Sunday, December 20, 2009

पॉटर्स बार

पॉटर्स बार
लन्दन के बाहर उत्तर में एक निर्जन से स्थान पर स्थित पॉटर्स बार नामक एक पब धू धू कर जल रहा था। ऊंची ऊंची आग की लपटें रात्रि के अंधकार में किसी राक्षस की अनेक जिव्हाओं के समान लपक रही थीं।फायर ब्रिगेड को फोन कर दिया गया था परन्तु फायर स्टेशन दूर होने के कारण वहां से कोई सहायता नहीं आ पाई थी। पास के गांव के लोग इकट्ठे हो गये थे और अपने अपने ढंग से आग बुझाने का प्रयत्न कर रहे थे, परन्तु उस पर लेश मात्र नियन्त्रण नहीं हो पा रहा था। माइकेल, जो कभी आग बुझाने में लग जाता था और कभी उसकी भयावहता को देखने लगता था, का दिल इस आशंका से धक धक कर रहा था कि कहीं सिल्विया भी इस पब के भीतर न फंसी हो।
आज पॉटर्स बार लन्दन महानगर का एक मोहल्ला बन गया है परन्तु वर्ष 1945 में , जब यह आग लगी थी तो यह लन्दन नगर के बाहर दस बीस घरों वाले एक गांव के लोगों के इकट्ठे मिलने और गप्पें मारने हेतु पब(पब्लिक प्लेस) मात्र था। सोमरस का पान इस मिलने जुलने का बहाना भी होता और उत्प्रेरक भी। इस पब का नाम पॉटर्स बार इसलिये रखा गया था, क्योंकि इस गांव के अधिकतर परिवार मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य करते थे - वैसे भी इंग्लैण्ड में पबों के नाम प्राय: ग्रामों से सम्बन्धित किसी वस्तु के नाम पर रखने की प्रथा है, जैसे प्लाऊ एण्ड हैरो,होर्स एण्ड सैडिल, द कासल, द डॉग आदि।
सिल्विया इसी गांव की रहने वाली लम्बे सुनहरे बालों और नीली आंखों वाली उन्नीस वर्ष की अपूर्व आकर्षणयुक्त नवयौवना थी। वह माइकेल, जो लन्दन विश्वविद्यालय में बी एससी फाइनल में पढता था, की प्रेमिका थी, और माइकेल की नौकरी लग जाने पर दोनों ने विवाह करने का निश्चय कर रखा था। माइकेल गांव में ही रहता था और प्रतिदिन मोटरसाइकल से लन्दन जाता था। प्राय: छुट्टियों के दिन वह सिल्विया को लन्दन विश्वविद्यालय, बंकिघम पैलेस आदि दिखाने अथवा हाइड पार्क या टेम्स की सैर कराने के लिये अपनी मोटरसायकल पर बिठा कर ले जाता था। वह दिन माइकेल और सिल्विया के लिये जीवन के अप्रतिम आनन्द का दिन होता।
गत वर्ष इसी गांव में स्थित अस्पताल में लेडी डॉक्टर सैंडी की नियुक्ति हुई थी। उनके दो वर्ष के जुडवां बेटे थे। डॉक्टर सैंडी ने अपनी योग्यता, मृदुभाषिता एवं आकर्षक व्यक्तित्व के कारण शीघ्र ही सुख्याति प्राप्त कर ली थी। गांव वालों को उनसे व्यक्तिगत सहानुभूति भी थी क्योंकि उनके पति जो सेना में थे, द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान देश की रक्षा के लिये लडते हुए शहीद हो गये थे। विश्वयुध्द के उपरान्त इंग्लैण्ड में बीमारी और महामारी फैल रही थी और डॉक्टर सैण्डी को दिनभर अस्पताल में व्यस्त रहना पडता था। सिल्विया के ममतापूर्ण स्वभाव से प्रभावित होकर उसने उसे बच्चों की देखभाल हेतु बेबी - सिटर के रूप में नौकरी दे रखी थी। सिल्विया दिनभर बडे यत्न से दोनों बच्चों की देखभाल करती थी, परन्तु यदि कभी डॉक्टर सैंडी को शाम को वापस आने में देरी होने लगती तो वह बेचैन हो जाती थी। इसका कारण था माइकेल का प्रतिदिन सायं पॉटर्स बार में आना और पलक पांवडे बिछा कर सिल्विया की प्रतीक्षा करना। यहां आकर दोनों बियर का एक एक मग लेकर पब के किसी कोने में बैठ जाते और धीरे धीरे बियर की चुस्कियां लेते हुए एक दूसरे से बतियाते। पब बन्द होने तक न तो उनका मग खाली होने को आता न उनकी बातें।
