7 August, 2009
कवि का साथ - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)
आपने भी बड़े-बूढ़ों को अक्सर यह कहते शायद सुना होगा कि हमारे पुरखे कुछ यूं ही मूरख नहीं थे जो बिना सोचे-विचारे कोई बात कह गए हो या किसी तरह का चलन चला गए हों। हम तो खैर अभी बड़े-बूढ़े नहीं हुए, मगर अनुभवों की आंचों से तपते-तपते किसी हद तक इस सत्य का समर्थन अवश्य करने लगे हैं। हमारे पुरखे सदा अनुभव का मार्ग अपनाते थे। संगी-साथियों का भला-बुरा, तीखा-कड़वा अनुभव उठा लेने के बाद ही उन्होंने यह सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक तत्व पाया कि- ‘ना कोई तेरा संग-संगाथी, हंस अकेला जाई बाबा।’
बड़े गहरे तजुर्बे की बात है। और मैं तो सेर पर पंसेरी की चोट लगाकर यहां तक कहना चाहूंगा कि ‘बैर और फूट’ का महामंत्र भी इसी महानुभाव की देन है। न रहे बांस और न बजे बांसुरी। लोगों में यदि आपस में बैर-फूट फैल जाए तो फिर ‘साथी-संगी’ शब्द ही डिक्शनरी से निकल जाएंगे- जब साथी न रहेंगे तो साथ निभाने की जरूरत भी न रहेगी, चलिए जैजैराम-सीताराम, कोई टंटा ही न रहेगा। इससे व्यक्ति की स्वतंत्रता के आलस्य सभ्य स्वर्मिण युग की कल्पना शायद कभी साकार हो जाए। ‘बैर और फूट’ के मंत्रसिद्ध देश में जन्म लेकर, इतने बड़े उपदेश के बावजूद हम-आप सभी संगी-साथियों के फेरे में पड़े रहते हैं। इसे कलिकाल का प्रभाव न कहें तो और क्या कहें।
हद हो गई कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता के भयंकर समर्थक प्रति वर्षोत्तरी पीढ़ियों के नौनिहाल नौजवान भी दिन-रात किसी न किसी का साथ निभाने के पीछे अपने-आपको तबाह किए रहते हैं। लड़कियों को सखा और सखाओं को सखियां भी चाहिए। मां-बाप प्रबंध करें या वे स्वयं-स्त्री-पुरुष दोनों को ही जीवन-साथी की चाहना भी अब तक हर वर्ष होती है।
अगर यही तक बात थम जाती तो भी गनीमत थी, मगर एक जीवनसाथी के अलावा हर एक को काम के साथियों की आवश्यकता भी पड़ती है और मनबहलाव के साथियों की भी। काम और मनबहलाव दोनों ही अच्छे-बुरे होते हैं और साथ भी दोनों ही प्रकार के होते हैं। यहां तक तो दुभांत चलती है, मगर इसके बाद जहां तक साथ निभाने का प्रश्न है, वह चाहे अच्छा हो या बुरा, हर हालत में बड़ा कठिन होता है।
एक दिन मेरे परिचित सज्जन मुझसे अपना दुखड़ा रोने लगे। बेचारे बड़े भले आदमी हैं। पढ़े-लिखे औसत समझदार, भावुक और काव्य-कलाप्रेमी युवक हैं। इनके दुर्भाग्य ने इनके साथ यह व्यंग्य किया कि इनके बचपन के एक सहपाठी मित्र को अंतराष्ट्रीय ख्याति का कवि बना दिया।
