Saturday, December 19, 2009

दरबान

दरबान

आज कुछ नहीं है उस कोठी के अंदर। पर वह ज्यों का त्यों दरवाजे के पास कुर्सी बिछा कर बैठा है।
कभी बहुत कुछ था, जिसकी हिफाज़त उसे करनी थी। पहले यह उसका सिर्फ धर्म था।अब हिफाज़त उसका स्वभाव बन गया है।क्योंकि उम्र भर उसने एक ही काम किया है - हिफाज़त। घर की, व्यवसाय की, और परी की।
हां पहले यहां एक परी रहती थी। एकदम चांदनी की तरह उजली,बेदाग। मुखडा पूनम के चांद की तरह दिपदिपाता था। जिस्म ऐसा ढला था जैसे किसी मंजे हुए कलाकार की सर्वोत्तम कृति। महीन कता हुआ जिस्म, छरहरा पर गुलाबीपन लिये ।
उसने मन मोह लिया था ऐसे कि वह अपना आप सब भूल गया। परी उसे चाहिये ही थी। परी के बिना वह जिंदा नहीं रहेगा। परी उसकी हो जाये बस। उसको अपनी बना कर रहेगा।
परी तो भोली थी।निर्दोष। उसे दुनिया - दीन की खबर ही नहीं। बीसवां लगा था।कॉलेज खत्म ही हुआ था। सोचती थी वह और पढक़र पढाएगी।
वह अपना बडा सारा नोटों का पुलिन्दा लेकर हाजिर हो गया परी के संरक्षकों के दरबार में
और वह परी को ब्याह कर ले आया।
एक दिन वह परी के एक सुंदर सी पहाडी पर ले गया। नीचे झील बह रही थी। आस पास ढेर सारे रंग्बिरंगे फूल खिले थे। उसने ढेर सारे फूलेंा की पंखुरियों से परी के जिस्म को ढक दिया। फिर उसका एक एक पैर चूमता रहा। उसकी छातियों के गिर्द उसकी जंघा के बीच पंखुरियां सजाता रहा। उसने परी की आंखों को पंखुरियों से ढक दिया। उसके ओठों को मकरंद से सी दिया। ढेर सारे फूल उसके जूडे में खोंस दिये। परी का पूरा जिस्म एक गुलदस्ते सा दीख रहा था। उसने वह गुलदस्ता हाथ में उठाया और जोर से अपनी बांहें में भींच लिया। सारे फूल पंखुडियां मसल कर बिखर गये।वह खूब हंसा, खूब् खुश था और परी उसके खेल के निहारती रही।
''परी ! परी कहां हो? कुछ बोलो तो! मुझसे प्यार करो परी! ''
वह जब परी से ऐसे खिलवाड क़रता तो परी के अच्छा लगता। वह धन्य सी हो जाती। पर परी अपने मुंह से कुछ कहती नहीं। वह जैसे आत्ममुग्ध सी रहती थी।अपने में भरीपूरी। तुष्ट थी।
भीतर कौन जाने क्या उठता हो, बाहर से हमशा तुष्ट दीखती।
क्यों तुष्ट दीखती थी परी हमेशा?
यह भी कोई परी का ही रहस्य था। परी किसी को अपना रहस्य जानने नहीं देती। परी की मां ने उसे बतलाया था कि सुख मानने में है।और वह मान बैठी थी कि वह सुखी है। शायद तभी वह तुष्ट थी।तन्मय थी।तपस्विनी थी।प्रेम उसकी पृकृति थी।
उसने परी को खूब सारे सुंदर से सुंदर कपडे, ग़हनों से मढ दिया। रोज परी को नयी साडी पहनाकर वह अपने दोस्तों के घर ले जाता, कभी क्लब ले जाता।सबको फख्र्र से दिखाता फिरता - अपनी जीत, अपना इनाम, अपनी दौलत!
