Sunday, December 20, 2009

पति-भ्रम

पति-भ्रम
होम करते हाथ जलें चाहे न जलें ,आँखों में धुएँ की कडुआहट और तन-बदन में लपटों की झार लगती ही है ।मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ ।
मेरी बहुत पक्की सहेली थी रितिका !प्राइमरी से बी.ए . तक साथ पढे।खूब पटती थी हम दोनों में - दाँत काटी रोटी थी ।एक का कोई राज दूसरी से छिपा नहीं था ।हर जगह साथ रहते थे ।लगता था एक के बिना,दूसरी अधूरी है। साथ-साथ रोये हँसे ,शरारतें कीं ,सहपाठियों से लडाई -झगडे और मेल-मिलाप भी एक साथ किये। स्कूल में हम दोनों दो शरीर एक जान समझी जाती थीं । कितनी इच्छा थी एक दूसरी को दुल्हन के रूप में निहारने की ,सजाने की ,नये-नये जीजा से चुहल करने की । पर मनचीती कहाँ हो पाती है !बी.ए. के बाद दोनों की शादियाँ भी दो दिनों के अन्तर से हुईं। इतना कम अंतर रहा कि एक दूसरी के विवाह में शामिल भी न हो सके ।उसका विवाह उसके ननिहाल से संपन्न हुआ था ,जो पास के शहर में ही था ।शादी के बाद भी पतियों की चिट्ठियाँ तक शेयर की थीं ।एक दूसरी से ससुराली नुस्खे सीखे थे आगे के प्रोग्राम बनाये थे ।मैंने तो हर तरह से उसे आदर-मान किया,हर तरह से ध्यान रखा पूरी खातिरदारी करने की कोशिश की । पर बदले में क्या मिला ? तीखी बातें और बेरुखी !और नौबत यहाँ तक आ गई कि आपस में बोल-चाल बन्द ,चिट्ठी-पत्री बन्द ,घरवालों से एक दूसरी के हाल-चाल पूछना तक बन्द ! मुझे अक्सर उसकी याद आती है ,उसे भी जरूर आती होगी ।पर बीच में जो खाई पडी है उसे पार करना न मेरे बस में रह गया है न उसके ।
होनी कुछ ऐसी हुई कि ,हम दोनो के विवाह भी छुट्टियो में तय हुये।वह अपनी ननिहाल गई हुई थी और वहीं पसन्द कर ली गई। और इधर मेरी शादी का दिन मुकर्रर हुआ ।उसके ससुरालवाले चट मँगनी पट ब्याह चाहते थे।नतीजतन दोंनो के फेरे दो दिनों के अंतर से पडने थे।
हाँ , बस दो दिनों के अन्तर ने हम लोगों को दूर कर दिया । एक दूसरी के विवाह में शामिल होने की तमन्ना मन की मन मे रह गई । नये क्रम में थोडा ए़डजस्ट होते ही दोनो को एक दूसरी की याद सताने लगी ।नये-नये अनुभव आपस में एक्सचेंज करने की आकाँक्षा जोर मारने लगी ।इधर मेरे पिता जी का ट्रान्सफर हो गया और मायके जाने पर भेंट होने की संभावना भी समाप्त हो गई ।दोनो के पति हमारी घनिष्ठता से परिचित हो गये थे।उनकी भी एक दूसरे से मिलने की इच्छा थी ,और हम दोनो तो उतावले बैठे थे कि कब मुलाकात हो ।एक दूसरी के पति को देखा तक नहींथा ।शादी के फोटोज का आदान-प्रदान हुआ था पर हमारे यहाँ तो दूल्हा-दुल्हन का ऐसा स्वाँग रचाया जाता है कि अस्लियत जानना नामुमकिन ।एक दूसरी से मिलने का मौका ही नहीं मिल रहाथा। कभी मेरे घर की बाधायें, कभी उसकी मजबूरियाँ ! डेढ साल निकल गया तब कहीं जाकर साथ एक साथ होने का प्रोग्राम बना ।बना क्या ,तलवार फिर भी सिर पर लटक रही थी कि कब किसके पति के सामने कुछ और इमरजेन्सी आ जाय और मामला फिर टाँय-टाँय फिस्स ।इसी लिये कहीं दूर का नहीं,पास ही आगरे जाने का दो दिन का कार्यक्रम बनाया ।तय किया कि दोनो ट्रेन से टूण्डला पहुँचेंगे और वहाँ से टैक्सी लेकर सीधे आगरे ।
