचारी हो
चीखते रहो अनवरत आशंका में-
"हमें उसको बनाए रखना है
बन्‍दी,
अन्‍यथा हम मर जाएंगे।"

उधार
सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।

मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार
चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?
मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी—
तिनके की नोक-भर?
शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी—
किरण की ओक-भर?
मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,
लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
मैने आकाश से मांगी
आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।

सब से उधार मांगा, सब ने दिया ।
यों मैं जिया और जीता हूँ
क्योंकि यही सब तो है जीवन—
गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,
गन्धवाही मुक्त खुलापन,
लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का:
ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।

रात के अकेले अन्धकार में
सामने से जागा जिस में
एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर
मुझ से पूछा था: "क्यों जी,
तुम्हारे इस जीवन के
इतने विविध अनुभव हैं
इतने तुम धनी हो,
तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—जिसे मैं
सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा—
और वह भी सौ-सौ बार गिन के—
जब-जब मैं आऊँगा?"
मैने कहा: प्यार? उधार?
स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे
अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार ।
उस अनदेखे अरूप ने कहा: "हाँ,
क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं—
यह अकेलापन, यह अकुलाहट,
यह असमंजस, अचकचाहट,
आर्त अनुभव,
यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
विरह व्यथा,
यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना
कि जो मेरा है वही ममेतर है
यह सब तुम्हारे पास है
तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार—
मुझे जो चरम आवश्यकता है।

उस ने यह कहा,
पर रात के घुप अंधेरे में
मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:
अनदेखे अरूप को
उधार देते मैं डरता हूँ:
क्या जाने
यह याचक कौन है?
सन्ध्या-संकल्प
यह सूरज का जपा-फूल
नैवेद्य चढ़ चला
सागर-हाथों
अम्बा तिरमिरायी को:
रुको साँस-भर,
फिर मैं यह पूजा-क्षण
तुम को दे दूँगा।

क्षण अमोघ है, इतना मैंने
पहले भी पहचाना है
इस लिए साँझ को नश्वरता से नहीं बांधता।
किन्तु दान भी है अमोघ, अनिवार्य,
धर्म:
यह लोकालय में
धीरे-धीरे जान रहा हूँ
(अनुभव के सोपान!)
और
दान वह मेरा एक तुम्हीं को है।
यह एकोन्मुख तिरोभाव—
इतना-भर मेरा एकान्त निजी है—
मेरा अर्जित:
वही दे रहा हूँ
ओ मेरे राग-सत्य!
मैं
तुम्हें।

ऐसे तो हैं अनेक
जिन के द्वारा
मैं जिया गया;
ऐसा है बहुत
जिसे मैं दिया गया।
यह इतना
मैंने दिया।
अल्प यह लय-क्षण
मैंने जिया।

आह, यह विस्मय!
उसे तुम्हें दे सकता हूँ मैं।
उसे दिया।
इस पूजा-क्षण में
सहज, स्वतः प्रेरित
मैंने संकल्प किया।

६ मार्च १९६३
प्रातः संकल्प
ओ आस्था के अरुण!
हाँक ला
उस ज्वलन्त के घोड़े।
खूँद डालने दे
तीखी आलोक-कशा के तले तिलमिलाते पैरों को
नभ का कच्चा आंगन!

बढ़ आ, जयी!
सम्भाल चक्रमण्डल यह अपना।

मैं कहीं दूर:
मैं बंधा नहीं हूँ
झुकूँ, डरूँ,
दूर्वा की पत्ती-सा
नतमस्तक करूँ प्रतीक्षा
झंझा सिर पर से निकल जाए!
मैं अनवरुद्ध, अप्रतिहत, शुचस्नात हूँ:
तेरे आवाहन से पहले ही
मैं अपने आप को लुटा चुका हूँ:
अपना नहीं रहा मैं
और नहीं रहने की यह बोधभूमि
तेरी सत्ता से, सार्वभौम! है परे,
सर्वदा परे रहेगी।
"एक मैं नहीं हूँ"—
अस्ति दूसरी इस से बड़ी नहीं है कोई।

इस मर्यादातीत
अधर के अन्तरीप पर खड़ा हुआ मैं
आवाहन करता हूँ:
आओ, भाई!
राजा जिस के होगे, होगे:
मैं तो नित्य उसी का हूँ जिस को
स्वेच्छा से दिया जा चुका!

७ मार्च १९६३
कितनी नावों में कितनी बार (
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत—
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार...

और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश—
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य—तथ्य—
सत्य नहीं, अंतहीन सच्चाइयाँ...
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त—
कितनी बार!
यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया
यह इतनी बड़ी अनजानी दुनिया है
कि होती जाती है,
यह छोटा-सा जाना हुआ क्षण है
कि हो कर नहीं देता;
यह मैं हूँ
कि जिस में अविराम भीड़ें रूप लेती
उमड़ती आती हैं,
यह भीड़ है
कि उस में मैं बराबर मिटता हुआ
डूबता जाता हूँ;
ये पहचानें हैं
जिन से मैं अपने को जोड़ नहीं पाता
ये अजनबियतें हैं
जिन्हें मैं छोड़ नहीं पाता ।

मेरे भीतर एक सपना है
जिसे मैं देखता हूँ कि जो मुझे देखता है, मैं नहीं जान पाता।
यानी कि सपना मेरा है या मैं सपने का
इतना भी नहीं पहचान पाता।

और यह बाहर जो ठोस है
(जो मेरे बाहर है या जिस के मैं बाहर हूँ?)
मुझे ऐसा निश्चय है कि वह है, है;
जिसे कहने लगूँ तो
यह कह आता है
कि ऐसा है कि मुझे निश्चय है!

निरस्त्र
कुहरा था,
सागर पर सन्नाटा था:
पंछी चुप थे।
महाराशि से कटा हुआ
थोड़ा-सा जल
बन्दी हो
चट्टानों के बीच एक गढ़िया में
निश्चल था—
पारदर्श।

प्रस्तर-चुम्बी
बहुरंगी
उद्भिज-समूह के बीच
मुझे सहसा दीखा
केंकड़ा एक:
आँखें ठण्डी
निष्प्रभ
निष्कौतूहल
निर्निमेष।

जाने
मुझ में कौतुक जागा
या उस प्रसृत सन्नाटे में
अपना रहस्य यों खोल
आँख-भर तक लेने का साहस;
मैंने पूछा: क्यों जी,
यदि मैं तुम्हें बता दूँ
मैं करता हूँ प्यार किसी को—
तो चौंकोगे?
ये ठण्डी आँखें झपकेंगी
औचक?

उस उदासीन ने
सुना नहीं:
आँखों में
वही बुझा सूनापन जमा रहा।
ठण्डे नीले लोहू में
दौड़ी नहीं
सनसनी कोई।

पर अलक्ष्य गति से वह
कोई लीक पकड़
धीरे-धीरे
पत्थर की ओट
किसी कोटर में
सरक गया।

यों मैं
अपने रहस्य के साथ
रह गया
सन्नाटे से घिरा
अकेला
अप्रस्तुत
अपनी ही जिज्ञासा के सम्मुख निरस्त्र
निष्कवच,
वध्य।
जीवन
चाबुक खाए
भागा जाता
सागर-तीरे
मुँह लटकाए
मानो धरे लकीर
जमे खारे झागों की—
रिरियाता कुत्ता यह
पूँछ लड़खड़ाती टांगों के बीच दबाए।

कटा हुआ
जाने-पहचाने सब कुछ से
इस सूखी तपती रेती के विस्तार से,
और अजाने-अनपहचाने सब से
दुर्गम, निर्मम, अन्तहीन
उस ठण्डे पारावार से!

समय क्षण-भर थमा
समय क्षण-भर थमा सा:
फिर तोल डैने
उड़ गया पंछी क्षितिज की ओर:
मद्धिम लालिमा ढरकी अलक्षित।
तिरोहित हो चली ही थी कि सहसा
फूट तारे ने कहा: रे समय,
तू क्या थक गया?
रात का संगीत फिर
तिरने लगा आकाश में।
ओ निःसंग ममेतर
आज फिर एक बार
मैं प्यार को जगाता हूँ
खोल सब मुंदे द्वार
इस अगुरु-धूम-गन्ध-रुंधे सोने के घर के
हर कोने को
सुनहली खुली धूप में निल्हाता हूँ।
तुम जो मेरी हो, मुझ में हो,
सघनतम निविड में
मैं ही जो हो अनन्य
तुम्हें मैं दूर बाहर से, प्रान्तर से,
देशावर से, कालेतर से
तल से, अतल से, धरा से, सागर से,
अन्तरीक्ष से,
निर्व्यास तेजस् के निर्गभीर शून्य आकर से
मैं, समाहित अन्तःपूत,
मन्त्राहूत कर तुम्हें
ओ निःसंग ममेतर,
ओ अभिन्न प्यार
ओ धनी!
आज फिर एक बार
तुम को बुलाता हूँ—
और जो मैं हूँ, जो जाना-पहचाना,
जिया-अपनाया है, मेरा है,
धन है, संचय है, उस की एक-एक कली को
न्योछावर लुटाता हूँ।



