Saturday, December 5, 2009

कुश्ती
शाम हो चुकी थी जब वे वहाँ पहुँचे । वहाँ लकड़ी का एक टूटा फूटा, जर्जर गेट था, जिसके परे एक छोटा घास का मैदान और उपर ''गुरु सदानंद व्यायामशाला'' का टीन का पुराना, जंग खाया साइन बोर्ड जिसके अक्षर मिट चले थे । बोर्ड पर भव्य, फौलादी देह में एक बलिष्ठ पहलवान की तस्वीर बनी थी, वह भी धुँधली पड़ गयी थी । वे मैदान में बिखरी पत्तियों को पैरों से दबाते हुए अखाड़े की नम, मूक मिट्टी के पास खड़े हो गये । उन दोनों में से जो उम्रदराज था, गुरु सदानंद, उसने अखाड़े के कोने में स्थापित बजरंगबली की छोटी सी मूर्ति को प्रणाम किया ।
- मेरे ख्याल में यहीं ठीक रहेगा । गुरु सदानंद ने पलटकर दूसरे व्यक्ति से कहा । पैंतीस के आसपास का वह दूसरा शख्स चुपचाप चारों ओर देख रहा था, कुछ याद करने की कोशिश करता हुआ । वह एक मटमैली कमीज पहने था, हाथ में रेक्जीन का फूला हुआ बैग थामे, और उसके चेहरे पर ऐसी बदहवासी और थकान थी, जैसे वह बहुत दूर से, हजारों कि.मी. का सफर तय करके आया हो ।
- हाँ, यहीं ठीक होगा । उसने एक थकी हुई आवाज में कहा ।
- आपने क्या नाम बताया था अखबार का । गुरु सदानंद ने कहा । - अखबार का ? वह अचानक चौंक गया । - अखबार का नाम . . . समाचार . . . समाचार संसार । हाँ, यही ।
- कभी सुना नहीं । फोटोग्राफर को यहाँ का पता मालूम है ?
- हाँ, वह आता ही होगा ।
- अच्छा, वह जब तक आये, मैं तैयार हो जाता हूँ । गुरु सदानंद ने कहा । - पीछे वह कोठरी देख रहे हैं,उसी में रहता है अपना सारा सामान । मुग्दर, डम्बल, वजन और वह गदा भी जो अठारह साल पहले खुद मेयर ने दी थी । उस दिन, जब आखिरी कुश्ती लड़ी थी और फिर कुश्ती से सन्यास लिया था । यहीं हुई थी वह आखिरी कुश्ती । उस दिन क्या भीड़ थी यहाँ, लोग ही लोग, तिल रखने की जगह नहीं । जैसे पूरा शहर उमड़ आया हो । यहाँ से वहाँ तक बन्दनवार लगे थे, जगमगाती रोशनियाँ थीं । बाकायदा वर्दियों में सजा धजा एक बैंड, बाजों और नगाड़ों के साथ । लाउडस्पीकर लगे थे, एक घंटे से ज्यादा तो वक्ताओं ने ले लिया । कितनी मालायें डाली गयी थीं, मेरा चेहरा उनमें छुप गया था । उस दिन आप यहाँ होते तो आपके अखबार के लिये बनती एक शानदार खबर . . . मगर तब तो आप बच्चे रहे होंगे । सब अखबारों में आया था, गुरु सदानंद का सक्रि्रय कुश्ती से सन्यास, अब केवल शिष्यों को तैयार करेंगे । कंधे पर चमचमाती गदा के साथ शानदार तस्वीरें छपी थीं । आज भी उसी गदा के साथ फोटो खिंचवाउँगा, अखाड़े के बीच खड़े होकर, और पीछे बैंकग्रांउंड में ये बजरंगबली । ठीक रहेगा न ? आप यहीं रुकें, मैं लेकर आता हूँ । आपका फोटोग्राफर अभी तक आया क्यों नहीं ?
