Saturday, December 19, 2009

छुटकारा

छुटकारा
'' अम्मां जी, एक घर का बायना कम है।''
आंगन में बैठी अम्मां ने रंगीन कागज़ बिछी डलिया पर नजर डाली। फिर से गिनती की - चौंतीस कचौडियां, चौंतीस लडडू।
'' पूरे हैं।'' अम्मा ने लकीरों भरे चेहरे को ऊपर उठा कर बायना बांटने वाली जवान लडक़ी सिम्मी से कहा, जो अपने दुपट्टे को करीने से ओढने में मशगूल थी।
'' कैसे पूरे हैं? सत्रह घरों का बायना बैठता है, एक घर कौनसा छोड दूं? '' लडक़ी जिरह पर उतर आयी।
'' सत्रह ही घर तो हैं। अब भी तू अठारह घर गिन रही है क्या? छन्नो का घर छोडना है, कितनी बार बताऊं? अम्मां के ढीले होठ इतना सब कहने के बाद भी कुछ बरबराते रहे।
'' उसके घर नहीं दूं? '' लडक़ी ने अम्मां को फिर खींचा।
'' नहींऽऽ। उससे मोहल्लेदारी नहीं निभानी। तेरी समझ में भुस भरा है? कहते हुए अम्मा की आंखें निकल आईं और दुर्बल काया कांपने सी लगी।
लडक़ी ने डलिया उठाई, सिर पर रखी और बाहर निकल गयी।

उमेश की बहू सुरेखा दखि रही थी। समझ गयी कि एक घर का बहिष्कार हो गया, छन्नो के कारण। उसने सास को छेडना नहीं चाहा। नहीं तो मन में आया था कि पूछे - छन्नो को बायन दिया ही नहीं जायेगा? अम्मा जी जो अस्पष्ट सा बर्रा रही थीं, अब साफ तौर पर को लगीं - बायने जाते हैं मेहतरानियों के घर? वह खुद देहरी आ कर ले जायेंगी, आंचर में डाल देंगे। त्यौहारी पावन देने का अपना ढंग होता है। ''
सुरेखा को बिना पूछे ही जवाब मिल गया। अम्मा जी की बात पर बरबस ही उन्हें अपनी शादी का किस्सा याद आ गया। उसके मायके में सास, ननद और देवरानी - जिठानियों के नाम पर पांच कीमती साडियां आई थीं। उमेश अम्मा के कान में कुछ कह कर उन साडियों को आंगन में ले गये थ। पौरी में खडी छन्नो से पूछ रहे थे - '' बता तुझे कौन सा रंग पसंद है?''
इतना मान! सुरेखा ने घूंघट में से आंखें तरेर कर देखा था। झीने घूंघट में से उसकी नजर छन्नो ने भांप ली। वह मझोले कद की हृष्ट - पुष्ट स्त्री पान चबाती हुई उमेश की ओर मुस्काई थी। अपनी छींटदार उजली सी धोती के आंचल को होंठों पर ढकती हुई बोली, '' भइया,बहू जी!''
छन्नो उन साडियों में से एक साडी ले गयी। नहीं उमेश ने जबरदस्ती दी। सुरेखा का मन बुझ गया। ठेस लगी, नहीं पसन्द थी तो बता देते। साडियां बदल जातीं। मेहतरानी को देकर अपमान क्यों किया?

बायना बांट कर सिम्मी लौट आयी। अम्मा जी आंगन में कुर्सी पर बैठी थीं। लडक़ी ने अनाज और चवन्नियां पडी ड़लिया उनके सामने रख दी।
'' उठा ले अपनी बख्शीश।'' लडक़ी ने अनाज एक छोटे से थैले में भर लिया चवन्नियां रूमाल में बांध लीं।
'' छन्नो मिली थी?''
'' हां, दरवाजे में ही खडी थी। पूछने लगी किसका बायना बांट रही है?''
'' कहा नहीं कि घर आकर अपना हिस्सा ले जाये?''
'' आपने कब कहा था मुझसे?''
'' अब कह रही हूं। बोलती जाना कि वह साथ में बर्तन भी ले आये। रात के साग - पूरी बचे हैं।''
'' तेरे संग गुड्डू तो नहीं गया था?'' उसकी मां ढूंढ रही है, दूध नहीं पिया।''
'' गया था अम्मा जी, छन्नो के घर घुस गया। कहता था रज्जो कंचे देगी।''
'' ला पकडक़र नासपीटे को। जब देखो वहीं मंडराता रहता है।''
इतने में गुड्डू आ गया। छ: साल के बच्चे के हाथ में कंचे नहीं, छोटी सी गेंद थी।
'' यहां आ, पहले यहां आ तू।'' अम्मा ने गहरी सांस लेते हुए पुकारा।बच्चा पास आया तो एक चनकटा दिया गाल पर - '' अब जायेगा?कितने बार कहा है कि उसके घर में नहीं घुसते। अब तू याद रखेगा।''
सुरेखा अम्मा जी के व्यवहार से तमतमा गयी और बोली - '' बच्चा क्या जाने? ''
'' हां हां, तुम भी कहां जाने हो! ऐसा ही वह उमेश, मौहल्ले की हवा नहीं देख रहा, अपने हाकिम का भजन करता है। कितनी बार समझाया कि तुम्हारे दफ्तर अफ्तरौं की बात अलग है। घर परिवारों का माहौल अलग। दोनों को गडमड मत करो। तू भी सुरेखा उसके भरमाये भरम रही है।''
सुरेखा कुछ नहीं बोली, गुड्डू की बांह पकड क़र अपने कमरे में चली गयी।
'' अरी, इसे नहला दे।'' अम्मा जी की आवाज आयी।
सुरेखा के सामने छन्नो का सारा इतिहास खुला पडा है। उमेश बताते हैं - विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की डिग्री लेने के बाद दो बरस कठिन गुजरे। जिस दिन उनका भाग्य खुला, उस दिन सबेरे - सबेरे छन्नो अपनी डलिया झाडू क़े साथ सामने पडी थी। हमारी गली के पंडित डंबर प्रसाद कहा करते हैं कि यह बात शतिद्दया है कि मेहतरानी के प्रात: दर्शन शुभ होते हैं। सच में ही उमेश को उस दिन सेनेटरी इंसपेक्टर की पोस्ट मिली थी। उमेश उत्साह में आकर कहते हैं - मैं ने अपने आत्मीयों, देवताओं के साथ छन्नो का नाम भी शामिल कर लिया था जिनके आर्शिवाद, कृपा और दर्शन में चमत्कार है।
अम्मा जी बताया करती है- छन्नो का इस गली में आना - जाना आज से नहीं, वह तब से संडास कमा रही है जब वह महज चौदह साल की थी।छन्नो की सास जब गुजरी तो बेटा मिस्सी अठारह का था। ब्याह हुआ न था सो अकेला था। पेट के लिये चार रोटी चूल्हे पर सेंकना उसके लिये कोई मुश्किल बात न थी। पर सीता गली के घर? मेहतर बस्ती की औरतों ने लडक़े को समझाया कि वह यह धंधा नहीं कर पाएगा। संडास कमाने में जनानियां माहिर होती हैं। मिस्सी ने सबकी बात सुनी पर की अपने मन की। मां की सीता गली भला वह इन औरतों के हाथ बेच दे! नहीं। उसने अपना ब्याह करने की ठानी और एक महीने के भीतर अपने मामा की मदद से छन्नो को ब्याह लाया।
ये ही अम्मा जी सुनाया करती थीं - चौदह साल की दुल्हन रेश्मी घाघरा - पोल्का पहने और पीली ओढनी में लिपटी हुई जब गली में घुसी तो कंचा गोली खेलते बच्चे खेल बन्द करके अपने घरों में भागे। खबर ऐसे दी कि गली जाग उठी। सच में पान से पतली फूल से हल्की गुडिया सी लडक़ी हाथों में चांदी के दस्तबंद, बांहों में बाजूबन्द और गले में गुलूबन्द से सजी परी - सी लग रही थी। अपने मेहतर की बहू, घर की मालकिनें धान - फूल, गुड - बताशे थाली में सजाने लगीं। छन्नो जिसकी चौखट पर शीश टेकने जाती वही उसका आंचल भर देती।
सामान इतना हो गया कि छन्नो के आंचल में समाये नहीं। मिस्सी ने गली में चादर बिछा दी। फिर क्या था मनों गेहूं, पसेरियों गुड,सेरों बताशे जमा हो गये। चूडी, बिन्दी, बिछिया, चुटीला से लेकर चांदी की तोडियां तक। ओढनी के भीतर छन्नो की आंखें झुकी हुई थीं।वह बार बार चौखटों पर सिर टेकती। बडी बूढियों ने ऊंची आवाज में रोका - बेटी बस कर। कमर रह जायेगी।
डंबर प्रसाद ने पूजा के जल में भीगे चावल दूब छिडक़े। हल्दी के छींटे देकर कोई मंत्र पढा। छन्नो गली में दंडवत लेट गयी।
वह दिन है और आज का दिन, छन्नो ने सीतागली को अपनी ओढनी की तरह उजला रखा है। ईंटों के खरंजे वाली ये गली जब लाल रंगत में दमकती है तो यहां से गुजरने वाले डाह से देखते हैं। रामघाट रोड से शुरु होने वाली गली विष्णुपुर बजरिया में जा खुलती है।एक और दो मंजिल वाले कच्चे - पक्के घर इस आठ फीट चौडी ग़ली के आजू - बाजू ऐसे खडे हैं, जैस गले मिलना चाहते हों। सीवर लाइन की व्यवस्था न होने के कारण फ्लश सिस्टम नहीं है। इतनी संकरी गली में सेप्टिक टैंक बनना भी मुमकिन नहीं। कारीगरों की राय है कि गली में फिर बदबू के कारण रुका नहीं जायेगा। अत: देसी संडासों की सम्पदा बहाल है। जो छन्नो की अपनी संपत्ति है।डलिया, खपरा और झाडू क़े जरिये वह हर ओर से इन्हें निखार - पखार कर रखती है।
नई मेहतरानी लडक़ी जब संडास कमाने का काम शुरु करती है तो छन्नो के पास पूर्व प्रशिक्षण को जरूर आती है। खपरा और झाडू क़े मेल से संडास के भीतर से इस तरह से मैला खींचना है कि कहीं एक रेशा न चिपका रह जाये।और फिर राख बिछी डलिया पर किस कौशल से छन्नो रखती है कि एक बूंद भी टपके नहीं। मेहतरानियां देखती रह जाती हैं। छन्नो की बांहों की ताकत कि पुख्ता कमर का जोर। सारी गंदगी झाडू क़े सहारे नालियों में खींचती हुई बडी नाली तक ऐसे पहुंचा देती है, जैसे नाली के बीच में कहीं सकिंग पंप लगा हो।
सवेरे से मुंह नाक पर बंधा आंचल दोपहर तक खुल जाता है। वह एक नजर मुग्ध हुई देखती है - गली चमाचम है। कोई देख ले तो पहले सकुचा जायेगी फिर पान रचे होंठों से हंसेगी और नखरे के साथ कहेगी - ऐसे ही नहीं रहती सीता गली बनी संवरी, हर महीने झाडू - ख़परा और डलिया बदलती हूं। मैल से मैल कटता है कहीं? अम्मा जी कहती थीं - सीतागली के माथे छन्नो मढ ग़यी कि छन्नो के गले सीतागली पड ग़यी। छुट्टी - नागा का नाम भी तो नहीं लेती। हमें याद नहीं कि छन्नो ने गली को कभी गंदा मैला छोड क़र एक दिन अपने घर बिताया हो। हारी - बीमारी, रोग - क्लेश या तो उसके जीवन में आये नहीं या उसने बताये नहीं। बस एक बार पंद्रह दिन के लिये दूसरी मेहतरानी काम करने आनप लगी थी। घरों के मर्दों ने पूछा - छन्नो कहां है? बताया गया कि उसके यहां बेटी पैदा हुई है।
बच्ची का जन्म हुआ और घर - घर कुर्ता - टोपी सिले जाने लगे। झुनझुने और चांदी के ताबीज आये। काले धागों से कोंधनी बटी गयी।स्वेटर मोजे जमा हुए। अम्मा ने जिद करके निवाड क़ा पालना मंगाया। वे गली की औरतों के मुकाबले कुछ विशेष देना चाहती थीं। पंडित जी के घर से लड्डू आये और मुंशी जी ने फल दिये। पेशकारनी ने थोडी सी मेवा बांध दी। राजपाल सिंह के घर से आधा किलो घी आया। ऐसा ही तमाम सामान दो स्कूटरों पर लादा गया। उमेश और राजपाल सिंह स्कूटरों पर मेहतर बस्ती गये थे। चलते समय अम्मा ने कहा था - छन्नो बहू बन कर आयी थी गली में, आज तुम बहन मान कर छोछक लिये जा रहे हो।
सामान से लदे - फदे बस्ती पहुंचे तो वहां के लोग चकाचौंध हो गये। झटपट दो खाटें बिछा दी गयीं। खाटों पर बैठने की फुरसत किसे थी? सारा सामान छन्नो के बसेरे में रखवा दिया। उसकी बस्ती में लोग आयें और वह न मिले? छन्नो अपनी नवजात बेटी को लेकर चली आयी। रंगत एकदम सफेद हो गयी थी। बदन भी कमजोर सा। शरमा रही थी कि बोल नहीं पा रही थी। बस बांहों सधी बेटी को आगे कर दिया। कुलबुलाता हुआ गुलाबी सा फूल! उमेश और राजपाल सिंह की आंखें चमक उठीं। तभी पंडित डम्बर प्रसाद का संदेशा भी दे डाला - छन्नो, पंडित जी ने पत्रा में से इस बेटी का नाम सोधा है राजरानी। छन्नो ने राजरानी को रज्जो कहकर पुकारा।
उसकी अपनी जिन्दगी में अपना ब्याह और बेटी का जन्म दोनों मुबारक मौके थे। एक बार वह गम के भीषण दरिया से भी गुजरी थी।मिस्सी पलटन में सफाई कर्मचारी था। घुसपैठ क्षेत्र में डयूटी लग गई। एक दिन उसके गायब होने की खबर मिली तो छन्नो का दुख गली बर में फैल गया और जब उसकी मौत की शिनाख्त हुई तो सीतागली शोक में डूब गयी। हर घर से एक एक सदस्य छन्नो के पास पहुंचा। औरतें तो पास खडी होकर बाकायदा रोईं। साथ ही कुछ रूपए, कुछ अनाज और कुछ कपडे सां5वना रूप में उसे दिये और आगे के लिये हौसला बंधाया। कामगर स्त्री, मेहनत मशक्कत के चलते शोक से जल्दी उबर आई। आंसुओं की जगह पसीने ने ले ली।

