Sunday, December 20, 2009

प्रेम से पहले
पार्टी की भीड पर उसकी नजरें फिसल रही थीं। उन्हें खोजना मुश्किल मालूम हुआ। जहां आंखों को अटना था। वहीं चेहरा ओझल था। फुरफुरी की तरह निराशा व्यापने लगी। तो तो वे आए नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है?
हो तो सकता है। जिस पद पर वे कार्य कर रहे हैं, अर्जेन्ट कॉल के झमेले पडे ही रहते हैं। लेकिन सूचित तो कर ही सकते थे। करना चाहिये था।
हताशा से सिर फटता - सा लगा। उन तक पहुंच पाना उसके लिये हमेशा ही मुश्किल रहा है। शुरुआत से ही। सबकुछ अनिश्चित, संदिग्ध सन्देहपूर्ण। सन्देह के रहस्य में मिलने पर कभी उल्लासपूर्ण ताप चढ ज़ाता तो कभी उचाट ठण्डापन। निष्कर्ष तक न पहुंच पाना उसे बहुत क्षुद्र और कातर कर जाता। उनके व्यवहार में कुछ ऐसा अनिश्चय था कि वे उसे कभी बहुत करीब और कभी दूर खडे अजनबी की तरह लगते थे। कभी झलझलाती रंगीनी भरी तबियत तो कभी खाली मटके सा भाखता रीतापन। अपने मूड का उनके रिस्पॉन्स पर आश्रित होना उसे बहुत अपमानजनक लगता। कई बार गुस्से में बडबडाई है ऐरोगेन्टसेल्फिश, टाइमकेलकुलेटिंग मेन!
क्यों आलतू - फालतू सोच कर मन मलिन कर रही है? उसने सख्ती से बिखरते हुए मूड को कसा और एकाग्र हो दुबारा छितरी भीड क़ो आंखों में समेटने लगी।
'' हैलो! क्या देख रही हैं, लंच लीजिये ! प्लीज'' मिस्टर सिंह थे।
'' कुछ नहीं।'' हकबकायी सी वह अपने फीके चेहरे को मुस्कान से सायास सहज करती हुई उनके साथ घिसटते हुए तकल्लुफी बातों में अपने आप को खपाने लगी।
'' गुड गॉड।'' वह दूर - दूर तक देख रही थी। वे अब करीब ही थे। उसकी दाहिनी ओर की सर्विस टेबल के पास प्लेट पकडे हुए किसी से बतिया रहे थे। वह मिस्टर सिंह को दरकिनार करते हुए आतुर कदमों की डगमग चाल से उन तक पहुंची।
'' कब आयीं?''
'' कुछ देर पहले।'' कहकर वह अभिमुख थी। उनके आस - पास की भीड से चेतस जबरन सादा मुस्कुराहट में भी उसे व्यंजना भरे अर्थ की कौंध लपकती - सी लगी। वह गुस्सा भूल सहज हो गयी। स्तब्ध आंखों की टकटकी जब झेली नहीं गई तो झंपायी - सी सामने दहकी धूप में चटकीले फूलों की सघन क्यारी को निरखने लगी। वे लोग पहले भी मिलते रहे हैं। औपचारिकता से बंधे विभागीय बैठकों में। परसों ही उनका फोन आया था।
'' तुम आओगी? पार्टी में वहां से कहीं चलेंगे हमें बात करनी चाहिये। वी मस्ट''
'' आर यू सीरियस?'' बात काटते हुए वह अपना सन्देह जुबान पर लाने से रोक न पाई थी।
'' तुम आओगी तो बात करेंगे, प्रॉमिस।'' और फोन चुप पड ग़या था। उसका जवाब श्योर ' उसके कण्ठ में ही अटका रहा गया था।
'' लन्च नहीं लोगी?''
