Saturday, December 5, 2009

एडवांस

एडवांस
बाबूजी साठ रुपए. नहीं! ज़्यादा हैं. तीस ठीक हैं. नहीं बाबूजी सात नम्बर प्लेट्फार्म बहुत दूर है आप खुद देखिएगा, चलिए पचास दीजिएगा. चलो चालीस बहुत है. न बाबूजी पचास से कम नही. अच्छा पैतलीस देंगे पर टी. टी. से बात करा देना, एक ही स्टेशन जाना है. चिंता मत कीजिए, बाबु से बात कराकर गाडी मे बैठा दूंगा,ज़रा लगाइए हाथ्.......बैठो! यहीं पर गाडी मे अभी टैम है. चिन्ता मत करना मैं समय पर आ जाऊंगा. बैठे बैठे मैं सोचने लगा बडी मुश्किल है, आजकल काले कोट वाले बाबू समय पर दिखते नहीं, फिर ऐसे ही बैठ जाओ तो सादा वर्दी वाले आकर जुर्माने की रसीद काट देते हैं, मामला ठीक जम जये तो सफर कटे. जनरल मे तो इतने सामान के साथ तो क्या अकेले ही घुसना दूभर है.
कुछ एनाउंसमेंट हो रहा था. पास ही मे कोई प्लेट्फार्म का रहवासी अपने बर्तन को पत्थर पर रगड्कर उसकी कालिख दूर करने का प्रयास कर रहा था. खर्र.. खर्र..खड की आवाज़ एनाउंसमेंट और प्लेट्फार्म के कोलाहल से ऊपर उठकर बर्बस ध्यान खींच रही थी. उसकी एकाग्रता व लगन उसके काम को इतना मह्त्वपूर्ण बना रहे थे के उस बेसुध को रोकने टोकने का कोई साहस नहीं कर रहा था. कुछ देर बाद, खोमचे वाले, कुली और यत्रियों की हलचल से लगा कि ट्रेन आ रही है. ट्रेन दिखने भी लगी. कुली का अता पता नहीं था. गाडी आ चुकी थी जनरल डब्बे की भीड देखकर रूह फाख्ता हो रही थी. अ‍ंततः कुली को कोसते हुए सारा सामान खुद लादकर चल दिया. अ‍ंततः कुली को कोसते हुए सारा सामान खुद लादकर चल दिया.
एक बडे-बाबू कुछ लोगों से घिरे खडे हुए थे. मैने पूछा - सर जी एक स्टेशन जाना है अगर आपकी इज़ातत हो ? न भाई कोई रूम नहीं है, उन्होने कहा. कुछ भीड हटने पर वे बोले सौ का नोट लगेगा एड्वांस में , बडा रिस्क है आजकल. सौ तो ज़्यादा है. तो ठीक है जाइए जब रसीद बनेगी तब समझेंगे. अच्छा ठीक है. तो निकालिये सौ रुपये और उन्नीस नम्बर मे बैठ जाइए.
यात्रा सुकून से कट रही थी, पर कुली के पैसों के बोझ से मन भारी था. ये कुली एड्वांस क्यों नहीं लेते.
डॉ. धीरेन्द्र कुमार स्वामी
फरवरी 6,2008

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