जिन शिखरों की
हेम-मज्जित उंगलियों ने
निर्विकल्प इंगित से
जिस निर्व्यास उजाले को
सतत झलकाया है—
उस में जो छाया मैंने पहचानी है
तुम्हारी है।

जिन झीलों की
जिन पारदर्शी लहरों ने
नीचे छिपे शैवाल को सुनहला चमकाया है,
निश्चल निस्तल गहराइयों में
जो निश्छल उल्लास झलकाया है,
उस में निर्वाक् मैंने
तुम्हें पाया है।

भटकी हवाएँ जो गाती हैं,
रात की सिहरती पत्तियों से
अनमनी झरती वारि-बूंदे
जिसे टेरती हैं,
फूलों की पीली पियालियाँ
जिस की ही मुस्कान छलकाती हैं,
ओट मिट्टी की, असंख्य रसातुरा शिराएँ
जिस मात्र को हेरती हैं;
वसन्त जो लाता है,
निदाघ तपाता है,
वर्षा जिसे धोती है, शरद संजोता है,
अगहन पकाता और फागुन लहराता
और चैत काट, बांध, रौंद, भर कर ले जाता है—
नैसर्गिक चंक्रमण सारा—
पर दूर क्यों,
मैं ही जो साँस लेता हूँ
जो हवा पीता हूँ—
उस में हर बार, हर बार,
अविराम, अक्लान्त, अनाप्यायित
तुम्हें जीता हूँ।



घाटियों में
हँसियाँ
गूंजती हैं।
झरनों में
अजस्रता
प्रतिश्रुत होती है।
पंछी ऊँऽऽची
भरते हैं उड़ान—
आशाओं का इन्द्र-चाप
दोनों छोर नभ के
मिलाता है।
मुझ में पर—मुझ में—मुझ में—
मेरे हर गीत में, मेरी हर ज्ञप्ति में—
कुछ है जो काँटे सा कसकाता,
अंगारे सुलगाता है—
मेरे हर स्पन्दन में, साँस में, समाई में
विरह की आप्त व्यथा
रोती है।

जीना—सुलगना है
जागना—उमंगना है
चीन्हना—चेतना का
तुम्हारे रंग रंगना है।


मैंने तुम्हें देखा है
असंख्य बार:
मेरी इन आँखों में बसी हुई है
छाया उस अनवद्य रूप की।

मेरे नासापुटों में तुम्हारी गन्ध—
मैं स्वयं उस से सुवासित हूँ।
मेरे स्तब्ध मानस में गीत की लहर-सा
छाया है तुम्हारा स्वर।
और रसास्वाद: मेरी स्मृति में अभिभूत है।
मैंने तुम्हें छुआ है
मेरी मुट्ठियों में भरी हुई तुम
मेरी उंगलियों बीच छन कर बही हो—
कण प्रतिकण आप्त, स्पृष्ट, भुक्त।
मैंने तुम्हें चूमा है
और हर चुम्बन की तप्त, लाल, अयस्कठोर छाप
मेरा हर रक्त-कण धारे है।
आह! पर मैंने तुम्हें जाना नहीं।



नहीं! मैंने तुम्हें केवल मात्र जाना है।
देखा नहीं मैंने कभी,
सुना नहीं, छुआ नहीं,
किया नहीं रसास्वाद—
ओ स्वतःप्रमाण! मैंने
तुम्हें जाना,
केवल मात्र जाना है।

देख मैं सका नहीं:
दीठ रही ओछी, क्योंकि तुम समग्र एक विश्व हो
छू सका नहीं:
अधूरा रहा स्पर्श क्योंकि तुम तरल हो, वायवी हो
पहचान सका नहीं: तुम
मायाविनि, कामरूपा हो।

किन्तु, हाँ, पकड़ सका—
पकड़ सका, भोग सका
क्योंकि जीवनानुभूति
बिजली-सी त्वरग, अमोघ एक पंजा है
बलिष्ठ;
एक जाल निर्वारणीय:
अनुभूति से तो
कभी, कहीं, कुछ नहीं
बच के निकलता!



जीवनानुभूति: एक पंजा कि जिस में
तुम्हारे साथ मैं भी तो पकड़ में
आ गया हूँ!
एक जाल, जिस में
तुम्हारे साथ मैं भी बंध गया हूँ।
जीवनानुभूति:
एक चक्की। एक कोल्हू।
समय कि अजस्र धार का घुमाया हुआ
पर्वती घराट् एक अविराम।
एक भट्ठी, एक आवाँ स्वतःतप्त:
अनुभूति!



तुम्हें केवल मात्र जाना है,
केवल मात्र तुम्हें जाना है,
तुम्हें जाना है, अप्रमाद तुम्हें जपा है,
तुम्हें स्मरा है।
और मैंने देखा है—
और मेरी स्मृति ने
मेरी देखी सारी रूप-राशि को इकाई दी है।
मैंने सुना है—
और मेरी अविकल्प स्मृति ने
सभी स्वर एक मूर्छना में गूँथ डाले हैं।
—सूंघा, और स्मृति ने
विकीर्ण सब गन्धों को
चयित कर दिया एक वृन्त में एक ही वसन्त के।
—मैंने छुआ है:
और मेरे ज्ञान ने असंख्य माया-मूर्तियों के
दी है वह संहति अचूक
जो-मात्र मेरी पहचानी है
जिसे-मात्र मैंने चाहा है।
—मैंने चूमा है,
और, ओ आस्वाद्य मेरी!
ले गयी है प्रत्यभिज्ञा मुझे उत्स तक
जिस की पीयूषवर्षी, अनवद्य, अद्वितिय धार
मुझे आप्यायित करती है।

हाँ, मैंने तुम्हें जाना है, मैं जानता हूँ,
पहचानता हूँ, सांगोपांग;
ओर भूलता नहीं हूँ—कभी भूल नहीं सकता!

भूलता नहीं हूँ
कभी भूल नहीं सकता
और मैं बिखरना नहीं चाहता।
आज, मन्त्राहूत ओ प्रियस्व मेरी!
मुझ को जो कहना है, वह इस धधकते क्षण में
वाग्देवता की यज्ञ-ज्वाला जब तक अभी
जलती है मेरी इस आविष्ट जिह्वा पर,
तब तक—मैं कह लूँ:
मेरे ही दाह का हुताश्न हो साक्षी मेरा!



ओ आहूत!
ओ प्रत्यक्ष!
अप्रतिम!
ओ स्वयंप्रतिष्ठ!
सुनो संकल्प मेरा:

मैंने छुआ है, और मैं छुआ गया हूँ;
मैने चूमा है, और मैं चूमा गया हूँ;
मैं विजेता हूँ और मुझे जीत लिया गया है;
मैं हूँ, और मैं दे दिया गया हूँ;
मैं जिया हूँ, और मेरे भीतर से जी लिया गया है;
मैं मिटा हूँ, मैं पराभूत हूँ, मैं तिरोहित हूँ,
मैं अवतरित हुआ हूँ, मैं आत्मसात् हूँ,
अमर्त्य, कालजित् हूँ।

मैं चला हूँ
पहचानकर,
प्रकाश में,
दिक्-प्रबुद्ध,
लक्ष्यसिद्ध।
इसी बल
जहाँ-जहाँ पहचान हुई, मैंने
वह ठाँव छोड़ दी;
ममता ने तरिणी को तीर-ओर मोड़ा—
वह डोर मैंने तोड़ दी।
हर लीक पोंछी, हर डगर मिटा दी, हर दीप
निवा मैंने
बढ़ अन्धकार में
अपनी धमनी
तेरे साथ जोड़ दी।



ओ मेरी सह-तितिर्षु,
हमीं तो सागर हैं
जिस के हम किनारे हैं क्योंकि जिसे हमने
पार कर लिया है।

ओ मेरी सहयायिनि,
हमीं वह निर्मल तल-दर्शी वापी हैं
जिसे हम ओक-भर पीते हैं—
बार-बार, तृषा से, तृप्ति से, आमोद से, कौतुक से,
क्योंकि हमीं छिपा वह उत्स हैं जो उसे
पूरित किए रहता है।

ओ मेरी सहधर्मा,
छू दे मेरा कर: आहुति दे दूँ—
हमीं याजक हैं, हमीं यज्ञ,
जिसमें हुत हमीं परस्परेष्टि।
ओ मेरी अतृप्त, दुःशम्य धधक, मेरी होता,
ओ मेरी हविष्यान्न,
आ तू, मुझे खा
जैसे मैंने तुझे खाया है
प्रसादवत्।
हम परस्पराशी हैं क्योंकि परस्परपोषी हैं
परस्परजीवी हैं।

१०

ओ सहजन्मा, सह-सुभगा
नित्योढ़ा,
सहभोक्ता,
सहजीवा, कल्याणी।
११

ओ मेरे पुण्य-प्रभव,
मेरे आलोक-स्नात, पद्म-पत्रस्थ जल-बिन्दु,
मेरी आँखों के तारे,
ओ ध्रुव, ओ चंचल,
ओ तपोजात,
मेरे कोटि-कोटि लहरों से मंजे एकमात्र मोती
ओ विश्व-प्रतिम,
अब तू इस कृति सीप को अपने में समेट ले,
यह परदृश्य सोख ले।
स्वाति बूंद! चातक को आत्मलीन तू कर ले!
ओ वरिष्ठ! ओ वर दे! ओ वर ले!



