Saturday, December 5, 2009

एक नदी ठिठकी सी

एक नदी ठिठकी सी
आकाशवाणी केन्द्र के स्टूडियो में बैठी केतकी रिकॉर्डस, स्पूल और सीडीज सहेज रही थी। बस छुट्टी! अब एक घण्टे शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम होगा और वह आराम से बैठ कर नॉवेल पूरा करेगी।पहला पन्ना भी पूरा न कर सकी थी कि इन्टरकॉम बजा-
'' केतकी ? ''
'' यस सर! ''
'' रिकॉर्डिंग्स हैं तुम्हारी, एक काव्यचर्चा है और एक इन्टरव्यू है, जिसे मैं ले रहा हूँ मगर कम्पेयरिंग तुम्हें करनी है। ''
'' सर काव्यचर्चा तो राजेश कर रहा था। ''
'' केतकी, वह मेडिकल लीव पर है। मीटिंग खत्म होते ही मेरे ऑफिस में आ जाओ। ''
'' ठीक है सर। ''
सोचा था मीटिंग खत्म होते ही घर जाएगी, सुबह चार बजे से उठी हुई है, कुछ खा-पीकर सीधे सो जाएगी। आज तो टिफिन भी नहीं बना पाई थी। यहाँ आकाशवाणी के आस-पास तो चाय के अलावा कुछ मिलता तक नहीं और आज तीन बजेंगे इन काव्यचर्चा और इन्टरव्यू के चलते। काव्यचर्चा भी किनकी एक से एक धुरन्धर स्थानीय कवियों की। स्क्रिप्ट तो राजेश बना कर गया है, वही फॉलो करेगी।
दिल्ली से रिले होने वाला शास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। ग्यारह बजकर उनतालीस मिनट पर उसने टैक्नीकल असिस्टेन्ट को इशारा किया तब उसने रिले डिसकनेक्ट किया। सभा समाप्ति की घोषणा कर जल्दी- जल्दी उसने अपने बाल सवाँरे, टिश्यू से चेहरा पौंछा और हल्की गुलाबी लिप्सटिक होंठों पर फेर अपना बैग और रिकॉर्डस, स्पूल और सीडीज संभाल बाहर चली आई। डयूटी ऑफिस की सारी औपचारिकताएं पूरी कर, एक पूरा हरा-भरा अहाता पार कर वह केन्द्रनिदेशक के ऑफिस पहुँची। बाहर शहर के एस पी की सरकारी गाडी ख़डी थी।
'' आज चैन नहीं मिलने वाला। '' वह बुदबुदाई।
'' गुड मॉनिंग सर ''
'' गुड मॉनिंग केतकी, कम इन। इनसे मिलो ये मि पी एस क़ुमार, हमारे शहर के एस पी। ''
'' गुड मॉनिंग सर ''
केतकी के अभिवादन का जवाब उस शख्स ने महज सर हिला कर दिया। एक सांवला परिपक्व पुरूष,अपने पद की गरिमा ओढे बैठा था। सारी औपचारिकताओं के साथ इन्टरव्यू पूरा हुआ। जलपान के दौरान सर ने उसे वहीं रोक लिया। भूख तो थी पर उस औपचारिक माहौल में वह ठीक से कहाँ खा पाई।
'' आप ही थीं सुबह अनाउन्सर? ''
'' जी। ''
'' आपकी आवाज बहुत अलग है। ''
'' आपने सुनी ? ''
'' हाँ, यहीं बैठ कर आपके आने से जरा पहले। ''
यहीं खत्म हो जाता यह संक्षिप्त परिचय तो अच्छा होता, पर वे मिले और बार-बार मिले, न चाह कर भी । कभी पुलिस टूर्नामेन्ट्स की रिकॉर्डिंग तो कभी लतिका की पेन्टिंग एक्ज़ीबिशन और कभी एस डी सर की एनीवर्सरी पार्टी में। हर बार वही-
'' कैसी हो ? ''
'' जी ठीक हूँ, आप सुनाइए? ''
'' बहुत अलग लग रही हो। ''
इस बार केतकी को हँसी आगई।
'' आज आप बता ही दीजिये कि ये अलग से आपका क्या अर्थ है? रोज से अच्छी या बुरी? ''
'' देखो केतकी मुझे ठीक से महिलाओं की तारीफ करना नहीं आता, इसलिए या तो करता नहीं। करता हूँ तो आप से लोग हँस पडते हैं और मेरी वाइफ तो नाराज ही हो जाती है। वैसे आज आप अच्छी लग रही हैं। ''
'' सर तारीफ की जरूरत होनी ही नहीं चाहिये। ''
'' फिर तो मैं ठीक ही था, तुम अलग किस्म की हो केतकी वरना स्त्री और तारीफ की जरूरत न समझे? ''
इस बार दोनों हँस पडे। और लोग तो मशगूल थे पार्टी में मगर आकाशवाणी का सारा स्टाफ यहाँ-वहाँसे उसकी ओर हैरत से ताक रहा था। केतकी वहाँ से बहाना बना कर हट गई। वह एक हद तक लोगों की बातचीत का विषय बनने से कतराती है। फिर भी लोग केतकी के बारे में बात करने से बाज़ नहीं आते हैं।
'' दिल्ली की है न। ''
'' भई केतकी तुम्हें हम महिलाओं की कम्पनी कहाँ पसंद है! ''
'' केतकी मैडम की एज तो हो गई , शादी का इरादा है कि नहीं? ''
'' कहीं चक्कर होगा। हमें तो घास भी नहीं डालती। ''
'' जब वी आई पीज.... ''
जैसे बस शादी न करना ही सारे फसाद की जड हो गया। शादी करके बस आप स्वयं को लोगों की बातचीत का विषय बनने से बचा सकते हैं। चाहे फिर आप व्यास मैडम की तरह पुरूषों में बैठ कर द्विअर्थी बातें और बेडरूम जोक्स सुन-सुना सकते हैं, तब आप के बारे कोई चूं भी नहीं करेगा क्योंकि शादी का लाइसेन्स और सीनियर होने का ट्रम्प कार्ड जो है।
