Friday, December 18, 2009

सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

नूपुर के सुर मन्द रहे
नूपुर के सुर मन्द रहे,
जब न चरण स्वच्छन्द रहे।
उतरी नभ से निर्मल राका,
पहले जब तुमने हँस ताका
बहुविध प्राणों को झंकृत कर
बजे छन्द जो बन्द रहे।
नयनों के ही साथ फिरे वे
मेरे घेरे नहीं घिरे वे,
तुमसे चल तुममें ही पहुँचे
जितने रस आनन्द रहे।
(1941)
बादल छाये
बादल छाये,
ये मेरे अपने सपने
आँखों से निकले, मँडलाये।
बूँदें जितनी
चुनी अधखिली कलियाँ उतनी;
बूँदों की लड़ियों के इतने
हार तुम्हें मैंने पहनाये !
गरजे सावन के घन घिर घिर,
नाचे मोर बनों में फिर फिर
जितनी बार
चढ़े मेरे भी तार
छन्द से तरह तरह तिर,
तुम्हें सुनाने को मैंने भी
नहीं कहीं कम गाने गाये।
(1941)
जन-जन के जीवन के सुन्दर
जन-जन के जीवन के सुन्दर
हे चरणों पर
भाव-वरण भर
दूँ तन-मन-धन न्योछावर कर।
दाग़-दग़ा की
आग लगा दी
तुमने जो जन-जन की, भड़की;
करूँ आरती मैं जल-जल कर।
गीत जगा जो
गले लगा लो, हुआ ग़ैर जो, सहज सगा हो,
करे पार जो है अति दुस्तर।
(1939)
उन चरणों में मुझे दो शरण
उन चरणों में मुझे दो शरण।
इस जीवन को करो हे मरण।
बोलूँ अल्प, न करूँ जल्पना,
सत्य रहे, मिट जाय कल्पना,
मोह-निशा की स्नेह-गोद पर
सोये मेरा भरा जागरण।
आगे-पीछे दायें-बायें
जो आये थे वे हट जायें
उठे सृष्टि से दृष्टि, सहज मैं
करूँ लोक-आलोक-सन्तरण।
(1939)
सुन्दर हे, सुन्दर
सुन्दर हे, सुन्दर !
दर्शन से जीवन पर
बरसे अनिश्वर स्वर।
परसे ज्यों प्राण,
फूट पड़ा सहज गान,
तान-सुरसरिता बही
तुम्हारे मंगल-पद छू कर।
उठी है तरंग,
बहा जीवन निस्संग,
चला तुमसे मिलन को
खिलने को फिर फिर भर भर।
(1939)
दलित जन पर करो
दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु, तुम्हारी शक्ति अरुणा।
हरे तन-मन प्रीति पावन,
मधुर हो मुख मनोभावन,
सहज चितवन पर तरंगित
हो तुम्हारी किरण तरुणा
देख वैभव न हो नत सिर,
समुद्धत मन सदा हो स्थिर,
पार कर जीवन निरन्तर
रहे बहती भक्ति-वरुणा।
(1939)
भाव जो छलके पदों पर
भाव जो छलके पदों पर,
न हों हलके, न हों नश्वर।
चित्त चिर-निर्मल करे वह,
देह-मन शीतल करे वह,
ताप सब मेरे हरे वह
नहा आई जो सरोवर।
गन्धवह हे, धूप मेरी।
हो तुम्हारी प्रिय चितेरी,
आरती की सहज फेरी
रवि, न कम कर दे कहीं कर।
(1939)
धूलि में तुम मुझे भर दो
धूलि में तुम मुझे भर दो।
धूलि-धूसर जो हुए पर
उन्हीं के वर वरण कर दो
दूर हो अभिमान, संशय,
वर्ण-आश्रम-गत महामय,
जाति-जीवन हो निरामय
वह सदाशयता प्रखर दो।
फूल जो तुमने खिलाया,
सदल क्षिति में ला मिलाया,
मरण से जीवन दिलाया सुकर जो वह मुझे वर दो।
(1940)
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर,
जो द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर।
भूख अगर रोटी की ही मिटी,
भूख की जमीन न चौरस पिटी,
और चाहता है वह कौर उठाना कोई
देखो, उसमें उसकी इच्छा कैसे रोई,
द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर-
तुम्हें चाहता वह भी सुन्दर।
देश का, समाज का
कर्णधार हो किसी जहाज का
पार करे कैसा भी सागर
फिर भी रहता है चलना उसे
फिर भी रहता है पीछे डर;
चाहता वहाँ जाना वह भी
नहीं चलाना जहाँ जहाज, नहीं सागर,
नहीं डूबने का भी जहाँ डर।
तुम्हें चाहता है वह, सुन्दर,
जो द्वार-द्वार फिर कर
भीख माँगता कर फैला कर।
(1940)
मैं बैठा था पथ पर
मैं बैठा था पथ पर,
तुम आये चढ़ रथ पर।
हँसे किरण फूट पड़ी,
टूटी जुड़ गई कड़ी,
भूल गये पहर-घड़ी,
आई इति अथ पर।
उतरे, बढ़ गही बाँह,
पहले की पड़ी छाँह,
शीतल हो गई देह,
बीती अविकथ पर।
(1940)

स्नेह-निर्झर बह गया है
स्नेह-निर्झर बह गया है!
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सुखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-"
जीवन दह गया है।
दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है।
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
कवि कह गया है।

अनामिका
गीत
जैसे हम हैं वैसे ही रहें,
लिये हाथ एक दूसरे का
अतिशय सुख के सागर में बहें।
मुदें पलक, केवल देखें उर में,-
सुनें सब कथा परिमल-सुर में,
जो चाहें, कहें वे, कहें।
वहाँ एक दृष्टि से अशेष प्रणय
देख रहा है जग को निर्भय,
दोनों उसकी दृढ़ लहरें सहें।
प्रेयसी
घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की,
ज्योतिर्मयि-लता-सी हुई मैं तत्काल
घेर निज तरु-तन।

खिले नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम वसन्त में गुच्छ-गुच्छ।
दृगों को रँग गई प्रथम प्रणय-रश्मि,-
चूर्ण हो विच्छुरित
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
बहु रंग-भाव भर
शिशिर ज्यों पत्र पर कनक-प्रभात के,
किरण-सम्पात से।

दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
विचरते मञ्जु-मुख
गुञ्ज-मृदु अलि-पुञ्ज
मुखर उर मौन वा स्तुति-गीत में हरे।
प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक-
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार
चक्राकार कलरव-तरंगों के मध्य में
उठी हुई उर्वशी-सी,
कम्पित प्रतनु-भार,
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि
निश्चल अरूप में।

हुआ रूप-दर्शन
जब कृतविद्य तुम मिले
विद्या को दृगों से,
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,-
शेफालिका को शुभ हीरक-सुमन-हार,-
श्रृंगार
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।

याद है, उषःकाल,-
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मञ्जरित लता पर
प्रथम विहग-बालिकाओं का मुखर स्वर
प्रणय-मिलन-गान,
प्रथम विकच कलि वृन्त पर नग्न-तनु
प्राथमिक पवन के स्पर्श से काँपती;

करती विहार
उपवन में मैं, छिन्न-हार
मुक्ता-सी निःसंग,
बहु रूप-रंग वे देखती, सोचती;
मिले तुम एकाएक;
देख मैं रुक गयी:-
चल पद हुए अचल,
आप ही अपल दृष्टि,
फैला समाष्टि में खिंच स्तब्ध मन हुआ।

दिये नहीं प्राण जो इच्छा से दूसरे को,
इच्छा से प्राण वे दूसरे के हो गये!
दूर थी,
खिंचकर समीप ज्यों मैं हुई
अपनी ही दृष्टि में;
जो था समीप विश्व,
दूर दूरतर दिखा।

मिली ज्योति छबि से तुम्हारी
ज्योति-छबि मेरी;
नीलिमा ज्यों शून्य से;
बँधकर मैं रह गई;
डूब गये प्राणों में
पल्लव-लता-भार
वन-पुष्प-तरु-हार
कूजन-मधुर चल विश्व के दृश्य सब,-
सुन्दर गगन के भी रूप दर्शन सकल-
सूर्य-हीरकधरा प्रकृति नीलाम्बरा,
सन्देशवाहक बलाहक विदेश के।
प्रणय के प्रलय में सीमा सब खो गयी!

बँधी हुई तुमसे ही
देखने लगी मैं फिर-
फिर प्रथम पृथ्वी को;
भाव बदला हुआ-
पहले ही घन-घटा वर्षण बनी हुई;
कैसा निरञ्जन यह अञ्जन आ लग गया!

देखती हुई सहज
हो गयी मैं जड़ीभूत,
जगा देहज्ञान,
फिर याद गेह की हुई;
लज्जित
उठे चरण दूसरी ओर को
विमुख अपने से हुई!

चली चुपचाप,
मूक सन्ताप हृदय में,
पृथुल प्रणय-भार।
देखते निमेषहीन नयनों से तुम मुझे
रखने को चिरकाल बाँधकर दृष्टि से
अपना ही नारी रूप, अपनाने के लिए,
मर्त्य में स्वर्गसुख पाने के अर्थ, प्रिय,
पीने को अमृत अंगों से झरता हुआ।
कैसी निरलस दृष्टि!

सजल शिशिर-धौत पुष्प ज्यों प्रात में
देखता है एकटक किरण-कुमारी को।–
पृथ्वी का प्यार, सर्वस्व, उपहार देता
नभ की निरुपमा को,
पलकों पर रख नयन
करता प्रणयन, शब्द-
भावों में विश्रृंखल बहता हुआ भी स्थिर।
देकर न दिया ध्यान मैंने उस गीत पर
कुल मान-ग्रन्थि में बँधकर चली गयी;
जीते संस्कार वे बद्ध संसार के-
उनकी ही मैं हुई!
समझ नहीं सकी, हाय,
बँधा सत्य अञ्चल से
खुलकर कहाँ गिरा।

बीता कुछ काल,
देह-ज्वाला बढ़ने लगी,
नन्दन निकुञ्ज की रति को ज्यों मिला मरु,
उतरकर पर्वत से निर्झरी भूमि पर
पंकिल हुई, सलिल-देह कलुषित हुआ।
करुणा को अनिमेष दृष्टि मेरी खुली,
किन्तु अरुणार्क, प्रिय, झुलसाते ही रहे-
भर नहीं सके प्राण रूप-विन्दु-दान से।
तब तुम लघुपद-विहार
अनिल ज्यों बार-बार

वक्ष के सजे तार झंकृत करने लगे
साँसों से, भावों से, चिन्ता से कर प्रवेश।
अपने उस गीत पर
सुखद मनोहर उस तान का माया में,
लहरों में हृदय की
भूल-सी मैं गयी
संसृति के दुःख-घात;
श्लथ-गात, तुम में ज्यों
रही मैं बद्ध हो।

किन्तु हाय,
रूढ़ि, धर्म के विचार,
कुल, मान, शील, ज्ञान,
उच्च प्राचीर ज्यों घेरे जो थे मुझे,
घेर लेते बार-बार,
जब मैं संसार में रखती थी पदमात्र,
छोड़ कल्प-निस्सीम पवन-विहार मुक्त।
दोनों हम भिन्न-वर्ण,
भिन्न-जाति, भिन्न-रूप,
भिन्न-धर्मभाव, पर
केवल अपनाव से, प्राणों से एक थे।
किन्तु दिन रात का,
जल और पृथ्वी का
भिन्न सौन्दर्य से बन्धन स्वर्गीय है
समझे यह नहीं लोग
व्यर्थ अभिमान के !

अन्धकार था हृदय
अपने ही भार से झुका हुआ, विपर्यस्त।
गृह-जन थे कर्म पर।
मधुर प्रात ज्यों द्वार पर आये तुम,
नीड़-सुख छोड़कर मुक्त उड़ने को संग
किया आह्वान मुझे व्यंग के शब्द में।
आयी मैं द्वार पर सुन प्रिय कण्ठ-स्वर,
अश्रुत जो बजता रहा था झंकार भर
जीवन की वीणा में,
सुनती थी मैं जिसे।
पहचाना मैंने, हाथ बढ़ाकर तुमने गहा।
चल दी मैं मुक्त, साथ।

एक बार की ऋणी
उद्धार के लिए,
शत बार शोध की उर में प्रतिज्ञा की।
पूर्ण मैं कर चुकी।
गर्वित, गरीयसी अपने में आज मैं।
रूप के द्वार पर
मोह की माधुरी
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुए हो, प्रिय,
जागती मैं रही,
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।
मित्र के प्रति
(1)

कहते हो, ‘‘नीरस यह
बन्द करो गान-
कहाँ छन्द, कहाँ भाव,
कहाँ यहाँ प्राण ?
था सर प्राचीन सरस,
सारस-हँसों से हँस;
वारिज-वारिज में बस
रहा विवश प्यार;
जल-तरंग ध्वनि; कलकल
बजा तट-मृदंग सदल;
पैंगें भर पवन कुशल
गाती मल्लार।’’

(2)

सत्य, बन्धु सत्य; वहाँ
नहीं अर्र-बर्र;
नहीं वहाँ भेक, वहाँ
नहीं टर्र-टर्र।
एक यहीं आठ पहर
बही पवन हहर-हहर,
तपा तपन, ठहर-ठहर
सजल कण उड़े;
गये सूख भरे ताल,
हुए रूख हरे शाल,
हाय रे, मयूर-व्याल
पूँछ से जुड़े!

(3)

देखे कुछ इसी समय
दृश्य और-और
इसी ज्वाल से लहरे
हरे ठौर-ठौर ?
नूतन पल्लव-दल, कलि,
मँडलाते व्याकुल अलि
तनु-तन पर जाते बलि
बार-बार हार;
बही जो सुवास मन्द
मधुर भार-भरण-छन्द
मिली नहीं तुम्हें, बन्द
रहे, बन्धु, द्वार?

(4)

इसी समय झुकी आम्र-
शाखा फल-भार
मिली नहीं क्या जब यह
देखा संसार?
उसके भीतर जो स्तव,
सुना नहीं कोई रव?
हाय दैव, दव-ही-दव
बन्धु को मिला!
कुहरित भी पञ्चम स्वर,
रहे बन्द कर्ण-कुहर,
मन पर प्राचीन मुहर,
हृदय पर शिला!

(5)

सोचो तो, क्या थी वह
भावना पवित्र,
बँधा जहाँ भेद भूल
मित्र से अमित्र।
तुम्हीं एक रहे मोड़
मुख, प्रिय, प्रिय मित्र छोड़;
कहो, कहो, कहाँ होड़
जहाँ जोड़, प्यार?
इसी रूप में रह स्थिर,
इसी भाव में घिर-घिर,
करोगे अपार तिमिर-
सागर को पार?

(6)

बही बन्धु, वायु प्रबल
जो, न बँध सकी;
देखते थके तुम, बहती
न वह न थकी।
समझो वह प्रथम वर्ष,
रुका नहीं मुक्त हर्ष,
यौवन दुर्धर्ष कर्ष-
मर्ष से लड़ा;
ऊपर मध्याह्न तपन
तपा किया, सन्-सन्-सन्
हिला-झुका तरु अगणन
बही वह हवा।

(7)

उड़ा दी गयी जो, वह भी
गयी उड़ा,
जली हुई आग कहो,
कब गयी जुड़ा?
जो थे प्राचीन पत्र
जीर्ण-शीर्ण नहीं छत्र,
झड़े हुए यत्र-तत्र
पड़े हुए थे,
उन्हीं से अपार प्यार
बँधा हुआ था असार,
मिला दुःख निराधार
तुम्हें इसलिए।

(8)

बही तोड़ बन्धन
छन्दों का निरुपाय,
वही किया की फिर-फिर
हवा ‘हाय-हाय’।
कमरे में, मध्य याम,
करते तब तुम विराम,
रचते अथवा ललाम
गतालोक लोक,
वह भ्रम मरुपथ पर की
यहाँ-वहाँ व्यस्त फिरी,
जला शोक-चिह्न, दिया
रँग विटप अशोक।

(9)

करती विश्राम, कहीं
नहीं मिला स्थान,
अन्ध-प्रगति बन्ध किया
सिन्धु को प्रयाण;
उठा उच्च ऊर्मि-भंग-
सहसा शत-शत तरंग,
क्षुब्ध, लुब्ध, नील-अंग-
अवगाहन-स्नान,
किया वहाँ भी दुर्दम
देख तरी विघ्न विषम,
उलट दिया अर्थागम
बनकर तूफान।

(10)

हुई आज शान्त, प्राप्त
कर प्रशान्त-वक्ष;
नहीं त्रास, अतः मित्र,
नहीं ‘रक्ष, ‘रक्ष’।
उड़े हुए थे जो कण,
उतरे पा शुभ वर्षण,
शुक्ति के हृदय से बन
मुक्ता झलके;
लखो, दिया है पहना
किसने यह हार बना
भारति-उर में अपना,
देख दृग थके!
सम्राट एडवर्ड अष्टम के प्रति
वीक्षण अगल:-
बज रहे जहाँ
जीवन का स्वर भर छन्द, ताल
मौन में मन्द्र,
ये दीपक जिसके सूर्य-चन्द्र,
बँध रहा जहाँ दिग्देशकाल,
सम्राट! उसी स्पर्श से खिली
प्रणय के प्रियंगु की डाल-डाल!

विंशति शताब्दि,
धन के, मान के बाँध को जर्जर कर महाब्धि
ज्ञान का, बहा जो भर गर्जन--
साहित्यिक स्वर--
"जो करे गन्ध-मधु का वर्जन
वह नहीं भ्रमर;
मानव मानव से नहीं भिन्न,
निश्चय, हो श्वेत, कृष्ण अथवा,
वह नहीं क्लिन्न;
भेद कर पंक
निकलता कमल जो मानव का
वह निष्कलंक,
हो कोई सर"
था सुना, रहे सम्राट! अमर--
मानव के घर!

वैभव विशाल,
साम्राज्य सप्त-सागर-तरंग-दल-दत्त-माल,
है सूर्य क्षत्र
मस्तक पर सदा विराजित
ले कर-आतपत्र,
विच्छुरित छटा--
जल, स्थल, नभ में
विजयिनी वाहिनी-विपुल घटा,
क्षण क्षण भर पर
बदलती इन्द्रधनु इस दिशि से
उस दिशि सत्वर,
वह महासद्म
लक्ष्मी का शत-मणि-लाल-जटिल
ज्यों रक्त पद्म,
बैठे उस पर,
नरेन्द्र-वन्दित, ज्यों देवेश्वर।

पर रह न सके,
हे मुक्त,
बन्ध का सुखद भार भी सह न सके।
उर की पुकार
जो नव संस्कृति की सुनी
विशद, मार्जित, उदार,
था मिला दिया उससे पहले ही
अपना उर,
इसलिये खिंचे फिर नहीं कभी,
पाया निज पुर
जन-जन के जीवन में सहास,
है नहीं जहाँ वैशिष्टय-धर्म का
भ्रू-विलास--
भेदों का क्रम,
मानव हो जहाँ पड़ा--
चढ़ जहाँ बड़ा सम्भ्रम।
सिंहासन तज उतरे भूपर,
सम्राट! दिखाया
सत्य कौन सा वह सुन्दर।
जो प्रिया, प्रिया वह
रही सदा ही अनामिका,
तुम नहीं मिले,--
तुमसे हैं मिले हुए नव
योरप-अमेरिका।

सौरभ प्रमुक्त!
प्रेयसी के हृदय से हो तुम
प्रतिदेशयुक्त,
प्रतिजन, प्रतिमन,
आलिंगित तुमसे हुई
सभ्यता यह नूतन!
दान
वासन्ती की गोद में तरुण,
सोहता स्वस्थ-मुख बालारुण;
चुम्बित, सस्मित, कुंचित, कोमल
तरुणियों सदृश किरणें चंचल;
किसलयों के अधर यौवन-मद
रक्ताभ; मज्जु उड़ते षट्पद।

खुलती कलियों से कलियों पर
नव आशा--नवल स्पन्द भर भर;
व्यंजित सुख का जो मधु-गुंजन
वह पुंजीकृत वन-वन उपवन;
हेम-हार पहने अमलतास,
हँसता रक्ताम्बर वर पलास;
कुन्द के शेष पूजार्ध्यदान,
मल्लिका प्रथम-यौवन-शयान;
खुलते-स्तबकों की लज्जाकुल
नतवदना मधुमाधवी अतुल;

निकला पहला अरविन्द आज,
देखता अनिन्द्य रहस्य-साज;
सौरभ-वसना समीर बहती,
कानों में प्राणों की कहती;
गोमती क्षीण-कटि नटी नवल,
नृत्यपर मधुर-आवेश-चपल।

मैं प्तातः पर्यटनार्थ चला
लौटा, आ पुल पर खड़ा हुआ;
सोचा--"विश्व का नियम निश्चल,
जो जैसा, उसको वैसा फल
देती यह प्रकृति स्वयं सदया,
सोचने को न कुछ रहा नया;
सौन्दर्य, गीत, बहु वर्ण, गन्ध,
भाषा, भावों के छन्द-बन्ध,
और भी उच्चतर जो विलास,
प्राकृतिक दान वे, सप्रयास
या अनायास आते हैं सब,
सब में है श्रेष्ठ, धन्य, मानव।"

फिर देखा, उस पुल के ऊपर
बहु संख्यक बैठे हैं वानर।
एक ओर पथ के, कृष्णकाय
कंकालशेष नर मृत्यु-प्राय
बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल,
भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल;
अति क्षीण कण्ठ, है तीव्र श्वास,
जीता ज्यों जीवन से उदास।

ढोता जो वह, कौन सा शाप?
भोगता कठिन, कौन सा पाप?
यह प्रश्न सदा ही है पथ पर,
पर सदा मौन इसका उत्तर!
जो बडी दया का उदाहरण,
वह पैसा एक, उपायकरण!
मैंने झुक नीचे को देखा,
तो झलकी आशा की रेखा:-
विप्रवर स्नान कर चढ़ा सलिल
शिव पर दूर्वादल, तण्डुल, तिल,
लेकर झोली आये ऊपर,
देखकर चले तत्पर वानर।
द्विज राम-भक्त, भक्ति की आश
भजते शिव को बारहों मास;
कर रामायण का पारायण
जपते हैं श्रीमन्नारायण;
दुख पाते जब होते अनाथ,
कहते कपियों से जोड़ हाथ,
मेरे पड़ोस के वे सज्जन,
करते प्रतिदिन सरिता-मज्जन;
झोली से पुए निकाल लिये,
बढ़ते कपियों के हाथ दिये;
देखा भी नहीं उधर फिर कर
जिस ओर रहा वह भिक्षु इतर;
चिल्लाया किया दूर दानव,
बोला मैं--"धन्य श्रेष्ठ मानव!"

प्रलाप
वीणानिन्दित वाणी बोल!
संशय-अन्धकामय पथ पर भूला प्रियतम तेरा--
सुधाकर-विमल धवल मुख खोल!
प्रिये, आकाश प्रकाशित करके,
शुष्ककण्ठ कण्टकमय पथ पर
छिड़क ज्योत्स्ना घट अपना भर भरके!

शुष्क हूँ--नीरस हूँ--उच्छ्श्रृखल--
और क्या क्या हूँ, क्या मैं दूँ अब इसका पता,
बता तो सही किन्तु वह कौन घेरनेवाली
बाहु-बल्लियों से मुझको है एक कल्पना-लता!

अगर वह तू है तो आ चली
विहगगण के इस कल कूजन में--
लता-कुंज में मधुप-पुंज के ’गुनगुनगुन’ गुंजन में;
क्या सुख है यह कौन कहे सखि,
निर्जन में इस नीरव मुख-चुम्बन में!

अगर बतायेगी तू पागल मुझको
तो उन्मादिनी कहूँगा मैं भी तुझको
अगर कहेगी तू मुझको ’यह है मतवाला निरा’
तो तुझे बताऊँगा मैं भी लावण्य-माधुरी-मदिरा।

अगर कभी देगी तू मुझको कविता का उपहार
तो मैं भी तुझे सुनाऊँगा भैरव दे पद दो चार!
शान्ति-सरल मन की तू कोमल कान्ति--
यहाँ अब आ जा,
प्याला-रस कोई हो भर कर
अपने ही हाथों से तू मुझे पिला जा,
नस-नस में आनन्द-सिन्धु के धारा प्रिये, बहा जा;
ढीले हो जायें ये सारे बन्धन,
होये सहज चेतना लुप्त,--
भूल जाऊँ अपने को, कर के मुझे अचेतन।
भूलूँ मैं कविता के छन्द,
अगर कहीं से आये सुर-संगीत--
अगर बजाये तू ही बैठ बगल में कोई तार
तो कानों तक आते ही रुक जाये उनकी झंकार;

भूलूँ मैं अपने मन को भी
तुझको-अपने प्रियजन को भी!
हँसती हुई, दशा पर मेरी प्रिय अपना मुख मोड़,
जायेगी ज्यों-का-त्यों मुझको यहाँ अकेला छोड़!
इतना तो कह दे--सुख या दुख भर लेगी
जब इस नद से कभी नई नय्या अपनी खेयेगी?
खँडहर के प्रति
खँड़हर! खड़े हो तुम आज भी?
अदभुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज!
विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें--
करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुए?