'' लन्च लेकर ही चली थी।'' बिना सोचे - समझे मुंह से निकल गया। लंच पार्टी का निमन्त्रण हो तो कोई ऑफिस से लंच लेकर निकलता है? अपनी गडबडाहट पर वह स्वयं विस्मित थी।
'' कुछ स्वीट ही ले लो।
अधीनस्थ की तरह आदेश की अनुपालना में यंत्रचालित सी उसने प्लेट उठायी और टेबल की ओर बढ चली। अब वह उनके सामने लॉन में कुर्सी पर बैठी हुई चम्मच से छोटे - छोटे कौर निगल रही थी।
कुछ दिनों से वह परेशान थी। असमंजस में थी। भीतर से उठती चेतावनियां। तुम फिर खतरा उठा रही हो। दांव पर लगा रही हो अपनी स्वतन्त्रता निजता। वह बहरी बनी हुई थी और प्रतीक्षा के आकुल तनाव में थी। कभी - कभी हम बेसबरे होकर प्रतीक्षा भी करते हैं और सद्य: जन्मे बच्चों की तरह घटित नये संसार में प्रवेश के डर से मुट्ठियां कसे रहते हैं। दो आसक्त व्यक्तियों का अपनी अपनी खूंटियों से छिटक कर मुठभेड क़ी आत्मविध्वंसक घटना। संघर्षण की चकाचौंध चिनगारियों से नजर चुरा लेना मुश्किल है। इस दुर्घटना के बाद ही सम्बन्ध की नींव पडेग़ी। असहनीय जान पडता है सब कुछ, कल्पना का सच ज्यादा विकराल होता है। घटित न होते हुए भी मानसिक आवर्तन के कारण हमेशा ग्रसित किये रहता है वह हैरान और आकुल थी। रसज्ञता के मुहाने पर विगत जीवन के विषाक्त अनुभवों के पत्थर क्या पिघल गये हैं? मरणासन्न कर देने वाली घुटन से वह तलाक द्वारा निजात पा चुकी है।
जीवनयापन की आत्मअन्वेषित शैली में नियोजित - व्यवस्थित हो गयी है। दुबारा भावुकता के दलदल में खुद को लथेडना फिर खुद ही अपनी आशंकाओं का प्रतिवाद करने लगी। पत्थर की लकीर से ढले व्यक्तित्व का क्षरण कहीं संभव है? यह तो जीवन में सरसता की छोटी सी मांग है। जिसे स्वीकार कर वह आज यहां उनके बुलाने पर आ गई है।
सोच के बोझिल अन्धड से अकुलाई आंखें उनके चेहरे पर केन्द्रित हो गयीं। जैसे सारी उहापोह और शंकाओं का समाधान उनके चेहरे पर लिखा हो। क्या ये ही हैं सचमुच मैं आकर्षित हूं, चाहत में हूं?
उनका प्लेट पर झुका चेहरा ऊपर उठा। अब उसकी प्लेट पर सिर झुकाने की बारी थी। क्या अब सोचने और निर्णय लेने को कुछ नहीं बचा है? संशय के ये कैसे फनफनाते पल हैं जो प्रेम से पहले घुमडते हुए सिर उठा लेते हैं।
एक सज्जन उनसे बात करने के लिये आये। वह भी कुर्सी से उठ गयी। उसका परिचय देते हुए वे दृढता से
माय फ्रेण्ड कह गये। तो उन्हें वह स्वीकार्य है। और उसे ? बेचैनी भरी ऐंठन उठी और वह घबरा कर इधर - उधर देखने लगी।घास शारदीया धूप में गीले पुते रंग सी तरल - चटख थी। कच्ची फुलवारी की कतारें शोख रंगों का झमाझम आलोक बिखेरती हुई इठला रही थीं। हठात् वह चौंकी। उन दोनों की बातचीत तीखी हो गयी थी। बातचीत में से चाकू पर धार चढाते समय जैसे स्फुलिंग छूट रहे थे।
वे सज्जन क्रोध में पांव पटकते हुए चल दिये। वे दोनों वापस अपनी - अपनी कुर्सियों पर थे। वे खासे विचलित नजर आ रहे थे।धीमी लय के साथ नकारात्मक ढंग से सिर को दायें - बाएं घुमाते स्वयं से उलझे हुए थे। ऐसी देह मुद्रा - जब आप जो कहना चाहते हैं, माकूल समय पर कह नहीं पाते हैं। बाद में पछताते हैं।