सीता गली में घुसते ही दांयी ओर का पहला मकान मिर्जा रामनाथ का है। उनकी बैठक बडी है। दो पंखे लगे हैं। पानी का घडा रखा रहता है। गली की कोई समस्या हो, उस पर यहीं विचार किया जाता है। आज ऐसी ही एक मीटिंग थी। यह मीटिंग दो दिन पहले ही हो जाती,लेकिन गली के कुछ लोग शहर से बाहर थे। आज सब को इत्तिला दी गयी। सबको रोका गया। मामला छन्नो का था। गज़ब!
- नहीं। गली के साथ विश्वासघात।
- हाथ में चार पैसे आ गये तो हमारे सिर पर नाचेगी।
- अजी किसी को कानों कान खबर नहीं होने दी।
- क्या हुआ?
- तुम्हारा सिर। कहां रहते हो? इतना भी नहीं मालूम कि कुसुमी की अम्मा का घर छन्नो ने खरीद लिया।
- छन्नो! छन्नो ने?
- गली के बीचों - बीच आगे समझ लो।
-पंडित डम्बर प्रसाद ही समझेंगे। इनका घर उसके ठीक सामने खुलता है।
- पंडिताई गयी अब ऐसी - तैसी में।
सभा में यह संवाद भौरों की तरह भिनभिना रहे थे। रामनाथ मिर्जा ने अपना बूढा मगर कडियल हाथ उठा कर सबको चुप रहने का इशारा किया। एक पल के लिये अपनी मेंहदी लगी नारंगी दाढी पर हाथ फेरा फिर ताजा आगवाली चिलम का कश खींचा। सामने के एक दांत की खोह से हवा निकालते हुए बोले - '' होने को तो छन्नो भी इंसान की मूरत है। भगवान की बनाई हुई औरत। पर यह मेहतरानी यहां बस जाती है मानो और इसके नाते - रिश्तेदार यहां आते जाते हैं मानो तो गली के लोंडों का क्या होगा? मेहतरानियों की नस्ल बडी शैतान होती है, क्योंकि मिली - जुली होती है। बला का हुस्न क्या ऐसे ही उतरता है? ऊपर से बेशर्म निगाहें। छन्नो की लोंडिया ही कल से इश्क की कबड्डी खेलेगी। मोहब्बत के खेल और हुस्न के किस्से बराबरी वालों में फबते हैं। गैरबराबरी का इश्क तो दीन इलाही अकबर भी नहीं झेल पाया था।''
सच में ही लोगों को मिर्जा जी से यही आशा थी कि वे एक बात में ही छन्नो का घर घूरा कर देंगे। शेर - गज़ल कहने वाले मिर्जा जी पेंशनयाफ्ता पटवारी हैं। पतली - पतली कमर वाले तीन चार लोगों को शेरो शायरी की दीक्षा देते हैं। दोपहर भर बैठक में किवाड बन्द रखते हैं। मिर्जा जी की पीठ के ठीक पीछे बैठे बालूशाही वार्ष्णेय ने जोर से बोला - '' मुकर्रर।'' अब यह दीगर बात है कि मिर्जा जी और बालूशाही वार्ष्णेय की जानलेवा अदावत चल रही है, क्योंकि बालूशाही का परिवार तीन पुश्तों से मिर्जा के घर की ऊपरी मंजिल में किरायेदार होकर भी बेकिराये काबिज है। परन्तु यह बात निपटेगी कचहरी में। आज तो सीतागली के निवासियों के संगठन की बात है।सो बालूशाही ने आगे जोडा, '' लडक़े तो लडक़े, ये सरकशों की खाला बूढों तक का ईमान डिगा दें और इनके मर्द इसी बात पर ऊंची जाति की टांग खीचें। बडा संगीन मामला है साहब।''
कुसुमी की अम्मा के ठीक बराबर वाले मकान में रहने वाले पेशकार साहब अपनी काली और घनी, करीने से कटी मूंछों पर ताव देते हुए हाथ उठा कर कहने लगे, '' बडी साफ बात है जी, इस गली में अब मेहतरानियां रहेंगी तो अपना गुजारा यहां नहीं, भले मकान बेचना पडे। मुरब्बत की भी एक हद होती है।''
लोगों के बीच से पहलवान राजपाल सिंह बोले - '' वाह जी वाह! तुम क्यों मकान बेचोगे? आने दो साली को, मजा चखा देंगे। अपनी औकात भूल गयी।''
पंडित डम्बर प्रसाद आंखें बन्द किये धीरे - धीरे सिर हिला रहे थ। उसी समय पेशकार ने कहा, '' झाडू, ख़परा डलिया तो पंडित जी की नाक के आगे ही गंधायेंगे। गू - मूतों से भरे टोकरे भिनकेंगे। कितनी बार टोकेगा कोई? उसकी तो जब मर्जी होगी तब फेंकने जायेगी।''
मुंशी जी का सांवला अधेड चेहरा बिना कुछ कहे ही तमतमा कर तांबिया पड ग़या। नाक के पास छोटी सी फडक़न उठती और होंठ बुरी तरह कांप जाते। एक कम उम्र का लडक़ा पीछे से हंस पडा। बोला, '' मुंशी जी से कहो, छन्नो को नौकरी दे दें। ये तो रोजग़ार विभाग में हैं। वह संडास कमाना छोड देगी।''
मुंशी जी किचकिचा पडे, '' संडास क्या तेरी मां साफ करेगी? बोल तैयार है?''
लडक़ा सिटपिटा गया। किसी ने लडक़े का हाथ दबाते हुए कहा, '' चुप रहा करो। छोटे मुंह बडी बात। ऐसा ही होता तो मुंशी जी अपने कबूतरबाज लडक़े को नौकरी न दिला देते? दुखती रग मत छेडो।''
राजपाल सिंह के दिमाग में एक बात और आई, उन्होंने सभा के सदस्यों से पूछा, '' इतने रुपये उसके पास आये कहां से? माना कि घर कच्चा - पक्का और अत्यन्त छोटा है पर पच्चीस तीस हजार से कम तो गया होगा। किस यार से ले आई रकम?''
पंडित डम्बरप्रसाद झुंझला गये, '' अरे यार लाई होगी कहीं से। अब तो यह समस्या है कि उसे यहां आने से रोका कैसे जाये? इसमें तो पुलिस भी मदद नहीं देगी।''
मिर्जा ने सुझाव दिया, '' ऐसा करो, उस घर को चन्दा करके खरीद लो। उसने तीस में लिया है, हम पैंतीस दें। आगे की बात भी तो समझो। गली के विरोध के बाद यह परकाला न मालूम किस भडुवे को बेच जाये? याद करो, कुसुमी की मां क्या कहती थी, खसम की ढोलक ने पूरी गली को सुना कर कहा था - इस घर में भंगिन बसा कर जाऊंगी कि गली के लोगों की मूछों पर झाडू फ़ेरती रहे। मेरी आतमा सताने वाले नरक में डूबेंगे।''
पंडित डम्बरप्रसाद ने झटके से दो तीन बार अपना सिर हिलाया, मानो वह दीवार से टकरा - टकरा कर अपनी खोपडी फोड लेना चाहते हों। फिर कडवा मुंह बना कर बोले, '' मेहतर बस्ती चलना होगा।''
'' नहीं नहीं पंडित जी, आप समझदार होकर ऐसी बात पेशकार चिल्ला पडे।

