Saturday, December 19, 2009

ज़ुबान का रस

बच्चों! पहले जमाने में सभ्य आचरण सिखाने के लिए लोक-कथाओं की बहुत महत्ता थी। साधारण समय था और साधारण ही मनोरंजन के ढंग थे, सो समाज के बडे-बूढे अपनी कहानियों द्वारा ही बहुत सी शिक्षा नई पीढी क़ो दे जाते थे। एक ऐसी ही कहानी मेरे ताया जी हम बच्चों को सुनाया करते थे जो कि मैं सबके साथ सांझी करना चाहता हूं।





बहुत पहले की बात है कि एक पथिक कहीं दूर यात्रा पर जा रहा था। सुबह का घर सेनिकला था, कभी रुक कर विश्राम कर लेता और फिर चल देता। कहीं कोई बैलगाडी वाला मिल जाता तो उसके साथ थोडा रास्ता काट देताऔर डगर अलग होते ही फिर से पैदल चल देता। यूँ ही चलते-चलते अब सांझ होने को आई थी। वह अब तक थक भी चुका था। उस ने सोचा कि जैसे ही अगले गाँव में कहीं ठहरने का ठिकाना मिलेगा तो वहीं रुक कर रात काट लेगा।
शीघ्र ही वो अगले गांव में जा पहुंचाऔर कहीं सराय या धर्मशाला ढूँढने लगा, परन्तु उसे कुछ भी नहीं मिला क्योंकि यह गाँव बहुत छोटा था और छोटे गांवों में यह सब मिलना कठिन ही होता है। अन्त में उसने हताश होकर एक घर का दरवाजा खटखटाया। एक बूढी महिला ने किवाड ख़ोला और वह हैरान होकर पथिक की तरफ़ देखने लगी कि यह कौन है। पथिक ने जब सामने एक बूढी औरत को देखा तो उसने बडी शालीनता से उसे प्रणाम किया और बोला-
'' माँ, मैं एक पथिक हूं और बहुत दूर जा रहा हूँ । चलते चलते संध्या होने को आई है और थक भी बहुत चुका हूं। कहीं पर रात भर रुकने का ठिकाना ढूंढ रहा हूं। कहीं भी कुछ मिल ही नहीं रहा। क्या आप मुझे कहीं का पता बताएंगी जहां पर मैं रात्रि भर विश्राम कर सकूँ । ''
''बेटा इस गांव में तो ऐसी कोई भी जगह नहीं है। '' बूढी माँ ने उत्तर दिया। और मन ही मन में उसने सोचा कि कैसा शीलयुक्त नवयुवक है। इसके बोलने में कितनी मिठास है और इसके आचरण में कितनी अच्छी सभ्यता की झलक है। जरूर यह किसी सभ्य परिवार का ही होगा। वैसे भी उन दिनों किसी पथिक की सहायता करना अच्छा समझा जाता था।
''बेटा तुम मेरे घर में क्यों रात नहीं काट लेते। सुबह होते ही अपने पथ पर चल देना।''
''माँ मैं यहाँ रुक तो जाँऊगा अगर आपको कोई कठिनाई न हो तो।'' पथिक मन ही मन प्रसन्न हुआ कि यह समस्या तो हल हुई।
''ऐसी भी क्या कठिनाई। तुम हम बूढों के आगे तो तुम बच्चे ही हो। भला अपने बच्चों की मदद करने में कोई कठिनाई होती है क्या।'' बूढी माँ पथिक की जुबान में घुली मिश्री से गद्गद् हो रही थी। '' मैं आंगनमें चारपाई डाल देती हूँ। तुम हाथ मुँह धो लो तो कुछ जल-पान भी कर लेना। '' बूढी माँ ने कहा।