पवन-संचरण के साथ ही
परिमल-पराग-सम अतीत की विभूति-रज-
आशीर्वाद पुरुष-पुरातन का
भेजते सब देशों में;
क्या है उद्देश तव?
बन्धन-विहीन भव!
ढीले करते हो भव-बन्धन नर-नारियों के?
अथवा,
हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण,
निर्निमेष नयनों से
बाट जोहते हो तुम मृत्यु की
अपनी संतानों से बूँद भर पानी को तरसते हुए?

किम्बा, हे यशोराशि!
कहते हो आँसू बहाते हुए--
"आर्त भारत! जनक हूँ मैं
जैमिनि-पतंजलि-व्यास ऋषियों का;
मेरी ही गोद पर शैशव-विनोद कर
तेरा है बढ़ाया मान
राम-कॄष्ण-भीमार्जुन-भीष्म-नरदेवों ने।
तुमने मुख फेर लिया,
सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल,
हो बसे नव छाया में,
नव स्वप्न ले जगे,
भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधा-पान।"
बरसो आसीस, हे पुरुष-पुराण,
तव चरणों में प्रणाम है।
प्रेम के प्रति
चिर-समाधि में अचिर-प्रकृति जब,
तुम अनादि तब केवल तम;
अपने ही सुख-इंगित से फिर
हुए तरंगित सृष्टि विषम।
तत्वों में त्वक बदल बदल कर
वारि, वाष्प ज्यों, फिर बादल,
विद्युत की माया उर में, तुम
उतरे जग में मिथ्या-फल।

वसन वासनाओं के रँग-रँग
पहन सृष्टि ने ललचाया,
बाँध बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया;
किन्तु हाय, वह हुई लीन जब
क्षीण बुद्धि-भ्रम में काया,
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम, प्रेम की थी छाया।

प्रेम, सदा ही तुम असूत्र हो
उर-उर के हीरों के हार,
गूँथे हुए प्राणियों को भी
गुँथे न कभी, सदा ही सार।
वीणावादिनी
तव भक्त भ्रमरों को हृदय में लिए वह शतदल विमल
आनन्द-पुलकित लोटता नव चूम कोमल चरणतल।

बह रही है सरस तान-तरंगिनी,
बज रही है वीणा तुम्हारी संगिनी,
अयि मधुरवादिनि, सदा तुम रागिनी-अनुरागिनी,
भर अमृत-धारा आज कर दो प्रेम-विह्वल हृदयदल,
आनन्द-पुलकित हों सकल तव चूम कोमल चरणतल!

स्वर हिलोरं ले रहा आकाश में,
काँपती है वायु स्वर-उच्छ्वास में,
ताल-मात्राएँ दिखातीं भंग, नव रति रंग भी
मूर्च्छित हुए से मूर्च्छना करती उठाकर प्रेम-छल,
आनन्द-पुलकित हों सकल तव चूम कोमल चरणतल!
प्रगल्भ प्रेम
आज नहीं है मुझे और कुछ चाह,
अर्धविकव इस हॄदय-कमल में आ तू
प्रिये, छोड़ कर बन्धनमय छ्न्दों की छोटी राह!
गजगामिनि, वह पथ तेरा संकीर्ण,
कण्टकाकीर्ण,
कैसे होगी उससे पार?
काँटों में अंचल के तेरे तार निकल जायेंगे
और उलझ जायेगा तेरा हार
मैंने अभी अभी पहनाया
किन्तु नज़र भर देख न पाया-कैसा सुन्दर आया।

मेरे जीवन की तू प्रिये, साधना,
प्रस्तरमय जग में निर्झर बन
उतरी रसाराधना!
मेरे कुंज-कुटीर-द्वार पर आ तू
धीरे धीरे कोमल चरण बढ़ा कर,
ज्योत्स्नाकुल सुमनों की सुरा पिला तू
प्याला शुभ्र करों का रख अधरो पर!
बहे हृदय में मेरे, प्रिय, नूतन आनन्द प्रवाह,
सकल चेतना मेरी होये लुप्त
और जग जाये पहली चाह!
लखूँ तुझे ही चकित चतुर्दिक,
अपनापन मैं भूलूँ,
पड़ा पालने पर मैं सुख से लता-अंक के झूलूँ;
केवल अन्तस्तल में मेरे, सुख की स्मृति की अनुपम
धारा एक बहेगी,
मुझे देखती तू कितनी अस्फुट बातें मन-ही-मन
सोचेगी, न कहेगी!
एक लहर आ मेरे उर में मधुर कराघातों से
देगी खोल हृदय का तेरा चिरपरिचित वह द्वार,
कोमल चरण बढ़ा अपने सिंहासन पर बैठेगी,
फिर अपनी उर की वीणा के उतरे ढीले तार
कोमल-कली उँगुलियों से कर सज्जित,
प्रिये, बजायेगी, होंगी सुरललनाएँ भी लज्जित!

इमन-रागिनी की वह मधुर तरंग
मीठी थपकी मार करेगी मेरी निद्रा भंग;
जागूँगा जब, सम में समा जायगी तेरी तान,
व्याकुल होंगे प्राण,
सुप्त स्वरों के छाये सन्नाटे में
गूँजेगा यह भाव,
मौन छोड़ता हुआ हृदय पर विरह-व्यथित प्रभाव--
"क्या जाने वह कैसी थी आनन्द-सुरा
अधरों तक आकर
बिना मिटाये प्यास गई जो सूख जलाकर अन्तर!"
यहीं
मधुर मलय में यहीं
गूँजी थी एक वह जो तान
लेती हिलोरें थी समुद्र की तरंग सी,--
उत्फुल्ल हर्ष से प्लावित कर जाती तट।

वीणा की झंकृति में स्मृति की पुरातन कथा
जग जाती हृदय में,--बादलों के अंग में
मिली हुई रश्मि ज्यों
नृत्य करती आँखों की
अपराजिता-सी श्याम कोमल पुतलियों में,
नूपुरों की झनकार
करती शिराओं में संचरित और गति
ताल-मूर्च्छनाओं सधी।
अधरों के प्रान्तरों प्र खेलती रेखाएँ
सरस तरंग-भंग लेती हुई हास्य की।

बंकिम-वल्लरियों को बढ़ाकर
मिलनकय चुम्बन की कितनी वे प्रार्थनाएँ
बढ़ती थीं सुन्दर के समाराध्य मुख की ओर
तृप्तिहीन तृष्णा से।
कितने उन नयनों ने
प्रेम पुलकित होकर
दिये थे दान यहाँ
मुक्त हो मान से!
कॄष्णाधन अलकों में
कितने प्रेमियों का यहाँ पुलक समाया था!

आभा में पूर्ण, वे बड़ी बड़ी आँखें,
पल्लवों की छाया में
बैठी रहती थीं मूर्ति निर्भरता की बनी।

कितनी वे रातें
स्नेह की बातें
रक्खे निज हृदय में
आज भी हैं मौन यहाँ--
लीन निज ध्यान में।

यमुना की कल ध्वनि
आज भी सुनाती है विगत सुहाग-गाथा;
तट को बहा कर वह
प्रेम की प्लावित
करने की शक्ति कहती है।

क्या गाऊँ
क्या गाऊँ? माँ! क्या गाऊँ?
गूँज रहीं हैं जहाँ राग-रागिनियाँ,
गाती हैं किन्नरियाँ कितनी परियाँ
कितनी पंचदशी कामिनियाँ,

वहाँ एक यह लेकर वीणा दीन
तन्त्री-क्षीण, नहीं जिसमें कोई झंकार नवीन,
रुद्ध कण्ठ का राग अधूरा कैसे तुझे सुनाऊँ?--
माँ! क्या गाऊँ?

छाया है मन्दिर में तेरे यह कितना अनुराग!
चढते हैं चरणों पर कितने फूल
मृदु-दल, सरस-पराग;

गन्ध-मोद-मद पीकर मन्द समीर
शिथिल चरण जब कभी बढाती आती,
सजे हुए बजते उसके अधीर नूपुर-मंजीर!

वहाँ एक निर्गन्ध कुसुम उपहार,
नहीं कहीं जिसमें पराग-संचार सुरभि-संसार
कैसे भला चढ़ाऊँ?--
माँ? क्या गाऊँ?

प्रिया से
मेरे इस जीवन की है तू सरस साधना कविता,
मेरे तरु की है तू कुसुमित प्रिये कल्पना-ज्ञतिका;
मधुमय मेरे जीवन की प्रिय है तू कमल-कामिनी,
मेरे कुंज-कुटीर-द्वार की कोमल-चरणगामिनी,
नूपुर मधुर बज रहे तेरे,
सब श्रृंगार सज रहे तेरे,

अलक-सुगन्ध मन्द मलयानिल धीरे-धीरे ढोती,
पथश्रान्त तू सुप्त कान्त की स्मॄति में चलकर सोती
कितने वर्णों में, कितने चरणों में तू उठ खड़ी हुई,
कितने बन्दों में, कितने छन्दों में तेरी लड़ी गई,
कितने ग्रन्थों में, कितने पन्थों में, देखा, पढ़ी गई,
तेरी अनुपम गाथा,
मैंने बन में अपने मन में
जिसे कभी गाया था।

मेरे कवि ने देखे तेरे स्वप्न सदा अविकार,
नहीं जानती क्यों तू इतना करती मुझको प्यार!
तेरे सहज रूप से रँग कर,
झरे गान के मेरे निर्झर,
भरे अखिल सर,
स्वर से मेरे सिक्त हुआ संसार!
सच है
यह सच है:-
तुमने जो दिया दान दान वह,
हिन्दी के हित का अभिमान वह,
जनता का जन-ताका ज्ञान वह,
सच्चा कल्याण वह अथच है--
यह सच है!

बार बार हार हार मैं गया,
खोजा जो हार क्षार में नया,
उड़ी धूल, तन सारा भर गया,
नहीं फूल, जीवन अविकच है--
यह सच है!
सन्तप्त
अपने अतीत का ध्यान
करता मैं गाता था गाने भूले अम्रीयमाण।

एकाएक क्षोभ का अन्तर में होते संचार
उठी व्यथित उँगली से कातर एक तीव्र झंकार,
विकल वीणा के टूटे तार!

मेरा आकुअ क्रंदन,
व्याकुल वह स्वर-सरित-हिलोर
वायु में भरती करुण मरोर
बढ़ती है तेरी ओर।

मेरे ही क्रन्दन से उमड़ रहा यह तेरा सागर
सदा अधीर,

मेरे ही बन्धन से निश्चल-
नन्दन-कुसुम-सुरभि-मधु-मदिर समीर;

मेरे गीतों का छाया अवसाद,
देखा जहाँ, वहीं है करुणा,
घोर विषाद।

ओ मेरे!--मेरे बन्धन-उन्मोचन!
ओ मेरे!--ओ मेरे क्रन्दन-वन्दन!
ओ मेरे अभिनन्दन!

ये सन्तप्त लिप्त कब होंगे गीत,
हृत्तल में तव जैसे शीतल चन्दन?
चुम्बन
लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल,
चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल

कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर,
बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर

है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर
जिनमें हैं भाव भरे हु‌ए सकल-शोक-सन्तापहर!
अनुताप
जहाँ हृदय में बाल्यकाल की कला कौमुदी नाच रही थी,
किरणबालिका जहाँ विजन-उपवन-कुसुमों को जाँच रही थी,
जहाँ वसन्ती-कोमल-किसलय-वलय-सुशोभित कर बढ़ते थे,
जहाँ मंजरी-जयकिरीट वनदेवी की स्तुति कवि पढ़ते थे,
जहाँ मिलन-शिंजन-मधुगुंजन युवक-युवति-जन मन हरता था,
जहाँ मृदुल पथ पथिक-जनों की हृदय खोल सेवा करता था,
आज उसी जीवन-वन में घन अन्धकार छाया रहता है,
दमन-दाह से आज, हाय, वह उपवन मुरझाया रहता है!
तट पर
नव वसन्त करता था वन की सैर
जब किसी क्षीण-कटि तटिनी के तट
तरुणी ने रक्खे थे अपने पैर।
नहाने को सरि वह आई थी,
साथ वसन्ती रँग की, चुनी हुई, साड़ी लाई थी।

काँप रही थी वायु, प्रीति की प्रथम रात की
नवागता, पर प्रियतम-कर-पतिता-सी
प्रेममयी, पर नीरव अपरिचिता-सी।
किरण-बालिकाएँ लहरों से
खेल रहीं थीं अपने ही मन से, पहरों से।

खड़ी दूर सारस की सुन्दर जोड़ी,
क्या जाने क्या क्या कह कर दोनों ने ग्रीवा मोड़ी।
रक्खी साड़ी शिला-खण्ड पर
ज्यों त्यागा कोई गौरव-वर।
देख चतुर्दिक, सरिता में
उतरी तिर्यग्दृग, अविचल-चित।

नग्न बाहुओं से उछालती नीर,
तरंगों में डूबे दो कुमुदों पर
हँसता था एक कलाधर,*---
ॠतुराज दूर से देख उसे होता था अधिक अधीर।

वियोग से नदी-हॄदय कम्पित कर,
तट पर सजल-चरण-रेखाएँ निज अंकित कर,
केश-गार जल-सिक्त, चली वह धीरे धीरे
शिला-खण्ड की ओर,
नव वसन्त काँपा पत्रों में,
देख दृगों की कोर।

अंग-अंग में नव यौवन उच्छ्श्रॄंखल,
किन्तु बँधा लावण्य-पाश से
नम्र सहास अचंचल।

झुकी हुई कल कुंचित एक झलक ललाट पर,
बढ़ी हुई ज्यों प्रिया स्नेह के खड़ी बाट पर।

वायु सेविका-सी आकर
पोंछे युगल उरोज, बाहु, मधुराधर।
तरुणी ने सब ओर
देख, मन्द हँस, छिपा लिये वे उन्नत पीन उरोज,
उठा कर शुष्क वसन का छोर।

मूर्च्छित वसन्त पत्रों पर;
तरु से वृन्तच्युत कुछ फूल
गिरे उस तरुणी के चरणों पर।**

________________________________________

 भाव है--(दिन में भी) दो कुमुद (उरोजों) को देख कर चन्द्र (मुख) हँस रहा था।


 महाकवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ’विजयिनी’ से।
ज्येष्ठ
(१)
ज्येष्ठ! क्रूरता-कर्कशता के ज्येष्ठ! सृष्टि के आदि!
वर्ष के उज्जवल प्रथम प्रकाश!
अन्त! सृष्टि के जीवन के हे अन्त! विश्व के व्याधि!
चराचर दे हे निर्दय त्रास!
सृष्टि भर के व्याकुल आह्वान!--अचल विश्वास!
देते हैं हम तुम्हें प्रेम-आमन्त्रण,
आओ जीवन-शमन, बन्धु, जीवन-धन!

(२)
घोर-जटा-पिंगल मंगलमय देव! योगि-जन-सिद्ध!
धूलि-धूसरित, सदा निष्काम!
उग्र! लपट यह लू की है या शूल-करोगे बिद्ध
उसे जो करता हो आराम!
बताओ, यह भी कोई रीति? छोड़ घर-द्वार,
जगाते हो लोगों में भीति,--तीव्र संस्कार!--
या निष्ठुर पीड़न से तुम नव जीवन
भर देते हो, बरसाते हैं तब घन!

(३)
तेजःपुंज! तपस्या की यह ज्योति--प्रलय साकार;
उगलते आग धरा आकाश;
पड़ा चिता पर जलता मृत गत वर्ष प्रसिद्ध असार,
प्रकृति होती है देख निराश!
सुरधुनी में रोदन-ध्वनि दीन,--विकल उच्छ्वास,
दिग्वधू की पिक-वाणी क्षीण--दिगन्त उदास;
देखा जहाँ वहीं है ज्योति तुम्हारी,
सिद्ध! काँपती है यह माया सारी।

(४)
शाम हो गई, फैलाओ वह पीत गेरुआ वस्त्र,
रजोगुण का वह अनुपम राग,
कर्मयोग की विमल पताका और मोह का अस्त्र,
सत्य जीवन के फल का--त्याग॥
मृत्यु में, तृष्णा में अभिराम एक उपदेश,
कर्ममय, जटिल, तृप्त, निष्काम; देव, निश्शेष!
तुम हो वज्र-कठोर किन्तु देवव्रत,
होता है संसार अतः मस्तक नत।++
________________________________________

++महाकवि श्रीरवीन्द्रनाथ के ’बैशाख’ से
कहाँ देश है
’अभी और है कितनी दूर तुम्हारा प्यारा देश?’--
कभी पूछता हूँ तो तुम हँसती हो
प्रिय, सँभालती हुई कपोलों पर के कुंचित केश!

मुझे चढ़ाया बाँह पकड़ अपनी सुन्दर नौका पर,
फिर समझ न पाया, मधुर सुनाया कैसा वह संगीत
सहज-कमनीय-कण्ठ से गाकर!

मिलन-मुखर उस सोने के संगीत राज्य में
मैं विहार करता था,--
मेरा जीवन-श्रम हरता था;

मीठी थपकी क्षुब्ध हृदय में तान-तरंग लगाती
मुझे गोद पर ललित कल्पना की वह कभी झुलाती,
कभी जगाती;

जगकर पूछा, कहो कहाँ मैं आया?
हँसते हुए दूसरा ही गाना तब तुमने गाया!

भला बताओ क्यों केवल हँसती हो?--
क्यों गाती हो?
धीरे धीरे किस विदेश की ओर लिये जाती हो?
(२)
झाँका खिड़की खोल तुम्हारी छोटी सी नौका पर,
व्याकुल थीं निस्सीम सिन्धु की ताल-तरंगें
गीत तुम्हारा सुनकर;
विकल हॄदय यह हुआ और जब पूछा मैंने
पकड़ तुम्हारे स्त्रस्त वस्त्र का छोर,
मौन इशारा किया उठा कर उँगली तुमने
धँसते पश्चिम सान्ध्य गगन में पीत तपन की ओर।

क्या वही तुम्हारा देश
उर्मि-मुखर इस सागर के उस पार--
कनक-किरण से छाया अस्तांचल का पश्चिम द्वार?
बताओ--वही?--जहाँ सागर के उस श्मशान में
आदिकाल से लेकर प्रतिदिवसावसान में
जलती प्रखर दिवाकर की वह एक चिता है,
और उधर फिर क्या है?

झुलसाता जल तरल अनल,
गलकर गिरता सा अम्बरतल,
है प्लावित कर जग को असीम रोदन लहराता;
खड़ी दिग्वधू, नयनों में दुख की है गाथा;
प्रबल वायु भरती है एक अधीर श्वास,
है करता अनय प्रलय का सा भर जलोच्छ्वास,
यह चारों ओर घोर संशयमय क्या होता है?
क्यों सारा संसार आज इतना रोता है?
जहाँ हो गया इस रोदन का शेष,
क्यों सखि, क्या है वहीं तुम्हारा देश?++
________________________________________

++महाकवि श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर की ’निरुद्देश यात्रा’ से
दिल्ली
क्या यह वही देश है—
भीमार्जुन आदि का कीर्ति क्षेत्र,
चिरकुमार भीष्म की पताका ब्रह्माचर्य-दीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ के वायुमण्डल में
उज्जवल, अधीर और चिरनवीन?—
श्रीमुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने
गीता-गीत—सिंहनाद—
मर्मवाणी जीवन-संग्राम की—
सार्थक समन्वय ज्ञान-कर्म-भक्ति योग का?
यह वही देश है
परिवर्तित होता हुआ ही देखा गया जहाँ
भारत का भाग्य चक्र?—
आकर्षण तृष्णा का
खींचता ही रहा जहाँ पृथ्वी के देशों को
स्वर्ण-प्रतिमा की ओर?—
उठा जहाँ शब्द घोर
संसृति के शक्तिमान दस्युओं का अदमनीय,
पुनः पुनः बर्बरता विजय पाती गई
सभ्यता पर, संस्कृति पर,
काँपे सदा रे अधर जहाँ रक्त धारा लख
आरक्त हो सदैव।

क्या यही वह देश है—
यमुना-पुलिन से चल
’पृथ्वी’ की चिता पर
नारियों की महिमा उस सती संयोगिता ने
किया आहूत जहाँ विजित स्वजातियों को
आत्म-बलिदान से:—
पढो रे, पढो रे पाठ,
भारत के अविश्वस्त अवनत ललाट पर
निज चिताभस्म का टीका लगाते हुए,--
सुनते ही खड़े भय से विवर्ण जहाँ
अविश्वस्त संज्ञाहीन पतित आत्मविस्मृत नर?
बीत गये कितने काल,
क्या यह वही देश है
बदले किरीट जिसने सैकड़ों महीप-भाल?
क्या यह वही देश है
सन्ध्या की स्वर्णवर्ण किरणों में
दिग्वधू अलस हाथों से
थी भरती जहाँ प्रेम की मदिरा,--
पीती थीं वे नारियां
बैठी झरोखे में उन्नत प्रासाद के?—
बहता था स्नेह-उन्माद नस-नस में जहाँ
पृथ्वी की साधना के कमनीय अंगों में?—
ध्वनिमय ज्यों अन्धकार
दूरगत सुकुमार,
प्रणयियों की प्रिय कथा
व्याप्त करती थी जहाँ
अम्बर का अन्तराल?
आनन्द धारा बहती थी शत लहरों में
अधर मे प्रान्तों से;
अतल हृदय से उठ

बाँधे युग बाहुओं के
लीन होते थे जहाँ अन्तहीनता में मधुर?—
अश्रु बह जाते थे
कामिनी के कोरों से
कमल के कोषों से प्रात की ओस ज्यों,
मिलन की तृष्णा से फूट उठते थे फिर,
रँग जाता नया राग?—
केश-सुख-भार रख मुख प्रिय-स्कन्ध पर
भाव की भाषा से
कहती सुकुमारियाँ थीं कितनी ही बातें जहाँ
रातें विरामहीन करती हुई?—
प्रिया की ग्रीवा कपोत बाहुओं ने घेर
मुग्ध हो रहे थे जहाँ प्रिय-मुख अनुरागमय?—
खिलते सरोवर के कमल परागमय
हिलते डुलते थे जहाँ
स्नेह की वायु से, प्रणय के लोक में
आलोक प्राप्त कर?
रचे गये गीत,
गये गाये जहाँ कितने राग
देश के, विदेश के!
बही धाराएँ जहाँ कितनी किरणों को चूम!
कोमल निषाद भर
उठे वे कितने स्वर!
कितने वे रातें
स्नेह की बातें रक्खे निज हृदय में
आज भी हैं मौन जहाँ!
यमुना की ध्वनि में
है गूँजती सुहाग-गाथा,
सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ!
आज वह ’फिरदौस’
सुनसान है पड़ा।
शाही दीवान-आम स्तब्ध है हो रहा,
दुपहर को, पार्श्व में,
उठता है झिल्लीरव,
बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार में,
लीन हो गया है रव
शाही अंगनाओं का,

निस्तब्ध मीनार,
मौन हैं मकबरे:-
भय में आशा को जहाँ मिलते थे समाचार,
टपक पड़ता था जहाँ आँसुओं में सच्चा प्यार!
उदबोधन
गरज गरज घन अंधकार में गा अपने संगीत,
बन्धु, वे बाधा-बन्ध-विहीन,
आखों में नव जीवन की तू अंजन लगा पुनीत,
बिखर झर जाने दे प्राचीन।
बार बार उर की वीणा में कर निष्ठुर झंकार
उठा तू भैरव निर्जर राग,
बहा उसी स्वर में सदियों का दारुण हाहाकार
संचरित कर नूतन अनुराग।
बहता अन्ध प्रभंजन ज्यों, यह त्यों ही स्वर-प्रवाह
मचल कर दे चंचल आकाश,
उड़ा उड़ा कर पीले पल्लव, करे सुकोमल राह,--
तरुण तरु; भर प्रसून की प्यास।
काँपे पुनर्वार पृथ्वी शाखा-कर-परिणय-माल,
सुगन्धित हो रे फिर आकाश,
पुनर्वार गायें नूतन स्वर, नव कर से दे ताल,
चतुर्दिक छा जाये विश्वास।
मन्द्र उठा तू बन्द-बन्द पर जलने वाली तान,
विश्व की नश्वरता कर नष्ट,
जीर्ण-शीर्ण जो, दीर्ण धरा में प्राप्त करे अवसान,
रहे अवशिष्ट सत्य जो स्पष्ट।
ताल-ताल से रे सदियों के जकड़े हृदय कपाट,
खोल दे कर कर-कठिन प्रहार,
आये अभ्यन्तर संयत चरणों से नव्य विराट,
करे दर्शन, पाये आभार।
छोड़, छोड़ दे शंकाएँ, रे निर्झर-गर्जित वीर!
उठा केवल निर्मल निर्घोष;
देख सामने, बना अचल उपलों को उत्पल, धीर!
प्राप्त कर फिर नीरव संतोष!
भर उद्दाम वेग से बाधाहर तू कर्कश प्राण,
दूर कर दे दुर्बल विश्वास,
किरणों की गति से आ, आ तू, गा तू गौरव-गान,
एक कर दे पृथ्वी आकाश।

