Sunday, December 20, 2009

न आने वाले क्षण

न आने वाले क्षण
अपने बिस्तर में उसके ऊष्ण होने के इंतजार में, आंखे खोले खोले बिलकुल ठण्डा पड ग़या हूँ। धीरे धीरे सबने मेरा साथ छोड मुझे नितांत अकेला कर दिया है।
थोडी देर पहले वह - मेरी पत्नी, हल्का हल्का कराह रही थी। मैं ने सिर और कमर दबाने की चेष्टा की थी, मगर उसने मुंह पर उपेक्षा का भाव ला, करवट बदल ली थी। आऽऽ अर्थ आसानी से लगाया जा सकता है - अच्छा यही है कि किसी भी अंग को छूने की शुरुआत न हो।
तीनों बच्चे एक दूसरे में गुत्थम गुत्था हुए मस्ती ले रहे हैं। पत्नी निश्चिंत - आराम से गहरी नींद में खो गयी है। थकावट और बीमारी - यह तो प्रतिदिन का स्वांग है। मानसिक और शारीरिक कष्ट की तुलना करते करते मजे से सोने वालों से जलन व ईष्या के गुबार उठने लगते हैं। सिरहाने रखे रेडियो को फुल वॉल्यूम पर छोड देता हूँ। कमाल है कोई असर नहीं। फिर चारपाई से उठ खडा होता हूँ -इस सर्दी में पंखा चला कर सबको जगा देने के लिये। किन्तु उंगलियों ने दूसरे ही बटन को छूकर बत्ती बुझा दी है।
इस वीरानगी से जंगल और गुफाओं की साधु शांति पकडने की कोशिश करने लगता हूँ। तभी छोटे छोटे रोशनदानों से चांदनी कमरे में कूद पडती है अप्सरा की भांति, किसी तपस्वी को चटखा कर पथभ्रष्ट कर देने के लिये।
पूर्वदृश्य मेरे सम्मुख है - जिस चांदनी का इंतजार शाम से कर रहा था, अब उसी से नफरत हो रही है। मैं पूर्वत: उसके जागृत होने का इंतजार करने लगता हूँ।
जब संध्या को काम से लौटा था। घर में पांव रखते ही पूछा था '' कैसी तबियत है।'' ऐसा पूछना डेली रूटीन हो गया है। उत्तर परीक्षार्थी की भांति धडक़ते दिल से सुनता हूँ। अभी सुनाई देगा - आज तो बहुत पानी पड ग़या है या - कमर टूट रही है - या -। बहुधा ऐसा भी होता है कि वह सिर पर कस कर चुनरी बांधे काम कर रही होती है - तब रिजल्ट उसके क्लान्त मुरझाये चेहरे पर स्पष्ट लिखा मिला जाता है। सारी उत्कंठायें, उत्साह, सुखद योजनायें सब की सब एक दम सिमटकर कूडेख़ाने की ओर सरक जाती हैं। भारी गले से उसे सहानुभूति जताते हुए आराम करने का परामर्श देता हूँ। डॉक्टर को बुलवाने की सलाह देता हूँ तो सदा ढीले स्वर से निराशा व्यक्त करती है,
'' क्या करेगा वह? ''
'' तो और कोई क्या कर सकता है?'' मेरे स्वरों में मिर्चों की कडवाहट भर जाती है। थूक देता हूँ। अस्त व्यस्त बिखरे गन्दे बर्तनों के दिखते ही गर्दन झटक कर दूसरी ओर फेर लेता हूँ।
'' जो किस्मत में है।'' शिथिल आवाज समूचे घर का वातावरण वीरान किये दे रही है। धप्प से चौकी पर बैठ जाती है।
'' तुझसे लाख दर्जे अच्छा तो मैं नास्तिकों को मानता हूँ, जो कर्मठ हैं।''
