Friday, December 18, 2009

जाँ निसार अख़्तर

अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आँखों में जो भर लोगे, तो काँटे-से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं





एक है अपना जहाँ, एक है अपना वतन
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं
आवाज़ दो हम एक हैं.

ये वक़्त खोने का नहीं, ये वक़्त सोने का नहीं
जागो वतन खतरे में है, सारा चमन खतरे में है
फूलों के चेहरे ज़र्द हैं, ज़ुल्फ़ें फ़ज़ा की गर्द हैं
उमड़ा हुआ तूफ़ान है, नरगे में हिन्दोस्तान है
दुश्मन से नफ़रत फ़र्ज़ है, घर की हिफ़ाज़त फ़र्ज़ है
बेदार हो, बेदार हो, आमादा-ए-पैकार हो (पैकार=जंग, युद्ध)
आवाज़ दो हम एक हैं.

ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं
संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है
गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट गोकुल का मन
गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं
कह दो कोई दुश्मन नज़र उट्ठे न भूले से इधर
कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं
आवाज़ दो हम एक हैं

उट्ठो जवानाने वतन, बांधे हुए सर से क़फ़न
उट्ठो दकन की ओर से, गंगो-जमन की ओर से
पंजाब के दिल से उठो, सतलज के साहिल से उठो
महाराष्ट्र की ख़ाक से, देहली की अर्ज़े-पाक* से (*पवित्र भूमि)
बंगाल से, गुजरात से, कश्मीर के बागात से
नेफ़ा से, राजस्थान से, कुल ख़ाके-हिन्दोस्तान से
आवाज़ दो हम एक हैं!
आवाज़ दो हम एक हैं!!
आवाज़ दो हम एक हैं!!!










इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं
वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं
समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं








इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं
वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं
समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं








उजड़ी-उजड़ी हुई हर आस लगे
ज़िन्दगी राम का बनबास लगे
तू कि बहती हुई नदिया के समान
तुझको देखूँ तो मुझे प्यास लगे
फिर भी छूना उसे आसान नहीं
इतनी दूरी पे भी, जो पास लगे
वक़्त साया-सा कोई छोड़ गया
ये जो इक दर्द का एहसास लगे
एक इक लहर किसी युग की कथा
मुझको गंगा कोई इतिहास लगे
शे’र-ओ-नग़्मे से ये वहशत तेरी
खुद तिरी रूह का इफ़्लास लगे










मैं कोई शे'र न भूले से कहूँगा तुझ पर
फ़ायदा क्या जो मुकम्मल तेरी तहसीन न हो
कैसे अल्फ़ाज़ के साँचे में ढलेगा ये जमाल
सोचता हूँ के तेरे हुस्न की तोहीन न हो

हर मुसव्विर ने तेरा नक़्श बनाया लेकिन
कोई भी नक़्श तेरा अक्से-बदन बन न सका
लब-ओ-रुख़्सार में क्या क्या न हसीं रंग भरे
पर बनाए हुए फूलों से चमन बन न सका

हर सनम साज़ ने मर-मर से तराशा तुझको
पर ये पिघली हुई रफ़्तार कहाँ से लाता
तेरे पैरों में तो पाज़ेब पहना दी लेकिन
तेरी पाज़ेब की झनकार कहाँ से लाता

शाइरों ने तुझे तमसील में लाना चाहा
एक भी शे'र न मोज़ूँ तेरी तस्वीर बना
तेरी जैसी कोई शै हो तो कोई बात बने
ज़ुल्फ़ का ज़िक्र भी अल्फ़ाज़ की ज़ंजीर बना

तुझको को कोई परे-परवाज़ नहीं छू सकता
किसी तख़्यील में ये जान कहाँ से आए
एक हलकी सी झलक तेरी मुक़य्यद करले
कोई भी फ़न हो ये इमकान कहाँ से आए

तेर शायाँ कोईपेरायाए-इज़हार नहीं
सिर्फ़ वजदान में इक रंग सा भर सकती है
मैंने सोचा है तो महसूस किया है इतना
तू निगाहों से फ़क़त दिल में उतर सकती है