उस दिन 19 अक्टूबर 1945 को प्रात:काल से सिल्विया का मन गुनगुना रहा था - माइकेल का बर्थडे होने के कारण वह अपनी पूरी शाम उसके साथ ही बिताना चाहती थी। पिछले दिन ही वह माइकेल से तय कर चुकी थी कि कि लन्दन से लौटने पर वह सीधा पब पहुंचेगा और सिल्विया भी जल्दी छुट्टी लेकर वहां आ जायेगी। सिल्विया ने डॉक्टर सैंडी को भी उनके अस्पताल जाने से पहले अपना कार्यक्रम बता दिया था और उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा था,
'' ठीक है सिल्विया, मैं अपरान्ह में जल्दी ही घर आ जाऊंगी।''
सांझ का धुंधलका होने लगा था, डॉक्टर सैंडी की प्रतीक्षा में सिल्विया बेचैन होने लगी थी। वह बार बार दरवाजा खोल कर बाहर झांक आती थी और सैंडी को न देखकर उसकी व्यग्रता बढ ज़ाती थी।जब उसका माइकेल से मिलने का आवेग असह्य होने लगा तो वह दोनों बच्चों को साथ लेकर पब की ओर चल दी। बच्चों को अन्दर ले जाना नियम के विरुध्द होने के कारण वह उन्हें पब के दरवाजे पर खडा कर स्वयं माइकेल को देखने अन्दर चली गई। तभी एक बच्चा दूसरे को घसीटते हुए धीरे से पब में घुस आया और उसका हाथ दरवाजे क़े पास स्टूल पर रखी कैंडल से लग गया।कैडंल नीचे गिरते ही उससे दरवाजे पर टंगे पर्दे और फर्श पर बिछी कालीन में आग लग गई।उनके ज्वलनशील कपडों को आग ने ऐसा लपेटा कि जब तक बारटेण्डर अथवा अन्य किसी की नजर पडती, दरवाजा धूधू कर जलने लगा और आग तेजी से शराब की बोतलों को लपेटने लगी।सिल्विया का ध्यान आग पर जाते ही वह घबराकर दरवाजे क़ी ओर लपकी और घने धुंए के होते हुए भी उसने बच्चों को ढूंढकर गोद में उठा लिया, परन्तु भयानक रूप से जलते हुए दरवाजों के बाहर वह न निकल सकी। जब तक फायरब्रिगेड आई और आग पर नियन्त्रण किया, पब के अन्दर सबकुछ स्वाहा हो चुका था।
लन्दन जाने वाली सडक़ पर दुर्घटना हो जाने के कारण उस दिन कई इमरजेन्सी केसेज अस्पताल में आ गये थे और डॉक्टर सैंडी चाहते हुए भी जल्दी अस्पताल से न जा सकी। जब वह घर पहुंची,वहां सिल्विया और बच्चों को न पाकर पहले सिल्विया के घर पूछने गईं और फिर पॉटर्स बार में उठती लपटें देखकर वहां आ गईं - उसके दिल की धडक़नें किसी आसन्न विपत्ति की आशंका से अत्यन्त तेज हो रही थीं। वहां इकठ्ठी भीड में वह बदहवास सी सिल्विया और बच्चों को ढूंढने का प्रयत्न कर रही थी, कि तभी आग बुझाने में प्रयत्नरत माइकेल दिखाई दिया। वह माइकेल का कंधा पकड क़र झकझोरते हुए बोलीं,
'' माइकेल! तुमने सिल्विया को देखा है? वह और मेरे बच्चे कोई भी घर पर नहीं हैं।''