- वह आता ही होगा ।
गुरु सदानंद अखाड़े के पीछे की कोठरी तक गये, कुर्ते की जेब से चाभी निकालकर बहुत देर तक ताला खोलने की कोशिश करते रहे । फिर वे भीतर चले गये । वह वहीं अखाड़े के किनारे खड़ा रहा । बहुत सारा समय बीत गया । गुरु सदानंद जब बाहर आये, उसने दूर से देखा, उन्होंने अपने कपड़े उतार दिये थे, केवल लंगोट पहने थे । उन्होंने गदा की मूठ थाम रखी थी, वह पीछे पीछे जमीन पर घिसटती आ रही थी । शाम के धुँधले, सौम्य उजाले के बीच एक धीमी रफ्तार में बीच का मैदान पार करते हुए वे करीब आये और उसे देखकर चौंक गये । उसके कपड़ों और जूतों का ढ़ेर एक ओर पड़ा था । वह केवल जांघिये में था ।
- यह क्या ? गुरु सदानंद ने कहा । शायद अखाड़े की मिट्टी से आपको याद आ गया कि आपके पास एक जिस्म भी है । एक ही जिस्म । इसी काया से जिंदगी भर काम चलाना है, इसलिये कभी कभी उसे भी समय देना चाहिये । ठीक है, जब तक फोटोग्राफर आये, आप कुछ व्यायाम कर सकते हैं । पत्रकार की नौकरी में आपको वक्त कहाँ मिलता होगा । यह इंटरव्यू . . . यह साथ साथ होता रहेगा ।
- आपने ठीक समझा, मेरे मन में यही ख्याल आया । आप जैसे महान पहलवान से मिलना रोज रोज थोड़े ही . . .
- लेकिन वह फोटोग्राफर अभी तक आया क्यों नहीं ?
- कहीं घूँट मारने न बैठ गया हो । आप तो जानते ही हैं, अखबार की नौकरी में, दिन रात की दौड़धूप,इतना टेंशन । मगर वह आयेगा जरुर, गैर जिम्मेदार नहीं है, उसे मालूम है यह फीचर ''कल के महान पहलवान गुरु सदानंद'' यह इसी इतवार को जाना है । आज ही रात भर बैठ कर लिखना होगा । आप बतायें, यह व्यायामशाला . . .
- इसका हाल तो आपके सामने ही है । उजाड़ है अब । गुरु सदानंद की आवाज में उदासी उतर आयी थी । - कभी इसका भी एक जमाना था, भीड़ लगी रहती थी । यहीं किनारे पर गद्दे और गावतकिये में अपना तख्त पड़ा रहता था । शागिर्द आते थे, पैर छूते थे, फिर अखाड़े की मिट्टी माथे से लगाते थे । अब तो . . .
वह दूसरा शख्स, पत्रकार, निर्विकार चेहरा लिये, धीमे, खामोश कदमों से चलता हुआ अखाड़े के बींचोबीच खड़ा हो गया ।
- आइये, आपके साथ एक कुश्ती हो जाये । उसने वहीं से कहा ।
- कुश्ती ? अरे नहीं । मैं तो आखिरी कुश्ती लड़ चुका हूँ । अठारह बरस हो गये . . . अभी आपको बताया था न ।
- हाँ, आपने बताया था । उस दिन खचाखच भरी थी यह जगह । लोग, शोर, रोशनियाँ । मगर वह आखिरी कुश्ती नहीं थी ।
- क्या मतलब ?
- आखिरी कुश्ती अभी लड़नी है आपको । आज । अब ।
गुरु सदानंद उसकी ओर देखते रहे ।
- क्या आप भी कुश्ती के शौकीन रहे हैं ? आपको देखकर लगता नहीं । पहले कभी आपने . . .
