Saturday, December 5, 2009

कस्तूरी

कस्तूरी
गोरा रंग, भूरी आँखे, गोल चेहरा और तीखे नैन नक्श वाली उस लडक़ी में गजब का आकर्षण था।
एक हाथ में तौलिया और दूसरे हाथ में टूथब्रश व पेस्ट थामे वह लडक़ी रोहित वाली बर्थ के पास से निकल कर बाथरूम की ओर चली गई। खिडक़ियों से आती हवा तरंगों पर उसका आसमानी सलवार सूट और गरदन तक कटे बाल लहराते हुये गुजर गये थे। उस खूबसूरती ने पूरी तरह से रोहित की नींद उडा दी थी।
सामान्यत: वह सुबह आठ बजे से पहले कभी नहीं उठता। ट्रेन के सफर में तो दस ग्यारह भी बज जायें तो क्या फिक्र! इसी कारण अम्बाला से टाटानगर तक के लिये सफर में उसने ऊपर वाली बर्थ का आरक्षण करवाया था ताकि दिन के समय भी बर्थ पर लेटने की सुविधा रहे।डेली पैसेन्जरों के कारण दिन में नीचे वाली बर्थ पर लेटना असंभव है। रेल विभाग ने कहने को 'स्लीपर क्लास बना दिया है मगर डेली पैसेन्जर तो पूर्व की भांति ही चढ ज़ाते हैं। उन्हें बैठने न दो तो झगडा करने पर उतारु हो जाते हैं। मानो रेल उनकी जागीर हो। वैसे लोगों का बिना उचित टिकट के स्लीपर क्लास में सफर और बैठने के लिये मारा मारी करना सीना जोरी नहीं तो और क्या है?
रोहित ने अंगडाई ली और खिडक़ी की ओर झुक कर बाहर देखा। खट खट्खट् खट् ट्रेन पूरी रफ्तार से दौडी ज़ा रही थी। उसने घडी देखी, आठ बज चुके हैं। तब तो दिल्ली पार हो गई। उसने सोचा था,दिल्ली जंक्शन पर उतर कर जरा चहल कदमी करेगा, ठंडा वंडा पियेगा। क्या बात है इस शहर की,पांच साल तक रहने की बातें करने वाला कोई तेरह दिन रहता है कोई दस महीने! मगर जाते वक्त कोई नहीं पूछता कि कब लौटियेगा हुजूर? पुरानी दिल्ली से हट कर लोगों ने नई दिल्ली तो बना ली मगर जिन्दगी का नया ढंग नहीं सीख पाये
दस दिन पहले अम्बाला से मौसी का फोन आने के बाद से ही मां ने जिद पकड ली थी कि ,
'' जाओ मौसी ने बुलाया है।''
मौसी ने कहा था, '' लाडो, रोहित के लिये बडी अच्छी लडक़ी देखी है वे लोग भी बनारस के रहने वाले हैं। यहाँ अपनी बहन के पास आयी है। उसके जीजाजी यहां इनके ही साथ काम करते हैं।''
मां तो जैसे तैयार बैठी थी, '' दीदी, मैं क्या बताऊं। मेरा बस चले तो मैं तुरन्त हाँ कर दूँ। मगर आजकल के लडक़ों को तो तुम जानती ही हो। चार अक्षर क्या पढ लिये हमें ही पढाने लगते हैं। मैं रोहित को भेज देती हूँ। उससे हाँ करवा लो तो हमारी भी हाँ है।''