रेखा
यौवन के तीर पर प्रथम था आया जब
श्रोत सौन्दर्य का,
वीचियों में कलरव सुख चुम्बित प्रणय का
था मधुर आकर्षणमय,
मज्जनावेदन मृदु फूटता सागर में।
वाहिनी संसृति की
आती अज्ञात दूर चरण-चिन्ह-रहित
स्मृति-रेखाएँ पारकर,
प्रीति की प्लावन-पटु,
क्षण में बहा लिया—
साथी मैं हो गया अकूल का,
भूल गया निज सीमा,
क्षण में अज्ञानता को सौंप दिये मैंने प्राण
बिना अर्थ,--प्रार्थना के।
तापहर हृदय वेग
लग्न एक ही स्मृति में;
कितना अपनाव?—
प्रेमभाव बिना भाषा का,
तान-तरल कम्पन वह बिना शब्द-अर्थ की।

उस समय हृदय में
जो कुछ वह आता था,
हृदय से चुपचाप
प्रार्थना के शब्दों में
परिचय बिना भी यदि
कोई कुछ कहता था,
अपनाता मैं उसे।
चिर-कालिक कालिमा—
जड़ता जीवन की चिर-संचित थी दूर हुई।
स्वच्छ एक दर्पण—
प्रतिबिम्बों की ग्रहण-शक्ति सम्पूर्ण लिये हुए;
देखता मैं प्रकृति चित्र,--
अपनी ही भावना की छायाएं चिर-पोषित।

प्रथम जीवन में
जीवन ही मिला मुझे, चारों ओर।
आती समीर
जैसे स्पर्श कर अंग एक अज्ञात किसी का,
सुरभि सुमन्द में हो जैसे अंगराग-गंध,
कुसुमों में चितवन अतीत की स्मृति-रेखा—
परिचित चिर-काल की,
दूर चिर-काल से;
विस्मृति से जैसे खुल आई हो कोई स्मृति
ऐसे ही प्रकृति यह
हरित निज छाया में
कहती अन्तर की कथा
रह जाती हृदय में।

बीते अनेक दिन
बहते प्रिय-वक्ष पर ऐसे ही निरुपाय
बहु-भाव-भंगों की यौवन-तरंगों में।
निरुद्देश मेरे प्राण
दूरतक फैले उस विपुल अज्ञान में
खोजते थे प्राणों को,
जड़ में ज्यों वीत-राग चेतन को खोजते।
अन्त में
मेरी ध्रुवतारा तुम
प्रसरित दिगन्त से
अन्त में लाई मुझे
सीमा में दीखी असीमता—
एक स्थिर ज्योति में
अपनी अबाधता—
परिचय निज पथ का स्थिर।

वक्ष पर धरा के जब
तिमिर का भार गुरु
पीड़ित करता है प्राण,
आते शशांक तब हृदय पर आप ही,
चुम्बन-मधु ज्योति का, अन्धकार हर लेता।
छाया के स्पर्श से
कल्पित सुख मेरा भी प्राणों से रहित था,--
कल्पना ही एक
दूर सत्य के आलोक से,--
निर्जन-प्रियता में था मौन-दु:ख साथी बिना।

प्रतिमा सौन्दर्य की
हृदय के मंच पर
आई न थी तब भी,
पत्र-पुष्प-अर्ध्य ही
संचित था हो रहा
आगम-प्रतीक्षा में,--
स्वागत की वन्दना ही
सीखी थी हृदय ने।
उत्सुकता वेदना,
भीति, मौन, प्रार्थना
नयनों की नयनों से,
सिंचन सुहाग—प्रेम,
दृढ़ता चिबुक की,
अधरों की विह्वलता,
भ्रू-कुटिलता, सरल हास,
वेदना कण्ठ में,
मृदुता हृदय में,
काठिन्य वक्षस्थल में,
हाथों में निपुणता,
शैथिल्य चरणों में,
दीखी नहीं तब तक
एक ही मूर्ति में
तन्मय असीमता।
सृष्टि का मध्यकाल मेरे लिये।
तृष्णा की जागृति का
मूर्त राग नयनों में।
हुताशन विश्व के शब्द-रस-रूप-गन्ध
दीपक-पतंग-से अन्ध थे आ रहे
एक आकर्षण में
और यह प्रेम था!
तृष्णा ही थी सजग
मेरे प्रतिरोम में।
रसना रस-नाम-रहित
किन्तु रस-ग्राहिका!
भोग—वह भोग था,
शब्दों की आड़ में
शब्द-भेद प्राणों का—
घोर तम सन्ध्या की स्वर्ण-किरण-दीप्ति में!
शत-शत वे बन्धन ही
नन्दन-स्वरूप-से आ
सम्मुख खड़े थे!--
स्मितनयन, चंचल, चयनशील,
अति-अपनाव-मृदु भाव खोले हुए!
मन का जड़त्व था,
दुर्बल वह धारणा चेतन की
मूर्च्छित लिपटती थी जड़ी से बारम्बार।

सब कुछ तो था असार
अस्तु, वह प्यार?—
सब चेतन जो देखता,
स्पर्श में अनुभव—रोमांच,
हर्ष रूप में—परिचय,
विनोद; सुख गन्ध में,
रस में मज्जनानन्द,
शब्दों में अलंकार,
खींचा उसीने था हृदय यह,
जड़ों में चेतन-गति कर्षण मिलता कहां?

पाया आधार
भार-गुरुता मिटाने को,
था जो तरंगों में बहता हुआ,
कल्पना में निरवलम्ब,
पर्यटक एक अटवी का अज्ञात,
पाया किरण-प्रभात—
पथ उज्जवल, सहर्ष गति।
केन्द्र को आ मिले
एक ही तत्व के,
सृष्टि के कारण वे,
कविता के काम-बीज।
कौन फिर फिर जाता?
बँधा हुआ पाश में ही
सोचता जो सुख-मुक्ति कल्पना के मार्ग से,
स्थित भी जो चलता है,
पार करता गिरि-श्रृंग, सागर-तरंग,
अगम गहन अलंध्य पथ,
लावण्यमय सजल,
खोला सहृदय स्नेह।

आज वह याद है वसन्त,
जब प्रथम दिगन्तश्री
सुरभि धरा के आकांक्षित हृदय की,
दान प्रथम हृदय को
था ग्रहण किया हृदय ने;
अज्ञात भावना,
सुख चिर-मिलन का,
हल किया प्रश्न जब सहज एकत्व का
प्राथमिक प्रकृति ने,
उसी दिन कल्पना ने
पाई सजीवता।
प्रथम कनकरेखा प्राची के भाल पर—
प्रथम श्रृंगार स्मित तरुणी वधू का,
नील गगनविस्तार केश,
किरणोज्जवल नयन नत,
हेरती पृथ्वी को।
आवेदन
(गीत)
फिर सवाँर सितार लो!
बाँध कर फिर ठाट, अपने
अंक पर झंकार दो!
शब्द के कलि-कल खुलें,
गति-पवन-भर काँप थर-थर
मीड़-भ्रमरावलि ढुलें,
गीत-परिमल बहे निर्मल,
फिर बहार बहार हो!
स्वप्न ज्यों सज जाय
यह तरी, यह सरित, यह तट,
यह गगन, समुदाय।
कमल-वलयित-सरल-दृग-जल
हार का उपहार हो!
तोड़ती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"

विनय
(गीत)
पथ पर मेरा जीवन भर दो,
बादल हे अनन्त अम्बर के!
बरस सलिल, गति ऊर्मिल कर दो!

तट हों विटप छाँह के, निर्जन,
सस्मित-कलिदल-चुम्बित-जलकण,
शीतल शीतल बहे समीरण,
कूजें द्रुम-विहंगगण, वर दो!

दूर ग्राम की कोई वामा
आये मन्दचरण अभिरामा,
उतरे जल में अवसन श्यामा,
अंकित उर-छबि सुन्दरतर हो!

उत्साह
(गीत)
बादल, गरजो!--
घेर घेर घोर गगन, धाराधर जो!
ललित ललित, काले घुँघराले,
बाल कल्पना के-से पाले,
विद्युत-छबि उर में, कवि, नवजीवन वाले!
वज्र छिपा, नूतन कविता
फिर भर दो:--
बादल, गरजो!
विकल विकल, उन्मन थे उन्मन,
विश्व के निदाघ के सकल जन,
आये अज्ञात दिशा से अनन्त के घन!
तप्त धरा, जल से फिर
शीतल कर दो:--
बादल, गरजो!
वनबेला
वर्ष का प्रथम
पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम
किसलयों बँधे,
पिक-भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे
प्रणय के गान,
सुनकर सहसा,
प्रखर से प्रखर तर हुआ तपन-यौवन सहसा;
ऊर्जित, भास्वर
पुलकित शत शत व्याकुल कर भर
चूमता रसा को बार बार चुम्बित दिनकर
क्षोभ से, लोभ से, ममता से,
उत्कण्ठा से, प्रणय के नयन की समता से,
सर्वस्व दान
देकर, लेकर सर्वस्व प्रिया का सुकृत मान।
दाब में ग्रीष्म,
भीष्म से भीष्म बढ़ रहा ताप,
प्रस्वेद, कम्प,
ज्यों ज्यों युग उर में और चाप—
और सुख-झम्पः
निश्वास सघन
पृथ्वी की--बहती लू: निर्जीवन
जड़-चेतन।

यह सान्ध्य समय,
प्रलय का दृश्य भरता अम्बर
पीताभ, अग्निमय, ज्यों दुर्जय,
निर्धूम, निरभ्र, दिगन्त प्रसर,
कर भस्मी भूत समस्त विश्व को एक शेष,
उड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश।
मैं मन्द-गमन,
घर्माक्त, विरक्त, पार्श्व-दर्शन से खींच नयन,
चल रहा नदीतट को करता मन में विचार—
’हो गया व्यर्थ जीवन,
मैं रण में गया हार!’
सोचा न कभी—
अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।’
--इस तरह बहुत कुछ।
आया निज इच्छित स्थल पर
बैठा एकान्त देखकर
मर्माहत स्वर भर!
फिर लगा सोचने यथासूत्र—’मैं भी होता
यदि राजपुत्र—मैं क्यों न सदा कलंक ढोता,
ये होते—जितने विद्याधर—मेरे अनुचर,
मेरे प्रसाद के लिये विनत-सिर उद्यत-कर;
मैं देता कुछ, रख अधिक, किन्तु जितने पेपर,
सम्मिलित कण्ठ से गाते मेरी कीर्ति अमर,
जीवन चरित्र
लिख अग्रलेख अथवा, छापते विशाल चित्र।
इतना भी नहीं, लक्षपति का भी यदि कुमार
होता मैं, शिक्षा पाता अरब-समुद्र-पार,
देश की नीति के मेरे पिता परम पण्डित
एकाधिकार भी रखते धन पर, अविचल-चित
होते उग्रतर साम्यवादी, करते प्रचार,
चुनती जनता राष्ट्रपति उन्हें ही सुनिर्धार,
पैसे में दस राष्ट्रीय गीत रचकर उनपर
कुछ लोग बेचते गा गा गर्दभ-मर्दन-स्वर,
हिन्दी सम्मेलन भी न कभी पीछे को पग
रखता कि अटल साहित्य कहीं यह हो डगमग,
मैं पाता खबर तार से त्वरित समुद्र-पार,
लार्ड के लाड़लों को देता दावत—विहार;
इस तरह खर्च केवल सहस्र षट मास मास
पूरा कर आता लौट योग्य निज पिता पास
वायुयान से, भारत पर रखता चरण-कमल,
पत्रों के प्रतिनिधि-दल में मच जाती हलचल,
दौड़ते सभी, कैमरा हाथ, कहते सत्वर
निज अभिप्राय, मैं सभ्य मान जाता झुक कर,
होता फिर खड़ा इधर को मुख कर कभी उधर,
बीसियों भाव की दृष्टि सतत नीचे ऊपर;
फिर देता दृढ़ सन्देश देश को मर्मान्तिक,
भाषा के बिना न रहती अन्य गन्ध प्रान्तिक,
जितने रूस के भाव, मैं कह जाता अस्थिर,
समझते विचक्षण ही जब वे छपते फिर फिर,
फिर पितासंग
जनता की सेवा का व्रत मैं लेता अभंग,
करता प्रचार
मंच पर खड़ा हो, साम्यवाद इतना उदार!
तप तप मस्तक
हो गया सान्ध्य नभ का रक्ताभ दिगन्त-फलक;
खोली आँखें आतुरता से, देखा अमन्द
प्रेयसी के अलक से आती ज्यों स्निग्ध गन्ध,
’आया हूँ मैं तो यहाँ अकेला, रहा बैठ,
सोचा सत्वर,
देखा फिरकर, घिरकर हँसती उपवन-बेला
जीवन में भर—
यह ताप, त्रास
मस्तक पर लेकर उठी अतल की अतुल साँस,
ज्यों सिद्धि परम
भेदकर कर्म-जीवन के दुस्तर क्लेश, सुषम
आई ऊपर,
जैसे पार कर क्षार सागर
अप्सरा सुघर
सिक्त-तन-केश, शत लहरों पर
कांपती विश्व के चकित दृश्य के दर्शन-शर।
बोला मैं—’बेला, नहीं ध्यान
लोगों का जहाँ, खिली हो बनकर वन्य गान!
जब ताप प्रखर,
लघु प्याले में अतल सुशीतलता ज्यों भर
तुम करा रही हो यह सुगन्ध की सुरा पान!
लाज से नम्र हो उठा, चला मैं और पास
सहसा बह चली सान्धय वेला की सुबातास,
झुक झुक, तन तन, फिर झूम झूम हँस हँस, झकोर,
चिरपरचित चितवन डाल, सहज मुखड़ा मरोर,
भर मुहुर्मुहुर, तन-गन्ध विमल बोली बेला—
मैं देती हूँ सर्वस्व, छुओ मत, अवहेला
की अपनी स्थिति की जो तुमने, अपवित्र स्पर्श
हो गया तुम्हारा, रुको, दूर से करो दर्श।
मैं रुका वहीं,
वह शिखा नवल
आलोक स्निग्ध भर दिखा गई पथ जो उज्जवल;
मैंने स्तुति की—’हे वन्य वन्हिकी तन्वि नवल!
कविता में कहां खुले ऐसे दुग्धधवल दल?—
यह अपल स्नेह,--
विश्व के प्रणयि-प्रणयिनियों कर
हार-उर गेह?—
गति सहज मन्द
यह कहाँ कहाँ वामालकचुम्बित पुलक गन्ध?
’केवल आपा खोया, खेला
इस जीवन में,
कह सिहरी तन में वन-बेला।’
’कूऊ कू—ऊ बोली कोयल अन्तिम सुख-स्वर,
’पी कहाँ’ पपीहा-प्रिया मधुर विष गई छहर,
उर बढा आयु
पल्लव-पल्लव को हिला हरित बह गई वायु,
लहरों में कम्प और लेकर उत्सुक सरिता
तैरी, देखतीं तमश्चरिता
छबि वेला की नभ की ताराएँ निरुपमिता,
शत-नयन-दृष्टि
विस्मय में भर रही विविध-आलोक-सृष्टि।
भाव में हरा मैं, देख मन्द हँस दी बेला,
होली अस्फुट स्वर से—’यह जीवन का मेला
चमकता सुघर बाहरी वस्तुओं को लेकर,
त्यों त्यों आत्मा की निधि पावन बनती पत्थर।’
बिकती जो कौड़ीमोल
यहां होगी कोई इस निर्जन में,
खोजो, यदि हो समतोल
वहाँ कोई, विश्व के नगर-घन में।
है वहां मान,
इसलिये बड़ा है एक, शेष छोटे अजान;
पर ज्ञान जहां,
देखना—बड़े, छोटे; आसमान, समान वहां:-
सब सुहृदवर्ग
उनकी आंखों की आभा से दिग्देश स्वर्ग।
बोला मैं—’यही सत्य, सुन्दर!
नाचतीं वृन्त पर तुम, ऊपर
होता जब उपल-प्रहार प्रखर!
अपनी कविता
तुम रहो एक मेरे उर में
अपनी छवि में शुचि संचरिता।
फिर उषःकाल
मैं गया टहलता हुआ, बेल की झुका डाल
तोड़ता फूल कोई ब्राह्मण,
’जाती हूँ मैं’, बोली बेला,
जीवन प्रिय के चरणों पर करने को अर्पण:-
देखती रही;
निस्स्वन, प्रभात की वायु बही।
हताश
जीवन चिरकालिक क्रन्दन।
मेरा अन्तर वज्रकठोर,
देना जी भरसक झकझोर,
मेरे दुख की गहन अन्ध-
तम-निशि न कभी हो भोर,
क्या होगी इतनी उज्वलता-
इतना वन्दन अभिनन्दन?
हो मेरी प्रार्थना विफल,
हृदय-कमल-के जितने दल
मुरझायें, जीवन हो म्लान,
शून्य सृष्टि में मेरे प्राण
प्राप्त करें शून्यता सृष्टि की,
मेरा जग हो अन्तर्धान,
तब भी क्या ऐसे ही तम में
अटकेगा जर्जर स्यन्दन?
प्याला
मृत्यु-निर्वाण प्राण-नश्वर
कौन देता प्याला भर भर?

मृत्यु की बाधाएँ, बहु द्वन्द
पार कर कर जाते स्वच्छन्द
तरंगों में भर अगणित रंग,
जंग जीते, मर हुए अमर।

गीत अनगिनित, नित्य नव छन्द
विविध श्रॄंखल, शत मंगल-बन्द,
विपुल नव-रस-पुलकित आनन्द
मन्द मृदु झरता है झर झर।

नाचते ग्रह, तारा-मण्डल,
पलक में उठ गिरते प्रतिपल,
धरा घिर घूम रही चंचल,
काल-गुणत्रय-भय-रहित समर।

कांपता है वासन्ती वात,
नाचते कुसुम-दशन तरु-पात
प्रात, फिर विधुप्लावित मधु-रात
पुलकप्लुत आलोड़ित सागर।
गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को
गाता हूँ गीत मैं तुम्हें ही सुनाने को;
भले और बुरे की,
लोकनिन्दा यश-कथा की
नहीं परवाह मुझे;
दास तुम दोनों का
सशक्तिक चरणों में प्रणाम हैं तुम्हारे देव!
पीछे खड़े रहते हो,
इसी लिये हास्य-मुख
देखता हूँ बार बार मुड़ मुड़ कर।
बार बार गाता मैं
भय नहीं खाता कभी,
जन्म और मृत्यु मेरे पैरों पर लोटते हैं।
दया के सागर हो तुम;
दस जन्म जन्म का तुम्हारा मैं हूँ प्रभो!
क्या गति तुम्हारी, नहीं जानता,
अपनी गति, वह भी नहीं,
कौन चाहता भी है जानने को?
भुक्ति-मुक्ति-भक्ति आदि जितने हैं--
जप-तप-साधन-भजन,
आज्ञा से तुम्हारी मैंने दूर इन्हें कर दिया।
एकमात्र आशा पहचान की ही है लगी,
इससे भी करो पार!
देखते हैं नेत्र ये सारा संसार,
नहीं देखते हैं अपने को,
देखें भी क्यों, कहो,
देखते वे अपना रूप
देख दूसरे का मुख।
नेत्र मेरे तुम्हीं हो,
तूप तुम्हारा ही घट घट में है विद्यमान।
बालकेलि करता हूँ तुम्हारे साथ,
क्रोध करके कभी,
तुमसे किनारा कर दूर चला जाता हूँ;
किन्तु निशाकाल में,
देखता हूँ,
शय्या-शिरोभाग में खड़े तुम चुपचाप,

छलछल आँखें,
हेरते हो मेरे मुख की ओर एक-टक।
बदल जाता है भाव,
पैरों पड़ता हूँ,
किन्तु क्षमा नहीं मांगता;
नहीं करते हो रोष।
ऐसी प्रगल्भता
और कोई कैसे कहो सहन कर सकता है?
तुम मेरे प्रभु हो,
प्राण-सखा मेरे तुम;
कभी देखता हूँ--
"तुम मैं हो, मैं तुम बना,
वाणी तुम, वीणापाणि मेरे कण्ठ में प्रभो,
ऊर्मि से तुम्हारी वह जाते हैं नर-नारी।"
सिन्धुनाद हुंकार,
सूर्य-चन्द में वचन,
मन्द-मन्द पवन तुम्हारा आलाप है;
सत्य है यह सब कथा,
अति स्थूल--अति स्थूल वाह्य यह विकास है
केश जैसे शिर पर।

योजनों तक फैला हुआ
हिम से अच्छादित
मेरु-तट पर है महागिरि,
अग्रभेदी बहु श्रृंग
अभ्रहीन नभ में उठे,
दृष्टि झुलसाती हुई हिम की शिलाएँ वे,
दिद्युत-विकास से है शतगुण प्रखर ज्योति;
उत्तर अयन में उस
एकीभूत कर की सहस्र ज्योति-रेखाएं
कोटि-वज्र-सम-खर-कर-धार जब ढालती हैं,
एक एक श्रृंग पर
मूर्च्छित हुए-से भुवन-भास्कर हैं दीखते,
गलता है हिम-श्रृंग
टपकता है गुहा में,
घोर नाद करता हुआ
टूट पड़ता है गिरि,
स्वप्न-सम जल-बिम्ब जल में मिल जाता है।
मन की सब वृत्तियाँ एक ही हो जातीं जब,
फैलता है कोटि-सूर्य-निन्दित सत-चित-प्रकाश,
गल जाते भानु, शशधर और तारादल,--
विश्व-व्योममण्डल-चंदातल-पाताल भी,
ब्रह्माण्ड गोपद-समान जान पडता है।
दूर जाता है जब मन वाह्यभूमि के,
होता है शान्त धातु,
निश्चल होता है सत्य;
तन्त्रियाँ हृदय की तब ढीली पड़ जाती हैं,
खुल जाते बन्धन समूह, जाते माया-मोह,
गूँजता तुम्हारा अनाहत-नाद जो वहाँ,
सुनता है दास यह भक्तिपूर्वक नतमस्तक,
तत्पर सदाही वह
पूर्ण करने को जो कुछ भी हो तुम्हारा कार्य।

"मैं ही तब विद्यमान;
प्रलय के समय में जब
ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता-लय
होता है अगणन ब्रह्माण्ड ग्रास करके, यह
ध्वस्त होता संसार
पार कर जाता है तर्क की सीमा को,
नहीं रह जाता कुछ--सूर्य-चन्द्र-तारा-ग्रह--
महा निर्वाण वह,
नहीं रहते जब कर्म, करण या कारण कुछ,
घोर अन्धकार होता अन्धकार-हृदय में,
मैं ही तब विद्यमान।
"प्रलय के समय में जब
ज्ञान-ज्ञेय-ज्ञाता-लय
होता है अगणन-ब्रह्माण्ड-ग्रास करके, यह
ध्वस्त होता संसार,
पार कर जाता है तर्क की सीमा को
नहीं रह जाता कुछ--सूर्य-चन्द्र-तारा-ग्रह--
घोर अन्धकार होता अन्धकार-हृदय में,
दूर होते तीनों गुण,
अथवा वे मिल करके शान्त भाव धरते जब
एकाकार होते शुद्ध-परमाणु-काय
मैं ही तब विद्यमान।

"विकसित फिर होता मैं,
मेरी ही शक्ति धरती पहले विकार-रूप,
आदि वाणी प्रणव-ओंकार ही
बजता महाशून्य-पथ में,
अन्तहीन महाकाश सुनता महनाद-ध्वनि,
कारण-मण्डली की निद्रा छूट जाती है,
अगणित परमाणुओं में प्राण समा जाते हैं,
नर्तनावर्तोच्छ्वास
बड़ी दूर-दूर से
चलते केन्द्र की तरफ,
चेतन पवन है उठाती ऊर्मिमालाएं
महाभूत-सिन्धु पर,
परमाणुओं के आवर्त घन विकास और
रंग-भंग-पतन-उच्छ्वास-संग
बहती बड़े वेग से हैं वे तरंगराजियाँ,
जिससे अनन्त--वे अनन्त खण्ड उठे हुए
घात-प्रतिघातों से शून्य पथ में दौड़ते--
बन बन ख-मण्डल हैं तारा-ग्रह घूमते,
घूमती यह पृथ्वी भी, मनुष्यों की वास-भूमि।

"मैं ही हूँ आदि कवि,
मेरी ही शक्ति के रचना-कौशल में है
जड़ और जीव सारे।
मैं ही खेलता हूँ शक्ति-रूपा निज माया से।
एक, होता अनेक, मैं
देखने के लिये सब अपने स्वरूपों को।
मेरी ही आज्ञा से
बहती इस वेग से है झंझा इस पृथ्वी पर,
गरज उठता है मेघ--
अशनि में नाद होता,
मन्द मन्द बहती वायु
मेरे निश्वास के ग्रहण और त्याग से,
हिमकर सुख-हिमकर की धारा जब बहती है,
तरु औ’ लताएं हैं ढकती धरा को देह
शिशिर से धुले फुल्ल मुख को उठा कर वे
ताकते रह जाते हैं
भास्कर को सुमन-वृन्द।"*
________________________________________

’*स्वामी विवेकानन्द जी महाराज की "गाइ गीत सुनाते तोमाय"
का अनुवाद।
नाचे उस पर श्यामा
फूले फूल सुरभि-व्याकुल अलि
गूँज रहे हैं चारों ओर
जगतीतल में सकल देवता
भरते शशिमृदु-हँसी-हिलोर।

गन्ध-मन्द-गति मलय पवन है
खोल रही स्मृतियों के द्वार,
ललित-तरंग नदी-नद सरसी,
चल-शतदल पर भ्रमर-विहार।

दूर गुहा में निर्झरिणी की
तान-तरंगों का गुंजार,
स्वरमय किसलय-निलय विहंगों
के बजते सुहाग के तार।

तरुण-चितेरा अरुण बढा कर
स्वर्ण-तूलिका-कर सुकुमार
पट-पृथिवी पर रखता है जब,
कितने वर्णों का आभार।

धरा-अधर धारण करते हैं,--
रँग के रागों के आकार
देख देख भावुक-जन-मन में
जगते कितने भाव उदार!