- नहीं, सदानंद जी, कुश्ती से, पहलवानी से मेरा कोई लेना देना नहीं रहा । मेरे पिता की जरुर यह तमन्ना थी, पहलवान बनने की । बड़ा ताकतवर आदमी था वह, मगर वह भी . . . । यह काम बहुत मुश्किल है न, हरेक के बस का थोड़े ही है । इसके लिये जीवन भर की साधना चाहिये । लेकिन नहीं, गलत कहा मैंने । मैं कुश्ती लड़ता रहा हूँ ।
- कब ? कहाँ ? गुरु सदानंद उसे अविश्वास से देख रहे थे ।
- हमेशा । अपनी सारी जिंदगी ।
वे एक दूसरे के सामने थे । मिट्टी नम थी और कुछ कुछ सख्त । अपने नंगे जिस्मों में वे घुटनों पर झुके सतर्क निगाहों से एक दूसरे को तौल रहे थे । गुरु सदानंद फुर्ती से झपटे और उसे कंधों से जकड़ लिया । अगले ही क्षण वह मिट्टी में सना हुआ जमीन पर चित्त पड़ा था ।
- यह लीजिये, पत्रकार महोदय, यह कुश्ती तो आप हार गये । गुरु सदानंद ने हँसते हुए कहा । दस गिनने तक आप न उठे तो . . . तो आपको मुझे अपना गुरु, अपना उस्ताद मानना होगा, पैर छूने होंगे । अपने अखाड़े का यही नियम था । दूर दूर से पहलवान लड़ने आते थे और शागिर्द बनकर जाते थे । मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . एक ।
वह जमीन पर पड़ा हुआ हाँफ रहा था ।
- दो . . . उठिये पत्रकार महोदय ।
वह निढाल पड़ा था । बदन में एक भी हरकत नहीं ।
- तीन ।
चार ।
पाँच ।
छह . . .
उसने अपनी कोहनियाँ मोड़कर उठने की कोशिश की, लेकिन कमजोरी महसूस कर अपने को फिर ढ़ीला छोड़ दिया और गहरी साँसें लेता रहा ।
- सात ।
आठ ।
नौ । दस । बस, खेल खत्म हुआ । तो . . . मानते हैं ?
- मानता हूँ ।
गुरु सदानंद ने उसे हाथ पकड़ कर उठाया । अपने हाथों का सहारा देते हुए उसे धीरे धीरे अखाड़े के किनारे तक लाये । घास पर बैठने में उसकी मदद की ।
- कमाल है । उसने अपनी हँफनी पर काबू पाने की कोशिश करते हुए कहा । - इस उम्र में भी आप . . . । अभी तक कुछ भी नहीं भूले ।
- इसमें कुछ भी ऐसा नहीं जिसे भूलना होता हो । यह तो आपका, मतलब आपके वजूद का हिस्सा बन जाता है । गुरु सदानंद ने अपनी आवाज में नरमी लाते हुए कहा । - इसी पर अपनी पूरी जिंदगी खर्च की है, घर गृहस्थी कुछ भी नहीं बसाई । यह व्यायामशाला उजड़ गयी है तो क्या, यह मेरा बदन . . . पुट्ठों को प्यार से सहलाते हुए उन्होंने कहा . . . बाकी है अभी, बहुत कुछ बचा है । लेकिन आपने कहा था, आप भी कुश्ती लड़ते रहे हैं, इसलिये मैंने कुछ अधिक जोर से . . . आपको चोट तो नहीं लगी ?
- नहीं, मैं ठीक हूँ । उसने कहा । - आपने बताया कि अब यहाँ कोई नहीं आता ।
- नहीं, और इस जगह पर अब बिल्डरों की निगाहें हैं । देखियेगा, किसी भी दिन यह व्यायामशाला गायब हो जायेगी, एक उँची बिल्डिंग यहाँ नजर आयेगी । आप अखबार में यह जरुर लिखना ।
- आपके शागिर्द . . . वे भी नहीं आते ?
- नहीं, अब कोई नहीं आता । नाल उतर जाये तो उसे चढ़वाने या कभी हड्डी जुड़वाने कोई आ जाये तो बात दूसरी है । अब कहाँ बचे कुश्ती के शौकीन और कदरदान । नयी उम्र के लड़के लड़कियों को, उसे क्या कहते हैं, जिम न . . . हाँ जिम जाना अच्छा लगता है । आपका वह फोटोग्राफर अभी तक नहीं आया ।
- वह आता ही होगा । वह यह जगह ढूँढ रहा होगा । अच्छा, सरकार की या प्रशासन की ओर से कभी कोई . . .
- उन्हें तो शायद इस जगह का पता भी नहीं होगा । उनसे पूछो, गुरु सदानंद को जानते हैं जो मशहूर पहलवान रह चुके हैं, किसी जमाने के हिंद केसरी, और उन्हीं के चेले थे जो उस वक्त हर स्टेट लेवल और नेशनल कंपीटीशन में . . . । बेवकूफों की तरह आपका मुँह देखते रहेंगे । अब देखिये, अखबार की ओर से भी आप अब आये हैं हालचाल लेने । इतने बरसों के बाद ।
- मैं पहले यहाँ आ चुका हूँ । उसने सिर झुकाकर एक धीमी आवाज में कहा ।
- कब ?
- बहुत पहले । अब से अठारह बरस पहले । उस दिन, जब आपने आखिरी कुश्ती लड़ी थी और फिर कुश्ती से सन्यास लिया था ।
- आप आ चुके हैं ? आप उस दिन यहाँ थे . . . आपने बताया नहीं । आपने देखा था न, कितने लोग थे यहाँ, कितनी रोशनियाँ, कितना शोर । यह जगह खचाखच भरी थी, याद है न आपको । आप बहुत छोटे रहे होंगे । अकेले आये थे ?
- नहीं, मैं अपने पिता के संग आया था ।
- आपके पिता जो . . . जिन्हें पहलवानी का शौक था ? आपने बताया था वे बहुत ताकतवर आदमी थे ।
वह उठकर खड़ा हो गया । उसने घास के उस छोटे से मैदान का एक चक्कर लगाया, थोड़ी एक्सरसाइज की और बहुत देर तक ठंडी हवा के घूँट लेता रहा । उसने अपनी शक्ति को वापस आता महसूस किया । फिर गुरु सदानंद के करीब से गुजरता हुआ वह अखाड़े के बीच चला गया ।
- हाँ, बहुत ताकतवर । बचपन में मुझे लगता था वही दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी है ।
- मगर पत्रकार महाशय, माफ कीजियेगा, उनकी ताकत आपको विरसे में नहीं मिली । एक हाथ लगाते ही चित्त हो गये ।
- आइये, आपके साथ एक कुश्ती और हो जाये । उसने वहीं से कहा ।
गुरु सदानंद ने उसकी ओर तरस खाती निगाहों से देखा ।
- आप मजाक कर रहे हैं क्या ? कुश्ती एक गंभीर चीज है, मजाक नहीं । पहली में ही क्या हाल हुआ था,भूल गये ? आइये, यहाँ आइये और बैठकर बातें कीजिये ।
- सदानंद जी, एक कुश्ती और । उसने विनती जैसे स्वर में कहा ।
- नहीं, पत्रकार जी, माफ करें । आप शायद भूल रहे हैं, आप मेरा इंटरव्यू लेने आये हैं, कुश्ती लड़ने नहीं । आइये इसे पूरा कर लेते हैं । रात हो चुकी है, ओस बरस रही है । यहाँ रोशनी भी इतनी कम है। फिर मुझे घर भी जाना है, आपका वह फोटोग्राफर अब तक पता नहीं कहाँ . . .
- सदानंद जी, आप डरते हैं शायद कि पहली में किसी तरह इज्जत बचा ले गये मगर इस कुश्ती में कहीं . . .
गुरु सदानंद बिना कुछ कहे वहाँ के सूने ऍंधेरे में उसे ऑंख फाड़े देखते रहे । फिर वे धीरे धीरे उठकर खड़े हुए और हौले, सधे कदमों से अखाड़े के भीतर चले गये । तारों की रोशनी तले ओस से भीगी ठंडी मिट्टी में सनी दो देहें गुत्थमगुत्था हो गयीं । वह जमीन से चिपका हुआ था, उसकी साँसें फूल रही थीं और पूरी ताकत से मिट्टी को पकड़ने की कोशिश कर रहा था । गुरु सदानंद ने अपने शरीर का पूरा वजन उस पर डाल दिया । उसकी देह के नीचे धीरे धीरे हाथ खिसकाते हुए गुरु सदानंद ने उसे कई बार उलटने की कोशिश की, मगर नाकाम रहे । वह साँसों को रोके हुए स्थिर और निस्पंद लेटा था, मिट्टी में मँह छुपाये । आखीर गुरु सदानंद ने अपनी साँस रोकी और बजरंगबली को याद करने के साथ अपने शरीर की समूची ताकत समेटकर उसे एक झटके में उलट दिया । वे उठकर खड़े हो गये और वह उनके कदमों के पास चित्त पड़ा रहा ।
- लीजिये, पत्रकार जी, आपकी यह तमन्ना भी पूरी हुई । मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . एक ।
वह ऑंखें मूँदे एक लाश की तरह लेटा था ।
- दो . . . उठने की कोशिश करो ।
अहिस्ता उतर आये ऍंधेरे में जैसे उसका जिस्म घुल गया था, उस ऍंधेरे के एक हिस्से की तरह । उसकी साँसों की आवाज भी नदारद थी ।
- तीन । चार । पाँच । छह . . . आप ठीक हैं न ?
गुरु सदानंद ने झुककर उसके शरीर को हौले से हिलाया ।
- सात । आठ । नौ । दस । बस । चलिये, खेल खत्म हुआ । अब उठिये, शरीर को झाड़िये और कपड़े पहन लीजिये । तबीयत खराब हो सकती है । इंटरव्यू अभी बाकी है या . . .
उसने ऑंखें खोलीं और अपना बेजान हाथ उनकी ओर बढ़ाया । उन्होंने उसे खींच कर खड़ा किया और बाँहों से सहारा देते, धीरे धीरे धकेलते हुए, किनारे की तरफ ले जाने लगे । वह घास पर बिखरी पत्तियों पर लेट गया और गुरु सदानंद कपड़ों के ढ़ेर में से उसकी कमीज उठाकर हवा करने लगे ।
- आप बहुत थक गये होंगे । आप चाहें तो बाकी इंटरव्यू हम कल . . . - नहीं, मैं ठीक हूँ । उसने बहुत धीमी, थकी आवाज में कहा ।
- जब आप यहाँ पहली बार बाये थे, अठारह बरस पहले, उस समय से तुलना करके आपको बहुत अजीब लग रहा होगा न ? उस वक्त की रोशनियाँ और अब यह उजाड़, सुनसान जगह । मगर कुश्ती का शौक होते हुए भी आप दुबारा कभी यहाँ नहीं आये । गुरु सदानंद ने कहा ।
- दोबारा आया हूँ न । आज ।
- आज, हाँ । लेकिन इतने वर्षो के बाद । पूरे अठारह बरस ।
- मुझे एक बहुत लंबे रास्ते से आना पड़ा । उसने कहा । - एक बहुत लंबा चक्कर लगाकर । पूरी दुनिया का चक्कर ।
- पूरी दुनिया का । मैं समझा नहीं ।
- हॉ, पूरी दुनिया । लंदन, पेरिस, न्यूयार्क । और भी न जाने कौन कौन से शहर ।
- आपको अपने काम के सिलसिले में वहाँ जाना पड़ता होगा । पत्रकारों के मजे हैं । आपने क्या नाम बताया था अपने अखबार का ।
वह जमीन पर चुपचाप औंधा लेटा रहा । गुरु सदानंद ने ऍंधेरे में उसके शरीर को हल्के से छुआ, फिर पीठ पर सहलाया । वह निष्चेष्ट पड़ा रहा, उसके भीतर एक घनी थकान थी, वैसी थकान जो बरसों बूँद बूँद जमा होती रहती है । अंधकार की चौकसी करते हुए गुरु सदानंद चारों तरफ देखते रहे । अब हवा कुछ तेज चलने लगी थी । गुरु सदानंद ने गेट के पार किसी आहट को कान लगाकर सुना, माथे से पसीना पोंछते उठ खड़े हुए, गेट की तरफ चलने लगे । वह आहट कुछ करीब आई, फिर दूर चली गयी । इतनी सी देर में शताब्दियों के बराबर एक निरवधि समय बीत गया ।
वह कोहनियों पर शरीर का पूरा वजन देते हुए हौले से उठा । पहले उसने आकाश में देखा, तारों का अमित विस्तार, और फिर ऍंधेरे में चारों ओर । गुरु सदानंद आसपास कहीं नहीं थे । कहाँ चले गये, उसने सोचा और ऑंखें गड़ाकर ऍंधेरे में देखने की कोशिश की । गुरु सदानंद गेट की दिशा में दूर से आते दिखाई दिये । वह उठकर खड़ा हो गया । वह अब अपने को सुस्थिर महसूस कर रहा था, और भीतर कहीं बहुत शांत भी ।
- सदानन्द जी, आपसे एक कुश्ती और लड़नी है । उनके पास आ जाने पर उसने कहा ।
- एक और कुश्ती ? गुरु सदानंद उसे हैरत और अविश्वास से देखते रहे ।
- हाँ, एक और । उसने कहा ।
- यह इंटरव्यू है या कोई मजाक ? आपने क्या नाम बताया था अपने अखबार का, मुझे पता दीजिये, मैं शिकायत करुँगा, किसने आपको पत्रकार बनाया । ये कोई तरीका है ? और आपका वह फोटोग्राफर अभी तक क्यों नहीं आया ?
- माफ करना सदानंद जी, मैं कोई पत्रकार नहीं । और कोई फोटोग्राफर नहीं आने वाला है । उसने एक थकी आवाज में कहा ।
- पत्रकार नहीं तो फिर कौन हैं ? और मेरे पास क्यों आये हैं ?
- मनस्तत्वविद हूँ एक ।
- मनस . . .मनस. . .क्या कहा आपने ? मैं समझा नहीं ।
- साइकाँलाजी का प्रोफेसर हूँ । पेरिस की एक यूनिवर्सिटी में पढ़ाता हूँ । शरीर से नहीं, मेरा नाता इंसान के मन से है । मगर अब लगता है, जो शरीर और आत्मा को इस तरह बाँटते हैं, कुछ भी नहीं जानते, न शरीर के बारे में, न आत्मा के । पहलवान के पास भी एक मन होता है और मनस्तत्वविद् के पास एक शरीर । दुनिया भर के विश्वविद्यालयों में लेक्चर देने जाता हूँ । वे मुझे अपने समय का सबसे बड़ा मनस्तत्वविद् कहते हैं । मगर अब उस देश से और अपनी पत्नी से नाता तोड़ कर वापस आ गया हूँ । आज ही . . .
- आप पेरिस से आये हैं, और सीधे यहाँ मेरे पास। क्यों, किस इरादे से ?
- आपसे कुश्ती लड़ने ।
गुरु सदानंद अवाक उसे देखते रहे ।
- आइये, एक कुश्ती और हो जाये । यह आखिरी होगी, बस, इसके बाद नहीं ।
- नहीं, मुझे माफ करें, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ ।
- आइये, एक कुश्ती और ।
- नहीं, बस हो चुका ।
अपनी गदा को घसीटते हुए गुरु सदानंद कोने की कोठरी की ओर जाने लगे ।
- सदानंद . . . उसने पीछे से चिल्लाकर कहा । - किसी गलतफहमी में मत रहना । रहा होगा कभी अपने समय का सबसे बड़ा पहलवान, मगर अब कुछ नहीं बचा तेरे भीतर ।
अपनी जगह पर ठिठक कर खड़े हो गये गुरु सदानंद ।
- तेरी हड्डियों को जंग लग चुका है । पहलवान कहता है अपने को ? तेरी काया . . . यह एक छाया है बस, किसी बहुत पुराने समय की । खाली हो चुका तू । खोखला । खल्लास ।
गुरु सदानंद के हाथों की गदा जमीन पर गिर गयी । वे पलटे और भागते हुए आये । उन्होंने अखाड़े के एक किनारे पर उसे दबोच लिया । उसने फिर पहले की तरह मिट्टी में मुँह छुपा लिया ।
- कौन है तू ? और क्यों आया है, क्या चाहता है ? अपनी हाँफती साँसों के बीच पसीने में तरबतर गुरु सदानंद ने चिल्लाकर कहा ।
- मैं पहले आता, लेकिन माँ हमेशा रोकती रही । उसके मरने के बाद ही आ पाया । दस दिन पहले . . .
- क्या हुआ था दस दिन पहले ?
- कुछ भी नहीं । माँ ने अपने दिल को बस जरा सा दबाया था और कहा था, यहाँ . . .इस जगह । मेरी पत्नी बदहवास हो गयी थी और टेलीफोन की ओर लपकी थी । पलक झपकते ही सब कुछ खत्म हो गया था ।
- फिर ?
- मैं फर्श पर बैठ गया था । मेरे भीतर एक घनी शांति थी । मेरे लिये काफी था इतना कि वह शांति से मरी, बिना तकलीफ के । अठारह बरस पहले मेरा बाप जिस तरह मरा था, उस तरह नहीं । मेरी पत्नी जानीन, उसी मुल्क की है वो, मेरे करीब बैठ गयी थी । उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में लेने की कोशिश की थी, लेकिन मैंने धीरे से अपने हाथ छुडा लिये थे । मेरे चेहरे की ओर देखते हुए उसने कहा था - अब? और तब मैंने कहा था, अब दस्तखत कर दूँगा । वह चुपचाप रोने लगी थी ।
- किस बात के दस्तखत ?
- तलाक के कागजों पर, और क्या । वह मेरी विद्वता पर मर मिटी थी, मगर शादी के बाद जब उसे मेरे ख्यालों के कुनबे में दाखिल होना पड़ा तो . . . । मेरे अतीत से घिन आती थी उसे, और मेरे रातों में बड़बड़ाने से भी । वह कई सालों से अलग होना चाहती थी । इसीलिये हमने परिवार भी नहीं बढाया । मैंने ही उससे विनती की थी कि माँ के रहते . . .
तारों की रोशनी तले मिट्टी और पसीने में लथपथ, एक दूसरे में गुत्थमगुत्था दो कसमसाते हुए नंगे शरीर ।
- यहाँ क्यों आया तू ?
- ये हर बेटे को करना होता है न । हड्डियाँ और राख गंगा में बहानी होती हैं । वही लिये आ रहा हूँ पाँच हजार कि.मी. दूर से । देख वह रहा बैग जिसमें मेरी माँ का चूरा है । वही वापस ला पाया उस मुल्क से,और साथ में अपने बाप का चाकू ।
- चाकू ?
- चाकू नहीं, छुरा । वह वहाँ मेरे घर की दीवार पर टॅंगा था । उसे मेरी माँ जब भी देखती थी, उसकी ऑंख और मुँह में एक साथ पानी आ जाता था । उसी छुरे से मारता था मेरा बाप ।
- मारता था ? क्या ? किसे ?
- उसने कभी सूअर मारने के लिये के लिये उसके मुँह में गंधक पोटाश का निवाला नहीं दिया, और न कभी जाल में लपेटकर मारा । इन तरीकों से उसे नफरत थी । वह खुले मैदान में छुरे से मारता था, लहूलुहान हो जाता था । इतना ताकतवर था वो । तड़प तडप कर सूअर दम तोड़ता था और उसके बाद खून में तरबतर मेरा थका माँदा बाप पूरी दोपहर सोया रहता था । छुरा न हो तो लाठी पत्थर हथौड़ा कुल्हाड़ा कुछ भी । यही तो था पुश्तैनी काम । मुझे नहीं सिखाया, और न कभी छुरा छूने दिया, मैं पढ़ने में बहुत अच्छा था न । इतनी ताकत थी उसमें और ऐसे उसके पंजे कि एक ही बार में बधिया कर दे । सूअर की चर्बी, गोश्त और कड़ी मेहनत से उसने अपना बदन बनाया था, धूप में चमकता था । उसकी तमन्ना पहलवान बनने की थी,मैंने बताया था न । गुंडे भी उसे सलाम करते थे, दूर से गुजर जाते थे । मगर अठारह साल पहले, मैंने देखा था, वह पस्त मुँह कमरे में टहल रहा था । डरा हुआ था और खिड़की के बाहर दूर तक इस तरह झाँक रहा था जैसे इस दुनिया को आखिरी बार देखता हो । काला तो था मगर उस दिन वह इतना काला लग रहा था, जैसे. . . जैसे . . .घनी रात का रंग होता है । - खिड़की के बाहर . . ? क्या ?
- लोग ही लोग, तिल रखने की जगह नहीं । जैसे पूरा शहर उमड़ आया हो । बन्दनवार और जगमगाती रोशनियाँ । बाजों और नगाड़ों का शोर । उस दिन . . . उस दिन महान पहलवान गुरु सदानंद की आखिरी कुश्ती थी । वहाँ वह जो दीवार है, उस वक्त नहीं थी । उसके पीछे ही तो था अपना घर और बस्ती । अब वो भी उजड़ गयी ।
गुरु सदानंद साँस रोके सुन रहे थे ।
- जब हो चुकी आखिरी कुश्ती तो लाउडस्पीकर पर ऐलान किया गया, कोई और हो तो सामने आये । सार्वजनिक चुनौती, कि कोई भी माई का लाल आये, गुरु सदानंद कुश्ती लड़ेंगे । भीड़ में से निकलकर मेरा बाप सामने आया था । वह धीमे, अनिश्चित कदमों से आगे बढ़ा था । मैं उसके पीछे था । गुरु जी के पास पहुँचकर वह उनके पैर छूने के लिये झुका था । गुरु जी ने उसकी ओर देखा था और उसे पहचान कर कहा था . . .
- क्या कहा था ? गुरु सदानंद ने कुछ याद करने की कोशिश करते हुए कहा ।
- कहा था, अब ये दिन आ गये । अब तो भंगी, चूहड़े और चमार भी कुश्ती लड़ने लगे । और फिर कहा था . . .
- क्या ? क्या कहा था ?
- कहा था, चल हट, मैं भंगी से लड़ूँगा आखिरी कुश्ती ?
गुरु सदानंद का बदन बर्फ की तरह ठंडा पड़ गया ।
- दुनिया भर में लेक्चर देने जाता हूँ । वे कहते हैं मुझे अपने समय का सबसे बड़ा मनस्तत्वविद् । वे कहते हैं मैं ही खोज कर निकालूँगा आदमी के मन और आत्मा के वे सारे रहस्य जो अभी तक जाने नहीं गये । रोज रात को अपनी नींद में, सपनों में एक कुश्ती लड़ता हूँ, बिस्तर में पसीने से तरबतर होता हूँ । कितनी किताबें लिख डालीं मैंने, कितने पर्चे, लेकिन वह घाव . . . । मेरा बाप, जिसे मैं दुनिया का सबसे ताकतवर आदमी समझता था, कितना कमजोर निकला, और उसका वह छुरा, कितना मामूली । अपने समय के उस महान पहलवान के पास वह कैसी कटार थी, और कैसी उसकी धार . . . आज तक बहता है खून ।
गुरु सदानंद अखाड़े में चित्त पड़े थे ।
- मैं गिनना शुरु करता हूँ . . . उसने कहा । एक । दो । तीन । चार . . . मगर भीतर से उठती आती रुलाई को वह बस नौ तक सँभाल पाया । नहीं कह सका वह दस, बस और लो खेल खत्म हुआ । अचानक उठा और अपने कपड़े उठाकर मैदान के ऍंधेरे सुनसान कोने में चला गया । सदानंद दूर से आती उसकी हिचकियों की आवाज सुनते हुए मिट्टी में लेटे रहे । थोड़ी देर के बाद वे उठे और अपनी गदा को घसीटते हुए खामोश, थके कदमों से कोने की कोठरी की तरफ चलने लगे ।
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योगेंद्र आहूजा

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