'दो कमरे, अच्छे से होटल में बुक करा लिये ,एक तेरे लिये एक अपने ,'मैंने उसे बताया ।
'लेकिन मेरे वाले तो इसी हफ्ते ,सिंगापुर जा रहे हैं ।पता नहीं शुक्रवार तक लौट पायें या नहीं ।'
'अरे मेरे तो ,मद्रास चले गये हैं पर मैने कह दिया है ,बृहस्पतिवार तक तुम्हें लौट आना है ।तू भी कह दे ।ये प्रोग्राम बिगडा तो शायद कभी न बन पाये ।'
'हाँ ,मैं भी कहूँगी ।पक्के तौर पर कहूँगी ।'
हम लोगों के साथ जो होता है एक साथ होता है ।शुरू से यही होता आया है ।इस बार हम दोनों तो मिल ही सकती हैं दोनों के पतियों के लिये कोशिश करें। एक के भी आ जायें तो आसानी रहेगी ।पूरा न सही आधा ही सही ,कुछ तो हाथ आयेगा ।मैं अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूंगी ।'
'तू निशाखातिर रह ,मैं भी इतनी ही उतावली हूँ ।'
इनका मद्रास वाला काम दो दिन को और बढ गया ।मेरा कहना-सुनना सब बेकार गया । तीन दिन से फोन की लाइन नहीं मिल रही । रितिका से बात नहीं हो पा रही ।पर मुझे विश्वास है वह आयेगी जरूर ।
मैं तैयारी में लगी हूँ ।
मेरी ट्रेन आधे घन्टे पहले पहुँचती थी ,सो स्टेशन पर उसकी प्रतीक्षा कर रही थी।ट्रेन आई मैने उसे कंपार्टमेन्ट से झाँकते देखा उसने प्लेट फार्म पर डब्बे की तरफ बढते देख लिया था।नीचे उतरते उसने हाथ की अटैची और बैग साइड में पटका और मुझसे लिपट गई ।
इतने में आवाज आई, 'प्रेम-मिलन फिर कर लीजियेगा पहले अपना सामान सम्हालिये।'
एक सूटेड-बूटेड आदमी उसकी अटैची किनारे कर मेरे सामान के पास रख रहा था ।
'आप नहीं देखते तो,मेरी तो अटैची गई थी । धन्यवाद !'
वाह क्या बढिया मैनर्स हैं आपस में भी,पति को धन्यवाद दे रही है।पता नहीं सेन्स आफ ह्यूमर है इनका ,या औपचारिकता!खैर ,होगा ,मुझे क्या !
मैंने ध्यान से देखा -तो यह है इसका पति ।
वह भी उस को ध्यान से देख रही थी -ये क्या हमेशा इसे ऐसे ही देखती है -मैने सोचा ।
'तो अब टैक्सी ले ली जाय,या यहीं खडे रहेंगे हम लोग ?'उसके पति से पूछा मैंने ।
उत्तर रितिका ने दिया ,'यहाँ रुकने से क्या फायदा।आगरा है ई कित्ती
दूर! फ्रेश होकर इत्मीनान से नाश्ता करेंगे। हम लोग बाहर निकल रही हैं आप आगे जाकर टैक्सी का इन्तजाम कर लीजिये ।'
उसने आश्चर्य से देखा ,बोला, 'मैं?'
मैंने कहा ,'और नहीं तो क्या हम लोग जायेंगी ?आप यहाँ हैं तो आप ही को करना है ।'
वह अपना बैग लिये-लिये चला गया ।
'रितिका,बैग सामान में रखवा देती ,बेकार उठाये-उठाये घूमेंगे ?'