'' एक तो यह बच्चे चैन नहीं लेने देते- ।'' वह विस्तार से बच्चों की शिकायतों के पुल इस तरह बांधती है कि मैं बुरी तरह से भडक़ उठता हूँ। जो भी बच्चा सामने आ जाये इसी पर झपट पडता हूँ। अब वह बच्चों को बचाने की कोशिश करती हुई बीच में आ घुसती है,
'' न न इस तरह मारा जाता है - आखिर बच्चे हैं। छोडो हटो।''
'' खूब।'' उसी को हाथ का मजा चखाना चाहता हूँ। उसकी कमजोर बगलों को कस कर पकड लेता हूँ। घसीटता हुआ कमरे में ले जाता हूँ।
'' तुम तो आराम करो, आराम - क्या पंगे ले रखे हैं - ।''
कभी होटल से कभी स्वयं थोडा लगकर खाने का प्रबन्ध करता हूँ। जल्दी से जल्दी बच्चों को सुलाकर उसकी तबियत सुधरने का इंतजार करता हूँ। इंतजार करता रहता हूँ। इंतजार। पहले एक घंटे बाद।फिर पन्द्रह मिनट बाद - और फिर दस दस मिनट में ही उसकी तबियत के विशेष बुलेटिन जानना चाहता हूँ। अकसर कोई उत्तर नहीं मिलता, कभी कभी आंऽऽ फिर लम्बी चुप्पी। मैं खुश होने लगताहूँ। तबियत में सुधार हो रहा है। साथ ही साथ इंतजार भी करता जाता हूँ - एक लम्बा सुखद स्फूर्तिजन्य इंतजार। रात भर का इंतजार, सारी सारी रात जाग कर इंतजार - दरअसल वह तो सो रही होती है बिना किसी की परवाह किये।
किन्तु आज वस्तुस्थिति ऐसी नहीं थी। जब घर पहुंचा और आते ही, जैसा कि हर रोज पूछता हूँपूछा था,
'' कैसी है तबियत? ''
'' आज तो ठीक हूँ।'' उसने किंचित होंठों को फैलाकर मुस्कान बिखेर दी थी।
'' जल्दी बनाओ चाय, बच्चों को तैयार करो, आज पार्क ही घूम आयें।
'' मेंरे उत्साह का बांध खुलना आरंभ हो गया था। '' थोडी देर के लिये जूते ढीले कर लूं।'' कमरे की ओर बढते हुये नयी फिल्म की तर्ज गुनगुनाने लगा, '' आज तो जादू हो गया - होऽ गया।''
'' यहीं आ जाओ रसोई में चाय पी लो।''
'' अच्छा आया।'' जल्दी से रसोई की ओर बढते हुये सोचता हूँ, ठीक है कहीं ज्यादा काम करने से अतिरिक्त तनाव न हो जाये।''
'' क्यों न आज जादू हो गया फिल्म देख आयें?''
'' अजी छोडो क्यों फिजूलखर्ची करो।''
'' तुम्हारे लिये तो सब फिजूल है कौनसा रोज देखते हैं।''
'' चलने को तो चलो, पर बच्चे देखने देंगे ठीक से? याद नहीं पिछले साल जब देखने गये थे। एक एक ने खबर ली थी। किसी को पेशाब आ रहा है, किसी को नींदआज छोटे के पेट में गडबड लगती है। मुझे डर है कि कहीं उलटी न कर दे।''
ऐसी गडबड से मुझे भी डर लगता है।
'' अच्छा चलो पार्क तक ही हो आयें। जल्दी बुलाओ बच्चों को...मुनीश।'' जोर से बडे लडक़े को आवाज लगाता हूँ। उत्तर नहीं।
'' अजी छोडो मिट्टी से बुरी तरह सने होंगे। घंटा भर चाहिये इनको तैयार करने के लियेरात तो समझो हो ही गयी। पार्क में जानते हो - आग लगे इन बिजली वालों को, एक बत्ती भी नहीं जलती। कहां लिये फिरोगे सबको इतनी सर्दी में।''
'' तुम भी तो साथ होओगी।''
'' आज छोडो। सच कह रही हूँ तीसरे क्वार्टर में पिंकू को टायफॉयड हो गया है।''
मैं सुस्त पड ज़ाता हूँ।
''ठीक साहब।मेमसाहब तो फिर कोई प्रोग्राम नहीं?''
