Sunday, December 20, 2009

नकाब के पीछे छिपे जज्बात

नकाब के पीछे छिपे जज्बात
तब मैं महज चौदह बरस की थी, जब तालिबानों ने अफगानिस्तान पर अपना राज कायम किया था। मुझे अच्छी तरह से याद है जब तक तालीबान सत्ता में न आए थे, मैं एक आजाद खयाल लडक़ी की तरह संगीत सुनती थी, टेलीविजन और सिनेमा देखा करती थी। यहां तक कि अपनी सखियों के साथ पिकनिक पर भी जाया करती थी, शादी की दावतों में शिरकत किया करती थी। हम नये साल की रात खूब जोश से मनाते और लडक़े लडक़ियां पार्टीज में इकट्ठे होते थे। शहर के बाग बगीचों में घूमते और सहेलियों के साथ खरीददारी किया करते थे। नहीं होता न यकीन! पर यह सच है कि मैं तब पढती थी वह भी एक को-एड स्कूल में। मेरी माँ एक सरकारी दफ्तर में काम किया करती थी।
जब रेडियो काबुल से ये खबर आई कि शहर पर तालिबानों ने कब्जा कर लिया है, तभी से अचानक मेरी मां ने दफ्तर जाना बंद कर दिया। मैं अकसर उनसे पूछा करती कि आपने दफ्तर जाना बंद क्यों किया जबकि आपके अलावा घर में कोई कमाने वाला नहीं है। दरअसल मेरे पिता लम्बे चलने वाले अफगानी गृहयुध्द में शहीद हो गये थे। बहरहाल मैं भी घर में कैद होकर रह गई, मेरा कहीं भी बाहर निकलने पर बंदिश थी। हमारे घर की खिडक़ियों के शीशों को काला रंग दिया गया और बंदूकधारी गार्डस आकर हमारा टेलीविजन उठा ले गए। जब भी मैं मां से आस-पास छाये इस घुटन भरे माहौल के बाबत सवाल-जवाब किया करती वह मुझे डांट कर चुप करा देती।
मैं और मेरी मां घर की चाहरदीवारी के कैदी बन कर रह गये। मुझे अपनी किसी सहेली से मिलने की कतई इजाजत नहीं थी।
तब एक दिन घर बैठे ही मैं ने जनसाधारण को तेज और साफ आवाज में दी जा रही हिदायतों की घोषणा को सुनकर जाना, कि बस आज और अभी से शरीया लागू हो गया है, जिसके कडे नियम सभी को मानने होंगे अन्यथा कडी सजा दी जाएगी। शरीया के कडे नियम जिनका औसत समाज के मर्दों के लिये कम था, बाकि बचे सारे नियम औरतों पर लागू होते थे। यह सब सुनने के बाद और कुछ सुनना बाकि नहीं रह गया था, मैं अच्छी तरह से जान गई थी कि आज और अभी से मुझे मेरी मां के साथ नरक से बदतर जिन्दगी जीनी होगी क्योंकि मुझे आभास हो गया था कि तालीबान सरकार के नेता औरतों को एक आम इन्सान से कमतर समझते हैं जो कि बस घर के कामों के लिये रखी गई नौकरानी और उनके वंश को कायम रखने के लिये बच्चे पैदा करने के लिये ही बनी है।
अब इस नये नियमों में बंधी जिन्दगी में औरतें लोगों के बीच हंस-बोल नहीं सकती थीं, यहां तक कि उनके जूतों की आवाज भी किसी को सुनाई नहीं देनी होती थी। मेकअप करना, और बुरके में से टखने तक दिख जाने पर कोडों की मार की सजा कायम की गई थी। अगर कोई लडक़ी या औरत नेलपॉलिश लगाले तो उसकी उंगलियां काट दी जाती थीं। जिन घरों में औरतें होतीं उन पर घर के खिडक़ी-दरवाजॉं को बंद रखने तथा उनके कांचों को काला रंग देने की सख्त हिदायत थी कि बाहर आने जाने वाले लोगों वे न दिख जाएं। घर की औरतों को बालकनी या घर के पिछवाडे आने जाने की भी मनाही थी।
