Sunday, December 20, 2009

पंडिताइन

पंडिताइन
बात बहुत पुरानी है। सहलौर नाम की एक छोटी सी रियासत थी। वहाँ का शासक गढमलदास बहुत ही दयालू व प्रजापालक था। उसके शासन में विद्वता की पूजा होती थी। जनता में अमन चैन व्याप्त था। उसी रियासत में एक बुध्दिबर्ध्दन नामक पण्डित अपनी पत्नि सुकंठी के साथ रहते थे। जब वे 18 वर्ष के थे तभी उनके नैन पडोस के गाँव की कमलनयनी सुकंठी से चार हो गये थे। उस समय प्यार तो दिल से ही होता था, परंतु वह दिल के अंदर होता था आज की तरह रास्ते चलते बाहर नहीं छलकता था। नैन तो लड ज़ाते थे पर उनका मिलन और सात फेरे तक पहुंचना बहुत ही मुश्किल था।

पण्डित जी बहुत ही भाग्यशाली थे। अपनी माता पिता की एकलौती औलाद सुकंठी के पिता बचपन में ही स्वर्ग सिधार चुके थे। माँ ने किसी प्रकार से उसे पाल पोसकर बडा किया। अब उसकी शादी की चिंता उसे सता रही थी। छोटे से खेत से किसी प्रकार उन दोनों का पेट भर पाता था।

बुध्दिबर्ध्दन रोज सुकंठी से मिलने के जुगत में रहते। एकदिन उसकी माँ की नजरों में आ गए। अब तो इनके पसीने छूट गये। इश्क का सारा भूत पसीने के साथ बहने लगा। उसकी माँ इनके पास आकर धीरे से बोली कि चुप-चाप मेरे घर चलो वरना बहुत ही बुरा होगा। मरता क्या न करता? बुध्दिबर्ध्दन की सारी बुध्दि को पाला मार गया। अब आगे आगे उसकी माँ और पीछे पीछे वे। घर में पहुँचते ही उसने दरवाजा अंदर से बंद कर दिया। बुध्दिबर्ध्दन दोनों हाथ जोडक़र गिडग़िडाने लगे। डर के मारे उनका बुरा हाल था। उसने इनके रोने पर ध्यान न देकर इनका नाम-पता पूछा। चोरी-छिपे सुकंठी से मिलने का कारण पूछा। बेचारे कुछ नहीं कह पाये। सुकंठी भी अदालत में पेश हुयी। सारा मामला समझने के पश्चात् उसने शर्त रखी कि अगर तुम मेरी बेटी से वास्तव में प्यार करते हो तो मैं उससे तुम्हारी शादी कर सकती हूं परंतु पूरी जिंदगी तुम मेरी बेटी के काम में दखल नहीं दोगे। अगर दखल दिया तो वह हमेशा हमेशा के लिए हमारे घर आ जाएगी तथा मैं इसकी कहीं और शादी कर दूंगी। बुध्दिबर्ध्दन के उपर तो प्यार का भूत सवार था। इन्होंने हामी भर दी। बस फिर क्या था हो गयी शादी।

सुकंठी अब पण्डिताइन बन गयी। पण्डिताइन के रूप माधुर्य के नशे में बौराये बुध्दिबर्ध्दन महिनों मस्त घूमते रहे। सदा तो समय एकसमान रहता नहीं। बुध्दिबर्ध्दन भी आकाश से नीचे उतरे। वसंत आया। गर्मी आयी। मौसम बदलते रहे। बुध्दिबर्ध्दन के घर का भी मौसम बदला। एक दिन वर्षा का मौसम था। तेज आँधी के साथ बारिश भी आ रही थी। घर से बाहर जाने की किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी। पण्डित जी कहीं से भीगते हुए आए। भींगे हुए कपडे ख़ोलते हुए उन्होंने कहा मेरी प्यारी सुकंठी, आज का मौसम बहुत ही खराब है। बाहर कहीं मत जाना। भीगने से सर्दी बुखार होने का डर है। पर पण्डिताइन ने पलटते ही जवाब दिया आज तो मेरी सहेली चम्पा की शादी है। मुझे तो हर हाल में जाना ही है। वह तैयार हाकर चली गयी।

