Saturday, December 19, 2009

ठठरी

ठठरी
दो साल खाली रहने के बाद जब उसे नौकरी मिलने के कुछ आसार लगे तो जैसे उसे त्रिलोक का राज ही मिल गया या जैसे महीनों के भूखे को रोटी मिली। उसने सोचा अब वह पिता को इतना सुख देगा कि बेरोजगारी के दिनो में उसके प्रति किए गए अपने व्यवहार से वह शर्मिन्दा हो उठेगें और विभाग में अपने काम से ईमानदारी और कर्मठता की मिसाल कायम करेगा। अगले ही क्षण उसे अपने सोच पर शर्मिन्दगी हुई। उसे लगा पिता के बारे में इस तरह सोचने से उसने पाप किया है। उसे याद आया कि किस तरह तकलीफें उठा कर पिता ने उसे पढाया था। घर गिरवी रख दिया था और मां की बीमारी का इलाज भी वह ठीक से नहीं करा पाये थे। हालांकि वह सोचता था कि जो होना होता है वही होता है और मां की मौत या घर के हाथ से निकल जाने के लिए खुद को जिम्मेदार मान कर उसका दु:खी होना बेमतलब भावुक होना ही है।
अचानक उसे मां की याद आ गई थकी, उदास पर स्नेहिल मां। और फिर पिर्ता चुप्पे और क्रोध से भुनभुनाते हुए। पिता उसे सुबह जल्दी उठा देते जिससे उसे सबसे ज्यादा चिढ होती। रात में भी पिता उसे जल्दी नहीं सोने देते। क्या था उनमें? कैसी छटपटाहट थी जो उन्हे चैन नहीं लेने देती थी?लगता जैसे वह चाहते हो कि दो साल का डिप्लोमा वह छ: महीने में ही पास कर लें। पिता के व्यवहार से हमेशा ऐसा लगता था जैसे उसके पास वक्त बहुत कम है। जैसे वह जल्दी में हैं। जैसे तैसे ये साल गुजरे और उसने सिविल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा पास कर लिया। पर इस बीच पिता का धैर्य चुक गया था। वह उसे जल्दी से जल्दी नौकरी में लगा हुआ देखना चाहते थे। पर कहां थी नौकरी? सुबह से शाम तक वह ठोकरें खाता और रात देर गए घर लौट आता। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए पिता का सब्र का बांध टूटता गया। दो-तीन महीने बीतते बीतते वह उसे कोसने लगे, गालियां देने लगे। मां का हत्यारा और घर उजाडू क़हने लगे। उसे कभी कभी बडा बुरा लगता। इच्छा होती कहीं डूब मरे य पिता का गला घोंट दे। वह सोचता और छटपटाता, क्या होता है बेटे का मतलब? कर्तव्य! मां-बाप की आंखो में संतोष की किरण! नौकरी की अंतहीन तलाश! उसका बडा मन होता कि इस कर्तव्य नामक हिंस्र जीव को अपने सर से उतार फेंके और एक बार अपनी निजी मुक्त आंखो से इस दुनिया को देखे। सर्दियां आने से पहले गुनगुनी हवाओं में अपने शरीर के अंदर बजते संगीत को सुने।
राम-राम करके दो साल बीते। पर इस बीच पिता को प्लूरेसी हो गई। उसे पी ड़ब्लू ड़ी में नौकरी तो मिली पर नियुक्ति नए सृजित जनपद पिथौरागढ में हुई जहां विकास की अनेक योजनाएं आरम्भ हो रही थी। पर वह चाहता था कि उसे मुजफ्फरनगर के आर्सपास है कहीं उसे नौकरी मिले ताकि वह पिता की देखभाल कर सके और उपेक्षित पडी ग़ांव की थोडी सी जमीन और ढहते हुए मिट्टी के छोटे से मकान की भी साज संभाल कर ले।
वह दौडा दौडा लखनऊ गया और सिविल सर्जन द्वारा दिया गया पिता की बीमारी का प्रमाण पत्र चीफ इंजीनियर को दिखाकर उनसे अनुरोध किया कि उसे मुजफ्फरनगर के आस पास तैनात कर दिया जाए, क्योंकि उसके घर में कोई भी और बीमार पिता की देखभाल करने वाला नहीं है। चीफ इंजीनियर ने कहा,'' मै आपके इस प्रमाण पत्र पर शक नहीं कर रहा हूं। पर अभी तक जितने भी लोगो को हमने सीमान्त क्षेत्रों मे नियुक्त किया है बिना किसी अपवाद के सभी ने स्वयं अपनी, पत्नी,मां या बाप की बीमारी के मेडिकल सर्टिफिकेट हमें दिए है जो बाकायदा मेडिकल अफसरों और सिविल सर्जनों द्वारा जारी किए गए है। पर हम विभाग को बंद नहीं कर सकते। हमें काम करना है और देश के विकास को गति देनी है।''
उसने गिडग़िडाते हुए विनती की,'' कुछ तो ख्याल कीजिए साब। मेरे पिता बूढे और बीमार है। कोई नहीं जिसके भरोसे मैं उन्हे छोड सकूं।''
चीफ इंजीनियर ने शायद कुछ द्रवित होते हुए य उसे लगा कि वह द्रवित हुए है, कहा,'' ठीक है।अभी तो आप ज्वाइन करें। मैं अक्टूबर में दौरा करता हूं। आप वहां मुझे मिलें। जो कुछ हो सकेगा आपके लिए किया जायेगा।''