माइकेल का चेहरा देखकर उसके कुछ बोलने से पूर्व ही सैंडी को उसके उत्तर का आभास हो गया,परन्तु फिर भी वह उसके मुंह की ओर आशा भरी निगाहों से देखती रही। माइकेल के नेत्रों से आंसू बहने को व्याकुल हो रहे थे। वह कठिनाई से बोल पाया -
'' मुझे आशा थी कि वह आपके यहां होगी। मैं ने उसे जल्दी पब पहुंचने का वादा किया था, लेकिन सडक़ पर हुई एक दुर्घटना के फलस्वरूप ट्रैफिक जाम में फंस जाने के कारण देरी हो गयी। जब मैं यहां पहुंचा तो पूरा पब जल रहा था और सिल्विया और बच्चे यहां कहीं नहीं दिखाई दिये।''
सैंडी और माइकेल की आशंकाओं की पुष्टि तब हुई जब पब की राख में एक वयस्क कंकाल के दोनों हाथों में एक एक बच्चे के कंकाल मिले। बच्चों की मां रोते रोते मर्ूच्छित हो गई और कुछ लोग उसे उठाकर अस्पताल ले गये। माइकेल अर्धविक्षिप्त सा सिल्विया - सिल्विया पुकारता रात भर वहीं बैठा रहा।
काल की गति अबाध है - उसे न किसी से प्यार है और न किसी की प्रतीक्षा। मानव के सुखों - दुखों, आशाओं - उत्कंठाओं और मिलन - बिछोहों से निर्लिप्त एवं निर्विकार वह भविष्य की ओर बढता जाता है। पर डॉक्टर सैंडी और माइकेल के दुख ऐसे थे कि उन्हें लगता था कि उस गांव में समय की गति स्थिर हो गई है - उनका एक एक पल उनके जीवन पर भारी था। स्थिर जल के समान प्रतिदिन अधिकाधिक मटमैले लगने वाले उस माहौल से बचने के लिये डॉक्टर सैंडी ने अपना स्थानान्तरण ग्लासगो करा लिया और माइकेल ने बी एससी पास करते ही अमेरिका मिशिगन राज्य के कालामजू नामक नगर स्थित दवाइयां बनाने की एक कम्पनी में नौकरी कर ली। वहां उसे कम्पनी के गेस्टहाउस में रहने के लिये एक कमरा मिल गया, परन्तु वह इतना अर्न्तमुखी हो गया था कि उसे किसी की भी निकटता काटने दौडती। अत: शीघ्र ही वह गेस्ट हाउस के भीड भरे वातावरण से बचने के लिये किसी निर्जन स्थान पर स्थित आवास ढूंढने लगा।
कालामजू नगर से कुछ दूर पोर्टेज नाम का एक छोटा सा गाम बसा हुआ था, जिसके उत्तर एवं दक्षिण में एक एक झील थी। सम्पूर्ण ग्राम ओक, सीडर एवं स्पूस के वृक्षों से आच्छादित था।उत्तरी झील पूर्व पश्चिम दिशा में सांप की तरह लहराती हुई लगभग एक मील लम्बाई में फैली हुई थी और कहीं दो तीन फर्लांग तो कहीं दो तीन सौ गज चौडी थी।

झील के चारों ओर घना जंगल था - बस उत्तरी किनारे पर घोर एकान्त में एक बंगला बना हुआ था। इस बंगले तक आने हेतु जंगल के बीच एक कच्चा रास्ता बनाया हुआ था। इसी बंगले तक आने हेतु जंगल के बीच से एक कच्चा रास्ता बनाया हुआ था। इसी बंगले के किराये पर उठाये जाने हेतु उपलब्ध होने का विज्ञापन देखकर माइकेल अपनी पुरानी फोर्ड कार से यहां आया हुआ था। उसने ज्यों ही कार को जेम्सवे ( बंगले के मालिक द्वारा जंगल काटकर बनाये गये रास्ते का नाम) पर मोडा, उसने पाया कि जंगल इतना घना था कि सूर्य की किरणें भी वृक्षों में उलझ कर ऊपर ही रह जाती थीं। फिर कुछ पलों में ही हिरणों का एक झुण्ड दिखाई दिया, जो कार देखकर सहम कर खडा हो गया था। बंगले के निकट पहुंचकर उसने कार को गैराज के बाहर खडा किया।