Saturday, December 19, 2009

खेद का एक रेशा

खेद का एक रेशा

सारे दरवाजे बन्द कर, धडक़ते दिल से उसने फिर वह नम्बर डायल किया जो उसके अवचेतन, दिलो- दिमाग, उंगलियों को यूं रटा था पूरे एक साल से, मानो कोई शरीर की सहज क्रिया हो डायल करना, मसलन सांस लेना, पलकें झपकाना। उसे पता था न उधर से कोई उठायेगा, न ही तीन रिंग देने पर कोई फिर से कॉल करेगा।
जिस कोई का नम्बर उसे अवचेतन तक में रटा पडा है वह तमाम उलझनों, विवादों से डर कर फूट लिया है या वह विश्वसनीय था ही नहीं,एक झूठ और भ्रम से लथपथ खुशनुमा सम्मोहन था जो उसके जीवन में तूफान उठा, ध्वस्त छोड एकाएक गायब हो गया है।
पिछले चार महीनों से कोई भी तो नहीं उठाता वह झूठ - मूठ ही एक आवाज सुनती आ रही है धीमे से भर्राया हुआ सा ''हलो!'' और स्वयं शिकायत करती है, '' थे कहाँ तुम? उठाया क्यों नहीं?'' उसे उम्मीद है कि वह कहेगा, '' अरे, था कहाँ यहाँ मैं।'' या '' जब भी तुम्हारी रिंग आई तब दोस्त बैठे होते थे, हम साथ पढते हैं न।'' बाथरूम में होऊंगा।'' या कोई और रंगीन झूठ भरी बात जिसे जानते बूझते वह सच मानने का ढोंग किया करती थी।
शुरु से तो वह जानती थी कि यह जो छोटा सा अनाकर्षक मगर भला सा चेहरा है, वह सच नहीं एक घुटा हुआ साईकियाट्रिस्ट है, उसे पता है, विवाहित महिलाओं की ग्रंथियां, मन की जरूरतें।

हद है अच्छाई भी किसी का हथियार हो सकती है! बेइन्तहा अच्छाई.... अं ऽऽशायद यही बेइन्तहाई ही संदिग्ध हो जाती है। वरना कैसे कोई एक लम्बे समय तक बिना उकताए, बिना झुंझलाए तरह तरह से, बल्कि हर तरह से सहायता करने को खडा रह सकता है। बिना कुछ वापस चाहे। अपने तक उकता जाते हैं , यह तो पराया है, नितान्त अजनबी बस एक कॉमन फ्रेण्ड का परिचित होने की वजह से बेटे के इलाज में लगातार एक महीने तक अपनी ओर से हर तरह की सहायता करता रहा है। वह भी इस अफरा तफरी से भरे सरकारी अस्पताल में।

उसके लिये कितनी घातक हो गई यही अच्छाई। बन्दा अच्छा मनोविज्ञान का ज्ञाता रहा है। आखिर साईकाइट्री में एम डी कर रहा है। यूं भी स्पिन्स्टर नर्सों के लम्बे समय की झेली यौन अतृप्तियों, दो बच्चों की मांओं की लम्बे समय तक प्रेमव्यापार में उपेक्षित हो आई जिन्दगी के अवचेतन को खूब करीब से देखा भाल लेते हैं, ये डॉक्टर । तन के साथ साथ मन की नब्ज पकडना सीख जाते हैं।