वैसे उस आयोजन में वह स्वयं को भी कुछ अलग सी लगी, अन्दर श्रीमति जैन की मदद कराते हुए उसने एक बार ड्रेसिंग टेबल के आईने में जरा सा झाँक लिया-
उफ ! इतना करने की क्या जरूरत थी, पता होता वह आएगा तो हँ.. उससे क्या मतलब।
कुछ भी हो केतकी अच्छी लग रही थी। बहुत हल्की फिरोजी शिफॉन में चाँदी जैसे तारों की महीन कढार्ई वाली साडी, हॉल्टर नैक वाले ब्लाउज क़े साथ पहनी थी । कांधे तक कटे बालों का फ्रेन्चरोल बनाया था और अपने आप ही एक लट गाल पर झूल आई थी। कानों में चाँदी की घुंघरू वाली बालियाँ हर जुम्बिश के साथ हिल जाती थी। केतकी सुंदर है या नहीं इस पर अच्छा-खासा डिबेट हो सकता है। जो लोग थोडा-बहुत भी उसे करीब से जानते हैं उन्हें वह खूबसूरत लगती है और जो सतही तौर पर जानते हैं उन्हें वह स्नॉब भी लग सकती है और बहुत साधारण भी। दरअसल उसके भीतर कहीं चुम्बकत्व है, जो एक निश्चित दूरी पार कर पास चले आते हैं, वे उस खिंचाव से बच नहीं पाते। पार्थ याने हमारे एस पी साहब बस इस चुम्बकत्व के बाहर सीमा रेखा पर ठिठके खडे थे।
केतकी सुलभ स्त्री नहीं थी और पार्थ का इरादा क्या था यह जानने की फुरसत और जरूरत भी केतकी को नहीं थी। इस शहर में वह मेहमान की तरह रहती थी , ज़रा छुट्टी मिलती बस भाग जाती दिल्ली, मम्मी-पापा, भैया-भाभी और उनके छोटे दो बच्चों के मीठे सान्निध्य में। लौट कर आने पर काम में जुट जाती, कोई छोटा-मोटा ऑफ होता तो निकल पडती कैमरा लेकर इस झीलों की नगरी के बाहरी अनछुए से इलाकों में या किन्हीं उपेक्षित उजाड पडी ऐतिहासिक इमारतों में। इस शहर के भीतर जो था बहुत कुछ वह देख चुकी थी और पर्यटन स्थल के नाम पर व्यवसायीकरण ने इस शहर के सौन्दर्य को तो सहेज लिया था मगर उन ऐतिहासिक रूमानी खुश्बुओं को खो दिया था।
कभी-कभी केतकी कुछ मित्रों से भी मिल आती। उसने फुरसत को अपनी दिनचर्या में से जड से निकाल फेंका था। रात भी वह आकाशवाणी कॉलोनी के अपने छोटे से क्वार्टर में देर तक पेन्टिंग करती रहती, यहाँ-वहाँ से लिये गए फोटोग्राफ्स को कैनवास पर उतारती - झील, पहाड, मुर्गाबियाँ,गोधूली में भैंसे लिये लौटता चरवाहा और घूंघट में से झाँकती ग्राम्याएं और जाने क्या-क्या। फिर देर तक टी वी देखती या नॉवेल पढती जब तक कि आँख न लग जाती।
जबसे निशीथ साथ चलते- चलते अचानक अजाने मोड पर मुड ग़या था तो ठिठक कर उस चौराहे पर उसके आस-पास फुरसत ही बाकि रह गई थी और एक अंधेरा खाली कोना। बस एक सप्ताह और वह उबर आई थी नई जीजिविषा के साथ। मम्मी जानती थी उनकी बेटी इतनी कमजोर नहीं और उन्होंने उसे अकेला छोड दिया था , हाँ पापा और भैया घबरा गए थे। जब ठीक आठवें दिन उसे एम्पलॉयमेन्ट न्यूज में आँख गडाए देखा तो सब आश्वस्त हो गए थे कि यह वही केतकी है जिसने बचपन में भी कमजोर और पतले पैरों को निरन्तर अभ्यास से चलने के लिये ढाल ही लिया था।
ढाई साल की पतली लम्बी केतकी के पैर क्षीण थे और वह चलने में असमर्थ थी , मम्मी ने घबरा कर आल इन्डिया मेडिकल इन्स्टीटयूट में दिखाया था । फिजियोथैरेपिस्ट के पास महीनों चक्कर काटे। मम्मी बताती हैं जब केतकी ने चलने की ठानी तो घण्टों बॉलकनी पकडे चलती रहती, कोई खींच कर ले जाना चाहता तो रोती थी या कमरे में ही कोई सहारा लिये चलती रहती। अन्तत: वह चल ही पडी।
उसने आइ ए एस की तैयारी अधूरी छोड दी, वह सपना तो निशीथ और उसके साझे का था। बस एक दिन अनाउन्सर बनकर इस छोटे से शहर में डेरा डाल बैठी। मम्मी पापा चिन्तित हुए तो एक बार उन्हें साथ ले आई। आकाशवाणी कॉलोनी देखकर, स्टाफ के लोगों से मिलकर और केतकी में दुगुना आत्मविश्वास पाकर वे आश्वस्त होकर चले गये। अब भी जब केतकी कई दिन घर नहीं लौट पाती है तो वे दोनों आ जाते हैं।

एक रात न उसका पेन्टिंग में मन लगा ब्रश के एक दो स्ट्रोक्स लगा कर उठ गई, न ही नॉवेल में कोई थ्रिल लगा, टी वी के भी सारे चैनल बदल डाले कहीं मन न लगा। घबरा कर छत पर आ कर आकाशगंगा देखने लगी , सफेद दूधिया घनेरी निहारिका। हर भाषा में इस अद्भुत दूधिया लहर का कोई न कोई नाम है, कहकशाँ, मिल्की वे या गैलेक्सी यानि बरसों से मानव इससे आकर्षित रहा है।
तभी फोन बजा। ओह! लगता है कल का ऑफ गया, वह तो लतिका के साथ कुम्भलगढ क़े किले को देखने जाने वाली थी । कोई भी लोकल स्टाफ न आए तो केतकी को पकडो, जिसकी न गृहस्थी न रोज बीमार पडते बच्चे।