सबसे बुरा तो उस दिन हुआ जब मेरी माँ तेज बुखार से कांप रही थी, मैं उन्हें टैक्सी में अस्पताल ले गई। पहले तो टैक्सी ड्राईवर हमें ले जाने के नाम से ही हिचकिचाया क्योंकि हम दोनों ही महिलाएं थी और हमारे साथ कोई अपना भाई या मर्द रिश्तेदार नहीं था। जब मैं ने हालात की गंभीरता जताई तब वह मुश्किल से तैयार हुआ और हमें टैक्सी में बैठने दिया। जब हम अस्पताल पहुंचे तो मेरी मां का जी मिचलाने लगा और वह उलटी करना चाह रही थी, लेकिन वह बुरके की नकाब उठाए बिना उलटी कैसे करती वहां कई मर्द आस पास थे। हमें कोई औरत आस पास नजर नहीं आई। न कोई नर्सन ही कोई जनाना डॉक्टर । मुझे लगा कि मेरे तो आस पास की पूरी दुनिया ही घूम गई है। हम अस्पताल के स्टाफ के मर्दों से कोई बात तक नहीं कर सकते थे क्योंकि यह नये तथाकथित इस्लामिक नियमों के खिलाफ सजा के काबिल बात थी। मैं ने बुरके में से झांका, अस्पताल की लॉबी में हमारे बैठने के लिये कोई जगह नहीं थी क्योंकि यहां जो कुर्सियां थी उनपर हमसे महान लिंग,जाति, और वर्ग के पुरुष जो बैठे थे और उनके पास खाली पडी क़ुर्सियों पर हमें उनके समानान्तर बैठने की कतई इजाजत न थी।
तभी मैं ने परदे में एक औरत को देखा, एक पल भी जाया किये बिना और पहले ही से यह सोच कर कि हो न हो यह डॉक्टर ही है, मैं उसके पास गई और अपनी मां की बीमारी की बात करने लगी। उसने गंभीरता से और ध्यान से मेरी पूरी बात सुनी और फिर मेरे कान में उसने फुसफुसा कर कहा कि वह डॉक्टर नहीं है, वह तो अपने बीमार खाविंद की मिजाजपुर्सी के लिये आई है। उसने यह भी बताया कि नये नियमों के तहत केवल जनाना डॉक्टर ही औरतों की जांच और इलाज कर सकती है, और ज्यादातर जनाना डॉक्टरों की छुट्टी कर दी गई है। इस इतने बडे अस्पताल में अब एक ही जनाना डॉक्टर है, वह केवल दिन में एक बार मरीजों को देखती है, वो भी देर शाम को। मैं तो हालातों में बुरी तरह फंस गई थी, एक ओर मां तेज बुखार से तप रही थी दूसरी ओर कहीं कोई सहायता करने वाला न था। मैं अपनी मां को पकडे अस्पताल की लॉबी में नि:सहाय खडी थी। मैं अपनी मां के दर्द से पूरी तरह वाकिफ थी जो कि धीरे धीरे सिसक रही थी पर रोने पर पाबंदी थी क्योंकि औरत की आवाज मर्द तक ना पहुंचे क्योंकि वह मर्द को आकर्षित कर सकती है।