परी तो फिर परी थी। चलती तो सारी धरती महकने लगती। सबके नथुनों से टकराती खुशबू और वे खुश्बू का राज ज़ानने को आतुर हो जाते। वह कुछ कहते तो परी मुस्कुरा देती। शर्मीली मुसकान। मुस्काना तो परी की फितरत थी। न भी मुस्कुराये तो लगता कि मुस्कुरा रही है। गालों में भी मुस्कान के गङ्ढे स्थायी रूप से पडे रहते।
एक बार परी के देस से एक छबीला जवान आ पहुंचा, सीधे घर आकर बोला कि वह तो परी का दूर के रिश्ते से भाई होता है। घर पर ही रहेगा। परी के मां - बाप से ही पता लेकर पहुंचा है।परी ने बडे उछाह से भाई का स्वागत किया। देर तक मायके की, बचपन की दुनिया में विचरती रही मेहमान भाई के साथ।
बस उसके कान एकदम बारहसिंगा के सींगों की नोकों जैसे खडे हो गये। कमर में तलवार खोंस वह परी की निगरानी करने को उद्यत हुआ। बस उस दिन से वह परी का दरबान बन गया।
नौजवान भाई से कहा गया कि वह उसके घर में कदम नहीं रख सकता। अगर केई काम भी हो तो उसकी गैरहाजिरी में वह घर में नहीं घुसेगा।
अकसर रात को जब परी गहरी नींद में सो रही होती, वह जागता। रात - रात उसका चेहरा पढता रहता। परी नींद में मुस्कुराती। वह निहारता। फिर सहसा घबरा जाता। क्यों मुस्कुराती है परी नींद में ? क्या कोई और है। जिसके बारे में सोचती है? क्या परी उसे प्यार करती है?
वह परी को झिझोंडक़र जगाता और पूछता - ''तुम प्यार करती हो मुझसे?''
परी निंदियायी सी मुस्कुरा देती और करवट बदल कर सो रहती।
वह फिर जगाता उसे। वही सवाल।
परी फिर मुस्कुरा कर पूछती - ''तुमको क्या लगता है? अपने आप से पूछो? ''
वह उसका चेहरा देखते हुए बुदबुदाता - '' अपने आप से? मैं कैसे जान सकता हूं? तुम बतलाओ।बतलाओ करती हो?''
परी वैसी ही तुष्ट मुस्कान के साथ कह देती -''जब तक तुम अपने आप से नहीं जान पाओगे।मेरे कहने से कुछ नहीं होगा।''
उस रात वह सारी रात यही पहेली हल करता जागा रहा।
अगली सुबह वह परी से बहुत नाराज था। भीतर कुछ भडक़ता रहा था। कुछ ऐसा महसूस होता रहा कि किसी नाजुक फूल को वह अपन्ी हथेली में भरकर मसल डाले। या पिघले सोने जैसे किसी रूप को एक भद्दे आकार में गढ दे। कुछ ऐसा जो उसकी हथेली के बीचों - बीच हो, गिरफ्त में हो।वायवी या अमूर्त नहीं। जिसे वह उंगली से छू कर पहचान सके। जिससे किसी तरह भी,चाहे तो जबरदस्ती करके वह जवाब पा सके।
वह सारा दिन अपने आप में परेशान घूमता रहा। उसे हर वक्त तकलीफ सी होती रहती कि वह परी की असलियत जान क्यों नहीं पाता।परी उसे प्यार करती है या नहीं कैसे जान पायेगा वह?
पूछा वही सवाल - ''मुझे प्यार करती हो?''
और परी का वही जवाब था - '' अपने आप से पूछो।''
परी मायके जाने को हुई तो वह बोला कि वह उसे अपने ही साथ ले जायेगा क्योंकि मायके में क्या पता कोई पहरेदारी न कर पाये।
वह मायकेवालों के मिलने पर भी राशन लगा देता। फोन पर तीन मिनट से ज्यादा बात नहीं की जायेगी। त्योहार- तीजपर जब मिलने जाना होगा तो वही साथ ले जायेगा और वापिस लायेगा।परी मायके में बिगड ज़ाती है। बहुत चाय पीती है। चाय से उसके चेहरे की रंगत बिगड ज़ायेगी आदि - आदि।अमानत तो उसकी है, उसी को बचाना है।
परी यूं तो कहीं जाती ही नहीं। घर की देखभाल करती, सिलती, बुनती, और पकवान बनाती।बाजार जाना होता तो वह साथ ले जाता। कभी अपनी मां या बहन की निगरानी में भेजता।
फिर परी की गोद भर जाती है। परी और भी बंध जाती है घर से।
वह सवाल पूछता ही रहता है - ''मुझे प्यार करती हो?''
परी का जवाब होता है - ''अपने आप जानोगे, तभी जान पाओगे।''
परी वैसी की वैसी चांदी से धुले चांद की तरह निखरी, चमचमाती। धानी साडी क़े आंचल से ढके स्तनों से बच्चे को दूध पिलाती तो ऐसा लगता धरती की सारी हरियाली उसमें समा गयी हो!