'' हलो ''
'' हलो केतकी पार्थ... ''
'' सर... '' केतकी सचमुच चौंक पडी।
'' तुमने फोन पर मुझे एक्सपेक्ट नहीं किया होगा न? ''
'' हाँ नहीं सर.. ''
'' तुम्हारे ऑफिस से लिया था तुम्हारा नम्बर। ''
'' कहिये सर... ''
'' कल मैं अपने कुछ पर्सनल दोस्तों को इनवाइट कर रहा हूँ। तुम आओगी? ''
'' सर.. मैं... मेरा वहाँ होना आपके अपने कुछ पर्सनल दोस्तों में? ''
'' केतकी अब तो छोड दो ये सर कहना। ''
'' पार्थ मैं नहीं आ सकूंगी। ''
'' वजह ? ''
'' मैं दोस्त तो क्या आपको ठीक से जानती तक नहीं, पहले ही लोग मेरी इतनी चर्चा करते हैं अब आप मेरा जीना मुश्किल करेंगे क्या ? ''
'' यू आर टू मच केतकी , नहीं जानती तो अब जान लो। मैं शहर का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति होने के अतिरिक्त एक जीवंत व्यक्ति हूँ। विवाहित हूँ, दो स्कूल जाते बच्चों का पिता, मेरी पत्नि भी आइ ए एस ऑफिसर है वह बच्चों के साथ बेंगलोर में रहती है। यहाँ मेरा एक छोटा सा सर्कल है दोस्तों का जिसमें सभी आइ ए एस ऑफिसर्स नहीं और सभी पुरूष नहीं। कलाकार हैं, लैक्चरर हैं, व्यवसायी भी। तुम क्या समझती हो मुझे और अपने आपको? ''
'' पार्थ सुनो तो। ''
'' तुम्हारी वो पेन्टर दोस्त है न... ''
'' लतिका ? ''
'' हाँ वह भी आ रही है। अब तुम डिसाइड करो कि तुम आ रही हो या नहीं। ''
'' पार्थ मैं आ रही हूँ। ''
'' केतकी मुझे दुख हुआ कि तुम अब तक मुझे दोस्त नहीं मान सकी। ''
'' पार्थ मुझे गर्व होता तुम्हें दोस्त मान कर लेकिन डरती हूँ। ''
'' किससे ? ''
'' अपने आपसे पार्थ खेर छोडो कल मैं आ रही हूँ लतिका के साथ। ''
वह पार्टी नहीं कुछ अच्छे सुलझे लोगों की महफिल थी, न कोई औपचारिकता, न कोई फालतू ताम-झाम न बैरों अर्दलियों की भीड। सब लोग घेरा बनाए बैठे थे। सामने ही बारबेक्यू स्नैक्स का इंतजाम था। नवम्बर के मीठी गुलाबी ठण्ड के दिन थे। पार्थ का ये लॉन उसकी सुरूचि का परिचय दे रहा था,सफेद, हल्के जामुनी, पीले, मरून क्रिसेन्थेमम जी खोल कर खिले थे। बीचों-बीच अलाव का इंतजाम था। वह भी लतिका के साथ उन लोगों में शामिल हो गई। कुछ चेहरे जाने पहचाने थे कुछ अनजान,परिचय हुआ। लेकिन बहुत आग्रह से आमंत्रित करने वाले मेजबान नदारद थे। उसकी आँखों से लतिका ने वही प्रश्न उठा कर साथ बैठे लोगों से पूछ लिया।
'' वेयर इज द होस्ट ? ''
'' कोई अर्जेन्ट सा केस आगया था। ''
'' आज सनडे को भी ? ''
'' अरे यार क्राइम क्या डेज और डेटस देखकर होंगे ? ''
बात फिर क्राइम से शुरू होकर राजनीति फिर फिल्मों से होती हुई संगीत पर आ टिकी। इतने में पार्थ आ गए, उसे देख सीधे वहीं चले आए। वर्दी और पीक कैप में पार्थ को पहली बार देख रही थी।मन कुछ अजानी सी लय में धडक़ने लगा।
'' वॅलकम केतकी, बेहद अच्छा लगा तुम्हें यहाँ देखकर। '' पार्थ जिस तरह एकदम पास खडे होकर कोमल स्वरों में बोल रहे थे तो उसकी चेतना कहीं मुंदती जा रही थी। लतिका न बोल पडती तो वह यूं ही हतप्रभ खडी रहती।
'' कहाँ थे महाशय ? हमें बुलाकर खुद गायब ! ''
'' सॉरी लतिका, अच्छा क्या लोगी ? ''
'' अभी सॉफ्ट ड्रिन्क लिया था। ''
'' वाइन लोगी ? केतकी तुम ? ''
'' नहीं पार्थ । मैं नहीं। ''
'' मैं लूंगी पार्थ, यू नो माय चॉइस । ''
कह कर लतिका गायब हो गई, वहाँ अलाव के पास संगीत की महफिल जुड ग़ई थी। लतिका यहाँशासकीय कन्या महाविद्यालय में फाइन आर्टस की हेड है। मस्त-बेलौस और किसी बंधन को न मानने वाली एकदम सनकी है इसीलिए कलाकार है और अविवाहित है।
''हम भी वहीं चलें। पार्थ ने कहा। ''
वहाँ सहगल दंपत्ति जगजीत-चित्रा की एक डुएट गज़ल गा रहे थे-
'' मंजिल न दे चराग न दे हौसला तो दे
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे ''
पार्थ ने मुस्कुरा कर उसे देखा, पार्थ की मुस्कान की प्रतिक्रिया को ताडने के लिए लतिका उसे ही देख रही थी, वह उपेक्षित कर गई पार्थ की मुस्कान।
डिनर सर्व होते - होते ग्यारह बज गए, पार्थ कपडे बदल कर अर्दली को इन्सट्रक्शन्स दे रहे थे। चूडीदार कुर्ते-पायजामे में एकदम बंगाल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। बडी बडी सम्मोहक आँखे,चौडी पेशानी ।