लेकिन तभी दर्द से बेहाल मेरी मां बेहोश होकर फर्श पर गिर पडी। वहां कितने ही मर्द थे, उनमें से कई अस्पताल के कर्मचारी भी थे पर कोई आगे न आया मेरी बीमार मां की सहायता के लिये। मां जो कि अपनी उल्टी देर तक रोके रही थी अब न रोक सकी और उसने पूरे जिस्म को लपेटे ढके बुरके में ही उल्टी कर दी। बुरका गंदा हो गया। पर मेरी मां अब बेहतर महसूस कर रही थी। लेकिन मैं ने अपनी मां के विरोध के बावजूद उसका उलटी की बदबू से महकता बुरका यह सोच कर उलट दिया कि इस गंदगी से वह फिर से बीमार हो जाएगी। पर मेरी मां डरी हुई थी उसने कहा कि उसका चेहरा मैं ढक दूं। मैं ने अपने रुमाल से उसका चेहरा ढक दिया। हम अब भी अस्पताल की लॉबी के एक कोने में फर्श पर बैठे थे, तभी एक मानवीयता से भरा एक मर्द डाक्टर जो कि हमें और हमारी परेशानी को बहुत देर से देख रहा था और जब उससे हमारी दयनीय हालत देखी न गई तो हमारी सहायता के लिये आगे बढा। उसने स्टैथस्कोप से मेरी मां की जांच की और एक कम्पाउंडर को इंजेक्शन और उबला हुआ पानी तैयार करने को कहा। उसने इंजेक्शन में दवा भरी और मेरी मां की जांघ में लगा दिया, मेरी मां इन्जेक्शन लगवाने के बाद रुई से इन्जेक्शन वाली जगह को दबाए ही थी और बस अपने पैर ढकने जा रही थी कि दो मर्द जो कि इस्लामिक नियमों को लागू करवाने वाले विभाग से ताल्लुक रखते थे अचानक आ गये। लॉबी में घुसते ही उन्होंने हमें तरैरती हुई और जांचती नजरों से देखा। फिर एकदम बिना कुछ जाने, बिना कुछ पूछे उन्होंने मेरी मां पर आरोप लगा दिया कि वह चरित्रहीनता की दोषी है। डॉक्टर की जमकर पिटाई हुई फिर हम दोनों और उस डॉक्टर को अपने साथ ले जाने लगे। मैं लगातार कहती रही मेरी मां निर्दोष है, पर उन तालीबानों ने मेरी बात पर गौर किये बिना उसे जेल में डाल दिया। मुझे आम जनता के बीच दस कोडे खाने की सजा मिली और डॉक्टर को यह गलती न दुहराने की ताकीद कर भेज दिया गया।
वह दिन भी आ गया जब मुझे जनता के बीच कोडे ख़ाने थे। एक स्टेडियम में मर्द और लडक़ों का हूजूम जमा हो गया, मानो कोई खेल हो रहा हो। ठेले वाले मेवा और बिस्किट चाय बेचने लगे तमाशबीनों को। मुझे घर से स्टेडियम एक जीप में ले जाया गया वहां मैं ने देखा वहां केवल मैं ही नहीं मेरे जैसी कई सजायाफ्ता औरते बुरकों में लाईन से खडी थीं। मैं लाईन में सबसे पहली थी सो कोडे लगने की शुरुआत मुझ से हुई। दो कोडे ख़ाने के बाद मुझसे दर्द सहन नहीं हुआ और मैंने बुरके की नकाब उलट दी। वहां खडे पवित्र इस्लामिक कानून के तथाकथित रखवाले हतप्रभ रह गये। अब मेरी सजा दुगुनी कर दी गई, अब मुझे बीस कोडे ख़ाने थे। अब पीठ पर पन्द्रह कोडे ख़ाने के बाद मैं बर्दाश्त की सीमा से बाहर आ गई थी और बस टूटने को थी...अब मैं ने बुरका उतार कर कोडे लगाने वाले के मुंह पर दे मारा और चीख कर कहा कि, '' अब किसी ने मुझे हाथ भी लगाया तो मैं अपने सारे कपडे उतार दूंगी।'' मुझे नहीं पता मुझमें यह साहस कहां से पैदा हो गया था। तब एक तालेबानी सिपाही जिसकी दाढी बढी थी और सर पर अफगानी साफा बंधा था, बंदूक हाथ में लेकर आया और उसकी नाल का निशाना मेरे माथे की ओर कर दिया। मुझे जबरन दो अन्य सिपाहियों ने बिठा दिया था और तब मैं ने धमाके की आवाज सुनी जिसने मेरी तन्द्रा भंग की। मैं पसीने में भीगा था और यह बंदूक का धमाका नहीं मेरे बेटे द्वारा फोडा गया पटाखा था। मैं ने खुदा का शुक्र अदा किया कि ये महज एक ख्वाब ही था।