सारी बातें छन्नो के खिलाफ थीं। गली में जहरीली हवा के थपेडे आ रहे थे। उमेश का मन आहत सा हो उठा। क्या हो गया अगर घर खरीद लिया तो? आजकल इतना भेदभाव कहां चलता है? उनके अपने दफ्तर का माहौल कैसा है, साहब वाल्मीकी हैं, फिर भी सब झुक कर सलाम करते हैं। उसके झूठे गिलास उठाते हैं। पहले थोडा अजीब सा लगता था लेकिन अब। यह माना कि वह दफ्तर है और यह गली। छन्नो के ऊपर भी आश्चर्य होता होता है, ब्राह्मण बनियों और कायस्थ ठाकुरों की इस गली में आने से पहले एक बार भी नहीं सोचा कि यहां बसने की इजाजत उसे कौन देगा? हद है हिम्मत की। उमेश को इतना तो पता था कि पच्चीस हजार उसे पति के फण्ड से मिले हैं। अब इतने दिनों बाद। कागजात वह उमेश को ही दिखाया करती थी। यह बात वे सभा में कह सकते थे, मगर नहीं कही। यह भी नहीं बोल पााये कि उस पैसे को वह ऐसी चीज में खर्च करना चाहती थी जो उसकी बेटी की शिक्षा और सुरक्षा का साधन बने। कैसे कहते? उस बैठक में तो लोगों के तेवर इतने चढे हुए थे कि कोई बात पर गौर न करता और करता भी तो उमेश को छन्नो का हिमायती बता कर मीटिंग से उठा देता। आगे होने वाली बातों से वे अनभिज्ञ रह जाते। सभा समाप्त हुई तो यह बात पक्के तौर पर समझ आ गयी कि अब लोग छन्नो की जिन्दगी के बारे में नहीं, तबाही पर विमर्श करना चाहते हैं। आगे क्या अनहोनी हो!
सारी बातें उमेश ने सुरेखा को बतायीं। कुछ सोचने समझने के बाद कहने लगे, '' मैं मेहतर बस्ती जाता हूं। छन्नो को समझाऊंगा कि फिलहाल इस गली में रहने का ख्वाब छोड दे। लोगों की मंशायें बडी भयानक हैं। जवान बेटी को लेकर यहां आना
रात हो गयी थी। गली में अंधेरा था। उमेश जूते कसने के बाद टॉर्च मांगने लगे। बोले, '' गली के लट्ठों के बल्ब टूट गये हैं। रोशनी थोडी ही सही, टॉर्च से रास्ता तो सूझेगा। कुसुमी की अम्मा वाले घर के आगे बल्ब जल रहा था। उमेश ने हाथ की टॉर्च ऑफ कर दी। सामने देखा दो रिक्शे चले आ रहे हैं। अच्छी तरह पहचान लिया, अगले रिक्शे पर लदे सामान के साथ छन्नो बैठी है और पिछले में कन्धे पर बैग सा लटकाये, थोडा सा सामान लिये छन्नो की सोलह वर्षीया बेटी रज्जो चली आ रही है। पिछला रिक्शा आगे वाले को जल्दी चलने के लिये घण्टी दे रहा है। उल्टे लौट लिये उमेश। अब आगे जाकर उसे रोकने का कोई मतलब न था, गली तक आकर वह लौटेंगी, इस बात पर भरोसा न था।
हां, लौटते समय लगा कि उमेस के भीतर पंडित डम्बर प्रसाद, रामनाथ र्मिज़ा, मुंशी जी, राजपाल सिंह और पेशकार की आवाजें उठ रही हैं - उन आवाजों को दबाते हुए वे घर की ओर चले जा रहे हैं तो वो लोग लताडने पर उतर आये। साले तुम तो आजकल उस भंगी की मातहती में भंगी हुए जा रहे हो, जो तुम्हारी नौकरी का ताल्लुकेदार है। तरक्की प्रमोशन के लालची मुंह सिल कर गली को गलीज कराने पर तुल गये। कर रहे हो समाज का कल्याण! सब ढोंग, स्वार्थ।
उमेश ने कश्मकश में रात काटी। सोचा सबेरे छन्नो से मिलेंगे और समझा देंगे कि उसका हित यहां रहने में नहीं। उसको सताया गया तो उन्हें बुरा लगेगा।

छन्नो सबेरे जब डलिया, खपरा और झाडू संभाले काम के लिये निकली तब उमेश बीस मिनट पहले से गली में खडे थे। उन्होंने इशारे से उसे बुलाया और गली के मुहाने के बाहर ले गये। दूसरी गली के आगे मकान की ओट देकर बातचीत करने का सिलसिला बनाना उचित समझा।
'' मैं तुम्हें रोकने आ रहा था छन्नो।''
'' काम से?'' उसने मुस्कुरा कर पूछा। लेकिन आंखों में आशंका तैर गयी।
'' काम से नहीं, यहां आकर रहने से।''
'' गली के लोग कुछ'' जैसे वह भी आगत को जानती हो।
उमेश ने कुछ वाक्यों के जरिये मुख्य लोगों की राय बता दी। उनके दृढ संकल्प उजागर कर दिये। आगे आने वाले खतरों से होशियार किया।
छन्नो पान रचे होंठों को बन्द किये उमेश को घूरने लगी। बीच में गहरी सांसे लेती।
'' तुमने भी गुपचुप मकान खरीद लिया। किसी से पूछा तो होता?''
उसकी आंखों में लपक सी पडी। होंठ हरकत में आ गये।
'' मुझे बहुत चिन्ता लग रही है तुम्हारी।''
जिस गली में उमेश और छन्नो खडे थे वहां बहुत आवाजाही न थी, फिर भी उमेश चौकन्ने थे। छन्नो के चेहरे पर तैश था। उमेश बोले, '' जो कहना हो धीरे कहना कि हम लोगों पर किसी का ध्यान न जाये। गली का माहौल भडक़ा हुआ है।''
उसने कहा, '' उमेस भैया, हमारी भी लालसा थी कि हम मैली उजडी बस्ती से हटकर आप लोगों के संग रहें। रज्जो यहीं सिलाई करेगी।उसे खूब काम मिलेगा। मेहतरों की बस्ती में नये कपडे क़ौन सिलवाता है, रज्जो को सिलाई सिखाने से पहले हमने यह सोचा नहीं। पास ही सिलाई का स्कूल खुला था, लडक़ी वहां आने - जाने लगी। पर इतना भी सुन लो खाली उसी लालसा की खातिर यह घर नहीं लिया।सफाई के लिये एक दिन आऊं तो कैसा नरक मच जाता है। डंबर प्रसाद पंडित जी के यहां कथा हुई थी, तुम क्या थे नहीं? पूरे दिन हमें रहना पडा। रात के बारह बजे घर पहुंचे। अब सयानी लडक़ी को इतना अकेला तो नहीं छोड सकते। मेहतर बस्तियों में आये दिन हमले हो रहे हैं। गधा से पेस नहीं गयी, गधइया के कान उखाडे। भडुआ हमें दबोच लेते हैं, बस। और भला देखो कि छिपने - ढुकने की जगह नहीं।
न्याय की कहना भइया, लडक़ी की परवाह छोड क़र हम तुम्हारे टट्टी - पेशाबों के रेले समेटते रहते हैं। बजबजाती नालियां धोते दिन कटता है, पर इस बस्ती का आदमी यह नहीं कहता कि छन्नो अपनी लोंडिया को लेकर यहीं किसी कोठरी में आ रह।
मिर्जा जी आज हमारी हरमजदगी उघाड रहे हैं। भूल रहे हैं चार - पांच महीने पहले बीमार हुए थे। अकेले घर में हगासे - मुतासे पडे रहते थे। जब कोई न आया तो खाट के ढिंग ढिंग गू के छत्ते जमा कर लिये। उस दिन ऐसा मन अकुलाया कि भगवान से अरज करी कि तू हमारे पांवों में पहिये लगा देता तो यह बूढा मैले में तो न गिंजता रहता। फिर दो दिन हम अपनी बस्ती नहीं गये। मिर्जा जी हगें और हम उठावें। घर में बदबू की रमक जो छोडी हो।
ऐसे ही मुंशी जी की महतारी मरी थी तब हुआ। पन्दह दिन पहले नींद चैन गंवा चुके थे। परमात्मा डुकरिया सई संझा ही चल दी तो मुंशियानी पर बुरी बीतेगी। वह बेचारी रोयेगी कि सास के लत्ते कपडे उठायेगी? रोना छोड क़ाम करती डोले तो गली के लोग ही थूकेंगे।आदमियों ने सारी थुक्का - फजीहत जनानियों के सिर छोड रखी है। अब झूठा ही सही बूढी क़े लिये रोआ - राट तो करना ही पडेग़ा।हमारी रज्जो हमें रोकती रह गयी पर हम तो जैसे जमराज के पीछे हो लिये हों, कांटी बंधने से पहले ही गली में आ पहुंचे। मुंशियानी ठाठ से रोई। हमने उन्हें तिनका तक न उठाने दिया। डुकरिया के उढऌया - बिछइया से लेकर फूंस बांस तक सगुना दिये।
रज्जो नादान आते आते याद लगवाती रही थी - अम्मा, मरी डुकरिया के लत्ता मत लाना। हमें डर लगता है। मैं ने कहा - लडक़ी, तू मालिकों के बालकों की तरह डरने की बात करेगी तो गली के घर कैसे कमायेगी? वह बोली - नहीं कमाने हमें तेरी गली के घर। गू - मूतों में सनी लिसडी तू ही रह। हमें तो डलिया छूते बास आती है। स्कूल में सब हंसी उडाते हैं।
- हाय बेहा। खायेगी क्या? सिलाई कढाई हमारा किसब नहीं। कोई काम दे कि न दे?
- नौकरी करूंगी। सिलाई सीखी होगी तो कोई काम भी मिलेगा।
उमेस भैया, ऐसे ही इसका बाप नादान था, कचरे का काम छोड क़र पलटन में भाग गया। मुझसे भी बोला
गली छोड दे। तुझे वहां करके आया तब मुझे अकल नहीं थी। पूछो अब मूरख से कि गली छोड देती तो क्या करती? अरे यह कौन कह रहा है कि मुर्दों के ऊपर से उतरे कपडे पहनो ओढो। कौन देखता है? पर रिवाज तोडना सब देखते हैं। लडक़ी को कैसे समझाऊं कि हम रिवाज तोडते हैं तो मालिकों के दिल टूटते हैं।''
दिल तोडना! छन्नो इस मामले में बडी क़मजोर निकली, दिल नहीं तोड पाती। पेशकार का दिल, पेशकारनी का दिल गली में जोरों की चर्चा फैली थी कि पेशकार के बेटे के कनछेदन में छन्नो पेशकारनी ने नाचने - गाने बुलाई थी। बडी - बूढियों का मानना है कि हिजडा,मेहतरानी और कुम्हार, नाइयों की असीसें बच्चे को बुरी नजरों से बचाती हैं। उस दिम मेहतरानियों की जमात सीतागली में आ जुडी थी।गली घेर ली। आवा जाई बन्द हो गयी। ऐसा नाच हुआ कि झनकार आसमान तक गयी। ढोलक की थाप हवा में गूंजने लगी। छन्नो चुनरी छाप लाल साडी पहनकर बांहें लहराती हुई नाच रही थी -
जुलम करि डाला देख काली टोपी
सितम करि डाला देख काली टोपी
जुलम करि डाला, सितम करि डाला
गजब करि डाला देख काली टोपी
सर्दी का मौसम, जाडे भरे दिन। पेशकार साहब का जवान जिस्म शेरवानी में और जुल्फोंदार सिर काली टोपी में, नाच देख कर मुग्ध हो गये। छन्नो उन्हीं की सरकश जवानी की दाद दे रही है। टोपी में छिपी जुल्फों से घायल है। शाम से रात तक गीत की कडी उनके होठों पर थिरकती रही।
आधी रात! मेहतर बस्ती, चौकन्ने लोग। कुत्तों का जबरदस्त पहरा। उन्होंने छन्नो का द्वार खटखटाया।
'' कौन है भाई?'' पडौस वाले घर में से एक मर्द निकला वे धीमे से बोले, '' मैं पेशकार, सीता गली का। परोसा लाया हूं।''
'' अरे! आओ, आओ माई बाप।''
पास पहुंच कर सामान धरती पर धर दिया। आवाज में अपनत्व लपेट कर बोले, '' सदा झूठन कभी पत्तल - परोसा भी तो हो। मुशे शाम से ही तुम लोगों की याद आ रही थी।''
मेहतर मर्द फूल उठा। मेहतरानियां बाहर निकल आईं। '' अरी देख तो री, कौन आया है?'' छन्नो को जगाया गया।
कच्चे घरों से घिरे चौक में स्वादों के सोते फूटे थे। साग - रायतों के कुल्हड। पूरी कचौरियां, बंधी पत्तलों में से उठती जायकेदार खुश्बू,शकोरों में दही बूरा। लड्डुओं का झावा अलग। मेहतरों की किस्मत! छन्नो की देह चिडिया जैसी हल्की हो गयी। लगा कि पंख भी निकल आये। उडने को जी चाह रहा था। छत्तीस व्यंजन, छप्पन भोग लेकर फरिश्ता उतरा है। छन्नो को देख रहा है। वह भी देवता को निहार रही है। देवता की आंखों से उठती चाह! छन्नो सकपका गयी। नजरों में न्यौता, उसने आंखें फेर लीं। मगर दया - कृपा का बोझ
एक दिन एकान्त में बांहों में भर ली छन्नो। अहसान से दबी थी कि अपने ही अन्दर झुकी हुई? जो उसे छूने से बचते हैं, उनमें से ही कोई उसकी देह से लिपटना चाहता है। अरज पर उतर आया। अब छन्नो क्या करे? दिल तोड दे या निहाल कर दे?
रात क्या था, सबेरे क्या हुआ?
पेशकारनी के घर में घुसते समय छन्नो की टांगे कांपने लगीं। संडास धोती रही। बांहें थरथराती रहीं। कान ऊपर की मंजिल से लगे थे -पेशकारनी कराह कर रो रही है। छन्नो ने कलेजा बांधकर पुकार लगाई,
'' पेशकारनीऽऽऽ!'' आवाज क़ंठ में फंस गयी।
रात होती, सबेरा निकलता। छन्नो कश्मकश के हिंडोले पर सवार थी कभी पेशकार को दुत्कार देती, कभी गले लगा लेती। कभी दोनों ही बातें गलत लगतीं। कभी दोनों सही। बातचीत और सोचने - समझने में कितना समय बीत गया। पता ही न लगा। छन्नो ने ही ध्यान तोडा, '' उमेस भैया, काम का टैम है। दोपहर को घर आऊंगी।''
पंडित डंबरप्रसाद का दरवाजा अब तक न खुला था। छन्नो कुछ देर बन्द किवाडों पर खडी रही। समझ भी गयी कि द्वार उसके ऊपर ही बन्द किया गया है। उमेश ने ऐसा ही इशारा तो किया था। चलो चार छ: दिन में गुस्सा थूक देंगे।छन्नो संडास के पीछे वाली गैलरी से घुसी और मैला समेट कर डलिया में भर लिया। घडे में पानी भरा था, उसी से पाखाना धो डाला। पांच दस मिनट तक खडी देखती रही,कोई निकले शायद, मगर घर तो सुन्न हो गया हो जैसे। कहां पंडित जी अब तक नहा धो कर जोर जोर से मंत्र पढते हुए पूजा कर रहे होते थे।
दिल में उथल पुथल सी मचने लगी। सारा उत्साह काफूर हो गया। कहीं अपनी ही गलती।

