Sunday, December 20, 2009

पत्थर दिल

पत्थर दिल
उससे मेरी पहली मुलाकात स्टाफ बस में हुई थी। ऑफिस में मेरा पहला दिन था। शाम पाँच बजे ऑफिस छूटने पर पहले दिन के डर और संकोच के मिले-जुले भाव लिये मैं बस स्टॉप पर आ खडी हुई थी। अपने नए ऑफिस के नए स्टाफ के साथ चुपचाप मैं बस में बैठ गई। मेंरे सहकर्मियों में युवा पुरूषों की संख्या अच्छी खासी थी।

बस के चलते ही एक कशिश भरी सुरों मे सधी हुई आवाज क़ानों में पडी,
'' हंगामा है क्यूँ बरपा...''
'' अरे तन्मय हंगामा मत मचाओ''
'' कोई और गज़ल...''
फिर कानों में वही कशिश भरी आवाज शहद घोलने लगी।
'' बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी... ''
नाम तो पहले दिन ही उस आवाज़ के मालिक का पता चल गया था किन्तु जब अगले दिन परस्पर परिचय के दौरान उसे देखा तो एकाएक यकीन नहीं हुआ कि विधाता भी अजीब-अजीब प्रयोग कर बैठता है। इतनी मधुर आवाज और चेहरा पत्थर सा, न आँखों में कोई भाव, न होंठों पर कोई मुस्कान, उसपर गहरे काले रंग की स्याही, अनगढे से नक्श। लम्बी-चौडी क़ाया उसे और डरावना सा बनाती थी। कुछ दिनों में ही हम कुछ सहेलियों ने उसका नामकरण ही पत्थर दिल कर दिया,हालांकि उसके दिल से हमारा कोई लेना-देना न था, बस मजाक बनाने के इरादे से।

धीरे-धीरे नई नौकरी और इसकी व्यस्त दिनचर्या की मैं अभ्यस्त होने लगी और पत्थर दिल की बदसूरती से भी अब उतनी शिकायत न रही। बल्कि बस में जब भी उसकी सुमधुर आवाज सुनाई नहीं देती तो लगता कहीं कुछ अधूरा छूट गया हो।

काले स्याह पत्थर दिल के व्यक्तित्व का एक उजला पहलू तब सामने आया, जब एक दिन हमारे विभाग के सेक्शन ऑफिसर शर्मा जी ने टाइपिस्ट नीता को कुछ जरूरी कागज टाइप करवाने के बहाने पाँच बजे के बाद भी रोकना चाहा। शर्मा जी के रसिक स्वभाव से कौन परिचित न था! कर्कशा पत्नि की उपेक्षा और छूटती उम्र, धन की अधिकता ने उन्हें अय्याश प्रवृत्ति का बना डाला था। ऐसे में नीना का अकेला देर शाम तक रुकना अच्छा संकेत न था। एकान्त में शर्मा जी का साथ किसी भी लडक़ी को असुरक्षित करने के लिये काफी था। पर बेचारी नीना ना भी कैसे करती, एक तो पूरे घर की एकमात्र कमाऊ सदस्य उस पर अस्थाई नौकरी। जब ऑफिस छूटा और हम सब अपर्नेअपने पर्स संभालने लगे, अचानक पत्थर दिल सामने आ गया।
'' अगर नीता रुकेगी तो हम सब भी रुकेंगे। हमें देर तक एक लडक़ी को यहाँ अकेला कैसे छोड सकते हैं? '' पर बस मैं ने प्रतिवाद किया, '' बस भी रुकेगी। हम सब साथ ही जाएंगे। ''
'' मैं हूँ ना, नीता को मैं छोड दूँगा।'' शर्मा जी ने व्यवधान डाला।
'' इतना ही जरूरी काम है तो खाली नीता क्यों हम भी सहायता करवा देते हैं। ''
वह अड ग़या, अन्तत: शर्मा जी ने हथियार डाल दिये।

बाद में नीता ने बताया कि बाद में भी वह अंगरक्षक की तरह शर्मा जी और उसके बीच घूमता रहा था। लेकिन उसके विषय में फैली वे कहानियाँ? हमें क्या? मैं पत्थर दिल की मानवीयता से प्रभावित हो उठी थी, उसकी आवाज क़ी कायल तो पहले ही से थी। हमारा परिचय मित्रता में ढल पाता उससे पहले ही राहुल ने मेरे पास की सीट पर बैठना शुरू कर दिया। मोहक व्यक्तित्व वाले राहुल के समक्ष पत्थर दिल का वजूद फिर फीका पड ग़या और राहुल और मेरा परिचय न जाने कब अपनी सीमा लांघ गया और मैं उसे परम आत्मीय मान बैठी। अल्पायु में माँ की मृत्यु, पिता का दूसरा विवाह , उनके उपेक्षित व्यवहार ने जहाँ मुझे परिश्रम कर अपने पैरों पर खडा होने की प्रेरणा दी वहीं मुझे प्रेम व स्नेह का भूखा बना दिया था। मैंने राहुल के स्नेह को किसी बहुत तृषित की भाँति आँचल में समेट लेना चाहा। मेरे शुष्क मरूस्थल से जीवन में वह बरसात की पहली बौछार की तरह आया था।

जब भी मैंने तन्मय को राहुल के अंतरंग मित्र की तरह पाया तो न जाने क्यों मैं ईष्या से भर गई,वह जब राहुल के कंधों पर हाथ रख बतियाता मैं चिढ ज़ाती और इस बात को लेकर राहुल से झगड पडती और उसके बारे में फैली बुरी बातों का जिक़्र करती। इस पर वह हँस कर उन बातों का खण्डन करता। फिर भी मैं दीवानी सी राहुल और मेरे प्रेम पर उसकी मनहूस परछाइयाँ नहीं पडने देना चाहती थी। राहुल के माध्यम से ही उसके जीवन के सारे तथ्य मेरे सामने उजागर हुए।

बचपन में ही एक दुर्घटना में ही तन्मय अपने मार्तापिता खो चुका था और तब से अब तक अपने भैया-भाभी पर निर्भर रहा किन्तु माता-पिता की जगह कौन ले सकता है यह बात मुझसे बेहतर कौन जान सकता था? मेरे जैसे ही स्नेह विहीन उसके भी जीवन में बसंत बयार सी एक प्रेयसी आई थी। किन्तु शीघ्र ही उस देवदूत से मन वाले काले-कलूटे तन्मय के जीवन का संघर्ष उस पर स्पष्ट हो गया और उसने तन्मय के साथ कंटीली राह पर चलने के स्थान पर सुख-सुविधा पूर्ण जीवन चुन लिया। शहर के नामी स्मगलर चौहान के पुत्र से उसका विवाह हो गया। तन्मय टूट गया और उसका व्यवहार बहुत विद्रोही किस्म का हो गया। राहुल उसका अच्छा मित्र है शायद राहुल का शान्त-मीठा व्यवहार उसके जख्मों पर मरहम रखता हो।

बीतते-बीतते राहुल के प्रेम में मेरे दो साल न जाने कहाँ उड ग़ए। प्रेम में समर्पण की कोई सीमा मैंने नहीं छोडी। अपना सबकुछ उस पर उंडेल दिया। प्रेम में सब कुछ समर्पित करने के आगे सम्बधों को किसी व्यापक व्याख्या की आवश्यकता नहीं रह जाती है। राहुल की बडी बहन के विवाह के बाद हमारा विवाह होना भी लगभग तय हो गया था। मेरे उत्साह में प्रसन्नताओं के पंख लग गये थे। अगर हर व्यक्ति की अभिलाषाएं पूर्ण हो जाएं तो संसार में अच्छी वेदना भरी काव्य रचनाओं का सृजन ही न हो। उस पर मेरा भाग्य तो विधाता के हाथों आँख पर पट्टी बाँध कर लिखा था।

अपनी सगाई की सूचना चाहे राहुल मेरा हृदय टूटने के भय से न बता सका हो किन्तु ऑफिस में मेरी ही सखियों ने रस ले ले कर बताई थी। तभी तन्मय खामोशी से मुझे बडी बेचारगी से देखा करता और में उसकी उस गूढ दृष्टि का अर्थ समझ ही नहीं पाई थी। राहुल की सगाई उसकी बडी बहन के अच्छे घर में रिश्ते के लिये किसी पारस्परिक समझौते के तहत एक उद्योगपति की अति साधारण कन्या से हुई थी। इसका प्रमाण एक भव्य समारोह के आमन्त्रण पत्र द्वारा हम सभी को मिल गया।

इस वज्रपात को मन पर तो झेल लिया मैंने किन्तु शरीर से झेल न सकी और जब दो माह की मेडिकल लीव के बाद ऑफिस लौटी तो हार्लचाल पूछने राहुल ही नहीं आया। ठीक है नहीं हुआ उससे संभव इस संबंध का निर्वहन तो बता देता उसके मुख से उसकी विवशता सुन मैं स्वयं मुक्त कर देती उसे। और अब चेहरा छुपाने का औचित्य? बाद में पता चला उसने अपना स्थानान्तरण शहर की दूसरी ब्रांच में करवा लिया था।

मैंने अपने लगातार गिरते स्वास्थ्य के कारण अपनी छुट्टियाँ बढा ली थी। यूँ भी ऑफिस में सहकर्मियों की उपहास उडाती दृष्टि सहन नहीं कर पाती थी मैं। इतने बडे स्टाफ में से बस नीता और पत्थर दिल ही मुझे देखने घर आए। पत्थर दिल की आत्मीय सांत्वना से इतने दिन का रोका आक्रोश और वेदना का बाँध टूट गया और मैं उस दिन जी भर कर रोई, उस रुदन में पत्थर दिल के प्रति दुर्भावना की ग्लानि भी थी। वह चुपचाप मुझे रोते देखता रहा, बस चलते समय बोला,
'' अंजलि जी, बहुत से स्वप्न टूटते और अपने आत्मीयों को दूर होते देखा है मैं ने पर जीवन कभी थमता नहीं जो लोग दुखों से ठिठक कर रुक जाते हैं उनके साथ कोई नहीं रुकता, अब आप भी उठिये और फिर से जीवन की डोर थाम लीजिये। राहुल पर गुस्सा मुझे भी आया था दोस्त न होता तो पर जाने दीजिये प्रेम में जबरदस्ती तो नहीं होती ना। ''
बदनामी तो बहुत हुई थी राहुल के साथ हदें पार कर लेने की वजह से पर जब दो व्यक्ति प्रेम में हों तब उन्हें अन्य लोग दिखाई ही कहाँ देते हैं, उस पर अन्धा विश्वास कि राहुल तो मेरा ही है। पापा ने मेरी शादी के प्रयास करना आरंभ कर दिये, किन्तु कहीं बात नहीं बन पा रही थी । मैं ने ऑफिस फिर से जॉइन करने की ठान ली, इसमें पत्थर दिल की बातों का असर था।

पहले ही दिन जब बस में चढी तो एक फिकरा सुनाई दिया, '' राहुल न सही हमें आजमा लो। ''

मैं वेदना और क्षोभ से काँप कर रह गई। तभी अचानक एक कोलाहल के साथ लातों-घूंसों की आवाज सुनाई दी। मैंने पीछे मुड क़र देखा। वही था। यह पत्थर दिल से मेरा तीसरा परिचय था।

उस रात देर तक उसके बारे में सोचती रही। याद आ रहा था एक बार वह मेरे और राहुल के साथ कैन्टीन में बैठा था और बोल बैठा था कि,
'' यार लकी होते हैं वो जिनका कोई बेहद अपना होता है। यहाँ तो अपनी जन्मपत्री में एक भी अपना नहीं लिखा। ''
'' कौन थी वो राहुल से रहा न गया था। ''
'' वह अब किसी की पत्नि है। उसका नाम लेना व्यर्थ है। ''
नहीं, वह पत्थर दिल नहीं हो सकता। एक वह जो अपनी प्रेयसी का नाम तक भी अब छूकर मलिन नहीं करना चाहता और राहुल मानवता के रिश्ते से भी कभी मुडक़र देख न सका। पत्थर दिल कौन है सही मायनों में?
फिर मैं एक निश्चय और पत्थर दिल नहीं तन्मय का खयाल मन में ले अरसे बाद सुख की नींद सोई।
आज तन्मय से मेरी सगाई है। एक बार मजाक में मैंने उसे बताया कि हम उसे पत्थर दिल कहते थे तो वह हँस पडा था और अब जब भी फोन करता है तो कहता है,
'' मैं तुम्हारा पत्थरदिल.... ''
- अलका कुलश्रेष्ठ
जनवरी 15, 2001

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