'' मैं कुछ मदद करूं? '' केतकी ने अन्दर आ कर पूछा ।
'' ओह केतकी! नहीं सब तैयार है। सच कहूँ तो अब भी यकीन नहीं हो रहा कि तुम आई हो। ''
'' ऐसा भी क्या पार्थ । ''
'' जिस तरह से तुम मना कर रही थीं। ''
'' न आती तो बहुत कुछ मिस करती। ''
'' सच! आज तुम बच्ची सी लग रही हो इस लांग स्कर्ट में। ''
'' पार्थ ये बच्ची भी बडी अच्छी गज़लें गाती है। '' लतिका ने फिर व्यवधान डाला।
'' सच! तो बस डिनर के बाद। ''
केतकी मना करती रही लेकिन सुस्वादु भोजन के बाद उसे गाना पडा। उसने फरीदा खानम की सुप्रसिध्द गज़ल गाई-
''आज जाने की जिद ना करो
हाय मर जाएंगे हम तो लुट जाएंगे
ऐसी बातें किया न करो.... ''
खूब दाद मिली केतकी को। बहुत दिनों बाद ये गज़ल गाई थी। निशीथ को पसंद थी। मन भर आया केतकी का। आज बात बात पर कमजोर क्यों हो रही है वह। पार्थ ने मन का कोई टूटा तार छेड दिया है या ये पी एम एस का चक्कर है। बेहद स्ट्रांगली एफेक्ट करता है पूरे मासिक-चक्र के दौरान यह हारमोन्स का घटता बढता ग्राफ केतकी को।
महफिल उठी पार्थ की गज़ल और आइसक्रीम के बाद।
'' रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड क़े जाने के लिए आ.... ''
पार्थ खुद उसे छोडने आए अपनी फिएट में जो पहले तो स्टार्ट ही होने का नाम ले रही थी स्टार्ट हुई तो रास्ते भर रूकते चलते आई। आज उसे अपने कोने वाले ब्लॉक में पटक दिये जाने पर जरा भी गुस्सा न आया। पार्थ को उसने कॉफी पीने के लिये उपर बुला लिया। सीढियाँ चढते हुए पार्थ ने कहा-
'' आज तुम्हें अपने आप से डर नहीं लग रहा? ''
'' श्श्श्पार्थ चुप। ''
तुम्हारा घर तो छोटा सा और कोजी सा है। ''
'' ये पेन्टिगंस तुमने बनाई हैं? कहाँ लतिका की पेन्टिगंस एकदम गडबडझाला। ये कितनी सजीव हैं और जीने की प्रेरणा तो देती हैं। लतिका की पेन्टिगंस में फ्रस्ट्रेशन साफ झलकता है। नग्न मानव देह जिनके चेहरे जानवरों के, फीके सलेटी रंग, अनियमित आकृतियाँ क्या तुम्हें इस सबमें उसका अपना फ्रस्ट्रेशन नहीं दिखता? ''
केतकी कॉफी फेंटते हुए पार्थ की बातें सुन रही थी पार्थ ऐसे तो किसी के बारे में नहीं बोलते। आज क्या हो गया इन्हें?
'' देखो न अविवाहित रहने की जिद आखिरकार सालती है अन्दर कहीं। कहीं तुम्हारा भी तो ऐसा ही इरादा... ''
'' मेरी बात छोडो पार्थ, और लतिका की उसकी जिन्दगी, उसके निर्णय। व्यक्ति अपने निर्णयों के लिए स्वयं जिम्मेदार होता है। तुम बहुत सन्तुष्ट हो अपने विवाह से? मैं ज्यादा तो नहीं जानती तुम्हारे बारे में लेकिन ऐसे विवाह का फायदा? साल में तीन या चार बार तुम दोनों मिलते हो,अकेलापन, मानसिक-शारीरिक जरूरतों के कष्ट और फ्रस्ट्रेशन तुम्हें भी उतना ही सालता होगा जितना मुझे या लतिका को। ''
'' पूरा सच तो नहीं है यह, मुझे शाश्वती का मानसिक सहारा है, बेहद अच्छी अन्डरस्टेन्डिग है हममें,पर हम दोनों अपने- अपने कार्यक्षैत्र में इतना व्यस्त हैं कि कभी ही हम एकदूसरे की कमी महसूस करते हैं। जब कोई ठोस जरूरत हो तो तुरन्त छुट्टी ले लेते हैं। ''
'' पार्थ मैं तो विवाह का अलग ही अर्थ समझती रही हूँ। तुम तो असमंजस में डाल रहे हो। ''
'' केतकी विवाह का जो भी अर्थ हो, यह एक सामाजिक व्यवस्था का हिस्सा है। ''
'' पार्थ, कॉफी ठण्डी हो रही है। ''
'' तुमसे बात करके अच्छा लगता है। चाहे तुम मुझसे बहुत छोटी हो पर सुलझी हुई हो। आज तुमने मुझपर विश्वास कर,अपने घर बुला कर दोस्त बना लिया है। अब इस विश्वास के सम्मान के लिए मैं यहाँ नहीं आऊँगा , तुम्हारा यह वर्जिन घर मेरी वजह से अपमानित न हो। ''
आज पार्थ को हुआ क्या है? लोग शराब पी कर मर्यादाएं भूल जाते हैं, ये हैं कि.... अद्भुत हो पार्थ तुम।
'' चलूं केतकी ''
'' वह उसके माथे पर स्नेहिल चुम्बन दे कर सीढियाँ उतर गया। ''
केतकी आत्म-विस्मृत सी उसके साँवरे व्यक्तित्व में खोकर रह गई। घनेरी रात केतकी के लिए एक गुपचुप बहती नदी हो गई।
इस आकर्षण से केतकी ने जल्दी ही उबरना चाहा और उसे लगा उबर आई है। अब इस सब की गुंजाईश ही कहाँ। दोस्ती के लिए कब उसने दरवाज़े बन्द किए? देह का सवाल वह उपेक्षित करती ही आई है, इस बार भी कर दिया।
समय ने क्षणिक आवेगों को शान्त कर दिया, न पार्थ का फोन आया, केतकी भी व्यस्त हो गई।
