Saturday, December 5, 2009

इम्तिहान

इम्तिहान
अपने आप को सामान्य दिखाने की फिकर में मैं कुछ ज्यादा ही बन संवर कर निकला था सुबह। लोग मेरे चेहरे से मेरी मनोदशा ना भांप ले, सो शेव करे चहरे पर अतिरिक्त मुस्कुराहट चस्पा करना भी नहीं भूला था। रास्ते में जो भी मिला उसने 'जंच रहे हो यार' या' क्या बात है, आज तो' या ' बिजली गिरा रहे हो गुरू आज तो' कह कर हाथ मिलाया और मैं मुस्कुरा कर ' बस यूं ही ' के सिवा कुछ नहीं बोल पाया। अपनी आदत के विपरीत आज रास्ते में मिलें जूनियरों के अभिवादन के जवाब मेंमेरी गर्दन तत्परता से हिल रही थी। अपने आप को सामान्य दिखाने की भरसक कोशिश कर रहा था मैं। किन्तु भीतर ही भीतर कुछ जोर - जोर से हुडक़ रहा था। तेज कदमों से आफिस में गया और सीधा जाकर अपने चैम्बर की कुशन वाली चेयर में धंस गया। भीतर बहुत कुछ उमड घुमड कर रहा था, जो अकेलापन पा कर अब आंखों से भी झांकने लगा था शायद। बाहर वालों के सामने मुस्कुराते रहना या अपने आप के व्यस्त दिखाना खुद मुझको अपने आप में नाटकीय प्रतीत हो रहा था। किन्तु एकान्त में अपने आप से अभिनय नहीं कर पा रहा था।
'वो' एकाध बार सामने भीपडी क़िन्तु तेज कदमों से आगे निकल गयी।बगैर नजर उठा के देखे। मैं भीतर तक तिलमिला गया।किन्तु चेहरे पर वही रोज सी गम्भीरता ओढे रहा।
परसों अचानक मैंने उसके व्यवहार में बदलाव देखा। कोई 'गुड मार्निंग' नहीं। कोई बातचीत नहीं। कोई छेडछाड नहीं।एकाध बार मैंने बात करने की कोशिश भी की तो कोई 'रिस्पांस' नहीं दिखा।
शाम को मैंने फोन किया 'क्या बात है ?'
'कुछ नहीं।' उसका नीरस सा जवाब था।
'कुछ तो है ।'
'कहा ना क़ुछ भी नहीं।'
'फिर क्यों इस तरह कटी कटी हो?'
'बस यूं ही'
'अचानक?'
' ' मौन दूसरी तरफ।

'अचानक?' मैं फिर से।
'आपको पता है, दफ्तर में सब हमारी ही बारे में बाते कर रहे हैं ' वो सुबक पडी।
'क्या बातें ? कैसी बातें?'
'यही कि आप और मैं आफिस के बाद सिटी मिलते हैं और हमारे बीच कुछ चल रहा है।'
'कौन कहता है ?'
'कौन नहींकहता ये पूछिए? अब तो स्टूडेण्टस में भी ये ह्यूमर है कि आप अपनी पत्नी से 'सेपरेट' हो गए हैं और आजकल आपका और गौरी मैडम का चक्कर चल रहा है।' वो सुबकती जा रही थी।