'' क्यों नहींअभी रात को एकदम बढिया प्रोग्राम ।'' शयनकक्ष की ओर देख कर हंसने लगती है।
'' लो चाय पियो।''
'' गुड! बी हैप्पी।'' कप पकडने से पूर्व उसके गालों को छू लेता हूँ।
'' हटो जी...शरारती।'' वह बाल ठीक करने लगती है। चेहरे पर चमक आ गयी है। मैं चांद निकलने का इंतजार करने लगता हूँ।
'' कहाँ हैं बच्चे बुलाओ न सबको, आज ढंग से टेबल पर डिनर लें। मैं भी सर्व करने में हैल्प करुंगा।''
'' आप तो इन नालायकों को जल्दी से ढूंढ कर लाओ। खाना खायें तो सोयें। मेरे काम का निपटारा हो।''
'' खबरदार जो मेरे लाडलों को नालायक कहा, हीरे हैं।'' मैं चहकने लगता हूँ। सुन्दर बच्चों पर नाज होने लगता है। '' - जब तक नहीं सोते हम ताश खेलेंगे। क्यों? ले आऊं आज कोई बढिया ताश।''
'' क्यों फालतू पैसे हाथ लगे हैं क्या...पुराने ढूंढ दूंगी या पडौस से मांग लायेंगे। वे आये दिन कुछ न कुछ मांगते रहते हैं।''
'' ठीक! साहब, ठीक! कहीं नहीं जायेंगे- रानी जी के पास ही बैठेंगे। खुश! ''
खाने के बाद सबको रेडियो सुनने के लिये आमंत्रित करता हूँ।
'' ठहरो मैं बर्तन मांज कर आ रही हूँ।'' मैं इंतजार करने लगता हूँ।
वह बर्तन साफ करती जाती है। बच्चों को न पढने के लिये, स्कूल का काम न करने के लिये डांटती भी जाती है। मुझे उसका मूड बिगडने का डर लग रहा है। बर्तनों के बाद सुबह धोने के कपडे ईकट्ठे करना शुरु कर देती है। वाटरवर्क्स वालों को दो एक भली सी गाली निकालती है। सुबह इतनी देर से जो पानी चालू करते हैं।
रेडियो पर प्रेम बिन सब सूना-सूना सूना- गाना आ रहा है।'' क्या सुरीला स्वर है।'' चाहता हूँ वह गहराई से भाव को समझे, '' जल्दी आओ भई।''
'' पहले यह रेडियो तो बन्द करो। दिन भर के शोर के बाद कान पहले ही बहरे हो जाते हैं। रात को तो शांति मिलनी चाहिये। धम्म से चारपाई पर पड ज़ाती है। अपने को रजाई में लपेटने लगती है।
'' क्यों क्या है- ? '' मैं उसकी तबियत के विषय में सोच कर सहमने लगता हूँ। रेडियो बन्द कर देताहूँ।
'' फिर, क्या हो गया?''
'' नहीं नहीं ठीक हूँ। जरा थक गई, सुस्ता लूं।''
'' हूँअच्छा तो तब तक नयी पुस्तक से कोई कहानी सुनाऊं?''
'' अच्छा तो खरीद ही लाये फिर - पता नहीं क्यों पैसा उजाडते।''
'' अरे बाबा नहीं, मांग कर लाया हूँ अशोक से - सुनोगी?''
'' थोडा रुक लो, आप तो बच्चों को सुलाओ। ऐसे दंगे में कुछ भी अच्छा नहीं लगता।''
बच्चों के सोने से पूर्व ही थोडा आंऽऊं करती हुई वह स्वयं सो गयी। बाद में बच्चे भी। - मैं इंतजार कर रहा हूँ। उसकी तबियत सुधरने का इंतजार। पक्की बात है। दिन भर लगातार काम के बाद तथा अच्छी खुराक के अभाव में उसकी तबियत बिगड चुकी है।
सुबह उठते ही किसी न किसी बहाने उससे उलझ ही जाता हूँ। चाय नहीं पीता। वह मनाना शुरु करती है,
'' थकी हुई जो थी - दिन भर की। दिन भर चक्की की तरह लगी जो रहती हूँ। मोहल्ले की तमाम औरतें हैरान होती हैं। अकेली इतना काम कैसे कर लेती हूँ। बरतनों तक के लिये नौकरानी नहीं ।
'' किस हरामजादे ने तुझे माई न रखने के लिये कहा है?''
'' माई कौन सी काम की मिलती है। फिर फिजूलखर्ची।''
'' अपने को एडजस्ट कर नहीं सकती दुनिया भर को दोष।''
कपडे बदल कर बाहर जाना चाहता हूँ। वह जूते पकड क़र पलंग के नीचे दूर धकेल देती है। मुझे धक्का दे कर पलंग पर लिटा देती है - चलो आज रात सही - कंधा उचकाती है। होंठ फैलाती है। आँखे मटकाती है।
'' चुपचाप चले आओ।'' हाथ पकड क़र रसोई की ओर खींचती है।
'' चलता हूँ, चलता हूँ।'' मैं पीछा छुडाने के लिये उसके पीछे पीछे चल देता हूँ।
'' पर आज से मैं अपने ही कमरे में सोया करुंगा।''
'' वाह! हम कहां जायें। ऐसा कभी नहीं हो सकता! '' जोर से हाथ दबाती है, प्यार से रोब जताती है।
'' बस बस तुम तो बातें ही कर सकती हो।''
'' क्यों न करुं हमारा भी कुछ हक है।''
तिरछी आंखों से देखती हुई नाश्ते की प्लेट मेरी ओर सरकाती है। उसके चेहरे पर ताजगी और सरलता उभर आयी है। मैं आर्द्र हो गया हूँ। - फिर से रात का इंतजार करना शुरु कर देता हूँ।
– हरदर्शन सहगल
मार्च 26, 2002

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