Saturday, December 19, 2009

दूसरा रूख

दूसरा रूख
चित्रकार दोस्त ने भेंट स्वरूप एक तस्वीर दी। आवरध हटा कर देखा तो निहायत खुशी हुई। तस्वीर भारत माता की थी। मां सी सुंदर भोली सूरत अधरों पर मुस्कान क़घ्ठ में सुशोभित आभुषण मस्तक को और ऊंचा करता हुआ मुकुट व हाथ में तिरंगा।
मैं लगातार उस तस्वीर को देखने लगा। तभी क्या देखता हूं कि तस्वीर में से एक और औरत निकली।
अधेड उम्र अर्स्तव्यस्त दशा आंखों से छलकते आंसू। उसके शरीर पर काफी घाव थे। कुछ ताज़े क़ुछ घावों के निशान। मैंने पूछा तुम कौन हो?
बोली मैं तुम्हारी मां हूं भारत मां।
मैंने हैरत से पूछा भारत मां पर - तुम्हारी ये दशा? चित्रकार मित्र ने तो कुछ और ही तस्वीर दिखाई थी तुम्हारी? तुमहारा मुकुट कहां है? तुम्हारे ये बेतरतीब बिखरे केश मुकुट विहीन मस्तक और फटे हुए वस्त्र? नहीं तुम भारत माता नहीं हो?' मैंने अविश्वास प्रकट किया।
कहने लगी तुम ठीक कहते हो। चित्रकार की कल्पना भी अनुचित नहीं है। पहले तो मैं बन्दी थी पर बन्धन से तो छूट गई। अब विडम्बना क़ि घावग्रस्त हूं। कुछ घाव गैरों ने दिए तो कुछ अपने ही बच्चों ने। और रही बात मेरे मुकुट और ज़ेवरात की वो कुछ विदेशियों ने लूट लिए और कुछ कुपूतों ने बेच खाए। रो रही हूं सैकडों वर्षो से रो रही हूं। पहले गैरों पर व बंधन पर रोती थी। अब अपनों की आज़ादी की दुर्दशा पर।
उसकी बात सच लगने लगी। तस्वीर का दूसरा रूख देख मेरी खुशी धीरे धीरे खत्म होने लगी और आंख में पानी बन छलक उठी।
रोहित कुमार, न्यूजीलैंड
अगस्त 10, 2000
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