मार्च माह के आरंभ के दिन थे, बसंत की गुनगुनाहट भरे दिन शायद बसंत पंचमी का दिन था। अलसुबह एक छोटा सा कार्ड और ताजा तोडे पैंज़ी के फूलों का गुच्छा मिला।
'' सुन्दरी इस बार मदनोत्सव में क्या कर रही हो? ''
पार्थ तो ये बदमाशी तुम्हारी है। लगता है अरसे पहले दी हुई मोहन राकेश की नाटिका लहरों के राजहंस उसने अब पढी है। क्या जवाब दे सुन्दरी? असमय वैराग्य ने तो इस बार स्वयं उसकी अक्षय तरूणाई को आ घेरा है। वरना कोई बसंत पंचमी यूँ फीकी गुज़री ? इतने में ही पार्थ का फोन आ गया।
'' अब तक बिस्तर में हो, आज भी ! ''
'' कल लेट नाइट डयूटी थी। ''
'' कहीं चलोगी ? ''
'' कहाँ ? ''
'' यहाँ से करीब चालीस किमी दूर एक आदिवासी इलाके में एक इनक्वायरी है। कहते हैं खूबसूरत जगह है , एक झरना है, जंगल है। ''
'' ना। आपके कॉन्स्टेबलों और गार्डस के हूजूम के साथ... ''
'' तुम न हमेशा पहले से ही अपने निष्कर्ष निकाल कर बैठ जाती हो। मैं कुछ तो सोच-समझ कर तुम्हें आमंत्रण दे रहा होउंगा। छोडो। ''
'' बस ऐसे गुस्सा होकर हमेशा हाँ करवा लेते हो। ''
'' तो लेने आ रहा हूँ। ''
'' रुको तो... ''
'' बस तैयार हो जाओ, ब्रेकफास्ट कुक बनाकर पैक कर चुका है। तुम बस अपना सामान ब्रश,पेन्टस, ईज़ल और अपनी एक ड्रेस, एसेसरीज़ पैक कर लो। ''
'' क्या मतलब ? कब लौटेंगे हम ? जनाब कल मेरा ऑफ नहीं है। कल मेरी शाम की डयूटी है। ''
'' फिर क्या समस्या है? हम दोपहर लौट आएंगे। ''
'' पार्थ... ''
'' मैं आधे घण्टे बाद तुम्हें मेन पोस्टऑफिस वाले चौराहे पर मिलता हूँ। ''
नियत जगह पर नियत समय पर पार्थ अपनी खटारा फिएट में से झाँके। इनके जूनियर्स तक सेन्ट्रो में घूमते हैं और ये अपनी साफ छवि और बेदाग अन्तरात्मा लिए पत्नि से दूर इस दूरस्थ इलाके में पडे हैं। व्यवहारिक लोग इन्हें सनकी कहते हैं।
रास्ते भर खाते-पीते बतियाते दो घण्टे कच्चे-पक्के, उबड-ख़ाबड रास्ते पर चल कर एक भीलों के गाँवके पास लगभग जंगल में बने इस गेस्टहाउस में रुके। घने पलाश और महुआ के पेडों से घिरा छोटा सा गेस्टहाउस। वहाँ पहले से पार्थ के मातहत कुछ लोग मौजूद थे। कुछ पुलिस वाले, कुछ अर्दली,कुछ स्थानीय पंच-सरपंच। केतकी थोडा अपदस्थ महसूस कर रही थी। उसे अंदर जाने का इशारा कर, पार्थ स्वयं व्यस्त हो गए। कोई स्थानीय चुनाव से जुडा अपराधिक मामला था।
गेस्टहाउस की बिल्डिंग काफी पुरानी थी मगर एस पी साहब के लिए पूरा इंतजाम था। हाथ-मुँहधोकर, बाल सवाँर वह बडे से हॉल से होकर पिछवाडे तक पहुँच गई। खूब खिले हुए पलाश के नीचे पार्थ का कुक हनीफ अपना संक्षिप्त सा चौका जोडे क़ुछ पका रहा था।
'' क्या पक रहा है हनीफ? यहाँ भी साहब ने तुम्हें नहीं छोडा? ''
'' हाँ साब को हमारे हाथ का पका ही भाता है, आज बोल के अपनी गाडी में पहले से भेजा कि आप भी आएंगे तो हम चिकन दो पियाजा का इंतजाम करके ले जाये। सब तैयार है। बिरयानी बस दम पर है। रोटी गरम सर्व करेंगे। ''
'' हनीफ मियाँ आपने भूख जगा दी पर आपके साहब तो हमें पिकनिक पर लाकर खुद दफ्तर खोल कर बैठ गए हैं। चलिए तब तक हमें बिरयानी बनाना ही सिखा दें। ''
लंच होते-होते तीन बज गए। फिर पार्थ और वह झरने के लिए निकल पडे। एक चट्टान पर बैठ उस प्राकृतिक उत्स का सौन्दर्य निहारते रहे।
'' पहले आए हो यहाँ? ''
'' दो बार, हर बार लोकल पन्चायत इलेक्शन्स के साथ यह इलाका सेन्सटिव हो जाता है। पर केतकी यह झरना इतना खूबसूरत कभी नहीं लगा। ''
'' हाँ! हाँ! इतना खूबसूरत कम्पनी भी तो नहीं थी ना! ''
'' शायद.. ''
झरने से छिटक आती बूँदों से दोनों ही हल्का सा भीग गए थे। केतकी हल्के भीगे पार्थ की देह-गन्ध महसूस कर रही थी, वनजा कन्या की तरह इस ऐन्द्रिक सम्वेदनशीलता के अधीन होती जा रही थी। तभी पार्थ ने टोका।
'' केतकी चलो ठण्ड बढ रही है। '' उसने अपना पुलोवर उठा कर केतकी के कन्धों पर डाल दिया, अब वह देह-गन्ध और निकट से उसे आत्मविस्मृत करने लगी। पार्थ सहज, संतुलित उसका हाथ थामे ऊँचे-नीचे पत्थरों से बचाए लिए चले जा रहे थे।
लौट कर भी पार्थ फाइल्स लेकर बैठ गए वह अपना पिटारा उठा लाई और पलाश का एक पगला कर खिला पेड पेन्ट करने लगी। वह कहीं उस दिन सच तो नहीं कह रहा था कि पेन्टिंग्स मन: स्थिति दर्शाती हैं। क्या वह भी बौरा रही है? जंगल में खिले इस पलाश सी?