फिर रोहित मां को न टाल सका। प्रोग्राम बनाते और आरक्षण कराते पाँच दिन और बीत गये। सातवें दिन वह अम्बाला पहुंच गया, मगर सब व्यर्थ गया था। लडक़ी दो दिन पूर्व ही बनारस लौट गयी थी।उसकी मां वहाँ बीमार थी। रोहित भी पुन: आने को कह कर लौट पडा। इस बीच मौसी उस लडक़ी की सुन्दरता का विवरण रोहित के दिमाग में कूट कूट कर भर चुकी थी। कभी वह सोचता, चलो शादी के झंझट से कुछ और दिनों के लिये बच गया। फिर दूसरे ही पल उसके मन में एक सुन्दर पत्नी का खयाल आता। जब विचारों में सुन्दर पत्नी और साधारण मगर गुण वाली पत्नी के बीच विवाद छिडता तो वह दुविधाग्रस्त हो जाता, किसे चुने? बडे बुर्जुगों की माने तो साधारण परन्तु गुण वाली का चुनाव करता। हमउम्र साथियों की सुने तो सुन्दर लडक़ी काखैर इस बार तो बात टल गयी।अगली बार देखा जायेगा।
वह आसमानी सूट, बॉब कट बालों वाली सुन्दर गोरी लौटती नजर आई। अपने हाथ में थमे तौलिये से आहिस्ता आहिस्ता चेहरे को थपथपाते हुये। इस बार उसका चेहरा अच्छी तरह देखने को मिला।रोहित का दिल धक्क से रह गया। जाने क्यों लडक़ी का चेहरा जाना पहचाना लगा। उसने लडक़ी के चेहरे पर नजरें गडा दीं, मानो परिचय वहीं छुपा है। तभी लडक़ी ने अपनी नजरें उठा कर रोहित को देखा। शायद उसे स्वयं को घूरे जाने का अहसास हो गया था। रोहित झेंप गया। लडक़ी क्या सोचेगी कि, वह उसे क्यों घूर रहा है? एक तो लडक़ी उसे भली लगी दूसरे उसका चेहरा जाना पहचाना लग रहा था। रोहित नहीं चाहता था कि लडक़ी के समक्ष उसका इंप्रेशन खराब हो। रोहित ने अपनी नजरें जल्दी से खिडक़ी के बाहर घुमा लीं। लडक़ी अपनी बर्थ की ओर बढती हुई उसकी नजरों से ओझल हो गयी।
ह्नउसे कहाँ देखा है, रोहित ने दिमाग पर जोर डाला, जवाब नदारद! फिर क्यों उसका चेहरा इतना जाना पहचाना सा लग रहा है। क्या सिर्फ इसलिये कि वह बहुत सुन्दर है( ऐसी हालत में हर सुन्दर लडक़ी जानी पहचानी लगती है)। उसका अंर्तमन इस तर्क को नकारता है। नहीं, लडक़ी का चेहरा निश्चय ही जाना पहचाना सा है। काश! उसकी आवाज सुनने को मिल जाती। वक्त के प्रवाह में भले ही चेहरे बदल जाते हों मगर आवाज नहीं बदलती। ऐसी स्थिति में आवाज तुरन्त ही पहचान करवा देती है।
खैर... छोडो भी, रोहित ने विचारों को झटका। होगी कोई। कई बार ऐसा होता है कि, छोटी सी बात भी याद नहीं आती। जितना प्रयत्न करो, उतनी ही दूर चली जाती है। प्रयत्न करना छोड दें तो, वह बात सहज ही याद आ जाती है। इसी आधार पर रोहित ने प्रयत्न करना छोड दिया। तकिये के नीचे से पत्रिका निकाल कर पृष्ठ पलटने लगा। मगर ध्यान उस लडक़ी में ही अटका रहा। उसने पत्रिका पुन: तकिये के नीचे घुसा दी।
'' चाऽयचाय गरमइलायची वाली चाऽय'' आवाज लगाता पेन्ट्री कार का बेयरा दूसरी तरफ से डब्बे में घुसा। चाय पी जाये। उसने सोचा, वह अपनी बर्थ पर उठ बैठा। कुछ यात्रियों ने बेयरे को चाय के लिये रोक रखा था। बेयरे के यहां आने तक हाथ मुंह धो ले, वह उतर कर बाथरूम की तरफ बढ ग़यामगर वह लडक़ी है बहुत सुन्दर!