प्रशस्त पेशानी पर मध्यम वयस की रेखाएं। निखरी आंखों की कोरों पर उम्र की चुगली महीन झुरियां । तीखी नाक। पार्श्व से देखने पर यह तीखापन चुभता सा लगता है। सजग गाम्भीर्य की तनी भावमुद्रा! प्राय: उन पुरुषों में देखने को मिलती है जो अपने ध्येय और उसके कौशलपूर्ण निवाह की सतत चेताना से आदीप्त रहते हैं
अन्तरंग पुरुष द्वैतियक हो ओझल हो जाता है। देखने - जानने वाले को इस आयास सजगता से ही संतोष करना पडता है। लेकिन आज इस मुद्रा में वे उघड ग़ये थे। बेहद साधारण और निरुपाय नजर आ रहे थे।
उन्हें इस मालिन्यपूर्ण मन:स्थिति से बाहर निकालने के उद्देश्य से ही वह हस्तक्षेप कर उठी।
'' क्या बात है? वे कौन थे? ''
'' कुछ नहीं '' कहकर उन्होंने फिर सिर को पछतावे वाले अन्दाज में झटक दिया।
वह उन्हें - बताओ न, बताते क्यों नहीं वाली मुद्रा से कुरेदती रही। वे अनिच्छापूद्र्याक बताने लगे। स्वार्थों के टकराव और पदोन्नति का विभागीय किस्सा। बहस का अन्त ट्रिब्यूनल में केस चलाने की धमकी से हुआ था। फिर स्वयं ही अप्रीतिकर घटना की तात्कालिकता से उबरते हुए बोल उठे, '' चलो ! कहीं चलते हैं।''
बाहर निकलने में ही दस - पन्द्रह मिनट लग गये। एन पार्टी के बीच में से उन्हें जाता हुआ देखकर सभी को उनसे महत्वपूर्ण बात निपटाने की जरूरत महसूस हो उठी थी। बे खीज दबाते हुए लोगों से निपट रहे थे।
उन्हें कोफ्त महसूस होने लगी। इस तरह पार्टी के बीच से उठ कर जाना नोट कर लिया जायेगा। सत्रह - अठारह साल की होती तो दुनिया मेरी जूती की नोक पर की आलम फरेब मुद्रा में कन्धे उचका कर पीछे - पीछे चल सकती थी। मध्यम वयस के पक्केपन में अंजाम की सजगता पांव बांध देती है। भावात्मक आवेग से जुडने में परिपक्वता उतनी ही बडी बाधा है जितना अबोध वय का जोश।सोचते हुए वह उनके खाली होने का इंतजार करने लगी।
कार में बैठते हुए वे मुक्त ढंग से मुस्कुराते हुए बोले, '' सॉरी! बोर किया न तुम्हें।''
'' इम्पोर्टेंट आइडैन्टिटि - आपको तो अच्छा लगता होगा।''
'' लगता है - पर हमेशा नहीं, खासकर जब आप अकेले हो जाना चाहें।''
दोनों मुक्त हास से हल्के हो गये। सामान्य वार्तालाप में अन्तरंगता के सूत्र जुडने लगे। हवा में डोलती अकेली घास की तन्वंगी तने - सी सरसराहट उसे अपने में व्यापती लगी कुछ अचाक्षुष सा घटित होता हुआ छाता चला जा रहा था और वह गहरी सांस लेते हुए बेसुध सी सब समेटते हुए पोसरी होती चली जा रही थी।
अजीब बात थी, अन्त:चेतना का एक अंश उमडता हुआ इस नशे का विरोध करता हुआ चेतावनियां ठोक रहा था। उसे ध्यान आया।अभी जिस व्यक्तित्व के आकर्षण से वह अपने आपको विवश पा रही है, थोडी देर पहले वह कितने साधारण निरुपाय नजर आ रहे थे। और अब जिसे हम जुडना कहते हैं वह आदर्श छवि तोडक़र प्राप्ति का सहज वरण है या उस स्वप्न - छवि की टूटी प्रतिमा का पुनर्निर्माण? वह सचमुच असमंजस का शिकार हो चली थी। क्या वह इस रिजिडनेस को विर्दीण कर भीतरी परत को देखना - भोगना चाहती है?