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ओ एक ही कली की
ओ एक ही कली की
मेरे साथ प्रारब्ध-सी लिपटी हुई
दूसरी, चम्पई पंखुड़ी!
हमारे खिलते-न-खिलते सुगन्ध तो
हमारे बीच में से होती
उड़ जायेगी!
कि हम नहीं रहेंगे
हमने
शिखरों पर जो प्यार किया
घाटियों में उसे याद करते रहे!
फिर तलहटियों में पछताया किए
कि क्यों जीवन यों बरबाद करते रहे!

पर जिस दिन सहसा आ निकले
सागर के किनारे—
ज्वार की पहली ही उत्ताल तरंग के सहारे
पलक की झपक-भर में पहचाना
कि यह अपने को कर्त्ता जो माना—
यही तो प्रमाद करते रहे!

शिखर तो सभी अभी हैं,
घाटियों में हरियालियाँ छाई हैं;
तलहटियाँ तो और भी
नई बस्तियों में उभर आई हैं।

सभी कुछ तो बना है, रहेगा:
एक प्यार ही को क्या
नश्वर हम कहेंगे—
इस लिए कि हम नहीं रहेंगे?
उलाहना
नहीं, नहीं, नहीं!

मैंने तुम्हें आँखों की ओट किया
पर क्या भुलाने को?
मैंने अपने दर्द को सहलाया
पर क्या उसे सुलाने को?

मेरा हर मर्माहत उलाहना
साक्षी हुआ कि मैंने अंत तक तुम्हें पुकारा!

ओ मेरे प्यार! मैंने तुम्हें बार-बार, बार-बार असीसा
तो यों नहीं कि मैंने बिछोह को कभी भी स्वीकारा।

नहीं, नहीं नहीं!
पक्षधर
इनसान है कि जनमता है
और विरोध के वातावरण में आ गिरता है:
उस की पहली साँस संघर्ष का पैंतरा है
उस की पहली चीख़ एक युद्ध का नारा है
जिसे यह जीवन-भर लड़ेगा।

हमारा जन्म लेना ही पक्षधर बनना है,
जीना ही क्रमशः यह जानना है
कि युद्ध ठनना है
और अपनी पक्षधरता में
हमें पग-पग पर पहचानना है
कि अब से हमें हर क्षण में, हर वार में, हर क्षति में,
हर दुःख-दर्द, जय-पराजय, गति-प्रतिगति में
स्वयं अपनी नियति बन
अपने को जनना है।

ईश्वर
एक बार का कल्पक
और सनातन क्रान्ता है:
माँ—एक बार की जननी
और आजीवन ममता है:
पर उन की कल्पना, कृपा और करुणा से
हम में यह क्षमता है
कि अपनी व्यथा और अपने संघर्ष में
अपने को अनुक्षण जनते चलें,
अपने संसार को अनुक्षण बदलते चलें,
अनुक्षण अपने को परिक्रान्त करते हुए
अपनी नयी नियति बनते चलें।

पक्षधर और चिरन्तन,
हमें लड़ना है निरन्तर,
आमरण अविराम—
पर सर्वदा जीवन के लिए:
अपनी हर साँस के साथ
पनपते इस विश्वास के साथ
कि हर दूसरे की हर साँस को
हम दिला सकेंगे और अधिक सहजता,
अनाकुल उन्मुक्ति, और गहरा उल्लास

अपनी पहली साँस और चीख़ के साथ
हम जिस जीवन के
पक्षधर बने अनजाने ही,
आज होकर सयाने
उसे हम वरते हैं:
उस के पक्षधर हैं हम—
इतने घने
कि उसी जीने और जिलाने के लिए
स्वेच्छा से मरते हैं!

सितम्बर १९६५
उत्तर-वासन्ती दिन
यह अप्रत्याशित उजला
दिपती धूप-भरा उत्तर-वासन्ती दिन
जिस में फूलों के रंग
चौंक कर खिले,
पंछियों की बोली है ठिठकी-सी,
हम साझा भोग सके होते—तू-मैं—
तो भी मैं इसे समूचा तुझ को भेंट चुका होता:

अब भी देता हूँ
(चौंका, ठिठका मैं)
उतना ही सहज, कदाचित् तेरे उतना ही अनजाने भी।
ले, दिया गया यह:
एक छोड़ उस लौ को जो
एकान्त मुझे झुलसाती है।

गति मनुष्य की
कहाँ!
न झीलों से न सागर से,
नदी-नालों, पर्वत-कछारों से,
न वसन्ती फूलों से, न पावस की फुहारों से
भरेगी यह—
यह जो न ह्रदय है, न मन,
न आत्मा, न संवेदन,
न ही मूल स्तर की जिजीविषा—
पर ये सब हैं जिस के मुँह
ऐसी पंचमुखी गागर
मेरे समूचे अस्तित्व की—
जड़ी हुई मेरी आँखों के तारों से
पड़ी हुई मेरे ही पथ में जाने को
जहाँ-तहाँ, जहाँ-तहाँ...

प्यासी है, प्यासी है गागर यह
मानव के प्यार की
जिस का न पाना पर्याप्त है,
न देना यथेष्ट है,
पर जिस की दर्द की अतर्कित पहचान
पाना है, देना है, समाना है...
ओ मेरे क्रूर देवता, पुरुष,
ओ नर, अकेले, समूहगत,
ओ न-कुछ, विराट् में रूपायमान!
मुझे दे वही पहचान
उसी अन्तहीन खड्गधार का सही सन्धान मुझे
जिस से परिणय ही
हो सकती है परिणति उस पात्र की।
मेरे हर मुख में,
हर दर्द में, हर यत्न, हर हार में
हर साहस, हर आघात के हर प्रतिकार में
धड़के नारायण! तेरी वेदना
जो गति है मनुष्य मात्र की!

पंचमुख गुड़हल
शान्त
मेरे सँझाये कमरे,
शान्त
मेर थके-हारे दिल।
मेरी अगरबत्ती के धुएँ के
बलखाते डोरे,
लाल
अंगारे से डह-डह इस
पंचमुख गुड़हल के फूल को
बांधते रहो नीरव—
जब तक बांधते रहो।
साँझ के सन्नाटे में मैं
सका तो एक धुन
निःशब्द गाऊँगा।

फिर अभी तो वह आएगी:
रागों की एक आग एक शतजिह्व
लहलह सब पर छा जाएगी।
दिल, साँझ, शम, कमरा, क्लान्ति
एक ही हिलोर
डोरे तोड़ सभी
अपनी ही लय में बहाएगी:
फूल मुक्त,
धरा बंध जायेगी।
अपने निवेदना का धुआँ बन
अपनी अगरबत्ती-सा
मैं चुक जाऊँगा।
गुल-लालः
लालः के इस
भरे हुए दिल-से पके लाल फूल को देखो
जो भोर के साथ विकसेगा
फिर साँझ के संग सकुचाएगा
और (अगले दिन) फिर एक बार खिलेगा
फिर साँझ को मुंद जाएगा।
और फिर एक बार उमंगेगा
तब कुम्हलाता हुआ काला पड़ जायेगा।

पर मैं—वह भरा हुआ दिल—
क्या मुझे फिर कभी खिलना है?
जिस में (यदि) हँसना है
वह भोर ही क्या फिर आयेगा?

अन्धकार में जागने वाले
रात के घुप अन्धेरे में जो एकाएक जागता है
और दूर सागर की घुरघुराहट-जैसी चुप
सुनता है
वह निपट अकेला होता है।
अन्धकार में जागनेवाले सभी अकेले होते हैं।

पर जो यों ही सहमी हुई रात में
थके सहमे सियार की हकलाती हुआँ-हुआँ-सी
हवाई हमले के भोंपू की आवाज़ से
एकाएक जगा दिया जाता है
वह और भी अकेला होता है:
और जब वह घर से बाहर निकल कर
सागर की घुरघुराहट-जैसे चुप
घनी रात के घुप अन्धेरे में
घिर जाता है
तब वह अकेले के साथ
मामूली भी हो जाता है।

घुप रात के
चुप सन्नाटे में
अकेलापन
और मामूलियत:
इसे अचानक जगाया गया
हर आदमी
अपनी नियति पहचानता है।

वही हम हैं:
घुप अन्धेरे में
सरसराहटें सुनते हुए
अकेले
और मामूली।

न होते अकेले
तो डरते।
न होते मामूली
तो घबराते।
पर अकेले होने और साथ ही मामूली होने में
एकाएक
अन्धेरा हमारी मुट्ठी में आ जाता है
और वह अनपहचानी सुरसुराहट
एक सन्देश बन जाती है
जिसे हर मामूली अकेला
अकेलेपन और मामूलियत की सैकड़ों सदियों से जानता है:
कि वह एक
बच जाता है;
वही
अनश्वर है।