ऐ दर्द-ए-इश्क़ तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं
मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं
पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब
एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं
हर आन टूटते ये अक़ीदों के सिलसिले
लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं
ऐ चश्म-ए-यार ! मेरा सुधरना मुहाल था
तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं
ये मेहर-ओ-माह, अर्ज़-ओ-समा मुझमें खो गये
इक कायनात बन के उभरने लगा हूँ मैं
इतनों का प्यार मुझसे सँभाला न जायेगा !
लोगो ! तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं
दिल्ली ! कहाँ गयीं तिरे कूचों की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं












कौन कहता है तुझे मैंने भुला रक्खा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रक्खा है

लब पे आहें भी नहीं आँख में आँसू भी नहीं
दिल ने हर राज़ मुहब्बत का छुपा रक्खा है

तूने जो दिल के अंधेरे में जलाया था कभी
वो दिया आज भी सीने में जला रक्खा है

देख जा आ के महकते हुये ज़ख़्मों की बहार
मैंने अब तक तेरे गुलशन को सजा रक्खा है















जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये

तिश्नगी कुछ तो बुझे तिश्नालब-ए-ग़म की
इक नदी दर्द के शहरों में बहा दी जाये

दिल का वो हाल हुआ ऐ ग़म-ए-दौराँ के तले
जैसे इक लाश चट्टानों में दबा दी जाये

हम ने इंसानों के दुख दर्द का हल ढूँढ लिया
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाये

हम को गुज़री हुई सदियाँ तो न पहचानेंगी
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाये

फूल बन जाती हैं दहके हुए शोलों की लवें
शर्त ये है के उन्हें ख़ूब हवा दी जाये

कम नहीं नशे में जाड़े की गुलाबी रातें
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाये

हम से पूछो ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या है
चन्द लफ़्ज़ों में कोई आह छुपा दी जाये









ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का
सम्भल भी जा कि अभी वक़्त है सम्भलने का
बहार आये चली जाये फिर चली आये
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का
ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं
मगर किसे है सलिक़ा ज़मीं पे चलने का
फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है
गली गली में समाँ चाँद के निकलने का
तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का









ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था
मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था
शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था
गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था
पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था









ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो
कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो
दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो
कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो
ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न ‘हो
शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो









तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा
गुज़र ही आये किसी तरह तेरे दीवाने
क़दम क़ादम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा
चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी
तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा
मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझ में
बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा
ये और बात कि हर छेड़ लाउबाली थी
तेरी नज़र का दिलों से मुआमला तो रहा
बहुत हसीं सही वज़ए-एहतियात तेरी
मेरी हवस को तेरे प्यार से गिला तो रहा










पूछ न मुझसे दिल के फ़साने
इश्क़ की बातें इश्क़ ही जाने
वो दिन जब हम उन से मिले थे
दिल के नाज़ुक फूल खिले
मस्ती आँखें चूम रही थी
सारी दुनिया झूम रही
दो दिल थे वो भी दीवाने
वो दिन जब हम दूर हुये थे
दिल के शीशे चूर हुये थे
आई ख़िज़ाँ रंगीन चमन में
आग लगी जब दिल के बन में
आया न कोई आग बुझाने









फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारों
ये न सोचो के अभी उम्र पड़ी है यारों

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्मा लिये दर पे खड़ी है यारों

उनके बिन जी के दिखा देंगे चलो यूँ ही सही
बात इतनी सी है के ज़िद आन पड़ी है यारों

फ़ासला चंद क़दम का है मना लें चल कर
सुबह आई है मगर दूर खड़ी है यारों

किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाऊँ इस को
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारों

जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिये बात बड़ी है यारों








मौज-ए-गुल, मौज-ए-सबा, मौज-ए-सहर लगती है
सर से पा तक वो समाँ है कि नज़र लगती है

हमने हर गाम सजदों ए जलाये हैं चिराग़
अब तेरी राहगुज़र राहगुज़र लगती है

लम्हे लम्हे बसी है तेरी यादों की महक
आज की रात तो ख़ुश्बू का सफ़र लगती है

जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है

सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मेरे ख़ून से तर लगती है

वाक़या शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो "अख़्तर" के दफ़्तर की ख़बर लगती है










रही है दाद तलब उनकी शोख़ियाँ हमसे
अदा शनास तो बहुत हैं मगर कहाँ हमसे
सुना दिये थे कभी कुछ गलत-सलत क़िस्से
वो आज तक हैं उसी तरह बदगुमाँ हमसे
ये कुंज क्यूँ ना ज़िआरत गहे मुहब्बत हो
मिले थे वो इंहीं पेड़ों के दर्मियाँ हमसे
हमीं को फ़ुरसत-ए-नज़्ज़ारगी नहीं वरना
इशारे आज भी करती हैं खिड़कियाँ हमसे
हर एक रात नशे में तेरे बदन का ख़याल
ना जाने टूट गई कई सुराहियाँ हमसे











रुखों के चांद, लबों के गुलाब मांगे है
बदन की प्यास, बदन की शराब मांगे है
मैं कितने लम्हे न जाने कहाँ गँवा आया
तेरी निगाह तो सारा हिसाब मांगे है
मैं किस से पूछने जाऊं कि आज हर कोई
मेरे सवाल का मुझसे जवाब मांगे है
दिल-ए-तबाह का यह हौसला भी क्या कम है
हर एक दर्द से जीने की ताब मांगे है
बजा कि वज़ा-ए-हया भी है एक चीज़ मगर
निशात-ए-दिल तुझे बे-हिजाब मांगे है










1. अब्र में छुप गया है आधा चाँद
चाँदनी छ्न रही है शाखों से
जैसे खिड़की का एक पट खोले
झाँकता हो कोई सलाखों से

2. चंद लम्हों को तेरे आने से
तपिश-ए-दिल ने क्या सुकूँ पाया
धूप में गर्म कोहसारों पर
अब्र का जैसे दौड़ता साया

3. इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
अपने जज़बात की हसीं तहरीर
किस मोहब्बत से तक रही है मुझे
दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर

4. ये मुजस्स्म सिमटती मेरी रूह
और बाक़ी है कुछ नफ़स का खेल
उफ़ मेरे गिर्द ये तेरी बांहें
टूटती शाख पर लिपटती बेल

5. ये किसका ढलक गया है आंचल
तारों की निगाह झुक गई है
ये किस की मचल गई हैं ज़ुल्फ़ें
जाती हुई रात रुक गई है

6. जीवन की ये छाई हुई अंधयारी रात
क्या जानिए किस मोड़ पे छूटा तेरा साथ
फिरता हूँ डगर- डगर अकेला लेकिन
शाने पे मेरे आज तलक है तेरा हाथ










सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है
शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है
तीरगी दूर तलक रात की छट जाती है
बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है
आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने
आज भी रात गये नींद उचट जाती है
हाँ ख़बर-दार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है







सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें
आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें
अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें
और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें










सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आये तो इस रात की औक़ात बनेगी
उन से यही कह आये कि हम अब न मिलेंगे
आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी
ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़! हमारी न तेरे साथ बनेगी
हैरत कदा-ए-हुस्न कहाँ है अभी दुनिया
कुछ और निखर ले तो तिलिस्मात बनेगी
ये क्या के बढ़ते चलो बढ़ते चलो आगे
जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी












हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर
हुस्न शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम है शायद
ग़मज़दा लगती हैं क्यों चाँदनी रातें अक्सर
हाल कहना है किसी से तो मुख़ातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक्सर
इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर
हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर
उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर
हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर










हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह

ख़ुद-ब-ख़ुद नींद-सी आँखों में घुली जाती है
महकी महकी है शब-ए-ग़म तेरे बालों की तरह

और क्या इस से ज़्यादा कोई नर्मी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह

और तो मुझ को मिला क्या मेरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मेरे हाथ में छालों की तरह

ज़िन्दगी जिस को तेरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह









हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे है मुझे
ये ज़िन्दगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे
जो आँसू में कभी रात भीग जाती है
बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे
मैं सो भी जाऊँ तो मेरी बंद आँखों में
तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे
मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ
वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे
मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह
ये मेरा गाओँ तो पहचाना सा लगे है मुझे
बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद
हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे









हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है
ये तर्ज़, ये अन्दाज-ए-सुख़न हमसे चला है
अरमान हमें एक रहा हो तो कहें भी
क्या जाने, ये दिल कितनी चिताओं में जला है
अब जैसा भी चाहें जिसे हालात बना दें
है यूँ कि कोई शख़्स बुरा है, न भला है

No comments: