Saturday, December 5, 2009

एक और द्रोपदी

एक और द्रोपदी
जीजाजी अपने बॉस के साथ उनकी इर्म्पोटेड इम्पाला में बैठ कर केवल दो घण्टे के लिए आए थे।देहरादून जा रहे थे गाडी ज़रा इधर को घुमा ली।बहाना था कि बहुत दिन से हमारी कोई चिट्ठी नहीं गई थी और वे काफी चिन्तित हो आए थे।यह बात दीदी कह बैठती तो ज्यादा अजीब न लगता।जीजाजी के मुंह से सुनकर तो जैसे अपने ही मुंह का जायका बिगड ग़या।
अम्मा तो इसी बात पर निहाल हो आई कि जमाई बाबू हमारा हालचाल पूछने आए हैं।जीजाजी के सर पर हाथ फेरती अम्मा उन्हें भीतर तक ले आई थी- आओ-आओ भीतर आओ न।सब कुछ दरवाजे पर खडे ही कह डालोगे।ये तो चबर-चबर सवाल-जवाब ही किए जाएगी।
छोटी साली है अम्मा! एक नहीं दस सवाल भी करेगी तो जवाब तो देना ही पडेग़ा। एकाएक वे पीछे चले आ रहे अपने बॉस की ओर मुडे थे- आइए राव साहब! मीट माई सिस्टर-इन-ला सुनीता।
-हाय! उन्होंने कहा और प्रत्युत्तर में मैंने अपने दोनो हाथ जोड दिए।यों अभी तक इस अदने से आदमी को खींसे निपोरते देख मैंने अन्दाजा लगा लिया था कि जीजाजी का कोई बॉस ही होगा।निश्चय ही जीजाजी की तरक्की के दिन नजदीक आने वाले लगते हैं।तभी तो गाडी देहरादून जाती हुई इधर को घुमा ली गई।बॉस को आकर्षित करने के लिए ससुर की आठ कनॉल की कोठी और उसमें रहने वाली एक खूबसूरत जवान लडक़ी क्या कम है।
-सुनीता पहले कुछ ठण्डा दे देना बाद में चाय लेंगे।हां! राव साहब चाय में शक्कर कम लेते हैं। मन हुआ पूछ लूं डायबिटीज क़े मरीज हैं क्या।पर मन ही मन खिसियाकर रह गई थी।जीजाजी सभी कमरे पार करते हुए राव साहब को पीछे दालान में ले गए।मैं किचन की ओर मुडी तो अम्मा ट्रे में दो गिलास पानी लिए खडी थी- ये पानी ले जा मैं चाय रखती हूं।
-ओह अम्मा तुम भी अजीब हो।ठण्डे का मतलब नहीं समझती! अम्मा के हाथों से ट्रे को लगभग छीनते हुए मैंने दोने गिलासों का पानी जग में पलटा और चीनी का बाऊल उठाते हुए बोली- अम्मा बाहर से दो निब्बू तोड लाइये।
चीनी हिलाते हुए ध्यान आया था राव साहब शूगर के मरीज नहीं हो सकते।वरना जीजा ठण्डे के लिए भी रोक देते।निब्बू-पानी लेकर बाहर गई तो जीजाजी अपना पुराना भाषण दोहरा रहे थे- पापा ने यह कोठी पन्द्रह साल पहले बनवाई थी।उस वक्त इस कोठी पर पांच लाख लगा था।अब तो इसकी कीमत पचास लाख से कम क्या होगी।जमीन के भाव ही देख रहे हैं न चार गुना हो गये हैं। मुझे देख कर मेरी तारीफ करना भूलना जीजाजी के लिए सबसे बडी चूक जाने वाली बात थी।
-अपनी सुनीता को संगीत में भी बराबर रूचि है।कुर्सी जरा आगे को सरकाते हुए बोले- एम ए भी तो संगीत में किया है।
अब मुझसे गाने की फरमाईश कर बैठेंगे।सुनीता तो चाबी की गुडिया है जब जी चाहा उसे किसी के सामने बिठा कर उसका गाना सुन लिया।नहीं सुनाऊंगी तो दीदी छोडेंग़ी मुझे।