घंटी बजाने पर केयरटेकर निकला और वह उसके पीछे गैराज के रास्ते ड्राईंगरूम में घुसा। वहां से सामने दिखाई देने वाले दृश्य को देखकर माइकेल का मन प्रफुल्लित हो गया। बंगला ढलान पर बना हुआ था जिससे बंगले के सामने से घुसने पर तो ड्राईंगरूम भूतल पर पडता था, परन्तु पीछे से प्रथम तल पर था। ड्राईंगरूम के पीछे पूरी दीवार पर पारदर्शी शीशा लगा हुआ था, जिससे एक अनोखे प्राकृतिक दृश्य के दर्शन होते थे। नीचे हरी घास का लॉन एक लहराते जल वाली झील के किनारे तक फैला हुआ था। लॉन के बांये कोने पर खडे एक मेपल के वृक्ष पर बडे अाकार की चाइम्स टंगी हुई थी, जो हवा की सरसराहट के साथ अत्यन्त कर्णप्रिय ध्वनि उत्पन्न करती थी।झील के पार था दूर दूर तक फैला घना जंगल। झील में कैनेडियन गीज क़ा एक विशाल झुण्ड एक लम्बी सी कतार में तैर रहा था - आगे वयस्क मादा , पीछे बच्चे और उनकी सुरक्षा हेतु पीछे फिर एक वयस्क नर। सुदूर पूर्वी किनार पर जंगल में छिपा सा एक छोटा सा घाट था जहां एक दो नावें बंधी हुई थीं।
ड्राईंगरूम के नीचे स्थित फेमिली रूम से सीधे लॉन में और वहीं से झील को जाने का रास्ता था।झील के किनार िएक छोटी सी जेट्टी बनी हुई थी जिसके सहारे एक चप्पू वाली नाव खडी थी।केयरटेकर ने बताया कि नाव के उपयोग के लिये उसे कोई अतिरिक्त किराया नहीं देना पडेग़ा।माइकेल को वह बंगला एकदम भा गया और उसका किराया उसकी आय के हिसाब से कुछ अधिक होते हुए भी उसने किराये पर लेने का कॉन्ट्रेक्ट( संविदा) अविलम्ब हस्ताक्षरित कर दिया।
दूसरे दिन रविवार था और माइकेल अपनी छोती सी गृहस्थी लेकर शाम होने तक उस बंगले तक आ गया। उसने चाय बनाई और टोस्ट सेंक कर बटर लगाया। फिर उन्हें खाते हुए ड्राईंगरूम की शीशे की दीवाल के पार झील पर फैलते धुंधलके को निहारने लगा। झील के पानी की सतह के शनै: शनै: बदलते रंग उसे मोहित कर रहे थे। फिर ज्यों ज्यों धुंधलका बढने लगा, माइकेल के मन में सिल्विया के बिछोह का अवसाद घिरने लगा। जब पूर्व दिशा में पूनम का चन्द्रमा जंगल के ऊंचे ऊंचे वृक्षों के ऊपर उठने लगा, तो झील के पश्चिमी किनारे पर पानी में उठती जलतरंगें पिघले स्वर्ण सी झिलमिलाने लगीं। माइकेल उस अनिर्वचनीय छटा से मुग्ध हो रहा था कि झील के पूर्वी भाग , जहां जंगल के घने वृक्षों की छाया के कारण अभी भी अंधेरा छाया हुआ था, से एक सेलबोट( पतवार वाली नाव) पश्चिमी दिशा की ओर धीरे धीरे तैरती दिखाई दी। ध्यान से देखने पर उसे लगा कि उस नाव में किसी परिवार के लोग सैर को निकले हैं। नाव धीरे धीरे दूर पश्चिम दिशा में चली गई। लगभग एक घण्टे बाद जब वही नाव पश्चिम दिशा से वापस पूर्व को जाती दिखाई दी, तब तक चांदनी चटख हो चुकी थी और आकृतियां स्पष्ट होने लगीं थीं। माइकेल पुन: उस नाव को ध्यान से देखने लगा, तो उस स्त्री में सिल्विया का रूप उभरने लगा। फिर उसे स्पष्ट दिखाई देने लगा कि नाव में बैठी सिल्विया उसे अपनी ओर बुला रही है। उसे सिल्विया की