'तू ने क्यों नहीं कह दिया ?मेरा ध्यान ही नहीं गया ।'
'वो नहीं आ पाये! .जरूर कुछ मजबूरी होगी ,चलो एक का तो है ।हैंडसम हैं तेरे पति ।'
'तेरे भी !वैसे फोटो से कुछ समझ में नहीं आया ।उसके हिसाब से तो सामने होते भी पहचान नहीं पाती ।'
'हाँ ,मैं भी ।'
कुली से सामान उठवा कर हम दोनों बाहर निकलीं ।ब्याह के बाद पहली बार एक दूसरी को देखते जी नहीं भर रहा था ।
'हम दोनो पीछे की सीट पर बैठ गईं ,' आप आगे ड्राइवर के पास ! माइंड तो नहीं करेंगे ?हमें बहुत बातें करनी हैं ।क्या करें आपका जोडीदार आ नहीं पाया ।'
'पर ,मैं आगरा नहीं जाऊँगा ।यहाँ का काम करके मुझे वापस जाना है ।'
'अरे वाह !' हम दोनों ने एक साथ कहा ,'
'क्या तमाशा है' रितिका ने कहा आप भी वैसे ही निकले। '
'काम फिर होता रहेगा ।कल शनिवार है ,परसों इतवार ।परसों सोमवार को भी छुट्टी पड रही है ।तब निपटा लीजियेगा अपना काम ।अभी तो हम लोगों के साथ रहना है ,'कहने में मैं पीछे क्यों रहती ।
'और क्या अकेली छोड देंगे यहाँ ?"
वह पसोपेश में पड गया ।रितिका ने उसका बैग उठाकर अपनी तरफ रखा और बोली ,'चलिये बैठिये ,इतनी मुश्किल से साथ रहने का मौका मिला और आप भाग रहे हैं ।कितने दिनों में मिली हैं हम दोनों ।आप साथ रहेंगे तो हम निश्चिंत हो कर साथ रह पायेंगी।सिर्फ दो ही दिन तो मिले हैं,कर लें मन की। कहाँ तो दो शरीर एक प्राण थीं ।'
‘देखिये मुझे चलने दीजिये।यों आप दोनों के बीच रहना ठीक भी नहीं।अच्छी तरह एक दूसरे को जानते भी नहीं।‘
‘जानने में क्या देर लगती है।बस जान लिया आपस में हमने।‘
'हम भागने नहीं देंगे बदी मुश्किल से तो मौका हाथ लगा है।‘
'अब बैठिये भी ।आगरा घूमे बिना हम आपको छोडनेवाले नहीं ।'
'ऐसा था तो फिर आप वहीं से साथ न आते ?'
'और क्या !'
दो कमरे बुक कराये थे ।एक मे मैंने अपना सामान रख लिया ।सबने चाय-वाय पी।उन लोगों का बैग अटैची भी इसी कमरे में आ गये थे।
'आपका सामान साथवाले कमरे में हो जायेगा ।'
वह अपना बैग उठा कर चल दिया।
'तू भी ले जा न अपना सामान ,'मैंने रितिका से कहा।
'देख ,बेतुके मजाक छोड ।मैं इसी कमरे में रुकूँगी ।तू चाहे तो जा ।'
'अरे चिढती क्यों है ?चल हम दोनो साथ- साथ रहेंगे ।रात में खूब बातें होंगी ,पति के साथ तो हमेशा ही रहते हैं ।'
'और क्या ' उसने हामी भरी ।
आज का दिन ताज महल देखने में बिताया जाय ,हम दोनों ने तय किया ।टैक्सी कर लेते हैं ,खाना रास्ते में कहीं अच्छा सा होटल देख कर खा लेंगे । उसका पति! बडा अस्वाभाविक सा लगा,कुढ बेवकूफ -सा भी !कभी मेरी शक्ल देखता ,कभी उसकी ,और झिझक -झिझक कर व्यवहार
करता । वह तो उससे भी फ्री-ली बात नहीं कर रहा था।कैसे मियाँ-बीवी हैं ।कभी मुझे उस पर तरस आता था ,कभी हँसी ।
मुझे लगा उसे भी हँसी आ रही है ।कैसा अजीब व्यवहार लग रहा था उन दोनों का ।मैं तो आग्रहपूर्वक खिला रही थी उसके पति को, पर वह उससे मुझसे भी बढ कर आग्रह किये जारही थी ।जबर्दस्ती कर के परोसे जा रही थी ।वह जितना मना करता हम दोनों आग्रहपूर्वक और खिलाने पर तुल जातीं ।उसके पति का व्यवहार ?मुझे बडा अटपटा लग रहा था ,बडी असुविधा सी हो रही थी ।पर अपनी प्रिय मित्र के पति की मान-मनुहार तो करनी ही थी।ताज्जुब ये हो रहा था कि वह खुद अपने पति को बढ-बढ कर पूछ रही थी,हद हो गई । अरे ,जब मैं पूरी खातिर कर रही हूँ तो उसे अपनी सीमा में रहना चाहिये ।मुझे कभी हँसी आती थी ,कभी विस्मय होता था -अच्छी खासी थी, शादी के बाद कैसी हो
गई ! उलटा उसने मुझसे कहा ,'शादी के बाद ऐसी हो जायेगी तू ,मैं तो सोच भी नहीं सकती थी ।अरे जब मैं उन्हें इतने आग्रह से खिला रही हूँ ,तो तू काहे को और पीछे पडी जा रही है ?'