एक समय में स्कूल ख्यात कवि थे; वह कुछ भी नहीं था।.......इसी संदर्भ में इन सज्जन को कवियों के संग-साथ का चस्ता लगा। उस दिन उन्हें उदास देखकर जब मैंने बहुत कुरेदा तो बोले : ‘‘आपसे क्या कहें, साथ निबाहनें के फेर में हम तबाह हो गए। और हमारा तो ठहरा कवियों का साथ, गोया करेले पर नीम चढ़ गया है। कच्चे धागों में मन को बांधकर जीने वाले इन कवियों-कलाकारों का साथ दुनिया-दिखावे के लिए तो अवश्य बड़े गौरव की बात है। बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय ख्याति के कवियों के साथ घूमते हुए देखकर लोगबाग हमें भी पांच सवारें में मानते हैं। मगर इसके बाद का हाल ?- अजी कहां तक कहें, मजहबी यह है कि हमारे पास शेषनाग की तरह हजा़र बातें नहीं हैं।’’
हमारे एक कवि साथी एक बार एक बड़ा दरबारी किस्म के कवि सम्मेलन में जाते समय हमारी नई घड़ी मांग ले गए। हम कोई घन्ना सेठ नहीं, हां, उम्दा चीज़ें रखने का शौक है। इसलिए धीरे-धीरे बचत के रुपये जोड़कर कभी अपनी मनचीती वस्तु खरीद लिया करते हैं। साढ़े तीन सौ का नया माल अपने कवि साथी को टेम्परेरी तौर पर भी सैंप देने में हमें संकोच हुआ। भले ही हमें उनकी नीयत पर शक न हुआ हो, मगर यह भय तो था ही कि मूडी और लापरवाह स्वभाव के कवि जी मेरी घड़ी कहीं इधर-उधर रखकर भूल आएंगे और हें-हें करके बैठ जाएंगे, इधर हम बेमौत मारे जाएंगे। घड़ी की घड़ी जाएगी, ऊपर से जीवन-संगिनी महोदया की हज़ार अलाय-बलाय सहनी पड़ेगी। हमारा संकोच देखकर कवि जी के मन का एक कच्चा धागा टूट गया, तपकर बोले : ‘‘तुम ! तुम बुर्जुआ हो, अपने एक कवि मित्र का गौरव नहीं सहन कर सकते। तुम चूंकि कविता नहीं कर सकते मगर घड़ी खरीद सकते हो, इसलिए मेरे मान-सम्मान को अपने पैसे की शक्ति से दबाना चाहते हो......।’’
फिर तो, मित्रवर कवि ठहरे, एक ज़बान से सौ-सौ वार कर चले। हार कर मैंने घड़ी दे दी। फिर......जिसका डर था वही हुआ। कवि जी ने आकर कह दिया कि घड़ी खो गई। सुनकर जब मेरा चेहरा उतर गया तो वो गरज कर बोले : ‘‘मैं ब्लड़ बैंक में अपना खून बेच-बेचकर चाहें क्यों न जमा करूं, मगर साढ़े चार सौ रुपये कहीं से भी लाकर तुम्हारे मुंह पर फेंक जाऊंगा। तुम महानीच हो, मेरे जैसे महान कवि के मित्र कहलाने के योग्य नहीं। आते ही तुमसे यह तो न पूछा गया कि कहो मित्र तुम्हें वहां कैसा यश मिला ? बल्कि अपनी ही घड़ी का रोना रोने बैठ गए।’’ जोश में आकर कवि जी कह चले : ‘‘तुमने-तुमने अपनी घड़ी खो जाने की चोट को एक बार भी मेरे अंतरत में, मेरे मर्मस्थल में टटोलकर नहीं देखा और मुंह लटकाकर बैठ गए। तुम्हें क्या मालूम कि उसके खो जाने की पीड़ा से तड़पकर मैंने एक कविता सिखा डाली है। अगर मालूम होता तो तुम्हें अपनी घड़ी के खो देने पर अभिमान होता। लो सुनो, मैं तुम्हें अपनी कविता सुनाता हूँ :
मेरे मित्र की घड़ी,
जाने कहां गिर पड़ी।
निर्धन मित्र के जाने कितने अरमानों
से अड़ी
बड़ी मुश्किलों से खरीदी हुई घड़ी-
जाने आज किस भाग्यवान के हाथों पड़ी-
किसकी कलाई पर जड़ी ?