मामूली और अकेला:
उस घुप अंधेरे में
मेर भीतर से सैकड़ों घुसपैठिए
आग लगाते हुए गुज़र जाते हैं—
पर उसी में
मैं उन सब की ज़िन्दगी जीता हूँ
जिन्होंने दुश्मन के टैंक तोड़े
जिन्होंने बममार विमान गिराए
जिन्होंने राहों में बिछाई गईं विस्फोटक
सुरंगे समेटीं,
जो गिरे और प्रतीक्षा में रह कर भी उठाए नहीं गए,
पथरा गए,
जो खेत रहे,
जिन्होंने वीर कर्मों के लिए सम्मान पाया—
और मैं उन सब की भी ज़िन्दगी जीता हूँ
जिन के नामहीन, स्वरहीन, अप्रत्याशित, अतर्कित भी
आत्म-त्याग ने
इन वीरों को
अपने जाज्वल्यमान कर्मों का
अवसर दिया।

और यों
इन नामहीनों की ज़िन्दगी जीता हुआ मैं
वहीं लौट आता हूँ जहाँ मैं होता हूँ जब मैं जागता हूँ—
मामूली और अकेला
मैं अंधेरे के घुप में एक प्रकाश से घिर जाता हूँ—
मैं, जो नींव की ईंट हूँ:
सुरसुराते चुप में एक अलौकिक संगीत से गूंज
उठता हूँ
मैं जो सधा हुआ तार हूँ:
मैं, मामूली, अकेला, दुर्दम, अनश्वर—
मैं, जो हम सब हूँ।

तब वह ठिठुरे सियार की रिरियाती पुकार
एक स्पष्ट, तेज़, आश्वस्त गूंजती और गुंजाती हुई
एकसार आवाज़ बन जाती है
मेरा अकेलापन एक समूह में विलय हो जाता है
जिस के हर सदस्य का एक बंधा हुआ कर्त्तव्य है
जिसे वह दृढ़ता से कर रहा क्योंकि वह उसके
जीवन की बुनियाद है,
और मेरी मामूलियत एक सामर्थ्य, एक गौरव,
एक संकल्प में बदल जाती है
जिस में मैं करोड़ों का साथी हूँ:
रात फिर भी होगी या हो सकती है
पर मैं जानता हूँ कि भोर होगा
और उस में हम सब
संकल्प से बंधे, सामर्थ्य से भरे और गौरव से
घिरे हुए हम सब
अपने उन कामों में जमें होंगे
जिन से हम जीते हैं
जिन से हमारा देश पलता है
जिन से हमारा राष्ट्र रूप लेता है—
वयस्क, स्वाधीन, सबल, प्रतिभा-मण्डित, अमर—
और हमारी तरह अकेला—क्योंकि अद्वितीय...

इस से क्या
कि सवेरे हम में से एक
साइकल ले कर दिन-भर के लिए क़लम घिसने जाएगा
और एक दूसरा झाबा ले कर तरकारी बेचने
और एक तीसरा झल्ली लेकर ढुलाई करने—
मिट्टी की, या दूसरों के ख़रीदे फल-मेवे और कपड़ों की—
और एक चौथा मोटर में बैठता हुआ चपरासी से फाइलें
उठवाएगा—
एक कोई बीमार बच्चे को सहलाता हुआ आश्वासन
देगा—'देखो,
सका तो ज़रूर ले आऊँगा'—
और एक कोई आश्वासन की असारता जानता हुआ भी
मुसकरा कर कहेगा—
'हाँ, ज़रूर, भूलना मत!'
इस से क्या कि एक की कमर झुकी होगी
और एक उमंग से गा रहा होगा—'मोसे गंगा के पार...'
और एक के चश्मे का काँच टूटा होगा—
और एक के बस्ते में स्कूल की किताबें आधी से
अधिक फटी हुई होंगी?
एक के कुरते की कुहनियाँ छिदी होंगी,
एक के निकर में बटनों का स्थान एक आलपिन
ने लिया होगा,
एक के हाथ की पोटली में गए दिन के सवेरे के
रोट का टुकड़ा होगा,
एक के हाथ की जेब में सिगरेट की महकती डिबिया
और लासे की मीठी टिकियाँ
जिस से वह दिन-भर मुँह से लचकीले बुलबुले निकाला करेगा
और फिर वापस खींच लिया करेगा,
एक ने गालों से गए दिन की नक़ली रंगत नए दिन की
नक़ली बालाई से उतारी होगी,
और एक ने चेहरे पर उबटन की जगह पसीने-धूल की
लीकों को हथेली की पुश्त से और लम्बा कर लिया होगा,
और एक के हाथों पर बूट-पॉलिश की महक और
रंगत की लिखत
दिन-भर के लिए आशा का पट्टा होगी?
इस सब से क्या
उस सब से क्या
किसी सबसे क्या
जब कि अकेलेपन में
एक व्याप्त मामूलीपन का स्पन्दन है
और वह व्याप्त मामूलीपन एक डोर है
जिस में हम सब
हर अकेली रात के अंधेरे में
एक सम्बन्ध और सामर्थ्य और गौरव की लड़ी में बंधते हैं—
हम, हम, हम, हम भारतवासी?

सितम्बर १९६५

गृहस्थ
कि तुम
मेरा घर हो
यह मैं उस घर में रहते-रहते
बार-बार भूल जाता हूँ
या यों कहूँ कि याद ही कभी-कभी करता हूँ:
(जैसे कि यह
कि मैं साँस लेता हूँ:)
पर यह
कि तुम उस मेरे घर की
एक मात्र खिड़की हो
जिस में से मैं दुनिया को, जीवन को,
प्रकाश को देखता हूँ, पहचानता हूँ,
—जिस में से मैं रूप, सुर, बास, रस
पाता और पीता हूँ—
जो वस्तुएँ हैं, उन के अस्तित्व को छूता हूँ,
—जिस में से ही
मैं उस सब को भोगता हूँ जिस के सहारे मैं जीता हूँ
—जिस में से उलीच कर मैं
अपने ही होने के द्रव को अपने में भरता हूँ—
यह मैं कभी नहीं भूलता:
क्योंकि उसी खिड़की में से हाथ बढ़ा कर
मैं अपनी अस्मिता को पकड़े हूँ—
कैसी कड़ी कौली में जकड़े हूँ—
और तुम—तुम्हीं मेरा वह मेरा समर्थ हाथ हो
तुम जो सोते-जागते, जाने-अनजाने
मेरे साथ हो।
जैसे जब से तारा देखा

क्या दिया-लिया?
जैसे
जब तारा देखा
सद्यःउदित
—शुक्र, स्वाति, लुब्धक—
कभी क्षण-भर
यह बिसर गया
मैं मिट्टी हूँ;
जब से प्यार किया,
जब भी उभरा यह बोध
कि तुम प्रिय हो—
सद्यःसाक्षात् हुआ—
सहसा
देने के अहंकार
पाने की ईहा से
होने के अपनेपन
(एकाकीपन!) से
उबर गया।
जब-जब यों भूला,
धुल कर मंज कर
एकाकी से एक हुआ।
जिया।
सुनी हैं साँसें
हम सदा जो नहीं सुनते
साँस अपनी
या कि अपने ह्रदय की गति—
वह अकारण नहीं।
इन्हें सुनना है अकारण पकड़ जाना।
स्वयं अपने से
या कि अन्तःकरण में स्थित एक से।
उपस्थित दोनों सदा हैं,
है हमें यह ज्ञान, पर भरसक इसे हम
स्वयं अपने सामने आने नहीं देते।
ओट थोड़ी बने रहना ही भला है—
देवता से और अपने-आप से।

किन्तु मैं ने सुनी हैं साँसें
सुनी है ह्रदय की धड़कन
और, हाँ, पकड़ा गया हूँ
औचक, बार-बार।
देवता का नाम यों ही नहीं लूँगा:
पर जो दूसरा होता है—स्वयं मैं—
सदा मैंने यही पाया है कि वह
तुम हो:
कि जो-जो सुन पड़ी है साँस,
तुम्हारे बिम्ब को छूती बही है:
जो धड़कन ह्रदय की
चेतना में फूट आई है हठीली
नए अंकुर-सी—
तुम्हारे ध्यान से गूँथी हुई है।

यह लो
अभी फिर सुनने लगा मैं
साँस—अभी कुछ गरमाने लगी-सी—
ह्रदय-स्पन्दन तीव्रतर होता हुआ-सा।
लो
पकड़ देता हूँ—
संभालो।

साँस
स्पन्दन
ध्यान
और मेरा मुग्ध यह स्वीकार—
सब
(उस अजाने या अनाम देवता के बाद)
तुम्हारे हैं।

नाता-रिश्ता
तुम सतत
चिरन्तन छिने जाते हुए
क्षण का सुख हो—
(इसी में उस सुख की अलौकिकता है):
भाषा की पकड़ में से फिसली जाती हुई
भावना का अर्थ—
(वही तो अर्थ सनातन है):
वह सोने की कली जो उस अंजलि-भर रेत में थी जो
धो कर अलग करने में—
मुट्ठियों से फिसल कर नदी में बह गई—
(उसी अकाल, अकूल नदी में जिस में से फिर
अंजलि भरेगी
और फिर सोने की कनी फिसल कर बह जाएगी।)