आगे बढी। मुंशी जी सामने पड ग़ये। धोती धारी लम्बे कद वाले मुंशी जी का चेहरा रौबीला, बुलन्द आवाज, छन्नो से बतियाते बिना निकलते नहीं। वह भी दांत खोलकर मुस्करा पडती है। मुस्कराती हुई पास आ रही थी। मुंशी जी ने खखार कर ऐसा थूका कि सारी गली गूंज गयी। छन्नो को ऐसी निगाहों से देखा जो कह रही थी - थूकने के लिये ऐसे थूका जाता है। थू पर जोर देकर। उसके पांव अनजाने बंधने लगे। मुंशी जी भी पीछे लौट लिये।
गली के लोगों में सचमुच रोष है। रात भारी गुजरी। दूसरे दिन रज्जो सिलाई के स्कूल के लिये तैयार हुई। छन्नो पीछे पीछे चली। क्यों?अनचाहे ही सोलह वर्ष की सजी - धजी रूपवती लडक़ी। मिर्जा जी का द्वार अचानक खुला। छन्नो लपकी और रज्जो से कहने लगी -मिर्जा जी को पालागन करना। बच्चों के लिये सबका दिल नरम होता है।
तभी किसी ने जलती बीडी रज्जो के ऊपर फेंकी। दहकती चिनगारी दुपट्टे में फंस गयी। दुपट्टा जलने लगा। रज्जो आग - आग चिल्लाई।
मिर्जा जी के छज्जे के ऊपर उनका पतली कमर वाला चेला ठठाकर हंस पडा। रज्जो आगबबूला हो गयी, '' आजा नीचे, तुझे मजा चखा दूं। हरामी खसिया।''
छन्नो ने बेटी को बरजा और लडक़े से कहने लगी, '' भइया आग और आदमी का नाता जानता है? मिर्जा जी ने यही सिखाया है? वैसे यह लडक़ी बीडी नहीं पीती।''
रज्जो घर आकर मां से लडी थी, '' इसी गली के गुन गाती थी? इसमें तेरे भइया - भतीजे रहते हैं कि कटखने कुत्ता?''
तभी बाहर से मुनादी जैसा शोर आया, '' रंडी आ गयी है। बहन की लौंडी बनती है सीता। हम भी इन भंगिनों से निपट लेंगे। सालियों की टांग पर टांग रख कर चीर देंगे।''
अब! आग, गालियां और धमकियां।
उसने बाहर जाकर कहा, '' किसी का क्या बिगाडा है हमने? पुलिस में रिपोट कर दूंगी।'' तभी तडातड पत्थरों की वर्षा होने लगी। कहां छिपे थे इतने दुश्मन? रज्जो ने तेजी से भाग कर खिडक़ी के पल्ले बन्द कर लिये।
लेकिन यह एक दिन की बात नहीं थी। रोज रोज क़ा सिलसिला, दिन रात का मुकाबला। देह और पत्थरों की मुठभेड ने मां बेटी को लहूलुहान कर डाला।