'तेरा ही अधिकार है ,मै पूछ भी नहीं सकती ?'
और हम दोनों ने जिद ही जिद में ढेर सा खाना उसको परस दिया ।वह ना-ना करता रहा पर ,रितिका के मुँह से एक बार भी नहीं फूटा कि अब उसे मत परस ।थोडा सा बचा था ,उसे हम दोनों ने खा लिया । एक बार होता तो भी ठीक है चलो ,पर हर बार बही सब !चाहे.उसकी प्लेट मे जूठा बच कर फिंक जाय और हम दोनों भूखे रह जायँ ,पर वह उसे भर -भर कर परोसती जायेगी ।।इतनी भी क्या फारमेलिटी !मैने कभी रितिका को उसका सामान निकाल कर देते नहीं देखा ।उसकी अटैची में क्या-क्या है रितिका को शायद पता भी नहीं होगा ।अपने आप अपनी सारी चीजें धरता-उठाता है ।और अजीब बात रितिका कभी उससे कुछ लाने को नहीं कहती ,खुद ले आती है ।एकाध बार उसने पेमेन्ट करने का उपक्रम किया, तो मैं आपत्ति करूँ,इसके पहले ही रितिका ने उसे मना करते हुये खुद पेमेंट कर दिया ।कैसी हो गई है, सारे पैसे अपने चार्ज में रखती है।उसे गिन-गिन कर देती होगी।बहुत परेशान होगई तो दूसरी शाम मेरे मुँह से निकल गया ,तुम दोनो में ताल मेल तो अच्छा है न?'
'मैं तुझे कैसे समझाऊँ?मुझे तो तुम दोनों के बारे में लगता है।इनके साथ तू इन्टीमेट नहीं हो पाई ?
'तेरा खयाल है शादी के बाद मैं बिलकुल बेशरमी लाद लूँ ?'
इतने में वह आ गया हमलोग दूसरी बात करने लगीं।मुझे क्या करना, मैंने सोचा ।पर वह तो मेरी पक्की दोस्त है ,खुल कर बात तो कर ही सकती हूँ ।
उसके साथ तुझे देख कर लगता है जैसे किराये का पति ले आई हो ।'
'मैं क्यों किराये का लाऊँगी ,मेरा अपना पति है ।तू क्या मँगनी का ले आई है।'
'मुझे ऐसा मज़ाक बिल्कुल पसंद नहीं।मैं तो तेरी वजह से झेले जा सही हूँ ।'
'झेल तू रही है कि मैं?ऐसा पेटू बना रखा है उसे ,फिर भी खिलाने पर तुली रहती है ।
'मैं कि तू ?मैं सोचती हूँ ये खिलारही है तो मैं क्यों पीछे रहूँ! मैंरी तरफ़ से और खालें ,सारा खा डालें ?'