कुछ देर में ही दो ग्लास चाय ले पार्थ बाहर आ गए।
'' डिनर में फिश खाओगी? मैं बनाउंगा बंगाली रेसिपी से। ''
'' सच तुम्हें आती है कुकिंग? ''
'' ऑफकोर्स। ''
डिनर के बाद वह इतना थक गई थी कि वह पार्थ की बिखरी फाइलों के बीच ही हाथ-पैर सिकोड क़र सो गई। पार्थ बाहर कहीं व्यस्त थे। लौटे तो वह गहरी नींद में थी। उन्होंने फाइलों को समेटा,उसकी उघडी शर्ट को ठीक किया तो नींद में भी सिहर गई।
'' केतकी। केतकी। ''
'' हँ.. ''
'' उठो तुम्हारा कमरा पास वाला है।''
'' यहीं सोने दो न, तुम उधर चले जाओ ना.. ''
'' नहीं डियर, सुबह जब लोग आएंगे तो तुम्हारी नींद खराब होगी। ''
'' तो तुम ही ले चलो केतकी के वाक्य पूरा करने से पहले ही पार्थ ने उसे उठा लिया.. ''
'' तुम यूँ नहीं मानोगी जंगली बिल्ली। और उसे ठण्डे बिस्तर पर पटक दिया। ''
'' यू ब्रूट ! कितना ठण्डा है ये कमरा। ''
'' अभी गर्म हो जाएगा । कह कर उसने उसे रजाई ओढा दी। ''
'' पार्थ कुछ देर तो रुको.. ''
'' तुम्हें तो नींद आ रही थी। ''
'' उडा तो दी इस ठण्डे बिस्तर ने। ''
'' दो मिनट तो दो , कपडे बदल कर तो आने दो। चाय पियोगी ? ''
'' हाँ। ''
'' तो बना कर रखो। ''
'' यू मीन बडबडाते हुए केतकी ने अपना नाईट सूट बदला और जीन्स हैन्गर में लटका कर चाय बनाने चल दी। ''
'' चाय बन गई पार्थ अब तक तुमने कपडे नहीं बदले? कर क्या रहे हो? ''
'' चिल्ला क्यों रही हो पत्नियों की तरह ? ''
'' कर क्या रहे थे? ''
'' नहा कर सोने की आदत है। ''
केतकी रजाई में घुस कर चाय का मजा ले रही थी।
'' तुम भी आजाओ पार्थ। ''
'' पहले तुम कितना भागती थीं मुझसे दूर और आज...क्या तुम वही केतकी हो? ''
'' तुमसे ही नहीं अपने आप से भी पार्थ... ''
'' पार्थ चप्पलें उतार कर दूसरी तरफ से रजाई में आ गए। ''
'' कितने ठण्डे पैर हैं तुम्हारे... ''
'' हाँ तो तुम अपने आप से क्यों डरती हो? शादी करने से बचती हो, यह सब क्यों ? ''
'' पता नहीं शायद ऐसी ही हूँ। ''
'' क्यों छुपाती हो खुदको मुझसे ? ''
'' मत छुओ वह हिस्सा जिसे मार्फीन देकर सुलाया है। ''
'' अच्छा छोडो। पर इतना जानता हूँ कहीं स्पन्दन शेष हैं । जो व्यक्ति प्यार को जी चुका होता है वह फिर से जीवन से जुड सकता है। सम्बंध बिखर सकता है पर प्यार का क्षीण सा स्पन्दन भी जीना सिखाता है। अकेले रहने का जो भ्रम पाले बैठी हो वह जल्द ही टूट जाने वाला है। ''
'' कहीं तुम ही तो प्यार नहीं कर बैठे मुझसे? ''
'' मैं तो करता ही हूँ, तुम दोस्त हो मेरी। मैं शादी की बात कर रहा था। ''
'' सबके सब मेरी शादी के पीछे पडे हैं। घर जाओ तो, दोस्तों से मिलो तो और अब तुम भी। ''
'' चलो छोडो.. ''
'' ए तुम वह महक क्यों धो आए जो शाम से बहका रही थी। ''
केतकी ने पार्थ के कन्धे पर सर रख कर जोर से निश्वास छोडी।
' केतकी ! '' पार्थ ने झिडक़ना चाहा पर शब्द लरज ग़ए।
केतकी की तेज साँसे सन्नाटा भंग कर रही थी। वह अब एक उफनती बरसाती नदी थी जिस परबाँध नहीं बाँधा जा सकता था, उसे तो बस बाँहों में लेकर ही पार उतरा जा सकता था।
'' क्या ये गेस्ट हाउस ही शापित है? क्यों ले आया केतकी को यहाँ ? ''
यही तो दिन थे जब पिछली बार यहाँ आया था। गहरी नींद के बीच एक खटखट हुई। नींद से उलझ कर वह उठा था हार कर उसने दरवाजा खोला था। बाहर एक संतरी खडा था उसके साथ एक आदिवासी, सुपुष्ट लडक़ी अन्दर चली आई।
'' कौन है ये ? ''
'' सर, पता नहीं कहती है किसी ने यहाँ भेजा है। ''
लडक़ी स्वस्थ और चमकीली काली त्वचा वाली थी। छोटे से लहंगे से झांकती लम्बी टाँगे, सुपर मॉडल सी सधी देह। लेकिन पार्थ का गुस्से से बुरा हाल था वह निर्दोष संतरी पर ही बिगड ग़या।
'' समझते क्या हैं ये लोग? ले जाओ इसे जहाँ से आई है। क्या मुझसे पहले यही सब होता रहा है।''
'' पता नहीं सर, मैं भी नया हूँ। ''
लौटते ही उसने संबधित सब इन्सपेक्टर को ससपेंड कर दिया और गाँव के सरपन्च को वार्निंग ही दिलवा सका राजनैतिक दबाब की वजह से पर अच्छा खासा हंगामा खडा होगया था।