लेकिन वह उत्फुल्ल - प्रसन्न थी, उनके साथ। यकीनन थी। क्या यही काफी नहीं?
बडे होटलों की चमाचम सजावट उसे हमेशा पटाखों - सी फूटती दु:सह जान पडती है। लप - झप में आंखें बार - बार जा अटकती हैं।सोचने - महसूसने की एकाग्रता भंग हो जाती है।
वे दोनों कॉफी पी रहे थे।
अपनी तरफ एकटक नजरों की बौछार से वह सकुचा गई। गालों पर सुर्ख आंच थिरकने लगी। आक्षेप भरी नजरों से उलाहने लगी। ''क्या देख रहे हो? देखना अब भी बाकि है? '' कुछ कहने की तत्परता क्षणांश भर के लिये उठी। फिर लुप्त हो गयी। आरक्त आंखों में गुलाब के फूलों का रंग था।
'' क्या प्रोग्राम है? ''
'' आप बताइये।'' वह इतना ही कह पाई। आपने बुलाया है, कहने की इच्छा घोंट गयी।
'' नथिंग स्पेशल।'' वे उकसाते हुए शरारतन मुस्कुरा रहे थे।
मुस्कुराहट तो ठीक है - लेकिन वे एक हाथ से दूसरे हाथ का नाखून छील रहे थे। उसने गौर किया। हाथ असामान्य थे - सफल व्यक्तियों की तरह मध्यमा की उंचाई को छूती अन्य उंगलियां। नाखून छीलने की मुद्रा खासी अभद्र थी। उसकी इच्छा हुई उन्हें टोक दे।नाखून इस तरह मत छीलो- इसका मतलब होता है
प्रेम उपजे या न उपजे। अधिकार का अंकुश भाव उससे पहले आ जाता है। उसने पर्स से इलायची निकाल कर आगे बढा दी।
'' यह पान - सुपारी, इलायची - छोटे छोटे अपराध मैं नहीं करता।''
'' बडे अपराध करने का शौक फरमाते हैं?'' शब्दों की सादी बिसात के पीछे रसिकता का पुट चकचका गया।
'' हां करता हूं, कर रहा हूं। '' कह कर उन्होंने धीरे से आंख दबायी।
वह अजीब उत्सुकता की उठान से उध्दत हो गयी। उनकी जिन्दगी के छिपे कोने में दबे पांव नि:शंक घूमने - खंगालने की इच्छा में वह सुलगने लगी। उससे पहले कौन थी? कोई थी या नहीं? अपने - अपने पद, विवाहित जीवन और दुनियादारी से अलग नितान्त निजी परछाइयों के महीन साये, आवेग का आच्छादन - एक समानान्तर दुनिया।
वे दोनों भी तो शुरुआत कर रहे थे। अपराध के सृजन की आरंभिक लीला। ईश्वर जानता है। जिन्दगी गुनाहों पर ही टिकी है। वे चोर नजरों से घडी देख रहे थे।
'' कहीं जाना है? ''
'' नहीं! आदत पड ग़यी है बार बार घडी देखने की। यू नो चाह कर भी इस्केप नहीं कर सकता। सब सेक्रेट्री की नोटबुक में दर्ज रहता है।अक्सर घर से फोन पर पूछताछ होती रहती है। नोटलैस खोया हुआ समय यही तो मैं चाहता हूं ।'' बुदबुदाते हुए उनकी आंखों में किसी अज्ञात स्वप्न के कतरे तैर रहे थे। आर्द्र आकुलता से भरे हुए शब्द फूटे।
'' खैर! तुम तो आजाद हो - फ्री बर्ड।''
'' क्यों कैसे हूं?''
