Saturday, December 19, 2009

चेतना शून्य

चेतना शून्य
सभी लोग नये साल के जश्न की तैयारी में जुटे थे। चारों तरफ रंगीन कनातें तन चुकी थी। लाईटों की कुछ लड़ियाँ अव्यवस्थित सी पड़ी थी जिनको अभी लगाना बाकी था। लॉन की मखमल समान दूब पर रंग-बिरंगी कुर्सियाँ रखी हुई थी। लॉन की बाहरी दीवार से सटे हुये अशोका के वृक्षों पर आम, लीची, अंगूर और तितलियों से सजी हुयी लाईटें लगाईं गयी थी। जिसको देखकर आभास ही नहीं हो रहा था कि वो रात का वक्त है शायद ऐसा ही आभास उस पेड़ पर रहने वाले चिड़ियाओं के जोडे को हुआ था तभी तो वह भी उठकर उछल कूद कर रहा था लेकिन वह बड़ा भ्रमित नज़र आ रहा था, उनके नन्हें-नन्हें बच्चे भी चीं चीं चूँ चूँ की आवाज़ से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे, किन्तु लोगों को तो अपनी ही पड़ी थी। ऐसे जहान में जहाँ इन्सान इन्सान को कुछ नहीं समझता तो वहाँ पक्षियों की तो औकात ही क्या? कौन सोचेगा उनके बारे में?
एक बड़े से हॉल को फूलों से सजाया गया था, रंगीन गुब्बारों से नववर्ष लिखा गया था। एक ओर मेज़ पर बड़ा सा केक रखा था। जिस पर लिखा था- 'नववर्ष तुम्हारा स्वागत है' । बराबर वाले हॉल में खाने और पीने की व्यवस्था की गयी थी। लोगों की भीड़ धीरे-धीरे बढने लगी थी। यह पार्टी शहर के एक बड़े व्यापारी के घर पर थी। पिछले वर्षों के मुकाबले इस वर्ष पार्टी कुछ ज्यादा शानदार थी। शहर के सभी लोग इस पार्टी की शोभा बढा रहे थे। धीरे-धीरे घड़ी की सुईंयां बारह की ओर खिसक रही थी और सभी लोग पुराने वर्ष को विदाई और नये के स्वागत की प्रतीक्षा कर रहे थे।
अचानक सारी लाईटें गुल हो गयीं और जैसे ही घड़ी ने बारह बजाये तालियों की गडगडाहट,आतिशबाजियों की रोशनी, म्यूजिक की ध्वनि और हैप्पी न्यू ईयर की आवाज़ से सारा वातावरण गूँज़ उठा। आवाज़ें कटे शीशे की तरह नीता के कान से जा टकराई और वो चीख पड़ी-"बन्द करो ये शोरगुल, भगवान के लिये चुप हो जाओ" लेकिन वहाँ उसकी कोई सुनने वाला नहीं था वह खुद में ही तिलमिलाकर रह गयी। बदहवासी में सड़क पर निकल पड़ी वह अपने आपे में नहीं थी बस दौड़े जा रही थी न दिशा का ज्ञान न ही मंजिल का पता तभी सामने से तेज रफ्तार में आती गाड़ी से टकरा कर सड़क के दूसरे किनारें पर जा गिरी। किसी सज्जन ने अस्पताल पहुँचाया दो दिन बाद आज़ होश आया। अपने आपको बिस्तर पर देखकर नीता अतीत के पन्नों में खो गयी
ऐसा ही एक बैड था जब वो अस्पताल में भर्ती हुयी थी। वो दिन उसकी जिंदगी का सबसे हसीन दिन था आज माँ जो बनने वाली थी। उसका महेश भावविभोर होकर बार-बार उसका मस्तक चूम लेता था। दोनों ने न जाने कितने सपने देख डाले थे अपने नन्हें-मुन्ने की कल्पना में। तभी तीव्र पीड़ा से कराह उठी थी मीता। महेश ने डॉक्टर को बुलाया। डॉक्टर ने बताया कि अब वो घड़ी आ चुकी है जब उनका सपना पूरा होगा। डॉक्टर मीता को अन्दर ले गये और महेश मीता और आने वाले बच्चे की सलामती की भगवान से प्रार्थनाकरता रहा । यही कुछ दो घन्टे के पश्चात एक नर्स और डॉक्टर सुन्दर से गोलमटोल बच्चे को साथ लिये बाहर आये। महेश ने जब बच्चे को देखा तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। बच्चे को गोद में लेकर एकटक उसे निहारता रहा जैसे उसमें अपना बचपन ढूँढ रहा हो।

मीता और महेश बच्चे को पाकर बहुत खुश थे दोनों ने मिलकर एक बड़ा सा जश्न करने की ठानी। बस फिर क्या था दोनों जुट गये काम में मेहमानों की लिस्ट तैयार की गयी, मैन्यू फिक्स कर लिया गया, कार्ड छपवा दिये गये और न जाने क्या-क्या तैयारियाँ कर डाली गयी उस नवागन्तुक की खुशी में, क्योंकि पार्टी पन्द्रह दिन बाद ही जो थी । ऐसे अवसर पर एक कमी बहुत खल रही थी वह थी महेश की माताजी जो कुछ दिन पहले ही न जाने कितने अधूरे सपने साथ लेकर इस जहाँ से विदा ले गयीं थीं। अब इस परिवार में सिर्फ महेश, महेश के पिता, महेश का छोटा भाई रमेश और महेश की पत्नी मीता ही थे। महेश को रह-रहकर आज माँ बहुत याद आ रहीं थी- जब भी महेश की माँ उसको बुरी तरह काम में जुटा देखती तभी कहती -'महेश अब मुझे तु्म्हारी शादी करनी पडेगी तभी शायद तुम घर में भी कुछ वक्त रुक पाओ वरना तो हर समय बस काम ही काम, मेरी भी इच्छा है मैं भी किसी के साथ बात-चीत करूँ, किसी के साथ खेलूँ, तुम शादी कर लोगे तो मैं भी अपने पोते-पोतियों के साथ खेलने का अपना अरमान पूरा कर लूँगी। तुम्हारे मन में कोई लडकी है तो तुम बताओ वरना मैं तुम्हारे लिये तुम्हारी पसन्द की कोई अच्छी सी लडकी तलाशती हूँ , ऐसा सुनकर महेश हमेशा ही न नुकूर करने लगता। इसी तरह वक्त बीतता गया और महेश की माँ शीला देवी अपना अधूरा अरमान लिये इस दुनिया से विलग हो गयीं।
महेश इन दिनों बहुत व्यस्त हो गया था एक तरफ तो जश्न की तैयारी दूसरी तरफ अपने आफिस के पचास काम। सुबह काम पर निकलता और देर रात तक घर लौटता। मीता बार-बार समझाती इतनी भाग दौड़ मत किया करो बीमार पड़ जाओगे पर महेश हमेशा ही हँस कर टाल देता और कहता कि कुछ ही दिनों की तो बात है जश्न के बाद तो इतनी भाग दौड़ नहीं रहेगी और अब तो मेरा बेटा भी आ गया हम दोनों मिलकर फटाफट सारा काम निबटा लिया करेगें मीता महेश की इस बात पर खिलखिलाकर हँस पड़ती और महेश उसको अपनी आगोश में लेकर प्यार करने लगता। इस बात को इक हफ्ता ही हुआ था, अभी महेश और मीता का बेटे का नामकरण संस्कार भी नहीं हुआ था, कि हमेशा की तरह आज भी महेश सुबह ही काम पर निकल गया।


जब भी महेश को लोकल जाना होता तो वह हमेशा ही बाईक लेकर जाता ताकि शहर की भीड़भाड़ से बच सके आज भी वह बाईक लेकर निकला । आज भी हमेशा की तरह उसको लौटने में देर हो गयी। मीता ने कई बार सोचा कि फोन कर लिया जाये, पर फिर उसी क्षण सोचती चलो आते ही होंगें पर जब घड़ी की सुईंयों ने रात के बारह बजाये तो मीता को चिन्ता सताने लगी मन में अज़ीब सी आकाक्षायें घर करने लगी इससे पहले की वह कुछ कर पाती फोन की घन्टी बज़ उठी। मीता ने दौड़कर फोन उठाया उसे लगा कि महेश का ही फोन होगा लेकिन फोन पर किसी अज़नबी की आवाज़ सुनकर वह कुछ आशंकित सी हुयी और जब उधर से बोलने वाले व्यक्ति की पूरी बात सुनी तो अपने होश गँवा बैठी। आँखे खुली तो अपने सामने अपने पिता समान ससुर को पाया जो पानी के छीटें मारकर उसे होश में लाने का प्रयत्न कर रहे थे और बेतहाशा बोले जा रहे थे- 'क्या हुआ बेटे? बोलो तो किसका फोन था? '। मीता बस इतना ही कह पायी- 'वो महेश…….. महेश के पिता लगभग चीख पड़े बताओ क्या हुआ महेश को? कहाँ है मेरा बेटा…. ?

मीता ने अपने आपको सँभाला और कहा वो अस्पताल में हैं उनका एक्सीडेन्ट हुआ है। महेश के पिता सकते से में रह गये फिर थके से कदमों से फोन के पास जाकर जैसे ही फोन उठाया उनके हाथ से रिसीवर छूट गया तब मीता ने खुद में हिम्मत जुटाई और रिसीवर उठाकर उनके हाथ में दिया महेश के पिता ने महेश के मोबाईल पर फोन किया किसी अज़नबी ने फोन उठाया और बताया कि वो कौन से अस्पताल में है। महेश के पिता और महेश का जिगरी दोस्त अस्पताल पहुँचे तो महेश की हालत देखी नहीं गयी उसके आँख, नाक और मुँह से लगातार खून की धारा बह रही थी, सर फट चुका था डॉक्टर आपरेशन की तैयारी करके उसके अपने किसी का इन्तज़ार कर रहे थे ताकि जल्द से जल्द उसका खून का बहना रोका जा सके। आपरेशन के बाद महेश को आई० सी० सी० यू ० मे रखा गया।
दो दिन हो गये थे पर अब तक होश भी नहीं आया था डॉक्टर अभी भी खतरे के अन्दर ही बता रहे थे। सबकी साँस अटकी हुयी थी सभी भगवान की मन्नत माँग रहे थे पर होनी को कुछ ओर ही मन्जूर था जैसे ही खतरे से बाहर वाली घड़ी आती उससे पहले ही महेश सबसे विदा ले गया। बड़ा मनहूस दिन था वो जब सबके घर मोमबत्तियों और दीपकों से जगमगा रहे थे तब किसी घर का चिराग हमेशा-हमेशा के लिये बुझ गया। तब भी लोग इसी तरह जश्न मना रहे थे, आतिशबाजियाँ चला रहे थे बिल्कुल इसी तरह सब लोग अपने आपे में नहीं थे। वही शोरगुल, वही कहकहे, किसी को कान पड़ी नहीं सुनाई नही दे रही थी लोग तो कुछ देर आकर गम मनाकर चले गये, पर मीता की जिंदगी तो हमेशा के लिये गमों से भर गयी।
अभी शादी को साल भर भी नहीं हुआ था, अभी तो उस नन्ही सी जान ने पिता का प्यार का ठीक से एहसास भी नहीं किया था। वह यह भी नहीं जानता था कि उसका और उसके पिता का साथ सिर्फ चन्द दिनों का है।
आज़ मीता की जिंदगी सवाल बनकर उसके सामने खड़ी उसका मुँह चिड़ा रही थी। अभी तो उसको महेश का साथ ठीक से मिला भी नहीं था, अभी तो उन्होनें सपने देखने ही शुरु ही किये थे कि किस्मत ने उनके सारे सपनों को रेत की दीवार की तरह धराशाही कर दिया। मीता का जीवन गमों से भर गया। नन्हीं सी जान को अपने सीने से लगाये बिलखने के अलावा और महेश के साथ बीते चन्द पलों को याद करने के सिवाए उसके पास अब कुछ नहीं बचा था।
उसका भविष्य अँधकार की गहरी खाई में फन फैलाकर बैठ गया। अपने बेटे में ही वह महेश का चेहरा तलाशती कुछ बड़बड़ाती और फिर चेतना शून्य हो जाती।
डॉ० भावना कुअँर
दिसम्बर 25, 2006

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