लेकिन न जाने क्यों वह आदिवासी निर्दोष काली आँखों वाली बाला अवचेतन से होकर उसके थके हुए सपनों में चली आती थी। और आज ये केतकी। क्या करूं इसका? पार्थ उठकर चप्पल पहनने लगा पर केतकी ने कुर्ते का छोर पकड लिया।
'' छोडो केतकी। ''
'' मत जाओ ना! ''
'' क्यों परीक्षा ले रही हो मेरी ? ऐसे संबधों का क्या भविष्य तुम्हारा कोई अनिष्ट नहीं चाहता मैं। नहीं चाहता कि जीवन के प्रति तुम्हारी आस्था को एक और धक्का पहूँचे। छोडो केतकी। ''
'' आई नीड यू बेडली। मुझे कुछ नहीं चाहिए न अफेयर न शादी बस इस पल के लिए एक घनेरा सम्पर्क। ''
एक पुरूष और कितना संयम बरतता? उसने स्निग्ध आलिंगन में उसे बाँध लिया। मगर केतकी के नशीले कसाव उसे आहत कर रहे थे और वह केतकी के स्पष्ट आमंत्रण में बह गया।
चिडियों के अनवरत कलरव से उसकी नींद टूटी। पस ही गलबहियाँ डाले केतकी की अनावृत स्वर्ण काया उससे लिपटी थी। चेहरे पर तुष्टि, सुघड नाक पर पसीने की बूँदे और गाल दहक रहे थे। पार्थ ने उसकी पलकें चूम लीं। खट से वह आँखे खोल कर बोल पडी।
'' प्यार मत करने लगना पार्थ मुझे। वरना मैं कमजोर हो जाउंगी। बस हम दोस्त होकर जरूरतें बाँट रहे हैं। ''
'' प्यार करने से तो मैं खुद भी अपने आप को रोक नहीं पाउंगा। हाँ तुमसे प्यार करने का आग्रह भी नहीं करूंगा। ''
'' ओह! पार्थ ! ''
चिडियों का कलरव उन्हें फिर बहा गया उद्वेगों में। पार्थ के चुम्बनों में ऊष्मा इस बार अपने चरम पर थी। अब लौटना भी तो था ।
यायावर केतकी ने फिर लम्बे समय तक कोई सम्पर्क नहीं साधा। वह जानता था वह ऐसी ही है। वह यायावरी नदी सी एक दिन लौट भी आई और फोन किया।
'' मैं पापा मम्मी को दमनदीव ले गई थी और भी बहुत सारी जगह हम घूमे पूरे महीने की एल टी सी पर थी मैं। ''
'' बिना इनफॉर्म किए सोचा भी नहीं कि मैं चिन्ता में होउंगा। ''
'' पार्थ कहा था न मैंने जुडना मत। तिकोना प्यार बहुत कष्टप्रद होता है। ''
'' तुम शादी कर लो फिर नहीं चिन्ता करूंगा। ''
'' तुम भी ना बस पार्थ.... ए इस वक्त क्या कर रहे हो? ''
'' टीवी देख रहा हूँ और क्या । ''
'' मैं आजाँऊ... ''
'' नहीं बहुत रात हो गई है। ये कोई वक्त है? ''
'' यही तो वक्त है। ''
'' शटअप केतकी। मेरे घर पर गेस्ट है। ''
'' कौन शाश्वती जी आई हुई हैं? ''
'' ना। मेरा एक जूनियर। ''
केतकी ने फोन पटक दिया। पागल है ये लडक़ी।
अगले दिन लंच पर पार्थ ने उसे बुला लिया। मॉर्निंग डयूटी खत्म कर वह सीधे ही पहुँच गई। पार्थ पार्थ करती हुई स्टडी में घुसी और अचकचा कर लौट आई।
'' कौन था वह? ''
'' सुनिये! ''
'' जी ! ''
'' किसे ढूंढ रही हैं। ''
'' पार्थ.. ''
'' आप केतकी हैं? ''
'' हाँ, मगर.. ''
'' मैं अनुराग हूँ , पार्थ का दोस्त समझें या छोटा भाई। अभी वह लौटे नहीं हैं, फोन पर बताया था आप आ रही हैं। बस वह भी आते होंगे। बैठिये ना... ''
'' आप क्या करते हैं? '' एक लम्बी खामोशी को तोडते हुए केतकी अनचीन्हा सा सवाल कर बैठी।
'' मैं यहीं पास के शहर भीलवाडा में डी एम हूँ। ''
'' हाँ? ''
'' लगता नहीं क्या? ''
'' बहुत कम उम्र लगते हैं। ''
'' पर हूँ नहीं। '' अनुराग ने हँस कर सफाई दी। और पार्थ आ गए थे।
'' अनुराग मिले इस जंगली बिल्ली से? ''
'' आप तो चुप ही रहें । इनवाइट करके गायब हो जाना आपकी पुरानी आदत है। ''
पार्थ, अनुराग और केतकी को साथ देख एक सुखद अनुभूति से भर गया। पितृहीन अनुराग कहने को स्कूल से ही उसका जूनियर था मगर उसने हर तरह से बडे भाई का सा सम्मान दिया और बदले में पाया हर कदम पर मार्गदर्शन और दुलार। और ये केतकी उसके न जाने किस जन्म की सखि। उधर वो दोनों बातों में व्यस्त थे इधर एक सुन्दर कल्पना पार्थ के मन में आकार ले रही थी जिससे वे दोनों बेखबर से दुनिया-जहान के साहित्य की बातें कर रहे थे। चलो एक रुचि तो मिलती है वैसे दोनों एकदम विपरीत हैं अनेक आयामों में, एक शान्त, सन्तुलित, व्यवहारिक, दूसरा असामाजिक,दु:साहसी, अव्यवहारिक और बातूनी। एक बेहद शोख , खूबसूरत शख्सियत और दूजा साधारण कद काठी वाला सादा सा व्यक्ति। कहीं सुना है यही विषमताएं शादी के बाद एक-दूसरे की पूरक बन जाती हैं। शाम तक रोके रखा पार्थ ने केतकी को और अगले दिन अनुराग को शहर घुमाने की जिम्मेदारी भी उसे दे दी।