गोद में दोनों ओर बैठे डॉ सैंडी के दोनों बेटे भी मुस्कुराते हुए दिखाई दिये। माइकेल के हृदय की धडक़न एक क्षण को तो रुक ही गई थी। वह अविलम्ब नीचे उतर कर झील में खडी अपनी बोट की ओर चल दिया। उसने जेट्टी से उसे खोला और जल्दी जल्दी सिल्विया वाली नाव की ओर चप्पू से चलाने लगा। माइकेल अपनी पूरी शक्ति के साथ अपनी नाव को सिल्विया की नाव की ओर बढा रहा था परन्तु सिल्विया की सेलबोट किनारे पर उससे पहले पहुंच गई और सिल्विया दोनों बच्चों को लेकर नाव से उतर गई और जंगल की ओर चल दी। जब माइकेल किनारे पहुंचा, सिल्विया दोनों बच्चों सहित आंखों से ओझल हो चुकी थी। माइकेल अपना होश खोकर जिस ओर सिल्विया गई थी, उस ओर तेजी से चल दिया। कुछ देर तक सिल्विया के दिखाई न देने पर वह पागलों की तरह उसे पुकारने लगा, पर सिल्विया कहीं दिखाई नहीं पड रही थी। जंगल अधिक से अधिक घना और अंधकारपूर्ण होता जा रहा था, जिससे माइकेल की निराशा बढती जा रही थी और वह विक्षिप्त सा होता जा रहा था। फिर माइकेल को स्वयं पता नहीं रहा कि उस बियाबान में वह कब तक भागता रहा और कहां पहुंचा। दूसरी सुबह होश में आने पर उसने अपने को अपने नये बंगले के बेडरूम में पलंग पर लेटा हुआ पाया। उस समय उसे बस इतना ध्यान आ रहा था कि रात उसने किसी विशाल महल में सिल्विया के साथ सोकर बिताई थी, जबकि डॉ सैंडी के बच्चे बगल के कमरे में सोते रहे थे; पर कहां, और वह वहां से कैसे वापस अपने घर आया, इसका उसे कोई अनुमान नहीं था। उसे यह तो याद आ रहा था कि वह रात में सिल्विया की नाव के पीछे अपनी नाव से झील पार कर जंगल में गया था, परन्तु उसके आगे की घटनाएं अश्रृंखलाबध्द एवं स्वप्न सी धुंधली लग रही थीं। बेडरूम की झील की ओर देखने पर उसे झील पूर्णत: शान्त दिखाई दे रही थी। और नाव जेट्टी से सटी हुई यथावत् खडी पाई।
माइकेल आश्चर्यचकित तो था ही परन्तु उससे कहीं अधिक सिल्विया से मिलन होने के आनन्दातिरेक में डूब उतरा रहा था। उसने सर्वप्रथम ग्लास्गो में डॉ सैंडी को फोन मिलाया और सिल्विया तथा डॉ सैंडी के दोनों बच्चों को देखने के विषय में बताया। सैंडी अविश्वासपूर्ण स्वर में बोली,
'' माइकेल तुम स्वस्थ तो हो न?''
इसके उत्तर में माइकेल द्वारा सम्पूर्ण घटना इतने विश्वास के साथ दुहराई गई कि सैंडी की भी उत्सुकता जाग्रत हो गई और वह उसी रात वायुयान से डिटौइट पहुंच गई और वहां से बस पकड क़र सुबह पोटर्ेज आ गई। वह माइकेल से एक एक बात बार पूछ रही थी और माइकेल द्वारा वर्णित घटना पर उसका प्रारम्भ में उत्पन्न अविश्वास डिगने लगा ।
दोपहर के भोजन के उपरांत वह ड्राईंगरूम के सोफे पर ही लेटकर झील की ओर आशान्वित नेत्रों से निहारती हुई सो गई। रात भर वायुयान में जागते रहने के कारण वह देर तक सोती रही, और जब उसकी आंख खुली तो सूर्यास्त होने को जा रहा था। माइकेल चाय बनाकर देर से उसके जागने की प्रतीक्षा कर रहा था। सैंडी ने जागते ही माइकेल से कहा, '' क्या मैं किसी तरह अपने बच्चों तक पहुंच सकती हूँ?''