'' मतलब तलाकशुदा हो।'' आधी बात कह कर वे सुनने की प्रत्याशा में उसे देखने लगे।
'' यूं तो आजाद हूं। पर इस आजादी की अपनी गुलामी है। पुराने अनुभव और फिर अन्तरंग सम्बन्धों में जो जकडन होती है। एक बार भुगत कर आजाद होने के बाद'' कह कर वह बात पी गई।
सचमुच। उसने कल्पना भी नहीं की थी। बहुत सी चीजें कल्पना के बाहर छूट जाया करती हैं। वे फिर भी बची रहती हैं। कल्पना की मुंडेर पार कर कब वास्तव के धरातल पर आ उतरती हैं - कोई नहीं जानता। कितनी कसमें खायीं थीं तलाक के बाद। कांच की किरचों सी चुभन भरी जलन से इन रिश्तों को नहीं, आपके कार्य को ही जीवन का ध्येय होना चाहिये। उडती बदलियों से नश्वर सुख कहीं नहीं पहुंचाते। लेकिन आज न केवल वह उनके निमन्त्रण पर आई है, अपितु बुलाये जाने की प्रतीक्षा भी करती रही है।
फिर अन्तर्निहित सोच को तोडते हुए बरबस बोल उठी, '' इमोशनली डिपेन्डेन्स अब लगता है बरदाश्त नहीं कर पाऊंगी मैंनामुमकिन लगता है।''
'' तुम्हारी बात मैं समझा नहीं।''
'' मेरा मतलब। पजेसिवनेस से उपजा, दूसरे को नियन्त्रित और शासित करने का जो मेनहुड ओरियेन्टेशन है। वह बहुत।''
'' दैट्स आल! जो तुम्हें हर्ट करता है। पजेसिव होना तो सम्बन्ध की स्वीकृति है। तुम खुद पजेसिव नहीं हो जातीं?''
'' अभी तक तो। जो सही मानती हूं उसके पालन करने का अभ्यास है मुझे।''
'' यहां से चलें।'' कहते हुए उनका चेहरा म्लान हो गया। वे शायद बुरा मान गये।
ये तो बहुत टची हैं। जरा सी बात पर मुंह फुलाने वाले। ऐसा कैसे चलेगा? यह क्या झमेला पाल लिया। कार में बैठते ही उन्होंने फिर घडी देखी, '' ओह! चार बजे सिटिंग है, अभी तो हमारे पास काफी समय है।'' ड्रायवर आदेश की प्रतीक्षा कर रहा था।
'' तुम बताओ कहां चलें?''
'' होटल में टॉप फ्लोर रेस्ट्रां है।''
रास्ते में वे दोनों चुप थे। बतियाई हुई एक - एक बात उसके दिमाग में घूम रही थी। आवृत्तियों में घूमते हुए अनुगूंजित होकर दोहरे - तिहरे अर्थ खुल रहे कर उसे आक्रान्त कर रहे थे। उद्विग्न होकर वह कार की खिडक़ी से बाहर देखने लगी।
उन्होंने इकॉनामिक टाइम्स उठा कर पढना शुरु कर दिया।
लिफ्ट में दोनों अकेले थे। पहली बार इतने नजदीक और घनीभूत आयत में आबध्द। उसे धुकधुकी सी महसूस होने लगी। कामनाओं की मूर्तिमान कल्पनाएं उसकी आंखों में तिरने लगीं।
होटल की छत पर कृत्रिम उद्यान था। घास नरम धूप में मखमली हरेपन में उजलाई हुई थी। सूरज पर बदलियों का पहरा था। धूप सिर्फ रोशनी थी जिसमें गमलों में लगे पौधे खोये - खोये से आत्मलिप्त खडे थे। हर चीज ठहरी और ठिठकी हुई।
'' तुम्हें खुले में बैठना अच्छा लगता है? ''
'' हां। बहुत।'' चौंककर उसने जवाब दिया। इतनी देर की चुप्पी वे साधारण सी बात से तोड रहे थे।
'' मैं अभी भी पूरा दिन बाग - बगीचों में बैठे हुए गुजार सकती हूं। कॉलेज के दिनों में तो।'' बोलते - बोलते वह रुक गयी। उसे लगा इतने पीछे जाना अनावश्यक है।
'' इस तरह घूमनायाद नहीं। इस तरह समय गुजारा हो। बहुत ओवर पैक्ड रहता हूं। टाइम ही नहीं मिलता। यू नो! हर चीज क़ी उम्र होती है।'' स्वर निर्णायक और निर्मम था।
वे खुद को चेता रहे हैं या उसे? क्या वे भी अनिश्चय में हैं? किनारे पर खडे ज़ल में हाथ डाल कर जायजा भर ले रहे हैं? यह उनकी बात का साइकिक प्रोजेक्शन है या उसके भीतर तक धंसा प्रेम के प्रति भय। वह अपने मनोभावों का प्रक्षेपण उनकी बातों में ढूंढ रही है?