पिथौरागढ ज़ाने के अलाव कोई चारा नहीं था। पिता को साथ लेकर वह पिथौरागढ पहुंचा और वहां ज्वाइन कर लिया। शुरु में उसे बडा अजीब लगता था। विचित्र गोरखधंधा था वहां। सामान्य मानवीय व्यवहार, जिससे अब तक वह परिचित था, वहां नहीं था। आपसी संबंधों और शिष्टाचार के लिए भी वहां के नियम कुछ भिन्न प्रकार के थे। बेटे की उम्र के असिसटेन्ट इंजीनियर बाप की उम्र के ओवरसीयरों को गुलामों की तरह डांटते। ओवरसीयर भी साहब लोगो के सामने कुत्तों की तरह दुम हिलाते। जिसकी दुम जितनी ही लंबी होती वह उतना ही सफल होता। साहब लोगो के सभी निजी काम भी ओवरसीयर ही करते। ओवरसीयर अपने अपने घरों से सुबह सात-आठ बजे तक निकल जाते। वे संबंधित एक्सीक्यूटिव और असिटेन्ट इंजीनियर के घर आते, जहां वे राजकीय और अफसरों के निजी कामों के बारे में उनसे आवश्यक निर्देश लेते। अफसर के बच्चे के दाखिले का मामला हो,मेम साब को डॉक्टर के पास ले जाना हो, सिनेमा के टिकट लाने हो या संपूर्ण रामायण,सत्यनारायण की कथा या बच्चे का जन्मदिन का मामला हो, ओवरसीयर हर जगह तत्पर मिलते।अफसरों के बीच हए सप्ताह एक गेट-टूगैदर होता था जिसमें शामिल हुए बगैर ओवरसीयर उसका भी सारा इंतजाम करते। कुछ ओवरसीयर ऐसे भी होते जो अफसरों के घरों में सब्जियां, गेहूं, चावल आदि से लेकर साडियां, सूट और जूतों तक का प्रबन्ध करते। ऐसे ओवरसीयरों का सारा इंतजाम बडा टंच रहता और सभी अफसर उनसे प्रसन्न रहते। ऐसे ओवरसीयर अंदर से बडे घाघ होते है। वह बडी होशियारी से अपने आपको उन प्रपंचो से बचाए रखता।
अचानक एक रात जब वह अपने एक मित्र के यहां से खाना खाकर अपने घर लौटा तो उसने अपने पिता को मरा पाया। वह धाड मार-मारकर रोने लगा। कालोनी में रहने वाले सभी उसके सहयोगी,बाबू और अफसर इकट्ठे हो गए। एक्स्क्यूटिव और सुपरिटेन्डिग इंजीनियर भी दौडे-दौडे आए।सुपरिटेन्डिग इंजीनियर ने तुरन्त एक ट्रक का इंतजाम करवाया, पिता की लाश को ट्रक में रखवा कर दो आदमियों के साथ सुबह होते-होते उसे उसके घर पर मुजफ्फरनगर भेज दिया।
तेरहवीं के बाद वह लौटा। सितम्बर का अंतिम सप्ताह था। आमतौर से आसमान साफ रहने लगा था।पिथौरागढ क़ी घाटी अपनी जादुई छटा दिखाने लगी थी। चारों तरफ आडू, ख़ूबानी, अलूचों के पेडों पर अभी तक फल आ रहे थे और सेबों के पेड फ़ूलने लगे थे। सडक़ के किनारे पर धूल और गर्द से अंटी किडमौडे क़ी झाडियों में फल लगने ही वाले थे। दूर चोटियों पर कुहासा छाया रहता था। पर भटकोट की ऊंची कालोनी से सुबह और शाम को मौसम साफ होता तो, बर्फ से ढकी चोटियों का सिलसिला दिखाई देता। वह डूबते सूरज को वहां अठखेलियां करते देखता था और पन्त की पंक्ति ''पल पल परिवर्तित प्रकृति वेश '' दोहराता। रात के गहन अंधकार में तारे लपलपाते रहते। पर इन सारे कार्र्यकलापो के बीच उसे चीफ इंजीनियर का इंतजार रहता। वह चीफ इंजीनियर का इंतजार करता रहा और पिता के न रहने से बडा दु:खी रहता।
पर एक जानलेवा निषिध्द सवाल के पंजे में उसका मन हमेशा फडफ़डाता रहता कि क्या वाकई वह पिता के न रहने से इतना दुखी है या उसका असली दु:ख यह है कि पिता की मौत के रूप में पिता के सामने अपने को एक आज्ञाकारी और आदर्श बेटा सिध्द करने का सुनहरा अवसर उससे छीन लिया गया है।
कभी-कभी उसके मन में पिता के लिए दबा दबा सा क्रोध उठता कि वह उसे पराजित करके चले गए है। उसकी इच्छा कि वह पिता को दिखायेगा कि दुखी असहाय और अपने आश्रित व्यक्ति से, चाहे वह बेटा या बाप क्यों न हो, कैसे व्यवहार किया जाता है, धरी की धरी रह गई। अगले ही क्षण उसे अपने विचार बडे अश्लील और खतरनाक लगते और वह जानबूझ कर उस दृश्य को याद करने लगता जब पिता की मौत के वक्त वह अनाथ बच्चे की तरह रो-रोकर कह रहा था कि उसने चीफ इंजीनियर से कहा था कि पिथौरागढ मत भेजो और सुपरिटेन्डिग इंजीनियर ने उसका कंधा थपथपाकर उसे सांत्वना देते हुए कहा था - अक्टूबर में चीफ इंजीनियर के आने पर तुम्हारा तबादला तुम्हारे घर के आस-पास करवा देगें।'' उसे सुपरिटेन्डिग इंजीनियर का हाथ अबभी अपने कंधे पर महसूस होता और उसे बडी ताकत मिलती।
चीफ इंजीनियर जब आए तो वह उनसे मिला। सुपरिटेन्डिग इंजीनियर भी वहां थे। सुपरिटेन्डिग इंजीनियर ने चीफ इंजीनियर से उसके पिता की दर्दनाक मौत का किस्सा संक्षेप में बयान करते हुए सिफारिश की कि उसे कही मैदानी इलाके में भेज दिया जाए। उसने भी कहा,'' साब, मैने पहले ही आपसे कहा था कि मुझे यहां मत भेजिए । आपने वादा भी किया था कि अक्टूबर में जब आप यहां आयेगे तो मेरा तबादला कर देगें। अब तो मेरे पिताजी भी नहीं रहे। मैं निपट अकेला और असहाय रहा गया हूं।''
चीफ इंजीनियर ने कहा,'' वेरी सॉरी! आप के पिता के लिए मुझे बडा दुख है। पर अब आप को क्या परेशानी है? आपको दिक्कत पिता को लेकर थी। अब वे नहीं है तो आप परेशानी से मुक्त हुए।''
उसने जब फिर जिद की तो चीफ इंजीनियर ने सख्ती से कहा,'' अभी आप जवान है। इस्तीफा देकर चले जाइए। आसपास क्यों, मुजफ्फरनगर में ही आपको कोई नौकरी मिल जाएगी। बहुत सी प्राइवेट फैक्ट्रियां है वहां। अब मेरा वक्त और बरबाद मत काीजिए।''
चीफ इंजीनियर तुरन्त मुंह घुमाकर सुपरिटेन्डिग इंजीनियर से किसी सडक़ की प्रगति के बारे में पूछताछ करने लगे। वह अपमानित और पराजित वहां से चला गया। उसकी इच्छा हुई कि चीफ इंजीनियर को जूते ही जूते लगाए। सुपरिटेन्डिग इंजीनियर, सारे अफसर और सहयोगी जो बेसब्री से चीफ इंजीनियर के आने का इंतजार कर रहे थे और तरह तरह के दावे कर रहे थे कि उसका तबादला करा के ही दम लेगे, चुप हो गए और पहले से भी अधिक मनोयोग से चीफ इंजीनियर की सेवा में जुट गए, क्योकि इस प्रसंग से लोगो को लग रहा था कि चीफ इंजीनियर का मूड थोडा बिगड ग़या है।
कुछ दिन वह उखडा-उखडा सा रहा फिर उसमें एक अप्रत्याशित बदलाव आया। केवल पैसा कमाना उसने जीवन का ध्येय बना लिया। दूसरे, उसने महसूस किया कि अफसर बहुत बडी चीज है। अफसर खुश है तभी जीवन में आनंद है वरना कुछ नहीं। अत: उसने उसूल बना लिया कि अफसर को प्रसन्न करने का कोई भी मौका कभी भी हाथ से नहीं जाने देगा। पिथौरागढ क़ी तहसील मुनसियारी से एक ओवरसीयर भाग खडा हुआ। वहां काम बहुत था और आमदनी अच्छी थी। तुरन्त वहां एक ऐसे ओवरसीयर को भेजा जाना था जो वहां स्वयं अपनी इच्छानुसार जाना चाहता हो। वहां जाकर काम कराये और डर कर भाग न जाए, क्योंकि वहां की सर्दी, अकेलापन और अन्य दिक्कतों के कारण हर आदमी वहां नहीं जाना चाहता था। मुनसियारी बहुत ऊंचाई पर है और साल में कई महीने बर्फ से ढकी रहती है। पर अब उसको इन बातों से क्या फर्क पडता था। सभी जगह उसे एक जैसी थी। उसे तो पैसे की जरूरत थी और वह मुनसियारी में था। उसने अपनी सहमति दे दी और उसे मुनसियारी भेज दिया गया।
मुनसियारी में कई सडक़ो का निर्माण हो रहा था। एक सडक़ थी मुनसियारी-मिलम। मिलम जग प्रसिध्द ग्लेशियर है जो और भी अधिक ऊंचाई पर है। वह क्षेत्र बिल्कुल सुनसान रहता। गरमियों मे कुछ केवल कुछ सैलानियों को छोडक़र या सरदियों में तिब्बत के और भी ऊंचे पठारों से नीचे की ओर जाते हुए भेडाे के रेवडाे के साथ स्थानीय निवासियों के अतिरिक्त वहां कोई भी और नहीं आता।सच पूछो तो उस समय यानि सन साठ तक तो वहां सैलानी भी नहीं आते थे। सरदियों में लकडी क़े मकानों की निचली मंजिले बर्फ से ढक़ जाती। वहां लकडी क़े दो मंजिले मकान होते। लोग ऊपर मंजिल में रहते। धूप ढलते ही एक अकेला छोटा सा बाजार ऊंघने लगता। लोग घरो में दुबकने लगते। ठंडी हवाएं डरावने डैने फैलाने लगती और सन्नाटा अजगर की तरह पसरने लगता। गरमियों के दिनो में निचली घाटियों में बुरूंस के पेडों पर फूल आग के कौधों की तरह लपकते। सारी घाटी अंगारे की तरह लाल हो जाती। ऊपर चारो ओर देवदार और फर के पेड आसमान को छूते होते और पहाड क़े ऊंचे नीचे अंतहीन सिलसिले इधर-उधर फैले दिखाई देते। न संगी साथी थे, न मन बहलाने के और समय काटने के साधन। ऊब थी, अकेलापन था और सन्नाटा था। बर्फ थी, हवाएं थी, धूप थी और चीखती चिल्लाती चांदनी थी।
दो तीन महीने बीतते उसमें कुछ नई रुचियां पैदा होने लगी। वह दो घंटे पूजा करता, स्थानीय बनी शराब पीता और पहाडी लडक़ियों से अपना दिल बहलाता और अपने काम में मेहनत से जुटा रहता।मुनसियारी मिलम सडक़ का निर्माण एक दुष्कर कार्य था। सडक़ का दौरा करने के लिए कम से कम50 कि मी पैदल चलना पडता। रास्ते दुर्गम और खतरनाक थे। अत: बडे अफसर यानी एक्स्क्यूटिव और सुपरिन्डेटिंग इंजीनियर जो पचास के ऊपर हो गए थे और जिनका मुख्यालय पिथौरागढ में था मुनसियारी तक पहुंचते-पहुंचते हिम्मत हार बैठते। यद्यपि हर बार पिथौरागढ से यह निश्चय करके निकलते कि इस बार मुनसियारी-मिलम सडक़ का दौरा अवश्य करेगें।
हल्के-हल्के वह बडा कुशल और चतुर ओवरसीयर हो गया था। वह कभी किसी अफसर को शिकायत का मौका नहीं देता। अफसरों को खुश करने में वह सिध्द हो गया था। अफसर चाहे उसे डांटे और दुत्कारे वह कभी पलट कर जवाब नहीं देता और र्है हैं करता रहता। अफसरों को वह दाता कहता।अफसरों की डांट फटकार तथा थोडी ज्यादती को वह अनुशासन के लिये आवश्यक मानता। द्याह कहता, विभाग में पैसा कमाने आए हैं, नाक उंची करने नहीं। मुनसियारी में वह अधिकारियों की हर तरह सेवा करता। खानेपीने से लेकर ऐश आराम तक जैसा वे चाहते अफसरों को उपलब्ध कराता।उन पिछडे अन्दरूनी पहाडी ईलाकों की किशोरियाँ जो झरनों और पेडों की तरह निश्छल होतीं। लेकिन गरीब भी। और जिन्हें रंगबिरंगे इन लकदक अफसरों को देख कर पहले तो डर लगता फिर कौतुक होता, आमतौर पर खुशी खुशी उनका खाना बनाने और रात में सेवा टहल करने पहुंच जाती। बर्फ गिर रही होती, सांभर का मांस पक रहा होता, बांज की लकडियों से रेस्ट हाउस के कमरे गर्म हो रहे होते और पहाडी क़िशोरिया अफसरों की बांहो में किलोले कर रही होती। बाहर वह खुश हो रहा होता।उसने दो दूरबीनों का इंतजाम कर रखा होता। उस पहाडी मुनसियारी-मिलम पर जहाजहां बडे-बडे मोड( हेयर पिन बैन्ड) प्रस्तावित थे, उन्हे उसने बिल्कुल साफ कटवा रखा होता। बाकी सडक़ पर उसने कोई काम न करवाया होता। जब सुबह होती तो अधेड अफसरों पर खुमारी छायी रहती। उनके बदन टूटते रहते। चाय की चुस्कियों के बीच वे उससे सडक़ की निर्माण संबन्धी जानकारी लेते। वह उन्हे बताता कि काम लक्ष्य से अधिक हो चुका है। वे चाहे तो चल कर देख ले। बल्कि वह जोर देकर अनुरोध करता कि वे सडक़ पर अवश्य चले ताकि ठेकेदारों को भुगतान किए जा सके, क्योकि ठेकेदारों ने अनुबन्ध से अधिक काम कर दिया है। अफसर लोग तेज तेज बोलते। वे कहते कि बस वह तैयार हो कर चलते है ताकि शाम ढलने से पहले लौट सकें। पर वह जानता होता कि यह केवल दिखावटी जोश है। और सचमुच अफसरों की सडक़ पर जाने की हिम्मत नहीं पडती। वे वहीं रेस्ट हाउस में पडे-पडे क़ागजों को निपटाते रहते, उसे डांटते रहते, चाय और दारू पीते रहते, खाना खाते रहते। इस बीच वह उनके हाथों में दूरबीन पकडा देता जिससे वह तथाकथित नव निर्मित सडक़ को देखते। उन्हे सडक़ के मोड क़टे और निर्मित नजर आते जिससे उनके दिलों पर विश्वास हो जाता कि सडक़ का निर्माण कार्य पूरा हो चुका हैं। और उन्हे सडक़ पर जाने की कोई जरूरत नजर न आती।उनके दिमाग में ये बात भूले से भी नहीं आती कि कोई इतनी चालाकी भी कर सकता हैं कि केवल मोड पर ही काम कराए और बाकी सडक़ यूं ही छोड दे। इस बीच वह ठेकेदारों के बिल भुगतान के लिए प्रस्तुत करता जिन्हे साहब लोग पास कर देते
ठठरी दूसरा पन्ना
साहब लोगे के पास और भी बहुत काम रहता। अधिक महत्वपूर्ण काम उनकी प्रतीक्षा कर रहे होते।वे व्यस्त अफसर थे। उन्हे और दूसरी सडक़ों का दौरा करना होता। कई बार तो मौसम ही खराब रहता और तब तो ऐसी बीहड सडक़ के दौरे पर सवाल ही पैदा नहीं होता। दो दिन रहने के बाद अफसर प्रसन्न और संतुष्ट लौट जाते। मौसमी फल, शहद, घी और ऊनी दान तथा थुलमे वह साहब लोगो के लिए बांध देता था।
ठेकेदारों से भी वह अपने उसूलो के अनुसार है व्यवहार करता। वह उनसे भी बेइमानी नहीं करता।किसी छोटे ठेकेदार पर अगर एक सौ पांच रुपये पांच आने कमीशन बनता और ठेकेदार एक सौ पांच उसे देता तो वह नम्रता से कहता,''न भईया, पांच आने पहले एक सौ पांच बाद में। यह तो सरकारी मामला है। हिसाब ऊपर तक भेजना पडता है।''
वह कहता, '' हमें बनिए की तरह कम मुनाफे पर अधिक काम करना चाहिए।'' अफसरों को खुश रहने के कारण उस पर हमेशा सबसे अच्छा और सबसे ज्यादा काम रहता है जिससे उसे स्बसे ज्यादा आमदानी होती जिसका अधिक भाग वह अफसरों पर खर्च कर देता।
मुनसियारी मे उसे पांच वर्ष हो गए थे। एक दिन अचानक उसका तबादला मेरठ हो गया। उसे आदेश दिया गया कि वह अपना सारा चार्ज श्री सामंत को देकर एक सप्ताह मे अवमुक्त हो जाए और नए स्थान पर ज्वाइन कर ले। वह उन सभी अफसरों के पास दौडा जो कभी उसे बहुत मानते थे। उसे भरोसा था कि वह अवश्य उसे लिए कुछ करेंगे। पर उन्होने साफ जवाब दे दिया। उन्होने कहा कि एक सप्ताह के अन्दर लखनऊ चीफ इंजीनियर से अगर वह अपने रुकने के आदेश ले आए तभी कुछ हो पाएगा। पर इसके लिए भी अफसरान तबादले के दौरान स्वीकृत न करने के नियम के तहत उसे छुट्टी देने को तैयार नहीं थे। उसे बुरा लगा, पर अपनी आदत के अनुसार वह कुछ नहीं कर पाया।मन मसोस कर रह गया। उधर सामंत ने भी उच्चाधिकारियों को तर कर रखा था। इसके साथ ही अफसरों को भी इस तरह सूचनाएं मिल रही थी कि उसने अपने कामों मे बडा गोलमाल किया है जिसका पूरा हिस्सा अफसरों को नहीं मिला है।
बहरहाल, उसने बडी क़ोशिश की पर कुछ नहीं हो सका और फिर जब उसने सारी स्थिति पर नए सिरे से गहराई से विचार किया तो उसे तबादला भी ऐसा कोई खास बुरा नहीं लगा। क्योंकि इससे एक तो वह अपने घर के पास पहुंच जायेगा जहां से वह अपना घर द्वार देख सकेगा। दूसरे उसने सोचा कि इस बार बच भी गया तो अगले वर्ष तो उसे जाना ही पडेग़ा। एक बार तो फिर भी घर के पास पहुंच रहा है अगली बार जाने कहां तबादला हो। फिर उसने मन को समझाया कि वह तो मेहनती है, मिलनसार और आज्ञाकारी है जहां जायेगा वहीं काम करायेगा और पैसा कमायेगा। सामंत ने उसके साथ सभी कार्यस्थलों का दौरा किया। मुनसियारी-मिलम सडक़ की हालत बहुत ही खराब निकली। उस पर भुगतान पूरा हो चुका था पर सिवाय मोडों के कहीं हाथ भी नहीं लगाया था। इसी प्रकार दूसरी सडक़ों पर भी अनेक कमियां निकली। यह भी पाया गया कि सभी कार्यो में कम से कम दो लाख रुपये का गोलमाल है। सीनियर ओवरसीयरों की बैठक पिथौरागढ में बैठी। सामंत ने कहा उसके पास कोई चारा नहीं है सिवाय इसके कि वह पूरे तथ्य उच्चाधिकारियों को रिर्पोट कर दे, वरना कल वह फंसेगा। बीच के रास्ते के बतौर जब सामंत ने पचास हजार रुपये की मांग की तो उसने कहा,'' पैसा कहां है! जो भी मिलता था उसमें से अधिकतर तो अफसरों को चला जाता था। जो थोडा बहुत बचा था वह खर्च हो गया। बहरहाल दो घंटे की जद्दोजहद के बाद यह तय हुआकि सामंत को दस हजार रुपये देगा और सामंत जस का तस चार्र्जमेमो पर हस्ताक्षर कर देगा।
रात में सोते समय उसने सोचा कि उससे बडा बेवकूफ और कौन होगा जो सोने के अंडे देने वाली मुर्गी जैसा चार्ज भी सामंत को दे और ऊपर से दस हजार रुपये भी। उसने रात में ही कैम्प क्लर्क को बुलाया, पांच सौ रुपये उसके हाथ पर रखे और चार्जमेमो की एक प्रति उसे देकर रसीद प्राप्त कर ली और सुबह को अपना सामान उठा कर बिना किसी को बताए चलता बना और जाकर मेरठ में ज्वाइन कर लिया। इस बात से सभी लोग सकते में आ गए। किसी को भी ख्याल तक नहीं आया कि उसके जैस निरीह और सीध साधा आदमी ऐसा कर डालेगा। सामंत तो बहुत बिखरा फैला।एक्स्क्यूटिव इंजीनियर ने सुपरिटेन्डिग इंजीनियर को रिर्पोट किया कि वह बिना चार्ज दिये चला गया है। उसे फरारा घोषित उसके विरुध्द कार्यवाही की जाए। सुपरिटेन्डिग इंजीनियर ने मेरठ वाले उसके नए एक्सीक्यूटिव इंजीनियर की मार्फत उसे लिखा कि वह बताए कि बिना उचित रूप से रिलीव हुए यहां से चले जाने के लिए क्यो न उसके विरुध्द अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाए?
उसने जवाब दिया कि उसे आदेश दिए गए थे कि वह एक सप्ताह के अन्दर श्री सामंत को चार्ज देकर अपने नए गतंव्य पर ज्वाइन करे। जब एक सप्ताह बीत गया और श्री सामंत ने चार्ज नहीं लिया तो उसके पास उच्चाधिकारियों के आदेशों के पालन का इसके अलावा और कोई रास्ता बचा था? और केवल अधिकारियों के आदेश का पालन करने के लिए उसने चार्जमेमो कैम्प क्लर्क को देकर नए स्थान पर ज्वाइन कर लिया है।
सुपरिटेन्डिग इंजीनियर ने जब उसे और सख्ती से लिखा तो उसने सुपरिन्टेंडिग इंजीनियर से पत्र व्यवहार के लिए डेढ सौ रुपये माहवार पर एक अंशकालिक वकील तय कर लिया। वकील की मार्फत जब पहला पत्र कानूनी भाषा में सुपरिन्टेंडिग इंजीनियर कार्यालय में पहुंचा तो बाबू लोगो के हाथों के तोते उड ग़ए। बडे बाबू सारे कागजात लेकर सुपरिटेन्डिग इंजीनियर के पास पहुंचे और बोले,'' अब इन पत्रों का उत्तर हम नहीं दे सकते। किसी वकील की मदद लेना ही उचित होगा।''
सुपरिटेन्डिग इंजीनियर ने भी वकील की सेवाएं ली। पर हुआ कुछ नहीं। चार पांच पत्रों का आदान प्रदान हुआ। उसके बाद मामला टांय-टांय फिस्स। इससे दो बातें हुई। एक तो उसे अपने आप में भरोसा पैदा हुआ और उसे लगा कि अफसर भी कागज क़े शेर है और मौका पडने पर उनसे भी भिडा जा सकता है। दूसरे उसके अन्दर अफसरों के प्रति एक अवज्ञा का भाव पैदा हो गया। अंदर-अंदर वह उनसे चिढने लगा। वह दुखी होकर सोचता कि मैने इन अफसरों के लिए क्या नहीं किया। इनके लिए मैने दलाली तक की। उन असहाय, गरीब लडक़ियों को इन भेडियों के पास पहुंचाया। इनके हर इशारे पर उठता-बैठता रहा और कमा-कमा कर इनके घर भरता रहा। पर इन अहसान फरामोश अफसरों ने मेरे तबादले के वक्त ऐसा व्यवहार किया जैसे मुझसे काई रिश्ता ही न हो। फिर उसे पिता की मौत और चीफ इंजीनियर का अमानवीय व्यवहार याद आ जाता। उसकी तबियत होती कि किसी अफसर का कोई मां-बाप मरे और तब उसे असहाय और दुखी देखकर वह भी मजा ले।
पर इससे भी बडी बात यह हुई कि इन पत्रों के आदान प्रदान से मेरठ का एक्सीक्यूटिव इंजीनियर भी उससे शंकित रहने लगा। एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को लगा कि वह बदमाश, झगडालू और खतरनाक है जो अफसरों की अपेक्षित इज्जत नहीं करता और विभागीय मामलों में बेवजह वकीलों आदि को शामिल करके विभाग के अनुशासन की धज्जियां उडाता है। एक्सीक्यूटिव इंजीनियर ने अघोषित सजा के बतौर उसे खंडीय कार्यालय कक्ष का प्रभारी बना दिया जहां उसे मानचित्रकारों से नक्शे बनवाने होते, आगणनों और निविदाओं में दरों की चेकिंग करनी होती, बैठकों की प्रगति आख्याओं के प्रपत्र कागज थे, आमदनी का जुगाड क़म से कम और मेहनत अधिक से अधिक थी।पर वह एक जिम्मेदारी की जगह थी और एक्सीक्यूटिव इंजीनियर के कार्यालय में उस जगह का महत्व था।
शुरू-शुरू में उसे बडी फ़ुर्सत लगती। लगता, जैसे उसे कैद कर लिया गया हो। सुबह दस से शाम पांच तक बंधकर बैठना। पर अपने मेहनती स्वभाव के कारण हल्के-हल्के वह अपने काम में दक्ष होने लगा और उसे वहां मजा आने लगा। उन कागजों के अन्दर छिपे हुए राज और धन उसे दिखाई पडने लगा। चार-पांच महीने बीतते बीतते उसने एक्सीक्यूटिव इंजीनियरको पंगु बना दिया। एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को इतना चैन इससे पहले कभी नहीं मिला था। एक्सीक्यूटिव इंजीनियर के पास कागज बिल्कुल दुरुस्त और साफ सुथरे अन्दाज मे पहुंचते। दफ्तर का सारा काम समय से निपटने लगा।उच्चाधिकारियों तथा दूसरे विभागों से आने वाले स्मरण पत्रों की संख्या नगण्य हो गई। कार्यालय की छवि सुधरने लगी। एक्सीक्यूटिव इंजीनियर उस पर निर्भर रहने लगा। चाहे जैसा मुश्किल काम होता वह पूरा करके एक्सीक्यूटिव इंजीनियर की मेज पर पहुंचा देता। एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को सिर खपाने की जहमत न उठानी पडती।
एक असिस्टेन्ट इंजीनियर, जिसका मुख्यालय मेरठ से लगभग 20 मील दूर एक तहसील में था,एक्सीक्यूटिव इंजीनियर का बडा मुंह लगा और बडा तेज तर्रार था। उसके बारे में मशहूर था कि वह विभाग का सुल्ताना डाकू है। लोग कहते थे कि उसने अकूत धन कमाया है। साथ ही वह कागज बनाने में भी इतना दक्ष था कि किसी भी तरह पकड में नहीं आता था। फिर वह अफसरों और ऊंचे कार्यालय के बाबुओं को भी खुश रखता था। जैसी जिसकी औकात वह आंकता वैसा उसके लिए करता।
एक बार बरसात के दिनों में उस असिस्टेन्ट इंजीनियर ने तीन टेंडर एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को मंजूर करने के लिए भेजे। हरेक टेन्डर की लागत लगबग दो लाख रुपये थी। न्यूनतम टेन्डर की दर प्रचलित दरों से लगभग 15 प्रतिशत अधिक थी। उसने ठेकेदारों से यह लिखवा कर भी संलग्न कर दिया था कि वे दरें काम करने को तैयार नहीं है। उसने मिट्टी, पत्थर और पानी की अधिक ढुलाई दिखा कर उन ऊंची दरों को पुष्ट किया था। उसने लिखा था कि काम बहुत जरूरी है। सारा यातायात रुका हुआ है। हर तरफ हाहाकार है। अगर टेन्डर स्वीकृत करने में देर हुई और काम शुरू न हो सका तो सडक़ो के भी कट जाने का खतरा है जिससे अगर्लबगल के कई गांव डूब सकते है। उसने लिखा कि जितनी देर होगी सडक़ो को पूर्ववत स्थिती में लाने के लिए उतना ही धन व्यय करना होगा, और विभाग की छवि धूमिल होगी से अलग। असिस्टेन्ट इंजीनियर ने प्रमाणित किया था कि मौजूदा स्थितिओं और मजदूरी तथा सामानों की दरों में अप्रत्याशित वृध्दि के कारण काम इनसे कम दरों पर करवाना सम्भव नहीं होगा।
वह अब तक ऐसी भाषा के मुखौटो के पीछे छिपे असली मतंव्य को पहचानने लगा था। उसने एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को समझाया कि टेन्डरों के मंजूर करते ही सारी जिम्मेदारी उन पर आ जाएगी। इसलिए फाइल में यह रिकॉर्ड तो रहना चाहिए कि उन्होने भी अपनी तरफ से दरें कम कराने की पूरी कोशिश की थी। अत: उचित यह होगा कि एक बार अपने स्तर से भी असिस्टेन्ट इंजीनियर को ठेकेदारों से कम दरें कराने के लिए कहा जाए। एक्सीक्यूटिव इंजीनियर सारी अन्दरूनी चीजों को समझता था और टेन्डरो को ऊंचेदरों पर ही मंजूर करना चाहता था। पर उसे उसका यह सुझाव अच्छा लगा कि एक बार फिर से ठेकेदारों से लिखाकर मामले को और भी मजबूत तथा निष्कांटक कर लिया जाए। वहीं हुआ। जब असिस्टेन्ट इंजीनियर को एक्सीक्यूटिव इंजीनियरका पत्र मिला तो उसने फौरन ठेकेदारों से फिर लिखाकर भिजवा दिया कि वे दरें कम करने को तैयार नहीं है।
इस बीच उसने अपने एक विश्वस्त और उस इलाके के प्रभावी आदमी के द्वारा इस तरह अपने पास बुलाया कि असिस्टेन्ट इंजीनियरको पता न चले। तीनो ठेकेदार सीर्धेसाधे गांव में रहने वाले थे। उन्हें देखकर साफ जाहिर था कि ऊंची दरों का यह सारा खेल केवल असिस्टेन्ट इंजीनियर का ही है।
उसने ठेकेदारों से कहा - '' जानते हो एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को बडा साहब क्यों कहते है?इसलिए कि वह वाकई सबसे बडा होता है। हालांकि विभाग मे सुपरिन्टेंडिग इंजीनियर और चीफ इंजीनियर भी है पर असली ताकत बडे साहब के पास ही है।वह क्या नही कर सकता? जहां चाहे वह ठेकेदार को फायदा और जहां चाहे नुकसान पहुंचा सकता है। उसकी इच्छा है कि दरें कम कर दोगे, उसकी सद्भावना और विश्वास जीत लोगे तो वह तुम लोगो को अपना आदमी समझेगा और जितना पैसा तुम कम करोगे उससे दोगुना निकलवा देगा तथा अन्य दूसरे काम भी तुम्हे देकर मालामाल कर देगा।अगर नहीं मानोगे तो हो सकता है मजबूरी में इन्ही दरों पर वह टेन्डर मंजूर तो कर ले पर काम के दौरान तुम्हे परेशान करेगा और मटियामेट कर देगा।
वे बेचारे गरीब, गंवार तैयार हो गए। तीनो ठेकेदारों से एक्सीक्यूटिव इंजीनियर के नाम उससे अलग-अलग लिखवा कर ले लिया कि आपसे आपके कार्यालय में बात हुई और वे अपनी दरें 5 प्रतिशत कम करने को तैयार हो गए। तीनों ठेकेदारों की अर्जियां अपने कब्जे में करने के बाद उसने ठेकेदारों से कहा कि वह अब भी पूरी कोशिश करेगा कि टेन्डर उनकी मूल दरों पर ही स्वीकृत हो जाएं। पर उस सूरत में उन्हे 2 प्रतिशत यानी चार हजार प्रति टेन्डर की दर से खर्च करना पडेग़ा। थोडे हीले-हवाले के बाद तीन हजार प्रति टेन्डर की दर से उसने नौ हजार रुपये इन लोगो से ले लिया और उनकी मूल दरों यानि 15 प्रतिशत अधिक पर ही हो, असिस्टेन्ट इंजीनियर की संस्तुति के आधार पर,टेन्डर एक्स्क्यूटिव इंजीनियर से स्वीकृत करवा दिया।
जब असिस्टेन्ट इंजीनियर को यह सब पता चला तो वह आसमान से गिर पडा। असिस्टेन्ट इंजीनियर द्वारा दिए गए इस प्रमाणपत्र के परिपेक्ष्य में कि काम कम दरों पर कराना संभव नही है। ठेकेदारों द्वारा 5 प्रतिशत दरें कम करने के लिए दिए गए प्रार्थनापत्र असिस्टेन्ट इंजीनियर के लिए घातक हो सकते थे। अगर उच्चाधिकारियों या शासन को इस बात का पता चल जाता है कि असिस्टेन्ट इंजीनियर ने झूठा प्रमाणपत्र दिया था और यह कि उसके प्रमाणपत्र के बावजूद ठेकेदारों ने दरें कम कर दी थी तो असिस्टेन्ट इंजीनियर को लेने के देने पड सकते थे। अत: उन प्रार्थनापत्रों का उपयोग वह असिस्टेन्ट इंजीनियर के विरूध्द न करे इसके लिए असिस्टेन्ट इंजीनियर भी उनकी जेब गरम करता था।
आखिर एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को पता चलना ही था। असिस्टेन्ट इंजीनियर ने एक दिन मौका देखकर एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को बताया कि - '' आपके हिस्से का पांच हजार प्रति टेन्डर जो प्राविधान किया गया था वह तो वह बदमाश खा गया।'' उसने नमक, मिर्च मिला कर सारा किस्सा एक्सीक्यूटिव इंजीनियर को बता दिया और जानबूझ कर तीन जगह पांच हजर बतााया क्योंकि असिस्टेन्ट इंजीनियर जानता था कि ऐसी बातों का खुलासा नहीं होता है।
इस घटना के बाद एक्सीक्यूटिव इंजीनियर उससे फडक़ने लगे और बडे चौकन्ने रहने लगे। जैसे ही उन्हें मौका मिला उन्होने उसे एक छोटी सी सडक़ का चार्ज देकर, जिस पर कोई खास काम नहीं था,असिस्टेन्ट इंजीनियर श्री सिंह के पास भेज दिया। उसे अब काम की कोई चिन्ता नहीं रहती। वह अब मस्त रहता। लोग अब उससे उलझने से बचते। श्री सिंह सीधे-सादे और सज्जन थे। कोई खास काम उसके पास न होने के कारण भी झगडे और मनमुटाव के मुद्दे नहीं पैदा हो पाते। और इसलिए श्री सिंह से उसके संबंध बडे मधुर हो गए थे। अपनी पुरानी आदत के अनुसार और श्री सिंह की सज्जनता के कारण उसे श्री सिंह के निजी काम करना अच्छा लगता। दफ्तर मे श्री सिंह की पान,चाय, सिगरेट का पैस वहीं देता। उसके घर में छोटे-मोटे काम वह करवा देता उनके घर घण्टों बैठता और उनके बच्चों से खेलता।
एक दिन श्री सिंह के पिता का स्वर्गवास हो गया। वह बहुत दिनों से बीमार थे, वृध्द थे और लगातार बीमारी के कारण बडे क़ृशकाय हो गए थे। दफ्तर से सभी अफसर, कर्मचारी और चपरासी श्री सिंह के घर जमा हो गए। जब अर्थी तैयार होने लगी तो श्री सिंह ने उसे घाट पर भेज दिया ताकि पहले पहुंच कर वह लकडी आदि का प्रबन्ध करके चिता तैयार करवा ले।जिससे लोगो को घाट पर अनावश्यक देर न हो।
घाट पर पहुंच कर उसे अपने पिता की मौत का दृश्य याद आ गया अपना बिलखना और चीफ इंजीनियर के सामने गिडग़िडाना और चीफ इंजीनियर का उसके प्रति जानवरों जैस व्यवहार। नपुंसक सुपरिन्टेंडिग इंजीनियर का बडबोलापन कि वह तबादला करवा देगा।और चीफ इंजीनियर के आगे-पीछे उसका मक्खी की तरह भिनभिनाना और फिर मुनसियारी से तबादले के समय अफसरों की तोताचश्मी। उसे उन लडक़ियों के चेहरे याद आए मुनसियारी की अवधि के दौरान जिन्हे उसने उन जालिम कामुक अफसरों के लिए पहुंचाया था। उसे अपना अकेलापन और जवानी के वे पांच साल याद आए जे उसने मुनसियारी में अफसरों की सेवा करते गुजारे थे। उसे अपनी पूजा शराब और देवदार के पेड याद आए जो उन पांच सालों में उसके साथी थे।उसे सरसों और गन्ने के खेत तथा सीधी सपाट सडक़ें याद आई।
तरह तरह की बातें उसके दिमाग में कौंधती रही कि,तब वह उत्साही और इंसानियत से भरपूर था।अब कैसे वह परले दर्जे का धूर्त और भ्रष्ट है? समाज देश के लिए उसकी क्या उपयोगिता है? क्यों हुआ ऐसा कि जैसा सरल हृदय और सहज आज एक घुटे हुए शातिर बदमाश में बदल गया है?
एक क्षण को उसे लगा कि यह उसकी अति भावुकता है, जो वह इस बेमतलब की कश्मकश में फंस गया है, क्योंकि जो होना है वही होता है जैसे कि वह पहले विश्वास करता था। पर अब उसका मन इससे संतुष्ट नहीं हुआ। उसे लगा कहीं कुछ गडबड है। यह गणित इतना आसान नहीं है। उसकी तबियत हुई कि सब कुछ उलट-पलट दे। जिस गंदी घिनौनी दलदल में वह फंसा है उससे निकल भागने की उसकी इच्छा होने लगी। यह अंधी दौड, यह चूतिया-चक्कर उसे लगा वह इससे ऊब गया है। पर अगले ही क्षण उसे लगा कि उसका ऊबना भी झूठ है; कि उसे भी इस अंधी दौड में, घिनौनी दलदल में मजा आता है और वह इसके बगैर जी नहीं पायेगा। उसे लगा कि उन रास्तों से पैसा कमाने से उसे अतुलनीय आनंद मिलता है जहां से दूसरों के लिए असंभव लगता हो। दूसरो को तंग करने में, उन्हे असहाय और बेबस देखने में उसे हिंसक आनंद मिलता है।जब वह दूसरों का खासतौर पर अफसरों का स्वाभिमान टूटते देखता है तो उसे बडी ख़ुशी होती है।
अचानक उसके दिमाग में फिर से अपनी पिता की मौत और अपनी बेकारी के दिनो में पिता की बेचैनी याद आ गई।उसके मन में अप्रत्याशित रूप से अनजाने ही अफसरों के प्रति नफरत का लावा इकट्ठा होने लगा। उसे लगा श्री सिंह भी सारे दूसरे अफसरों की तरह ही है बल्कि उसे लगा, कि वह और भी अधिक तेज और घाघ हैं पर सज्जनता की खाल ओढे रहते है। उसने सोचा श्री सिंह उससे सभी अपने निजी काम लेते ही है,अपनी चाय पानी का पैसा वह उससे खर्च कराते है और आज भी उन्होने उसे यहां घाट पर भेज ही दिया। उसके दिमाग की नसें फटने लगी और फिर एकाएक उसके चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान फैल गई।और वह चुपचाप चिता संबंधी कामों मे जुट गया।
जब अर्थी का जुलूस घाट पर पहुंचा तो लोगो ने देखा कि जो चिता लगाई गई है उसमें लकडी बहुत कम है।वह कंडे घी, चाकू और हंडियां आदि के इंतजाम में व्यस्त था।अर्थी को आता देख वह उसके पास आ गया। एक्स्क्यूटिव इंजीनियर ने उससे कहा -
'' क्या बात है भई, लकडी तो बहुत कम दिखाई दे रही है।''
'' पूरे तीन मन है साब।'' उसने ठेठ मुजफ्फरनगरी लहजे में कहा।
'' तीन मन! इसमें कैसे जल पायेगी लाश? '' एक्स्क्यूटिव इंजीनियर ने आश्चर्य और गुस्से से कहा।
उसने एक गंदी गाली देकर कहा , इस लाश में है ही क्या! ठठरी ही तो बची है।''
वह जोर जोर से कहता हुआ वहां से चल दिया और दूर जाकर लकडी क़ी टाल वाले से चीख कर बोला,
'' अरे बीस सेर लकडी और दे दो भाई। साहब लोग कह रहे है तो लाश नहीं जल पायेगी।''
हालांकि सबको बुरा लगा पर उस दुख भरे भारी माहौल में भी लोग मुंह दाब कर हंसने लगे। श्री सिंह दाह देने से पहले नदी के अंदर पानी में नहा रहे थे। उन्होने तो कुछ नहीं सुना पर एक्सीक्यूटिव इंजीनियर तथा अन्य सभी अफसरों के चेहरे स्याह पड ग़ए।
लाश, उस बीस सेर लकडी क़े बावजूद पूरी नहीं जल सकी। जलने के दौरान एक-एक मन लकडी उसे ही दो बार और मंगानी पडी और इस प्रकार घाट से जल्दी लौट आने का प्रोग्राम धरा का धरा रह गया।
पूरी तीन घंटे बाद ही लोग निवृत हो सके।
- हरीशचन्द्र अग्रवाल
अक्तूबर 14, 2001

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