गरज रहे हैं मेघ, अशनिका
गूँजा घोर निनाद-प्रमाद,
स्वर्गधराव्यापी संगर का
छाया विकट कटक-उन्माद

अन्धकार उदगीरण करता
अन्धकार घन-घोर अपार
महाप्रलय की वायु सुनाती
श्वासों में अगणित हुंकार

इस पर चमक रही है रक्तिम
विद्युज्ज्वाला बारम्बार
फेनिल लहरें गरज चाहतीं
करना गिर-शिखरों को पार,

भीम-घोष-गम्भीर, अतल धँस
टलमल करती धरा अधीर,
अनल निकलता छेद भूमितल,
चूर हो रहे अचल-शरीर।

हैं सुहावने मन्दिर कितने
नील-सलिल-सर-वीचि-विलास-
वलयित कुवलय, खेल खिलानी
मलय वनज-वन-यौवन-हास।

बढ़ा रहा है अंगूरों का
हृदय-रुधिर प्याले का प्यार,
फेन-शुभ्र-सिर उठे बुलबुले
मन्द-मन्द करते गुंजार।

बजती है श्रुति-पथ में वीणा,
तारों की कोमल झंकार
ताल-ताल पर चली बढ़ाती
ललित वासना का संसार।

भावों में क्या जाने कितना
व्रज का प्रकट प्रेम उच्छ्वास,
आँसू ढ्लते, विरह-ताप से
तप्त गोपिकाओं के श्वास;

नीरज-नील नयन, बिम्बाधर
जिस युवती के अति सुकुमार;
उमड़ रहा जिसकी आंखों पर
मृदु भावों का पारावार,

बढ़ा हाथ दोनों मिलने को
चलती प्रकट प्रेम-अभिसार,
प्राण-पखेरू, प्रेम-पींजरा,
बन्द, बन्द है उसका द्वार!

झेरी झररर-झरर, दमामें
घोर नकारों की है चोप,
कड़-कड़-कड़ सन-सन बन्दूकें,
अररर अररर अररर तोप,

धूम-धूम है भीम रणस्थल,
शत-शत ज्वालामुखियाँ घोर
आग उगलतीं, दहक दहक दह
कपाँ रहीं भू-नभ के छोर।

फटते, लगते हैं छाती पर
घाती गोले सौ-सौ बार,
उड़ जाते हैं कितने हाथी,
कितने घोड़े और सवार।

थर-थर पृथ्वी थर्राती है,
लाखों घोड़े कस तैयार
करते, चढ़ते, बढ़ते-अड़ते
झुक पड़ते हैं वीर जुझार।

भेद धूम-तल--अनल, प्रबल दल
चीर गोलियों की बौछार,
धँस गोलों-ओलों में लाते
छीन तोक कर वेड़ी मार;

आगे आगे फहराती है
ध्वजा वीरता की पहचान,
झरती धारा--रुधिर दण्ड में
अड़े पड़े पर वीर जवान;

साथ साथ पैदल-दल चलता,
रण-मद-मतवाले सब वीर,
छुटी पताका, गिरा वीर जब,
लेता पकड़ अपर रणधीर,

पटे खेत अगणित लाशों से
कटे हजारों वीर जवान,
डटे लाश पर पैर जमाये,
हटे न वीर छोड़ मैदान।

देह चाहता है सुख-संगम
चित्त-विहंगम स्वर-मधु-धार,
हँसी-हिंडोला झूल चाहता
मन जाना दुख-सागर-पार!

हिम-शशांक का किरण-अंग-सुख
कहो, कौन जो देगा छोड़-
तपन-ताप-मध्यान्ह प्रखरता
से नाता जो लेगा जोड़?

चण्ड दिवाकर ही तो भरता
शशघर में कर-कोमल-प्राण,
किन्तु कलाधर को ही देता
सारा विश्व प्रेम-सम्मान!

सुख के हेतु सभी हैं पागल,
दुख से किस पामर का प्यार?
सुख में है दुख, गरल अमृत में,
देखो, बता रहा संसार।

सुख-दुख का यह निरा हलाहल
भरा कण्ठ तक सदा अधीर,
रोते मानव, पर आशा का
नहीं छोड़ते चंचल चीर!

रुद्र रूप से सब डरते हैं,
देख देख भरते हैं आह,
मृत्युरूपिणी मुक्तकुन्तला
माँ की नहीं किसी को चाह!

उष्णधार उद्गार रुधिर का
करती है जो बारम्बार,
भीम भुजा की, बीन छीनती,
वह जंगी नंगी तलवार।

मृत्यु-स्वरूपे माँ, है तू ही
सत्य स्वरूपा, सत्याधार;
काली, सुख-वनमाली तेरी
माया छाया का संसार!

अये--कालिके, माँ करालिके,
शीघ्र मर्म का कर उच्छेद,
इस शरीर का प्रेम-भाव, यह
सुख-सपना, माया, कर भेद!

तुझे मुण्डमाला पहनाते,
फिर भय खाते तकते लोग,
’दयामयी’ कह कह चिल्लाते,
माँ, दुनिया का देखा ढोंग।

प्राण काँपते अट्टहास सुन
दिगम्बरा का लख उल्लास,
अरे भयातुर; असुर विजयिनी
कह रह जाता, खाता त्रास!

मुँह से कहता है, देखेगा,
पर माँ, जब आता है काल,
कहाँ भाग जाता भय खाकर
तेरा देख बदन विकराल!

माँ, तू मृत्यु घूमती रहती,
उत्कट व्याधि, रोग बलवान,
भर विष-घड़े, पिलाती है तू
घूँट जहर के, लेती प्राण।

रे उन्माद! भुलाता है तू
अपने को, न फिराता दृष्टि
पीछे भय से, कहीं देख तू
भीमा महाप्रलय की सृष्टि।

दुख चाहता; बता; इसमें क्या
भरी नहीं है सुख की प्यास?
तेरी भक्ति और पूजा में
चलती स्वार्थ-सिद्ध की साँस।

छाग-कण्ठ की रुधिर-धार से
सहम रहा तू, भय-संचार!
अरे कापुरुष, बना दया का
तू आधार!--धन्य व्यवहार!

फोड़ो वीणा, प्रेम-सुधा का
पीना छोड़ो, तोड़ो, वीर,
दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस
नारी-माया की जंजीर।

बढ़ जाओ तुम जलधि-ऊर्मि-से
गरज गरज गाओ निज गान,
आँसू पीकर जीना; जाये
देह, हथेली पर लो जान।

जागो वीर! सदा ही सर पर
काट रहा है चक्कर काल,
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों,
काटो, काटो यह भ्रम-जाल।

दु:खभार इस भव के ईश्वर,
जिनके मन्दिर का दृढ़ द्वार
जलती हुई चिताओं में है
प्रेत-पिशाचों का आगार;

सदा घोर संग्राम छेड़ना
उनकी पूजा के उपचार,
वीर! डराये कभी न, आये
अगर पराजय सौ-सौ बार।

चूर-चूर हो स्वार्थ, साध, सब
मान, हृदय हो महाश्मशान,
नाचे उसपर श्यामा, घन रण
में लेकर निज भीम कृपाण।*
________________________________________

’*स्वामी विवेकानन्द जी महाराज की सुविख्यात रचना ’नाचुक ताहाते श्यामा’
का अनुवाद। स्वामी जी ने इसमें कोमल और कठोर भावों की वर्णना द्वारा
कठोरता की सिद्धि दिखाई गयी है।
हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र
मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,
तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन,
मैं हूँ केवल पतदल--आसन,
तुम सहज बिराजे महाराज।

ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपि
मैं ही वसन्त का अग्रदूत,
ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूत
मैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि।

तुम मध्य भाग के, महाभाग!--
तरु के उर के गौरव प्रशस्त
मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त,
तुम अलि के नव रस-रंग-राग।

देखो, पर, क्या पाते तुम "फल"
देगा जो भिन्न स्वाद रस भर,
कर पार तुम्हारा भी अन्तर
निकलेगा जो तरु का सम्बल।

फल सर्वश्रेष्ठ नायाब चीज
या तुम बाँध कर रँगा धागा;
फल के भी उर का, कटु, त्यागा,
मेरा आलोचक एक बीज
उक्ति
कुछ न हुआ, न हो
मुझे विश्व का सुख, श्री, यदि केवल
पास तुम रहो!
मेरे नभ के बादल यदि न कटे-
चन्द्र रह गया ढका,
तिमिर रात को तिरकर यदि न अटे
लेश गगन-भास का,
रहेंगे अधर हँसते, पथ पर, तुम
हाथ यदि गहो।
बहु-रस साहित्य विपुल यदि न पढ़ा--
मन्द सबों ने कहा,
मेरा काव्यानुमान यदि न बढ़ा--
ज्ञान, जहाँ का रहा,
रहे, समझ है मुझमें पूरी, तुम
कथा यदि कहो।

सरोज स्मृति

ऊनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण;
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह - "पित:, पूर्ण आलोक-वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
'सरोज' का ज्योति:शरण - तरण!" --
अशब्द अधरों का सुना भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत-शर-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार --
"जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम?" --

कहता तेरा प्रयाण सविनय, --
कोई न था अन्य भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा, कर गई पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार बार --
"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर!" --
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान

पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। --
देखें वे; हसँते हुए प्रवर,
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण,
देखता रहा मैं खडा़ अपल
वह शर-क्षेप, वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्ध युद्ध का रुद्ध-कंठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन-जीवन का रवि,
लेकर-कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रँग भरती विमला,
वांछित उस किस लांछित छवि पर
फेरती स्नेह कूची भर।
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ,
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक

प्राणों की प्राणों में दब कर
कहती लघु-लघु उसाँस में भर;
समझता हुआ मैं रहा देख,
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।
तू सवा साल की जब कोमल
पहचान रही ज्ञान में चपल
माँ का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण
भरती जीवन में नव जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गई चली
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक-विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खाई भाई की मार, विकल
रोई उत्पल-दल-दृग-छलछल,
चुमकारा सिर उसने निहार
फिर गंगा-तट-सैकत-विहार
करने को लेकर साथ चला,
तू गहकर चली हाथ चपला;
आँसुओं-धुला मुख हासोच्छल,
लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल।
तब भी मैं इसी तरह समस्त
कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध-गति मुक्त छंद,

पर संपादकगण निरानंद
वापस कर देते पढ़ सत्त्वर
दे एक-पंक्ति-दो में उत्तर।
लौटी लेकर रचना उदास
ताकता हुआ मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोंचता हुआ घास
अज्ञात फेंकता इधर-उधर
भाव की चढी़ पूजा उन पर।
याद है दिवस की प्रथम धूप
थी पडी़ हुई तुझ पर सुरूप,
खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूरस्थित प्रवास में चल
दो वर्ष बाद हो कर उत्सुक
देखने के लिये अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आँगन में फाटक के भीतर,
मोढे़ पर, ले कुंडली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ-गाथ।
पढ़ लिखे हुए शुभ दो विवाह।
हँसता था, मन में बडी़ चाह
खंडित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
इससे पहिले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढी़ लिखी हो -- सुन्दर हो।
आये ऐसे अनेक परिणय,
पर विदा किया मैंने सविनय
सबको, जो अडे़ प्रार्थना भर
नयनों में, पाने को उत्तर
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर --
"मैं हूँ मंगली," मुडे़ सुनकर
इस बार एक आया विवाह
जो किसी तरह भी हतोत्साह
होने को न था, पडी़ अड़चन,
आया मन में भर आकर्षण
उस नयनों का, सासु ने कहा --
"वे बडे़ भले जन हैं भैय्या,
एन्ट्रेंस पास है लड़की वह,
बोले मुझसे -- 'छब्बीस ही तो
वर की है उम्र, ठीक ही है,
लड़की भी अट्ठारह की है।'
फिर हाथ जोडने लगे कहा --
' वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,
हैं सुधरे हुए बडे़ सज्जन।
अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन।
हैं बडे़ नाम उनके। शिक्षित
लड़की भी रूपवती; समुचित
आपको यही होगा कि कहें
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।'

आयेंगे कल।" दृष्टि थी शिथिल,
आई पुतली तू खिल-खिल-खिल
हँसती, मैं हुआ पुन: चेतन
सोचता हुआ विवाह-बन्धन।
कुंडली दिखा बोला -- "ए -- लो"
आई तू, दिया, कहा--"खेलो।"
कर स्नान शेष, उन्मुक्त-केश
सासुजी रहस्य-स्मित सुवेश
आईं करने को बातचीत
जो कल होनेवाली, अजीत,
संकेत किया मैंने अखिन्न
जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न;
देखने लगीं वे विस्मय भर
तू बैठी संचित टुकडों पर।
धीरे-धीरे फिर बढा़ चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर
आईं, लावण्य-भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यौं मालकौस नव वीणा पर,
नैश स्वप्न ज्यों तू मंद मंद
फूटी उषा जागरण छंद
काँपी भर निज आलोक-भार,
काँपा वन, काँपा दिक् प्रसार।
परिचय-परिचय पर खिला सकल --
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय दल
क्या दृष्टि। अतल की सिक्त-धार
ज्यों भोगावती उठी अपार,
उमड़ता उर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील नील,
पर बँधा देह के दिव्य बाँध;
छलकता दृगों से साध साध।
फूटा कैसा प्रिय कंठ-स्वर
माँ की मधुरिमा व्यंजना भर
हर पिता कंठ की दृप्त-धार
उत्कलित रागिनी की बहार!
बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,
मेरे स्वर की रागिनी वह्लि
साकार हुई दृष्टि में सुघर,
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।
शिक्षा के बिना बना वह स्वर
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को, अपना स्वर
भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,
जागा उर में तेरा प्रिय कवि,
उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज
तरु-पल्लव कलिदल पुंज-पुंज
बह चली एक अज्ञात बात
चूमती केश--मृदु नवल गात,
देखती सकल निष्पलक-नयन
तू, समझा मैं तेरा जीवन।
सासु ने कहा लख एक दिवस :--
"भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना-पोसना रहा काम,
देना 'सरोज' को धन्य-धाम,
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,
है काम तुम्हारा धर्मोत्तर;
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर
अपने घर रहो, ढूंढकर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होंगे सहाय हम सहोत्साह।"

सुनकर, गुनकर, चुपचाप रहा,
कुछ भी न कहा, -- न अहो, न अहा;
ले चला साथ मैं तुझे कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत बार-बार --
"ये कान्यकुब्ज-कुल कुलांगार,
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फल,
यह दग्ध मरुस्थल -- नहीं सुजल।"
फिर सोचा -- "मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूं पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय
आयेगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द्र-बंध की निराधार।

वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गंध,
उन चरणों को मैं यथा अंध,
कल ध्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूं, ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह!"
फिर आई याद -- "मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्वज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इंगित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय।" बँध गया भाव,
खुल गया हृदय का स्नेह-स्राव,
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन।
बोला मैं -- "मैं हूँ रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त --
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण
यदि महाजनों को तो विवाह
कर सकता हूँ, पर नहीं चाह
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूं यह नहीं सुघर,
बारात बुला कर मिथ्या व्यय
मैं करूँ नहीं ऐसा सुसमय।
तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढूंगा स्वयं मंत्र
यदि पंडितजी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझो, कुल धन्या का।"
आये पंडित जी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक ससर्ग
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल।
देखती मुझे तू हँसी मन्द,
होंठो में बिजली फँसी स्पन्द
उर में भर झूली छवि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर
तू खुली एक उच्छवास संग,
विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग,
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैनें वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त की प्रथम गीति --
श्रृंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग --
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदल कर बना मही।
हो गया ब्याह आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमन्त्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में, "वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह अन्य कला।"
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त,
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अंत भी उसी गोद में शरण
ली, मूंदे दृग वर महामरण!
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!
मरण-दृश्य
(गीत)
कहा जो न, कहो!
नित्य - नूतन, प्राण, अपने
गान रच-रच दो!
विश्व सीमाहीन;
बाँधती जातीं मुझे कर कर
व्यथा से दीन!
कह रही हो--"दुःख की विधि--
यह तुम्हें ला दी नई निधि,
विहग के वे पंख बदले,--
किया जल का मीन;
मुक्त अम्बर गया, अब हो
जलधि-जीवन को!"
सकल साभिप्राय;
समझ पाया था नहीं मैं,
थी तभी यह हाय!
दिये थे जो स्नेह-चुम्बन,
आज प्याले गरल के घन;
कह रही हो हँस--"पियो, प्रिय,
पियो, प्रिय, निरुपाय!
मुक्ति हूँ मैं, मृत्यु में
आई हुई, न डरो!"

मुक्ति
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा
पत्थर, की निकलो फिर,
गंगा-जल-धारा!
गृह-गृह की पार्वती!
पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती
उर-उर की बनो आरती!--
भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा!--
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा!

खुला आसमान
हुत दिनों बाद खुला आसमान!
निकली है धूप, खुश हुआ जहान!
दिखी दिशाएँ, झलके पेड़,
चरने को चले ढोर--गाय-भैंस-भेड़,
खेलने लगे लड़के छेड़-छेड़--
लड़कियाँ घरों को कर भासमान!

लोग गाँव-गाँव को चले,
कोई बाजार, कोई बरगद के पेड़ के तले
जाँघिया-लँगोटा ले, सँभले,
तगड़े-तगड़े सीधे नौजवान!

पनघट में बड़ी भीड़ हो रही,
नहीं ख्याल आज कि भीगेगी चूनरी,
बातें करती हैं वे सब खड़ी,
चलते हैं नयनों के सधे बाण!
ठूँठ
ठूँठ यह है आज!
गई इसकी कला,
गया है सकल साज!
अब यह वसन्त से होता नहीं अधीर,
पल्लवित झुकता नहीं अब यह धनुष-सा,
कुसुम से काम के चलते नहीं हैं तीर,
छाँह में बैठते नहीं पथिक आह भर,
झरते नहीं यहाँ दो प्रणयियों के नयन-तीर,
केवल वृद्ध विहग एक बैठता कुछ कर याद।
कविता के प्रति
ऐ, कहो,
मौन मत रहो!
सेवक इतने कवि हैं--इतना उपचार--
लिये हुए हैं दैनिक सेवा का भार;
धूप, दीप, चन्दन, जल,
गन्ध-सुमन, दूर्वादल,
राग-भोग, पाठ-विमल मन्त्र,
पटु-करतल-गत मृदंग,
चपल नृत्य, विविध भंग,
वीणा-वादित सुरंग तन्त्र।
गूँज रहा मन्दर-मन्दिर का दृढ़ द्वार,
वहाँ सर्व-विषय-हीन दीन नमस्कार
दिया भू-पतित हो जिसने, क्या वह भी कवि?
सत्य कहो, सत्य कहो, वहु जीवन की छवि!
पहनाये ज्योतिर्मय, जलधि-जलद-भास
अथवा हिल्लोल-हरित-प्रकृति-परित वास,
मुक्ता के हार हृदय,
कर्ण कीर्ण हीरक-द्वय,
हाथ हस्ति-दन्त-वलय मणिमय,
चरण स्वर्ण-नूपुर कल,
जपालक्त श्रीपदतल,
आसन शत-श्वेतोत्पल-संचय।
धन्य धन्य कहते हैं जग-जन मन हार,
वहाँ एक दीन-हृदय ने दुर्वह भार--
’मेरे कुछ भी नहीं’--कह जो अर्पित किया,
कहो, विश्ववन्दिते, उसने भी कुछ दिया?
कितने वन-उपवन-उद्यान कुसुम-कलि-सजे
निरुपमिते, सगज-भार-चरण-चार से लजे;
गई चन्द्र-सूर्य-लोक,
ग्रह-ग्रह-पति गति अरोक,
नयनों के नवालोक से खिले
चित्रित बहु धवल धाम
अलका के-से विराम
सिहरे ज्यों चरण वाम जब मिले।
हुए कृती कविताग्रत राजकविसमूह,
किन्तु जहाँ पथ-बीहड़ कण्टक-गढ़-व्यूह,
कवि कुरूप, बुला रहा वन्यहार थाम,
कहो, वहाँ भी जाने को होते प्राण?