बाथरूम से निकलने तक ट्रेन सीटी बजाती धीमी होने लगी। पेन्ट्री की चाय छोडो अब स्टेशन की चाय पी जाये, उसने सोचा। ट्रेन अलीगढ ज़ंक्शन पर रुक गयी। चाय लेने के बाद वह प्लेटफार्म पर चहल कदमी करता उस डब्बे तक बढ ग़या जिधर वो लडक़ी बैठी थी। कुछ बर्थों के बाद एक खिडक़ी पर वह लडक़ी प्लेटफार्म पर खडे चाय वाले से चाय लेती दिखी। तो उसे भी प्लेटफार्म और पेन्ट्री कार की चाय का फर्क पता है, मुस्कुराता हुआ रोहित थोडा आगे बढ ग़या। फिर खडा होकर चाय की चुस्कियों के साथ तिरछी नजर से उस लडक़ी को देखने लगा, कैसे उस लडक़ी से बात की जाये।शायद बातचीत से ही पता चले कि उसका चेहरा इतना पहचाना सा क्यों लग रहा है? काश वह लडक़ी उसके साथ वाली बर्थ पर होती तो, कितनी आसानी से बातें की जा सकती थीं।
रोहित ने कई बार ट्रेन के सफर किये हैं। ट्रेन के लम्बे सफर में साथ वाली बर्थ पर सुन्दर और अकेली लडक़ी के सहयात्री बनने का उसका ख्वाब कभी भी पूरा नहीं हुआ अब तक। वह लडक़ी भी तो इतनी दूर बैठी है। अब उसकी बर्थ पर जाकर तो बात नहीं की जा सकती ना! अगर उसने जवाब नहीं दिया या फिर जवाब में कोई ऐसी वैसी बात कह दी तो, बेकार ही में अपनी भद पिट जायेगी।नहींउससे बातें करना आसान नहीं। तो फिर कैसे पता चलेगा कि वह इतना परिचित क्यों लग रही है?
प्लेटफार्म के छोर पर सिग्नल हरा हो गया। इंजन की सीटी बजने और ट्रेन के सरकने तक रोहित चाय का खाली कसोरा फेंक कर डब्बे में समा गया।
जितना लडक़ी की तरफ से ध्यान हटाता, वह चेहरा उतना ही आँखों के सामने आ जाता। लडक़ी के परिचित होने का अहसास घन की तरह दिमाग पर प्रहार करने लगतापता तो चलना चाहिये, वह लडक़ी है कौन? थोदी देर बर्थ पर करवटें बदलने के बाद उसकी बेचैनी बेतरह बढ ग़यी। वह, लडक़ी को फिर नजर भर देखना चाहता था। इसके लिये तो लडक़ी की तरफ जाना होगा। रोहित बर्थ से उतरा, पैरों में चप्पलें फंसा कर डब्बे की उस ओर बढने लगा, जिधर लडक़ी थी। डिब्बे में अच्छी खासी भीड थी। कुछ लोग ताश की पत्ते बीच में बिखेरे खेल का आनन्द ले रहे थे। उसे लगा आगे बढना कठिन है, लौटना पडेग़ा। मगर लडक़ी को एक झलक देखने की तीव्र इच्छा ने उसे आगे की ओर ठेला। ताश के खिलाडियों ने उसे घूर कर देखा और बडी अनिच्छा से दांये बांये सरक कर आगे जाने के लिये उस पर अहसान किया। रोहित ने चैन की सांस ली। आगे बढ क़र उसने कनखियों से लडक़ी पर नजर डाली। मगर हाय रे दुर्भाग्य! लडक़ी लेट कर पत्रिका पढ रही थी। पूरा चेहरा पत्रिका की आड में छिपा था। रोहित के लिये वहाँ खडे रहना कठिन था, उसकी देह पर ही वह एक मुलायम सी नजर फेर कर वह आगे बढ ग़या। लडक़ियों को कितना आराम है, दिन में भी नीचे वाली बर्थ पर लेटी हुई है।
थोडी देर यूं ही डब्बे के दूसरे छोर वाले दरवाजे पर खडा रहने के बाद वह वापस लौटा। उसने सोचा,इस बार तो निश्चय ही लडक़ी की एक झलक पा लेगा। परन्तु इस बार लडक़ी बर्थ के नीचे रखी टोकरी पर झुकी हुई थी। गर्दन तक कटे बालों ने उसके चेहरे को चारों तरफ से ढंक रखा था
निराश रोहित अपनी बर्थ की ओर बढ ग़या। ताश के खिलाडी फ़िर से उसके सामने थे। शायद उनकी बाजी किसी दिलचस्प मोड पर थी। तभी तो उसे देख कर इस बार उनके चेहरे पर अप्रिय भाव कुछ ज्यादा ही उभर आये। उनके बीच से रास्ता निकाल कर बढते हुये रोहित ने सुना, किसी ने कटाक्ष किया था।
'' टिकट चेकर का काम कर रहे हैं क्या भाई साब?''