दीदी और जीजा जी की चालों की पहले कहां खबर थी मुझे।पहली बार इनके कुलीग मिस्टर रंजन आए थे तो मैंने गाने से साफ इन्कार कर दिया था। और उसके लिए मुझे कितने खिताब दे दिए गये थे । घमण्डी अभिमानी बद्तमीज! दीदी ने यह भी स्पष्ट लिखा था कि रंजन जीजाजी के बॉस का भतीजा है । उसी के दम पर जीजाजी के प्रमोशन्ज क़े चांसिज हैं।पत्र पढते ही मेरी रूलायी फूट पडी थी।बडा गुस्सा आया था।बॉस के भतीजे को पटाने के लिए मेरे गीत-संगीत का सहारा लिया जा रहा है।पन्द्रह दिन बाद दीदी खुद आ गई थीं और वही बातें फिर से दोहरायी गयीं।लेकिन अब के मैं रोई नहीं थी।बस इतना ही कहा था- दीदी पापा के बाद संगीत मेरा सुख का नहीं दुख का का साथी रह गया है।
पापा के होते आए दिन छोटे-बडे समारोहों में गीत-संगीत के कार्यकम दिया करती थी और ढेरों इनाम जीत कर लाती।लेकिन पापा के बाद स्टेज का नाम सुनते ही मैं ठण्डी पड जाती।बस कभी-कभार रात क ेवक्त जब बहुत मन होता तानपूरा लिए पीछे वाले बरामदे में जा बैठती। एक-दो भजन ही रह गए थे अब तो जो बार-बार दोहराया करती।अम्मा को भी शायद यही अच्छा लगता था।तानपूरा उठाकर बाहर जाने को होती तो अम्मा प्रायः कह देतीं- वो सुन दे सुख के सब साथी दुख में न कोये।
-सुनीता अपना तानपूरा तो ले आओ। जीजाजी ने कहा तो मैं यंत्रवत-सी उठ खडी हुई।जरा भी न-नुकुर नहीं कर पायी।रंजन तो बॉस का भतीजा था अब बॉस खुद सामने हैं।उन्हें प्रसन्न करने में जरा भी कसर रह गई तो दीदी मुझे कच्चा न चबा जाएंगी।
-ले आ न शरमा क्यौं रही है। भीतर से आती अम्मा ने कहा तो मैं बुरी तरह से कुढ ग़ई।क्या मैं इन्कार कर रही थी जो अम्मा के कहने की जरूरत आन पडी।क़हीं बेटी के जरा भी इन्कार न करने पर बेटी की बेशर्मी पर पर्दा तो नहीं डाल रहीं।
तानपूरा उठाते हुए एक बार तो मन में आया कि इसकी खूंटियां घुमा कर तानपूरे के सारे तार ही तोड ड़ालूं।लेकिन इससे क्या मुक्ति मिल जाएगी मुझे? जीजाजी कहेंगे बिना तानपूरे के ही सुना दे।तुम्हारी आवाज में तो संगीत भी साथ ही मिला हुआ है।इतनी बढाई तो किसी ने संगीत-सम्राट तानसेन की भी न की होगी जितनी वे मेरी कर डालते हैं।
अरी चाय ठहर के पिएंगे पहले तानपूरा ले आ।अम्मा की आवाज से मैं एकबार फिर तिलमिला गई।कभी-कभी अम्मा से बहुत विद्रोह करने को जी चाहता है।लेकिन अम्मा बेचारी भी क्या करे। पापा के बाद तो वे बावली सी हो आई हैं।जो कोई जैसा कहता है वैसा करती चली जाती हैं।
तानपूरा लेकर लौटी तो अम्मा और जीजाजी का चेहरा पूरी तरह से खिल गया।सच कहं तो उन्हें देख मैं इनके प्रति सहानुभूति से भर आयी थी। ये महाशय भजन या क्लासिकी क्या पसन्द करेंगे। तभी मीर की एक गजल मस्तिष्क में उभरी और मैंने उसे ही छेड दिया।अम्मा मेरी आधी गजल के बीच में से ही उठ गई थीं।एक तो गजल में उनकी कोई रूचि नहीं थी दूसरे जमाई बाबू के लिए चाय-पानी का इन्तजाम भी तो करना था।
- वाह! भई बहुत बढिया! अन्तिम पंक्ति के उत्तरार्द्व में ही उनकी दाद शुरू हो गई थी।लेकिन मुझे इसकी जरूरत नहीं थी।तानपूरा वहीं छोड एक झटके से मैं भीतर चली आई।
अम्मा केतली में चाय उंडेल रही थीं। बिस्किट नमकीन और पिन्नियां अम्मा ने प्लेटों में लगा दी थीं।
-कुछ और नहीं मंगवाना? अम्मा के लिए ये तीन चीजे रख देना कम नहीं था लेकिन मैं जानती थी अम्मा भी कहीं दीदी से डरती हैं। बॉस की आवभागत में कुछ कमी रह गई तो अम्मा को भी सुननी पड सकती हैं।