बच्चे बडे होने लगते हैं।परी उनसे ऐसे खेलती जैसे वह भी उन्हीं की तरह हो - खिलखिलाती, गोल - गोल चक्कर लेती चक्करघिन्नी की तरह। लुकाछिपी खेलती। कभी लोरी गाते - गाते उनके साथ सो जाती।
वह आता और परी को अपने नन्हें फरिश्तों के साथ बेखबर सोता निहारता। उसे लगता परी अब भी नींद में मुस्कुरा रही है। फिर सोचता अब कौन है परी के सपनों में? क्या उससे या इन फरिश्तों से आगे, अलग, कुछ हो सकता है परी के सपनों में!
वह उसे जगाता। पूछता - ''मुझे प्यार करती हो?''
परी मुस्कुरा देती।
वह फिर पूछता : परी वही जवाब देती - '' अपने आप से पूछो।''
उसका मुंह सवाल के ही अंदाज में खुला रहता तो परी कहती -'' अभी तक उसने तुमसे कुछ नहीं कहा?''
वह सोचता सा देखता रहता। परी मुस्कुरा देती।
पर वह वसंत की कच्ची हरियाली की मुस्कान नहीं थी।
अब परी की मुस्कान में गीली उमस भरी थकान थी।
फिर अचानक उस पर पहाड टूटा।व्यवसाय ठप्प हो गया। वह देस - देसावर भटका। फिर काम के चक्कर ने उसे बहुत दूर देश में जा पटका।
अब पहरेदारी का काम दुगना हेगया। दिन भर एक खजाने की रखवाली करनी होती। उसे अपने घर के खजाने की रखवाली की फिक्र लगी रहती।
अब वे फरिश्ते उसके दूत बन गये थे। उसकी दुगुनी, चौगुनी, अठगुनी आँखें।
अब वे परी की निगरानी करते। वह उनसे पूरी - पूरी दिन की रिपोर्ट लेता। महल में कौन आया था, कौन गया। किससे फोन पर बात हुई।
परी को परदेस में बडा सूना लगता। न वैसा आंगन, न वैसी पहचानी अमराई। न ही बेला - चमेली की खुशबूदार कलियां। न वैसी शाम या शाम के साथ लाने वाले क्लब और दोस्तों की महक। वह उदास हो जाती। वह घर आता तो कहती - '' मैं भी बाहर काम करुंगी। बच्चे स्कूल चले जाते हैं।तुम खज़ाने पर। मुझे ये दीवारें, कुर्सियां – मेजें, फ़ानूस और रेशम के परदे काटने को दैडते हैं। इन्सान की सूरत नहीं दीखती। दम घुटता है।''
उसे डर लगने लगा।यह क्या हो रहा है परी को। यह तो हाथ से निकलना चाहती है।परदेस में पता नहीं कैसे कैसे लोग बसते हैं। कोई भगा ले गय तो क्या करेगा।
अब तो परी एकदम पूनम का चांद हो गयी है। पहले तो दूज तीज का चांद ही थी। हर साल जब एक - एक कला जुड क़े संपूर्ण हुई है तो अपनी ऐसी बेशकीमत परी को वह भला कैसे जाने दे सकता है।
''तुम बच्चों को स्कूल छोड आया करो। उतना बाहर जाने से ठीक होगा। चेहरे भी दीख जायेंगे। हवा का सेवन भी हो जायेगा।''
परी स्कूल जाती, रास्ते में कुछ खरीदारी करने लगती। एक दिन एक ग्राहक परी के पीछे - पीछे उसका सामान उठाने में मदद करता उसके घर तक पहुंच गया तो उसने दूर से देख लिया। बस परी पर झपटा ''यार बना लिये हैं तूने। कोई स्कूल नहीं छोडने जायेगी। बहाने से यारी लगाती है?''