रात के समय छन्नो ने गली के चारों ओर देखा। इधर - उधर से कोई नहीं आ रहा था। जाडे क़ा मौसम, सबकी किवाडें बन्द थीं। वह चोर कदमों से उमेश के घर की ओर चल दी। किवाडों पर नामालूम सी दस्तक दी। सुरेखा ने द्वार खोल दिया। देखते ही बोली - '' छन्नो बुआ! कैसे?''
'' अरी छन्नो! आ आ, तेरी ही बातें हो रही थीं।'' अम्मा जी पौरी में ही पीढा पर बैठी हुई थीं। नीचे बोरा बिछा कर मुंशियानी और पंडितानी। बालूशाही की बहू। उमेश भी कुर्सी पर बैठे थे। इतने लोग! छन्नो कहां आ गयी।
उसने एक एक कर सबको देखा तो अनचाहे ही कंठ में रुलाई भर आई। बहुत काबू किया, हिलक - हिलक कर रो पडी। हिचकियां बंध गयीं। छन्नो ने धोती का पल्ला आंखों पर धर लिया। मुंह भी ढक लिया। गली के लोग अपने लोग!
सुरेखा का दिल उमड आया, '' छन्नो बुआ, बैठ जाओ। घबरा रही हो?''
अम्मा जी ने धीरज बंधाया, '' रोने से बात सधेगी? तू परेशानी तो समझ नहीं रही।''
सन्नाटा खिंच गया फिर। छन्नो की सुबकियां धीमी पड ग़यीं तब मुंशियानी ने बात शुरु की, '' अम्मा जी, जौ बडा होता है, जौ की जात तो बडी नहीं होती। इसकी आंखों पर परदा नहीं पडा, मगज डूब गया है। गली के लोगों की क्या हालत बना दी।'' कहकर मुंशियानी ने पंडितानी की ओर देखा।
'' कुछ मत कहलवाओ मुंशियानी। हमारा आदमी बिना अन्न पानी के मुंह बांधे पडा है। यह बैठी है तुम्हारे सामने, इसी से पूछो कि अब तक ऐसा हुआ है कभी कि पंडित के द्वारे भंगिन का घर हो। किसके हलक में रोटी चलेगी? गू - मूत के डलिया खपरा।''
बालूशाही की बहू ने बात का समर्थन किया, '' मिर्जा जी कह रहे थे, तैयार हो जाओ, गली में अब सुअर कटा करेंगे।''
अम्मा जी का जी घिनिया आया, '' हाय थू!''
मुंशियानी फिर झींकी, '' राजेश ( कबूतरबाज) के सम्बन्ध वाले आ रहे थे। मना कराई है। बताओ क्या देखेंगे? घर पडौस में भंगिनिया कौन सा बेटी वाला रूपेगा?'' मुंशियानी ने पल्ला पसार दिया छन्नो के सामने, '' इस गली पर तो मेहर कर। पूरे शहर में एक नहीं,अनेक मकान बिक रहे होंगे। हमारे बालक कुंआरे रह जायेंगे।''
छन्नो की रुलाई फिर छूटी। उमेश ने छन्नो को ढाढस दिया, '' रोती क्यों हो? सब ठीक हो जायेगा। भरोसा रखो।''
छन्नो का भर्राया हुआ स्वर निकला, '' भरोसा ही तो कर लिया था भइया। पंडित जी ने खुद कहा था - छन्नो तू बेगम बाग में जगह ले ले, पास ही है। जरूरत पडे लडक़े साइकिल से बुला लायेंगे। और फिर तेरी जाति के लोगों ने वहां अच्छे मकान बना रखे हैं। मिर्जा बोले थे - बेगम बाग तो दूर है फिर भी। श्याम नगर में मेहतर बस्ती में सरकारी क्वाटर बन गये हैं। मुंशी जी प्राग मिल के पीछे किराये के कमरे का सौदा पटवा रहे थे।''
'' भइया, हमने सोची, यहां वहां क्यों फिरें? फिर पक्के मकानों वाले मेहतर भी कौन से बर्दाश्त करते हैं। नौकरपेशा लोग तो जात छिपाकर भी रह लेते हैं। संडास कमाने वाले क्या करें? सरकाारी क्वाटरों का हाल यह है कि वे ऊंची जाति वालोत्त् लप ही किरायेदार बनाने में दिलचस्पी रखते हैं। हमें पास नहीं फटकने देंगे।''

'' यही बात हमने कुसुमी की अम्मा को बता दी, और करम की लागिन तभी बताई थी, जब अनपहचान बदमाशों ने डुकरिया को घर में घुस कर पीटा था। नाक कान का गहना उतरवा ले गये। कुसुमी की अम्मा कहती थी वह बदमाशों को पहचान गयी है, इसलिये उसकी जान को खतरा है। अब वह घर बेचकर अपनी बेटी कुसुमी के पास जाना चाहती है। सो अरज की थी कि छन्नो तेरे पास इन दिनों पईसा है और बाबरी, जहां काम तहां ठांव, इस घर को ही खरीद ले।''
'' इस घर को?''
'' ताज्जुब क्यों कर रही है?''
'' यहां हमें कौन रहने देगा?''
'' वे ही, जो मुझे उखाड रहे हैं। बोल मैं क्या भंगिन हूं?''
'' नहीं अम्मा।''
'' अरी हिम्मत तो कर, जो देगी सो ले लूंगी।''
'' घर जाकर रज्जो से बात की, सारा मामला बताया। रज्जो डरी न सहमी, बोली, '' अम्मा चल। मैं भी अब यहां अकेली नहीं रहती। गली में डर कैसा? फिर बडे - बडे लोगों की बस्ती, हम बचे रहेंगे। सिलाई वाली बहनजी कहती हैं - अब छुआछूत कौन मानता है?मानता हो तो बाल्मीकी समाज में अर्जी दे दो, लोग धरने पर आ जयेंगे। सबको अपने लिये डर लगता है। रज्जो कम्बख्त की जिद कि हम यहां आ गये।''
उमेस बोले, '' हमारे गली के लोगों को यही मलाल है कि तुम इस घर को न लेती तो गली के ही किसी आदमी को मिल जाता।''
'' अरे, राम के नाम लो, कुसुमी की डुकरिया प्रान तज देती पर अपने किवाड ऌस मोहल्ले के आदमी को न छू देती। कह रही थी -पसकार कचेहरी से झूठी मोहर लगे कागज बनवा लाया था। बैनामा के। डम्बर प्रसाद पंडित अलग धमका रहे थे कि मकान उनके नाम हो, दस पांच हजार दे भी देंगे। मुंशी जी का बेटा तो किसी से डरने वाला नहीं ऐसे ही कब्जे में ले रहा था। ये बातें हम नहीं कह रहे अम्मा जी, हम नहीं कह रहे पंडितानी, यह सब कुसुमी की अम्मा कहती थी कि इस गली के चलन को कौन नहीं जानता, किरायेदार मकान मालिकों पर सवारी गांठ रहे हैं। किसी को कानों कान खबर न हो, इस बात के लिये उसने हमसे पांच हजार कम लिये और रज्जो की कसम दी, '' कहते कहते छन्नो की आवाज ख़ुल गयी।
मुंशियानी और पंडितानी के चेहरे काले पड ग़ये। बालूशाही की बहू का मुंह छोटा हो गया। अम्मा जी के मुंह से गाली निकलते निकलते रह गई। नहीं रहा गया तो बोल ही पडीं, '' क़ुसुमी की अम्मा ही तो रंडी गली में नरक बो गयी और पाप की गठरिया धरकर बेटी का खाने चली गयी। अगले जनम में सुअरिया बनेगी।''
उमेश ने अपनी मां को टोका- '' अम्मा जो चली गयी उसे गाली देने से फायदा?''
'' इसे नहीं रोकता, कैसी जुबान चला रही है।'' बूढी अम्मा की गर्दन की नसें तन गयीं । मुंशियानी बोली, '' इन्हें कौन रोक सकता है।बदन में तेल बढ ग़या है।''
'' ऐसी फिरती हैं पांच सौ साठ।'' पंडितानी तमक पडीं।
छन्नो ने हाथ जोड लिये और बोली, '' पांच सौ साठ नहीं दस सौ बीस, बीस सौ चालीसपर इतनी बताये देती हूं कि इस गली के लिये एक मेहतरानी नहीं जुटेगी, हां हम मेहतरों का हिसाब कुछ ऐसा ही है। समझ गयीं?''
'' हम सब जानते हैं। सोच समझ कर ही कह रहे हैं।'' बालूशाही की बहू बोली।
'' तो ठीक है।'' छन्नो उठ कर खडी हो गयी।
रात को उमेश के घर झडप हुई थी। फिर भी काम तो काम है। छन्नो डलिया खपरा उठाये संडास कमाने चल दी। सबसे पहले पंडित डंबर प्रसाद की संकरी गैलरी का रास्ता लिया और पीछे की ओर से मैला सकेरने लगी।
ऊपर की मंजिल वाले संडास में चढक़र किसी ने हगा, गरम - गरम टट्टी छन्नो की बांह पर गिरी।
'' एऽ तेरी कफन कांटी कर लूं, तेरी'' उसके मुंह से बेतहाशा गाली निकली।
'' कफन कांटी करना अपनी बेटी की। सो गली भी चैन पाये। बेडिनी दीदा मटका कर मरदों को रिझा रही है कि इसी गली में ठहर जाये।''बीच में पंडितानी ने अपनी बुढियाती छाती ठोकी, '' हम नहीं पेस जाने देंगे तेरी, तू कितना ही जोर लगा ले।''
गंदगी में लिपटा हाथ छन्नो के क्रोध की सीमा न रही। जुबान पर काबू न रह पाया। अनाप - शनाप बोल गयी, '' ओ पवित्तरता की चोदी। पहले अपने चुटियाधारी खसम से पूछ कि हमने वह रिझाया कि हमें वह रिझा रहा था। मैं कहती हूं कि क्यों बूढे क़ी लंगोटिया खोलूं। जे जौहर उमर के ताल्लुक सोहते हैं। नहीं तो बस्ती के चार मेहतर बुलाकर सारी पंडिताई झडवा देती।आज हमारा मुंह देखकर अन्न पानी त्यागे बैठा है, और वहां आकर हमारे चूतर चाटता था।''
डलिया खपरा उठा कर धन्नो धमक भरी चाल से चली आई। नहीं करना काम भाड में गया ऐसा काम। उसने सभी चीजें एक कोने में पटक दीं। हाथ धुलाने के लिये रज्जो को पुकारा। रज्जो अपने कपडे धो रही थी। शलवार के पांवचे ठीक करती हुई मां के पास आ गयी।''क्या हो गया?यह किसने''
'' भंगी के चोदों ने।''
'' अच्छा तो मैं सच ही सोच रही थी, अम्मा तू गयी संडास की तरफ और पंडित जी का नाती भागा ऊपर की टट्टी में। नीचे खडे एक लडक़े से कुछ इशारा किया, और यह बदमासी हरामी का पिल्ला। जरूर मां बापों की बातें सुनकर तरह तरह के बदखेल रच रहे हैं। आगे पंडो के यहां जाना नहीं अब अपने आप होस ठिकाने आ जायेंगे।''
हाथ धो पौंछ डाले। मन में जमा गुस्सा पिघल कर कुछ गालियों की राह बहा, कुछ आंसुओं की।
रज्जो की जिद कि अपना खट्टा मन, छन्नो दूसरे - तीसरे दिन भी काम पर नहीं गयी। भरजाने दो बंजमारों के पखाने। लगने दो गू के ढेर। वह खिडक़ी में से झांकती, राजपाल तसला भर राख ला रहे हैं, हलवाइयों की बुझी भट्टिया खाली कर दीं। मिर्जा संडास में चूना डाल डाल कर हार गया। लुटिया लेकर प्राग मिल की ओर भागा जा रहा है। वहां सुअर पिछियायेंगे हरामी को। जाकर तो देख। बालूसाही दिशा मैदान की नई जगह खोज आया है कासिमपुर की ओर। हगासा आदमी साइकिल से कि रिक्शा से कितनी दूर जाये, कितनी बार जाये?अपने संडास और नालियां तो पेशाब तक की मोहलत नहीं दे रहे। छन्नो को हंसी आ गयी। रज्जो उमेश की बहू से कुछ बातें सुन कर आई थी बोली, '' तू हंस रही है, सुन तो अम्मा। बालूशाही की बहू ने अपना पन्द्रह साल का लडक़ा साइकिल पर अपने गांव भेजा है।''
'' हमारे नाश के लिये?''
'' हां, कहा है अपने नाना से कहना चार भंगी पठा दें। उसके गांव के भंगियों से इलाका भर डरता है। भंगी उसके बाप के दांये हाथ हैं''
'' तभी बेचारा मिर्जा बालूशाही के मारे कांपता है।''
'' अम्मा, वह कहती है, इस हरामजादी छन्नो ने चें चें करी तो एक दिन उसकी लोंडिया को उठवा दूंगी। बालूशाही ने रोका कि वह फजीहत नहीं चाहता।''
छन्नो को कडुवी सी हंसी आ गयी।
'' आय हाय बडी भवानी बनी है। राजपाल पहलवान की बहू की बात बता देती कि चुपचाप संडास साफ करने को बुला रही है। राजपाल ताल ठोक रहा है कि देखें छन्नो को कौन निकालता है?
मन फिर जहरा गया। कहां सोच रही थी। मैं इन लोगों से नाराज हूं, अपने काम से खफा तो नहीं। बेकार ही हालत यहां तक आ पहुंची।गली में एक कुत्ता भी जब नया आता है तो पुराने उसे चींथने दौडते हैं। भौंक भौंक कर गली के बाहर कर आते हैं। जब पहचान हो जाती है तो वह रम जाता है। सब्र करना होगा। डंबर प्रसाद पंडित का बुरा माना मैं ने। बेचारे का धंधा ही छूत पाक पर टिका है। उसीकी खातिर बरत उपास के ढोंग कर रहा है। जाति की बात तो पीछे याद आयी होगी। मुंशी को बारह मासा जुकाम रहता है, थूक दिया होगा।मुझ चोर की दाढी में तिनका क्यों? और वह कबूतरबाज लडक़ा, बेसींग पूंछ का सांड, मां बाप ही परेशान हैं। हां मिर्जा के चेलों की पतली कमरों में लोहे का छल्ला मैं ही पहनाऊंगी, हिजडा कहीं के।
चौथा दिन: हाय मुंशी जी तहमद बांधे हाथ में पानी का भरा डिब्बा लिये अरे ज्यादा दूर नहीं जा पाये नाली पर ही बैठ गये। मक्खियों ने हमला कर दिया, उठ गये। इन्हें भी दस्त लग गये? कान में जनेऊ और धोती खराब! बीमारी फैल रही है?
छन्नो के किवाडों पर दस्तक पडी। वह धीरे से गयी खटिया पर लेट गयी।
'' छन्नो! ओ छन्नो?''
रज्जो किवाडों पर आ गयी, '' कौन है? अम्मा की तबियत ठीक नहीं, डाक्टर के यहां ले जाना है।'' और कहकर किवाड ख़ोल दिये। दोनों पल्ले पकडे हुए बीच में जमी रही।
'' तो तू चल!''
'' मैंऽऽऽ!'' लडक़ी ने मिर्जा और राजपाल को ऐसे देखा जैसे उन्होंने कोई अनहोनी बात कह दी हो। जो रज्जो को छोटा कर रही हो।
बालूशाही का चेहरा छोटा हो गया। मुंशियानी अपमान और आफत की आग में जल रही थी। बालूसाही की बांह पकड क़र बोली, '' चलो यहां से। इस भंगिनिया के दरवाजे आ गये सो खुद को राजरानी समझ बैठी। तबियत खराब है रानी जी की। डॉक्टर को दिखाने जायेंगी।ओ हो। फेसन में रेसमी कपडे पहन लिये तो जात भी ऊंची हो गयी। काम से जी चुरा रही है। इस लडक़ी को पैज है। हमारी बीना जैसी चप्पल पहनती है, वैसी ही ले आई है। देख लो अब संडास कमाने के लच्छिन दिख रहे हैं इसमें? मां को लजा दिया रंडी ने।
रज्जो मुस्कुराई। आग में घी सा छोडती हुई बोली, '' मुंशियानी माई, चप्पल बीना जैसी और बाल कटाये हैं सीमा जैसे। पंडित जी की सीमा''
वे सब अभी गये नहीं थे कि रज्जो ने जल्दी अगरबत्तियां जला दी थीं और मुंशियानी की तरफ मुंह करके बोली, '' माई गली में तो बदबू के भपारे छूट रहे हैं। कोई कैसे रहे? मैं तो जुगंदर की दुकान से धूप बैसांदुर सब ले आई हूं। हाय कितनी बदबू। उसने नाक मूंद ली।
लोगों ने आंखों ही आंखों में इशारे किये। होठ बिदोरे।
मिर्जा बेगम बाग गये, मेहतर बस्ती में पुरानी पहचान के हवाले दिये। सोना भंगी की ननिहाल मिर्जा के गांव में है। सोना मिर्जा को मामा कहता है। राजपाल श्याम नगर के पीछे वाली बस्ती खंगाल आये। ज्यादा पैसे देने की पेशकश भी की। आने का आश्वासन भी दिया मेहतरानियों ने। विपता की बात काम निकाल देंगी। मुंशी जी का कबूतरबाज लडक़ा तीन रिक्शे लेकर वहां शाम तक खडा रहा कोई न आया।अंत में पेशकार के पास लोग गये। पंडित जी कान में जनेऊ लगाए और हाथ में पानी भरी प्लास्टिक की बोतल चलते - चलते इतना बोल गये- '' पिछली मोहब्बत का ही वास्ता दे यार। तूने तो जूठन की जगह पूरी - परोसा खिलाये हैं इससे ज्यादा कहने के लिये पंडित रुक नहीं पाये, पेट की मरोड ने हांक लगायी, पानी आंतों को छोडने की धमकी दे रहा था। लत्ते खराब हो जायेंगे।
सफाई के लिये कोई आया न गया।
सीता गली अपने वीभत्स और घिनौने रूप में पडी रही। अच्छी मुसीबत है इन मेहतरानियों का संगठन, टका से जवाब मिले। जिसकी गली है, वही करेगी। हां वह बेच देती, रेहन धर देती तो बात दूसरी थी।
मुंशियानी और पंडितानी की आंखों से लपटें छूटीं, '' यह दो टका की मेहतरानी हमें बेचेगी, गिरवी धरेगी।''
रज्जो खिलखिला कर हंस पडी और बोली, '' अम्मा तेरी मां बहनें बडे नाले पर चूतर ऊघाड क़र बैठी हैं। लाज - लिहाज चीर फाड फ़ेंका।''