माइकेल के मुख पर असमंजस का भाव आया परन्तु वह प्रत्यक्ष में बोला,
'' मैं तुम्हें उस जंगल तक तो ले चल सकता हूँ जिधर सिल्विया बच्चों के साथ गई थी, परन्तु मैं नहीं समझता कि सिल्विया के स्वयं के चाहे बिना मैं उसके महल तक पहुंच सकता हूँ।''
इस पर सैंडी कुछ सोचती हुई बोली,
'' हो सकता है सिल्विया प्रतिदिन सायंबेला में बच्चों के साथ बोटिंग के लिये झील पर निकलती हो।'' सैंडी का मन आस की डोर बांधे रखना चाहता था।
जिस तरह सिल्विया ने माइकेल को इशारा कर बोट पर बुलाया था, उससे उसे भी पूर्ण आशा थी कि सिल्विया अवश्य आयेगी, अत: उसने आश्वस्त करते हुए कहा, '' मुझे लगता है कि सिल्विया पुन: अवश्य आयेगी।''
इस तरह आशा और निराशा के सागर में डूबते उतराते माइकेल और सैंडी झील की ओर हसरत भरी निगाहों से देखते रहे। फिर जब अंधकार का साम्राज्य छाने लगा और पूर्व दिशा में थोडा सा कटा हुआ चन्द्रमा आकाश में उठने लगा, तब झील के पूर्वी किनारे से एक सेलबोट लहरों पर मंदगति से तैरती हुई दिखाई दी। सेलबोट पर एक स्त्री और दो बच्चों के सिलुएट भी दिखाई देने लगे, पर बोट हवा के साथ बहती हुई पश्चिम दिशा में जाते हुए आंख से ओझल हो गई। सैंडी और माइकेल भ्रमित होकर उसी दिशा में देर तक देखते रहे। जब उनके मन में निराशा गहराने लगी,तभी वह बोट उन्हें पश्चिम दिशा से लौटती हुई दिखाई दी। अब तक चन्द्रमा का प्रकाश प्रखर हो चुका था और उन्होंने देखा कि सिल्विया हवा में किस उढालते हुए माइकेल को बुला रही थी और दोनों बच्चे अपनी नन्हीं नन्ही हथेलियों को बेचैनी से हिलाते हुए अपनी मम्मी को बुला रहे थे।सैंडी सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो रही थी।
सैंडी और माइकेल दोनों मंत्रमुग्ध से उठकर झील की तरफ चल दिये और अपनी बोट खोलकर उसे सिल्विया की बोट की ओर तेजी से खेने लगे। परन्तु आज भी वे सिल्विया की बोट को नहीं पकड पाये और उनके देखते देखते सिल्विया और बच्चे सेलबोट से उतर कर जंगल में चल दिये। किनारे पर पहुंचकर इन्होंने जल्दी जल्दी उनका पीछा किया। आज उन्हें ऊंचे ऊंचे वृक्षों के बीच से आती हुई चन्द्रमा की किरणों में यदा कदा सिल्विया और बच्चों की झलक मिल जाती थी और फिर ओझल हो जाती थी, परन्तु वे चाहे कितना भी तेजी से दौडें, उनके निकट नहीं पहुंच पाते थे।माइकेल और सिल्विया को पता नहीं चला कि उन्होंने सिल्विया और बच्चों का कितनी देर तक पीछा किया, परन्तु अभी भी उन्हें उस बियाबान जंगल में एक भव्य महल दिखाई दिया। महल के आस पास वृक्ष कम थे और
स्वर्णिम चांदनी फैली हुई थी। उसके मुख्यद्वार पर सिल्विया और बच्चे ऐसे खडे थे जैसे उन दोनों की प्रतीक्षा कर रहे हों। माइकेल और सैंडी उनकी ओर बढने लगे, तभी उन्होंने देखा कि सिल्विया हाथ उठाकर उन्हें रोक रही थी। फिर उसके होंठ हिले और किसी सुदूर सुरंग से आती हुई सी सिल्विया की आवाज उन्हें सुनाई दी -
'' माइकेल तुम लोग वहीं रुक जाओ। तुम लोग सशरीर इस महल में प्रवेश नहीं कर सकते हो।''