'गौरी लेकिन इन सब बातों से क्या फर्क पडता है?'
'पडता है दीपक सर, मुझे पडता है। मैं अब अपना नाम किसी के साथ जुडवाना पसंद नहीं करती।'
'मुझे पसन्द करती हो ?'
'उससे क्या फर्क पडता है, आप तो पुरुष हैं, उंगली तो सदा स्त्री की तरफ ही उठती है।'
'किसने उठाई उंगली?कोई मेरे समने बोले।'
'जरूरी नहीं है कि आपके सामने आकर ही हरेक बात बोली जाए।'वो बार बार हिचकी ले रही थी।
'मुझसे प्यार करती हो?'
'हुं।च्च' उसकी हां हिचकी में फंस कर रह गई।
मैंने दुबारा पूछा 'बोलो। करती हो?
'हां।'
' फिर किस बात का डर है ?'
'आप तो जानते हो मेरा नाम पहले सूरज के साथ जुड चुका है। आप तो सबकुछ जानते हैं ।अब आपके साथ।'
'जीवन में प्यार सिर्फ एक बार ही हो आवश्यक है क्या?'
'नहीं। किन्तु आपकी पत्नी है, एक बच्ची है। कुछ फायदा है क्या इस रिश्ते को हवा देने का ?' उसके स्वर में दूर तक बस सन्नाटा सुनाई दे रहा था।
'क्या शादी ही सबकुछ होता है ॠ माना मेरी पत्नी है बच्चा है। तो क्या मुझे प्यार करने का हक नहीं ? '
' ' मौन उस तरफ।
' बोलो ?' मैं पुनः ।
'पर लोग हमारे बारे में बातें करें। हमारे बीच शारीरिक सम्बन्ध होने की कानाफूसियां हों तो बताईये मैं क्या करूं ?'
'कुछ नहीं।'
'कुछ कैसे नहीं?'
' तो क्या करें ? कहो।'
'हम अब मिलना बंद कर देंगे। बातें करना बंद कर देंगे बस।'
'उससे क्या होगा जानती हो? उससे ये बात और अधिक पुख्ता हो जाएगी कि हम प्रिकॉशन लेकर चल रहे हैं। हमारे बीच जरूर कुछ कैमिस्ट्री है।'
'लोगों को बातें बनाने का मौका तो नहीं मिलेगा कम से कम।'
' कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना' माहौल को सामान्य करने की गरज से मैं गुनगुनाने लगा।
' आपके लिए तो सब मजाक है। आपको क्या फर्क पडता है ?' उसका स्वर तल्ख था। मैं स्तब्ध रह गया।
' अच्छा बताओ तुम क्या चाहती हो ?'
'हमें अब मिलना बंद कर देना चाहिए।'
'पक्का ?'
'हां।'
'कब से ?'
' अभी से।'
'ठीक है । मगर क्या तुम मुझ से दूर रह पाओगी ?'
' हां' कह कर वो पुन सुबक पडी। मुझे अपना उत्तर मिल गया था। बगैर एक भी शब्द बोले मैंने रिसीवर रख दिया।
दूसरे ही दिन से मैं 'इनडिफरेण्ट' हो गया। अपने काम से काम। खाली समय में लाइब्रेरी और शाम को कामरे में लेट कर सिगरेट फूंकना। रात के करीब आठ बज रहे थे । मुझे ना जाने क्या सूझा मैंने उसके फोन पर अपने मोबाईल से दो बार घण्टी दी।दो घण्टी हमारा 'कोड' था। उसका रिएक्शन क्या होता है इन्तजार में मैं इधर उधर टहलने लगा ।
अचानक मेरा मोबाईल घन्नाया। उठाकर देखा। स्क्रीन पर लिखा था 'गौरी कॉलिंग' पढक़र मैं उसकी बेबसी पर मुस्कुरा दियाऔर तत्काल फाुन उठाया 'हैलो।'
' हां बोलो' वही हमेशा वाला स्वर हमेशा वाले चिरपरिचित अंदाज में ।एक पल को लगा जैसे कुछ नहीं बदला हमारे बीच।वही तत्परता वही अधीरता और वही प्यार। सबकुछ वैसा ही तो था उसकी आवाज में।
'कौन ?' मैं अनजान बन गया।
'मैं गौरी।'
'हां बोलो।'
'आपने घन्टी दी थी अभी ?'उसने मुझसे 'हां' सुनने की उम्मीद से पूछा।
'नहीं।' मेरा सपाट सा उत्तर।
'दो बार घण्टी बजी ।' मैंने सोचा आप हैं। बात करना चाहते हैं।
'नहीं मैंने नहीं दी घण्टी।'

'आप अपसेट हो ना दीपक सर ?'
'नहीं तो। अपसेट होने की क्या बात है ?'
'नहीं आप अपसेट हो। पता है आपकी आवाज बता रही है। इतना तो मैं भी जानती हूं आपको।'
'एसा कुछ भी नहीं है। तुम ख्वामख्वाह परेशान हो रही हो। ठीक है, रखता हूं।' कहकर बिना कुछ सुने मैंने फोन काट दिया।उसके जी की तडप देखकर मन रो पडा। वाकई मैं तो पुरूष हूं किन्तु उसका क्या
ह्नह्न।मन ही मन एक प्रण ले लिया।
ह्नह्न। आज पन्द्रहवां दिन है। उससे बगैर बोले, बगैर नजर मिलाए , बगैर उसको छुए।
कडा इम्तिहान है। पर शायद यूं ही सही धीरे धीरे प्यार मिट जाएगा। अचानक घडी पर नजर गई बारह बीस हो रहे थे। तुरन्त चश्मा संभाला रजिस्टर और चॉक उठाए और तेज कदमें से क्लास की ओर चल दिया।

संजय विद्रोही
फरवरी 1, 2005

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