कितने वे भाव रसस्राव पुराने-नये
संसृति की सीमा के अपर पार जो गये,
गढ़ा इन्हीं से यह तन,
दिया इन्हीं से जीवन,
देखे हैं स्फुरित नयन इन्हीं से,
कवियों ने परम कान्ति
दी जग को चरम शान्ति,
की अपनी दूर भ्रान्ति इन्हीं से।
होगा इन भावों से हुआ तुम्हारा जीवन,
कमी नहीं रही कहीं कोई--कहते सब जन,
किन्तु वहीं जिसके आँसू निकले--हृदय हिला,--
कुछ न बना, कहो, कहो, उससे क्या भाव मिला?
अपराजिता
(गीत)
हारीं नहीं, देख, आँखें--
परी नागरी की;
नभ कर गंई पार पाखें
परी नागरी की।
तिल नीलिमा को रहे स्नेह से भर
जगकर नई ज्योति उतरी धरा पर,
रँग से भरी हैं, हरी हो उठीं हर
तरु की तरुण-तान शाखें;
परी नागरी की--
हारीं नहीं, देख, आँखें।
वसन्त की परी के प्रति
आओ, आओ फिर, मेरे बसन्त की परी--
छवि-विभावरी;
सिहरो, स्वर से भर भर, अम्बर की सुन्दरी-
छबि-विभावरी;

बहे फिर चपल ध्वनि-कलकल तरंग,
तरल मुक्त नव नव छल के प्रसंग,
पूरित-परिमल निर्मल सजल-अंग,
शीतल-मुख मेरे तट की निस्तल निझरी--
छबि-विभावरी;

निर्जन ज्योत्स्नाचुम्बित वन सघन,
सहज समीरण, कली निरावरण
आलिंगन दे उभार दे मन,
तिरे नृत्य करती मेरी छोटी सी तरी--
छबि-विभावरी;

आई है फिर मेरी ’बेला’ की वह बेला
’जुही की कली’ की प्रियतम से परिणय-हेला,
तुमसे मेरी निर्जन बातें--सुमिलन मेला,
कितने भावों से हर जब हो मन पर विहरी--
छबि-विभावरी;
वे किसान की नयी बहू की आँखें
तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका ।
मुझे भर लिया तुमने गोद में,
कितने चुम्बन दिये,
मेरे मानव-मनोविनोद में
नैसर्गिकता लिये;
सूखे श्रम-सीकर वे
छबि के निर्झर झरे नयनों से,
शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले,
मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका ।
राम की शक्ति पूजा
रवि हुआ अस्त; ज्योति के पत्र पर लिखा अमर
रह गया राम-रावण का अपराजेय समर
आज का तीक्ष्ण शर-विधृत-क्षिप्रकर, वेग-प्रखर,
शतशेलसम्वरणशील, नील नभगर्ज्जित-स्वर,
प्रतिपल - परिवर्तित - व्यूह - भेद कौशल समूह
राक्षस - विरुद्ध प्रत्यूह,-क्रुद्ध - कपि विषम हूह,
विच्छुरित वह्नि - राजीवनयन - हतलक्ष्य - बाण,
लोहितलोचन - रावण मदमोचन - महीयान,
राघव-लाघव - रावण - वारण - गत - युग्म - प्रहर,
उद्धत - लंकापति मर्दित - कपि - दल-बल - विस्तर,
अनिमेष - राम-विश्वजिद्दिव्य - शर - भंग - भाव,
विद्धांग-बद्ध - कोदण्ड - मुष्टि - खर - रुधिर - स्राव,
रावण - प्रहार - दुर्वार - विकल वानर - दल - बल,
मुर्छित - सुग्रीवांगद - भीषण - गवाक्ष - गय - नल,
वारित - सौमित्र - भल्लपति - अगणित - मल्ल - रोध,
गर्ज्जित - प्रलयाब्धि - क्षुब्ध हनुमत् - केवल प्रबोध,
उद्गीरित - वह्नि - भीम - पर्वत - कपि चतुःप्रहर,
जानकी - भीरू - उर - आशा भर - रावण सम्वर।

लौटे युग - दल - राक्षस - पदतल पृथ्वी टलमल,
बिंध महोल्लास से बार - बार आकाश विकल।
वानर वाहिनी खिन्न, लख निज - पति - चरणचिह्न
चल रही शिविर की ओर स्थविरदल ज्यों विभिन्न।

प्रशमित हैं वातावरण, नमित - मुख सान्ध्य कमल
लक्ष्मण चिन्तापल पीछे वानर वीर - सकल
रघुनायक आगे अवनी पर नवनीत-चरण,
श्लथ धनु-गुण है, कटिबन्ध स्रस्त तूणीर-धरण,
दृढ़ जटा - मुकुट हो विपर्यस्त प्रतिलट से खुल
फैला पृष्ठ पर, बाहुओं पर, वक्ष पर, विपुल
उतरा ज्यों दुर्गम पर्वत पर नैशान्धकार
चमकतीं दूर ताराएं ज्यों हों कहीं पार।

आये सब शिविर,सानु पर पर्वत के, मन्थर
सुग्रीव, विभीषण, जाम्बवान आदिक वानर
सेनापति दल - विशेष के, अंगद, हनुमान
नल नील गवाक्ष, प्रात के रण का समाधान
करने के लिए, फेर वानर दल आश्रय स्थल।

बैठे रघु-कुल-मणि श्वेत शिला पर, निर्मल जल
ले आये कर - पद क्षालनार्थ पटु हनुमान
अन्य वीर सर के गये तीर सन्ध्या - विधान
वन्दना ईश की करने को, लौटे सत्वर,
सब घेर राम को बैठे आज्ञा को तत्पर,
पीछे लक्ष्मण, सामने विभीषण, भल्लधीर,
सुग्रीव, प्रान्त पर पाद-पद्म के महावीर,
यूथपति अन्य जो, यथास्थान हो निर्निमेष
देखते राम का जित-सरोज-मुख-श्याम-देश।

है अमानिशा, उगलता गगन घन अन्धकार,
खो रहा दिशा का ज्ञान, स्तब्ध है पवन-चार,
अप्रतिहत गरज रहा पीछे अम्बुधि विशाल,
भूधर ज्यों ध्यानमग्न, केवल जलती मशाल।
स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर - फिर संशय
रह - रह उठता जग जीवन में रावण-जय-भय,
जो नहीं हुआ आज तक हृदय रिपु-दम्य-श्रान्त,
एक भी, अयुत-लक्ष में रहा जो दुराक्रान्त,
कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार - बार,
असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार।

ऐसे क्षण अन्धकार घन में जैसे विद्युत
जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छवि अच्युत
देखते हुए निष्पलक, याद आया उपवन
विदेह का, -प्रथम स्नेह का लतान्तराल मिलन
नयनों का-नयनों से गोपन-प्रिय सम्भाषण,-
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान-पतन,-
काँपते हुए किसलय,-झरते पराग-समुदय,-
गाते खग-नव-जीवन-परिचय-तरू मलय-वलय,-
ज्योतिःप्रपात स्वर्गीय,-ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,-
जानकी-नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।

सिहरा तन, क्षण-भर भूला मन, लहरा समस्त,
हर धनुर्भंग को पुनर्वार ज्यों उठा हस्त,
फूटी स्मिति सीता ध्यान-लीन राम के अधर,
फिर विश्व-विजय-भावना हृदय में आयी भर,
वे आये याद दिव्य शर अगणित मन्त्रपूत,-
फड़का पर नभ को उड़े सकल ज्यों देवदूत,
देखते राम, जल रहे शलभ ज्यों रजनीचर,
ताड़का, सुबाहु, बिराध, शिरस्त्रय, दूषण, खर;
फिर देखी भीम मूर्ति आज रण देखी जो
आच्छादित किये हुए सम्मुख समग्र नभ को,
ज्योतिर्मय अस्त्र सकल बुझ बुझ कर हुए क्षीण,
पा महानिलय उस तन में क्षण में हुए लीन;
लख शंकाकुल हो गये अतुल बल शेष शयन,
खिंच गये दृगों में सीता के राममय नयन;
फिर सुना हँस रहा अट्टहास रावण खलखल,
भावित नयनों से सजल गिरे दो मुक्तादल।

बैठे मारुति देखते राम-चरणारविन्द-
युग 'अस्ति-नास्ति' के एक रूप, गुण-गण-अनिन्द्य;
साधना-मध्य भी साम्य-वाम-कर दक्षिणपद,
दक्षिण-कर-तल पर वाम चरण, कपिवर गद् गद्
पा सत्य सच्चिदानन्द रूप, विश्राम - धाम,
जपते सभक्ति अजपा विभक्त हो राम - नाम।
युग चरणों पर आ पड़े अस्तु वे अश्रु युगल,
देखा कपि ने, चमके नभ में ज्यों तारादल;
ये नहीं चरण राम के, बने श्यामा के शुभ,-
सोहते मध्य में हीरक युग या दो कौस्तुभ;
टूटा वह तार ध्यान का, स्थिर मन हुआ विकल,
सन्दिग्ध भाव की उठी दृष्टि, देखा अविकल
बैठे वे वहीं कमल-लोचन, पर सजल नयन,
व्याकुल-व्याकुल कुछ चिर-प्रफुल्ल मुख निश्चेतन।
"ये अश्रु राम के" आते ही मन में विचार,
उद्वेल हो उठा शक्ति - खेल - सागर अपार,
हो श्वसित पवन - उनचास, पिता पक्ष से तुमुल
एकत्र वक्ष पर बहा वाष्प को उड़ा अतुल,
शत घूर्णावर्त, तरंग - भंग, उठते पहाड़,
जल राशि - राशि जल पर चढ़ता खाता पछाड़,
तोड़ता बन्ध-प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष
दिग्विजय-अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष,
शत-वायु-वेग-बल, डूबा अतल में देश - भाव,
जलराशि विपुल मथ मिला अनिल में महाराव
वज्रांग तेजघन बना पवन को, महाकाश
पहुँचा, एकादश रूद्र क्षुब्ध कर अट्टहास।
रावण - महिमा श्यामा विभावरी, अन्धकार,
यह रूद्र राम - पूजन - प्रताप तेजः प्रसार;
उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध-पूजित,
इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन - कूजित,
करने को ग्रस्त समस्त व्योम कपि बढ़ा अटल,
लख महानाश शिव अचल, हुए क्षण-भर चंचल,
श्यामा के पद तल भार धरण हर मन्द्रस्वर
बोले- "सम्बरो, देवि, निज तेज, नहीं वानर
यह, -नहीं हुआ श्रृंगार-युग्म-गत, महावीर,
अर्चना राम की मूर्तिमान अक्षय - शरीर,
चिर - ब्रह्मचर्य - रत, ये एकादश रूद्र धन्य,
मर्यादा - पुरूषोत्तम के सर्वोत्तम, अनन्य,
लीलासहचर, दिव्यभावधर, इन पर प्रहार
करने पर होगी देवि, तुम्हारी विषम हार;
विद्या का ले आश्रय इस मन को दो प्रबोध,
झुक जायेगा कपि, निश्चय होगा दूर रोध।"

कह हुए मौन शिव, पतन तनय में भर विस्मय
सहसा नभ से अंजनारूप का हुआ उदय।
बोली माता "तुमने रवि को जब लिया निगल
तब नहीं बोध था तुम्हें, रहे बालक केवल,
यह वही भाव कर रहा तुम्हें व्याकुल रह रह।
यह लज्जा की है बात कि माँ रहती सह सह।
यह महाकाश, है जहाँ वास शिव का निर्मल,
पूजते जिन्हें श्रीराम उसे ग्रसने को चल
क्या नहीं कर रहे तुम अनर्थ? सोचो मन में,
क्या दी आज्ञा ऐसी कुछ श्री रधुनन्दन ने?
तुम सेवक हो, छोड़कर धर्म कर रहे कार्य,
क्या असम्भाव्य हो यह राघव के लिये धार्य?"
कपि हुए नम्र, क्षण में माता छवि हुई लीन,
उतरे धीरे धीरे गह प्रभुपद हुए दीन।

राम का विषण्णानन देखते हुए कुछ क्षण,
"हे सखा" विभीषण बोले "आज प्रसन्न वदन
वह नहीं देखकर जिसे समग्र वीर वानर
भल्लुक विगत-श्रम हो पाते जीवन निर्जर,
रघुवीर, तीर सब वही तूण में हैं रक्षित,
है वही वक्ष, रणकुशल हस्त, बल वही अमित,
हैं वही सुमित्रानन्दन मेघनादजित् रण,
हैं वही भल्लपति, वानरेन्द्र सुग्रीव प्रमन,
ताराकुमार भी वही महाबल श्वेत धीर,
अप्रतिभट वही एक अर्बुद सम महावीर
हैं वही दक्ष सेनानायक है वही समर,
फिर कैसे असमय हुआ उदय यह भाव प्रहर।
रघुकुलगौरव लघु हुए जा रहे तुम इस क्षण,
तुम फेर रहे हो पीठ, हो रहा हो जब जय रण
कितना श्रम हुआ व्यर्थ, आया जब मिलनसमय,
तुम खींच रहे हो हस्त जानकी से निर्दय!
रावण? रावण लम्पट, खल कल्म्ष गताचार,
जिसने हित कहते किया मुझे पादप्रहार,
बैठा उपवन में देगा दुख सीता को फिर,
कहता रण की जय-कथा पारिषद-दल से घिर,
सुनता वसन्त में उपवन में कल-कूजित पिक
मैं बना किन्तु लंकापति, धिक राघव, धिक्-धिक्?

सब सभा रही निस्तब्ध
राम के स्तिमित नयन
छोड़ते हुए शीतल प्रकाश देखते विमन,
जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हें कुछ चाव, न कोई दुराव,
ज्यों हों वे शब्दमात्र मैत्री की समनुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।

कुछ क्षण तक रहकर मौन सहज निज कोमल स्वर,
बोले रघुमणि-"मित्रवर, विजय होगी न समर,
यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,
अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति।" कहते छल छल
हो गये नयन, कुछ बूँद पुनः ढलके दृगजल,
रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण तेजः प्रचण्ड
धँस गया धरा में कपि गह युगपद, मसक दण्ड
स्थिर जाम्बवान, समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव, हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित सा करते हुए विभीषण कार्यक्रम
मौन में रहा यों स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले-"आया न समझ में यह दैवी विधान।
रावण, अधर्मरत भी, अपना, मैं हुआ अपर,
यह रहा, शक्ति का खेल समर, शंकर, शंकर!
करता मैं योजित बार-बार शर-निकर निशित,
हो सकती जिनसे यह संसृति सम्पूर्ण विजित,
जो तेजः पुंज, सृष्टि की रक्षा का विचार,
हैं जिसमें निहित पतन घातक संस्कृति अपार।

शत-शुद्धि-बोध, सूक्ष्मातिसूक्ष्म मन का विवेक,
जिनमें है क्षात्रधर्म का धृत पूर्णाभिषेक,
जो हुए प्रजापतियों से संयम से रक्षित,
वे शर हो गये आज रण में, श्रीहत खण्डित!
देखा हैं महाशक्ति रावण को लिये अंक,
लांछन को ले जैसे शशांक नभ में अशंक,
हत मन्त्रपूत शर सम्वृत करतीं बार-बार,
निष्फल होते लक्ष्य पर क्षिप्र वार पर वार।
विचलित लख कपिदल क्रुद्ध, युद्ध को मैं ज्यों ज्यों,
झक-झक झलकती वह्नि वामा के दृग त्यों-त्यों,
पश्चात्, देखने लगीं मुझे बँध गये हस्त,
फिर खिंचा न धनु, मुक्त ज्यों बँधा मैं, हुआ त्रस्त!"

कह हुए भानुकुलभूष्ण वहाँ मौन क्षण भर,
बोले विश्वस्त कण्ठ से जाम्बवान-"रघुवर,
विचलित होने का नहीं देखता मैं कारण,
हे पुरुषसिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण,
आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर,
तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर।
रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सकता त्रस्त
तो निश्चय तुम हो सिद्ध करोगे उसे ध्वस्त,
शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन।
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन!
तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,
मध्य भाग में अंगद, दक्षिण-श्वेत सहायक।
मैं, भल्ल सैन्य, हैं वाम पार्श्व में हनुमान,
नल, नील और छोटे कपिगण, उनके प्रधान।
सुग्रीव, विभीषण, अन्य यथुपति यथासमय
आयेंगे रक्षा हेतु जहाँ भी होगा भय।"

खिल गयी सभा। "उत्तम निश्चय यह, भल्लनाथ!"
कह दिया वृद्ध को मान राम ने झुका माथ।
हो गये ध्यान में लीन पुनः करते विचार,
देखते सकल-तन पुलकित होता बार-बार।
कुछ समय अनन्तर इन्दीवर निन्दित लोचन
खुल गये, रहा निष्पलक भाव में मज्जित मन,
बोले आवेग रहित स्वर सें विश्वास स्थित
"मातः, दशभुजा, विश्वज्योति; मैं हूँ आश्रित;
हो विद्ध शक्ति से है खल महिषासुर मर्दित;
जनरंजन-चरण-कमल-तल, धन्य सिंह गर्जित!
यह, यह मेरा प्रतीक मातः समझा इंगित,
मैं सिंह, इसी भाव से करूँगा अभिनन्दित।
कुछ समय तक स्तब्ध हो रहे राम छवि में निमग्न,
फिर खोले पलक कमल ज्योतिर्दल ध्यान-लग्न।
हैं देख रहे मन्त्री, सेनापति, वीरासन
बैठे उमड़ते हुए, राघव का स्मित आनन।
बोले भावस्थ चन्द्रमुख निन्दित रामचन्द्र,
प्राणों में पावन कम्पन भर स्वर मेघमन्द्र,
"देखो, बन्धुवर, सामने स्थिर जो वह भूधर
शोभित शत-हरित-गुल्म-तृण से श्यामल सुन्दर,
पार्वती कल्पना हैं इसकी मकरन्द विन्दु,
गरजता चरण प्रान्त पर सिंह वह, नहीं सिन्धु।

दशदिक समस्त हैं हस्त, और देखो ऊपर,
अम्बर में हुए दिगम्बर अर्चित शशि-शेखर,
लख महाभाव मंगल पदतल धँस रहा गर्व,
मानव के मन का असुर मन्द हो रहा खर्व।"
फिर मधुर दृष्टि से प्रिय कपि को खींचते हुए
बोले प्रियतर स्वर सें अन्तर सींचते हुए,
"चाहिए हमें एक सौ आठ, कपि, इन्दीवर,
कम से कम, अधिक और हों, अधिक और सुन्दर,
जाओ देवीदह, उषःकाल होते सत्वर
तोड़ो, लाओ वे कमल, लौटकर लड़ो समर।"
अवगत हो जाम्बवान से पथ, दूरत्व, स्थान,
प्रभुपद रज सिर धर चले हर्ष भर हनुमान।
राघव ने विदा किया सबको जानकर समय,
सब चले सदय राम की सोचते हुए विजय।
निशि हुई विगतः नभ के ललाट पर प्रथम किरण
फूटी रघुनन्दन के दृग महिमा ज्योति हिरण।

हैं नहीं शरासन आज हस्त तूणीर स्कन्ध
वह नहीं सोहता निविड़-जटा-दृढ़-मुकुट-बन्ध,
सुन पड़ता सिंहनाद,-रण कोलाहल अपार,
उमड़ता नहीं मन, स्तब्ध सुधी हैं ध्यान धार,
पूजोपरान्त जपते दुर्गा, दशभुजा नाम,
मन करते हुए मनन नामों के गुणग्राम,
बीता वह दिवस, हुआ मन स्थिर इष्ट के चरण
गहन-से-गहनतर होने लगा समाराधन।

क्रम-क्रम से हुए पार राघव के पंच दिवस,
चक्र से चक्र मन बढ़ता गया ऊर्ध्व निरलस,
कर-जप पूरा कर एक चढाते इन्दीवर,
निज पुरश्चरण इस भाँति रहे हैं पूरा कर।
चढ़ षष्ठ दिवस आज्ञा पर हुआ समाहित-मन,
प्रतिजप से खिंच-खिंच होने लगा महाकर्षण,
संचित त्रिकुटी पर ध्यान द्विदल देवी-पद पर,
जप के स्वर लगा काँपने थर-थर-थर अम्बर।
दो दिन निःस्पन्द एक आसन पर रहे राम,
अर्पित करते इन्दीवर जपते हुए नाम।
आठवाँ दिवस मन ध्यान-युक्त चढ़ता ऊपर
कर गया अतिक्रम ब्रह्मा-हरि-शंकर का स्तर,
हो गया विजित ब्रह्माण्ड पूर्ण, देवता स्तब्ध,
हो गये दग्ध जीवन के तप के समारब्ध।
रह गया एक इन्दीवर, मन देखता पार
प्रायः करने हुआ दुर्ग जो सहस्रार,
द्विप्रहर, रात्रि, साकार हुई दुर्गा छिपकर
हँस उठा ले गई पूजा का प्रिय इन्दीवर।

यह अन्तिम जप, ध्यान में देखते चरण युगल
राम ने बढ़ाया कर लेने को नीलकमल।
कुछ लगा न हाथ, हुआ सहसा स्थिर मन चंचल,
ध्यान की भूमि से उतरे, खोले पलक विमल।
देखा, वह रिक्त स्थान, यह जप का पूर्ण समय,
आसन छोड़ना असिद्धि, भर गये नयनद्वय,
"धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका,
जो नहीं जानता दैन्य, नहीं जानता विनय,
कर गया भेद वह मायावरण प्राप्त कर जय,
बुद्धि के दुर्ग पहुँचा विद्युतगति हतचेतन
राम में जगी स्मृति हुए सजग पा भाव प्रमन।

"यह है उपाय", कह उठे राम ज्यों मन्द्रित घन-
"कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन।
दो नील कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मातः एक नयन।"
कहकर देखा तूणीर ब्रह्मशर रहा झलक,
ले लिया हस्त, लक-लक करता वह महाफलक।
ले अस्त्र वाम पर, दक्षिण कर दक्षिण लोचन
ले अर्पित करने को उद्यत हो गये सुमन
जिस क्षण बँध गया बेधने को दृग दृढ़ निश्चय,
काँपा ब्रह्माण्ड, हुआ देवी का त्वरित उदय-
"साधु, साधु, साधक धीर, धर्म-धन धन्य राम!"
कह, लिया भगवती ने राघव का हस्त थाम।
देखा राम ने, सामने श्री दुर्गा, भास्वर
वामपद असुर-स्कन्ध पर, रहा दक्षिण हरि पर।
ज्योतिर्मय रूप, हस्त दश विविध अस्त्र सज्जित,
मन्द स्मित मुख, लख हुई विश्व की श्री लज्जित।
हैं दक्षिण में लक्ष्मी, सरस्वती वाम भाग,
दक्षिण गणेश, कार्तिक बायें रणरंग राग,
मस्तक पर शंकर! पदपद्मों पर श्रद्धाभर
श्री राघव हुए प्रणत मन्द स्वर वन्दन कर।

"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन।"
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।
सखा के प्रति
रोग स्वास्थ्य में, सुख में दुख, है अन्धकार में जहाँ प्रकाश,
शिशु के प्राणों का साक्षी है रोदन जहाँ वहाँ क्या आश
सुख की करते हो तुम, मतिमन?--छिड़ा हुआ है रण अविराम
घोर द्वन्द्व का; यहाँ पुत्र को पिता भी नहीं देता स्थान।
गूँज रहा रव घोर स्वार्थ का, यहाँ शान्ति का मुक्ताकार
कहाँ? नरक प्रत्यक्ष स्वर्ग है; कौन छोड़ सकता संसार?
कर्म-पाश से बँधा गला, वह क्रीतदास जाये किस ठौर?
सोचा, समझा है मैंने, पर एक उपाय न देखा और,
योग-भोग, जप-तप, धन-संचय, गार्हस्थ्याश्रम, दृढ़ सन्यास,
त्याग-तपस्या-व्रत सब देखा, पाया है जो मर्माभास
मैंने, समझा, कहीं नहीं सुख, है यह तनु-धारण ही व्यर्थ,
उतना ही दुख है जितना ही ऊँचा है तव हृदय समर्थ।

हे सहृदय, निस्वार्थ प्रेम के! नहीं तुम्हारा जग में स्थान,
लौह-पिण्ड जो चोटें सहता, मर्मर के अति-कोमल प्राण
उन चोटों को सह सकते क्या? होओ जड़वत, नीचाधार,
मधु-मुख, गरल-हृदय, निजता-रत, मिथ्यापर, देगा संसार
जगह तुम्हें तब। विद्यार्जन के लिए प्राण-पण से अतिपात
अर्द्ध आयु का किया, फिरा फिर पागल-सा फैलाये हाथ
प्राण-रहित छाया के पीछे लुब्ध प्रेम का, विविध निषेध--
विधियाँ की हैं धर्म-प्राप्ति को, गंगा-तट, श्मशान, गत-खेद,
नदी-तीर, पर्वत-गह्वर फिर; भिक्षाटन में समय अपार
पार किया असहाय, छिन्न कौपीन जीर्ण अम्बर तनु धार
द्वार-द्वार फिर, उदर-पूर्ति कर, भग्न शरीर तपस्या-भार--
धारण से, पर अर्जित क्या पाया है मैंने अन्तर-सार--
सुनो, सत्य जो जीवन में मैंने समझा है-यह संसार
घोर तरंगाघात-क्षुब्ध है--एक नाव जो करती पार,--
तन्त्र, मन्त्र, नियमन प्राणों का, मत अनेक, दर्शन-विज्ञान,
त्याग-भोग, भ्रम घोर बुद्धि का, ’प्रेम प्रेम’ धन को पहचान
जीव-ब्रह्म-नर-निर्जर-ईश्वर-प्रेत-पिशाच-भूत-बैताल-
पशु-पक्षी-कीटाणुकीट में यही प्रेम अन्तर-तम-ज्वाल।
देव, देव! वह और कौन है, कहो चलाता सबको कौन?

