Sunday, December 20, 2009

प्रवासी चिड़िया / योंग सू ओ

प्रवासी चिड़िया / योंग सू ओ
-अनुवादक महेन्द्र कुलश्रेष्ठ

वाह! आप रास्ते में मिल गये! मैं स्वयं आपके पास पहुंचने वाला था। नहीं, कोई खास बात नहीं है। आपसे गपशप करने का मन था। मेरी निगाह कुछ बुझी-सी हो रही है? नहीं जी, ऐसा कुछ नहीं है। आइये, कहीं शराब का एक दौर हो जाय।

मेरी सेहत ठीक है। जी हां, मन कुछ गिरा हुआ-सा है। आप कहते हैं, कभी-कभी घर की याद बेचैन कर देती है। आप जो चाहें, कह सकते हैं। आइये, चलें।

कहां? उसी जगह, जहां आपको याद है न, हम पिछली बार गये थे! मेरा मतलब उस होटल से है, जिसे उत्तरी कोरिया के केंग-गी प्रदेश की रहनेवाली औरत चलाती है।

तो भाई, अगर आज आप मेरी पकड़ में नहीं आये होते तो मैं सड़क पर जो भी मिलता, उसी को पकड़ लेता।

आप सोचते हैं कि मेरी यह सदा की बीमारी है। हां, यह बड़ी बुरी बीमारी है, जो मुझे पिछले बीस साल से घेरे हुए है। लेकिन मैं अकेला ही इससे पीड़ित नहीं हूं।

श्रीमति जी, आप भी थोड़ी देरे के लिए आ जाइये। आप तो केंग-गी प्रदेश की रहनेवाली हैं? यही कारण है कि आपका रंग इतना गोरा है। आप पूछती हैं कि मुझे कैसे पता चला कि आप केंग-गी की हैं? पिछली बार मैं जब यहां आया था तब आपने ही तो बताया था। अच्छा, आपका जन्म वहां हुआ था; लेकिन जब युद्ध छिड़ा तो आप बोनसन में थी और वहां से भागकर दक्षिण चली गईं।

ओफ! हमलोग कितने अभागे हैं! कितने छोटे भूखण्ड में रहते हैं, और फिर भी हमारे आधे प्रियजन अलग रहते हैं! आधा उत्तर और आधा दक्षिण। अपने ही रक्त के संबंधी हैं और बीस साल हो गये, किसी भी पक्ष को इस बात का पता नहीं है कि दूसरा पक्ष सही-सलामत है या नहीं!

मैने बीस साल पहले ३८वीं पैरेलल (सरहद) को पार किया था। मां मेरी वहीं राह गई थीं। उनकी उम्र साठ के आसपास ही रही होगी। मेरी स्त्री और दो बच्चे भी वहीं छूट गये। बच्चों में एक तीन साल का था, दूसरा हाल ही में पैदा हुआ था। मैंने सोचा था कि महीने भर के भीतर लौट जाऊंगा।

मुझे आपसे बड़ी ईर्ष्या होती है।

आप पूछते हो, ईष्या की क्या है? आप यहां बैठकर फैसला दे सकते हैं कि मेरा घर की याद करना व्यर्थ है या आप यह भी कह सकते हैं कि मेरी हालत पर आपको दुख है। आप इन बातों को हंसी में भी उड़ा सकते हैं। आपसे ईष्या करने के लिए क्या इतना ही काफी नहीं है?

आपके लिए या और किसी के लिए मेरे मन में दुर्भाव नहीं है। आपका सारा परिवार दक्षिण में चला गया था और आपके हैरान होने के लिए कोई बात नहीं है। आप यहां बीस साल से रह रहे है। समाज में आपकी अपनी ठोस जमीन बन गई है। आपकी जड़े गहरी चली गई हैं।

बीस साल की अवधि बड़ी लम्बी होती है और इस काल में मेरा हृदय प्रतिदिन छटपटाता रहा कि ऐसा संयोग हो जाय कि मैं अपने कुटुम्बियों को देख कसूं या कम-से-कम उनके विषय में कुछ समाचार पा सकूं। बीस वर्षो में एक दिन भी ऐसा नहीं गया, जबकि मेरा दिल टूक-टूक न हुआ हो।

मेरा एक पड़ोसी था, जिसने टोंगडीमन बाजार में काम करके खूब कमाई कर डाली थी। वह उत्तरी कोरिया के एन्ब्योन प्रदेश का था। वह कहा करता था, "भगवान की किसी दिन हम पर दया होगी। एक दिन आयगा जबकि हम अपने नगर में जायंगे और अपने घरवालों से मिलेगे, नहीं तो ऐसे जीने का फायदा क्या है!"

उसने बीस साल तक ब्रह्मचर्य का पालन किया। उसकी स्त्री उत्तरी कारिया में ही रह गई थी। पिछले साल वह दुर्घटना का शिकार हो गया। मरने से पहले उसने कहा था, "मैं प्रभु से कामना करता हूं कि दूसरी दुनिया में ३८वीं पैरेलल न हो" उसका कोई सम्बन्धी यहां नहीं था। वह अकेला था।

क्षमा करेंख्, आज कौनसी ऐसी बात हुई कि अचानक मुझे उसकी याद आ गई? मैं आपको बताऊंगा कि आज वास्तव में हुआ क्या? मेरा एक मित्र है, जिसका नाम है प्योंग-हो वन। आपने शायद उसका नाम सुना होगा। वह पक्षी-विद्या-विशेषज्ञ है। इस देश में वह पक्षियों के विषय में अधिकारी व्यक्ति है। उसका नाम नहीं सुना? खैर, हम दोनों हाई स्कूल में सहपाठी थे।

एक दिन मैं उसका हालचाल जानने के लिए उसके घर गया क्यों कि मुझे बहुत दिनों से उसका कोई समाचार नहीं मिला था। उसकी पत्नी ने बताया कि उसकी तबीयत ठीक नहीं है, वह बिस्तर में पड़ा है। मैनें सोचा कि लाओ, उससे मिलता चलूं! उसकी बीमारी गंभीर नहीं थी। यही फ्ल्यू या और कुछ था।

उस पक्षी-विशेषज्ञ मित्र ने कहा कि सालों से उसकी दिलचस्पी इस बात में रही है कि एक खास किस्म के प्रवासी पक्षी किस तरह अपने को बांट कर उड़ते हैं, घर बनाते हैं, प्रवास की उनकी दिशा क्या होती है और उनके स्वभाव की विशेषताएं क्या हैं, इस शोध के लिए पक्षियों के पैरों में डाला जा सके। आप पूछते हैं कि जापान से क्यों बनावाये? इसलिए कि वे इस देश में नहीं बनते थे।

एक दिन उसने छल्ला डालकर एक प्रवासी चिड़िया को उड़ाया!.... उसका नाम उसने बताया था, पर मैं भूल गया। वह घुमंतू चिड़िया थी। उसने कहा कि जब कभी छल्लेवाली कोई चिड़िया किसी देश के पक्षी-विशेषज्ञ द्वारा पकड़ी जाती थी तो विद्वान के रूप में उस व्यक्ति का कतर्व्य होता था कि सारी जरूरी जानकारी इक्ठ्ठी करके उस प्रयोग के मूल प्रारंभकर्त्ता को भेज दे।

आपको याद है कि कुछ साल पहले यहां इस देश में बत्तख जैसी एक चिड़िया पकड़ी गयी थी, जिसे आस्टिया के एक व्यक्ति ने छोड़ा था। इसी तरह से यह मामला चलता था। जो हो, मेरे मित्र ने जो चिड़िया छोड़ी, कल्पना करो, वह कहां पहुंची? आप कल्पना नहीं कर सकते? वह उत्तरी कोरिया में जा पहुंची। उसने ३८वीं पैरेलल अपने नन्हें-से डैनों से पार कर ली और प्योंग्यांग में जाकर पकड़ी गई।

फिर हुआ क्या? सुनिये। चिड़िया प्योंग्यांग में पक्षी-विद्या-विशारद डा० बन द्वारा पकड़ी गई। इन डा० बन ने सारी आवश्यक सूचनाएं इक्ठ्ठी कीं और जापान में सांके संस्थान को भेजते हुए बदले में पूछा कि उस प्रयोग का आरंभ करने वाला कौन है? क्या आप सोच सकते हैं कि यह डा० बन कौन थे? वह विख्यात पक्षी-विद्याविद डा० हांग-गूवन—मेरे मित्र प्योंग-हों बन के पिता। कह सकते हैं कि पुत्र द्वारा छोड़ी गई चिड़िया उड़कर पिता के सीने से जा लगी।

विश्वास नहीं होता? जी, यह घटना सच है। संयोग होगा? हो सकता है; लेकिन आदमी यह भी तो सोच सकता है कि सारी घटनाओं में संयोग से अधिक भी कुछ हो सकता है।

इन अकल्पनीय घटना का हाल कुछ ही दिन पहले सांके-संस्थान के डाइरेक्टर डा० इन्यू ने मेरे मित्र को भेजा। इस तरह मेरे मित्र को पता चला कि उसके पिता जीवित थे। मेरे मित्र ने बताया कि डा० इन्यू ने चिट्ठी में लिखा, हम इंसान निमार्ण करते हैं और इस प्रकार की त्रासदियों के शिकार हो जाते हैं, क्योंकि हम इंसान हैं। उन्होंने गहरी हमदर्दी दिखाई और उस दिन की आशा व्यक्त की जब हम ऐसी मूर्खताओं को छोड़ देगें। ....पिता और पुत्र कोरिया के युद्ध के दौरान बिछुड़े थे और बीस लम्बे वर्षों के बाद एक चिड़िया के माध्यम से दनका एक प्रकार से पुनर्मिलन हुआ। कितनी बड़ी बात है यह!

माफ कीजिये, मुझे स्वयं इस बारे में बड़ा कुतूहल था और मैंने अपने दोस्त से यही सवाल किया। मेरा अनुमान है, उससके पिता के पास मासाला-भरी एक दुर्लभ किस्म की चिड़िया थी। जब उन्हें प्योंग्यग्र से युद्ध –शरणार्थी होकर भागना पड़ा, वे अपने साथ बराबर उस चिड़िया को रखते रहे। अलग होने के बाद जब-जब मेरे मित्र ने अपने पिता का स्मरण किया, वह मसाला-भरी चिड़िया हमेशा पृष्ठभूमि में रही। शायद यही कारण था कि वह स्वयं एक पक्षी-विद्याविद् बन गया।

जरा सोचिए, एक ही आकाश के नीचे रहनेवाले पिता और पुत्र के बीच सिवा उस प्रवासी चिड़िया की उड़ान के कोई भी सम्पर्क-सूत्र नहीं था।

यह घाटना कुछ ही समय पहले घटी और आज उस पक्षी-विशेषज्ञ ने मुझे बताया कि उसके पिता की मृत्यु हो गई। उत्तर कोरिया से यह समाचार पहले रूस भेजा गया, फिर अमरीका, उसके बाद न्यूजीलैण्ड और तब जापान और अंत में सांके संस्थान के डा० इन्यू ने यह खबर मेरे मित्र को दी। इसमें महीनों लग गये। वे दोनों एक-दूसरे के बहुत ही निकट थे; लेकिन पिता के निधन का समाचार आधी दुनिया का चक्कर लगाकर पुत्र को मिला।

आज दोपहर बाद यह किस्सा मुझे सुनाने के बाद मेरे पक्षी-विद्या-विशारद मित्र ने छत की ओर देखा, लम्बी सांस ली और कहा, "प्रवासी चिड़ियों के लिए कोई सीमा-सरहद नहीं होती।"

जब उसने यह कहा तो मेरे लिए यह दु:ख बर्दाश्त से बाहर हो गया। आप समझ सकते हैं कि अंदर भावनाओं का ज्वार आता है तो आदमी की क्या हालत हो जाती है! मैं अपने दोस्त को खिंचकर यहां नहीं ला सका। इसलिए मैं अकेंला आपकी खोज में दौड़ा।

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