-जीजाजी की प्रिय पिन्नियां तुमने रख दी हैं और क्या चाहिये उन्हें। खाने की तीनों प्लेटें ट्रे में रख मैं बाहर ले आई। वही हुआ जो मैं सोचती चली जा रही थी।ट्रे पर नजर पडते ही अम्मा की बनाई पिन्नियों की तारीफ शुरू हो गई।चाय का आखिरी घूंट भरते हुए जीजाजी बोले- सुनीता राव साहब को जरा अपना बगीचा तो दिखाओ।
एक बाहर के व्यक्ति को हमारे बगीचे में क्या रूचि हो सकती है नहीं समझ पा रही थी मैं।पापा का लगाया बारह मासी नीबू, बादाम, लीची, आडू क़े बारे में जीजाजी बखान करते चले गए थे और राव साहब जीजाजी के हर वाक्य के बाद मेरी ओर देख कर मुस्करा पडते।सम्भवतः वे इन चीजों की तारीफ में हामी भर रहे हों लेकिन मेरे भीतर एक टीस बराबर उठ रही थी।जितना इन पेड-पौधों के बारे में सोचती हूं पापा बहुत याद आने लगते हैं।
कहां-कहां से किस-किस नर्सरी से पापा ये पेड पौधे जुटाकर लाए थे।पाईन-ट्री के लिए पापा ने शिमला का स्पेशल टूर बनवाया था।मैदानी इलाके में पहाडी वृक्ष लोग-बाग देख कर हैरान होते।
कभी गर्मियों में आइये राव साहब तब आमों की बहार देखिएगा। तो ये लोग गर्मियों में भी आने का सोच रहे हैं।जीजाजी दीदी तो आएं लेकिन इस आदमी को साथ ले आने का अर्थ?
हमारी और इस घर की एक-एक चीज क़ी तारीफ करने के बाद जीजाजी राव साहब की ले बैठे थे- राव साहब को फोटोग्राफी का बहुत शौक है।पिछले दिनों तुम्हारी दीदी के ऐसे फोटोज लिए कि देखते ही बनते थे।शौक तो तुम्हें भी है लेकिन राव साहब के खींचे फोटोज ज़रूर देखना।
अगर ऐसा ही था तो राव साहब के खिंचे फोटोग्राफ्स साथ क्यों नहीं ले आए।
-राव साहब अपना कैमरा तो लाइये।कुछ फोटोज यहां भी हो जाएं।
अजीब लोग हैं ये! आते हुए तो कहा था केवल दो ही घण्टे रूक पाएंगे।अब तीन घण्टे से ऊपर हो चले हैं और जनाब अभी फोटोज ख़ींचने बैठेंगे।
राव साहब तुरन्त अपना इम्पोर्टेड कैमरा उठा लाए थे। लेकिन बडा बुरा हुआ बेचारों के साथ।कैमरे का कोई पुर्जा रास्ते में ही गिर गया था और सही फोटो आने के कोई आसार नहीं रह गए थे।बडी सोच में पड ग़ए थे बेचारे।त्-त्-त्! मन हुआ अफसोस जाहिर कर दूं।पर फिस्स-सी हंसी मेरे होंठों के बीच ही दब कर रहर् गई।अम्मा मेरी ओर देख कर आंखें न तरेरतीं तो शायद यह हंसी अपने पूरे उफान के साथ बाहर आ जाती।
-सुनीता! अपना कैमरा ही ला दे।
अम्मा मुझे पूरी तरह से जला देना चाहती है।अच्छा-भला जानती है मैं उस कैमरे को किसी को हाथ नहीं लगाने देती।लेकिन इस वक्त इन्कार कर देना क्या संभव था? इस कैमरे में मैं सारी दुनिया कैद कर लेना चाहती थी।इस घर का ऐसा कौन सा कोना होगा जिसका फोटो मैंने नहीं खींचा। अम्मा पापा के तो ढेरों फोटो लिए होंगे।जब फोटो खींचने लगती थी तब किसी को कहां पता चलने देती थी। बरामदे में रोटियां बेलती अम्मा -क्लिक! छत पर बाल सुखाती अम्मा-क्लिक! लॉन में आराम कुर्सी पर कुछ सोचते हुए पापा-क्लिक! हैंडपम्प के नीचे नहाते हुए पापा-क्लिक! पेडों पर उग आए बौर को एकटक देखते हुए पापा-क्लिक!