--माँ को पुत्र के लिये देता प्राण,--दस्यु हरता है, मौन
प्रेरण एक प्रेम का ही। वे हैं मन-वाणी से अज्ञात--
वे ही सुख-दुख में रहती हैं--शक्ति मृत्यु-रूपा अवदात,
मातृभाव से वे ही आतीं। रोग, शोक, दारिद्रय कठोर,
धर्म, अधर्म शुभाशुभ में है पूजा उनकी ही सब ओर,
बहु भावों से, कहो और क्या कर सकता है जीव विधान?
भ्रम में ही है वह सुख की आकांक्षा में हैं डूबे प्राण
जिसके, वैसे दुख की रखता है जो चाह--घोर उन्माद!--
मृत्यु चाहता है-पागल है वह भी, वृथा अमरतावाद!
जितनी दूर, दूर चाहे जितना जाओ चढ़कर रथ पर
तीव्र बुद्धि के, वहाँ वहाँ तक फैला यही जलधि दुस्तर
संसृति का, सुख-दुःख-तरंगावर्त-घूर्ण्य, कम्पित, चंचल,
पंख-विहीन हो रहे हो तुम, सुनो यहाँ के विहग सकल!
नहीं कहीं उड़ने का पथ है, कहाँ भाव जाओगे तुम?
बार बार आघात पा रहे--व्यर्थ कर रहो हो उद्यम!
छोड़ी विद्या जप-तप का बल; स्वार्थ-विहीन प्रेम आधार
एक हृदय का, देखो, शिक्षा देता है पतंग कर प्यार
अग्नि-शिखा को आलिंगन कर, रूप-मुग्ध वह कीट अधम
अन्ध, और तुम मत्त प्रेम के, हृदय तुम्हारा उज्जवलतम।

प्रेमवन्त! सब स्वार्थ-मलिनत अनल कुण्ड में भस्मीकृत
कर दो, सोचो, भिक्षुक-हृदय सदा का ही है सुख-वर्जित,
और कृपा के पात्र हुए भी तो क्या फल, तुम बारम्बार
सोचो, दो, न फेर कर को यदि हो अन्तर में कुछ भी प्यार।
अन्तस्तल के अधिकारी तुम, सिन्धु प्रेम का भरा अपार
अन्तर में, दो जो चाहे, हो बिन्दु सिन्धु उसका निःसार।

ब्रह्म और परमाणु-कीट तक, सब भूतों का है आधार
एक प्रेममय, प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार!
बहु रूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश?
व्यर्थ खोज। यह जीव-प्रेम की ही सेवा पाते जगदीश।*

सेवा-प्रारम्भ
अल्प दिन हुए,
भक्तों ने रामकृष्ण के चरण छुए।
जगी साधना
जन-जन में भारत की नवाराधना।

नई भारती
जागी जन-जन को कर नई आरती।
घेर गगन को अगणन
जागे रे चन्द्र-तपन-
पृथ्वी-ग्रह-तारागण ध्यानाकर्षण,
हरित-कृष्ण-नील-पीत-
रक्त-शुभ्र-ज्योति-नीत
नव नव विश्वोपवीत, नव नव साधन।
खुले नयन नवल रे--
ॠतु के-से मित्र सुमन
करते ज्यों विश्व-स्तवन
आमोदित किये पवन भिन्न गन्ध से।

अपर ओर करता विज्ञान घोर नाद
दुर्धर शत-रथ-घर्घर विश्व-विजय-वाद।
स्थल-जल है समाच्छन्न
विपुल-मार्ग-जाल-जन्य,
तार-तार समुत्सन्न देश-महादेश,
निर्मित शत लौहयन्त्र
भीमकाय मृत्युतन्त्र
चूस रहे अन्त्र, मन्त्र रहा यही शेष।
बढ़े समर के प्रकरण,
नये नये हैं प्रकरण,
छाया उन्माद मरण-कोलाहल का,
दर्प ज़हर, जर्जर नर,
स्वार्थपूर्ण गूँजा स्वर,
रहा है विरोध घहर इस-उस दल का।
बँधा व्योम, बढ़ी चाह,
बहा प्रखरतर प्रवाह,
वैज्ञानिक समुत्साह आगे,
सोये सौ-सौ विचार
थपकी दे बार-बार
मौलिक मन को मुधार जागे!
मैक्सिम-गन करने को जीवन-संहार
हुआ जहाँ, खुला वहीं नोब्ल-पुरस्कार!
राजनीति नागिनी
बसती है, हुई सभ्यता अभागिनी।

जितने थे यहाँ नवयुवक--
ज्योति के तिलक--
खड़े सहोत्साह,
एक-एक लिये हुए प्रलयानल-दाह।
श्री ’विवेक’, ’ब्रह्म’, ’प्रेम’, ’सारदा’,*
ज्ञान-योग-भक्ति-कर्म-धर्म-नर्मदा,--
वहीं विविध आध्यात्मिक धाराएँ
तोड़ गहन प्रस्तर की काराएँ,
क्षिति को कर जाने को पार,
पाने को अखिल विश्व का समस्त सार।
गृही भी मिले,
आध्यात्मिक जीवन के रूप में यों खिले।
अन्य ओर भीषण रव--यान्त्रिक झंकार--
विद्या का दम्भ,
यहाँ महामौनभरा स्तब्ध निराकार--
नैसर्गिक रंग।

बहुत काल बाद
अमेरिका-धर्ममहासभा का निनाद
विश्व ने सुना, काँपी संसृति की थी दरी,
गरजा भारत का वेदान्त-केसरी।
श्रीमत्स्वामी विवेकानन्द
भारत के मुक्त-ज्ञानछन्द
बँधे भारती के जीवन से
गान गहन एक ज्यों गगन से,
आये भारत, नूतन शक्ति ले जगी
जाति यह रँगी।

स्वामी श्रीमदखण्डानन्द जी
एक और प्रति उस महिमा की,
करते भिक्षा फिर निस्सम्बल
भगवा-कौपीन-कमण्डलु-केवल;
फिरते थे मार्ग पर
जैसे जीवित विमुक्त ब्रह्म-शर।
इसी समय भक्त रामकृष्ण के
एक जमींदार महाशय दिखे।
एक दूसरे को पहचान कर
प्रेम से मिले अपना अति प्रिय जन जान कर।
जमींदार अपने घर ले गये,
बोले--"कितने दयालु रामकृष्ण देव थे!
आप लोग धन्य हैं,
उनके जो ऐसे अपने, अनन्य हैं।"--
द्रवित हुए। स्वामी जी ने कहा,--
"नवद्वीप जाने की है इच्छा,--
महाप्रभु श्रीमच्चैतन्यदेव का स्थल
देखूँ, पर सम्यक निस्सम्बल
हूँ इस समय, जाता है पास तक जहाज,
सुना है कि छूटेगा आज!"
धूप चढ़ रही थी, बाहर को
ज़मींदार ने देखा,--घर को,--
फिर घड़ी, हुई उन्मन
अपने आफिस का कर चिन्तन;
उठे, गये भीतर,
बड़ी देर बाद आये बाहर,
दिया एक रूपया, फिर फिरकर
चले गये आफिस को सत्वर।

स्वामी जी घाट पर गये,
"कल जहाज छूटेगा" सुनकर
फिर रुक नहीं सके,
जहाँ तक करें पैदल पार--
गंगा के तीर से चले।
चढ़े दूसरे दिन स्टीमर पर
लम्बा रास्ता पैदल तै कर।
आया स्टीमर, उतरे प्रान्त पर, चले,
देखा, हैं दृश्य और ही बदले,--
दुबले-दुबले जितने लोग,
लगा देश भर को ज्यों रोग,
दौड़ते हुए दिन में स्यार
बस्ती में--बैठे भी गीध महाकार,
आती बदबू रह-रह,
हवा बह रही व्याकुल कह-कह;
कहीं नहीं पहले की चहल-पहल,
कठिन हुआ यह जो था बहुत सहल।
सोचते व देखते हुए
स्वामीजी चले जा रहे थे।

इसी समय एक मुसलमान-बालिका
भरे हुए पानी मृदु आती थी पथ पर, अम्बुपालिका;
घड़ा गिरा, फूटा,
देख बालिका का दिल टूटा,
होश उड़ गये,
काँपी वह सोच के,
रोई चिल्लाकर,
फिर ढाढ़ मार-मार कर
जैसे माँ-बाप मरे हों घर।
सुनकर स्वामी जी का हृदय हिला,
पूछा--"कह, बेटी, कह, क्या हुआ?"
फफक-फफक कर
कहा बालिका ने,--"मेरे घर
एक यही बचा था घड़ा,
मारेगी माँ सुनकर फूटा।"
रोईफिर वह विभूति कोई!
स्वामीजी ने देखीं आँखें--
गीली वे पाँखें,
करुण स्वर सुना,
उमड़ी स्वामीजी में करुणा।
बोले--"तुम चलो
घड़े की दूकान जहाँ हो,
नया एक ले दें;"
खिलीं बालिका की आँखें।
आगे-आगे चली
बड़ी राह होती बाज़ार की गली,
आ कुम्हार के यहाँ
खड़ी हो गई घड़े दिखा।

एक देखकर
पुख्ता सब में विशेखकर,
स्वामीजी ने उसे दिला दिया,
खुश होकर हुई वह विदा।
मिले रास्ते में लड़के
भूखों मरते।
बोली यह देख के,--"एक महाराज
आये हैं आज,
पीले-पीले कपड़े पहने,
होंगे उस घड़े की दूकान पर खड़े,
इतना अच्छा घड़ा
मुझे ले दिया!
जाओ, पकड़ो उन्हें, जाओ,
ले देंगे खाने को, खाओ।"

दौड़े लड़के,
तब तक स्वामीजी थे बातें करते,
कहता दूकानदार उनसे,--"हे महाराज,
ईश्वर की गाज
यहाँ है गिरी, है बिपत बड़ी,
पड़ा है अकाल,
लोग पेट भरते हैं खा-खाकर पेड़ों की छाल।
कोई नहीं देता सहारा,
रहता हर एक यहाँ न्यारा,
मदद नहीं करती सरकार,
क्या कहूँ, ईश्वर ने ही दी है मार
तो कौन खड़ा हो?"
इसी समय आये वे लड़के,
स्वामी जी के पैरों आ पड़े।
पेट दिखा, मुँह को ले हाथ,
करुणा की चितवन से, साथ
बोले,--"खाने को दो,
राजों के महाराज तुम हो।"
चार आने पैसे
स्वामी के तब तक थे बचे।
चूड़ा दिलवा दिया,
खुश होकर लड़कों ने खाया, पानी पिया।
हँसा एक लड़का, फिर बोला--
"यहाँ एक बुढ़िया भी है, बाबा,
पड़ी झोपड़ी में मरती है, तुम देख लो
उसे भी, चलो।"
कितना यह आकर्षण,
स्वामीजी के उठे चरण।

लड़के आगे हुए,
स्वामी पीछे चले।
खुश हो नायक ने आवाज दी,--
"बुढ़िया री, आये हैं बाबा जी।"
बुढ़िया मर रही थी
गन्दे में फर्श पर पड़ी।
आँखों में ही कहा
जैसा कुछ उस पर बीता था।
स्वामीजी पैठे
सेवा करने लगे,
साफ की वह जगह,
दवा और पथ फिर देने लगे
मिलकर अफसरों से
भीग माग बड़े-बड़े घरों से।
लिखा मिशन को भी
दृश्य और भाव दिखा जो भी।
खड़ी हुई बुढ़िया सेवा से,
एक रोज बोली,--"तुम मेरे बेटे थे उस जन्म के।"
स्वामीजी ने कहा,--
"अबके की भी हो तुम मेरी माँ।"
नारायण मिलें हँस अन्त में
याद है वह हरित दिन
बढ़ रहा था ज्योति के जब सामने मैं
देखता
दूर-विस्तॄत धूम्र-धूसर पथ भविष्यत का विपुल
आलोचनाओं से जटिल
तनु-तन्तुओं सा सरल-वक्र, कठोर-कोमल हास सा,
गम्य-दुर्गम मुख-बहुल नद-सा भरा।

थक गई थी कल्पना
जल-यान-दण्ड-स्थित खगी-सी
खोजती तट-भूमि सागर-गर्भ में,
फिर फिरी थककर उसी दुख-दण्ड पर।
पवन-पीड़ित पत्र-सा
कम्पन प्रथम वह अब न था।
शान्ति थी, सब
हट गये बादल विकल वे व्योम के।

उस प्रणय के प्रात के है आज तक
याद मुझको जो किरण
बाल-यौवन पर पड़ी थी;
नयन वे
खींचते थे चित्र अपने सौख्य के।

श्रान्ति और प्रतीति की
चल रही थी तूलिका;
विश्व पर विश्वास छाया था नया।
कल्प-तरु के, नये कोंपल थे उगे।

हिल चुका हूँ मैं हवा में; हानि क्या
यदि झड़ूँ, बहता फिरूँ मैं अन्तहीन प्रवाह में
तब तक न जब तक दूर हो निज ज्ञान--
नारायण मिलें हँस अन्त में।
प्रकाश
रोक रहे हो जिन्हें
नहीं अनुराग-मूर्ति वे
किसी कृष्ण के उर की गीता अनुपम?
और लगाना गले उन्हें--
जो धूलि-धूसरित खड़े हुए हैं--
कब से प्रियतम, है भ्रम?
हुई दुई में अगर कहीं पहचान
तो रस भी क्या--
अपने ही हित का गया न जब अनुमान?
है चेतन का आभास
जिसे, देखा भी उसने कभी किसी को दास?
नहीं चाहिए ज्ञान
जिसे, वह समझा कभी प्रकाश?
नर्गिस
बीत चुका शीत, दिन वैभव का दीर्घतर
डूब चुका पश्चिम में, तारक-प्रदीप-कर
स्निग्ध-शान्त-दृष्टि सन्ध्या चली गई मन्द मन्द
प्रिय की समाधि-ओर, हो गया है रव बन्द
विहगों का नीड़ों पर, केवल गंगा का स्वर
सत्य ज्यों शाश्वत सुन पड़ता है स्पष्ट तर,
बहता है साथ गत गौरव का दीर्घ काल
प्रहत-तरंग-कर-ललित-तरल-ताल।

चैत्र का है कृष्ण पक्ष, चन्द्र तृतीया का आज
उग आया गगन में, ज्योत्स्ना तनु-शुभ्र-साज
नन्दन की अप्सरा धरा को विनिर्जन जान
उतरी सभय करने को नैश गंगा-स्नान।

तट पर उपवन सुरम्य, मैं मौनमन
बैठा देखता हूँ तारतम्य विश्व का सघन;
जान्हवी को घेर कर आप उठे ज्यों करार
त्यों ही नभ और पृथ्वी लिये ज्योत्स्ना ज्योतिर्धार,
सूक्ष्मतम होता हुआ जैसे तत्व ऊपर को
गया, श्रेष्ठ मान लिया लोगों ने महाम्बर को,
स्वर्ग त्यों धरा से श्रेष्ठ, बड़ी देह से कल्पना,
श्रेष्ठ सृष्टि स्वर्ग की है खड़ी सशरीर ज्योत्स्ना।
(२)
युवती धरा का यह था भरा वसन्त-काल,
हरे-भरे स्तनों पर पड़ी कलियों की माल,
सौरभ से दिक्कुमारियों का मन सींचकर
बहता है पवन प्रसन्न तन खींचकर।
पृथ्वी स्वर्ग से ज्यों कर रही है होड़ निष्काम
मैंने फेर मुख देखा, खिली हुई अभिराम
नर्गिस, प्रणय के ज्यों नयन हों एकटक
मुख पर लिखी अविश्वास की रेखाएँ पढ़
स्नेह के निगड़ में ज्यों बँधे भी रहे हैं कढ़।
कहती ज्यों नर्गिस--"आई जो परी पृथ्वी पर
स्वर्ग की, इसी से हो गई है क्या सुन्दरतर?

पार कर अन्धकार आई जो आकाश पर,
सत्य कहो, मित्र, नहीं सकी स्वर्ग प्राप्त कर?
कौन अधिक सुन्दर है--देह अथवा आँखें?
चाहते भी जिसे तुम--पक्षी वह या कि पाँखें?
स्वर्ग झुक आये यदि धरा पर तो सुन्दर
या कि यदि धरा चढ़े स्वर्ग पर तो सुघर?"
बही हवा नर्गिस की, मन्द छा गई सुगन्ध,
धन्य, स्वर्ग यही, कह किये मैंने दृग बन्द।

नासमझी
समझ नहीं सके तुम,
हारे हुए झुके तभी नयन तुम्हारे, प्रिय।
भरा उल्लास था हॄदय में मेरे जब,--
काँपा था वक्ष,
तब देखी थी तुमने
मेरे मल्लिका के हार की
कम्पन, सौन्दर्य को!
उक्ति (जला है जीवन यह)
जला है जीवन यह
आतप में दीर्घकाल;
सूखी भूमि, सूखे तरु,
सूखे सिक्त आलबाल;
बन्द हुआ गुंज, धूलि--
धूसर हो गये कुंज,
किन्तु पड़ी व्योम उर
बन्धु, नील-मेघ-माल।

सहज
सहज-सहज पग धर आओ उतर;
देखें वे सभी तुम्हें पथ पर।

वह जो सिर बोझ लिये आ रहा,
वह जो बछड़े को नहला रहा,
वह जो इस-उससे बतला रहा,
देखूँ, वे तुम्हें देख जाते भी हैं ठहर

उनके दिल की धड़कन से मिली
होगी तस्वीर जो कहीं खिली,
देखूँ मैं भी, वह कुछ भी हिली
तुम्हें देखने पर, भीतर-भीतर?

और और छबि
(गीत)
और और छबि रे यह,
नूतन भी कवि, रे यह
और और छबि!

समझ तो सही
जब भी यह नहीं गगन
वह मही नहीं,
बादल वह नहीं जहाँ
छिपा हुआ पवि, रे यह
और और छबि।

यज्ञ है यहाँ,
जैसा देखा पहले होता अथवा सुना;
किन्तु नहीं पहले की,
यहाँ कहीं हवि, रे यह
और और छबि!

मेरी छबि ला दो
(गीत)
मेरी छबि उर-उर में ला दो!
मेरे नयनों से ये सपने समझा दो!

जिस स्वर से भरे नवल नीरद,
हुए प्राण पावन गा हुआ हृदय भी गदगद,
जिस स्वर-वर्षा ने भर दिये सरित-सर-सागर,
मेरी यह धरा धन्य हुई भरा नीलाम्बर,
वह स्वर शर्मद उनके कण्ठों में गा दो!

जिस गति से नयन-नयन मिलते,
खिलते हैं हृदय, कमल के दल-के-दल हिलते,
जिस गति की सहज सुमति जगा जन्म-मृत्यु-विरति
लाती है जीवन से जीवन की परमारति,
चरण-नयन-हृदय-वचन को तुम सिखला दो!
वारिद वंदना
(गीत)
मेरे जीवन में हँस दीं हर
वारिद-झर!

ऐ आकुल-नयने!
सुरभि, मुकुल-शयने!
जागीं चल-श्यामल पल्लव पर
छवि विश्व की सुघर!

पावन-परस सिहरीं,
मुक्त-गन्ध विहरीं,
लहरीं उर से उर दे सुन्दर
तनु आलिंगन कर!

अपनापन भूला,
प्राण-शयन झूला,
बैठीं तुम, चितवन से संचर
छाये घन अम्बर!
गीत
जैसे हम हैं वैसे ही रहें,
लिये हाथ एक दूसरे का
अतिशय सुख के सागर में बहें।
मुदें पलक, केवल देखें उर में,-
सुनें सब कथा परिमल-सुर में,
जो चाहें, कहें वे, कहें।
वहाँ एक दृष्टि से अशेष प्रणय
देख रहा है जग को निर्भय,
दोनों उसकी दृढ़ लहरें सहें।
बादल राग

झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर।
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में,
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव घोर-कठोर-
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको,
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!
उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल-
चल रे चल-
मेरे पागल बादल!
धँसता दलदल
हँसता है नद खल्-खल्
बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।
देख-देख नाचता हृदय
बहने को महा विकल-बेकल,
इस मरोर से- इसी शोर से-
सघन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!

सिन्धु के अश्रु!
धारा के खिन्न दिवस के दाह!
विदाई के अनिमेष नयन!
मौन उर में चिह्नित कर चाह
छोड़ अपना परिचित संसार-
सुरभि का कारागार,
चले जाते हो सेवा-पथ पर,
तरु के सुमन!
सफल करके
मरीचिमाली का चारु चयन!
स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,
सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर
अपना मुक्त विहार,
छाया में दुःख के अन्तःपुर का उद्घाचित द्वार
छोड़ बन्धुओ के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,
जाते हो तुम अपने पथ पर,
स्मृति के गृह में रखकर
अपनी सुधि के सज्जित तार।
पूर्ण-मनोरथ! आए-
तुम आए;
रथ का घर्घर नाद
तुम्हारे आने का संवाद!
ऐ त्रिलोक जित्! इन्द्र धनुर्धर!
सुरबालाओं के सुख स्वागत।
विजय! विश्व में नवजीवन भर,
उतरो अपने रथ से भारत!
उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,
कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,
मौन कुटीर।
आज भेंट होगी-
हाँ, होगी निस्संदेह
आज सदा-सुख-छाया होगा कानन-गेह
आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमिक प्रवास,
आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

सिन्धु के अश्रु !
धरा के खिन्न दिवस के दाह !
बिदाई के अनिमेष नयन !
मौन उर में चिन्हित कर चाह
छोड़ अपना परिचित संसार--
सुरभि के कारागार,
चले जाते हो सेवा पथ पर,
तरु के सुमन !
सफल करके
मरीचिमाली का चारु चयन।
स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,
सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर
अपना मुक्त विहार,
छाया में दुख के
अंतःपुर का उद्घाटित द्वार
छोड़ बन्धुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,
जाते हो तुम अपने रथ पर,
स्मृति के गृह में रखकर
अपनी सुधि के सज्जित तार।
पूर्ण मनोरथ ! आये--
तुम आये;
रथ का घर्घर-नाद
तुम्हारे आने का सम्वाद।
ऐ त्रिलोक-जित ! इन्द्र-धनुर्धर !
सुर बालाओं के सुख-स्वागत !
विजय विश्व में नव जीवन भर,
उतरो अपने रथ से भारत !
उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,
कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,
मौन कुटीर।
आज भेंट होगी--
हाँ, होगी निस्सन्देह,
आज सदा सुख-छाया होगा कानन-गेह
आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमित प्रवास,
आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।

उमड़ सृष्टि के अन्तहीन अम्बर से,
घर से क्रीड़ारत बालक-से,
ऐ अनन्त के चंचल शिशु सुकुमार !
स्तब्ध गगन को करते हो तुम पार !
अन्धकार-- घन अन्धकार ही
क्रीड़ा का आगार।
चौंक चमक छिप जाती विद्युत
तडिद्दाम अभिराम,
तुम्हारे कुंचित केशों में
अधीर विक्षुब्ध ताल पर
एक इमन का-सा अति मुग्ध विराम।
वर्ण रश्मियों-से कितने ही
छा जाते हैं मुख पर--
जग के अंतस्थल से उमड़
नयन पलकों पर छाये सुख पर;
रंग अपार
किरण तूलिकाओं से अंकित
इन्द्रधनुष के सप्तक, तार; --
व्योम और जगती के राग उदार
मध्यदेश में, गुडाकेश !
गाते हो वारम्वार।
मुक्त ! तुम्हारे मुक्त कण्ठ में
स्वरारोह, अवरोह, विघात,
मधुर मन्द्र, उठ पुनः पुनः ध्वनि
छा लेती है गगन, श्याम कानन,
सुरभित उद्यान,
झर-झर-रव भूधर का मधुर प्रपात।
वधिर विश्व के कानों में
भरते हो अपना राग,
मुक्त शिशु पुनः पुनः एक ही राग अनुराग।

निरंजन बने नयन अंजन !
कभी चपल गति, अस्थिर मति,
जल-कलकल तरल प्रवाह,
वह उत्थान-पतन-हत अविरत
संसृति-गत उत्साह,
कभी दुख -दाह
कभी जलनिधि-जल विपुल अथाह--
कभी क्रीड़ारत सात प्रभंजन--
बने नयन-अंजन !
कभी किरण-कर पकड़-पकड़कर
चढ़ते हो तुम मुक्त गगन पर,
झलमल ज्योति अयुत-कर-किंकर,
सीस झुकाते तुम्हे तिमिरहर--
अहे कार्य से गत कारण पर !
निराकार, हैं तीनों मिले भुवन--
बने नयन-अंजन !
आज श्याम-घन श्याम छवि
मुक्त-कण्ठ है तुम्हे देख कवि,
अहो कुसुम-कोमल कठोर-पवि !
शत-सहस्र-नक्षत्र-चन्द्र रवि संस्तुत
नयन मनोरंजन !
बने नयन अंजन !

तिरती है समीर-सागर पर
अस्थिर सुख पर दुःख की छाया-
जग के दग्ध हृदय पर
निर्दय विप्लव की प्लावित माया-
यह तेरी रण-तरी
भरी आकांक्षाओं से,
घन, भेरी-गर्जन से सजग सुप्त अंकुर
उर में पृथ्वी के, आशाओं से
नवजीवन की, ऊँचा कर सिर,
ताक रहे है, ऐ विप्लव के बादल!
फिर-फिर!
बार-बार गर्जन
वर्षण है मूसलधार,
हृदय थाम लेता संसार,
सुन-सुन घोर वज्र हुँकार।
अशनि-पात से शायित उन्नत शत-शत वीर,
क्षत-विक्षत हत अचल-शरीर,
गगन-स्पर्शी स्पर्द्धा-धीर।
हँसते है छोटे पौधे लघुभार-
शस्य अपार,
हिल-हिल
खिल-खिल,
हाथ मिलाते,
तुझे बुलाते,
विप्लव-रव से छोटे ही है शोभा पाते।
अट्टालिका नही है रे
आतंक-भवन,
सदा पंक पर ही होता
जल-विप्लव प्लावन,
क्षुद्र प्रफुल्ल जलज से
सदा छलकता नीर,
रोग-शोक में भी हँसता है
शैशव का सुकुमार शरीर।
रुद्ध कोष, है क्षुब्ध तोष,
अंगना-अंग से लिपटे भी
आतंक-अंक पर काँप रहे हैं
धनी, वज्र-गर्जन से, बादल!
त्रस्त नयन-मुख ढाँप रहे है।
जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर
तुझे बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर!
चूस लिया है उसका सार,
हाड़ मात्र ही है आधार,
ऐ जीवन के पारावार!
जुही की कली
विजन-वन-वल्लरी पर
सोती थी सुहाग-भरी--स्नेह-स्वप्न-मग्न--
अमल-कोमल-तनु तरुणी--जुही की कली,
दृग बन्द किये, शिथिल--पत्रांक में,
वासन्ती निशा थी;
विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़
किसी दूर देश में था पवन
जिसे कहते हैं मलयानिल।
आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,
आयी याद चाँदनी की धुली हुई आधी रात,
आयी याद कान्ता की कमनीय गात,
फिर क्या ? पवन
उपवन-सर-सरित गहन -गिरि-कानन
कुञ्ज-लता-पुञ्जों को पार कर
पहुँचा जहाँ उसने की केलि
कली खिली साथ।
सोती थी,
जाने कहो कैसे प्रिय-आगमन वह ?
नायक ने चूमे कपोल,
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।
इस पर भी जागी नहीं,
चूक-क्षमा माँगी नहीं,
निद्रालस बंकिम विशाल नेत्र मूँदे रही--
किंवा मतवाली थी यौवन की मदिरा पिये,
कौन कहे ?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
कि झोंकों की झड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल;
चौंक पड़ी युवती--
चकित चितवन निज चारों ओर फेर,
हेर प्यारे को सेज-पास,
नम्र मुख हँसी-खिली,
खेल रंग, प्यारे संग।
जागो फिर एक बार
जागो फिर एक बार!
प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार-
जागो फिर एक बार!