'' हां, होती है। हर चीज क़ी उम्र होती है।'' कहते हुए कुछ धप से उसके अन्दर मुरझा गया। सचमुच प्रेम करने की भी उम्र होती है। इतने दिनों तक वह मरीचिका में आंखें उलझाए बैठी रही? सूरज पर से बदलियों का पहरा हट चुका था। अस्ताचलगामी होने से पहले अपनी अन्तिम आग धरती पर बेरहमी से बरसा रहा था। दूर इमारतों की छतें, पेड - पौधे सब चमकते हुए आंखों में चिलक भरते चुभ रहे थे। वह लय तिरोहित हो चुकी थी जो दो आसक्ति भरे प्राणियों की बेमतलब बातों के बीच में से झरती रहती है।
वह अपनी ही लालसा के बूंद - बूंद सूखते चले जाने की कडवाहट में डूब गयी।
सिर्फ प्लेट से छुरी कांटे टकराते हुए खनखना रहे थे। वे दोनों ही कामना की बुझती आग के कसैले धुंआरे से घिरे बैठे थे।
प्राय: दृढता के अतिआग्रही व्यक्तित्व जब कमजोर पडकर भुरभुराने लगते हैं, अन्तश्चेतना उन्हें अपने ही बनाये कन्ट्रोलरूम में ले जाकर सताने लगती है। निर्मम पूछताछ शुरु हो जाती है। कोडे बरसते हैं और आत्मपीडन में पश्चाताप कर मुक्ति की राह खोजी जाती है।
वे पत्थर के बुत की तरह निश्चल थे। चेहरा हताशा में उघडा हुआ था। वह चाहती थी कि उन्हें किसी तरह आह्लाद नहीं तो सहजता की परिधि में खींच लाये। उसे यह असंभव लगा। क्या बात है? किस उधेडबुन में हैं? पूछने का हौसला तक नहीं जुटा पा रही थी,बस यहीं दूसरे के मूड पर अपनी मन:स्थिति का पराश्रित हो जाना उसे खलता है। सामने वाला चेहरा लटका कर बैठा है इसलिये आप भी कसमसाते फिरें। वेटर आकर ट्रे वापस ले गया।
वे दोनों टॉप फ्लोर से नीचे पहुंचने के लिये वापस लिफ्ट में थे। एक दूसरे के आमने - सामने। एकटक नजर मिली।
आशा की तेज लहर उदासीनता को रौंदते हुए हुलस कर उठी। भीतर चेतावनी जगी। इट्स नाऊ ऑर नेवर! उसका हाथ भर छू लेने की तडप लिये आगे बढा उन तक गयाऔर बजाय उन तक पहुंचने के बोर्ड के जी स्विच को दबा गया। लिफ्ट ग्राउण्ड फ्लोर की और दौड चली।
अफसोस भरे गहरे निश्वास के साथ उसे अपने प्राण फडफ़डा कर बाहर निकलते से लगे।
वे खोये - खोये से निश्चल खडे थे।
लिफ्ट रुकी और तीसरी मंजिल से लोग भीतर आ गये।
यह वास्तव में हुआ था या विभ्रम था? खामोशी में सनसनाता प्रश्नचिह्न उसकी आंखों में खुबा हुआ - उनकी ओर ताका किया।
लिफ्ट से बाहर आते ही उसे लगा कि वह सूना चौखाना ही बेहतर था। वहां संभावना थी। जिसे दोनों के संशय ने नष्ट कर दिया था।यह संकोच था या आशंका, जिसकी वजह से प्रेम की दुर्घटना खण्डित हो गयी। या स्थगित हो गयी?
वह सोच - सोच कर उदासी में कलपने लगी। निर्णय की प्रतीक्षा का लम्बा रास्ता उसके पांवों के नीचे अगोरता खडा था।
लवलीन
1 जुलाई 2004

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