जी में आया कि पलट कर करारा जवाब दे दे। परन्तु बात बढ ज़ाने की आशंका से वह बिना कुछ कहे अपनी बर्थ पर आ गया।


कस्तूरी-2
सारा दोष उस लडक़ी का है। उसकी बर्थ रोहित के पास भी तो हो सकती थी। या फिर अलीगढ ज़ंक्शन पर प्लेटफार्म पर उतर कर चाय भी तो पी सकती थी। यह भी तो अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि, वह कहाँ ट्रेन में चढी है, पठानकोट, अमृतसर, व्यास या कहीं और से। अम्बाला से तो नहीं चढी वरना, वहाँ स्टेशन पर ही दिख जाती।
चेहरे से तो पंजाबी लगती है। कभी कभी उसके चेहरे पर बंगाली या मारवाडीपन भी दिखता है सलवार सूट तो मुस्लिम पहनावा भी होता है। रोहित निरन्तर लडक़ी के बारे में ही सोचे जा रहा था,कोई बात नहीं, मैं भी पीछा नहीं छोडने वाला। कानपुर जंक्शन पर ट्रेन ज्यादा देर रुकती है, वहीं उसकी आवाज सुनने का प्रयत्न करुंगा।
मैले से कपडे पहने एक छोटा लडक़ा हाथ में थमे सिक्कों को खास अन्दाज में बजाता है। लडक़े के दूसरे हाथ में पत्तों का बना झाडू है। कुछ देर से रोहित उस लडक़े को डब्बे की सफाई करता देख रहा था। उसने एक सिक्का लडक़े को थमा दिया। लडक़े का मेहनत करना उसे अच्छा लगता है, वह भीख तो नहीं मांगता। लडक़ा सिक्कों को उसी अन्दाज में बजाता अन्य यात्रियों की ओर मुड ग़या।
रोहित ने बर्थ पर लेट कर फिर से कहानियों की पत्रिका निकाल ली। परन्तु दो चार पृष्ठ पलट कर फिर से तकिये के नीचे सरका दी। आंखे मूंदते ही वह लडक़ी फिर से उसके दिमाग में उभर आयी।वही गोरा रंग, गोल चेहरा, भूरी आँखे, आकर्षक नैन नक्श , होंठों से झांकती श्वेत मोतियों सी दंत पंक्ति पतली गरदन को तीन तरफ से घेरे भीतर की तरफ मुडे क़ंधे तक कटे रेशमी बाल और बदन पर खिलता आसमानी सूट...