आँखे अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फँसी,
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
अथवा सोयी कमल-कोरकों में?-
बन्द हो रहा गुंजार-
जागो फिर एक बार!

अस्ताचल चले रवि,
शशि-छवि विभावरी में
चित्रित हुई है देख
यामिनीगन्धा जगी,
एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,
आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी
घेर रहा चन्द्र को चाव से
शिशिर-भार-व्याकुल कुल
खुले फूल झूके हुए,
आया कलियों में मधुर
मद-उर-यौवन उभार-
जागो फिर एक बार!

पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,
सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की
मूँद रही पलकें चारु
नयन जल ढल गये,
लघुतर कर व्यथा-भार
जागो फिर एक बार!

सहृदय समीर जैसे
पोछों प्रिय, नयन-नीर
शयन-शिथिल बाहें
भर स्वप्निल आवेश में,
आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,
सब सुप्ति सुखोन्माद हो,
छूट-छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमन
ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।
तन-मन थक जायें,
मृदु सरभि-सी समीर में
बुद्धि बुद्धि में हो लीन
मन में मन, जी जी में,
एक अनुभव बहता रहे
उभय आत्माओं मे,
कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार!
उगे अरुणाचल में रवि
आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रृकति-पट,
गया दिन, आयी रात,
गयी रात, खुला दिन
ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास,
वर्ष कितने ही हजार-
जागो फिर एक बार!
वसन्त आया
सखि, वसन्त आया
भरा हर्ष वन के मन,
नवोत्कर्ष छाया।

किसलय-वसना नव-वय-लतिका
मिली मधुर प्रिय उर-तरु-पतिका
मधुप-वृन्द बन्दी-
पिक-स्वर नभ सरसाया।

लता-मुकुल हार गन्ध-भार भर
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर,
जागी नयनों में वन-
यौवन की माया।

अवृत सरसी-उर-सरसिज उठे;
केशर के केश कली के छुटे,

स्वर्ण-शस्य-अंचल
पृथ्वी का लहराया।
भव अर्णव की तरणी तरुणा
भव-अर्णव की तरुणी तरुणा|
बरसीं तुम नयनों से करुणा|

हार हारकर भी जो जीता,--
सत्य तुम्हारी गाई गीता,--
हुईं असित जीवन की सीता,
दाव-दहन की श्रावण-वरुणा।

काटे कटी नहीं जो कारा
उसकी हुईं मुक्ति की धारा,
वार वार से जो जन हारा।
उसकी सहज साधिका अरुणा।
तन की, मन की, धन की हो तुम
तन की, मन की, धन की हो तुम।
नव जागरण, शयन की हो तुम।

काम कामिनी कभी नहीं तुम,
सहज स्वामिनी सदा रहीं तुम,
स्वर्ग-दामिनी नदी बहीं तुम,
अनयन नयन-नयन की हो तुम।

मोह-पटल-मोचन आरोचन,
जीवन कभी नहीं जन-शोचन,
हास तुम्हारा पाश-विमोचन,
मुनि की मान, मनन की हो तुम।

गहरे गया, तुम्हें तब पाया,
रहीं अन्यथा कायिक छाया,
सत्य भाष की केवल माया,
मेरे श्रवण वचन की हो तुम।

भज, भिखारी, विश्व-भरणा
भज भिखारी, विश्वभरणा,
सदा अशरण-शरण-शरणा।

मार्ग हैं, पर नहीं आश्रय;
चलन है, पर निर्दलन-भय;
सहित-जीवन मरण निश्चय;
कह सतत जय-विजय-रणना।

पतित को सित हाथ गहकर
जो चलाती हैं सुपथ पर,
उन्हीं का तू मनन कर कर
पकड़ निश्शर-विश्वतरणा।

पार पारावार कर तू,
मर विभव से, अमर बर तू,
रे असुन्दर, सुघर घर तू,
एक तेरी तपोवरणा।
समझा जीवन की विजया हो
समझा जीवन की विजया हो।
रथी दोषरत को दलने को
विरथ व्रती पर सती दया हो।

पता न फिर भी मिला तुम्हारा,
खोज-खोजकर मानव हारा;
फिर भी तुम्हीं एक ध्रुवतारा,
नैश पथिक की पिक अभया हो।

ऋतुओं के आवर्त-विवर्तों,
लिये चलीं जो समतल-गर्तों,
खुलती हुई मर्त्य के पर्तों
कला सफल तुम विमलतया हो।
पंक्ति पंक्ति में मान तुम्हारा
पंक्ति पंक्ति में मान तुम्हारा|
भुक्ति-मुक्ति में गान तुम्हारा।

आंख-आंख पर भाव बदलकर,
चमके हो रंग-छवि के पलभर,
पुनः खोलकर हृदय-कमल कर,
गन्ध बने, अभिधान तुम्हारा।

विपुल-पुलक-व्याकुल अलि के दल
मानव मधु के लिए समुत्कल
उठे ज्योति के पंख खमण्डल,
अन्तस्तल अभियान तुम्हारा।

बैठे हृदयासन स्वतनत्र-मन,
किया समाहित रूप-विचिन्तन,
नृम्न मृण्मरण बचे विचक्षण,
ज्ञान-ज्ञान शुभ स्थान तुम्हारा।

दुरित दूर करो नाथ
दुरित दूर करो नाथ
अशरण हूँ, गहो हाथ।

हार गया जीवन-रण,
छोड़ गये साथी जन,
एकाकी, नैश-क्षण,
कण्टक-पथ, विगत पाथ।

देखा है, प्रात किरण
फूटी है मनोरमण,
कहा, तुम्ही को अशरण-
शरण, एक तुम्हीं साथ।

जब तक शत मोह जाल
घेर रहे हैं कराल--
जीवन के विपुल व्याल,
मुक्त करो, विश्वगाथ!
भव-सागर से पार करो हे
भव-सागर से पार करो हे!
गह्वर से उद्धार करो हे!

कृमि से पतित जन्म होता है,
शिशु दुर्गन्ध-विकल रोता है,
ठोकर से जगता-सोता है,
प्रभु, उसका निर्वार करो हे!

पशुओं से संकुल सन्तुल जग,
अहंकार के बाँध बंधा मग,
नहीं डाल भी जो बैठे खग,
ऐसे तल निस्तार करो हे!

विपुल काम के जाल बिछाकर,
जीते हैं जन जन को खाकर,
रहूँ कहाँ मैं ठौर न पाकर,
माया का संहार करो हे!
रमण मन के मान के तन
रमण मन के, मान के तन!
तुम्हीं जग के जीव-जीवन!

तुम्हीं में है महामाया,
जुड़ी छुटकर विश्वकाया;
कल्पतरु की कनक-छाया
तुम्हारे आनन्द-कानन।

तुम्हारी स्वर्सरित बहकर
हर रही है ताप दुस्तर;
तुम्हारे उर हैं अमर-मर,
दिवाकर, शशि, तारकागण।

तुम्हीं से ऋतु घूमती है,
नये कलि-दल चूमती है,
नये आसव झूमती है,
नये गीतों, नये नर्तन!
बन जाय भले शुक की उक से
न जाय भले शुक की उक से,
सुख की दुख से अवनी न बनी।
रुक जाय चली गति जो जग की,
जन से जन-जीवन की न ठनी।
बिगड़ी बनती बन जाय सही,
डगड़ी गड़ती गड़ जाय मही,
कटती पटती पट जाय तही,
तन की मन से तनती न तनी।
सब लोग भले भिड़ जांय यहाँ,
जो चढ़े सिर थे, चिढ़ जांय यहाँ,
जो गिरा उसकी न गिरी लवनी।
लगी लगन, जगे नयन
लगी लगन, जगे नयन;
हटे दोष, छुटा अयन;

दुर्मिल जो कुछ ऊर्मिल
मिल-मिलकर हुआ अखिल,
घुल-घुलकर कुल पंकिल
घुला एक रस अशयन।

छुटे सभी विषम बन्ध
विषमय वासना-अन्ध;
संशय की गई गन्ध;
शय-निश्चय किया चयन।

कामना विलीन हुई,--
सभी अर्थ क्षीण हुई,
उद्धत शिति दीन हुई,
दिखा नवल विश्व-वयन।
शिविर की शर्वरी
शिविर की शर्वरी
हिंस्र पशुओं भरी।

ऐसी दशा विश्व की विमल लोचनों
देखी, जगा त्रास, हृदय संकोचनों
कांपा कि नाची निराशा दिगम्बरी।

मातः, किरण हाथ प्रातः बढ़ाया
कि भय के हृदय से पकड़कर छुड़ाया,
चपलता पर मिली अपल थल की तरी।

आशा आशा मरे
आशा आशा मरे
लोग देश के हरे!

देख पड़ा है जहाँ,
सभी झूठ है वहाँ,
भूख-प्यास सत्य,
होंठ सूख रहे हैं अरे!

आस कहाँ से बंधे?
सांस कहाँ से सधे?
एक एक दास,
मनस्काम कहाँ से सरे?

रूप-नाम हैं नहीं,
कौन काम तो सही?
मही-गगन एक,
कौन पैर तो यहाँ धरे?

छाँह न छोड़ी
छांह न छोड़ी,
तेरे पथ से उसने आस न तोड़ी।

शाख़-शाख़ पर सुमन खिले,
हवा-हवा से हिले मिले,
उर-उर फिर से भरे, छिले,
लेकिन उसने सुषमे, आंख न मोडी।

कहीं आव, कहीं है दुराव,
कहीं बढ़े चलने का चाव,
पाप-ताप लेने का दाव
कहीं बढ़े-बढ़े हाथ घात निगोड़ी।
साधो मग डगमग पग
साधो मग डगमग पग,
तमस्तरण जागे जग।

शाप-शयन सो-सोकर,
हुए शीर्ण खो-खोकर,
अनवलाप रो-रोकर
हुए चपल छलकर ठग।

खोलो जीवन बन्धन,
तोलो अनमोल नयन,
प्राणों के पथ पावन,
रँगो रेणु के रँग रग।
सोई अखियाँ
सोईं अँखियाँ:
तुम्हें खोजकर बाहर,
हारीं सखियाँ।

तिमिरवरण हुईं इसलिये
पलकों के द्वार दे दिये
अन्तर में अकपट
हैं बाहर पखियाँ।

प्रार्थना, प्रभाती जैसी,
खुलें तुम्हारे लिये वैसी,
भरें सरस दर्शन से
ये कमरखियाँ।

तिमिर दारण मिहिर दरसो
तिमिरदारण मिहिर दरसो।
ज्योति के कर अन्ध कारा-
गार जग का सजग परसो।

खो गया जीवन हमारा,
अन्धता से गत सहारा;
गात के सम्पात पर उत्थान
देकर प्राण बरसो।

क्षिप्रतर हो गति हमारी,
खुले प्रति-कलि-कुसुम-क्यारी,
सहज सौरभ से समीरण पर
सहस्रों किरण हरसों।
तुम जो सुथरे पथ उतरे हो
म जो सुथरे पथ उतरे हो,
सुमन खिले, पराग बिखरे, ओ!

ज्योतिश्छाय केश-मुख वाली,
तरुणी की सकरुण कलिका ली,
अधर-उरोज-सरोज-वनाली,
अश्रु-ओस की भेंट भरे हो।

पवन-मन्द-मृदु-गन्ध प्रवाहित,
मधु-मकरन्द, सुमन-सर-गाहित,
छन्द-छन्द सरि-तरि उत्साहित,
अवनि-अनिल-अम्बर संवरे हो।

स्वर्ण-रेणु के उदयाचल-रवि,
दुपहर के खरतर ज्योतिशछवि,
हे उर-उर के मुखर-मधुर कवि,
निःस्व विश्व को तुम्हीं वरे हो।
जिनकी नहीं मानी कान
जिनकी नहीं मानी कान
रही उनकी भी जी की।

जोबन की आन-बान
तभी दुनिया की फीकी।
राह कभी नहीं भूली तुम्हारी,
आँख से आँख की खाई कटारी,
छोड़ी जो बाँधी अटारी-अटारी
नई रोशनी, नई तान;
रही उनकी भी जी की,
जिनकी नहीं मानी कान।
अट नहीं रही है
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।

कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।

पत्‍तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में,
मंद - गंध-पुष्‍प माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
अध्यात्म फल (जब कड़ी मारें पड़ीं)

जब कड़ी मारें पड़ीं, दिल हिल गया
पर न कर चूँ भी, कभी पाया यहाँ;
मुक्ती की तब युक्ती से मिल खिल गया
भाव, जिसका चाव है छाया यहाँ।

खेत में पड़ भाव की जड़ गड़ गयी,
धीर ने दुख-नीर से सींचा सदा,
सफलता की थी लता आशामयी,
झूलते थे फूल-भावी सम्पदा।

दीन का तो हीन ही यह वक्त है,
रंग करता भंग जो सुख-संग का
भेद कर छेद पाता रक्त है
राज के सुख-साज-सौरभ-अंग का।

काल की ही चाल से मुरझा गये
फूल, हूले शूल जो दुख मूल में
एक ही फल, किन्तु हम बल पा गये;
प्राण है वह, त्राण सिन्धु अकूल में।

मिष्ट है, पर इष्ट उनका है नहीं
शिष्ट पर न अभीष्ट जिनका नेक है,
स्वाद का अपवाद कर भरते मही,
पर सरस वह नीति - रस का एक है।
आज प्रथम गाई पिक पंचम
आज प्रथम गाई पिक पंचम।
गूंजा है मरु विपिन मनोरम।

मस्त प्रवाह, कुसुम तरु फूले,
बौर-बौर पर भौंरे झूले,
पात-गात के प्रमुदित झूले,
छाई सुरभि चतुर्दिक उत्तम।

आँखों से बरसे ज्योतिःकण,
परसे उन्मन-उन्मन उपवन,
खुला धरा का पराकृष्ट तन,
फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम।

प्रथम वर्ष की पांख खुली है,
शाख-शाख किसलयों तुली है,
एक और माधुरी घुली है,
गीत-गन्ध-रस वर्णों अनुपम।

आज प्रथम गाई पिक
आज प्रथम गाई पिक पञ्चम।
गूंजा है मरु विपिन मनोरम।
मरुत-प्रवाह, कुसुम-तरु फूले,
बौर-बौर पर भौरे झूले,
पात-पात के प्रमुदित झूले,
छाय सुरभि चतुर्दिक उत्तम।
आंखों से बरसे ज्योति-कण,
परसे उन्मन - उन्मन उपवन,
खुला धरा का पराकृष्ट तन
फूटा ज्ञान गीतमय सत्तम।
प्रथम वर्ष की पांख खुली है,
शाख-शाख किसलयों तुली है,
एक और माधुरी चुली है,
गीतम-गन्ध-रस-वर्णों अनुपम।
कुत्ता भौंकने लगा
आज ठंडक अधिक है।
बाहर ओले पड़ चुके हैं,
एक हफ़्ता पहले पाला पड़ा था--
अरहर कुल की कुल मर चुकी थी,
हवा हाड़ तक बेध जाती है,
गेहूँ के पेड़ ऎंठे खड़े हैं,
खेतीहरों में जान नहीं,
मन मारे दरवाज़े कौड़े ताप रहे हैं
एक दूसरे से गिरे गले बातें करते हुए,
कुहरा छाया हुआ।
उँपर से हवाबाज़ उड़ गया।
ज़मीनदार का सिपाही लट्ठ कंधे पर डाले
आया और लोगों की ओर देख कर कहा,
'डेरे पर थानेदार आए हैं;
डिप्टी साहब नें चंदा लगाया है,
एक हफ़्ते के अंदर देना है।
चलो, बात दे आओ।
कौड़े से कुछ हट कर
लोगों के साथ कुत्ता खेतिहर का बैठा था,
चलते सिपाही को देख कर खडा हुआ,
और भौंकने लगा,
करुणा से बंधु खेतिहर को देख-देख कर।
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है,
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है ।
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है,
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है ।
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है,
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है ।
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में,
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में ।
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।

असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो,
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो ।
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम,
संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम ।
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती ।

खुला आसमान
(गीत)
बहुत दिनों बाद खुला आसमान!
निकली है धूप, खुश हुआ जहान!
दिखी दिशाएँ, झलके पेड़,
चरने को चले ढोर--गाय-भैंस-भेड़,
खेलने लगे लड़के छेड़-छेड़--
लड़कियाँ घरों को कर भासमान!

लोग गाँव-गाँव को चले,
कोई बाजार, कोई बरगद के पेड़ के तले
जाँघिया-लँगोटा ले, सँभले,
तगड़े-तगड़े सीधे नौजवान!

पनघट में बड़ी भीड़ हो रही,
नहीं ख्याल आज कि भीगेगी चूनरी,
बातें करती हैं वे सब खड़ी,
चलते हैं नयनों के सधे बाण!
गर्म पकौड़ी

गर्म पकौड़ी-
ऐ गर्म पकौड़ी,
तेल की भुनी
नमक मिर्च की मिली,
ऐ गर्म पकौड़ी !
मेरी जीभ जल गयी
सिसकियां निकल रहीं,
लार की बूंदें कितनी टपकीं,
पर दाढ़ तले दबा ही रक्‍खा मैंने

कंजूस ने ज्‍यों कौड़ी,
पहले तूने मुझ को खींचा,
दिल ले कर फिर कपड़े-सा फींचा,
अरी, तेरे लिए छोड़ी

बम्‍हन की पकाई
मैंने घी की कचौड़ी।
गहन है यह अंधकारा
गहन है यह अंधकारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।
खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नही शशधर, नही तारा।
कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।
प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।
गीत गाने दो मुझे
गीत गाने दो मुझे तो,
वेदना को रोकने को।

चोट खाकर राह चलते
होश के भी होश छूटे,
हाथ जो पाथेय थे, ठग-
ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रूकता जा रहा है,
आ रहा है काल देखो।

भर गया है ज़हर से
संसार जैसे हार खाकर,
देखते हैं लोग लोगों को,
सही परिचय न पाकर,
बुझ गई है लौ पृथा की,
जल उठो फिर सींचने को।
चुम्बन
लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल,
चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल

कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर,
बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर

है चूम रही इस रात को वही तुम्हारे मधु अधर
जिनमें हैं भाव भरे हु‌ए सकल-शोक-सन्तापहर!
टूटें सकल बन्ध
टूटें सकल बन्ध
कलि के, दिशा-ज्ञान-गत हो बहे गन्ध।

रुद्ध जो धार रे
शिखर - निर्झर झरे
मधुर कलरव भरे
शून्य शत-शत रन्ध्र।

रश्मि ऋजु खींच दे
चित्र शत रंग के,
वर्ण - जीवन फले,
जागे तिमिर अन्ध।
तुम और मैं
तुम तुंग - हिमालय - श्रृंग
और मैं चंचल-गति सुर-सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छवास
और मैं कांत-कामिनी-कविता।
तुम प्रेम और मैं शान्ति,
तुम सुरा - पान - घन अन्धकार,
मैं हूँ मतवाली भ्रान्ति।
तुम दिनकर के खर किरण-जाल,
मैं सरसिज की मुस्कान,
तुम वर्षों के बीते वियोग,
मैं हूँ पिछली पहचान।
तुम योग और मैं सिद्धि,
तुम हो रागानुग के निश्छल तप,
मैं शुचिता सरल समृद्धि।
तुम मृदु मानस के भाव
और मैं मनोरंजिनी भाषा,
तुम नन्दन - वन - घन विटप
और मैं सुख -शीतल-तल शाखा।
तुम प्राण और मैं काया,
तुम शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म
मैं मनोमोहिनी माया।
तुम प्रेममयी के कण्ठहार,
मैं वेणी काल-नागिनी,
तुम कर-पल्लव-झंकृत सितार,
मैं व्याकुल विरह - रागिनी।
तुम पथ हो, मैं हूँ रेणु,
तुम हो राधा के मनमोहन,
मैं उन अधरों की वेणु।
तुम पथिक दूर के श्रान्त
और मैं बाट - जोहती आशा,
तुम भवसागर दुस्तर
पार जाने की मैं अभिलाषा।
तुम नभ हो, मैं नीलिमा,
तुम शरत - काल के बाल-इन्दु
मैं हूँ निशीथ - मधुरिमा।
तुम गन्ध-कुसुम-कोमल पराग,
मैं मृदुगति मलय-समीर,
तुम स्वेच्छाचारी मुक्त पुरुष,
मैं प्रकृति, प्रेम - जंजीर।
तुम शिव हो, मैं हूँ शक्ति,
तुम रघुकुल - गौरव रामचन्द्र,
मैं सीता अचला भक्ति।
तुम आशा के मधुमास,
और मैं पिक-कल-कूजन तान,
तुम मदन - पंच - शर - हस्त
और मैं हूँ मुग्धा अनजान !
तुम अम्बर, मैं दिग्वसना,
तुम चित्रकार, घन-पटल-श्याम,
मैं तड़ित् तूलिका रचना।
तुम रण-ताण्डव-उन्माद नृत्य
मैं मुखर मधुर नूपुर-ध्वनि,
तुम नाद - वेद ओंकार - सार,
मैं कवि - श्रृंगार शिरोमणि।
तुम यश हो, मैं हूँ प्राप्ति,
तुम कुन्द - इन्दु - अरविन्द-शुभ्र
तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।

तुम हमारे हो
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया
ठोकरें खाते हु‌ए दिन बीते ।
उठा तो पर न सँभलने पाया
गिरा व रह गया आँसू पीते ।
ताब बेताब हु‌ई हठ भी हटी
नाम अभिमान का भी छोड़ दिया ।
देखा तो थी माया की डोर कटी
सुना व' कहते हैं, हाँ खूब किया ।
पर अहो पास छोड़ आते ही
वह सब भूत फिर सवार हु‌ए ।
मुझे गफलत में ज़रा पाते ही
फिर वही पहले के से वार हु‌ए ।
एक भी हाथ सँभाला न गया
और कमज़ोरों का बस क्या है ।
कहा - निर्दय, कहाँ है तेरी दया,
मुझे दुख देने में जस क्या है ।
रात को सोते य' सपना देखा
कि व' कहते हैं "तुम हमारे हो
भला अब तो मुझे अपना देखा,
कौन कहता है कि तुम हारे हो ।
अब अगर को‌ई भी सताये तुम्हें
तो मेरी याद वहीं कर लेना
नज़र क्यों काल ही न आये तुम्हें
प्रेम के भाव तुर्त भर लेना" ।
तोड़ती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"

दलित जन पर करो करुणा
दलित जन पर करो करुणा।
दीनता पर उतर आये
प्रभु, तुम्हारी शक्ति वरुणा।

हरे तन मन प्रीति पावन,
मधुर हो मुख मनोभावन,
सहज चितवन पर तरंगित
हो तुम्हारी किरण तरुणा

देख वैभव न हो नत सिर,
समुद्धत मन सदा हो स्थिर,
पार कर जीवन निरंतर
रहे बहती भक्ति वरूणा
दीन
सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न,
हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न,
अन्तिम आशा के कानों में
स्पन्दित हम - सबके प्राणों में
अपने उर की तप्त व्यथाएँ,
क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ
कह जाते हो
और जगत की ओर ताककर
दुःख हृदय का क्षोभ त्यागकर,
सह जाते हो।
कह जातेहो-
"यहाँकभी मत आना,
उत्पीड़न का राज्य दुःख ही दुःख
यहाँ है सदा उठाना,
क्रूर यहाँ पर कहलाता है शूर,
और हृदय का शूर सदा ही दुर्बल क्रूर;
स्वार्थ सदा ही रहता परार्थ से दूर,
यहाँ परार्थ वही, जो रहे
स्वार्थ से हो भरपूर,
जगतकी निद्रा, है जागरण,
और जागरण जगत का - इस संसृति का
अन्त - विराम - मरण
अविराम घात - आघात
आह ! उत्पात!
यही जग - जीवन के दिन-रात।
यही मेरा, इनका, उनका, सबका स्पन्दन,
हास्य से मिला हुआ क्रन्दन।
यही मेरा, इनका, उनका, सबका जीवन,
दिवस का किरणोज्ज्वल उत्थान,
रात्रि की सुप्ति, पतन;
दिवस की कर्म - कुटिल तम - भ्रान्ति
रात्रि का मोह, स्वप्न भी भ्रान्ति,
सदा अशान्ति!"
ध्वनि
अभी न होगा मेरा अन्त
अभी-अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल वसन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त
हरे-हरे ये पात,
डालियाँ, कलियाँ कोमल गात!
मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-कर
फेरूँगा निद्रित कलियों पर
जगा एक प्रत्यूष मनोहर
पुष्प-पुष्प से तन्द्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,
अपने नवजीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,
द्वार दिखा दूँगा फिर उनको
है मेरे वे जहाँ अनन्त-
अभी न होगा मेरा अन्त।
मेरे जीवन का यह है जब प्रथम चरण,
इसमें कहाँ मृत्यु?
है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन
स्वर्ण-किरण कल्लोलों पर बहता रे, बालक-मन,
मेरे ही अविकसित राग से
विकसित होगा बन्धु, दिगन्त;
अभी न होगा मेरा अन्त।
नयनों के डोरे लाल
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरी खेली होली !
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कस कसक मसक गई चोली,
एक वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली !
मधु-ऋतु-रात मधुर अधरों की पी मधुअ सुधबुध खो ली,
खुले अलक मुंद गए पलक-दल श्रम-सुख की हद हो ली--
बनी रति की छवि भोली!