' मुझे क्या करना । तू खुद ध्यान रख अपने पति का ।'
' अपने का ध्यान मैं रख लूंगी तू,यहाँ तो तेरा है तू सँभाल ,मैं तो हैरान हो रही हूँ देख देख कर ।'
' मेरा काहे को होता ?तू लाई है अपने साथ,तोहमत मत लगा।'
'झूठी कहीं की । उसका बैग रख कर तूने खींच कर बैठाल लिया ।'
मैं तो तेरा समझ कर खातिर कर रही थी।चाहे जैसा हो है तो तेरा
पति ।'
'ट्रेन से देखा था मैं ने ,बराबर से साथ खड़ा किये थी ,जैसे अपना
खसम हो ।'
मेरा ध्यान तो तुझ पर लगा था ,बराबर में कौन खड़ा है मुझे क्या
पता ।तू ही तो खींच कर जबर्दस्ती पकड़ लाई ।'
'चल हट,ऐसा लीचड ,पेटू मेरा पति ,क्यों होने लगा ?'
'तू ही उसे ठूँस-ठूस कर खिला रही थी ,मुझे तो देख देख कर कोफ्त हो रही थी ,कि इसमें तो शादी के बाद शरम -हया कुछ बची ही नहीं ।'
'मैं तो तेरा पति समझ कर हर तरह से खातिर कर रही थी ।चाहे जैसा हो, है तो तेरा पति -.यही सोचा मैने ।'
'बस बस ,जुबान सम्हाल कर बोल ।'
'तू जुबान सम्हाल अपनी ।ऐसे आदमी को मेरा पति कैसे समझा तूने ?'
'बस खबरदार !।तेरा सामान वह सहेज रहा था,जैसे तेरा अपना ब्याहा हो और इल्जाम मुझ पर ।'
'ट्रेन से देखा था चिपकी तो ऐसे थी जैसे अपना खसम हो ।बेशरम कहीं की !'
'बस चुप कर! तेरे जैसी बेग़ैरत मैंने आज तक नहीं देखी जो पराये आदमी को देख कर अपने बस में ही न रहे ।'
हम दोनो में तू-तू मैं-मैं होने लगी।एक दूसरी को कहनी अनकहनी सब कह डालीं ।अभी यह प्रकरण चल ही रहा था ,कि वह आदमी आता दिखाई दिया -हाथ में एक पैकेट पकडे था ,ऊपर झलकती चिकनाई से लग रहा था समोसे,कचौरी कुछ ले कर आया है ।
मैंने झपट कर पूछा ,'आप कौन हैं ?'
'मैं ,मैं ।मैं तो ..'
हम दोनों तुली खड़ी थीं वह कुछ घबरा गया।
उसकी बात पूरी होने से पहले ही रितिका डपट पडी ,'आप हमारे साथ क्यों चले आये ?अपने रास्ते नहीं जा सकते थे ?'
वह सकपका गया ,'मैं कोई अपने मन से तो आया नहीं ।आप दोनों ने इतना आग्रह किया ..'
'पर आप बता तो सकते थे ..।'
'क्या बताता ?आपने कुछ पूछा भी?मैं समझा आप दोनों अकेली हैं ,इस शहर में...'
'बस,बस बहुत हो गया ।उठाइये सामान और अपना रास्ता पकडिये ।'
' ये समोसे लाया था आप लोगों के लिये ।'
'नहीं चाहियें हमे आपके समोसे न जान न पहचान !'
वह चकराया-सा खडा था,' आप लोगों को मैं बिल्कुल समझ नहीं पाया।
' समझने की जरूरत भी नहीं ,रास्ता पकडिये अपना ।'
'अजीब महिलाये हैं, ' बुदबुदाते हुये उसने अपना बैग उठाया ,एक विचित्र दृष्टि हम दोनो पर डाली और चल दिया ।
एक दूसरी को कुपित दृष्टि से देखते हम लोगों ने भी अपना-अपना रास्ता पकडा ।
मैंने यह बात किसी को नहीं बतायी ।उसने भी नहीं बताई होगी मुझे पूरा विश्वास है ।कोई बताये भी तो किस मुँह से
पर इसमे मेरी क्या गलती जो वह मुझसे कुपित है ? दो साल बीत गये हैं ।अब उसके पति का पत्र मेरे पति के पास आया है ,दोनो विस्मित हैं कि हम लोगों को हो क्या गया है जो चिट्ठी न पत्री .एक दूसरी की चर्चा भी नहीं ।वे लोग इसी शहर में एक विवाह में आ रहे हैं ।
हम चारों मिलेंगे जरूर ।देखो, आगे क्या होता है !
- प्रतिभा सक्सेना
अक्टूबर1, 2007

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