पर मैं कैसे भूल सकता हूं वह डरावना ख्वाब और उसके बाद की आंखों ही आंखों में कटी कई कई रातें जिनमें मैं यही सोचता रहा हूं कि यह अपमान जनक, क्रूर घटनाएं तालीबानों की सत्ता में फंसे अफगानिस्तान में अफगानी स्त्रियों के साथ रोज घट रही हैं किन्तु इन्हें मीडीया में कोई स्थान क्यों नहीं मिलता? क्या कहीं कोई विश्व में ऐसी संस्था नहीं जो ऐसे यहां स्त्रियों पर हो रहे इन भयावह अपराधों पर रोक लगा सके। तालीबान जो कि अफगान सरकार पर काबिज हैं तथा इतने भ्रष्ट और स्त्री विरोधी हैं कि इनका जैसा क्रूर दूसरा कोई उदाहरण संसार भर में नहीं मिलता।
आज के परिप्रक्ष्य में जब मैं अफगानी औरत के बारे में सोचता हूं कि अब ये कैसे अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करेंगी? या तो ये शोक में डूबी रहेंगी इस लम्बे युध्द में खोये अपने परिजनों के या उत्तरी गठबंधन का स्वागत करेंगी जिन्होने हाल ही में काबुल पर कब्जा किया है। मैं पूरे समय टेलीविजन से चिपका रहा हूं जब उत्तरी गठबंधन के सैनिकों ने काबुल में कदम रखा था और प्रसन्न काबुलवासियों ने उनका स्वागत किया था। किन्तु किसीने बुरके के अन्दर छिपे एक इन्सान की सोच को नहीं जाना नकाब, परदे के पीछे छिपे जज्बात, भावनाएं एक अफगानी स्त्री की। आज अफगानिस्तान में सर्वाधिक संख्या महिलाओं की है जो कि विधवाएं हैं, अनाथ हैं या फिर हालातों की मारी भिखारिनें हैं या वेश्याएं हैं। ये स्त्रियां परिणाम हैं इस्लामिक कानून के लागू किये जाने का, बीते दो दशकों से चल रहे लम्बे गृहयुध्दों का, पिछले आठ सालों से चली आ रही कट्टरपंथियों की लडाई का।
अभी कुछ दिनों पहले मैं ने तालीबान के शिक्षा मंत्री का वक्तव्य पढा था, '' ये ( औरतें) एक फूल जैसी हैं, जैसे कि गुलाब। आप इसे पानी दो और अपने लिये घर पर रखो, इसे देखो और इसकी महक का आनंद लो। यह बाहर ले जाने की चीज नहीं है कि कोई और इसकी महक ले सके।।''दूसरा तालेबानी मंत्री जो कि इतना शायराना नहीं, कहता है, अफगानी औरत के लिये बस दो जगहें हैं पति का घर और कब्रगाह।'' अब जबकि ज्यादातर अफगानी औरतें अपने पति खो चुकी हैं, तो अब वे कहां जाएंगी?
आज जब हम काबुल में नई सरकार की स्थापना की बात करते हैं तो क्या किसी ने सोचा है कि इस सरकार में स्त्री की क्या भागीदारी होगी? मैं सोचता हूं अब समय है जबकि अफगानी स्त्री को आगे आना चाहिये और अपने अधिकारों के लिये लडना चाहिये।
मूलकथा - रितेश झाम्ब
अनुवाद - मनीषा कुलश्रेष्ठ
नवम्बर 11, 2001

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