Sunday, December 20, 2009

बसन्ती

बसन्ती
बसन्ती को गरीबी विरासत में मिली थी। बचपन में पिता का स्वर्गवास हो गया। तीन बहनों की शादी का बोझ, तीन अशिक्षित मजदूर भाइयों पर पडा। बेटों के सहयोग से मां ने तीन बेटियों का कन्यादान किया। तीनों बेटे तथा दो बेटियाँ अलग अलग व्यवसाय के साथ दूर दूर दूसरे शहर में रहने लगे। बसन्ती मां के ही शहर में रह गई। क्योंकि पति वहीं रहता था।
छ: साल में बसन्ती चार बच्चों की मां बन गई। छोटी सी उम्र में पारिवारिक बोझ ने विवेक को पनपने ही नहीं दिया। मूढता अज्ञानता बसन्ती की गृहस्थी में टांग फैलाकर जम गई। पति चतुराई में निपुण था। अपने ठेले की कमाई अपने शराब पीने, लॉटरी खेलने तथा अपने ऊपर खर्च करता था।पत्नी को सदा नौकरी में रखा ताकि घर गृहस्थी का खर्चा पत्नी अपनी कमाई से ही पूरा कर ले।बसन्ती अनेकों घरों में काम करने जाती थी, इसीलिये साफ सुथरे कपडों में सज - धज कर जाती थी। पति हीनभावना से ग्रसित था। पत्नी कहीं सिरचढी न हो जाय, इसलिये आये दिन घर में उधम मचाता था। अपने पति पद तथा पुरुषत्व की गरिमा बनाये रखने के लिये, पत्नी को यातना देता था।बसन्ती के पैसे भी ले लेता था। बसन्ती मजबूर होकर बिलख पडती थी। क्योंकि अपना उल्लू सीधा करने के लिये वह पहले घर में उधम मचाता था। बच्चों को रुलाता था। खाना अच्छा नहीं बना है इत्यादि बोल कर माहौल को दूषित करता था। फिर जबरदस्ती बसन्ती से चाभी छीनकर उसके पैसे निकाल लेता था। कभी पैसे नहीं मिलते थे तो बसन्ती की गाढी क़माई अथवा गरीबी के पसीने बहाकर कर बनाए गये या खरीदे गये जेवर को छीन कर ले जाता। घण्टे भर में जब वापस आता तो शराब लेकर आता था। शराब घर में ही पीता क्योंकि जब बाहर पियेगा तब पूरी शराब संगी साथी ही पी जायेंगे। स्वयं पीने की बारी ही नहीं आयेगी।
बसन्ती रो रो कर जीती रही। पति लॉटरी खेलने में रम गया। एक दो बार छोटे मोटे लॉटरी के इनाम जीतने के बाद हौसले बुलन्द हो गये। लाखों के इनाम पर नजर टिक गई। रोज रोज का हारना कर्ज में बदल गया। कर्ज वालों की संख्या बढने लगी। सहनशीलता ने आक्रोश का रूप धारण कर लिया।एक दिन कर्ज देने वालों ने आपस में निश्चय किया कि आज इससे अपना पैसा वसूलना है। क्योंकि रोज चकमा दे रहा है कि शीघ्र ही सारा कर्ज लौटा दूंगा। लॉटरी खरीदने के लिये पैसे हैं, उधार लौटाने के पैसे नहीं हैं। उसका इस प्रकार ढारस दिलाना कि इस बार अवश्य जीतूंगा, निरर्थक है। चकमा दे रहा है। शुरु शुरु में हमने ही इसे उधार देकर लॉटरी खेलने में सहयोग दिया था। जीतने पर यह खर्च कर देता है और हारने पर उधार लेने के लिये गिडग़िडाने लगता है। उसकी नीयत ठीक नहीं वह हमारा पैसा डकारना चाह रहा है। उधार लौटाने की मीठी सांत्वना हमें चिढाने लगी है। आमना सामना होते ही उधार लेने वाला अकेला और उधार देने वालों की भीड ईकट्ठा हो गई। तर्क उग्र हो गया।सभी ने मिल कर उसकी
पिटाई कर दी।
आज पुरुषत्व का वास्तविक पुरुषत्व से पाला पडा था। बुरी तरह मार खाने के पश्चात वह फटेहाल घर पहुंचा। प््रतिदिन अपने पति द्वारा अपमानित व तिरस्कृत होते हुए भी पत्नी को पति का यह रूप सहन नहीं हुआ। बहुत दु:खी हुई। पति की आवभगत करने के पश्चात उधार देने वालों के समक्ष जाकर अपनी भाषा में जमकर खरा खोटा सुनाया। जिसका आशय इस प्रकार था - यदि आप लोग उधार नहीं देते तो मेरा पति यह खेल खेलता ही नहीं। किन्तु आप तो पैसा कमाने के लिये पहले नशा सिखाते हैं। फिर घर - द्वार सब बन्धक रख लेते हैं। इन्सान को हैवान बना देते हैं। अच्छी खासी मेरी जिन्दगी चल रही थी। किन्तु जबसे आप लोगों ने मेरे दरवाजे पर पांव रखा, मेरे घर का सुख चैन सब समाप्त हो गया। हम सक्षम थे। हम दोनों कमाते थे। बच्चों का अच्छी तरह से पालन पोषण कर रहे थे। किन्तु आप लोगों की छाया पडने के पश्चात हम गरीब बन गये। हम कंगाल हो गये। हमारा सभी कुछ गिरवी है। मेरा पति मुझे डराने लगा। खुशियां गुमनाम हो गईं। रोग घर में डेरा डाल कर बैठा है। सभी बच्चे कुपोषण के शिकार हो गये। मेरी बद्दुआएं तुम्हें मरने के बाद भी सताएंगी। अब भी समय है दूसरों को बरबाद करना छोड दो। तुम्हारे कर्ज के नीचे सिर्फ कब्र है, कब्र और कुछ नहीं। जिस दिशा में तुम पहुंचे, वहाँ से प्रकाश चला गया। वहाँ रहने वाले नेत्र रहते हुए भी अंधे हो जाते हैं।तुम्हारे कर्ज की तुम्हें एक दमडी भी नहीं मिलेगी। तुमने जोर जबरदस्ती उधार दिया है। मेरी बद्दुआएं तुम्हें निगल जायेंगी।
बडबडाती हुई बसन्ती घर पहुँची तो पता चला उसका पति घर पर नहीं है। कोठियों पर काम के लिये जाने का समय हो चुका था इसलिये बसन्ती बच्चों को अपनी मां की जिम्मेदारी छोड कर स्वयं काम पर चली गई। देर रात तक पति लौट कर घर नहीं आया था। बीच वाले बच्चे को बुखार आ गया था। बच्चे को छोड क़र भी नहीं जा सकती थी। इतनी रात को जायेगी कहाँ? इतना विश्वास था कि उधार देने वाले मार पिटाई करेंगे लेकिन जान से नहीं मारेंगे। क्योंकि पैसा डूब जायेगा।

सुबह होते ही बच्चों की दिनचर्या पूरा करने के पश्चात बसन्ती काम पर चली गई। दोपहर में बसन्ती घर पहुंची। पति लापता था। चारों तरफ खोजबीन की। सभी कोठियों में भी अपनी कहानी सुना डाली।दस दिन अच्छे बुरे के कौतुहल में बीते। तभी डाकिया एक पत्र लाया। पत्र में लिखा था कि, बसन्ती उधार वालों के भय से मैं दिल्ली आ गया हूँ। यहाँ कारखाने में काम मिल गया है। पैसे भी अच्छे मिल रहे हैं। मैं पैसा इकट्ठा कर रहा हूँ। आने पर लेता आऊंगा।' पति का हाल चाल पाकर बसन्ती खुश हो गई। सभी ने सांत्वना दी कि दिल्ली में कमाई अच्छी है। वहाँ पर वह सुधर जायेगा।