कोई त्यौहार खाली नहीं जाता होगा जब पापा खुद ही मेरे कैमरे में नई रील न डलवा लाते हों।महीने में एक-आध बार तो आउटिंग भी जरूर हो जाती।आकाश को छूते हुए देवदार के पेड पिंजोर बाग की ऊंची-ऊंची दीवारों पर फैला बौगनवेलिया छतबीर चिडिया घर के जानवर रॉक-गार्डन पापा खुद ही ले जाते सभी जगह।
जिस तरह से मेरी फोटोग्राफी में निखार आता गया था पापा हैरान थे।अम्मा तो बराबर चिल्लाती रहतीं- ऐसे शौक भी कभी लडक़ियों ने पाले। ये चीजें तो मर्द के हाथों में ही जंचें।कोई सिलाई-कढाई हो तो लडक़ियों के हाथ में शोभा भी दे।
-अम्मा जरा इसी तरह गुस्से में चिल्लाती रहना।मैं अभी आई एक मिनट! बस्सप्लीज! अगले ही पल कैमरा मेरे हाथों में होता।और टेढी भौहों वाली अम्मा-क्लिक! मेरा और पापा का ठहाका देर तक हवा में गूंजता रहता।अम्मा बेचारी की हमारे आगे जरा भी न चल पाती।
जिस दिन पापा का देहान्त हुआ मैं बिल्कुल जड हो आई थी। लगा था मस्तिष्क बिल्कुल खाली हो आया है।बस एक शून्य है जो मेरे बाहर भीतर व्याप गया है। बिल्कुल नहीं रोई थी मैं।लग तो रहा था अभी हंसी का फुहारा मेरे मुंह से फूट पडेग़ा।देखो तो पापा कैसे सोए पडे हैं। पहले सोते थे तो फ-र्र-र - फ-र्र-र खर्राटों की आवाज आया करती थी।अब तो सांस भी रोके हुए हैं।मुझे इन्हें सतर्क कर देना चाहिए।अगर देर तक इसी तरह पडे रहे तो मैं 'क्लिक' कर दूंगी।
-अरी तू क्या सोच रही है? अम्मा ने मुझे कंधे से आकर झिंझोडा था- तू तो सारी दुनिया अपने कैमरे में कैद कर लेना चाहती थी।अपने पापा को भी इसमें कैद क्यों नहीं करती।जल्दी उठ! नहीं तो ये लोग तेरे पापा को ले जाएंगे।
अम्मा यह क्या कह गई? में जार-जार फूट पडी थी- नहीं अम्मा! मैं पापा को इस हालत में अपने कैमरे में कैद नहीं कर सकती नहीं कर सकती!
-पगल मत बन! जल्दी उठ! और अम्मा ने खुद ही कैमरा मेरे हाथ में लाकर थमा दिया था।
मरे हुए पापा-क्लिक! नहीं पापा नहीं मर सकते।पापा कभी नहीं मर सकते।लेकिन पापा सच में मर गए थे।उस वक्त पापा की फोटो न खींची होती तो आज मैं सच में पछताती।
राव साहब कब से मेरे कैमरे के इन्तजार में खडे थे।यों मेरे कैमरा लाने तक उन्होंने अपने कैमरे के काफी पुर्जे इधर-उधर घुमा लिए थे लेकिन कहीं से मशीनरी ऐसी अड ग़ई थी कि इस वक्त वह कैमरा न होकर मात्र एक डिब्बा ही रह गया था। चार-पांच फोटो लिए थे राव साहब ने । दो जीजाजी मेरे और अम्मा के। शेष मुझ अकेली के।
सुनीता जरा अपनी फोटोग्राफी का कमाल भी तो दिखाओ।जीजाजी बोले थे।एकाएक वे रावसाहब से मुखातिब हुए- राव साहब आपका और सुनीता का मुकाबला है इस वक्त। देखते हैं किसका खिंचा फोटो ज्यादा सुन्दर आता है। मुंह से फिसल गया था।
-दांव पर तो हम लगा ही चुके हैं।जीजाजी ने धीरे से कहा तो मैं जरा चौंकी थी।लेकिन मजाक करने का मूड बराबर बना हुआ था सो कह दिया- किसी द्रोपदी को लगा रहे हैं क्या?
