Saturday, December 5, 2009

औरत

औरत
गिरजा आज फिर उस औरत को साथ लाया था.वही दुबली पतली मोटी-मोटी आंखें तीखी नाक और सांवले रंग वाली औरत.
पिछले तीन माह में यह औरत सातवीं बार आ चुकी है.सुमित्रा ने देखा तो पल भर के लिए सहम सी गई.काले सूट में यह औरत उसे किसी चुडैल से कम नहीं लग रही थी.लेकिन यह सफेद भी पहन ले है तो चुडैल ही.किस तरह से उसके घर को खाए चली जा रही है सुमित्रा ने मन ही मन सोचा.
ऐऽ! ये बिटर-बिटर क्या देखे जा रही है? भीतर जा और जल्दी से दो प्याली चाय बना कर ला.गिरजा चिल्लाया तो सुमित्रा ने झट से अपने को संभाला.वह तेजी से रसोई की ओर मुडी थी.
रसोई में आते ही सुमित्रा के भीतर का बांध आंखों के रास्ते फूट पडा.एक बार तो वह फफक पडी थी.लेकिन अगले ही पल उसने दुपट्टे को दांतों के बीच ठूंस लिया.कहीं रोने की आवाज ग़िरजा तक पहुंच गई तो उसकी खैर नहीं.
पहली बार जब सुमित्रा के रोने की आवाज गिरजा के कानों तक पहुंची थी तो वह दहाडता हुआ भीतर आया था - ऐ ये गुटर-गूं क्या लगा रखी है? बंद कर ये मगरमच्छ के आंसू.सुमित्रा की ज्यादा परवाह किये बिना गिरजा उस औरत को लेकर अपने कमरे में बंद हो गया था.
ये सब क्या है सुमित्रा समझ नहीं पा रही थी.उसका जिस्म ठंडा पड ग़या था.जुबान तो जैसे किसी ने काट ही डाली हो.
एक ही कमरा है गिरजा के पास और उसमें भी वह पराई औरत को लेकर बंद हो गया.ऐसा तो सुमित्रा ने न कभी देखा न सुना था.अपना यह दुख वह कहे भी किससे.लोगों के लिए तो तमाशा बन कर रह जाएगा.अम्मा से? न-न! रो-रो कर जान गंवा देगी.
पूरे तीन घंटे वह औरत भीतर रही थी.और उन तीन घंटे में सुमित्रा रसोई की दीवार से छिपकली की तरह चिपकी रही थी.उस औरत के जाते ही गिरजा रसोई में घुसा था - कुछ दाल-रोटी बनायी कि नहीं?
सुमित्रा उसी मुद्रा में बैठी रही तो गिरजा उसकी ठोढी क़ो ऊपर उठाते हुए बोला था- ऐऽ! थोबडा क्यों सूज गया तेरा? जलभुन गयी क्या उस औरत को देख कर?अरी अपन ने तेरे को तो इस घर से नहीं निकाला.राम कसम जो कभी तेरे को अपना न समझा हो.यह तो टेम्परेरी थी.मिल गयी सो लो आया.तू काहे जी को जलाती है.चल उठ और रोटी बना.
आंखों को दुपट्टे से पोंछती हुई सुमित्रा उठी थी.गिरजा की साफ सी बातों से वह नर्म भी पड अायी.अपने को गिरजा की छाती से सटाती बोली थी- मुझे तो नहीं छोड देगा तू?
-कैसी बात करती है तू! मेरे पर विश्वास नहीं तेरे को? गिरजा देर तक सुमित्रा के बालों को सहलाता रहा.सुमित्रा के भीतर का आकोश धीरे-धीरे धुलता चला गया था.प्यार भरी नजरों से वह गिराजा की ओर देखती बोली थी- गिरजा तू अगर मुझे सच में चाहता है तो कह कि आगे से उस औरत को नहीं लाएगा.
-अच्छा बाबा नहीं लाऊंगा.
-सच में उस औरत को नहीं लाएगा न ?
-सिर्फ उस औरत को ही नहीं किसी को भी नहीं लाऊंगा.
-और तू भी किसी के पास नहीं जाएगा?
-नहीं जाऊंगा बाबा! और कुछ?
सातवें दिन जब गिरजा उसी औरत को लेकर घर में घुसा तो सुमित्रा के पांव तले से जमीन ही खिसक गयी.गिरजा ने भीतर आते ही आदेश दिया था- ऐऽ! बाहर चल कर बैठ.देखना कोई भीतर न आए.कोई मेरा पूछे तो बोलना घर पर नहीं है.
दुपट्टे में आधा मुंह छिपाए वह औरत गिरजा के पीछे-पीछे भीतर चली आई थी.