अगले दिन जब वापस आयी तो बुखार से धुत थी। पण्डित बुध्दिबर्ध्दन सारा मामला समझकर मन ही मन कुडबुडाए परंतु शर्त के अनुसार कुछ बोल नहीं पाए। दवा दारू के लिए भाग दौड क़रनी पडी सो अलग।

आए दिन ऐसी बातें होतीं रहतीं। बुध्दिबर्ध्दन जो भी कहते पंडिताइन सुकंठी उसकी पूर्णतया विपरीत कार्य करतीं। जिस पन्डित जी की राजदरबार से लेकर घर घर पूजा होती थी जिनकी जुबान से निकली वाणी महाराज तक को शिरोधार्य थी। उनकी अपनी ही पत्नि द्वारा यह अवहेलना उन्हें अखर जाती पर वे करते क्या शर्त से बँधे जो थे। किसी प्रकार जीवन गुजर बसर हो रहा था।

एक बार महाकुम्भ के गंगा स्नान का मुहूर्त आया। महाराज श्री गढमलदास जी ने पण्डित जी के साथ स्नान की योजना बनायी। पण्डित जी घर आकर यात्रा की तैयारी करने लगे। जब पण्डिताइन यात्रा की बाबत जानी तो वह भी जाने की जिद्द करने लगी। न चाहकर भी पण्डित जी उसे साथ लिवा गये।

वहाँ ब्रह्म बेला में सारे लोग स्नान के लिए नदी किनारे पहूँचे। नियमतः सबसे पहले पण्डित जी ने डुबकी लगायी। वे बाहर आकर पण्डिताइन से बोले तुम नदी में ज्यादा अन्दर मत जाना क्योंकि चार पाँच कदम के बाद ही गहरा पानी है और तुम्हे तैरना भी नहीं आता।

पण्डिताइन ने कहा हुँ ऽ ऽ ऽ ह । और नहाने चली गयी।

आदतन पण्डित जी की बात न मानकर वो कुछ ज्यादा ही अंदर चली गयीं। कुछ ही देर बाद लोगों ने उन्हें डूबते हुए देखा। जब तक लोग और पण्डित जी वहाँ पहुँचते वे पानी में डूब गयीं। वहाँउपस्थित लोगों में जो जो तैरना जानते थे सभी पण्डिताइन को ढूंढने लगे। पण्डित जी भी ने भी छलांग लगा दी। खुद महाराज नदी के किनारे आकर खडे हो गए। पर महाराज ने देखा कि पण्डित जी धारा के विपरीत दिशा में ढूंढ रहे हैं। वे खुद तो उधर ढूंढ ही रहे हैं और लोगों को भी उधर हीढूंढने के लिए जोर जोर से आवाज लगा रहे हैं।

महाराज के समझ में नहीं आ पा रहा था कि इतने जानकार पण्डित जी ऐसा क्यों कर रहे हैं। अंत में वे पण्डित जी से पूछ ही पडे क़ि पण्डिताइन तो डूबकर धारा की तरफ गयीं होंगी और आप उल्टी तरफ खोज रहे हैं साथ ही लोगों को भी बुला रहे हैं आखिर क्यों?

पण्डित जी ने आह भर कर कहा महाराज ''पूरी जिन्दगी वो उल्टी ही चलती रही। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि अगर डूबी भी होगी तो उल्टी तरफ ही जा रही होगी। वह सीधी जा ही नहीं सकती। ''इस प्रकार पण्डिताइन डूबकर मर गयी।

''मनुष्य अपने अहं व गलत व्यवहारों से जो प्रभाव अपने परिवार व समाज पर छोडता है कभी कभी वह खुद उसके लिए ही घातक हो जाता है। ''
- सुधांशु सिन्हा हेमन्त
मार्च 1, 2001

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