तुम सदा से
वह गान हो जिस की टेक-भर
गाने से रह गई।
मेरी वह फूस की मड़िया जिस का छप्पर तो
हवा के झोंकों के लिए रह गया
पर दीवारें सब बेमौसम की वर्षा में बह गईं...
यही सब हमारा नाता रिश्ता है—इसी में मैं हूँ
और तुम हो:
और इतनी ही बात है जो बार-बार कही गई
और हर बार कही जाने में ही कही जाने से रह गई।

तो यों, इस लिए
यहीं अकेले में
बिना शब्दों के
मेरे इस हठी गीत को जागने दो, गूंजने दो
मौन में लय हो जाने दो:
यहीं
जहाँ कोई देखता-सुनता नहीं
केवल मरु का रेत-लदा झोंका
डँसता है और फिर एक किरकिरी
हँसी हँसता बढ़ जाता है—
यहीं
जहाँ रवि तपता है
और अपनी ही तपन से जनी धूल-कनी की
यवनिका में झपता है—
यहीं
जहाँ सब कुछ दीखता है,
और सब रंग सोख लिए गए हैं
इस लिए हर कोई सीखता है कि
सब कुछ अन्धा है।
जहाँ सब कुछ साँय-साँय गूंजता है
और निरे शोर में संयत स्वर धोखे से
लड़खड़ा कर झड़ जाता है।


यहीं, यहीं और अभी
इस सधे सन्धि-क्षण में
इस नए जनमे, नए जागे,
अपूर्व, अद्वितीय—अभागे
मेरे पुण्यगीत को
अपने अन्तःशून्य में ही तन्मय हो जाने दो—
यों अपने को पाने दो!

वही, वैसे ही अपने को पा ले, नहीं तो
और मैंने कब, कहाँ तुम्हें पाया है?
हाँ—बातों के बीच की चुप्पियों में
हँसी में उलझ कर अनसुनी हो गई आहों में
भीड़ों में भटकी हुई अनाथ आँखों में
तीर्थों की पगडण्डियों में
बरसों पहले गुज़रे हुए यात्रियों की
दाल-बाटी की बची-बुझी राखों में!

उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ—
उस मौन की भाषा मैं गाता हूँ:
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ—
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ!

होने का सागर
सागर जो गाता है
वह अर्थ से परे है—
वह तो अर्थ को टेर रहा है।

हमारा ज्ञान जहाँ तक जाता है,
जो अर्थ हमें बहलाता (कि सहलाता) है
वह सागर में नहीं,
हमारी मछली में है
जिसे सभी दिशा में
सागर घेर रहा है।

आह, यह होने का अन्तहीन, अर्थहीन सागर
जो देता है सीमाहीन अवकाश
जानने की हमारी गति को:
आह यह जीवित की लघु विद्युद्-द्रुत सोन-मछली
केवल मात्र जिस की बलखाती गति से
हम सागर को नापते क्या, पहचानते भी हैं!

युद्ध-विराम
नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है।

अब भी
ये रौंदे हुए खेत
हमारी अवरूद्ध जिजिविषा के
सहमे हुए साक्षी हैं;
अब भी
ये दलदल में फँसी हुई मौत की मशीनें
उन के अमानवी लोभ के
कुण्ठित, अशमित प्रेत:
अब भी
हमारे देवदारु-वनों की छाँहों में
पहाड़ी खोहों में
चट्टानों की ओट में
वनैली ख़ूँख़ार आँखें
घात में बैठी हैं:
अब भी
दूर अध-दिखती ऊँचाइयों पर
जमे हैं गिद्ध
प्रतीक्षा के बोझ से
गरदनें झुकाए हुए।
नहीं अभी कुछ नहीं बदला है:
इस अनोखी रंगशाला में
नाटक का अन्तराल मानों
समय है सिनेमा का:
कितनी रील?
कितनी क़िस्तें?
कितनी मोहलत?

कितनी देर
जलते गाँवों की चिरायंध के बदले
तम्बाकू के धुएँ का सहारा?
कितनी देर
चाय और वाह-वाही की
चिकनी सहलाहट में
रुकेगा कारवाँ हमारा?

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है:
हिम-चोटियों पर छाए हुए बादल
केवल परदा हैं—
विराम है, पर वहाँ राम नहीं हैं:
सिंचाई की नहरों के टूटे हुए कगारों पर
बाँस की टट्टियाँ धोखे की हैं:
भूख को मिटाने के मानवी दायित्व का स्वीकार नहीं,
मिटाने की भूख की लोलुप फुफकार ही
उन के पार है।

बन्दूक़ के कुन्दे से
हल के हत्थे की छुअन
हमें अभी भी अधिक चिकनी लगती,
संगीन की धार से
हल के फाल की चमक
अब भी अधिक शीतल,
और हम मान लेते कि उधर भी
मानव मानव था और है,
उधर भी बच्चे किलकते और नारियाँ दुलराती हैं,
उधर भी मेहनत की सूखी रोटी की बरकत
लूट की बोटियों से अधिक है—
पर
अभी कुछ नहीं बदला है
क्योंकि उधर का निज़ाम
अभी उधर के किसान को
नहीं देता
आज़ादी
आत्मनिर्णय
आराम
ईमानदारी का अधिकार!

नहीं, अभी कुछ नहीं बदला है:
कुछ नहीं रुका है।
अब भी हमारी धरती पर
बैर की जलती पगडण्डियाँ दिख जाती हैं,
अब भी हमारे आकाश पर
धुएँ की रेखाएँ अन्धी
चुनौती लिख जाती हैं:
अभी कुछ नहीं चुका है।
देश के जन-जन का
यह स्नेह और विश्वास
जो हमें बताता है
कि हम भारत के लाल हैं—
वही हमें यह भी याद दिलाता है
कि हमीं इस पुण्य-भू के
क्षिति-सीमान्त के धीर, दृढ़व्रती दिक्पाल हैं।

हमें बल दो, देशवासियों,
क्योंकि तुम बल हो:
तेज दो, जो तेजस् हो,
ओज दो, जो ओजस् हो,
क्षमा दो, सहिष्णुता दो, तप दो
हमें ज्योति दो, देशवासियों,
हमें कर्म-कौशल दो:
क्योंकि अभी कुछ नहीं बदला है,
अभी कुछ नहीं बदला है...

सितम्बर १९६५
स्मारक
ओ बीच की पीढ़ी के लोगो,
तुम युवतर पीढ़ी से कहते हो:
तुम घृणा के धुन्ध में जनमे थे
तुम आज भी घृणा करो।
गली-गली, नुक्कड़-चौराहे
बचे खड़े खंडहरों
या कि युद्ध के बाद रचे स्मारक-स्तूपों को देख-देख
फिर याद करो
वह घृणा
धुन्ध
कालिमा—
वही घृणा फिर ह्रदय धरो!

पर जिस तुमसे पहले की पीढ़ी ने
उन्हें जना
क्या उन से, ओ बिचौलियो! यह पूछा था
वे क्या मरे घृणा में?
खंडहर होंगे ढूह घृणा के
और घृणा के स्मारक होंगे नए तुम्हारे थम्भ,
चौर, गुम्बद, मीनारें,
पर वे जो मरे
घृणा में नहीं, प्यार में मरे!
जिस मिट्टी को दाब रहे हैं ये स्मारक सदर्प,
चप्पा-चप्पा उस का, कनी-कनी साक्षी है
उस अनन्य एकान्त प्यार का
जो कि घृणा से उपजे हर संकट को काट गया!

तुम जो खुद उन के नाम के बल पर जीते हो,
क्या वह बल घृणा को ही देना चाहते हो—
उन के नाम का बल, उन का बल,
जिन्होंने अपने प्राण
घृणा को नहीं, प्यार को दिए,
स्मारकों को नहीं, मिट्टी को दिए,
मोल आँकनेवालों की नहीं, मूल्यों को दिए...

ये स्मारक—नए-पुरान ढूह—नहीं,
वह मिट्टी ही है पूज्य:
प्यार की मिट्टी
जिस से सरजन होता है
मूल्यों का
पीढ़ी-दर-पीढ़ी!

वोल्गोग्राद (स्तालिनग्राद)
जून १९६६
महानगर: कुहरा
झँझरे मटमैले प्रकाश के कन्थे
जहाँ-तहाँ कुहरे में लटक रहे हैं।
रंग-बिरंगी हर थिगली
संसार एक।

सीली सड़कों पर कहराती ठिलती जाती
ये अंगार-नैन गाड़ियाँ
बनाती जाती है आवर्त्त-विवर्त्त
अनवरत बांध रहीं
उन अधर-टँके सब संसारों को
एक कुंडली में, जिस पर
होगा आसन
किस निराधार नारायण का?

ये कितने निराधार नर
क्षण-भर हर चादर की ओट उझक
तिर-घिर आते हैं
एक पिघलती सुलगन के घेरे में:
ऊभ-चूभ कर
पुनः डूबने को—
चादर की ओट
या कि गाड़ियों की
अंगार-कगारी तमोनदी में।

ओ नर! ओ नारायण!
उभय-बन्ध ओ निराधार!
तुम्हें नहीं तो किसे और
तुम्हें नहीं तो किसे और
मैं दूँ
अपने को
(जो भी मैं हूँ)?
तुम जिस ने तोड़ा है
मेरे हर झूठे सपने को—
जिस ने बेपनाह
मुझे झंझोड़ा है
जाग-जाग कर
तकने को
आग-सी नंगी, निर्ममत्व
औ' दुस्सह
सच्चाई को—
सदा आँच में तपने को—
तुम, ओ एक, निःसंग, अकेले,
मानव,
तुम को—मेरे भाई को!