जानते बूझते भी अपनी तमाम ग्रंथियों को खुलवाने - सहलवाने उसके पास आई थी, न ऽ न वह कब आई? बल्कि उसीने पीछे से आवाज देकर पुकारा था।
''बहुत अकेली लगीं मुझे आप।''
''नहीं तो।''
''इस सुन्दर हंसी में उदासी है।''
''कितना लकी होगा वह इडियट।''
''कौन? ''
''जो भी आपका लाईफ पार्टनर है।''
''ऐसा कुछ नहीं।''
''आप तो लगती ही नहीं मैरिड और दो बच्चों की माँ। आज भी आप जिस पुरुष के पास से गुजर जायें, उसका वोल्टामीटर खटाक से हाई रीडिंग देने लगेगा। इजीप्शियन ममीज क़ी तरह कौनसा लेप लगा कर उम्र का पैंतीसवां साल गुजार लिया। लगती तो पच्चीस की हो।''
''रहने दो फ्लैटरिंग... '' वह हंसी थी।
''इसी फोन पर सिहरते हुए वह बोला था.... क्या इसे ही प्यार व्यार.... ''
''चुप रहो, तुम अपनी एम डी पूरी करो। यह सब... ''
पूरे छ: महीनों लगातार फोन कर उसकी गृहस्थी की भारी जमी हुई नींव हिला डाली थी। कितने महीनों घर में तनाव रहा। सप्तपदी का मजबूत बंधन ढीला सा हो गया था। लेकिन वो तो कितना सीधा सीधा? न नहीं? यही सिधाई जाल थी और वह उलझ गई उसमें। उसके पोले मन की थाह थी उसे सो चूहे की तरह धीरे धीरे बिल बना गया। कई दिनों तक कुतर कुतर लगा रहा।

इतनी गुस्ताखियां कर लेने के बाद, आज यही फोन चुप है।

पहली बार डायल करने पर टूंऽऽऽऽऽ की लम्बी ध्वनि आई। उसने फिर डायल किया तो खरखराती सी गंवई उच्चारण वाली मादा आवाज ग़ूंजी '' द नम्बर यू हैव डायल्ड डज नॉट एक्जिस्ट, डायल किया गया नम्बर उपलब्ध नहीं है।'' तीसरी बार फिर वही - '' द नम्बर यू हैव डायल्ड डज नॉट एक्जिस्ट,डायल किया गया नम्बर अस्तित्व में नहीं है।'' एक पल वह संज्ञाशून्य हो गई जब उसे मामला समझ आया तो न जाने क्यों सबसे पहले उसने मुस्कुरा कर चैन की सांस ली। चलो अच्छा ही हुआ। आज यह सम्पर्क सूत्र छूट गया। अब मोह नहीं खींचेगा। अब वह आराम से इस नम्बर की एक्जिस्टेन्स अवचेतन से भी हटा सकेगी। अब जब यह नम्बर है ही नहीं तो क्या... अब कम अज क़म रोज - रोज सुबह की उत्तेजना, एकान्त होते ही फोन उठाने की कुलबुलाहट तो नहीं होगी। फालतू की रोजाना की एंग्जायटी! अच्छा हुआ खो गया अब यह आखिरी सूत्र भी मुझसे। वह फिर नम गीले हाथों से अपनी गृहस्थी की नींव जमाएगी।
गुनगुनाते हुए वह घर के कामों में लग गई अचानक रसोई की खिडक़ी से कहीं से गूंजती तैरती उस दौरान बहुत बार गुनगुनाई गई गज़ल की अस्पष्ट धुन से उसकी रुलाई फूट पडी। एक दर्द सा मन के किसी पके फोडे में से मवाद सा बह रहा था। वह सोच रही थी, हां कहा तो था उसने कि जुलाई अन्त तक रिजल्ट आते ही वह ऑस्ट्रेलिया चला जायेगा। अब वह स्वस्थ व प्रसन्न थी। एक दर्द से पका फोडा फूट कर बह गया था, अब वहां कोई निशान तक न था उसके होने का।
बहुत खुश थी वह, पर कहीं मन में एक खेद का रेशा अटका पडा था, वह उसे निकालने की जद्दोजहद में वैसे ही परेशान थी जैसे दांत में फंसे रेशे को निकालने में जीभ घण्टों परेशान रहती है, बार बार दांत के उसी कोने को छेडती है। जब बहुत हो गया तो उसने प्रयत्न छोड दिया, उसे पता था जल्द ही वह भी अपने आप निकल जायेगा!
– मनीषा कुलश्रेष्ठ
फरवरी 12, 2003

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