छोटी-छोटी बिन्दियों वाला नीले रंग का सूट और उस पर नीले ही रंग का दुपट्टा .पहले तो सुमित्रा को लगा जैसे यह कोई दूसरी औरत है.लेकिन जब उसने अपने आधे चेहरे से दुपट्टा हटाया तो सुमित्रा की नजर सीधे उसके मोटे तिल पर जा पडी थी.सुमित्रा समझ गयी थी कि अब यह औरत उसका घर बरबाद करके ही छोडेग़ी.
सुमित्रा का सोचना ठीक ही निकला था.अब तो सप्ताह में एक बार नहीं दो-दो बार आने लगी थी वह.पिछली बार तो सुमित्रा ने अपनी आंखों से गिरजा को उसे नोट पकडाते देखा था.तब तो सुमित्रा खुद को रोक ही नहीं पाई थी.उस औरत के जाते ही फट पडी थी-ये सब क्या हो रहा है गिरजा?
- कुछ भी तो नहीं! बडे सहज भाव से गिरजा बोला था.
-तूने मेरे साथ वादा किया था कि.
-तेरा कुछ ले गई क्या? गिरजा उसकी बात काटते हुए बोला था.
-अभी तक तो नहीं ले गई.लेकिन एक दिन तो ले जाएगी.
-तो उस दिन का इंतजार कर.
-नहीं गिरजा मैं.
-ऐऽ शेरनी की बच्ची! दहाडने की जरूरत नहीं है.
गिरजा ने तपाक से एक झापड सुमित्रा के गाल पर रसीद कर दिया था- अगर ज्यादा बक-बक की न यहां से चलती करूंगा तेरे को.समझी? चुप रही तो सारी जिन्दगी टिकाये रखूंगा.
सुमित्रा जार-जार रो दी थी.उजड ग़ई वह तो.मन तो हुआ था उसका कि छाती पीट ले.लेकिन बात अम्मा तक पहुंच गई तो यों ही प्राण दे देगी.बहुत दुख देखे हैं उसने जिन्दगी में.अब और नहीं सह पाएगी.खून के घूंट पी कर रह गई थी सुमित्रा.
आज इन दोनो को देख कर सुमित्रा को आश्चर्य तो नहीं हुआ था लेकिन भीतर से जी तो उतना ही जलता है.अपने गुस्से को तो उसने पूरी तरह से काबू कर लिया था.
सुमित्रा तीन प्याली चाय बना लायी.
-ये तीसरी प्याली किसके लिये? गिरजा आश्चर्य से भर कर बोला.
-मैं पिऊंगी! सुमित्रा सामने वाली छोटी तिपाई पर बैठती हुई बोली.गिरजा की आंखों में आश्चर्य और सन्देह के मिश्रित भाव तैर आए थे.
सुमित्रा ने बडे आराम से उन दोनो के सामने चाय पी.चाय खतम होते ही सुमित्रा ने नजर भर कर उस औरत की ओर देखा और तेजी से बाहर को आ गई.बाहर आते हुए उसने भीतरवाला दरवाजा बिना सांकल लगाए बंद कर दिया.
पहले तो ऐसी स्थिति में सुमित्रा एक ही जगह बैठी घंटों गुजार देती थी.लेकिन आज तो वह अपने काम में व्यस्त हो गई.रसोई में जाकर साबत मूंग की दाल चढा दी जो गिरजा को बहुत पसन्द है.सुबह करेलों को छील कर उन पर नमक लगा कर रखा था उन्हें सरसों के तेल में छोंक दिया.गिरजा बाहर आए तो वह गरम-गरम फुलका उतार देगी.
सारा काम खतम होने के बाद भी सुमित्रा को डयोढी में बैठ इन्तजार करना पडा.कोई आध घंटे बाद दरवाजे क़ी सिटकनी खुली.दुपट्टा संभालती हुई वह औरत बाहर को निकली थी.
सुमित्रा ने नजर भर कर उस औरत की ओर देखा तो वह औरत एकाएक चीख पडी- एऽ! यूं घूर-घूर कर क्या देख रही है मुझे?
सुमित्रा चुप बनी रही तो वह पुनः चिल्लाई- तू कैसी औरत है री! तेरा मरद घर पर औरत लाता है और तू चुप बनी बैठी है.तेरी जगह मैं होती न नोच देती इसे.
सुमित्रा अब भी चुप बनी रही तो वह उसी रौ में बोली- मैं तो आऊंगी.पेट नहीं भरना मुझे क्या.तुझे रोकना है तो अपने मरद को रोक.कल को मैं नहीं आऊंगी तो कोई दूसरी ले आएगा.
वह औरत हांफने लगी थी.सुमित्रा को अब भी चुप देख उसने पिच्च से नाली में थूका और तेजी से बाहर को निकल गई.

विकेश निझावन
मार्च 1, 2007

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