हम नदी के साथ-साथ

हम नदी के साथ-साथ
सागर की ओर गए
पर नदी सागर में मिली
हम छोर रहे:
नारियल के खड़े तने हमें
लहरों से अलगाते रहे
बालू के ढूहों से जहाँ-तहाँ चिपटे
रंग-बिरंग तृण-फूल-शूल
हमारा मन उलझाते रहे
नदी की नाव
न जाने कब खुल गई
नदी ही सागर में घुल गई
हमारी ही गाँठ न खुली
दीठ न धुली
हम फिर, लौट कर फिर गली-गली
अपनी पुरानी अस्ति की टोह में भरमाते रहे।

पेरियार
बकरी के बच्चे की मिमियाहट पर तिरता
वह चम्पे का फूल
काँपता गिरता
पल-भर घिरता
है कगार की ओट
भँवर की किरण-गर्भ
कलसी में:
अर्द्धमण्डली खींच
निकल कर बह जाता है।

और घाट की सँकरी सीढ़ी पर
घुटने पर टेक गगरिया
खड़ी बहुरिया
थिर पलकों को एकाएक झुका,
कर ओट भँवरती धूमिल बिजली को,
फिर उठा बोझ
चढ़ने लगती है।

ओ साँस! समय जो कुछ लावे
सब सह जाता है:
दिन, पल, छिन—
इन की झांझर में जीवन
कहा अनकहा रह जाता है।
बहू हो गई ओझल:
नदी पर के दोपहरी सन्नाटे ने फिर
बढ़ कर इस कछार की कौली भर ली:
वेणी आँचल की रेती पर
झरती बून्दों की
लहर-डोर थामे, ओ मन!
तू बढ़ता कहाँ जाएगा?
________________________________________

(पेरियार केरल की एक नदी है जिसके किनारे कालडि में शंकराचार्य का जन्म हुआ था।)
फ़ोकिस में ओदिपौस
राही, चौराहों पर बचना!
राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी
जिस को जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी
पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में
अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं:
उन की ललकारों से आदिम रूद्र-भाव जग आते हैं,
कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ
और पुराने मानस की धुंधली घाटी की अन्ध गुफा को
एकाएक गुंजा जाती हैं;
काली आदिम सत्ताएँ नागिन-सी
कुचले शीश उठाती हैं—
राही
शापों की गुंजलक में बंध जाता है:
फिर
जिस पाप-कर्म से वह आजीवन भागा था,
वह एकाएक
अनिच्छुक हाथों से सध जाता है।

राही चौराहों से बचना!
वहाँ ठूँठ पेड़ों की ओट
घात बैठी रहती हैं
जीर्ण रूढ़ियाँ
हवा में मंडराते संचित अनिष्ट, उन्माद, भ्रान्तियाँ—
जो सब, जो सब
राही के पद-रव से ही बल पा,
सहसा कस आती हैं
बिछे, तने, झूले फन्दों-सी बेपनाह!
राही, चौराहों पर
बचना।

देल्फ़ी, ग्रीस]
कालेमेग्दान
इधर
परकोटे और भीतरी दीवार के बीच
लम्बी खाई में
ढंग से सँवरे हुए
पिछले महायुद्ध के हथियारों के ढूह:
रूण्डे टैंक, टुण्डी तोपें, नकचिपटे गोला-फेंक—
सब की पपोटे-रहित अन्धी आँखें
ताक रहीं आकाश।

उधर
परकोटे और दीवार के बीच टीले पर
बेढंगे झंखाड़ों से अधढँके
मठ और गिरजाघर के खंडहर
चौकाठ-रहित खिड़कियों से उमड़ता अंधियार
मनुष्यों को मानों खोजता हो धरती पर...

ईश्वर रे, मेर बेचारे,
तेरे कौन रहे अधिक हत्यारे?

बेओग्राद, युगोस्लाविया]
________________________________________

कालेमेग्दान: सावा और दोगउ (डैन्यूब) के संगम पर प्राचान दुर्ग, जिस के भीतर अब अस्त्र-संग्रहालय भी है।
यात्री
प्रबुद्ध ने कहा: मन्दिरों में न जा, न जा!
वे हिन्दू हों, बौद्ध हों, जैन हों,
मुस्लिम हों, मसीही हों, और हों,
देवता उनमें जो विराजें
परुष हों, पुरुष हों, मधुर हों, करूण हों
कराल हों, स्त्रैण हों,
अमूर्त्त हों
(या धूर्त हों)
किसी की आरती न कर, किसी के लिए रूप-थालों में
धूप-दीप-नैवेद्य, कुछ न सजा—
न धन, न मन (नाम-रूप सब तन के)
न जुटा पाथेय कुछ—
मन्दिरों में न जा, न जा!

बोधिसत्त्व ने कहा: तीर्थों को खोज चला है,
चलता जा
मांग कि यात्रा लम्बी हो;
पथ ही जैसा-तैसा पाथेय जुटाता चले;
परिग्रह के पत्ते ज्यों झरते त्यों ज्ञान के बीज तू पाता चले,
मांग की यात्रान्त न हो;
पथ पर ही भीतर से पकता
तू बाहर सहज गलता जा।
आज बोधि का धीमा स्वर सुना:
तीर्थों में न भी हो पानी
—या मन्दिरों में श्रद्धा, या देवता में सत्ता—
पर यात्रा में एक बात तो तूने पहचानी:
कि तीर्थों को तेरी ही तितीर्षा गढ़ती रही।
मन्दिरों में कहाँ कुछ होता है?
तेरी ही गति वहाँ पूजा पर चढ़ती रही,
वही है मन्दिर का ऐश्वर्य, वही श्रद्धा की भी,
मूर्ति की भी अर्थवत्ता।

पग-पग पर तीर्थ है,
मन्दिर भी बहुतेरे हैं;
तू जितनी करे परिकम्मा, जितने लगा फेरे
मन्दिर से, तीर्थ से, यात्रा से,
हर पग से, हर साँस से
कुछ मिलेगा, अवश्य मिलेगा,
पर उतना ही जितने का तू है अपने भीतर से दानी!

स्वप्न
धुएँ का काला शोर:
भाप के अग्निगर्भ बादल:
बिना ठोस रपटन में उगते, बढ़ते, फूलते
अन्तहीन कुकुरमुत्ते,
न-कुछ की फाँक से झाँक-झाँक, झुक कर
झपटने को बढ़ रहे भीमकाय कुत्ते।
अग्नि-गर्भ फैल कर सब लील लेता है।
केवल एक तेज—एक दीप्ति:
न उस का, न सपने का कोई ओर-छोर:
बिना चौंके पाता हूँ कि जाग गया हूँ।
भोर...

प्रस्थान से पहले
हमेशा
प्रस्थान से पहले का
वह डरावना क्षण
जिस में सब कुछ थम जाता है
और रुकने में
रीता हो जाता है:
गाड़ियाँ, बातें, इशारे
आँखों की टकराहटें,
साँस:
समय की फाँस अटक जाती है
(जीवन की गले में)
हमेशा, हमेशा, हमेशा...।

और हमेशा विदाई के पहले का
वह और भी डरावना क्षण
जिस में सारे अपनापे
सुन्न हो जाते हैं
एक परायेपन की
चट्टान के नीचे:
प्यार की मींड़दार पुकारें
सम उक्तियों में गूंज जानेवाली
गुंथी उंगलियों, विषम, घनी साँसों की यादें,
कनखियाँ, सहलाहटें,
कनबतियाँ,
अस्पर्श चुम्बन,
अनकही आपस में जानी प्रतीक्षाएँ,
खुली आँखों की वापियों में और गहरे
सहसा खुल जाने वाले
पिघली चिनगारी को ओट रखते द्वार—
खिलने-सिमटने की चढ़ती-उतरती लहरें,
कँपकपियाँ, हल्के दुलार...
काल की गाँस कर देती है
अपने को अपना ही अजनबी—
हमेशा, हमेशा, हमेशा...
विदा के चौराहे पर: अनुचिन्तन
यह एक और घर
पीछे छूट गया,
एक और भ्रम
जो जब तक मीठा था
टूट गया।

कोई अपना नहीं कि
केवल सब अपने हैं:
हैं बीच-बीच में अंतराल
जिन में हैं झीने जाल
मिलानेवाले कुछ, कुछ दूरी और दिखानेवाले
पर सच में
सब सपने हैं।

पथ लम्बा है: मानो तो वही मधुर है
या मत मानो तो वह भी सच्चा है।
यों सच्चे हैं भ्रम भी, सपने भी
सच्चे हैं अजनबी—और अपने भी।

देश-देश की रंग-रंग की मिट्टी है:
हर दिक् का अपना-अपना है आलोक-स्रोत
दिक्काल-जाल के पार विशद निरवधि सूने में
फहराता पाल चेतना की, बढ़ता जाता है प्राण-पोत।