दोनों अच्छे बच्चों की तरह शाम बीतते ही लौट आए, बुध्दू! शाम ही तो रूमानी होती है। केतकी के जाने के बाद उसने अनुराग से कुरेद कर पूछा
'' कैसी है? ''
'' क्या झीलें? ''
'' नहीं बे नदी वो पहाडी नदी नहीं समझा केतकी ! ''
'' अच्छी है, क्यों ? ''
'' बस्स! ''
'' हाँ। तो और क्या। ''
'' तू नहीं सुधरेगा। ''
'' भाई, अच्छी है केतकी पर आप जिस सन्दर्भ में बात कर रहे हैं उसमें क्या वो मुझे पसंद करेगी? ''
'' तू अपनी बात कर, तुझे पसंद है? ''
'' उसे कौन नहीं पसंद करेगा ? ''
'' तो तुझमें क्या कमी है ? जहाँ तक केतकी की पसंद की बात है, उसे पुरूष में बुध्दिजीविता और कलाप्रियता आकर्षित करती है। आंटी कह रही थी तेरे लिये रिश्तों का ढेर लगा है, तुझे कोई पसंद ही नहीं... ''
'' हाँ। खरीदारों की लाईन लगी है, ऊँची बोलियों वाले एक से बढ क़र एक मुझे पत्नि चाहिये, सही मायनों में जीवनसंगिनी। ''
'' केतकी से तुझे मिलवाने का खयाल मुझे इसीलिये आया था। ''
'' तो आप ठीक समझते हैं तो बात करके देखिये। ''
'' नहीं अनुराग , तू ही प्रपोज क़र। मुझे अलग रख कर अन्यथा वह बुरा मानेगी। शादी के बारे में अभी वह असमंजस में है। तू उसे कनविन्स कर। ''
'' उसने मना कर दिया तो। ''
'' नहीं वह ऐसा नहीं करेगी । हाँ सोचुँगी कह कर टाल देगी और मुझसे आकर बात करेगी तब मैं उसे कनविन्स करूंगा। ''
'' आप तो जानते हैं भाई मैं ऐसी बातों में साहस नहीं जुटा पाता। ''
'' हाँ जानता हूँ , अब नीरजा की तरह इसे नहीं खोना चाहता है तो बिना वक्त गँवाए प्रपोज क़र दे। ''
पार्थ की आशंका सही थी। उस रात केतकी के घर डिनर पर बहाना बना कर वह चला गया था। अनुराग ने सहजता से अपने विचार केतकी के आगे रख दिये और केतकी ने सौम्यता से उत्तर दिया-
'' शादी के बारे में अभी मैं ठीक से सोच नहीं पा रही अनुराग । फिर भी मैं आपके प्रस्ताव पर गौर करूँगी। ''
अगले दिन अनुराग लौट गया। अगले सप्ताहान्त पर उन दोनों को अपने जिले भीलवाडा आने का आमंत्रण देकर। केतकी से रहा नहीं गया उसके जाते ही वह पार्थसे मिली।
'' पार्थ वो अनुराग.. ''
'' सुबह चला गया। '' नाक पर चश्मा टिकाए वह जानबूझ कर अखबार में डूबा रहा।
'' वह प्रपोज क़र रहा था। ''
'' क्या? '' उसी ओढी हुई उदासीनता के साथ वह बोला।
'' शादी के लिये... ''
'' तो तुमने क्या कहा? ''
'' कुछ खास नहीं यही कि अभी इरादा नहीं। ''
'' क्यों अच्छा लडक़ा नहीं वह? तुम्हारे लायक नहीं। टॉल, डार्क, हेन्डसम नहीं? '' अब अखबार पटक कर गंभीर हो गया था पार्थ।
'' नहीं पार्थ ऐसी बात नहीं। अनुराग जैसा लडक़ा पहले मिला होता तो। ''
'' अब क्या हो गया ? ''
'' आप... ''
'' मुझे तो तुम हिदायत दे चुकी हो कि मैं तुमसे ना जुडूँ। न कोई मोह पालूं। ''
पर , अतीत! अनुराग बेहद निश्छल है।
'' तुम भी उतनी ही निष्पाप हो। और अतीत बीत जाने के लिये होता है, साथ लेकर चलने या प्रचार करने के लिये नहीं होता। एक्सेप्ट कर लो उसका प्रपोजल। यह वक्त लौटेगा नहीं। ''
'' डरती हूँ पार्थ क्या उसे अपना सम्पूर्ण दे पाऊंगी? ''
'' अगर वह तुम्हें अपना सम्पूर्ण देगा तब भी? तुम दाम्पत्य को बाहर से नहीं समझ सकतीं। दाम्पत्य सम्पूर्ण देने और लेने की कभी न रुकने वाली प्रतिक्रिया है। ''
'' पार्थ.. ''
'' सारे असमंजस छोड, अतीत भूल कर अनुराग को अपना आप सौंप दो। मुझे बेहद खुशी होगी अगर ऐसा संभव हो सका तो। ''
'' पार्थ... ''
'' अब मत ठिठको केतकी। अपने प्रवाह को राह दो। ठहर कर नदी, नदी नहीं रहती उदास झील हो जाती है। तुम्हें तो बहना है केतकी। नदी को बाँधने वाले मूर्ख हैं, नदी को तो बाँहों में बाँध साथ बहा जाता है। ''
- मनीषा कुलश्रेष्ठ
December 14, 2000

No comments: