Sunday, December 20, 2009

धूप-छांव

धूप-छांव
सायं के छह बजे हैं, थोड़ी ही देर पहले वर्षा की नन्हीं बूदों ने बरस कर दिनभर की तपती धूप के ताप को कम करके मौसम को खुशनुमा बना दिया है। रह-रह के वायु के झौंके उसे और सुहाना बना रहे हैं। ऐसे में विनीता अपने लॉन में आराम कुर्सी पर सिर टिकाये किसी सोच में डूबी हुई है। खुशगवार मौसम भी विनीता के मस्तिष्क में उठ रहे ज्वार-भाटे को कम नहीं कर पा रहा।
कैसा है ये मनुष्य जीवन भी, मन में अगर उद्विग्नता हो तो बाहर का खुशनुमा मौसम, बरसात और ठण्डी हवा, कुछ भी अच्छा नहीं लगता। विनीता के साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही है कैसी दुर्भाग्यशालिनी है विनीता कि सुख जैसे ललाट में लिखा ही नहीं विधिना ने उसके। नन्हीं सी थी तभी मां चल बसी। उसे नहीं पता कि माँ का प्यार क्या चीज होता है। उसने तो होश सम्भाला तो सौतेली मां की जली कटी बातों और बात-बात पर डॉट-फटकार को ही सुना।
वह एक दिन पडौस के घर में चली गई थी, देखा, उसकी उम्र की ही गुड्डन अपने घर में सुन्दर-सुन्दर सी गुड़ियाओं से खेल रही थी। वह भी गुड्डन के साथ बैठ गई और चुपचाप उसका खेलना देखने लगी। गुड्डन ने बताया कि ये सारे खिलौने और गुड़िया उसके पापा ने लाकर दिए हैं। उसका भी मन अन्दर ही अन्दर ललचा रहा था कि उसके पास भी ऐसी सुन्दर गुड़िया क्यों नहीं है। उसने गुड्डन की एक गुड़िया पर धीरे-धीरे अपना हाथ सहलाते हुए गुड्डन की ओर देखा। उसने सोचा, वह भी अपने पापा से कहकर ऐसी गुड़िया मंगवायेगी बाजार से।

घर आकर उसने पापा से गुड्डन की गुड़ियाओं का जिक्र किया था। पापा को बताते समय भी गुड्डन की गुड़िया का चिकना-चिकना रेशमी शरीर उसकी उंगलियों पर महसूस हो रहा था।
पापा ने विनीता की ओर देखा फिर उसके गाल पर प्यार भरी थपकी देते हुए कहा-'' कोई बात नहीं मैं अपनी विन्नी के लिए गुड्डन से भी अच्छी गुड़िया ला दूँगा।
सुनकर बहुत खुश हुई थी विनीता। सचमुच ही पापा बहुत प्यार करते थे उसे। दूसरे ही दिन एक सुन्दर सी गुड़िया ले आये थे पापा, जिसे देख विनीता खुशी से फूली नहीं समाई थी। उसने तुरन्त ही गुड्डन को भी जाकर बता दिया कि उसके पापा भी उसके लिए एक सुन्दर सी गुड़िया लाये हैं। सुनकर गुड्डन भी उसकी गुड़िया को देखने के लिए चली आई थी। थोड़ी देरे के लिए घर का काम भूल, बिन्नी गुड्डन के साथ अपनी गुड़िया दिखाने में और बातें में व्यस्त हो गई थी। आज वह बहुत खुश है। उसने गुड्डन को बताया कि पापा उसे बहुत प्यार करते हैं पर न जाने क्यों मां उसे प्यार नहीं करती। हर समय डॉट-फटकार ही लगाती रहती है।
विन्नी, गुड्डन से ये बात कह ही रही थी कि अचानक वहाँ से गुजर रही माँ के कानों में बिन्नी की भोली आवाज पहुँच गई। फिर क्या था विमाता ने साक्षात् चण्डा का रुप धाारण कर लिया। विन्नी के बालों का झोंटा पकड़कर उन्होनें गुड्डन के सामने ही उसे झिंझोड़ दिया था,-'' देखों तो वित्ताभरे की छोरी, कैसेी बुराई कर रही है मेरी।'' कहते हुए उन्होंने विन्नी की गुड़िया को दूर फैंक दिया था और नन्हीं विन्नी के बालों की खींचते हुए चिल्लाई थीं,-'' यहाँ बैठी गुड्डा-गुड़िया खेल रही है, घर का काम क्या तेरा बाप करेगा? चल वर्तन साफ कर रसोई में जाकर।''
उस दिन विन्नी का भोला मन बहुत आहत हुआ था। उस दिन के बाद न तो वह गुड्डन के घर गई थी और न गुड्डन ही फिर भी उसके साथ खेलने आई थी। पग-पग पर अपमान के घूत्रट पीते विन्नी ने पाँचवी कक्षा पास कर ली थी। परीक्षाफल आते ही उसकी माँ ने उसके पापा से फरमान जारी कर दिया था कि अब बिन्नी को आगे पढ़ाने की कोई आवश्यकता हनीं है। सुनकर वह रो उठी थी। उसने पापा से बहुत चिरौरी की थी कि वह पढ़ना चाहती है। पता नहीं पापा, माँ से इतना क्यों डरते हैं। ये बात वह तब नहीं समझ पाई थी। उसने पापा से जिद की। पापा भी उसे आगे पढ़ाने के पक्ष में थे पर माँ का विकराल रूप देखकर, वे चुप्प लगा गये तो विन्नी ने दो दिन तक खाना-पीना सब छोड़ दिया था तब हारकर उन्होंने बिन्नी को छठी कक्षा में प्रवेश दिलाया था।
समय की दौड़ के साथ बिन्नी ने दसवीं कक्षा पास करी ली वह भी विद्यालय में प्रथम स्थान लेकर। वह बहुत खुश हुई अब वह पापा से विद्यालय में दाखिला लेने की जिद करेगी। पर विन्नी की तकदीर में शायद कुछ और ही लिखा था। विधााता ने उसके ललाट में कष्टों की भरमार दी थी तभी तो अचानक ही एक दिन एक दुर्घटना में उसके पापा की मृत्यु हो गई। अपने पापा की मौत पर बिन्नी घर की दीवारों से सटकर फफक-फफक कर बहुत रोई पर अब उसके दिल की बात जानने और मानने वाला घर में कौन था। विमाता से जाये दो पुत्र राजेश और सुनील भी अपनी माँ के डार से विन्नी की कोई सहायता नहीं कर पाते थे। ऐसे में माँ का आदेश ही सर्वोपरि था।
विनीता ने एक दिन साहस करके माँ से चिरौरी की, कि उसे आगे की पढ़ाई जारी रखने दे तो भी माँ ने उसे डांटते हुए कहा था,-''देख विन्नी, अब तू दूधा पीती बच्च्ी तो है नहीं। घर से बाहर निकल कर कुछ ऊँच-नींच कर बैठी तो मैं तो समाज में मुँह दिखाने लायक भी नहीं रहूँगी। तेरे पापा तो अब हैं नहीं जो तेरे दुष्कर्मों को छुपाकर जल्दी से कहीं तरे हाथ पीले कर कराके बदनामी से बचा लेंगे।
माँ की बात सुनकर वह तकिया में मुँह छुपाकर खूब रोई थी। क्या सभी विमाता एक सी ही होती हैं?नही, सब विमाता एक सी नहीं होती होंगी। वो तो विन्नी का ही दुर्भाग्य है जो ऐसी विमाता मिली है नहीं तो, माँ तो मा: ही होती है। क्या विमाता के हृदय में भावनाएं नहीं होतीं।
पंखों की फड़फड़ाहट और गुटरगूं की आवाज से विनीता का धयान भंग हुआ। उसने देखा, मेनगेट की दोनों ओर की दीवारों पर 8-10 कबूतर बैठे दाना चुग रहे हैं और आपस में मस्त होकर कभी-कभी गुटरगूं करते हुए गोल-गोल नाचने भी लगते हैं। कितने स्वतंत्र और अपने आप में मस्त हैं ये पक्षी। वह प्यार से उन्हें निहारने लगती है। जबसे उसने यह मकान बनवाया है, उसका नित्य का नियम है कि वह सुबह जागकर, सूरज निकलने से पहले ही मेनगेट के दोनों ओर की चहार दीवारी पर अनाज के दाने डाल देती है तथा एक कटोरी में पानी भी भरकर रख देती है ताकि ये पक्षी आकर चुग सकें। प्रतिदिन ही 10-12 कबूतर4-5 तोता और कई नन्हीं-नन्हीं चिड़ियाएँ उन दानों को चुगते हुए अपनी-अपनी मधाुर आवाज में प्रसन्नता व्यक्त करते हैं तो वह भी उन्हें देख-देख कर अपने मन में प्रसन्न हो लेती है वरना बचपन से अब तक उसने जो कष्ट झेले हैं उनके फफोले उसे बहुत टीस देते हैं।
विमाता के भाई ने एक दिन आकर एक लड़के के बारे में जिक्र किया तो माँ ने तुरंत-फरत ही विनीता को डोली में बिठाकर विदा कर दिया। वह भी ये सोच कर कि शायद ससुराल आकर अब उसके दु:खों का अन्त हो जायेगा, अपने पिता की याद करते हुए वह ससुराल पहुँच गई। ससुराल एक गॉव में थी। उसके ससुर ग्राम प्रधाान थे। अच्छा-खासा दबदवा था उसके ससुर का। लम्बा चौड़ा मकान, नौकर-चाकर,खाने-पीने की कोई कमी नहीं। नवीने का प्यार पाकर विनीता का रूप-सौन्दर्य खिल उठा। धाीरे-धाीरे उसने अपने व्यवहार से अपने सास-ससुर का दिल जीत लिया। वह सुबह को घर में सबसे पहले जाग जाती और फिर नित्याक्रियाओं से निवृत हो, सास-ससुर को अभिवादन कर घर-गृहस्ती के कार्यों में जुट जाती। घर में4-5 भैंस और गाय थीं जिनका ढेर सारा दूधा और दही-मट्ठा घर में होता था। ढेर सारे मखाने डालकर दही का गाढ़ा-गाढ़ा मीठा रायता जब वह बनाती तो ससुराल के सभी लोग बहुत स्वाद से खाते और विनीता की तारीफ करते न थकते। तब वह अपने भाग्य को सराहने लगती और विमाता के प्रति उसकी कटु भावनाओं में कमी होने लगती। उसे लगता कि शायद अब उसके जीवन की पुस्तक का दु:खद अधयाय समाप्त हो गया है और सुखद अधयाय की शुरूआत हो गई है।
ऐसे ही खुशी-खुशी दिन बीत रहे थे कि एक दिन डाक से एक पत्र आया। खोलकर देखा तो वह नवीन का सुपरवायजर के पर नियुक्ति कृेतु पत्र था। नवीन ने डिप्लोमा तो किया ही हुआ था, अब नियुक्ति-पत्र भी आ गया, जानकर वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई कि उसके ससुरालीजन अब उसकी प्रशंसा करेंगे कि देखो घर में बहु के पैर पड़ते ही नवीन की नौकरी भी लग गई, बहुत ही लक्ष्मी आई है घर में।
पर ये क्या! नौकरी की खबर का तो एक दम ही उल्टा असर हुआ। शायद ये विनीता के दुर्भाग्य का ही फल था कि जो लोग उसकी, उसके कामों की प्रशंसा करते नहीं थकते थे, एक दम से उसके विरोधी हो गये। सास ने तो तानों की भरमार ही कर दी -
''अरे, जाई ने उकसायौ होइगो मेरे बेटा कँ कें घर में का धारौ है, नौकरी करौ ताकि जेऊ नवीन के संग जाइकें गुलछर्रे उड़ाय सकै।''
विनीता के काटों तो खून नहीं, ये क्या? क्या उसकी तकदीर में ताउम्र लाँछन सहने ही लिखे हैं? नवीन ने अपने माँ-बाप को बहुत समझाया कि इसमें विनीता किा कोई दोष नहीं है। नवीन ने ही कई जगह पर प्रार्थना पत्र भेज रखे थे। पर ससुर ने तो एकदम से ही नकार दिया- 'अरे, हमारे यहाँ 15 नौकर-चाकर लगे हैं ये किसकी चाकरी करने जायेगा?'
पर जब नवीन ने नौकरी पर जाने की जिद की तो सभी के कटाक्ष विनीता को छेदने लगे,-'' अरे कारे मूड़ की आयकें अच्छे-अच्छेन कूँ माँ-बाप औरु भाई-भैन तें अलैदा करि दैवें हैं, याही नें नवीन कूँ समझायौ होयगौ।''
सुन-सुन कर विनीता अन्दर-ही-अन्दर घुटने लगी। जब भी मौका मिलता वह दीवार से सटकर फफक-फफक कर रोने लगती। उसे लगने लगा कि उसके घावों को सहलाने वाला अब यहाँ भी कोई नहीं बचा। सब झूठे आरोप लगा-लगाकर उसे अपमानित करते रहते हैं। हाँ नवीन, उसका पति अवश्य उसे प्यार करता है,पर वह भी नौकरी पर चला गया। अब उसे ससुराल का घर भी वीयावान जंगल सा लगने लगा। जैसे भीषण गर्मी से तपते पथिक को कुछ समय के लिए किसी घने वृक्ष की शीतल छाँव मिल गई हो और उसके बाद फिर से वह उसी तपती दुपहरी में आगे बढ़ते जाने के लिए मजबूर हो, इसी तरह कुछ समय के लिए उसके जीवन में भी सभी के प्यार की सुखद छांव उसे मिल गई थी।
एक वर्ष बाद नवीन, विनीता को भी अपने पास ले गया। नवीन को वहाँ एक अच्छा सा क्र्वाटर मिला हुआ था जिसकी खिड़की खोलने पर सामने पहाड़ और उसके ऊपर उगे हरे-भरे वृक्ष दिखाई पड़ते थे। विनीता को पहाड़ी के ऊपर उगे हरे-भेरे वृक्ष बहुत लुभाते। जब भी नवीन डयूटी पर होता, विनीता घर का काम-काज निपटा कर अक्सर ही खिड़की के सहारे बैठ कर वृक्षों को निहारा करती।
नवीने उसे प्रसन्न रखने का हर सम्भव प्रयास करता। उसकी गोद में अब सौम्या आ गई थी। गोल-मटाल, सुन्दर सी गुड़िया सरीखी सौम्या का पा वह अपने मातृत्व पर फूली न समाती उसे अहसास होता कि मातृत्व-सुख प्रत्येक नारी के लिए एक अद्भुद और अनिवर्चनीय सुख होता है।
दो वर्ष बाद ही रिषभ के जन्म ने तो नवीन और विनीता की खुशियाँ दुनी कर दीं।
सौम्या ने अब पांचवी कक्षा पास कर ली तो रिषभ भी तीसरी कक्षाा में आ गया था। नवीन की पदोन्नति हो गई थी। अब वे दफ्तर के कार्यों में अधिाक व्यस्त रहने लगे थे। घर पर भी दफ्तर की फाइलें उठा लाते और देर रात तक काम करते रहते। विनीता भी नवीन की हर सुविधाा का धयान रखती। नवीन के दफ्तर चले जाने के बाद, घर का सारा कार्य निपटा कर थोड़ी देर आराम करती या पत्र-पत्रिकाएं बढ़ती। फिर दोपहर को ंसकूल से बच्चों के लौट आने पर उनके होमवर्क आदि में सहायता करती। एकदम बदल गये कोर्स की वजह से वह पुस्तकों की कुछ बातें समझ पाने में असमर्थ रहती तो उसे अपनी तकदीर पर कुंठा होती।
बचपन से ही वह आगे और आगे पढ़ते जाने की इच्छ ुक थी किन्तु मायके में विमाता ने 10वीं से आगे नहीं पढ़ने दिया। ससुराल आई तो वहाँ घर की बहू का घर से बाहर पढ़ने के लिए जाने पर ससुर जी की इज्जत को बट्टा लग गया था। उसने नवीन की सहमति से चुपचाप इन्टर का फार्म भर दिया था तथा प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में परीक्षा भी दे आई थी चुपके से, पर जब ननद ने उसकी अंकतालिका ससुर जी को दिखाई तो वे आग-बबूला हो उठे थे,-
''मेरे मना करने के बावजूद भी इस घर की बहू ने पढ़ाई के लिए घर से बाहर कदम रखने की जुर्रत कैसे की।'' और कहने के साथ ही अन्होंने अंक तालिका के टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे। विनीता अपनी किस्मत पर बहुत रोई थी तब। पर पिंजड़े में बन्द पक्षी की भाँति फड़-फड़ाकर रह गई।
नन्हीं-नन्ही बूदों की बौछार नपे अचानक विनीता को भिगोया तो विगत से निकल कर वह वर्तमान में आ गई। कुछ कबूतर भीगते हुए भी चहार-दीवारी पर पड़े गेहूँ के दानों को चुगने में व्यस्त थे एक -दा गुटरगूं करते हुए गोल-गोल घूमकर नाच रहे थे जैसे कई दिनों की भीषण गर्मी के बाद इन नन्हीं-नन्हीं बूदों और शाीतल हवा के झौंकों का भरपूर आनन्द वे भी लेना चाहते हों।
विनीता के अपनी आराम कुर्सी उठाकर पोर्च के अन्दर की ओर खिसका ली। विचारों की झंझा ने फिर से उसके हृदय को मथना शुरु कर दिया।
नवीन की एक ओर पदोन्नति हो गई थी। अब उसे डिप्टी मैनेजर बना दिया गया था पर उसी के साथ उसका स्थानान्तरण कलकत्ताा की ब्रान्च में कर दिया गया। विनीता और नवीन के लिए ये एक नई समस्या थी उ0 प्र0 के विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चे, बंगाल के विद्यालयों में किस प्रकार समंजित हो पायेंगे। प्रदेश, भाषा, रहन-सहन सभी का बदलाव बच्चों के भविष्य को चौपट न दे, यही सोच विनीता ने नवीन के सुझाव पर, पड़ोस में किराये पर रहते हुए इस मकान को बनाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। महिला होते हुए भी दो-दो बच्चों की देखभाल, खाने-पीने का प्रबन्धा और फिर मकान बनवाने हेतु सारे संसाधानों को जुटाना, विनीता शाम तक थक कर चूर हो जाती फिर भी अनीता अकेली जुटी रहती, इस आन्तरिक प्रसन्नत के साथ कि चलो थोड़े कष्ट के बाद अपना भी घर होगा।
विनीता ने घर में फोन भी लगवा लिया जिससे बीच-बीच में नवीन से बातचीत हो जाती। नवीन के व्यवहार में कुछ परिवर्तन सा महसूस करने लगी थी विनीता। नवीन, कलकत्ताा से फोन पर तो बहुत मीठी-मीठी बाते करता पर जब एक-दो हफ्ते के अवकाश पर घर आता तो प्यार की सारी बाते भूल कर बात-बात पर विनीता से झल्ला उठता था उसे डाँट देता। विनीता उसका मुँह ताकते रह जाती। ये क्या हो गया कलकत्ताा जाकर इन्हें? और फिर वह अपने दुर्भाग्य को कोसने लगती। कभी-कभी तो नवीन के साथ इतनी झड़प हो जाती कि वह जीवन से विरल हो उठती। यहाँ तक कि कभी-कभी तो वह आत्महत्या कर लेने तक की सोच बैठती। क्या करे, आखिर क्या करें वह ऐसे जीवन का जिसमें होश सम्भालने से लेकर अब तक दूसरों और अपनों की भी विष बुझे तीर सी जली-कटी बातों को वह झेलती आ रही है। क्या होता जा रहा है नवीन को? कहीं कलकत्ता में किसी चुड़ैल ने बंगाल का जादू तो नहीं कर दिया? उसका नारी मन शंकालु हो उठता आखिर क्या हो जाता है पुरूषों को? क्या आदि काल से चली आ रही पुरुष प्रधानता का कभी अन्त होगा भी या नहीं? या नारी हमेशा भोग्या और पुरूष के पैर की जूती ही बनी रहेगी? नारी मन की सुकोमलता उसके हृदय की भावुकता और पीड़ा को कब समझेगा पुरूष? अनायास ही विनीता की ऑंखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली।
आज वह नवीन के आते ही उससे बात करेगी कि आखिर मुझमें ऐसी क्या कमी आ गई है जो नवीन का व्यवहार इतना बदल गया है। वह सोचे जा रही थी कि तभी नवीन ने पीछे से आकर उसकी दोनों ऑंखों को अपनी हथेलियों से ढक दिया। विनीता हड़बड़ाकर एक दम से उठ खड़ी हुई।
''अरे! विनीता तुम रो रही हो, क्यों?''- चौंकते हुए नवीन ने पूछा तो विनीता, नवीन के कुंधो पर अपना सिर टिका कर फफक-फुफक कर रो पड़ी।
शायद तुम मेरे बदले हुए व्यवहार से आहत हो। सचमुच मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं लेकिन अब ऐसा नहीं होगा विनीता, मैं भटक गया था। मुझे माफ कर दो। कहते हुए नवीन ने अपने दोनों हाथों से उसके कपोलों को पकड़ उसके मस्तक पर एक चुंबन अंकित कर दिया।

डॉ0 दिनेश पाठक 'शशि'
अगस्त 13,2007

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