हैं घाट? स्वयं मैं क्या हूँ? है बाट? देखता हूँ मैं ही।
पतवार? वही जो एकरूप है सब से—
इयत्ता का विराट्।

यों घर—जो पीछे छूटा था—
वह दूर पार फिर बनता है
यों भ्रम—यों सपना—यों चित्-सत्य
लीक-लीक पथ के डोरों से
नया जाल फिर तनता है...
काँच के पीछे की मछलियाँ
उधर उस काँच के पीछे पानी में
ये जो कोई मछलियाँ
बे-आवाज़ खिसलती हैं
उनमें से किसी एक को
अभी हमीं में से कोई खा जाएगा,
जल्दी से पैसे चुकाएगा—
चला जाएगा।

फिर इधर इस काँच के पीछे कोई दूसरा आएगा,
पैसे खनकाएगा,
रुपए की परचियाँ खिसलाएगा,
बिना किसी जल्दी के समेटेगा, जेब में सरकाएगा
दाम देगा नहीं, वसूलेगा
और फिर हम सब को—एक-एक को—एक साथ
और बड़े इत्मीनान से धीरे-धीरे खाएगा
खाता चला जाएगा,
वैसी ही बे-झपक आँखों से ताकता हुआ
जैसी से ताकती हुई ये मछलियाँ
स्वयं खाई जाती हैं।

ज़िन्दगी के रेश्त्राँ में यही आपसदारी है
रिश्ता-नाता है—
कि कौन किस को खाता है।

हेमन्त का गीत
भर ली गई हैं पुआलें खलिहानों में:
तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें।
उतर चुके हैं अंगूर—गुच्छे के गुच्छे,
हो चुके पहली पेराई के मेले:
लाल हो कर काली भी पड़ गईं बग़ीचों में क़तारें: सूख
चली बेलें।

झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे
धूप से सोना-मढ़े भाप के छल्ले
वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा।...

अनदेखे लाद ले गया है अपनी झोली में
काल का गली छानता हुआ कबाड़ी
न जाने कितने दिन, कितने क्षण,
कितनी अन्तहीन अनकही और अधूरी कही बातें,
कितने संकेत, कितने स्पर्श-हर्ष,
उमंगें—अकुलाहटें;
सिहरनों में घुलती और साँसों से नापी हुई रातें
ठिठकनें, आहटें;
कितने कल्पना की आग में रूपायित हुए सपने,
कितना माल, जो पड़ा था तो मानो रद्दी था,
पर अब उस के हाथ चला गया तो सन्देह होता है
कहीं हम ठगे तो नहीं गए?

क्योंकि नहीं तो कहाँ है वह प्यार, कहाँ हो तुम, ओ मेरे
अपने,
कहाँ है वे हम, जिनका निरन्तर अपने को भूलना ही
जीना और होना था—
जहाँ अपने को राख-सा फूँक कर उड़ाते जाना
दोनों को पाना था?

(भर ली गई हैं पुआलें
खलिहानों में:
तोड़ लिए गए सब सेब: सूनी हैं डालें:)
रूपायित सपने तो गए भी (आख़िर सपने थे,
हम गए जाग), पर
क्या हुई वह रूपकल्पी आग?
(उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे,
हो चुके पेराई के मेले।
काली पड़ गईं क़तारें: लाल होकर सूख भी चली बेलें।)

रूपकल्पी आग!
(तोड़ लिए गए हैं सब सेब: सूनी हैं डालें...)
आधी रात राख में कभी सुलग जाती हैं केवल सपने की
परछाइयाँ।
(खलिहानों में भर ली गई हैं पुआलें...)

पड़ाव: थके पैर: क्या भूख? नहीं। शीत? नहीं।
तो कुछ तो कहो? कुछ नहीं, आँखों की दीठ मुझे घेरे रहे,
कुछ और नहीं चाहिए—उसी में गरमाई है,
तृप्ति है, सहलाहट है, उनींदा है जो नींद से भी मीठा है...
दूर-दूर, छूईमुई-से, पर कितने तुम मेरे रहे...

भोर: चोरी से नहीं, अनजाने, अचानक
मैंने तुम्हें झरने पर देखा।
आह! ऐसे धुलते हैं तार सोने के,
ऐसे मंजता है कुन्दन!
ऐसे, मानो ओस के प्रभा-मण्डल से घिरा हुआ
पार की धूप में चमक उठता है
सवेरे का फूल!
अरे ओ ढीठ पवन, मत कँपा इन वल्ली को
नई धूप में विकसने दे—
छोटी-छोटी लहरों को
मूंगे की-सी झाँई देते
पाँवों की छाँव में मेरा मन बसने दे।
(झील की कोखों से जहाँ झाँकते थे
भाप के सोना-मढ़े छल्ले
वहाँ अब मंडराता है घना नीला कुहरा...)

हिम-शिखर की तलहटी में
निर्जन झुरमुट,
बीच में तिरछी किरणों-बुना आसन:
आस-पास साँस रोके-सा झुटपुट।
एक लय है ऊपर, पत्तियों के मर्मर की,
एक लय भीतर, घनी, तीव्रतर साँसों की—
कैसा है यह संगीत जो पहले कभी सुना नहीं!
सुनो! नहीं अभी नहीं—सुना तो
सब दूसरा हो जाएगा!
तो दूसरा ही हो—वरंच दूसरा तो हो चुका!—
क्या अभी वही हो तुम? क्या वही हूँ—क्या हूँ भी मैं?
यों—क्या जाने क्या हमसे बना, क्या बना नहीं;
किरणों का आसन सिमट गया,
सिहरन बची रही;
पीछे झुटपुटे ने झुरमुट से
न जाने क्या कही या नहीं कही!
पर हिम-शिखर हमारे साथ आया
बल्कि चांदनी का एक मौर लाया
जो उसने तुम्हारे गले डाल दिया
और जिसे मैं ताका किया, ताका किया
भोर तक:
जिसे छूने बढ़ी मेरी उंगलियाँ तो सकुचीं,
फिर रोमावली के साथ बह आईं
भुजा से तुम्हारी उंगलियों के छोर तक—
फिर गुंथे हाथ
और गूंजा संगीत वही
फिर एक बार—
दुर्निवार...
(काली पड़ गईं क़तारें: लाल हो कर सूख भी चलीं बेलें।
उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे—
हो चुके पेराई के मेले।)

आग के कितने रूप
बसे हैं मेरे मन में!
एक आग जो पकाती है
एक जो मीठा घाम है,
एक जो आँखों में सुलगती है
एक जो झुलसाती है
एक जो साक्षी है
एक जो सहलाती है, अदृश्य बल देती है, जो न हो तो हम
रीते हैं,
एक जो उलटे धौंकनी को चलाती है, जिसे हम हर साँस
के साथ पीते हैं,
एक जिसकी सोंधी खुदबुद बताती है
कि सपने जहाँ हैं, हैं,
पर एक धरती है जिस पर हम टिके हैं, चलते हैं, जीते हैं...

आग के कितने-कितने रूप!
ये सभी हमने जलाई थीं
साथ-साथ,
सब में हम जले थे,
साथ-साथ,
सोचा था कि ऐसा होगा,
चाहा था कि ऐसा हो,
—पर क्या चाहा था?
कि एक मीठी सिगड़ी हो हमारे हाथों में
या कि एक जलता टीका हो हमारे माथों पर?
(झील की कोखों में जमता है घना नीला कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटे को करता और गहरा...)
हमारे मिले हाथों के सम्पुट में
हम ने देखा जीवन को पनपते,
कन्धे से कन्धा जोड़, हाथ गहे
हमने सहा
ओठों पर अन्तिम साँसों को कँपते—
आग का साक्ष्य? कितने साक्ष्य!
हमारा निजी अनुभव का साक्ष्य
जीवन-मरण का!

(उतर चुके अंगूर—गुच्छे के गुच्छे,
तोड़ लिए गए हैं सब सेब, सूनी हैं डालें...
हो चुके पहली पेराई के मेले
लाल होकर काली भी पड़ गई बग़ीचों की क़तारें:
उतर चुके अंगूर: सूख गईं बेलें।)
काली पड़ गई आग। धुंधली पड़ गई साख
उस की और हमारी!
थक जाती है याद भी ढोते, उड़ाते, परत पर परत राख
जब तक कि मिले कहीं सुलगती चिनगारी!

झील की कोख से उमड़ कर फैल जाता है कुहरा
मनहूस, बाँझ सन्नाटा होता जाता है और, और गहरा!
सूख चुकीं घासें, नुच चुके पेड़-पात,
नंगी हो चट्टानें भी धुन्ध में दुबक गईं।
और अब कहाँ है प्रकाश, या आकाश?
वही मनहूसियत उस पर भी पुत गई।
रात, रात, रात, रात,
ठिठुरन—संवत्सर के मरने की कालिमा
सब कुछ ढँक गई...