मेरे मित्र की घड़ी।’’
यों घड़ी खोकर, साहित्य में उसके अमर हो जाने के गौरव से ही संतोष कर मुझे बैठ जाना पड़ता तो भी चुप रहता मगर छह-सात महीने बाद मैंने अपनी वही घड़ी एक दिन दावत में कवि जी की कलाई पर बधी देखी। उस पर मेरी दृष्टि पड़ने का आभास पाते ही वो झट मुस्कराकर बोले : ‘‘देखो, मैंने भी तुम्हारी ऐसी घड़ी खरीद डाली।’’ कलेजे पर पत्थर रख, साथ निभाने की निष्ठा से भर उठने का नाटक करते हुए मुस्कराकर कहा : ‘‘बधाई।’’
हमारे साथियों से अगर एक ही कवि होता तो भी बचत थी, मगर यहां तो जनमपत्री में ऐसे ही ग्रह पड़े थे। मेरे बचपन के साथी एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के कवि इस नगर में पधारने पर इस गरीब की कुटिया को ही अपनी चरणधूलि से पवित्र करते हैं। वे बड़े भाव से ऐलान किया करते हैं कि ‘‘मैं किसी बड़े होटल या बड़े आदमी के बंगले में ठहरने से कहीं अधिक अपने इस गरीब सहपाठी के यहां ठहरना पसन्द करता हूं। -भले ही इसके यहां ठहरने में मुझे बहुत-से कष्ट होते हों।’’ कवि महोदय यह कहकर अपने प्रशंसकों से भरे दरबार में बड़े प्रेम से हमारी ओर देखते हैं। सिवा इसके कि अपने इस महान् गौरव और सौभाग्य के कुएं में धम्म से कूद पड़ें और कर ही क्या सकते हैं। महाकवि जी और उनके प्रशंसकों की खातिर करते हमारा बैंक-एकाउण्ट खुश्क हो जाता है- मुर्गा अपनी जान से जाता है और खाने वाले को स्वाद नहीं आता। जो भी हो, साथ तो निभाना ही पड़ता है। अन्तर्राष्ट्रीय कवियों के अलावा कई आल इंडिया स्टार-कवि भी मित्र हैं, इनके गलों पर लाखों सुननेवाले और सुननेवालियां निसार हैं। कवि सम्मेलनों में इनकी ऐसी घूम मचती है कि क्या बखान करें।
इसके घमंड की थाह हम आज तक न पा सके, ये लोग आपस में ही एक-दूसरे को भुनगा समझते हैं। मज़ा तब आता है जब कवि सम्मेलन समाप्त होने पर इनके चहेते ऑटोग्राफ लेने के लिए इनके चारों ओर गिद्धों की तरह गोल बांधकर जुटते हैं। कनखियों से हर कवि मुड़कर देखता है और तौलता है कि प्रशंसकों से किसका पलड़ा भारी है। फिर बाहर निकलकर शेखियां बघारी जाती हैं : एक कहता है, मैंने पचास ऑटोग्राफ दिए, दूसरा यह सुनकर भला चुप कैसे रहे, बोल उठता है, मैंने लगभग अस्सी-नब्बे ऑटोग्राफ्स दिए और फिर उसके बाद घबराकर, जान छुड़ाकर भागा। अपने-अपने शिष्यों और निकटतम प्रशंसकों के सामने स्टार-कवि का बस इतनी शेखी बघार देना बहुत काफी हो जाता है।शिष्य फिर ले उड़ते हैं, इस हद तक ले उड़ते हैं कि चोंचें लड़ जाती हैं, आपस में जूतमपैज़ार हो जाता है। ऐसे में बीच वाले की बड़ी मरन होती है- किसको क्या समझाए ? हर स्टार-कवि अपने को कुतुबमीनार से कम ऊंचा नहीं समझता और मध्यस्थ से चाहता है कि वह उसे दूसरे से कम अज कम पौन इंच तो लम्बा मान ही ले। ऐसों का मध्यस्थ बनकर बतलाइए कि हम किसका साथ निभाएं और किसका न निभाएं?