पत्रोत्कंठित जीवन का विष
पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है,
आज्ञा का प्रदीप जलता है हृदय-कुंज में,
अंधकार पथ एक रश्मि से सुझा हुआ है
दिङ् निर्णय ध्रुव से जैसे नक्षत्र-पुंज में।
लीला का संवरण-समय फूलों का जैसे
फलों फले या झरे अफल, पातों के ऊपर,
सिद्ध योगियों जैसे या साधारण मानव,
ताक रहा है भीष्म शरों की कठिन सेज पर
स्निग्ध हो चुका है निदाघ, वर्षा भी कर्षित
कल शारद कल्प की हेम लोमों आच्छादित,
शिशिर-भिद्य, बौरा बसंत आमों आमोदित,
बीत चुका है दिक् चुम्बित चतुरंग, काव्य, गति-
यतिवाला, ध्वनि, अलंकार, रस, राग बन्ध के
वाद्य छन्द के रणित गणित छुट चुके हाथ से,
क्रीड़ाएँ व्रीड़ा में परिणत। मल्ल मल्ल की-
मारें मूर्छित हुईं, निशाने चूक गये हैं
झूल चुकी है खाल ढाल की तरह तनी थी।
पुनः सवेरा, एक और फेरा हो जी का।
पथ आंगन पर रखकर आई

पल्लव - पल्लव पर हरियाली फूटी, लहरी डाली-डाली,
बोली कोयल, कलि की प्याली मधु भरकर तरु पर उफनाई।
झोंके पुरवाई के लगते, बादल के दल नभ पर भगते,
कितने मन सो-सोकर जगते, नयनों में भावुकता छाई।
लहरें सरसी पर उठ-उठकर गिरती हैं सुन्दर से सुन्दर,
हिलते हैं सुख से इन्दीवर, घाटों पर बढ आई काई।
घर के जन हुये प्रसन्न-वदन, अतिशय सुख से छलके लोचन,
प्रिय की वाणी का अमन्त्रण लेकर जैसे ध्वनि सरसाई।
प्रपात के प्रति
लते हुए निकल आते हो;
उज्जवल! घन-वन-अंधकार के साथ
खेलते हो क्यों? क्या पाते हो ?
अंधकार पर इतना प्यार,
क्या जाने यह बालक का अविचार
बुद्ध का या कि साम्य-व्यवहार !
तुम्हारा करता है गतिरोध
पिता का कोई दूत अबोध-
किसी पत्थर से टकराते हो
फिरकर ज़रा ठहर जाते हो;
उसे जब लेते हो पहचान-
समझ जाते हो उस जड़ का सारा अज्ञान,
फूट पड़ती है ओंठों पर तब मृदु मुस्कान;
बस अजान की ओर इशारा करके चल देते हो,
भर जाते हो उसके अन्तर में तुम अपनी तान ।
प्राप्ति
तुम्हें खोजता था मैं,
पा नहीं सका,
हवा बन बहीं तुम, जब
मैं थका, रुका ।
मुझे भर लिया तुमने गोद में,
कितने चुम्बन दिये,
मेरे मानव-मनोविनोद में
नैसर्गिकता लिये;
सूखे श्रम-सीकर वे
छबि के निर्झर झरे नयनों से,
शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले,
मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा
जब थका, रुका ।
प्रियतम
एक दिन विष्‍णुजी के पास गए नारद जी,
पूछा, "मृत्‍युलोक में कौन है पुण्‍यश्‍यलोक
भक्‍त तुम्‍हारा प्रधान?"

विष्‍णु जी ने कहा, "एक सज्‍जन किसान है
प्राणों से भी प्रियतम।"
"उसकी परीक्षा लूँगा", हँसे विष्‍णु सुनकर यह,
कहा कि, "ले सकते हो।"

नारद जी चल दिए
पहुँचे भक्‍त के यहॉं
देखा, हल जोतकर आया वह दोपहर को,
दरवाज़े पहुँचकर रामजी का नाम लिया,
स्‍नान-भोजन करके
फिर चला गया काम पर।
शाम को आया दरवाज़े फिर नाम लिया,
प्रात: काल चलते समय
एक बार फिर उसने
मधुर नाम स्‍मरण किया।

"बस केवल तीन बार?"
नारद चकरा गए-
किन्‍तु भगवान को किसान ही यह याद आया?
गए विष्‍णुलोक
बोले भगवान से
"देखा किसान को
दिन भर में तीन बार
नाम उसने लिया है।"

बोले विष्‍णु, "नारद जी,
आवश्‍यक दूसरा
एक काम आया है
तुम्‍हें छोड़कर कोई
और नहीं कर सकता।
साधारण विषय यह।
बाद को विवाद होगा,
तब तक यह आवश्‍यक कार्य पूरा कीजिए
तैल-पूर्ण पात्र यह
लेकर प्रदक्षिणा कर आइए भूमंडल की
ध्‍यान रहे सविशेष
एक बूँद भी इससे
तेल न गिरने पाए।"

लेकर चले नारद जी
आज्ञा पर धृत-लक्ष्‍य
एक बूँद तेल उस पात्र से गिरे नहीं।
योगीराज जल्‍द ही
विश्‍व-पर्यटन करके
लौटे बैकुंठ को
तेल एक बूँद भी उस पात्र से गिरा नहीं
उल्‍लास मन में भरा था
यह सोचकर तेल का रहस्‍य एक
अवगत होगा नया।
नारद को देखकर विष्‍णु भगवान ने
बैठाया स्‍नेह से
कहा, "यह उत्‍तर तुम्‍हारा यही आ गया
बतलाओ, पात्र लेकर जाते समय कितनी बार
नाम इष्‍ट का लिया?"

"एक बार भी नहीं।"
शंकित हृदय से कहा नारद ने विष्‍णु से
"काम तुम्‍हारा ही था
ध्‍यान उसी से लगा रहा
नाम फिर क्‍या लेता और?"
विष्‍णु ने कहा, "नारद
उस किसान का भी काम
मेरा दिया हुया है।
उत्तरदायित्व कई लादे हैं एक साथ
सबको निभाता और
काम करता हुआ
नाम भी वह लेता है
इसी से है प्रियतम।"
नारद लज्जित हुए
कहा, "यह सत्‍य है।"
प्रिय यामिनी जागी
(प्रिय) यामिनी जागी।
अलस पंकज-दृग अरुण-मुख
तरुण-अनुरागी।
खुले केश अशेष शोभा भर रहे,
पृष्ठ-ग्रीवा-बाहु-उर पर तर रहे,
बादलों में घिर अपर दिनकर रहे,
ज्योति की तन्वी, तड़ित-
द्युति ने क्षमा माँगी।
हेर उर-पट फेर मुख के बाल,
लख चतुर्दिक चली मन्द मराल,
गेह में प्रिय-नेह की जय-माल,
वासना की मुक्ति मुक्ता
त्याग में तागी।
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!
भर देते हो
भर देते हो
बार-बार, प्रिय, करुणा की किरणों से
क्षुब्ध हृदय को पुलकित कर देते हो।
मेरे अन्तर में आते हो, देव, निरन्तर,
कर जाते हो व्यथा-भार लघु
बार-बार कर-कंज बढ़ाकर;
अंधकार में मेरा रोदन
सिक्त धरा के अंचल को
करता है क्षण-क्षण-
कुसुम-कपोलों पर वे लोल शिशिर-कण
तुम किरणों से अश्रु पोंछ लेते हो,
नव प्रभात जीवन में भर देते हो।
भिक्षुक
वह आता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को-- भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता--
दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,
बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाये।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?--
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए!

भेद कुल खुल जाए

भेद कुल खुल जाए वह सूरत हमारे दिल में है ।
देश को मिल जाए जो पूँजी तुम्हारी मिल में है ।।

हार होंगे हृदय के खुलकर तभी गाने नये,
हाथ में आ जायेगा, वह राज जो महफिल में है ।

तरस है ये देर से आँखे गड़ी श्रृंगार में,
और दिखलाई पड़ेगी जो गुराई तिल में है ।

पेड़ टूटेंगे, हिलेंगे, जोर से आँधी चली,
हाथ मत डालो, हटाओ पैर, बिच्छू बिल में है ।

ताक पर है नमक मिर्च लोग बिगड़े या बनें,
सीख क्या होगी पराई जब पसाई सिल में है ।
मद भरे ये नलिन
मद - भरे ये नलिन - नयनमलीन हैं;
अल्प - जल में या विकल लघु मीन हैं?
या प्रतीक्षा में किसी की शर्वरी;
बीत जाने पर हुये ये दीन हई?
या पथिक से लोल - लोचन! कह रहे-
"हम तपस्वी हैं, सभी दुख सह रहे।
गिन रहे दिन ग्रीष्म - वर्षा - शीत के;
काल -ताल- तरंग में हम बह रहे।
मौन हैं, पर पतन में- उत्थान में ,
वेणु - वर - वादन -निरत - विभु गान में
है छिपा जो मर्म उसका, समझते;
किन्तु फिर भी हैं उसी के ध्यान में।
आह! कितने विकल-जन-मन मिल चुके;
हिल चुके, कितने हृदय हैं खिल चुके।
तप चुके वे प्रिय - व्यथा की आंच में;
दुःख उन अनुरागियों के झिल चुके।
क्यों हमारे ही लिये वे मौन हैं?
पथिक, वे कोमल कुसुम हैं-कौन हैं?"
मरा हूँ हजार मरण
मरा हूँ हजार मरण
पाई तब चरण-शरण।
फैला जो तिमिर जाल
कट-कटकर रहा काल,
आँसुओं के अंशुमाल,
पड़े अमित सिताभरण।
जल-कलकल-नाद बढ़ा
अन्तर्हित हर्ष कढ़ा,
विश्व उसी को उमड़ा,
हुए चारु-करण सरण।
मातृ वंदना
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बलि हों तेरे चरणों पर, माँ
मेरे श्रम सिंचित सब फल।

जीवन के रथ पर चढ़कर
सदा मृत्यु पथ पर बढ़ कर
महाकाल के खरतर शर सह
सकूँ, मुझे तू कर दृढ़तर;
जागे मेरे उर में तेरी
मूर्ति अश्रु जल धौत विमल
दृग जल से पा बल बलि कर दूँ
जननि, जन्म श्रम संचित पल।

बाधाएँ आएँ तन पर
देखूँ तुझे नयन मन भर
मुझे देख तू सजल दृगों से
अपलक, उर के शतदल पर;
क्लेद युक्त, अपना तन दूंगा
मुक्त करूंगा तुझे अटल
तेरे चरणों पर दे कर बलि
सकल श्रेय श्रम संचित फल
मौन
बैठ लें कुछ देर,
आओ,एक पथ के पथिक-से
प्रिय, अंत और अनन्त के,
तम-गहन-जीवन घेर।
मौन मधु हो जाए
भाषा मूकता की आड़ में,
मन सरलता की बाढ़ में,
जल-बिन्दु सा बह जाए।
सरल अति स्वच्छ्न्द
जीवन, प्रात के लघुपात से,
उत्थान-पतनाघात से
रह जाए चुप,निर्द्वन्द ।

रँग गई पग-पग धन्य धरा
रँग गई पग-पग धन्य धरा,---
हुई जग जगमग मनोहरा।
वर्ण गन्ध धर, मधु मरन्द भर,
तरु-उर की अरुणिमा तरुणतर
खुली रूप - कलियों में पर भर
स्तर स्तर सुपरिसरा।
गूँज उठा पिक-पावन पंचम
खग-कुल-कलरव मृदुल मनोरम,
सुख के भय काँपती प्रणय-क्लम
वन श्री चारुतरा।
राजे ने अपनी रखवाली की
राजे ने अपनी रखवाली की;
किला बनकर रहा;
बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं।
चापलूस कितने सामन्त आए।
मतलब की लकड़ी पकड़े हुए।
कितने ब्राह्मण आए
पोथियों में जनता को बांधे हुए।
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाए,
लेखकों ने लेख लिखे,
ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे,
नाट्य-कलाकारों ने कितने नाटक रचे
रंगमंच पर खेले।
जनता पर जादू चला राजे के समाज का।
लोक-नारियों के लिए रानियाँ आदर्श हुईं।
धर्म का बढ़ावा रहा धोखे से भरा हुआ।
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।
ख़ून की नदी बही।
आँख-कान मूंदकर जनता ने डुबकियाँ लीं।
आँख खुली-- राजे ने अपनी रखवाली की।
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो,
भरा दौंगरा उन्ही पर गिरा।
उन्ही बीजों को नये पर लगे,
उन्ही पौधों से नया रस झिरा।
उन्ही खेतों पर गये हल चले,
उन्ही माथों पर गये बल पड़े,
उन्ही पेड़ों पर नये फल फले,
जवानी फिरी जो पानी फिरा।
पुरवा हवा की नमी बढ़ी,
जूही के जहाँ की लड़ी कढ़ी,
सविता ने क्या कविता पढ़ी,
बदला है बादलों से सिरा।
जग के अपावन धुल गये,
ढेले गड़ने वाले थे घुल गये,
समता के दृग दोनों तुल गये,
तपता गगन घन से घिरा।
वन बेला
वर्ष का प्रथम
पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम
किसलयों बँधे,
पिक भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे
प्रणय के गान,
सुन कर सहसा
प्रखर से प्रखरतर हुआ तपन-यौवन सहसा
ऊर्जित,भास्वर
पुलकित शत शत व्याकुल कर भर
चूमता रसा को बार बार चुम्बित दिनकर
क्षोभ से, लोभ से ममता से,
उत्कंठा से, प्रणय के नयन की समता से,
सर्वस्व दान
दे कर, ले कर सर्वस्व प्रिया का सुक्रत मान।
दाब में ग्रीष्म,
भीष्म से भीष्म बढ़ रहा ताप,
प्रस्वेद कम्प,
ज्यों युग उर पर और चाप--
और सुख-झम्प,
निश्वास सघन
पृथ्वी की--बहती लू; निर्जीवन
जड़-चेतन।
यह सान्ध्य समय,
प्रलय का दृश्य भरता अम्बर,
पीताभ, अग्निमय, ज्यों दुर्जय,
निर्धूम, निरभ्र, दिगन्त प्रसर,
कर भस्मीभूत समस्त विश्व को एक शेष,
उड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश।
मैं मन्द-गमन,
धर्माक्त, विरक्त पार्श्व-दर्शन से खींच नयन,
चल रहा नदी-तट को करता मन में विचार--
'हो गया व्यर्थ जीवन,
मैं रण में गया हार!
सोचा न कभी--
अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।'
--इस तरह बहुत कुछ।
आया निज इच्छित स्थल पर
बैठ एकान्त देख कर
मर्माहत स्वर भर!
फिर लगा सोचने यथासूत्र--'मैं भी होता
यदि राजपुत्र--मैं क्यों न सदा कलंक ढोता,
ये होते--जितने विद्याधर--मेरे अनुचर,
मेरे प्रसाद के लिए विनत-सिर उद्यत-कर;
मैं देता कुछ, रख अधिक, किन्तु जितने पेपर,
सम्मिलित कंठ से गाते मेरी कीर्ति अमर,
जीवन-चरित्र
लिख अग्रलेख, अथवा छापते विशाल चित्र।
इतना भी नहीं, लक्षपति का भी यदि कुमार
होता मैं, शिक्षा पाता अरब-समुद्र पार,
देश की नीति के मेरे पिता परम पण्डित
एकाधिकार रखते भी धन पर, अविचल-चित्त
होते उग्रतर साम्यवादी, करते प्रचार,
चुनती जनता राष्ट्रपति उन्हे ही सुनिर्धार,
पैसे में दस दस राष्ट्रीय गीत रच कर उन पर
कुछ लोग बेचते गा-गा गर्दभ-मर्दन-स्वर,
हिन्दी-सम्मेलन भी न कभी पीछे को पग
रखता कि अटल साहित्य कहीं यह हो डगमग,
मैं पाता खबर तार से त्वरित समुद्र-पार,
लार्ड के लाड़लों को देता दावत विहार;
इस तरह खर्च केवल सहस्र षट मास-मास
पूरा कर आता लौट योग्य निज पिता पास।
वायुयान से, भारत पर रखता चरण-कमल,
पत्रों के प्रतिनिधि-दल में मच जाती हलचल,
दौड़ते सभी, कैमरा हाथ, कहते सत्वर
निज अभिप्राय, मैं सभ्य मान जाता झुक कर
होता फिर खड़ा इधर को मुख कर कभी उधर,
बीसियों भाव की दृष्टि सतत नीचे ऊपर
फिर देता दृढ़ संदेश देश को मर्मांतिक,
भाषा के बिना न रहती अन्य गंध प्रांतिक,
जितने रूस के भाव, मैं कह जाता अस्थिर,
समझते विचक्षण ही जब वे छपते फिर-फिर,
फिर पिता संग
जनता की सेवा का व्रत मैं लेता अभंग;
करता प्रचार
मंच पर खड़ा हो, साम्यवाद इतना उदार।
तप तप मस्तक
हो गया सान्ध्य-नभ का रक्ताभ दिगन्त-फलक,
खोली आँखें आतुरता से, देखा अमन्द
प्रेयसी के अलक से आयी ज्यों स्निग्ध गन्ध,
'आया हूँ मैं तो यहाँ अकेला, रहा बैठ'
सोचा सत्वर,
देखा फिर कर, घिर कर हँसती उपवन-बेला
जीवन में भर
यह ताप, त्रास
मस्तक पर ले कर उठी अतल की अतुल साँस,
ज्यों सिद्धि परम
भेद कर कर्म जीवन के दुस्तर क्लेश, सुषम
आयी ऊपर,
जैसे पार कर क्षीर सागर
अप्सरा सुघर
सिक्त-तन-केश शत लहरों पर
काँपती विश्व के चकित दृश्य के दर्शन-शर।
बोला मैं--बेला नहीं ध्यान
लोगों का जहाँ खिली हो बन कर वन्य गान!
जब तार प्रखर,
लघु प्याले में अतल की सुशीतलता ज्यों कर
तुम करा रही हो यह सुगन्ध की सुरा पान!
लाज से नम्र हो उठा, चला मैं और पास
सहसा बह चली सान्ध्य बेला की सुबातास,
झुक-झुक, तन-तन, फिर झूम-झूम, हँस-हँस झकोर
चिर-परिचित चितवन डाल, सहज मुखड़ा मरोर,
भर मुहुर्मुहर, तन-गन्ध विकल बोली बेला--
'मैं देती हूँ सर्वस्व, छुओ मत, अवहेला
की अपनी स्थिति की जो तुमने, अपवित्र स्पर्श
हो गया तुम्हारा, रुको, दूर से करो दर्श।'
मैं रुका वहीं
वह शिखा नवल
आलोक स्निग्ध भर दिखा गयी पथ जो उज्ज्वल;
मैंने स्तुति की--"हे वन्य वह्नि की तन्वि-नवल,
कविता में कहाँ खुले ऐसे दल दुग्ध-धवल?
यह अपल स्नेह-
विश्व के प्रणयि-प्रणयिनियों का
हार उर गेह?--
गति सहज मन्द
यह कहाँ--कहाँ वामालक चुम्बित पुलक गन्ध!
'केवल आपा खोया, खेला
इस जीवन में',
कह सिहरी तन में वन बेला!
कूऊ कू--ऊ' बोली कोयल, अन्तिम सुख-स्वर,
'पी कहाँ पपीहा-प्रिय मधुर विष गयी छहर,
उर बढ़ा आयु
पल्लव को हिला हरित बह गयी वायु,
लहरों में कम्प और लेकर उत्सुक सरिता
तैरी, देखती तमश्चरिता,
छबि बेला की नभ की ताराएँ निरुपमिता,
शत-नयन-दृष्टि
विस्मय में भर कर रही विविध-आलोक-सृष्टि।
भाव में हरा मैं, देख मन्द हँस दी बेला,
बोली अस्फुट स्वर से--'यह जीवन का मेला।
चमकता सुघर बाहरी वस्तुओं को लेकर,
त्यों-त्यों आत्मा की निधि पावन, बनती पत्थर।
बिकती जो कौड़ी-मोल
यहाँ होगी कोई इस निर्जन में,
खोजो, यदि हो समतोल
वहाँ कोई, विश्व के नगर-धन में।
है वहाँ मान,
इसलिए बड़ा है एक, शेष छोटे अजान,
पर ज्ञान जहाँ,
देखना--बड़े-छोटे असमान समान वहाँ
सब सुहृद्वर्ग
उनकी आँखों की आभा से दिग्देश स्वर्ग।
बोला मैं--'यही सत्य सुन्दर।
नाचती वृन्त पर तुम, ऊपर
होता जब उपल-प्रहार-प्रखर
अपनी कविता
तुम रहो एक मेरे उर में
अपनी छबि में शुचि संचरिता।'
फिर उषःकाल
मैं गया टहलता हुआ; बेल की झुका डाल
तोड़ता फूल कोई ब्राह्मण,
'जाती हूँ मैं' बोली बेला,
जीवन प्रिय के चरणों में करने को अर्पण
देखती रही;
निस्वन, प्रभात की वायु बही।
वे किसान की नयी बहू की आँखें
नहीं जानती जो अपने को खिली हुई--
विश्व-विभव से मिली हुई,--
नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को,--
नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को,
वे किसान की नयी बहू की आँखें
ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें;
वे केवल निर्जन के दिशाकाश की,
प्रियतम के प्राणों के पास-हास की,
भीरु पकड़ जाने को हैं दुनियाँ के कर से--
बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से।
शरण में जन, जननि
अनगिनित आ गये शरण में जन, जननि-
सुरभि-सुमनावली खुली, मधुऋतु अवनि!
स्नेह से पंक - उर हुए पंकज मधुर,
ऊर्ध्व - दृग गगन में देखते मुक्ति-मणि!
बीत रे गयी निशि, देश लख हँसी दिशि,
अखिल के कण्ठ की उठी आनन्द-ध्वनि।
संध्या सुन्दरी
दिवसावसान का समय -
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुन्दरी, परी सी,
धीरे, धीरे, धीरे,
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक -
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
हृदय राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता,
किंतु कोमलता की वह कली,
सखी-नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह सी अम्बर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथ में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग-आलाप,
नूपुरों में भी रुन-झुन रुन-झुन नहीं,
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं -
व्योम मंडल में, जगतीतल में -
सोती शान्त सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में -
सौंदर्य-गर्विता-सरिता के अति विस्तृत वक्षस्थल में -
धीर-वीर गम्भीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में -
उत्ताल तरंगाघात-प्रलय घनगर्जन-जलधि-प्रबल में -
क्षिति में जल में नभ में अनिल-अनल में -
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा 'चुप चुप चुप'
है गूँज रहा सब कहीं -
और क्या है? कुछ नहीं।
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह,
प्याला एक पिलाती।
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के वह अगणित मीठे सपने।
अर्द्धरात्री की निश्चलता में हो जाती जब लीन,
कवि का बढ़ जाता अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कंठ से,
आप निकल पड़ता तब एक विहाग!
स्नेह-निर्झर बह गया है
स्नेह-निर्झर बह गया है!
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सुखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-"
जीवन दह गया है।
दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-
ठाट जीवन का वही
जो ढह गया है।
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
कवि कह गया है।

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