बजरिया की ओर से आने वाले लोग दूसरी गली में होकर गुजरने लगे। रामघाट रोड की ओर जाने वाले रिक्शों ने इधर जाना छोड दिया।फेरी वाले भी कहीं गुम हो गये। दूध वाला नाक बांध कर आया था। आगे सफाई हो जाने पर ही आने की बात कह गया । अखबार ने मुंह नाक पर रूमाल बांधकर हाथ जोड लिये। बदबू हमले पर हमला कर रही थी। अगरबत्तियां पूरी ताकत लगाकर भी लड न पा रही थीं।गली के मुहाने पर पंसारी जुगंदर इतना मुनाफा काट चुका था। जितना उसे नौ दुर्गों और धार्मिक अनुष्ठानों के मौकों पर नहीं मिलता।बिक्री के कई रिकार्ड टूट गये।
गली मैले की नदी। छन्नो ने भी आंखें मींच लीं। पर कानों में रुई लगाने के बावजूद वह गली में उमडते रेले में छपाक छपाक चलती औरतों की आहट पा जाती। वे नाक और होंठ सिकोड कर भी छन्नो और अपने प्रेम के किस्से कहती जातीं
ऐसी थी कि जहान छुटे, गली न छुटे। क्या जाने किस सत्यानासी ने भरमाई है। कौन जाने किसने बुरी हवावात का मंतर मारा है।नहीं तो छन्नो
छन्नो का मन मोम की तरह पिघल आया। इधर उधर देखा रज्जो तो नहीं है, चुपके से डलिया उठा ली। रचपच कर राख बिछा रही थी डलिया में। खपरा धो पौंछ कर रखा था। खूब सूख गया है। झाडू भी पडी अकड ग़यी है।
रज्जो जंगली बिल्ली सी कूदी यकायक, हाथ पकड लिया, '' क्या कर रही है?''
'' काम।''
'' यह काम नहीं, हमारे मूंड पर धरा मैला है अम्मा।''
'' कैसी है तू? सिलाई के दम पर ऊल रही है।'' कौन देगा कपडा सिलने को?''
'' तू यह काम करेगी तो कोई नहीं देगा। बिलकुल न देगा अम्मा, सिलाई बहन जी कह रही थीं।''
'' जल में रहकर मगर से बैर?''
'' यह गली है। गली में हम भी रहते हैं वे भी। मुंशी का हरामी लडक़ा मेरा हाथ पकडेग़ा तो मैं हाथ काट डालूंगी। रंडी कहेगा तो मैं उसकी मां को दस बार रंडी कहूंगी। उसका बाप हरामी थूक रहा है, और तू उसके गू मूत उठा रही है। पंडित हमारे यहां आने के दुख में भूखा बरत कर रहा है। तू उसके हगने के इंतजार में देवता मना रही है?'' छन्नो के हाथ से रज्जो ने डलिया छीन कर एक ओर फेंक दी।सारी राख बिखर गई।
घर - घर सलाह मशवरा हुए। आगे की योजना बनी। उस योजना के तहत यह प्रस्ताव धरा गया कि म्यूनिस्पैल्टी के लोगों से बात की जाये। बडी ग़ाडी में बडी नालियों का कचरा भरने वाले लोग कुछ दिन संडासों का मैला भी ले जायें। गाडी क़ा जमादार बोला, '' ले जायेंगे,बिलकुल ले जायेंगे। आप अपने मैले को गाडी तक उठा लाओ।'' मिर्जा जी का मुंह ऐसा हो गया, जैसे कै करने वाले हों, '' ला हौल विला कूवत! ये दिन देखने के लिये शेर गजलों के खूबसूरत दरीचों में चहलकदमी करने के इरादे किये थे?''
'' मुश्किलें हद से गुजर गयीं। अब पुलिस का सहारा है।'' किसी के इतना कहते ही नये जवान लडक़े चौकी पर पहुंच गये। हवलदारों के गलों में गलबहियां डाल कर रात के मयखाने के लिये न्यौतते हुए गली तक चले आये। छन्नो के बन्द दरवाजे पर डंडा बजा। फिर बजा।एक बार और बजा। ठक ठा ठक।
रज्जो चौंक पडी। हौल दौल की मारी छन्नो किवाडों की झिरी से चिपक गयी।
'' पुलिस!'' छन्नो का मुंह रोया जैसा हो गया। आगे बोली, '' रज्जो तू क्या कराकर छोडेग़ी? और रह ले इस घर में, अब हवालात चल।''
रज्जो मां के पास आ गयी। गोरा गदबदा चेहरा लाल हो गया। '' क्यों चले हवालात में? हमने किसी की चोरी की है? अम्मा तू एक बार सिलाई वाली बहन जी से मिल ले, डरना भूल जायेगी।''
'' तू तो है सही शेरनी। अब कर मुकाबला। द्वार पर डंडा लिये खडा है तेरा खसम।''
सोचने समझने का मौका न था। रज्जो आगे बढी और किवाडें ख़ोल दीं।
'' तो ये है।'' सिपाही ने डंडा हथेली पर घिसा।
'' पब्लिक को परेशान कर रही है साली मेहतरानी। अभी हवालात में बन्द कर दूंगा।'' रज्जो के पीछे छन्नो खडी थी। अनजाने ही हाथ जोडे हुए।
'' बोल कुछ कहना है?'' सिपाही की बात पर छन्नो के होंठ थरथरा कर रह गये। रज्जो ने झटके के साथ दुपट्टा गले में डाला और बोलने लगी, '' बस इतना कहना है सिपाही जी कि हमें ले चलो और कम से कम सात दिन के लिये कैद कर लो। इन नासियों के गले तक गू की गंगा इतने दिनों में बेशक आ जायेगी।''
मुंहजोर लडक़ी!
मिर्जा, राजपाल, पंडित यहां तक कि उमेश भी दांतो तले उंगली दबा कर रह गये। वे सब आपस में बगलें झांकने लगे कि कन्नी काटने लगे? तितर बितर हो गये। सिपाही लोग भी जल्दी से जल्दी मामला निपटा कर यहां से छुटकारा पाना चाहते थे। उनमें से एक ने कहा - '' ठीक है, इस आफत की जड क़ो बन्द रखेंगे, गली में अमन चैन हो जायेगा।साली जब से यहां आई है धमा चौकडी मचा रही है।डलिया संडास भूल लोगों के कपडे लत्ते देख रही है। उन्हीं की तरह रहन सहन बनाने में जुटी है। अब संडास कमाना कहां सुहा रहा होगा? '' कह कर सिपाही छन्नो की ओर बढा।
बंदर की मिर्जा जी बीच में आ कूदे, '' अरे रे! ऐसा अनर्थ न करना। जैसी भी है, हमारी कामगर है। कामगर ही नहीं, हमारी हितचिंतक है। गली का मामला है हवलदार साहब और गली के सुख दुख को छन्नो से ज्यादा कोई समझेगा भी नहीं। छोटी से यहां बडी हुई है।''
राजपाल सिंह का पहलवानी बदन आजकल मुरझाया हुआ था। टट्टी फिरने के डर से दंड नहीं पेले। दौड नहीं लगायी। छन्नो से आंखों ही आंखों में अरज की कि तू रूठ गयी है, हम मनाने आये हैं। याद कर रज्जो की छोछक देने हमीं गये थे। और वे फिर स्पष्ट आवाज में बोले '' हवलदार साहब इसमें आपकी पुलिस क्या करेगी? सरकारी मामला तो है नहीं जो सरकारी तौर पर सुलट जाये। और काहे का मामला। छन्नो क्या गैर है? चल छन्नो काम पर आ जा।''
मगर छन्नो बुत की तरह चुपचाप खडी थी। मनाने वालों पर कितना भरोसा करे? जिन्होंने पुलिस के हवाले कर दिया वे कितने हितू हैं?पत्थर मारने वाले कितने रहमदिल हैं? मेरे हाथों पर हगा, वे कितने शुभचिंतक हैं और रज्जो को रंडी बनाया, वे कितने रक्षक हैं? थोडे दिन इनकी भी तो आजमाइश हो जाये, या मुझे ही घिसते रहेंगे।
फिर अब तो मेहतर बस्तियों में भी पंचायत हो गयी है कि कोई धौंस देकर हमसे यह काम नहीं करवा सकता। सीतागली छन्नो की है,उस पर छन्नो का ही हक है, यह भी मुनादी हो गयी।