बसन्ती की सबसे अच्छी मालकिन रमा श्रीवास्तव थीं। रमा श्रीवास्तव सामाजिक कार्य भी करती थीं।दिन रमा श्रीवास्तव ने बसन्ती की ओर से बसन्ती के पति को पत्र लिखा कि यहाँ भी अच्छी कमाई कर सकते हो। यहीं आकर साथ साथ रहो। मेरी कमाई से घर का खर्च निकल आयेगा और आपकी कमाई से धीरे धीरे कर्ज का भुगतान भी हो जायेगा। यहाँ बच्चे आपको याद कर रहे हैं। आपकी अनुपस्थिति से उदास बच्चों के दिल पर बुरा प्रभाव पड रहा है। बच्चे आपके बारे में पूछते रहते हैं कि पापा कब आयेंगे। सभी आपके पास आने के लिये तैयार बैठे हैं। रोज ही प्रस्ताव रखते हैं कि मम्मी तुम भी पापा के पास चलो। महीनों बीत गये। उस पत्र का न तो जवाब आया और न ही उसके बारे में कोई खबर मिली।
बसन्ती के पति को गये हुए छ: माह बीत चुके थे। रमा श्रीवास्तव किसी काम से अकेले ही लखनऊ जा रही थीं। प्लेटफार्म पर सीढी क़े बगल में भीड लगी थी। कोई यात्री लू लगने से अबी अभी मरा है। पुलिस आ गई। रमा श्रीवास्तव कौतुहलवश वहाँ पहुंच गई। पुलिस को मृतक की जेब से एक पत्र मिला। रमा जी ने भी उस पत्र को पढा। पुलिस ने उस पत्र को खुला रखा था कि शायद कोई यात्री पहचान सके। यह वही पत्र था जिसे रमा श्रीवास्तव ने लिखा था। यह संयोग ही था कि पत्र में बसन्ती का पता नहीं लिखा था।
रमा श्रीवास्तव सोचने लगी कि वह जो इस पति के वापस आने की प्रतीक्षा में सिन्दूर की लकीर माथे पर लगाये, टिकुली और रंग बिरंगे कपडों में सज धज कर रहती है। इस पति की अनुपस्थिति से चैन की सांस लेती है। इस पति के प्रति उलाहने भी अनेक हैं कि - मेरे जेवर बेच दिये, आये दिन हमको मारता था, अब मैं चैन से हूँ आदि। पुन: रमा श्रीवास्तव दूसरे पहलू पर सोचने लगीं कि यदि इस घटना की सूचना बसन्ती को मिल जाये तब वह विधवा वेश में रहेगी। विधवा कहलायेगी। तब और समाज में जीना मुश्किल हो जायेगा। पुरुष के नाम का ही साया काफी होता है अकेली औरत को। बच्चे भी तो बिना बाप के कहलायेंगे। मन ही मन काफी उधेडबुन करने के पश्चात रमा श्रीवास्तव ने अपना मुंह बन्द रखना
ही उचित समझा। प्ुलिस ने मृतक को अपने संरक्षण में लेकर पंचनामा बना कर अंतिम संस्कार करवा दिया। रमा श्रीवास्तव ने वापस आकर इस दु:खद सूचना से बसन्ती को अनभिज्ञ ही रखा।
हाँ दुखद घटना के तेरहवें दिन नदी के किनारे हवन और गरीबों को भोज रमा श्रीवास्तव ने करवाया।इस हवन व भोज की सारी जिम्मेदारी बसन्ती को सौंप दी। रमा जी मन ही मन हवन, दान और भोज इत्यादि को उस मृत व्यक्ति का नाम लेकर अर्पित करती गईं। गरीबों का भोज रमा जी ने बसन्ती के हाथों ही करवाया।
रमा श्रीवास्तव ने कितनी खुबसूरती से बसन्ती की खुशियाँ बचा लीं। रमा जी ने बसन्ती के समक्ष एक प्रश्न रखा कि, '' बसन्ती, छ: महीने और देख लो। यदि तुम्हारा पति तब भी नहीं आता है तो? तब हम तुम्हारी दूसरी शादी करवा देंगे। ऐसा पति ढूंढूंगी कि जो तुम्हारे बच्चों को संभाल सके।
बसन्ती ने हंस कर सिर झुका लिया। रमा जी को बसन्ती की स्वीकृति मिल गई।
उर्मिला अस्थाना
दिसम्बर 21, 2002

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