शनि और लक्ष्मी की लड़ाई में मध्यस्थ होकर बीर बिकरमाजीत पर क्या कुछ न बीती ! हम पर भी बीत चुकी है। खैर, अपनी क्या कहूँ !
एक बार बारह की दो संस्थाओं ने आपस की होड़ाहोड़ी में एक ही दिन में दो कवि सम्मेलन आयोजित किए। दोनों ने एक-एक स्टार कवि को आमंत्रित किया। सितारे बस इसी को लेकर आपस में ले-दही और दे-दही पर उतर आए। खैर, किसी तरह तत्तोथम्पो की गई और यह तय हुआ कि दोनों संयोजक दल और दोनों स्टार मिलकर नगर के एक प्रतिष्ठिक अधिकारी के यहां कवि गोष्ठा में जाएंगे, वहां दोनों का कवितापाठ और सम्मान होगा, फोटों भी खिंचेगी। खैर साहब, अधिकारी के घर का मामला था, बगैर लड़े-भिड़े कवियों ने अपनी-अपनी कविताएं सुनाईं। हां, अपने-अपने प्रशंसक दल के छुटभैये कवियों को दोनों साथ ले गए थे जिससे एक की ‘वाह-वाह’ दूसरे से कम न हो। इसके बाद फोटो खिंची। फोटोग्राफ के बीच की कुर्सी पर बैठने वाला विशेष सम्मान का पात्र माना जाता है।
अधिकारी महोदय सतर्क थे। उन्होंने दोनों कवियों को बीच में, अगल-बगल बराबर की कुर्सियों के साथ बिठलाने की व्यवस्था की थी मगर उनकी प्रशासनिक चतुराई की उड़ान से भी ऊंची अधेड़ जवान स्टार-कवियों की योजना-बुद्धि पहुंची। दोनों ही स्टार-कवि इस ताक में थे कि मध्यमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित हों। अधेड़ कवि जी इस संबंध में अपनी योजना कारगर करने में सफल हो गए। जवान कवि जी ने अधेड़ जी की इस चाल को नोट कर लिया। चेले दोनों के साथ थे। फोटो खिंच गई। उसके बाद गोष्ठी विसर्जित हुई। बाहर आकर जवान कवि जी ठठाकर हंसे : ‘‘वो समझता होगा कि वह बीच में बैठा है। जब फोटो देखेगा तो मालूम पड़ेगा कि बीच की कुर्सी पर मैं बैठा हूं।’’ इसके अन्दर यह रहस्य था कि जब अधेड़ कवि ने एकमात्र अपने को बीच में लाने के लिए चुपके-से अपने एक चेले के कान में किनारे वाली कुर्सी हटा देने का मंत्र फूंक दिया; और ऐन मौके पर दो-दो कुर्सियां चुपके से बढ़वा दीं और कुर्सियों के भूखे दो छुटभैये अफसर उस पर चट से बैठ भी गए। इस कुर्सीक्रम में चतुर जवान कवि जी बीच की कुर्सी के अधिकारी हो गए। समझ में नहीं आता कि विकट कहूं या ओछी, परन्तु ऐसी अहंता-वालों का साथ निभाना बड़ा ही कठिन होता है।
और सुनिए, आपकों एक रोमांटिक कवि का किस्सा सुनाते हैं। प्रेम करना कवियों का जन्म-सिद्ध अधिकार है। भले ही कोई देवी जी उनसे प्रेम करें या न करें, भले ही कवि की चौखटासुन्दर न हो, मगर वो सदा यही समझते हैं कि हर स्त्री उन पर आशिक हो जाती है। एक कवि महोदय हमारे यहां आया करते थे। हमारे कमरे की खिड़की के सामने पड़ोसवाले घर की खिड़की पड़ती थी। कवि जी ने एक दिन हमारी पडोसिन को देख लिया, बस उसके बाद तो उन्होंने आफत ही ढानी शुरू कर दी। वे रोज आते, खिड़की के पास बैठते, ज़ोर-ज़ोर से बातें करते। कवियों की बातों के सिवा आत्म-प्रशंसा के और तो कुछ होता नहीं, अपनी तारीफों के पुल बांधते, अपनी प्रेम-कविताएं गा-गाकर सुनाते, संकेत के शब्द फेंकते। हमारी पड़ोसिन बेचारी बड़ी ही भली महिला थी। हमने कई बार कवि जी को समझाया।