अदावतों की अपनी शर्तें होती हैं। नफरतों के अपने दांव खिडक़ी पर मिट्टी का तेल छिडक़ कर किसी ने आग लगा दी। छन्नो हडबडा कर उठी। रज्जो ने देखा तो मुंह से निकला - आग , आग, आग। लडक़ी लपकी। घर में जितना भी पानी भरा रका था, घडे बाल्टी, ड्रम सब के सब आग पर उंडेल दिये। मौत के डर से मां बेटी हांफ रहीं थीं। धुंआ गली में फैल गया। पंडित जी की आवाज आई - ओम शांति,पाप शांति
जरूर किसी देवता का प्रताप है। कलजुग की आग बरसे और देवता का उदय न हो? पंडित जी को कितना तडपाया है। मुंशी और मुंशियानी की आत्मा सताई है। मजाक है? इस पापिन का घर तो खुद ही खाक हो जायेगा। सरग में थूक रही है।
देखो बस खिडक़ी ही जल कर रह गयी। भगवान की चेतावनी।
'' छन्नो! ओ छन्नो! अरी क्या हुआ? कैसे हुआ?''
'' कौन बुला रहा है? मिर्जा जी, बडा चालबाज आदमी है।''
उमेश कहने लगे, '' बेकार का बबाल मचा रखा है, जल जाती तो? उसे खदेडना ही है तो साफ कहो। वैसे क्या ले रही है किसी का?''
बालूशाही आगबबूला हो गया, '' तुम नहीं बोल रहे उमेश। तुम्हारी अपनी सुगड बडाई बोल रही ही कि हरिजन लोग तुम्हें मसीहा मानें।''
छन्नो सबको रोई हुई नजरों से देख रही थी। युध्दकाल में हारे हुए सिपाही की सी लोग चले गये। खिडक़ी एकदम काली हो गयी और आधारहीन भी।रज्जो ने गली की ओर पटक दी। छन्नो धरती पर बैठी थी। अपनी डलिया, अपना खपरा और अपनी झाडू निहारती सी ।रज्जो ने उसका मुंह अपनी ओर कर लिया, '' अम्मा मैं सिलाई वाली बहन जी के संग बाल्मीकि समाज में जाऊंगी। बता दूंगी एक एक बात। सूरज भाई अपने आप निपट लेंगे।''
रज्जो के क्रूर होंठ और निर्मम आंखें देखकर छन्नो ने बस हाथ जोड दिये और बोली, '' बेटी अब और ज्यादा दुश्मनी मेरे बस की नहीं''
रज्जो ने मां का कन्धा थाम लिया।
छन्नो रुंधे गले से बोली, '' अब तू सिलाई सीखने नहीं जायेगी। उन लोगों का रहन - सहन दूसरा है। और तू वही सीखती जा
रही है।''
रज्जो जिद की पक्की, गोरा मुंह लाल हो गया। नाक तन गई, '' अम्मा मैं जाऊंगी, अभी जाऊंगी। ये लोग हमें यहां रहने क्यों नहीं देते?अब कहां है पुलिस?''