कानपुर जंक्शन पर चावल वाले की रेहडी यात्रियों से घिर चुकी थी। उसने जगह बना कर चावल की प्लेट ली और थोडी दूर खडे होकर लडक़ी वाली खिडक़ी पर नजर डाली। इस क्रम में उसने स्वयं को खाने में व्यस्त दिखने की पूरी सावधानी बरती ताकि, लडक़ी देखे तो समझे कि उसने अनायास ही देखा है। लडक़ी परांठे खाने में तल्लीन थी। अच्छा तो साहिबा को चावल से ज्यादा परांठे पसन्द हैं।लडक़ी का खाना खत्म हो चुका था। उसने पास से गुजरती किताबों वाली रेहडी क़ो रुकवाया। दो चार पत्रिकाएं छांट कर ले लीं। रोहित ने देखा लडक़ी ने साहित्यिक पत्रिकाएं ही लीं थीं। यानि लडक़ी की भी अभिरुचि साहित्य में है, वह मुस्कुराया। लेकिन इतनी पत्रिकायें? कहीं वह लडक़ी लेखिका तो नहीं? बिजली की तरह यह विचार उसके दिमाग में कौंधा। दूसरे पल प्रतिविचार भी आया, इतनी सुन्दर लडक़ी लेखिका नहीं हो सकती....मगर वह ज्यादा देर इस विषय पर तर्क ना कर सका। ट्रेन पटरियों पर फिसलने लगी। दरवाजे का हत्था पकड वह भी डब्बे के अन्दर झूल गया।
नई दिल्ली से चुनार स्टेशन तक इस ट्रेन में बिजली वाला इंजन लगता है।इसलिये रफ्तार पकडने में ज्यादा देर नहीं लगती। ट्रेन स्टेशन से निकल कर बडी तेजी से आबादी को पीछे छोड बढी ज़ा रही थी। स्टेशन पर जो चहल पहल डब्बे में पैदा हुई थी, वह अब गुम हो चुकी थी। एक बार फिर से वही बर्थें, वही पंखे, वही यात्री, वातावरण में पुराना बोझिलपन खींच लाये, जो अगले स्टेशन तक यूं ही बना रहना था।
अब तक के सफर में एक बात तो पक्की हो चुकी थी कि, वह लडक़ी अकेले ही सफर कर रही है।उसने अब तक का ज्यादा वक्त पत्रिकाओं में या अपनी बर्थ पर आँखे मुंदे बिताया था। आस पास की महिलाओं से भी शायद ही खुल कर कोई बात की हो। वरना एकाध हंसी या आवाज तो अब तक रोहित के कानों पर जरूर दस्तक दे चुकी होती। उसे कोई उपाय नजर नहीं आ रहा था कि वह कैसे उस लडक़ी से बातचीत करे? एक क्षण को उसने यह भी सोचा कि लडक़ी से बात करना मटिया दे,मगर वह ऐसा नहीं कर सका। घूम फिर कर एक ही बात उसके दिमाग में आती कि, लडक़ी का चेहरा इतना जाना पहचाना सा क्यों है?
डब्बे में लडक़ों के गाने की आवाजें फ़ैलने लगीं ''चलत मुसाफिर मोह लिया रे..पिंजरे वाली मुनिया''गाना रुक गया था। रोहित ने गरदन घुमा कर देखा दो लडक़े अपने अपने हाथ में तीन उंगलियों में एस्बेस्टस के दो टुकडों को फंसाये, दूसरे हाथ से उन पर सधे ढंग से प्रहार कर रहे थे। टुकडों से टक्टकाटक् टक् की लयबध्द ध्वनि निकल रही थी। ताश के खिलाडियों ने गाने वालों को रोक रखा था।
'' अरे! पुराना गाना बंद करो।''
'' दीदी तेरा देवर वाला सुनाओ।''
डोनों लडक़ों ने रुक कर सांस खींची और एस्बेस्टस के टुकडों को बजाते हुये चीख चीख कर गाने लगे,
'' दीदी तेरा देवर दीवानाहाऽय राऽम ऽऽ चिडियों को डाले दानाऽऽ''