वो तमककर बोले : ‘‘तुम क्या जानो जी। मैं दावे से कह सकता हूं कि कैसी भी सती-साध्वी हो, साक्षात् स्वर्ग की देवी ही क्यों न हो, मेरे प्रेम-पाश से बचकर कोई स्त्री कहीं जा ही नहीं सकती। मैं प्रेम की टेक्नीक का मास्टर हूं मास्टर।’’ इस तरह कवि जी अपनी करनी से बाज न आए। पड़ोसिन महिला ने हमारी गृहलक्ष्मी से उनकी शिकायत की। श्रीमती जी सत्याग्रह करने पर तुल गई कि इस कवि का घर में आना-जाना बंद करो। हम बड़े धर्मसंकट में पड़े- कवि साथी का साथ निभाएं या जीवन-साथी का। कवि जी को यदि रोकते है तो बाहर जाकर वे अपनी करतूत तो कहेंगे नहीं उल्टे हमारी झूठी बदनामी ही जगह-जगह करते फिरेंगे। एक बार पहले भी हम इनसे भुगत चुके थे। डाकिया सौ रुपये का मनीआर्डर लेकर आया। हमारे ससुर साहब ने कुछ सामान मंगाने के लिए वह रुपया भेजा था। यही कवि-साथी उस समय वहां बैठे थे। हम मनीऑर्डर फॉर्म पर दस्तखत करने में व्यस्त हुए और रवि जी ने डाकिए के हाथ से नोट लेकर गिनना आरम्भ किया। गिनकर उन्होंने वे नोट अपनी जेब में ऐसे इतमीनान से रक्खे मानो वे उनके लिए ही आए हों। हम बड़े घबराए, उनकी चिरौरी करने लगे। कवि जी बोले, ‘‘मेरा मूड खराब मत करो जी। देखते नहीं कैसी घटा उमड़ी है, कैसे सुहावना मौसम है।’’ हमने भी इतनी बड़ी रकम को हाथ से यों न जाने देने का निश्चय कर लिया, एक बार कवि-मित्राई निभाने में घड़ी से हाथ धो ही चुके थे। हमने जबर्दस्ती रुपया छीन लिया। कवि जी तब से आज तक हर जगह यही कहते फिरते है कि अपने घर बुलाकर इस व्यक्ति ने मेरी जेब से सौ रुपये के नोट जबर्दस्ती निकाल लिए। यहीं तक नहीं, उन्होंने एक कविता भी लिख डाली और भूमिका बांधकर यह कविता हर जगह सुनाते थे। इसी कारण से हम अपने इन रोमांटिक कवि-साथी को घर से निकालते हुए डर रहे थे। परन्तु हमारी पत्नी ने उन्हें घर से निकाल कर ही दम लिया।
इन घटनाओं से आप स्वयं ही सोच देखिए कि कवि का साथ निभाना कितना कठिन होता है।
‘बैर और फूट’ के तत्व-दर्शन कर पाने लायक दृष्टि मैंने इन सज्जन को दे दी है; यदि अमल में लाएंगे तो सुख पाएंगे। हरि ओम् बैर फूट तत्सत्।
प्रस्तुतकर्ता BR Beniwal पर 2:44 PM
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Saturday, December 5, 2009
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