उस दिन उसने परी के पीटा, इतनी जोर से धक्का मारा, परी पीठ के बल ऐसे गिरी कि उसकी रीढ क़ी हड्डी अपनी जगह से खिसक गयी।
परी बिस्तर पर पड ग़यी तो उसका मन कुछ दुखा। पर उससे ज्यादा तसल्ली हुई कि अब वह कहीं बाहर नहीं जायेगी। न जाने की इच्छा जाहिर कर पायेगी।
वह उसे खुद नहलाता धुलाता। उसकी कमर की मलिश करता। उसकी टांगें दबाता खज़ाने से भी बार बार फोन करके पूछता रहता। फिर घर आकर उसके सिरहाने बैठ जाता। परी दर्द की शिकायत करती तो उसे दवा खिलाता। गरम सेंक देता। वैद्य के पास ले जाता। वह अब बैठ नहीं पाती थी इसलिये न तो सिनेमा जाती न पार्टियों में।
परी अब धीरे धीरे उस फूल की तरह मुरझाने लगी जिसे न कभी ताजा हवा पानी मिलता है न धूप। उसका चंदनी सा उजला रूप अब मटमैला पडने लगा। उसकी सुघड सुडौल कमल नाल सी तन्वंगी देह कुम्हलाने लगी। खाल का गुलाबीपन पीलक में बदलने लगा। गेसुओं का रेशमीपन सूखे पत्तों की तरह रूखा होने लगा। वह खूब मालिश करता उसके जिस्म की पर वह गुलाबीपन लौटता ही न था।
वह रोज उसके लिये ताज़े गुलाब मंगवाता। चहकते - महकते गुलाबों से परी के जिस्म को दुलराता, गुलाब के इतर को परी के जिस्म पर रगडता पर परी गुलाबी होने को न आती।
परी का कमजोर शरीर जलती मोमबत्ती की तरह घुलने लगा।
उसने आर्युवेद, होम्योपैथी, जंतर मंतर सब कुछ चाट डाला। हारकर एलोपैथी के डॉक्टरों को बुलाया। पता न्हीं कैसा रोग था। कोई इलाज नहीं हो सका।
उसने नौकरी छोड दी, और चौबीसों घंटे परी के दरबार में कुर्सी बिछाकर बैठा रहता।
अपने हाथ से साडी ज़म्पर पहनाता। उसकी चोटी गूंथता। उनमें फूल लगाता। बिस्तर की चादर बदलता। परी का हर काम अपने हाथ से करता।
परी का चेहरा बुझा बुझा रहता। जिस्म के पोर पोर में चीखता दर्द ज़ुबान पर कभी न आता। परी चलना भी भूल रही थी। उसे कमरे में ही सहारा दे चलाता। एक फीकी मुस्कान दे परी की आंखें दर्द से बंद हो जातीं। यूं ही पडी रहती सारा दिन। परी तो अब उठ कर पानी भी नहीं पी सकती थी। वह खुद उसके लिये खाना बनाता, सूप पिलाता, फलों का रस पिलाता।
परी की सारी ऊर्जा बहते नल के नीचे पडी साबुन की टिकिया की तरह घिसती जा रही थी। न वह हाथ ऊंचा उठा पाती। बिस्तर पर उठकर बैठना ही मुहाल हो गया था।
वह उसे चम्मच - चम्मच जूस पिलाता, पानी पिलाता, चाय पिलाता।
फिर उसने चम्मच भर पीने से भी न कर दी। गले से नीचे कुछ उतरता ही न था।
एक दिन यूं ही आंखें बंद किये चुपचाप हो गयी परी। वह परी के जिस्म को ताकता रहा घटों। पर परी ने उसकी निगाह वापिस न की।
उसने घबरा कर बुलाया डॉक्टर को।
डॉक्टर ने कहा - ''अब वह जागेगी नहीं।परी नहीं है। वह चली गयी।''
वह माना नहीं - ''परी जा कैसे सकती है? '' वह तो उसकी रखवली से कतई चूका नहीं। पल भर भी उस पर से निगाह नहीं हटायी। फिर वह गयी कैसे?
उसे आज भी विश्वास नहीं होता है कि उसकी इतनी कडी निगरानी के बावजूद कोई आंख बचाकर निकल सकता है!

वह अब भी दरवाजे पर कुर्सी बिछा उसी तरह उसकी रखवाली में लगा रहता है। कभी कुर्सी उसके बिस्तर के पास खिसका लेता है तो कभी ठीक दरवाजे के पास कि कोई अंदर आकर उसकी परी को उससे दूर न ले जाये। हर हफ्ते उसके बिस्तर पर साफ सुथरी सफेद चादरें बिछाता है।अपलक ताकता रहता है जैसे परी वैसे ही लेटी हो, उस साफ सुथरी चादर पर - चुपचाप, निष्पाप।
उसे अभी तक अपने सवाल का जवाब नहीं मिला। उसे बार - बार परी का वही जवाब सुनायी देता रहता है - ''अपने - आप से पूछो ? अपने आप जान लोगे....तभी जान पाओगे अपने - आप से पूछो। ''
सुषम बेदी
मई 21, 2003

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