इसी गाने की नायिका पर तो अपने मकबूल भाई फिदा हो गये। रोहित सीधा होकर लेट गया। जाने कब उसकी आँख लगी। वह जागा तो ट्रेन के बाहर शाम गहरा चुकी थी। थोडी देर में ट्रेन चुनार जंक्शन पर पहुंच गयी। वहां ट्रेन में बिजली वाले इंजन की जगह डीजल इंजन लगता है। ट्रेन लगभग पौन घंटा रुकती है। ज़ो पहली बात उसके दिमाग में आयी, लडक़ी कहाँ है? कहीं रोहित की नींद का फायदा उठा कर वह उतर तो नहीं गयी। वह प्लेटफार्म की ओर लपका। वहाँ से उसने देखा, लडक़ी बर्थ पर अपना बिस्तर ठीक कर रही है, रोहित ने चैन की सांस ली।
'' बडी ज़ल्दी सोने की तैयारी कर रही है।'' बुदबुदाता हुआ वह स्टेशन के नल की ओर बढ ग़या। हाथ मुंह धोकर लौटा तो सहसा उसे अपनी आँखों पर उसे विश्वास ही नहीं हुआ। लडक़ी प्लेटफार्म पर खडी चाय वाले से चाय ले रही थी। आस पास भीड भी नहीं थी। रोहित का दिल जोर जोर से धडक़ने लगा। जो खूबसूरत लडक़ी उसे अब तक परेशान करती रही है, वह उससे चन्द कदमों के फासले पर खडी है। अब वह लडक़ी को जरूर टोकेगा। उससे बातें करेगा और उसका परिचय जान कर रहेगा -सोचता हुआ वह चाय वाले की ओर बढ ग़या।
लडक़ी ने चाय का कसोरा लेते हुये रोहित की ओर नजर उठाई। रोहित को अपना रक्त जमता सा महसूस हुआ, उसके दिल की धडक़न बहुत तीव्र हो गयी। उसने तेजी से अपना चेहरा घुमा लिया।
'' एक चाय देना, भई।'' लडक़ी चाय वाले को पैसे देकर मुडी। चाय वाला झुक कर रोहित की चाय कसोरे में डालने लगा। रोहित ने सोचा इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा।
'' आप कहाँ तक जायेंगी मिस''
ठीक उसी समय एक कुली सर पर दो तीन सूटकेस उठाये इनके पास से गुजरा।
'' बहन जी जरा हट के।'' रोहित की धीमी आवाज क़ुली की हांक में पूरी तरह डूब गयी। लडक़ी तेजी से किनारे हट कर डिब्बे की ओर बढ ग़यी। उसने रोहित की आवाज बिलकुल नहीं सुनी थी। मगर चाय देने के लिये उठते चाय वाले ने रोहित की आवाज सुनी थी। चाय थमाते उसने रोहित को अजीब - सी नजरों से देखा। रोहित के चेहरे पर रोम छिद्रों ने एक साथ ढेर सारा पसीना फेंक दिया। उसने हडबडाहट में चाय वाले को पैसे दिये और वहां से हट गया। चाय वाला भी चाय गरमचाय की आवाज लगाता आगे बढ ग़या।
चाय वाला उसे कैसे देख रहा था, रोहित ने चाय का घूंट भरा मगर उसे चाय कसैली लगी। गुस्से में आकर रोहित ने चाय का कसोरा रेल की पतरी पर दे मारा। काफी देर तक वह यूं ही प्लेटफार्म पर भटकता रहा। जब उसकी उत्तेजना कुछ शांत होने लगी तो, उसने स्वयं को समझाया, '' लडक़ी ने तो उसकी बात सुनी नहीं। ना ही कोई अप्रिय उत्तर उसे दिया। फिर वह क्यों इतना नर्वस हो रहा है?''उसने विचारों को हल्का सा झटका दिया। एक मुस्कान उसके होठों से उठ कर गालों पर फैल गयी और आंखों से झांकने लगी। वह डब्बे के पास लौट आया। लडक़ी अपनी बर्थ पर लेटी पत्रिका पढ रही थी। उसने अनुमान लगाया, थोडी देर में वह सो जायेगी।