माइकेल और सैंडी के मुख पर निराशा का भाव घनीभूत होता जा रहा था। बच्चों की ओर हाथ बढाये सैंडी रुआंसी हो रही थी कि तभी सिल्विया की वैसी ही धीर गम्भीर आवाज पुन: सुनाई दी,
'' तुमसे मिलने को मैं भी तडप रही हूँ और अपनी मां से मिलने को दोनों बच्चे भी व्याकुल हैं,परन्तु वर्तमान दशा में हमारा मिलन कदापि नहीं हो सकता है। हां हमार मिलने का एक उपाय है- आगामी अमावस्या की रात्रि तुम दोनों दोनों एक साथ उसी समय झील में स्नान करो जिस समय हम तीनों नौका भ्रमण को निकलते हैं। हम जिस मार्ग से निकलते हैं उसी मार्ग के किसी स्थान को इस हेतु चुनाप। फिर स्नानोपरांत अर्धरात्रि में तुम दोनों आपस में विवाह बन्धन में बंध जाओ।''
माइकेल और सैंडी के मुंह से एक साथ निकला, '' हम अवश्य करेंगे।'' उनके इतना कहते ही उनके समक्ष उपस्थित सिल्विया, बच्चे और महल सभी लुप्त हो गये और वहां घना जंगल छा गया। वे दोनों बिना कुछ बोले चुपचाप वापस चल दिये।
तेरह दिन तक माइकेल और सैंडी ने एक एक पल गिन कर अमावस्या की प्रतीक्षा की। उन्होंने सिल्विया के कथनानुसार अमावस्या की अर्धरात्रि को चर्च में विवाह करने की तैयारी भी कर ली।इस बीच उन्हें सिल्विया और बच्चों की नाव नहीं दिखाई दी, जिससे उनकी बेचैनी और बढती रही।अमावस्या के दिन सांझ ढले ही वे अपनी नाव से झील के पार उस स्थान पर पहुंच गये जहां से सिल्विया की नाव गुजरती थी। उस रात ठण्डी ठण्डी मन्द बयार बह रही थी और दोनों के मन को उत्फुल्लित और उत्तेजित कर रही थी। अंधेरा छाने पर वे झील में कूद पडे अौर तैरते हुए तरह तरह के खेल करते हुए नहाने लगे। ग्रीष्म ॠतु की उस रात्रि में झील के पानी में हल्की हल्की गुनगुनाहट थी। वे सोच रहे थे कि अवश्य ही उस रात्रि उन्हें सिल्विया की नाव दिखाई देगी और वे देर रात तक नाव की प्रतीक्षा में नहाते रहे। तभी अचानक सैंडी ने पानी में गहरी डुबकी लगाई और फिर वह ऊपर नहीं आई। तब माइकेल ने घबरा कर उसी दिशा में डुबकी लगाई, जिधर सैंडी ने लगाई थी। देर तक प्रयत्न करने के उपरान्त सैंडी के केश माइकेल के हाथ में आ गये, जिन्हें पकडक़र माइकेल सैंडी के शरीर को ऊपर खींच लाया। उसे नाव में उलटा लिटा कर माइकेल ने उसके मुंह से पानै निकाला और उसकी नब्ज टटोलने लगा - सैंडी की नब्ज बिलकुल गायब थी और उसके हृदय में कोई धडक़न भी नहीं थी। यह देख कर माइकेल को रोना आने लगा, परन्तु उसने अपने पर संयम रखा और सैंडी को अपने मुंह से सांस देने लगा। इसी प्रक्रिया में एक बार फूंक देने के दौरान उसे अचानक लगा कि उसकी सांस के साथ सैंडी के फेफडाें में कोई अन्य बहुत अधिक वेगवान शै भी प्रवेश कर रही है। तभी उसे सिल्विया के खिलखिलाने की आवाज भी सुनाई दी परन्तु पीछे मुडक़र देखने पर कुछ भी नजर नहीं आया। पुन: सैंडी की ओर देखने पर उसके बदन में कम्पन होने का आभास हुआ और कुछ ही क्षणों में वह माइकेल की ओर प्यार भरी नजरों से उठ बैठी। माइकेल आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब सैंडी बिना किसी भूमिका के माइकेल से लिपट गयी और उसका भरपूर चुम्बन लेने लगी। अर्धरात्रि होने में कुछ ही घडियां शेष थीं, अत: माइकेल उसे शांत कर नाव को घर की ओर लेकर चल दिया। नाव से उतर कर उन्होंने विवाह हेतु बनवाये गये वस्त्र पहने और आवश्यक सामग्री लेकर चर्च को चल दिये। रास्ते में माइकेल यह देखकर आश्चर्यचकित हो रहा था कि धीर गंभीर सैंडी आज सिल्विया के समान चुलबुली हो रही थी और उसकी आवाज भी उसी के समान बदली हुई थी।
विवाह की प्रक्रिया पूर्ण होने पर जब पादरी ने कहा कि अब नवदम्पत्तिएक दूसरे को किस करेंगे और जब माइकेल ने सैंडी के होंठों पर अपने होंठ रखे तो माइकेल को लगा जैसे वह सिल्विया का चुम्बन ले रहा हो। फिर सुहागरात के पलंग पर जब माईकेल ने सैंडी को अपनी बांहों में भरा तो उसे स्पष्ट आभास हो गया कि यह तो सिल्विया ही है और उसके मुंह से अनायास निकला, '' मेरी सिल्विया मेरी सिल्विया '' सिल्विया माइकेल के सान्निध्य में अभिभूत हो रही थी। उस दिन के बाद माइकेल उसे सैंडी - सिल्विया के नाम से पुकारने लगा। विवाह के ठीक नौ माह पश्चात सैंडी - सिल्विया ने दो जुडवां पुत्रों को जन्म दिया जो उसके पहले पुत्रों के प्रतिरूप थे। माईकेल और सैंडी - सिल्विया के उछाह का पार नहीं था।
पुत्रों के सम्हलने योग्य होते ही सैंडी - सिल्विया ने कालामजू में मेडिकल प्रेक्टिस प्रारम्भ कर दी।माइकेल और सैंडी वहां आदर्श युगल के रूप में जाने जाने लगे।
प्रचुर धन कमाकर वे इंग्लैण्ड वापस लौट आये। लन्दन का द्रुतगति से विस्तार होने के कारण अब तक उनका गांव
पॉटर्स बार नामक लन्दन के एक मोहल्ले के रूप में विकसित होने लगा था। परन्तु पॉटर्स बार पब के भग्नावेश अभी भी वहीं थे क्योंकि उस स्थान को अशुभ मानकर किसी ने उस स्थान पर निर्माण कार्य नहीं कराया था। माइकेल और सैंडी - सिल्विया ने उस स्थान को क्रय करके उस पर एक भव्य भवन बनवाया, जो आकार और कला में जंगल में उनके द्वारा देखे गये महल का एक प्रतिरूप था। वे जीवन पर्यन्त प्रगाढ प्रेमपूर्वक उसी में रहे। अब उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्रों ने उस भवन में इंस्टीटयूट ऑफ पैरासाइकोलॉजी खोलने का निर्णय लिया है।
पुन:श्च - यद्यपि माइकेल और सिल्विया की यह अद्भुत प्रेमकथा पूर्ण हो चुकी है तथापि पाठकगणों की उत्सुकता इस विषय में और अधिक जानकारी करने की हो तो, वे डॉ विजयशील गौतम एवं डॉ(श्रीमति) मीरा गौतम, 2, द एवेन्यू, पॉटर्स बार, लन्दन तथा श्री गोपाल सिंह एवं श्रीमति कमलासिंह, 10900, जेम्सवे, पोर्टेज, कालामजू, मिशीगन, यू एस ए से सम्पर्क कर सकते हैं। डॉ विजयशील गौतम पॉटर्स बार के उस मकान में रहते हैं जिसमें अपने बचपन में माइकेल रहता था और श्री गोपाल सिंह पोर्टेज के उस बंगले में रहते हैं जिसमें माईकेल और सिंडी - सिल्विया रहे थे।
महेश चन्द्र द्विवेदी
अप्रेल 20, 200

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