जो रचा नहीं
दिया सो दिया
उस का गर्व क्या, उसे याद भी फिर किया नहीं।
पर अब क्या करूँ
कि पास और कुछ बचा नहीं
सिवा इस दर्द के
जो मुझ से बड़ा है—इतना बड़ा है कि पचा नहीं—
बल्कि मुझ से अँचा नहीं—
इसे कहाँ धरूँ
जिसे देनेवाला भी मैं कौन हूँ
क्योंकि वह तो एक सच है
जिसें मैं तो क्या रचता—
जो मुझी में अभी पूरा रचा नहीं!
एक दिन चुक जाएगी ही बात
बात है:
चुकती रहेगी
एक दिन चुक जाएगी ही—बात।
जब चुक चले तब
उस विन्दु पर
जो मैं बचूँ
(मैं बचूँगा ही!)
उस को मैं कहूँ—
इस मोह में अब और कब तक रहूँ?

चुक रहा हूँ मैं।
स्वयं जब चुक चलूँ
तब भी बच रहे जो बात—
(बात ही तो रहेगी!)
उसी को कहूँ:
यह सम्भावना—
यह नियति—कवि की
सहूँ।
उतना भर कहूँ,:
—इतना कर सकूँ
जब तक चुकूँ!
मन बहुत सोचता है
मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,
पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाए!

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,
खुली घासों में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदीः पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास न हो—
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!

मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?
धड़कन धड़कन
धड़कन धड़कन धड़कन—
दाईं, बाईं, कौन सी आँख की फड़कन—
मीठी कड़वी तीखी सीठी
कसक-किरकिरी किन यादों की रड़कन?
उँह! कुछ नहीं, नशे के झोंके-से में
स्मृति के शीशे की तड़कन!
जिस में मैं तिरता हूँ

कुछ है
जिस में मैं तिरता हूँ।
जब कि आस-पास
न जाने क्या-क्या झिरता है
जिसे देख-देख मैं ही मानों
कनी-कनी किरता हूँ।

ये जो डूब रहे हैं धीरे-धीरे
यादों के खंडहर हैं।
अब मैं नहीं जानता किधर द्वार हैं
किधर आंगन, खिड़कियाँ, झरोखे;
पर ये सब मेरे ही बनाए हुए घर हैं।

इतना तो अब भी है
कि चाहूँ तो पहचान लूँ
कि कौन इसमें बसते थे,
(मैंने ही तो बसाए थे,
मेरे इशारों पर हँसते थे),
पर उन के चेहरों और मेरी चाहों के बीच
आह, कितने पुराने, अन्धे, पर आज भी अथाह डर हैं!

डूबते हैं, डूब जाने दो।
चेहरों और घरों के साथ
खाइयों और डरों को भी
लय पाने दो।
यह जो नदी है, यों तो मेरी अनजानी है
इतनी-भर देखी है कि पहचानूँ, बहुत पुरानी है।

डूबे, सब डूब जाए,
तब एक जो बुल्ला उठेगा,
उभर कर फूटेगा,
और उस की रंगीनी का रहेगा—
क्या? कुछ नहीं!
तभी तो मेरा यह बचा हुआ भरम टूटेगा
यह सँचा हुआ, पर सच में सत्त्वहीन
अहम् ढहेगा, ढहेगा।

सम्पराय

हाँ, भाई,
वह राह
मुझे मिली थी;
कुहरे में दी जैसे मुझे दिखाई
मैंने नापी: धीर, अधीर, सहज डगमग, द्रुत, धीरे—
आज जहाँ हूँ, वही वहाँ तक लाई।

यहाँ चुक गई डगर:
उलहना नहीं, मानता हूँ पर
आज वहीं हूँ जहाँ कभी था—
एक कुहासे की देहरी पर:
दीख रहा है
पार
रूप—रूपायमान—रूपायित—
पहचाना कुछ: जिधर फिर बढ़ूँ—
धीर, अधीर, सहज, डगमग, द्रुत, धीरे,
हठ धर,
मन में भर
उछाह!

कौन कभी फिर लौट वहाँ आया, जिस पथ से
एक बार वह पार गया है?
नहीं, वही वहीं है कहीं और:
यह ठौर
नया है उतना ही जितनी यह राह,
कुहासा, देश-दिशा, यह समय-बिन्दु,
यह मैं भी:
सभी नया है—
नाता ही एक नहीं बदला:
वह एक खोजता राही
एक कुहासे की देहरी पर
लीक धरे पहचाने कुछ-कुछ की
बढ़ता हठ धर
अनजाने कुछ की ओर
भरे मन में उत्साह अतर्कित, निराधार!

रूप,
रूपायमान,
रूपायित।
यों गृहीत,
पहचाना।
फिर इस लिए अनृत
एकान्त झूठ!

वह कैसे होती यात्रा
जो पहुँचा कर चुक जाती?
झूठा होगा वह तीर्थ
सरोवर, नदी, महासागर का जो किनारा-भर होता।
जहाँ से अपने ही संकल्प
न बन जाते ललकार
नए अनजाने पानी में घुसने की।
ये सम्मुख फूल बहे जाते हैं:
पर क्या जाने वे किस के हैं?
क्या जाने वह डूबा, तैरा,
या तट पर ही फूल डाल कर लौट गया?
या—क्या जाने?—ये फूल स्वयं उस की भस्मी के ही
प्रतीक हैं?

यह भी हो सकता है
कोई उस देहरी पर ही बैठ रहे:
जो आएँ उन्हें असीसे,
जाएँ तो, उन्हें बता दे वे पहचाने गलियारे
जो पार स्वयं वह कर आया।

हो सकता है: पर मेरे द्वारा नहीं—
अब नहीं।
मैं जिस देहरी पर हूँ
तीर्थ नहीं,
वह सम्पराय है।
हठ में कमी नहीं है,
मेरा संकल्प भी डगमग,
किन्तु (उलहना नहीं) मानता हूँ मैं—
मुझे पूछना है अब—और खोजता हूँ उस को जिस से
यह पूछ सकूँ—
'वह दीख रहा है पार मुझे,
पर बोलो,
उस तक जाने का क्या है उपाय—
है क्या उपाय?
रूप:
रूप,
रूपायमान,
रूपायित।
स्पृष्ट। अनृत।
प्रव्रजित!

और कहाँ तक यही अनुक्रम!
कितना और कुहासा
कितनी देहरियों पर कितनी ठोकर?
कितना हठ?
कितने-कितने मन—कितना उछाह?'

है राह!
कुहासे तक ही नहीं, पार देहरी के। है।
मैं हूँ तो वह भी है,
तीर्थाटन को निकला हूँ
कांधे बांधे हूँ लकड़ियाँ चिता की:
गाता जाता हूँ—
'है, पथ है:
वह जो रुक जाता है कूल-कूल पर बार-बार—
यों नहीं कि वह चुक जाता है:
पर तीर्थ यही तो होते हैं—
अनजाने—यद्यपि वांछित—सम्पराय:
हम होते ही रहते हैं वहाँ पार!'

अंगार

एक दिन रूक जाएगी जो लय
उसे अब और क्या सुनना?
व्यतिक्रम ही नियम हो तो
उसी की आग में से
बार-बार, बार-बार
मुझे अपने फूल हैं चुनना।
चिता मेरी है: दुख मेरा नहीं।
तुम्हारा भी बने क्यों, जिसे मैंने किया है प्यार?
तुम कभी रोना नहीं, मत
कभी सिर धुनना।
टूटता है जो उसी भी, हाँ, कहो संसार
पर जो टूट को भी टेक दे, ले धार, सहार,
उस अनन्त, उदार को
कैसे सकोगे भूल—
उसे, जिस को वह चिता की आग
है, होगी, हुताशन—
जिसे कुछ भी, कभी, कुछ से नहीं सकता मार—
वही लो, वही रखो साज-सँवार—
वह कभी बुझने न वाला
प्यार का अंगार!

फाल्गुन शुक्ला सप्तमी, सं० २०२२]

फ़ोकिस में ओदिपौस
राही, चौराहों पर बचना!
राहें यहाँ मिली हैं, बढ़ कर अलग-अलग हो जाएँगी
जिस को जो मंज़िल हो आगे-पीछे पाएँगी
पर इन चौराहों पर औचक एक झुटपुटे में
अनपहचाने पितर कभी मिल जाते हैं:
उन की ललकारों से आदिम रूद्र-भाव जग आते हैं,
कभी पुरानी सन्धि-वाणियाँ
और पुराने मानस की धुंधली घाटी की अन्ध गुफा को
एकाएक गुंजा जाती हैं;
काली आदिम सत्ताएँ नागिन-सी
कुचले शीश उठाती हैं—
राही
शापों की गुंजलक में बंध जाता है:
फिर
जिस पाप-कर्म से वह आजीवन भागा था,
वह एकाएक
अनिच्छुक हाथों से सध जाता है।

राही चौराहों से बचना!
वहाँ ठूँठ पेड़ों की ओट
घात बैठी रहती हैं
जीर्ण रूढ़ियाँ
हवा में मंडराते संचित अनिष्ट, उन्माद, भ्रान्तियाँ—
जो सब, जो सब
राही के पद-रव से ही बल पा,
सहसा कस आती हैं
बिछे, तने, झूले फन्दों-सी बेपनाह!
राही, चौराहों पर
बचना।

देल्फ़ी, ग्रीस]

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