डीजल इंजन ने सीटी बजाई। प्लेटफार्म के छोर पर लाल सिग्नल अपना रंग बदल कर हरा हो चुका था। वह डब्बे में चढ आया। लडक़ी सो रही है, इस विचार के साथ ही उसे लगा कि आज का सारा दिन व्यर्थ गया। धिक्कार है उस पर। एक लडक़ी से वह दो बातें नहीं कर सका। इस भय से कि उसकी छवि न बिगड ज़ाये। छवि बना कर ही उसे क्या मिल जायेगा- उसने सोचा...खैर अब तो जो हो गया सो हो गया। कल सुबह उससे बात जरूर करेगा। स्वयं से इसी तरह की बातें करता रोहित अपनी बर्थ पर लेट गया। वह खूबसूरत चेहरा एक मुस्कान के साथ उसके दिमाग पर छाता चला गया।
सुबह जब उसकी आंखें खुली तो ट्रेन मुरी जंक्शन पर खडी थी। वह फुरती से अपनी बर्थ छोड क़र नीचे उतरा। उतनी ही तेजी से हाथ मुंह पर पानी के छींटे मार वह प्लेटफार्म पर आ गया। इस स्टेशन पर ट्रेन दो टुकडों में बंट जाती है। आधे डब्बे टाटा नगर जाते हैं और शेष आधे हटिया। उसने देखा हटिया जाने वाले डब्बे दूसरी पटरी पर खडे क़िये जा चुके थे। यानि ट्रेन को मुरी जंक्शन पर आये काफी देर हो चुकी है। चाय का कसोरा थामे वह लडक़ी वाली खिडक़ी की ओर मुडा। वह चौंका,वहां एक सज्जन बैठे थे। नजदीक आकर उसने अन्दर झांका। द्याहाँ न तो वह लडक़ी थी न ही उसका सामान। रोहित के चेहरे का रंग उड ग़या।
'' कुछ ढूंढ रहे हैं क्या भाई साहब? '' उस सज्जन ने पूछा।
'' जीजी हाँ।'' उसने स्वयं पर नियंत्रण किया, '' यहाँ जो यात्री बैठे थे।''
उसने जानबूझ कर लडक़ी की बात छिपाइ।
'' यह बर्थ तो खाली थी। मैं रामगढ से बैठा हूँ। कोई खास बात थी क्या?'' उस सज्जन ने पूछा।
'' नहीं...कुछ खास नहीं...मेरी पत्रिका उन्होंने पढने को ली थी। लौटाना भूल गये।''
रोहित ने झूठ बोला और वहां से हट गया। उसे लगा लडक़ी उसके साथ छल कर गई। कितना जाना पहचाना सा लग रहा था उसका चेहरा। काश, वह अपना परिचय दे जाती! अब तो वह लडक़ी कभी नहीं मिलेगी...कहाँ उतरी होगी वह? रात भर तो कई स्टेशन आये होंगे...रेणुकोट, डाल्टनगंज, टोरी,पतरातु..कहाँ उतरी होगी वह भली सी सुन्दर लडक़ी? यह जानते हुये भी कि, वहाँ नहीं मिलेगी,रोहित हटिया जाने वाले डब्बों को भी छान आया।
सिग्नल डाऊन हो चुके थे। वह भारी मन से आकर अपने डब्बे में बैठ गया। ट्रेन चलते ही झटके के साथ ऊपर से उसका तकिया और पत्रिका नीचे आ गिरे। उसने तकिया उठाया और झाड क़र ऊपर अपनी बर्थ पर रख दिया। सामने बैठे बच्चे ने पत्रिका उठा कर उसकी तरफ बढा दी, '' अंकल,आपकी मैग्जीन।''
उसने एक नजर मुस्कुराते बच्चे पर डाली और हौले से थैंक्यू कह कर पत्रिका ले ली। खुली हुई पत्रिका को ज्यों ही उसने सीधा किया, उसकी नजर लडक़ी के चित्र पर अटक गयी, शर्तिया वह उसी लडक़ी का चित्र था। उसने शीघ्रता से पत्रिका खोल कर फैला ली। बात सच निकली। तो इसलिये लडक़ी का चेहरा जाना पहचाना लग रहा था। पत्रिका में लडक़ी के चित्र के साथ उसकी कहानी छपी थी, '' कस्तूरी''।
– कमल
मार्च 30, 2002

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