पता नहीं क्यों जीजाजी एकाएक चुप से हो आए। चेहरे के भाव भी एकदम से बदल गए थे। मेरी इस बात पर इतना नाराज क्यों हो आए हैं? मैं तो मजाक कर रही थी।
लेकिन मेरे इस मजाक पर नाराज नहीं हुए थे वे। दरअसल मैं बात ही इतनी सच्ची कह गई थी कि जीजाजी उसे झेल ही नहीं पाए थे।दस-पन्द्रह मिनट के लिए जीजाजी बाजार का कह कर गए तो अम्मा पूछने लगी- कैसा लगा लडक़ा?
-लडक़ा! में चौंकी थी- कैसा लडक़ा? कौन लडक़ा? अम्मा की बात पर सच में मैं असमंजस में पड अाई थी।
-राव की ही बात कर रही हूं। उसने तो हां कर दी है।
-राव साहब! यह क्या कह रही हो अम्मा! वह लडक़ा है या आदमी?
-बस-बस! बहुत जुबान खुल गई है तेरी। अपनी उम्र का भी सोचा है कभी। पूरे तीस की होने को आ रही है।और फिर उसमें कमी भी क्या है।असिस्टैंट डॉयरैक्टर है।पचास हजार रूपया तन्खवाह लेता है।
-अम्मा मुझे सोचने का मौका दो।
-सोचने का मौका अब नहीं दूंगी।मैं सब समझती हूं। बाद में न-नुकुर कर जाएगी। मेरे को इतना बता दे कब तक मेरी छाती पर मूंग दलती रहेगी।
-अगर ऐसा ही है अम्मा तो तू हां कह दे।
सोचा था जीजाजी और राव साहब के लौटने तक अम्मा का मन अवश्य बदल जाएगा। लेकिन यह क्या! वे लोग लौटे तो राव साहब के हाथ में मिठाई के दो डिब्बे थे।
-इन सब की क्या जरूरत थी? अम्मा कह रही थी।
-मुंह तो मीठा करवाना था। अम्मा तेजी से रसोई की ओर मुडी और स्टील की दो तश्तरियां उठा लाई थीं।राव साहब ने एक तश्तरी में गुलाब-जामुन पलटे दूसरी में बर्फी।
-लीजिए पहले आप मुंह मीठा कीजिए! राव साहब ने गुलाब-जामुन का डिब्बा मेरी ओर बढाया तो जीजाजी ठहाका मार कर हंसे- अरे भई! ऐसे भी मुंह मीठा करवाया जाता है कभी!
राव साहब समझ गए थे। जरा झेंपते हुए उन्होंने एक गुलाब -जामुन उठा कर मेरे होंठों की तरफ बढा दिया।
-अरे-रे जरा रूकना! जीजाजी एकाएक चिल्लाए- बस इसी तरह एक मिनट प्लीज! अगले ही पल कैमरा उनके हाथ में था।
सुनीता को गुलाब-जामुन खिलाते हुए राव साहब- क्लिक!
एक द्रोपदी दांव पर लगती- क्लिक!
-ओह ब्यूटीफुल! लवली! देखो सुनीता हमने तुम्हें अपने कैमरे में कैद कर लिया।मुझे!
मन तो हुआ कह दूं- मुझे नहीं मेरी एक पूरी जिन्दगी को आपने इसमें कैद कर लिया।अब कैमरा राव साहब के हाथ में था। और मैं खुद को चीरहरण के लिए तैयार करने लगी थी।
विकेश निझावन
फरवरी 19, 2008

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