Friday, December 18, 2009

मजरूह सुल्तानपुरी

कब तक मलूँ जबीं से उस संग-ए-दर को मैं
ऎ बेकसी संभाल, उठाता हूँ सर को मैं

किस किस को हाय, तेर तग़ाफ़ुल का दूँ जवाब
अक्सर तो रह गया हूँ झुका कर नज़र को मैं

अल्लाह रे वो आलम-ए-रुख्सत के देर तक
तकता रहा हूँ यूँ ही तेरी रेहगुज़र को मैं

ये शौक़-ए-कामयाब, ये तुम, ये फ़िज़ा, ये रात
कह दो तो आज रोक दूँ बढ़कर सहर को मैं








ख़त्म-ए-शोर-ए-तूफ़ाँ था दूर थी सियाही भी
दम के दम में अफ़साना थी मेरी तबाही भी
इल्तफ़ात समझूँ या बेरुख़ी कहूँ इस को
रह गैइ ख़लिश बन कर उसकी कमनिगाही भी
याद कर वो दिन जिस दिन तेरी सख़्त्गीरी पर
अश्क भर के उठी थी मेरी बेगुनाही भी
शम भी उजाला भी मैं ही अपनी महफ़िल का
मैं ही अपनी मंज़िल का राहबर भी राही भी
गुम्बदों से पलटी है अपनी ही सदा "मजरूह"
मस्जिदों में की जाके मैं ने दादख़्वाही भी









मुझे सहल हो गईं मंजिलें वो हवा के रुख भी बदल गये ।
तिरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गये ।

वो लजाये मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर,
उड़ी जुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज मचल गये ।

वही बात जो न वो कह सके मिरे शेर-ओ-नज़्मे आ गई,
वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दहे-शराब में ढ़ल गये ।

तुझे चश्मे-मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी-ए-बज्म है,
तुझे तश्मे-मस्त ख़बर भी है कि सब आबगीने पिघल गये ।

उन्हें कब के रास भी आ चुके तिरी बज्मे-नाज़े के हादिसे,
अब उठे कि तेरी नज़र फिरे जो गिरे थे गर के संभल गये ।

मिरे काम आ गई आख़िरश यही काविशें यही गर्दिशें,
बढी इस क़दर मिरी मंजिलें कि क़दम के खार निकल गये ।









मसर्रतों को ये अहले-हवस न खो देते
जो हर ख़ुशी में तेरे ग़म को भी समो देते

कहां वो शब कि तेरे गेसुओं के साए में
ख़याले-सुबह से आस्ती भिगो देते

बहाने और भी होते जो ज़िन्दगी के लिए
हम एक बार तेरी आरजू भी खो देते

बचा लिया मुझे तूफां की मौज नें वर्ना
किनारे वाले सफ़ीना मेरा डुबो देते

जो देखते मेरी नज़रो पे बंदिशों के सितम
तो ये नज़ारे मेरी बेबसी पे रो देते

कभी तो यूं भी उमंडते सरश्के-ग़म 'मजरूह'
कि मेरे ज़ख्मे तमन्ना के दाग धो देते










निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ ये क्या जाने
कि टूट जाते हैं ख़ुद दिल के साथ पैमाने
मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहाँ
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने
हयात लग़्ज़िशे-पैहम का नाम है साक़ी
लबों से जाम लगा भी सकूँ ख़ुदा जाने
वो तक रहे थे हमीं हँस के पी गए आँसू
वो सुन रहे थे हमीं कह सके न अफ़साने
ये आग और नहीं दिल की आग है नादाँ
चिराग़ हो के न हो जल बुझेंगे परवाने
फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिये "मजरूह"
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने











जला के मशाल-ए-जान हम जुनूं सिफात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले

दयार-ए-शाम नहीं, मंजिल-ए-सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले

हुआ असीर कोई हम-नवा तो दूर तलक
ब-पास-ए-तर्ज़-ए-नवा हम भी साथ साथ चले

सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चिराग
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले

बचा के लाये हम ऐ यार फिर भी नकद-ए-वफ़ा
अगर-चे लुटते हुए रह्ज़नों के हाथ चले

फिर आई फसल की मानिंद बर्ग-ऐ-आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासिलात चले

बुला ही बैठे जब अहल-ए-हरम तो ऐ मजरूह
बगल मैं हम भी लिए एक सनम का हाथ चले












जला के मशाल-ए-जान हम जुनूं सिफात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले

दयार-ए-शाम नहीं, मंजिल-ए-सहर भी नहीं
अजब नगर है यहाँ दिन चले न रात चले

हुआ असीर कोई हम-नवा तो दूर तलक
ब-पास-ए-तर्ज़-ए-नवा हम भी साथ साथ चले

सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चिराग
जहाँ तलक ये सितम की सियाह रात चले

बचा के लाये हम ऐ यार फिर भी नकद-ए-वफ़ा
अगर-चे लुटते हुए रह्ज़नों के हाथ चले

फिर आई फसल की मानिंद बर्ग-ऐ-आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासिलात चले

बुला ही बैठे जब अहल-ए-हरम तो ऐ मजरूह
बगल मैं हम भी लिए एक सनम का हाथ चले







हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुमसे ज़ियादा
चाक किये हैं हमने अज़ीज़ों चार गरेबाँ तुमसे ज़ियादा
चाक-ए-जिगर मुहताज-ए-रफ़ू है आज तो दामन सिर्फ़ लहू है
एक मौसम था हम को रहा है शौक़-ए-बहाराँ तुमसे ज़ियादा
जाओ तुम अपनी बाम की ख़ातिर सारी लवें शमों की कतर लो
ज़ख़्मों के महर-ओ-माह सलामत जश्न-ए-चिराग़ाँ तुमसे ज़ियादा
हम भी हमेशा क़त्ल हुए अन्द तुम ने भी देखा दूर से लेकिन
ये न समझे हमको हुआ है जान का नुकसाँ तुमसे ज़ियादा
ज़ंजीर-ओ-दीवार ही देखी तुमने तो "मजरूह" मगर हम
कूचा-कूचा देख रहे हैं आलम-ए-ज़िंदाँ तुमसे ज़ियादा










हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह
इस कू-ए-तिश्नगी में बहुत है के एक जाम
हाथ आ गया है दौलत-ए-बेदार की तरह
वो तो हैं कहीं और मगर दिल के आस पास
फिरती है कोई शय निगाह-ए-यार की तरह
सीधी है राह-ए-शौक़ प यूँ ही कभी कभी
ख़म हो गैइ है गेसू-ए-दिलदार की तरह
अब जा के कुच खुला हुनर-ए-नाखून-ए-जुनून
ज़ख़्म-ए-जिगर हुए लब-ओ-रुख़्सार की तरह
'मजरूह' लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह

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