घर में आग लगने के बाद रज्जो डलिया - खपरा को कूडे वाली गाडी में फेंकने चली गयी।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन चौथा दिन बीतने को आ गया।
रज्जो नहा रही थी। छन्नो आंगन में अकेली बैठी थी। गली का हाल फिर बिगड ग़या। उसके मन में रह रह कर हिलोर उठती। अपने ऊपर बहुत काबू किया फिर भी गली में झांकने का मन कर आया। बारिश हो गयी थी। चिपचिपाहट में गली आगे कुछ सोच नहीं पायी वह। किवाडों की झिरियों पर आंखें गड-ग़डा कर देखा - पंडित जी के घर का द्वार खुला था। वे बार बार संडास की ओर जाते आते हैं।भीतर अनकही सी खुशी सी भी जगी और टीस भी उठी। काम छूट रहा है। देर तक देखती रही। उसका भरम ही था कि सीतागली के सीने में इंसानी प्यार धडक़ता है। चीजों के लेन देन और मीठी बोली बानी को ही प्यार के दर्जे पर समझती रही। आज अपने भीतर होती प्यार की दबदबाहट भी कहीं अंधेरे में खो गयी।
अब तो केवल हमले, गालियां और आग के तोहफे उसके लिये यहां रह गये हैम्। तो उसकी ओर से चार पांच दिनों के जुडे टट्टी पेशाब के रेलों की सौगात गली में फैली है। कैसा चेहरा कर दिया है सीता गली का कि किसी को भी दहशत हो। किसी को भी घिन आये।रहस्यमय खामोशी छायी है, सोमवार का दिन, छुट्टी का दिन नहीं मगर पेशकार कचेहरी नहीं गये। मुंशी अपने दफ्तर नहीं पहुंचे, मिर्जा अपने चेलों को शेर गजल के शारीरिक अभ्यास कराने की जगह नाक और मुंह पर कपडा बांधे बैठे हैं। डम्बर प्रसाद मैले के रेले में बढाेतरी कर रहे हैं। अब तक उन्होंने छन्नो के आने पर अन्न - पानी का तिरस्कार किया था अब अन्न पानी ने उनके पेट का बहिष्कार कर डाला। दस्त हो गये और संडास में जगह नहीं
धीमा सा शोर उठा। छन्नो की छाती में दहशत गडग़डाई। पुराने जख्म हरे होने लगे। लोगों की धीमी आवाजें क़ानों को हुल्लड क़ी तरह फोडने लगीं। किवाडों पर दस्तक हुई। छन्नो ने झिरी से देखा। मिर्जा तहमद ऊपर उठाये गंदगी के बहते रेले में पांव लिथेडे ख़डे हैं। साथ में मुंशी भी उसी दशा में। पीछे कौन, उससे देखा नहीं गया। ये बिन बुलाये मेहमान मन में खलबली अब क्या इरादा है?
'' छन्नो दरवाजा खोल दे।'' बडी ही नरम आवाज? ये कपट बोल कानों में जहरीला सीसा उतर गया।
'' छन्नो !'' मीठी चाशनी में लिपटा नाम। वह खडी रही कुछ देर। लेकिन बाहर उमेश खडे थे। द्वार खोल दिया। समझ गयी कि लोग उमेश को तुरप बना कर लाये हैं। क्या कहे, मगज में आग का गोला है, चक्कर काट रहा है। उस गोले से छन्नो और रज्जो दोनों गुंथी हैं। उसकी आंखें कितना रोई हैं। मिर्जा क्या जाने? मुंशी को क्या पता? वह मिर्जा की बोली सुन रही है,
'' छन्नो, साले तीनों लोंडों को कस दिया है। रोज रोज का बबाल बहन बेटियों कीओर आंख भी उठाई तो पुतलियां निकाल लूंगा। गली वालों को मैं कबीर और रैदास की मिसालें देता हूं। तू गली वालों को माफी दे। मुंशी जी ये खडे हैं। तेरे सामने। जो सजा देना चाहे, इनके लोंडे को। साले की नादानी ऐसे ही है जैसे सरसों की लकडी क़ी आग, अभी जली, अभी बुझी। अब देखते हैं कि तेरे खिलाफ
छन्नो जैसे बिना टूट फूट के साबुत खडी हो
रज्जो कह रही थी, '' अम्मा उमेश भाईसाहब के घर से सुरेखा भाभी ने चुपके से अखबार फेंका। मैं ने धीरे धीरे अक्षर उखाडक़र पढ लिया - अखबारों में इस गली की चर्चा है। अब रोग फैलने वाले हैं। अफसर चिन्ता कर रहे हैं। यहां की बात कहां फैल गयी। सारे मेहतर एक हो गये हैं। अब यहां कहीं से कोई नहीं आने वाला।''
छन्नो क्या सुन रही है, यह क्या हो गया? उसने कहां सोचा था कि ऐसा बम फटेगा? बेचारे मिर्जा माफी पर उतर आये। और वह कुछ नरम पड ग़यी।
सार्वजनिक रूप से गली में चैन था, अमन था। पहले जैसी हालत नहीं कि जब घबरा कर छन्नो कुसुमी की अम्मा के पास भागी गयी थी। कुसुमी की अम्मा दूसरे शहर में बैठी उसके जरिये अपने पुराने बैरियों से बदला ले रही है। वह समझ चुकी थी। छन्नो ने टूटते हुए कहा था, '' अम्मा उस घर को वापिस ले लो, हमें वहां कोई नहीं रहने देता।''
बूढी क़ी आंखें निकल आईं, '' हाय छन्नो, तू कैसी मेहतरानी है री? मैं तो थी बूढी निबल। पर तू जवान जहान भी हारी हारी बातें करती है। तू चाहे तो भडुओं को नंगा कर दे। माना कि तेरे पइसा वापस कर दूं, घर फिर कुसुमी के नाम करा लूं। पर उससे बात तो बनती?मुझे उन हत्यारों ने कमजोर मान कर सताया और घर हडपना चाहा, तुझ पर तोहमत है मेहतरानी होने की। कैसे अच्छे होशियार लोग हैं, मकान जैसी संपत्ति पर न तेरा हक चाहें न मेरा। पर इतना सुन ले तू, बाजों के डर से चिडिया अंडा देना छोड दे तो चिडिया की नसल खत्म हो जाये। तू तो इंसान की बेटी है।'' ताल ठोकू बुढिम्या रोक रही थी कि आंखों ही आंखों में सहारा देते उमेश रोक रहे थे?कभी कभी अकेले में पेशकार आता और उसकी पीठ थपथपाकर यहीं ठहरे रहने की कसम दे जाता। बाहरी और भीतरी तौर पर अलग - अलग चेहरे! क्या इन्हीं लोगों के दम पर डटी है वह? या रज्जो की जिद पहाड सी अडी है? शायद अपनी ही कोई दबी छिपी लालसा बरजोर हो उठी।
रूठते मनते, काम छोडते, काम करते दो महीने बीत गये।
अब गली चौकन्नी थी। गुप्त रूप से एक बैठक और हुई, जिसमें वे लोग छांट दिये गये जो अब तक छन्नो के वफादार साबित हुए। उमेश को कानो कान खबर नहीं हुई। पेशकार को भी नहीं बुलाया गया। सर्व सम्मति से जो बात तय हुई वह किसी पर जाहिर तक न की गई।जो करना था किया देखने वाले देखकर समझ जायेंगे।
एक सांझ मुंशी जी घर से विचित्र सी आवाजें उभरी। धरती को काटने जैसी धमक। छन्नो ने छत पर चढम्कर देखना चाहा, लेकिन कुछ दिखा नहीं।
सांझ से लेकर रात, रात से लेकर आधी रात मिट्टी और लोहे की आपसी मुठभेड क़ानों से होकर गुजरती रही। वह मुंशी जी की पौरी में ही हाजिर हो जैसे। शंका का जहरीला सांप उठता और सीने पर लहराने लगता।
वह घबराकर उठ बैठी। लगा कि सपना देखा है। एक लाश को कई गिध्द नोचने खाने के लिये उतावले हैं। छन्नो ने लपक कर बल्ब जला दिया। रज्जो भी जाग पडी।
'' क्या हुआ अम्मां?'' अपने कपडे ठीक करती हुई वह मां के पास आ बैठी। उसने बेटी को गौर से देखा, ऊंघी हुई दशहत खाई कबूतरी सी कपडे ठीक करने के बहाने हाथ पांव फडफ़डा रही है।
किससे पूछे कि अब कि माजरा क्या है?
किससे दरियाफ्त करे कि छन्नो के मन में शंका जो थी, नागिन सी लहरा रही है। वह डस तो न जायेगी?
आंखों में रात कटी।धुंध के रूप में सवेरा हुआ। गली में उजाला कहां से हो? सब्र चती से धुंए सा घुमडता रहा। छन्नो ने धडक़ते दिल से डलिया में राख बिछा ली। धुली हुई झाडू और साफ सूखे खपरे को उसमें सजा लिया। तिल - तिल घडी क़ाटने के बाद काम का समय हुआ।
वह जल्दी जल्दी अपना सामान लेकर बदहवास सी घर से निकली। सबसे पहले आज मुंशी जी का घर। घुसते ही पौरी में ताजा गङ्ढा कुंएनुमा। मिट्टी के गीले ढेर पर बैठा एक मजदूर बीडी पी रहा था।
''भइया यह पौरी क्यों खोद डाली?''
'' टेंक बन रहा है।''
'' टेंक?''
'' अंगरेजी संडास बनेगा। तुम जैसों की छुट्टी।''
छन्नो गूंगी बहरी हो गयी। मुंशी जी का घर अनपहचाना सा भीतर चीख सी उठने लगी। अच्छा तो इस तरह मुझे खारिज मत छीनो, मेरे संडास मेरी जिन्दगी हैं। मुझसे इन्हें अलग मत करो। यह गङ्ढा यहां से उठकर मेरे पेट में समा जायेगा। चुप्पी भरे चेहरे पर खौफ उतर आया। अंग अंग हिचकियां - सुबकियां ले रहा है। बांहों में दबी डलिया थरथराई। खपरा कांपा, झाडू लडख़डाई।
तभी सामने मुंशी जी का कबूतरबाज लडक़ा प्रकट हुआ। कुर्ता और लुंगी पहने हुए। अंगडाई लेता हुआझूलता सा बोला,
'' बोल छन्नो क्या हाल हैं तेरी कबूतरी के?''
मन कमजोर हो गया था, लगा इस आवारा कबूतरबाज के पांव पकड ले और पूछे, '' इतनी बडी सजा क्यों?'' मगर सारा गुस्सा आंखों में जमा हो गया, वह अपने आंसू छिपा गयी। मुंह फेर कर संडास की ओर चल दी। झाडू और खपरे के साथ बदन की सारी ताकत लगा कर संडास से मैले को खींच लिया। डलिया मैले से भरी डलिया छन्नो एकटक घूर रही थी।

आदमी मेहनत करता है, तरह तरह की चालबाजियां - चालाकियां करता है। बेइमानियों से गुजरता है। ज्यादा से ज्यादा कमाता है। अच्छे से अच्छा भोजन जुटाता है। तरह - तरह के स्वाद मीठे - खट्टे रस खुश्बूओं से भरपूर व्यंजन। लेकिन अंत में यह डलिया भरा मैला रसों - गंधों का यह रूप रह जाता है कि जिसे छूने देखने से भी आदमी घबरा जाये। आदमी की सुगढ देह बलवान शरीर भी तो ऐसे ही मिट्टी हो जाता है एक दिन जिसे छूने से लोग डरें। गहरी सांस लेती हुई छन्नो ने डलिया कमर पर लाद ली और आगे बढ ग़यी।
अब आश्चर्यजनक रूप से गली में न सुस्ती थी न खटास। छन्नो घर घर कमाने गयी। सब हंस हंस कर बोले। रज्जो के हाल चाल पूछे।डंबर प्रसाद के दोनों किबाड ख़ुले रहने लगे।
मगर छन्नो का दिल डूब रहा था।
देखते ही देखते गली भर की पौरियों में गङ्ढे खुदने लगे। लोहे और मिट्टी की मुठभेड ने रातों की नींद दिन का चैन हर लिया। सैप्टिक टैंक बन गये, हर घर का संडास फ्लश की लैट्रिन में तब्दील हो गया।
छन्नो समझ चुकी थी, अब उसका काम खत्म हुआ। फिलहाल उसकी रगों में उठती गुस्सेवर तरंग उसे पसीने में गर्क किये दे रही थी।नजरों में बेटी की सूरत हांफने लगी। यह कडुआ फल छन्नो का खून मथ डाला गली ने। हाथ पांव बांध दिये। अब एक दिन सचमुच ही खदेड दिया जायेगा। लोग सफेद संगमरमरी कमोडों को शौक से धो रहे हैं। साबुन फिनाइल डाल कर प्लास्टिक के ब्रशों से रगड रहे हैं,नहीं बहती तो हाथ और झांवें से रगडने में भी गुरेज नहीं।
हाय, कमोड रुकने पर मुंशी जी कपडे उतार कर खाली अंडरवियर पहने सैप्टिक टैंक में उतर गये। अपना काम दूसरा कौन करने आयेगा?छन्नो चीखकर रज्जो से बोली, '' गली की ओर से दरवाजा बन्द कर ले।'' उसका वजूद औंध गया। धंधा अंग्रेजी संडासों में बह गया। देह लस्त - पस्त बीमारी लगी है शरीर में। सिरदर्द से परेशान है। मगज में कोई रसौली सी लौंकती है।कभी बीमार न होने वाली छन्नो खटिया पर पडे पडे अपनी फडफ़डाती रूह उदासी के हवाले कर दी।
मगर सपने हैं कि पीछा नहीं छोड रहे। झपकी सी ही लगी थी, आंखों के आगे डलिया ही डलिया, खपरे और झाडू। इस सबके सिवा जीवन में जैसे कुछ हो ही नहीं।
'' अम्मा!''
रज्जो पास आ गयी। दवा लाई है रज्जो। अपनी बांह के सहारे मां को उठाया और पानी के साथ गोली खिला दी। सिर दबाने लगी। दबाते - दबाते मुस्करा पडी - '' अब सिर क्यों दुखता है अम्मा? बोझ तो उतर गया। कितना अच्छा हुआ। अब तो हमें मैला साफ करने कोई नहीं बुलायेगा। कितना अच्छा हुआ। हुआ न?''
छन्नो तय नहीं कर पा रही कि बेटी की मुस्कुराहट के जवाब में मुस्कराये या मुंह फेर ले।
मैत्रेयी पुष्पा
नवम्बर 12,2004

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