''जी अच्छा'' पथिक प्रसन्न था। उसने आंगनमें कुएं से पानी निकाला और हाथ मुँह धोया। तभी उसकी नजर घर के पिछले आंगन में पडी। उसने एक छोटे से दरवाजे से देखा कि एक सुन्दर सी गाय पिछले आंगन में खूंटे से बंधी है। उसके मन में आया कि कितना अच्छा हो अगर एक गिलास गर्मा-गर्म दूध पीने को मिल जाए। दूध माँगना उसे अच्छा भी नहीं लग रहा था परन्तु उस से रहा भी नहीं जा रहा था।
'' माँ तुम्हारी गाय तो बहुत दुधारू लग रही है। इस बार बछडा हुआ कि बछडी। '' उसने बातचीत छेडते हुए कहा। बूढी माँ भी उसके मन की इच्छा जान गयी। उसने कहा-
'' अभी इसी गाय का दूध तो तुम्हें देने जा रही हूँ ।'' यह कहते हुए उसने एक गिलास दूध पथिक के हाथ में थमा दिया।
पथिक बहुत प्रसन्न था कि उसकी तो हर इच्छा पूरी होती जा रही थी। थोडी देर बाद माँ ने खाना पकाया और बाद में मिष्ठान के लिए खीर भी बनाई। उसने पथिक को रसोईघर में खाना परोस दिया। जैसे-जैसे पथिक का पेट भरता गया वो लापरवाह होता गया। उसके विचार इधर उधर भटकने लगे। वो सोचने लगा कि बुढिया के घर के पिछले आंगनमें जाने का रास्ता तो बस एक ही है वो इस छोटे से दरवाजे से। यह गाय पिछले आंगन तक पहुँची कैसै? यह बात बार-बार उसके दिमाग में घूमने लगी। वो खाना खाता गया और सोचता गया।
जब लगभग भोजन पूरा कर चुका और बूढी माँ उसे खीर परोसने लगी, उससे रहा न गया। वह बिना सोचे समझे बोल उठा।
'' माँ तुम्हारी गाय तो खा पी कर खूब मोटी हो चुकी है, अगर यह मर जाए तो तुम इसको बाहर कैसे निकालोगी। ''
बूढी माँ तो हतप्रभ रह गई, यह कैसा व्यक्ति है? मैंने इसे रहने का सहारा दिया, इसके लिए फिर से भोजन पकाया, इसे गाय का दूध पिलाया और अब इसे खीर परोसने जा रही हूं, और यह उसी गाय के लिए ऐसा बुरा सोच रहा है। बूढी माँ ने क्रोध में आकर खीर का कटोरा पथिक के सर पर पलट दिया।
''कैसे असभ्य पुरुष हो, जिस थाली में खाते हो उसी में छेद कर रहे हो। जिस गाय का दूध तुम पी चुको हो और खीर खाने जा रहे हो उसी का बुरा सोच रहे हो। निकल जाओ मेरे घर से। मेरे घर में ऐसा बोलने वालों के लिए कोई जगह नहीं है। '' यह कह कर बूढी माँ ने पथिक को घर से निकाल दिया।
पथिक उठ कर घर से बाहर आ गया। उसके सर से खीर अभी भी टपक रही थी। उसे अपनी भूल का पता चल चुका था। मैंने बिना सोचे-समझे ऐसे कठोर और कडवे शब्द क्यों बोले। अब उस का परिणाम भुगतना ही पडेग़ा। गांव के बच्चे, जो गली में खेल रहे थे पथिक की दुर्दशा देख कर हंसने लगे और उसके पीछे-पीछे चलने लगे। शीघ्र ही उसके पीछे एक जलूस सा बन गया। जो भी उसके पास से निकलता हैरानी सी देखता और हँस देता। तभी वो गांव की चौपाल के पास से गुजरा। एक व्यक्ति से रहा न गया और उसने पूछ ही लिया -
'' भाई यह तुम्हारे सर से क्या टपक रहा है''
पथिक, जो अब अपनी कही बात पर पछता रहा था, बोला-
'' भैय्या, यह मेरी ज़ुबान का रस है। ''
– सुमन कुमार घेई
15 जनवरी 2001

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